कृष्ण क्रिया कैवल्य part3
नाम
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कैसे करना
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पद्धति
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तंदुरुस्ती पर प्रभाव्
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प्राण
मुद्रा
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कनिष्ठा तथा अनामिका अंगुलियों के
अग्रभाग को अंगुठें के अग्रभाग से मिलाए।
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शरीर की दुर्बलता दूर करना, मन की शांति, आंखों के दोषों को दूर करना, शरीर की रोगनिरोधक शक्ति बढाना, विटमिनो की कमी को दूर करना, थकान दूर करना शरीर और आँखों की चमक
बढती है।
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अपान मुद्रा
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तर्जनी अंगुली को अंगुठें के मूल मे
लगाऐ, मध्यमा और अनामिका अंगुलियों को
अंगुठें के अग्रभाग से मिलाऐ।
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हृदय को ताकत मिलती है, दिल का दौरा पडते ही तुरंत यह मुद्रा
करने से आराम मिलता है, सिरदर्द, दमे के शिकायत को ठीक करना, उच्च रक्तचाप(high blood pressure)मे फायदा होना।
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लिंग मुद्रा
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मुट्ठी बाँधे और अंदर के अंगुठें को खडा रखे, अन्य अंगुलियों को बंधी हुई रखे।
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गर्मी बढाना, सर्दी, जुकाम, दमा, खाँसी, सायनस, और निम्न रक्तचाप (low Blood Pressure) मे फायदा होना।
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ज्ञान मुद्रा
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अंगुठें को तर्जनी अंगुली के सिरे से
लगा दे। शेष तीन अंगुलिया सीधी रखें।
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स्मरण शक्ति वृद्धि,
ज्ञान की वृद्धि, पढने
मे मन लगना, मस्तिष्क के स्नायु मजबूत होना, सिरदर्द दूर होना, अनिद्रा का नाश, स्वभाव परिवर्तन, अभ्यास शक्ति आना, क्रोध का नाश।
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शून्य मुद्रा
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मध्यमा अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के
मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।
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कान नाक और गले के रोगों को दूर
करना (Removes
all types of
ENT problems), मसूढे की पकड मजबूत करना और थाँयराईड
रोग मे फायदा होता है।
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वायु मुद्रा
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तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ
के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया
सीधी रखें।
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वायु शाँति, लकवा, सयटिका, गठिया, संधिवात, घुटने के दर्द मे फायदा, गर्दन के दर्द मे फायदा., रीढ के दर्द मे फायदा, और पार्किसंस रोग मे फायदा ( Parkinson's disease) होता है।
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सूर्य मुद्रा
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अनामिका अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के
मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।
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शरीर संतुलित होना, वजन घटना, मोटापा कम होना, उष्णता वृद्धि,
कोलोस्ट्रोल मे कमी (control bad Cholesterol), मधुमेह और लिवर रोग मे फायदा (Diabetes and Liver-related problems) , तनाव मे कमी (body tension )
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पृथ्वी मुद्रा
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अनामिका अंगुलि को अंगुष्ठ से लगायें
और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।
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शरीर मे स्फूर्ति , काँति और तेजस्विता आना, दुर्बल को मोटा बनाना, वजन बढाना, जीवनी शक्ति वृद्धि, दिमाग मे शांति और विटमिनो की कमी को
दूर करना।
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वरुण मुद्रा
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कनिष्ठा अंगुलि को अंगुष्ठ से लगाए और दबाए।
शेष अंगुलिया
सीधी रखें।
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रूखेपन की कमी और चिकनायी मे वृध्दि, चर्म मे मृदुत्व होना, मुँहासों को नष्ट करना और चहरे मे
सुंदरता का बढाना रक्त विकर और जलतत्व की कमी से उत्पन्न रोगों को दूर करने मे
लाभकारी है।
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निम्नलिखित प्राणायाम पद्धतियाँ करने से समाधि एवं
परिपूर्ण आरोग्य मिलता है! कर्मसिद्धांत तो रहेगा ही, फिर भी हर रोज नियमानुसार अभ्यास करने से असाध्य
बीमारियों से मुक्त हो सकते है! यहा मै यह भी कहना चाहुँगा कि सिर्फ सिद्दांत को
पढ्कर या यह पुस्तक पढ्कर रख देने से उचित लाभ नही होगा, इसके लिये आप लोगो को नीचे बताई
गई क्रियाए नियमित रुप से करने पर लाभ अवश्य होगा! क्रिया करके स्वानुभव प्राप्त करो
!
हर एक क्रिया के पहले नीचे दिए हुए पाइंट्स याद रखे!
मेरुदंड के नीचे मलद्वार मे मूलाधार, मूत्रद्वार के पीछे स्वाधिस्ठान, नाभी के पीछे
मणिपुर, हृदय के पीछे अनाहत, गले मे विशुद्ध, मेडुल्ला केंद्र मे आज्ञा नेगटिव चक्र और कूटस्थ मे आज्ञा
पाजिटिव चक्र स्थित है! केवल आज्ञाचक्र के ही पाजिटिव नेगटिव होते है, बाकी चक्रो के
पाजिटिव नेगटिव नही होते है! सिर मे उपर की तरफ ब्रह्मरंध्र मे सहस्रार चक्र होता
है!
प्रत्येक मनुष्य शरीर मे 72,000 सूक्ष्म नाडीयाँ होती है! इन नाडीयाँ मे इडा ( बाये
तरफ), पिंगला दाये तरफ और बीच मे सुषुम्ना नाडी मेरुदंड मे होती है! इडा(गंगा), पिगला (यमुन)और
सुषुम्ना(सरस्वती)ये तीनों मेरुदंड मे मूलाधारचक्र से शुरु होकर आज्ञा पाजिटिव
चक्र तक जाती है! आज्ञा पाजिटिव से सिर्फ सुषुम्ना नाडी आगे बढकर सहस्रार चक्र मे
रुक जाती है!
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए!
अंगुठें को तर्जनी अंगुली के सिरे से लगाए। शेष तीन अंगुलिया सीधी रखें।पूरब दिशा
अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए!
शरीर को थोडा ढीला रखीए!
अपनी तर्जनी अंगुली को दोनों आँखों के मध्य मे रखिए! अब आहिस्ता-आहिस्ता इस
अंगुली को उपर की और उठाते हुवे देखते रहिए जहाँ अंगुली का सिरा अदृश्य हो वही अपनी
दृष्टी बैठाईए! अंगुली को आँखों के उपर से हटा लीजिए! इसी को कूटस्थ मे द्रष्टि
बैठाना कहते है!
एक श्वास लेने और छोडने को एक हंस कहते है!
अरोग्यवान मनुष्य 24 घंटों मे 21,600 अथवा 15 हंस एक मिनट मे करते है! योगी एक मिनट मे 15 से
कम हंस, और रोगी 15 से बहुत ज्यादा हंस करते
है! कोई भी मनुष्य 24 घंटों मे जितने कम हंस करता है उतना ही अच्छा योगी बनता है!
सभी साधकों का ये ही लक्ष्य होता है!
सम का अर्थ लय होना, अधि का अर्थ परमात्मा मे यानि परमात्मा मे लय होना ही समाधि
है! समाधि मिलने के बाद और क्रिया करने की आवश्यकता नही है! समाधि मिलने तक दीर्घ
हंस यानि लंबा श्वास निश्वास करना चाहिये! श्वास और निश्वास के बीच मे कुछ समय
रखना या नही रखना साधक की मर्जी है! संदेहास्पद यानि मै परमात्मा को पाऊंगा नही
पाऊंगा को संप्रज्ञात समाधि कहते हैं संदेहरहितसमाधि को असंप्रज्ञातसमाधि कहते है!
कुंडलिनी जागृत होने के बाद जैसे जैसे
चक्रों मे आगे बढती है वैसे वैसे संदेहनिर्मूलन होता जाता है! मूलाधार मे 80%, स्वाधिस्ठान मे
60%, मणिपुर मे 40%, अनाहत मे 20% संदेह रहता है! कुंडलिनी को विशुद्धचक्र तक
पहुंचने कॆ बाद संदेहरहित असंप्रज्ञातसमाधि मिलती है!
ध्यान का अर्थ कूटस्थ मे दृष्टि रखना और सहस्रारचक्र मे मन को लगाना! कोई भी
मंत्त्रोच्चारण नही करना चाहिये! श्वास पर ध्यास ही ध्यान है! जैसे मोटारगाडी
चलाते समय दृष्टि सामने और मन ब्रेक वगैरह पर लगाना होता है वैसे ही चक्रध्यान कॆ
समय मे कूटस्थ मे दृष्टि रखना, मन को जिस चक्र मे ध्यान कर रहे हो उस चक्र मे रखना और उस
चक्र पर तनाव डालना!
मुख्य प्राणायाम पद्धतियाँ:----
1) तनाव, उदासी, मायुसी हटाने की क्रिया
एक हंस = एक श्वास और एक निश्वास
अ) अवचेतनावस्थ या निद्रावस्थ या स्वपनावस्थ
5 मिनिट तक अपनी गरदन झुकाकर या मोडकर ध्यान करे! श्वास को लंबा या दीर्घ समय
तक रोकने की कोशिश करनी चाहिये! एक श्वास लेने और छोडने को एक हँसा कहते है! एक
हँसा और दूसरे हँसा के बीच मे जितनॆ समय तक स्वास रोक सकते है अपनी-अपनी शक्ती के
अनुसार रोकना चाहिये!
आ)चेतनावस्थ या जाग्रतावस्था ;
10 मिनिट तक अपनी गरदन सीधी रख के ध्यान करे! श्वास को लंबा या दीर्घ समय तक
रोकने की कोशिश करनी चाहिये!
इ)सुषुप्ति अवस्था या तुरीय अवस्था ;
15 मिनिट तक अपनी गरदन पीछे मोड के ध्यान करे! स्वास को लम्बा या दीर्घ समय तक
अपनी क्षमतानुसर रोकने की कोशिश करनी चाहिए!
ये समस्त प्राणायाम क्रियाए साधक को अमित आनंद प्रदान करती है! तनाव, उदासीपन, अनिद्रा और थकान
को दूर करती है! ज्ञापकशक्ति(स्मरणशक्ति) मे बढौती होगी खास करके विद्यार्थियों के
लिए बहुत लाभदायक है! आँखों के नीचे के कालेपन को भी दुर करती है!
2) गुरुवों का आह्वान
अ) सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! कूटस्थ मे
दृष्टि रखिये! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए! शरीर को थोडा
ढीला रखीए!
अब मन ही मन बोलीए...........
ॐ श्रीकृष्ण आइये मेरे हृदयमंदिर मे बैठिये,
ॐ श्रीक्रैस्त आइये मेरे हृदयमंदिर मे बैठिये,
ॐ महावतार बाबाजी आइये मेरे हृदयमंदिर मे बैठिये,
ॐ श्रीलाहिरि महाशय आइये मेरे हृदयमंदिर मे बैठिये,
ॐ
श्रीयुक्तेश्वरजी आइये मेरे हृदयमंदिर मे बैठिये,,
ॐ गुरु
श्रीयोगानंदस्वामी आइये मेरे हृदयमंदिर मे बैठिये,,
ॐ परमात्मा आइये
मेरे हृदयमंदिर मे बैठिये, आपका नामस्मरण हर पल करने का वरदान दीजिए, मुझको आपके प्रति
श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, आप्यायता, गौरव, भरोसा, नम्रता, विनय, और विश्वास हमेशा बना रहे ऐसा वरदान प्रदान कीजिए,
ॐ दिव्य गुरुलोग
आइये मेरे हृदयमंदिर मे बैठिये, आपका नामस्मरण हर पल करने का वरदान दीजिए, मुझको आपके प्रति
श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, आप्यायता, गौरव, भरोसा, नम्रता, विनय, और विश्वास हमेशा बना रहे ऐसा वरदान प्रदान कीजिए !
अब 5 मिनिट ध्यान करे, अगर समय हो तो ध्यान जीतना ज्यादा हो कर सकते है! गुरुवों
के आशिषों के कारण साधक को मनःशांति, आत्मसंतृप्ति मिलती है और विचारधारा सात्वीक हो जाती है!
3) ज्ञानेंद्रियों के व्यापार को बंद करना---ज्ञानेंद्रिय शक्ति प्रदान
क्रियाए........
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! अनामिका अंगुलि के
आग्रभाग
को अंगुष्ठ के आग्रभाग
से लगाए
और दबाए। शेष अंगुलिया
सीधी रखें। कूटस्थ मे दृष्टि रखीए! मन जिस चक्र मे ध्यान कर रहे है उस चक्र मे
रखिए और उस चक्र मे तनाव डालिए! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए!
शरीर को थोडा ढीला रखीए!
मूलाधार चक्र पर तनाव डालकर पृथ्वीमुद्रा लगाए! अनामिका अंगुलि को अंगुष्ठ से
लगायें और
दबाए। शेष अंगुलिया
सीधी रखें। मूलाधार चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मूलाधारचक्र मे तनाव डालिए! 4 बार
लंबा श्वास लेवे और छोडे! यानि चार दीर्घ
हंसा लीजिए! मूलाधारचक्र पृथ्वी तत्व का प्रतीक है! पृथ्वी तत्व गंध को प्रदर्शित
करता है! इस का तात्पर्य है नाक बंद हो गई एवम मुलाधारचक्र का करंट उपसंहरण होकर
सुषुम्ना द्वारा सहस्रार चक्र मे पहुंच जाता है! अब स्वाधिस्ठानचक्र मे जाए, वरुणमुद्रा लगाए!
कनिष्ठा
अंगुलि के आग्रभाग को अंगुष्ठ के आग्रभाग से लगाए और दबाए। शेष
अंगुलिया सीधी रखें।स्वाधिस्ठानचक्र पर तनाव डालिये! छः बार लंबा श्वास लेवे और
छोडे! अब स्वाधिस्ठानचक्र मे मन लगाए,
कूटस्थ मे दृष्टि रखे! स्वाधिस्ठानचक्र वरुण तत्व का प्रतीक है! वरुण तत्व रस या
रुचि को प्रदर्शित करता है! इस का तात्पर्य है जीभ बंद हो गई एवम स्वाधिस्ठानचक्र
का करंट उपसंहरण हो कर सुषुम्ना द्वारा सहस्रार चक्र मे पहुंच जाता है!
अब मणिपुर चक्र मे चले! अग्नि या सुर्यमुद्रा मे बैठे! अनामिका अंगुलि को मोडकर अंगुष्ठ के मूल भाग से
लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी
रखें।मणिपुरचक्र पर तनाव डालिये! 10 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! अब मणिपुरचक्र
मे मन लगाकर कूटस्थ मे दृष्टि रखे!
मणिपुरचक्र अग्नि तत्व का प्रतीक है! अग्नि तत्व रूप या द्रष्टि को
प्रदर्शित करता है! इस का तात्पर्य है आँख बंद हो गई एवम मणिपुरचक्र का करंट
उपसंहरण होकर सुषुम्ना द्वारा सहस्रार चक्र मे पहुंच जाता है! अब अनाहतचक्र मे चले
एवम वायुमुद्रा मे बैठे! तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए।
शेष अंगुलिया सीधी रखें।अनाहत चक्र मे तनाव डालिये! 12 बार लंबा श्वास लेवे और
छोडे! अब अनाहतचक्र मे मन लगाकर कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अनाहतचक्र वायु तत्व का प्रतीक है! वायु तत्व
स्पर्श या त्वचा को प्रदर्शित करता है! इस का तात्पर्य है त्वचा बंद हो गई एवम
अनाहतचक्र का करंट उपसंहरण हो कर सुषुम्ना द्वारा सहस्रार चक्र मे पहुंच
जाएगा! अब विशुद्ध चक्र मे चले और शून्य
या आकाशमुद्रा मे बैठे!मध्यमा अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल भाग मे लगाए और
दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।विशुद्धचक्र पर तनाव डाले! 16 बार लंबा श्वास लेवे
और छोडे! अब विशुद्ध चक्र मे मन लगाकर
कूटस्थ मे दृष्टि रखे! विशुद्धचक्र आकाश तत्व का प्रतीक है! आकाश तत्व शब्द या
सुनने को प्रदर्शित करता है! इस का तात्पर्य है कान बंद हो गया और विशुद्धचक्र का
करंट उपसंहरण हो केर सुषुम्ना द्वारा सहस्रारचक्र मे पहुंच जाएगा!
अब विशुद्धचक्र मे ही मन लगाके इसी शून्य मुद्र मे बैठे! 16 बार लंबा श्वास
लेवे और छोडे! विशुद्धचक्र पर से तनाव छोड देवे! इस का मतलब शब्द या कान फिर से
चालू हो गया!
अब अनाहत चक्र मे जाकर वायुमुद्र मे बैठीए!
तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष
अंगुलिया सीधी रखे! अनाहत चक्र मे तनाव डालिये! 12 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे!
अब अनाहतचक्र मे मन लगाकर कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अनाहतचक्र पर तनाव छोड देवे! इसका मतलब स्पर्श या त्वचा
फिर से चालू हो गए!
अब मणिपुर चक्र मे चले! अग्निमुद्रा मे बैठे! अनामिका अंगुली
को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। मणिपुर चक्र मे
तनाव डालिये! 10 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! अब मणिपुरचक्र मे मन लगावे,
कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मणिपुरचक्र पर से
तनाव छोड देवे! इसका मतलब रूप या आँख फिर से चालू हो गए!
अब स्वाधिस्ठान चक्र मे जाए! वरुणमुद्र मे बैठे! कनिष्ठा अंगुलि को अंगुष्ठ से लगाए और दबाए। शेष
अंगुलिया सीधी रखें। स्वाधिस्ठानचक्र मे तनाव डाले! 6 बार लंबा श्वास लेवे और
छोडे! अब स्वाधिस्ठानचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! स्वाधिस्ठानचक्र
पर से तनाव छोड देवे! इसका मतलब रस या जीभ फिर चालू हो गए!
अब मूलाधारचक्र मे जाए! पृथ्वीमुद्रा मे बैठे!
अनामिका अंगुलि
के अग्रभाग को अंगुष्ठ
के अग्रभाग से लगाए
और दबाए। शेष अंगुलिया
सीधी रखें। मूलाधारचक्र पर तनाव डालिए! 4 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! अब
मूलाधार चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे!
मूलाधारचक्र पर से तनाव छोड देवे, इसका मतलब गंध या नाक फिर से चालू हो गए!
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध फिर से चालू हो गए!
नियमित रुप से ये क्रियाए करने से समस्त इंद्रियों की शक्ति मे अभिवृद्धि होती
है! ये प्राणायाम पद्धतियाँ इंद्रियो की समस्त नकारात्मकता को समाप्त कर सकारात्मक
क्रियाओ को फिर से चालु कर देती है!
4) चक्रों मे ओंकारोच्चारण क्रिया
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगा कर बैठिए! अनामिका अंगुलि के
आग्रभाग
को अंगुष्ठ के आग्रभाग
से लगाए
और दबाए। शेष अंगुलिया
सीधी रखें।कूटस्थ मे दृष्टि रखीए! मन को जिस चक्र मे ध्यान कर रहे है उस चक्र
मे रखिए और उस चक्र मे तनाव डालिए! पूरब
दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए!
शरीर को थोडा ढीला रखीए!
मूलाधार चक्र पर तनाव डालकर पृथ्वीमुद्रा लगाए! अनामिका अंगुलि को अंगुष्ठ से
लगायें और
दबाए। शेष अंगुलिया
सीधी रखें। मूलाधार चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अब मूलाधार चक्र मे एक लंबा श्वास
लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे!
मूलाधार चक्र के तनाव को छोड देवे!
अब स्वाधिस्ठानचक्र मे चले! वरुणमुद्रा मे बैठकर इसी चक्र
पर तनाव डाले! कनिष्ठा अंगुलि
के आग्रभाग को अंगुष्ठ के आग्र भाग से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।
स्वाधिस्ठानचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! स्वाधिस्ठानचक्र मे एक लंबा श्वास
लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे!
स्वाधिस्ठान चक्र पर के तनाव को छोड देवे!
अब मणिपुरचक्र मे चले! अग्निमुद्रा मे बैठकर इसी चक्र पर तनाव
डाले! अनामिका अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी
रखें।
मणिपुर चक्र मे तनाव डालिये! मणिपुर चक्र मे एक बार लंबा श्वास लेते हुवे मन
ही मन ओंकारोच्चारण करे! मणिपुरचक्र मे मन को लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि
रखे मणिपुर चक्र पर के तनाव को छोड देवे!
अब अनाहत चक्र मे जाए,
वायुमुद्र मे बैठॆ एवं इसी चक्र मे तनाव डालकर बैठे! तर्जनी अंगुली को
मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। अनाहतचक्र पर तनाव
डाले! अनाहत चक्र मे एक लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे! अब
अनाहतचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अनाहतचक्र पर के
तनाव को छोड देवे! अब
विशुद्धचक्र मे चले! शून्य या आकाश मुद्रा मे बैठकर इसी चक्र पर तनाव डाले! मध्यमा
अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।विशुद्ध
चक्र पर तनाव डालिये! इसी चक्र मे एक लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण
करे! अब विशुद्धचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ
मे दृष्टि रखे! विशुद्धचक्र पर के तनाव को छोड देवे! अब आज्ञा नेगटिवचक्र मे
जाए! ज्ञानमुद्र मे बैठना! इस चक्र मे तनाव डाल के बैठे! अंगुठें को तर्जनी अंगुली
के सिरे से लगा दे। शेष तीन अंगुलिया सीधी रखें।
आज्ञा नेगटिव मे तनाव डालिये! अब इसी चक्र मे एक लंबा श्वास
लेते हुए मन ही मन ओंकारोच्चारण करे! अब आज्ञा नेगटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ
मे दृष्टि रखे! आज्ञा नेगेटिव चक्र पर के तनाव को छोड देवे!
अब आज्ञा पाजिटिव चक्र मे जाए! ज्ञानमुद्र मे ही बैठे! इस चक्र
पर तनाव डाले! अंगुठें को तर्जनी अंगुली के सिरे से लगा दे। शेष तीन अंगुलिया सीधी
रखें।
आज्ञा पाजिटिव मे तनाव डालिये! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे एक बार लंबा श्वास लेते
हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे! अब
आज्ञा पाजिटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! आज्ञा पाजिटिव चक्र पर के तनाव को
छोड देवे!
अब आज्ञा पाजिटिव चक्र मे ही रहे! ज्ञान मुद्र मे ही बैठे! आज्ञा पाजिटिव मे
तनाव डालिये! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे एक लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन
ओंकारोच्चारण करे! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि
रखे! आज्ञा पाजिटिव चक्र पर के तनाव को छोड देवे!
अब आज्ञा नेगटिव चक्र मे जाए! ज्ञान मुद्रा मे ही बैठे! इस चक्र पर तनाव डालकर
बैठे! आज्ञा नेगटिव चक्र मे एक बार लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण
करे! अब आज्ञा नेगटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! आज्ञा नेगटिव चक्र पर के तनाव को छोड
देवे!
अब विशुद्ध चक्र मे जाए! शून्य या आकाश मुद्रा मे बैठे!मध्यमा अंगुली को मोडकर
अंगुष्ठ के मूल
मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। विशुद्ध चक्र मे तनाव डालिये!
विशुद्ध चक्र मे एक लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे! अब विशुद्ध
चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! विशुद्ध चक्र पर के तनाव को छोड
देवे!
अब अनाहत चक्र मे जाए! वायु मुद्रा मे बैठे! तर्जनी अंगुली को
मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। अनाहत चक्र मे
तनाव डालिये! अनाहत चक्र मे एक बार लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण
करे! अब अनाहत चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अनाहत चक्र पर के
तनाव को छोड देवे!
अब मणिपुरचक्र मे जाए! अग्नि मुद्रा मे बैठे! अनामिका अंगुली
को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। मणिपुरचक्र मे
तनाव डालिये! मणिपुर चक्र मे एक बार लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण
करे! मणिपुरचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मणिपुरचक्र पर के
तनाव को छोड देवे!
अब स्वाधिस्ठानचक्र मे जाए! वरुण मुद्रा मे बैठे! इस चक्र पर
तनाव डाले ! कनिष्ठा अंगुलि को अंगुष्ठ से लगाए और दबाए। शेष
अंगुलिया सीधी रखें। स्वाधिस्ठानचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! स्वाधिस्ठानचक्र मे एक लंबा श्वास लेते
हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे! स्वाधिस्ठान चक्र मे तनाव छोड देवे!
मूलाधारचक्र पर तनाव डाले! पृथ्वी मुद्रा मे बैठे! अनामिका अंगुलि को अंगुष्ठ
से लगायें और
दबाए। शेष अंगुलिया
सीधी रखें। इसी चक्र पर तनाव डाकर बैठे! मूलाधारचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि
रखे! मूलाधारचक्र मे एक लंबा श्वास लेते हुए मन ही मन ओंकारोच्चारण करे!
मूलाधारचक्र पर के तनाव छोड देवे!
मूलाधरचक्र से ओंकारोच्चारण करते हुवे आज्ञा पाजिटिव्र चक्र तक को आधी प्रक्रिया
कहते है! मूलाधरचक्र से ओंकारोच्चारण करते हुवे आज्ञा पाजिटिव चक्र तक जाकर फिर
मूलाधरचक्र तक वापस आने को एक प्रक्रिया कहते है! ऐसी साढे पाँच प्रक्रिया समाप्त
करने के पश्चात कूटस्थ मे गहन ध्यान लगाकर बैठना चाहिये! ओंम शब्द सुनाई देने पर
उस ओंम शब्द मे ही मन को लगा के बैठे अथवा प्रकाश दिखाई देने पर उस प्रकाश मे ही
मन को लगा के बैठे!
ये प्राणायाम क्रियाए चक्रों को धो डालती है और उन चक्रो से संबंधित अंगों के
नुक्स को निकालर आरोग्यवंत करके शक्ति प्रदान करती है!
5) संचित कर्म दग्ध
करने की क्रिया
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगा के बैठिए! अनामिका अंगुलि के
आग्रभाग
को अंगुष्ठ के आग्रभाग
से लगाए
और दबाए। शेष अंगुलिया
सीधी रखें। कूटस्थ मे दृष्टि रखीए! मन को जिस चक्र मे ध्यान कर रहे है उस चक्र
मे रखिए और उस चक्र पर तनाव डालिए! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके
बैठिए! शरीर को थोडा ढीला रखीए!
लिंग मुद्रा मे बैठे!
सहस्रार मे तनाव डाले! मुट्ठी
बाँधे और अंदर के अंगुठें को खडा रखे, अन्य अंगुलियों को बंधी हुई रखे।
सहस्रारचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि
रखे! सहस्रारचक्र मे 108 बार लंबा श्वास लेते
हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे! सहस्रारचक्र
मे ओंकारोच्चाण करते समय संचित कर्मों को अच्छे हो या बुरे उन कर्मों को
परमात्मा को अंकित भाव से सहस्रार यानि ज्ञानाग्नि गुंड मे तीन बार हृदय से निकाल
के ‘’ओं स्वाहा’’ बोलते हुवे समर्पित करे!
ये प्राणायाम क्रियाए साधक के संचित कर्मों को जला के भस्म कर देती है! समाधी
का अनुभव भी प्राप्त होता है!
समाधी के समय साधक को
सिर मे भारीपन होगा, मेरुदंड मे गुदगुदी सी लगेगी, गर्दन मे खुजली जैसा
अनुभव हो सकता है अगर ये ज्यादा हो और सहन नही कर सके तो साधक को मुलाधारचक्र मे ध्यान करने से ये नियंत्रण हो
जाते है!
6) चक्रों मे ध्यान
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! अनामिका अंगुलि के
आग्रभाग
को अंगुष्ठ के आग्रभाग
से लगाए
और दबाए। शेष अंगुलिया
सीधी रखें। कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मन को जिस चक्र मे ध्यान कर रहे है उस चक्र
मे रखिए और उस चक्र पर तनाव डालिए! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके
बैठिए! शरीर को थोडा ढीला रखीए!
मूलाधारचक्र मे तनाव डालिये! अनामिका अंगुलि को अंगुष्ठ से लगायें और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। अब
मूलाधारचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार 4 बार लंबा
श्वास लेवे और छोडे! श्वास को रोकना नही है!
मूलाधारचक्र मे चार पंखडियाँ होती है! मूलाधारचक्र को व्यष्टि मे पाताललोक और
समिष्टि मे भूलोक कहते है! जब तक मनुष्य ध्यान नही करता तब तक वह शुद्र ही कहलाता
है! उस मनुष्य का ह्र्दय काला अर्थात अन्धकारमय है, कलियुग मे है! जब
मनुष्य ध्यान साधना शुरु करता है तब वो क्षत्रिय यानि योद्धा बनजाता है, उसका हृदय चालक
हृदय बन जाता है और वह साधक फिर भी कलियुग मे ही है! मूलाधारचक्र पृथवी तत्व का
प्रतीक है यानि गंध तत्व है! मूलाधारचक्र पीले रंग का होता है, मिठे फल सी रुचि
होती है! इस चक्र को महाभारत मे सहदेवचक्र कहते है! कुंडलिनी को पांडवपत्नी
द्रौपदि कहते है! श्री सहदेव का शंख मणिपुष्पक है! ध्यान कर रहे साधक को जो
नकारात्मक शक्तियाँ रोक रही होती है उन का दमन करते है श्री सहदेव! कुंडलिनी शक्ति
जो शेष नाग जैसी होती है वह मूलाधारचक्र के नीचे अपना फ़ण नीचे की ओर एवम पुँछ उपर
की और करके साढे तीन लपेटे लिये हुए सुषुप्ती अवस्था मे रह्ती है! साधना के कारण
ये शेषनाग अब जागना आरंभ करता है! जाग्रत हो रहा शेष नाग मूलाधारचक्र को पार करेगा
और स्वाधिस्ठानचक्र की ओर जाना शुरु करेगा! मूलाधारचक्र शेष के उपर होता है, इसी कारण तिरुपति
श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे कुंडलिनी को श्री पद्मावति देवी कहते है और
मूलाधारचक्र को शेषाद्रि कहते है! यहा जो समाधि मिलती है उस को सविकार संप्रज्ञात
समाधि कहते है! मूलाधारचक्र पृथ्वी तत्व का प्रतीक है! पृथ्वी तत्व का अर्थ गंध
है! संप्रज्ञात का अर्थ मुझे परमात्मा के
दर्शन लभ्य होगे या नही होगे ऐसा संदेह होना! इस चक्र मे ध्यान साधक को इच्छा
शक्ति की प्राप्ति कराता है!
ध्यान फल को साधक को
अपने पास नही रखना चाहिये, इसी कारण ‘’ध्यानफल श्री
विघ्नेश्वरार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये!
मूलाधारचक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण
व्यक्ति को 24 घंटे 96 मिनटों मे 600 हंस होते है!
अब स्वाधिस्ठानचक्र मे जाए! तनाव डाले! वरुण मुद्रा लगाए!
कनिष्ठा अंगुलि को अंगुष्ठ से लगाए और दबाए। शेष
अंगुलिया सीधी रखें। स्वाधिस्ठानचक्र
मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार छः बार लंबी श्वास
लेवे और छोडे! श्वास को रोके नही!
स्वाधिस्ठानचक्र को व्यष्टि मे महातल लोक और समिष्टि मे भुवर लोक कहते है! साधक
अब द्वापर युग मे है! स्वाधिस्ठानचक्र मे छः पंखडियाँ होती है! स्वाधिस्ठानचक्र
सफेद रंग का होता है, साधारण कडवी सी रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत मे
श्रीनकुलजी का चक्र कहते है! श्रीनकुलजी
का शंख सुघोषक है! यह चक्र ध्यान कर रहे साधक को आध्यात्मिक सहायक शक्तियों की तरफ
मन लगा के रखने मे सहायता करता है!
स्वाधिस्ठान चक्र मे ध्यान करने से पवित्र बंसुरिवादन की ध्वनी सुनाई देगी!
साधक का हृदय पवित्र बंसुरिवादन सुनके स्थिर होने लगते है, साधक को इधर द्विज
कहते है! द्विज का अर्थ दुबारा जन्म लेना! इधर साधक को पश्चाताप होता है कि मैने
इतना समय बिना साधना किए व्यर्थ ही गवाया, इसी कारण द्विज
कहते है! सुनाई देने को संस्कृत भाषा मे वेद कहते है! इसी कारण तिरुपति
श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे स्वाधिस्ठानचक्र को वेदाद्रि कहते है! इधर जो
समाधि मिलती है उस को सविचार संप्रज्ञात समाधि या सामीप्य समाधि कहते है! इस चक्र
मे ध्यान करने से साधक को क्रिया शक्ति की प्राप्ति होती है! इस का अर्थ हाथ, पैर, मुख, शिश्न( मूत्रपिडों
मे) और गुदा यानि कर्मेंद्रियों को शक्ति प्राप्त होती है!ध्यान फल को साधक को ‘’ध्यानफल श्री
ब्रह्मार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! स्वाधिस्ठान चक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 144
मिनटों मे 6000 हंस होते है!
अब मणिपुर चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, अग्नि
मुद्रा मे बैठे! अनामिका अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष
अंगुलिया सीधी रखें। मणिपुरचक्र मे तनाव डाले! मणिपुरचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के
अनुसार दस बार लंबी श्वास लेवे और छोडे ! श्वास को रोके नही!
मणिपुरचक्र को व्यष्टि मे तलातल लोक और समिष्टि मे स्वर लोक कहते है! साधक
अब त्रेता युग मे है! मणिपुर चक्र मे दस पंखडियाँ होती है! इसी कारण इसे रावण चक्र
भी कहते है! मणिपुरचक्र लाल रंग का होता है, कडवा रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत
मे श्रीअर्जुनजी का चक्र कहते है! श्रीअर्जुनजी का शंख दैवदत्त है! ध्यान कर रहे
साधक को दिव्य आत्मनिग्रह शक्ति लभ्य कराते है श्रीअर्जुनजी! मणिपुरचक्र मे ध्यान करने से वीणा वादन की
ध्वनी सुनाई देगी! साधक का हृदय इस वीणा वाद्य नाद को सुन कर भक्तिवान हृदय बनेगा!
साधक विप्र बन जायेगा! इधर जो समाधि मिलती है उस को सानंद संप्रज्ञात समाधि या
सायुज्य समाधि कहते है! इस चक्र मे ध्यान साधक को ज्ञान शक्ति की प्राप्ति होती
है! इस का अर्थ कान (शब्द), त्वचा (स्पर्श), आँख (रूप), जीब (रस) और नाक (गंध), ये ज्ञानेंद्रियों को शक्ति प्राप्त होती है!ध्यान फल को साधक को ‘’ध्यानफल श्री श्रीविष्णुदेवार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! मणिपुर चक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति
को 24 घंटे 240 मिनटों मे 6000 हंस होते है! इधर ज्ञान(ग) आरूढ(रुड) होता है! इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि
चरित्र मे मणिपुर चक्र को गरुडाद्रि कहते है!
अब अनाहतचक्र मे जाए, उस चक्र मे तनाव डाले,
वायु मुद्रा मे बैठे! तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष
अंगुलिया सीधी रखें।अनाहतचक्र मे तनाव डाले! अनाहतचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार बारह बार लंबी
श्वास लेवे और छोडे!
अनाहत चक्र को व्यष्टि मे रसातल लोक और समिष्टि मे महर लोक कहते है! साधक अब
सत्य युग मे है! अनाहत चक्र मे बारह पंखडियाँ है! श्री भीम और आंजनेय दोनों वायु
देवता के पुत्र है! इसी कारण इसे वायु चक्र, आंजनेयचक्र भी
कहते है! अनाहत चक्र नीले रंग का होता है, खट्टी रुचि होती
है! इस चक्र को महाभारत मे श्रीभीम का चक्र भी कहते है! श्रीभीमजी का शंख पौंड्रं है! ध्यान कर रहे
साधक को दिव्य प्राणायाम नियंत्रण शक्ति को लभ्य कराते है श्रीभीमजी!
अनाहत चक्र मे ध्यान करने से घंटा वादन की ध्वनी सुनाई देगी! साधक का हृदय इस
घंटावाद्य नाद को सुनकर शुद्ध हृदय बनेगा!
साधक ब्राह्मण बन जायेगा! कुंडलिनी अनाहत चक्र तक नही आने तक साधक ब्राह्मण नही बन
सकता! मनुष्य जन्म से ब्राह्मण नही बनता, प्राणायाम क्रिया करके कुंडलिनी अनाहत चक्र तक आने पर ही
ब्राह्मण बनता है! इधर जो समाधि मिलती है
उस को सस्मित संप्रज्ञात समाधि या सालोक्य
समाधि कहते है! इस चक्र मे ध्यान साधक को बीज शक्ति की प्राप्ति कराता
है! ध्यान फल साधक को “ध्यानफल श्री
रुद्रार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिए! अनाहत चक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 288
मिनटों मे 6000 हंस होते है! इधर साधक को वायु मे उड रहा हू जैसी भावना आती है! इसी कारण तिरुपति
श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे अनाहतचक्र को अंजनाद्रि कहते है!
अब विशुद्ध चक्र मे जाए, इस चक्र पर तनाव डाले, शून्य यानि आकाश
मुद्रा मे बैठे! मध्यमा अंगुली को
मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।
विशुद्ध चक्र मे तनाव डाले! अनाहत चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के
अनुसार सोलह बार लंबा श्वास लेवे और छोडे!
श्वास को रोक्ना नही
है!विशुद्धचक्र को व्यष्टि मे सुतल लोक और समिष्टि मे जन लोक कहते है! विशुद्धचक्र
मे सोलह पंखडियाँ होती है! विशुद्धचक्र सफेद मेघ रंग का होता है, कालकूटविष
जैसी अति कडवी रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत मे श्रीयुधिस्ठिर का चक्र कहते
है! श्रीयुधिस्ठिर का शंख अनंतविजय है! ध्यान कर रहे साधक को दिव्य शांति लभ्य
कराते है श्रीयुधिस्ठिरजी! विशुद्धचक्र मे
ध्यान करने से प्रवाह ध्वनी सुनाई देगी! इधर असंप्रज्ञात समाधि या सारूप्य समाधि
लभ्य होती है! असंप्रज्ञात का अर्थ निस्संदेह! साधक को सगुण रूप मे यानि अपने अपने
इष्ट देवता के रूप मे परमात्मा दिखायी देते है! इस चक्र मे ध्यान साधक को आदि
शक्ति की प्राप्ति कराता है! ध्यान फल को साधक ‘’ध्यानफल श्री आत्मार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! विशुद्धचक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति
को 24 घंटे 384 मिनटों मे 1000 हंस होते है! असंप्रज्ञात समाधि या सारूप्य समाधि
लभ्य होने से संसार चक्रों से विमुक्त हो के साधक सांड के जैसा परमात्मा के तरफ
दौड पडता है! इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि
चरित्र मे विशुद्ध चक्र को वृषभाद्रि कहते है!
अब आज्ञा नेगटिव चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, ज्ञान
मुद्रा मे बैठे! अंगुठें को तर्जनी अंगुली के सिरे से लगाए! शेष तीन अंगुलिया सीधी
रखें। आज्ञा नेगटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ
मे दृष्टि रखे! आज्ञा नेगटिव चक्र मे दो पंखडियाँ होती है! अपने शक्ति के अनुसार
18 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! श्वास को रोके नही!
अब आज्ञा पाजिटिव चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, ज्ञान
मुद्रा मे ही बैठे रहे! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे
मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार 20 बार लंबा श्वास
लेवे और छोडे! श्वास को रोके नही!आज्ञा पाजिटिव को व्यष्टि मे वितल लोक और समिष्टि
मे तपो लोक कहते है! श्री योगानंद, विवेकानंद .लाहिरी महाशय जैसे महापुरुष
सूक्ष्म रूपों मे इधर तपस करते है! इसी कारण इस को तपोलोक कहते है! आज्ञा पाजिटिव
चक्र मे दो पंखडियाँ है! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे प्रकाश ही प्रकाश दिखायी देता है!
इस को श्रीकृष्ण चक्र कहते है! श्रीकृष्ण का शंख पांचजन्य है! पंचमहाभूतों को
कूटस्थ मे एकत्रीत करके दुनिया रचाते है, इसी कारण इस को पांचजन्य कहते है! सविकल्प समाधि अथवा स्रष्ठ समाधि लभ्य होती है!
यहा परमात्मा और साधक आमने सामने है! इस चक्र मे ध्यान साधक को परा शक्ति की
प्राप्ति कराता है! ध्यान फल साधक को ‘’ध्यानफल श्री ईश्वरार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे
आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 48 मिनटों मे 1000 हंस होते है! इस चक्र से ही द्वंद्व शुरु होता है!
केवल एक कदम पीछे जाने से फिर संसार चक्र मे पड सकता है साधक! इसी
कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे आज्ञा पाजिटिव चक्र को वेंकटाद्रि
कहते है! एक कदम आगे यानि अपने ध्यान को और थोडा करने
से अपने लक्ष्य परमात्मा मे लय हो जाता है साधक!
अब सहस्रारचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, लिंग मुद्रा मे
बैठे! मुट्ठी बाँधे और अंदर के अंगुठें को खडा रखे, अन्य अंगुलियों को
बंधी हुई रखे।
सहस्रार चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार 21 बार लंबा
श्वास लेवे और छोडे! सहस्रारचक्र को व्यष्टि मे अतल लोक और समिष्टि मे सत्य लोक
कहते है! ये एक ही सत्य है बाकी सब मिथ्या है, इसी कारण इस को
सत्यलोक कहते है! सहस्रारचक्र मे हजार पंखडियाँ होती है! यहा निर्विकल्प समाधि
लभ्य होती है! परमात्मा, ध्यान और साधक एक हो जाते है! इस चक्र मे ध्यान साधक को
परमात्म शक्ति की प्राप्ति कराता है! ध्यान के फल को साधक ‘’ध्यानफल सदगुरू परमहंस श्री श्री योगानंद देवार्पणमस्तु’’
कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! सहस्रारचक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण
व्यक्ति को 24 घंटे 240 मिनटों मे 1000 हंस होते है! तिरुपति
श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे सहस्रार चक्र को नारयणाद्रि कहते है!
अब इसी चक्र मे मन लगा
के ध्यान जितना अधिक कर सकते है उतने समय तक करना चाहिए!
7) चक्रों मे बीजाक्षरो का
ध्यान्
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! अनामिका अंगुलि के
आग्रभाग
को अंगुष्ठ के आग्रभाग
से लगाए
और दबाए। शेष अंगुलिया
सीधी रखें। कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मन को जिस चक्र मे ध्यान कर रहे है उस चक्र
मे रखिए और उसी चक्र पर तनाव डालिए! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके
बैठिए! शरीर को थोडा ढीला रखीए!मूलाधारचक्र मे तनाव डालिये! अनामिका अंगुलि को अंगुष्ठ
से लगायें और
दबाए। शेष अंगुलिया
सीधी रखें। अब मूलाधारचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि
रखए!मूलाधारचक्र मे चार पंखडियाँ होती है! अपनी शक्ति के अनुसार लंबा श्वास लेते
हुवे मन ही मन बीजाक्षर ‘’लं‘’ का उच्चारण करे और छोडते हुवे भी मन ही मन बीजाक्षर ‘’लं‘’ का उच्चारण करे!
श्वास को रोके नही! ऐसा चार बार ‘’लं‘’ बीजाक्षर का उच्चारण करे!
अब स्वाधिस्ठानचक्र मे जाए,
तनाव डालले! वरुण मुद्रा लगाए! कनिष्ठा अंगुलि
को अंगुष्ठ से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। स्वाधिस्ठानचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखए! स्वाधिस्ठानचक्र मे छः पंखडियाँ होती है! अपनी
शक्ति के अनुसार लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन बीजाक्षर ‘वं‘’ का उच्चारण करे और छोडते हुवे भी मन ही
मन बीजाक्षर ‘’वं” का उच्चारण करे! श्वास को रोके नही! ऐसा छ्ह बार ‘’वं‘’
बीजाक्षर का उच्चारण करे!
अब मणिपुरचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, अग्नि
मुद्रा मे बैठे! अनामिका अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष
अंगुलिया सीधी रखें। मणिपुरचक्र मे तनाव डाले! मणिपुरचक्र मे मन
लगाए, कूटस्थ
मे दृष्टि रखे! मणिपुरचक्र मे दस पंखडियाँ
होती है! अपनी शक्ति के अनुसार लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन बीजाक्षर ‘’रं‘’
का उच्चारण करे और छोडते हुवे भी मन ही मन बीजाक्षर ‘’रं‘’ का उच्चारण करे! श्वास को रोके नही!
ऐसा दस बार ‘’रं‘’ बीजाक्षर का उच्चारण करे!
अब अनाहतचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, वायु
मुद्रा मे बैठे! तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष
अंगुलिया सीधी रखें। अनाहत चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अनाहतचक्र मे
बारह पंखडियाँ होती है! अपनी शक्ति के अनुसार लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन
बीजाक्षर ‘’यं‘’ का उच्चारण करे और छोडते हुवे भी मन ही
मन बीजाक्षर ‘’यं‘’ का उच्चारण करे! श्वास को रोके नही!
ऐसा बारह बार ‘’यं‘’ बीजाक्षर का उच्चारण करे!
अब विशुद्धचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, शून्य
यानि आकाश मुद्रा मे बैठे! मध्यमा अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और
दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। विशुद्धचक्र मे तनाव डाले! विशुद्धचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे!
विशुद्धचक्र मे सोलह पंखडियाँ होती है! अपनी शक्ति के अनुसार लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन बीजाक्षर ‘’हं ‘’ का
उच्चारण करे और छोडते हुवे भी मन ही मन बीजाक्षर “हं‘’ का उच्चारण करे! श्वास को रोके नही! ऐसा सोलह
बार ‘’हं‘’ बीजाक्षर का उच्चारण करे!
अब आज्ञा नेगटिव चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, ज्ञान
मुद्रा मे बैठे! अंगुठें को तर्जनी अंगुली के सिरे से लगाए। शेष तीन अंगुलिया सीधी
रखें। आज्ञा नेगटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ
मे दृष्टि रखे! आज्ञा नेगटिव चक्र मे दो पंखडियाँ होती है! अपनी शक्ति के अनुसार
लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन बीजाक्षर ‘’ओं ‘’ का उच्चारण करे और छोडते हुवे भी मन ही
मन बीजाक्षर ‘’ओं‘’ का उच्चारण करे! ऐसा 18 बार ‘’ओं ‘’ बीजाक्षर का उच्चारण करे!
अब आज्ञा पाजिटिव चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, ज्ञान मुद्रा मे
बैठे! अंगुठें को तर्जनी अंगुली के सिरे से लगाए। शेष तीन अंगुलिया सीधी रखें। आज्ञा
पाजिटिव चक्र मे मन लगाना, कूटस्थ मे दृष्टि
रखना! आज्ञा पोजिटिव चक्र मे दो पंखडियाँ होती है! अपनी शक्ति के अनुसार लंबा
श्वास लेते हुवे मन ही मन बीजाक्षर ‘’ओं ‘’ का उच्चारण करे और छोडते हुवे भी मन ही मन बीजाक्षर ‘’ओं‘’ का उच्चारण करे!
ऐसा 20 बार ‘’ओं ‘’ बीजाक्षर का
उच्चारण करे!
अब सहस्रारचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, लिंग मुद्रा मे
बैठे! मुट्ठी बाँधे और अंदर के अंगुठें को खडा रखे, अन्य अंगुलियों को
बंधी हुई रखे।
सहस्रारचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे!
अपनी शक्ति के अनुसार लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन बीजाक्षर ‘’रां ‘’ का उच्चारण 21
बार करे और छोडते हुवे भी मन ही मन बीजाक्षर ‘’रां‘’ का उच्चारण 21
बार करे! श्वास को रोके नही अब
इसी चक्र मे मन लगा के ध्यान जितना अधिक कर सकते है उतना समय करते रहे! ध्यान का
अर्थ साधक को केवल साक्षीभूत हो कर सहस्रार मे मन लगा के बैठना है!
8) समस्त रोग निवारिणी
क्रिया
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगा के बैठिए! अनामिका अंगुलि के
आग्रभाग
को अंगुष्ठ के आग्रभाग
से लगाए
और दबाए। शेष अंगुलिया
सीधी रखें। कूटस्थ मे दृष्टि रखीए! मन को जिस चक्र मे ध्यान कर रहे है उस चक्र
मे रखिए और उस चक्र मे तनाव डालिए! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके
बैठिए! शरीर को थोडा ढीला रखीए!
मूलाधारचक्र मे तनाव डालिये! अनामिका अंगुलि को अंगुष्ठ से लगायें और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। अब
मूलाधारचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मूलाधारचक्र मे चार पंखडियाँ होती
है! अपनी शक्ति के अनुसार लंबा श्वास लेवे और अपनी शक्ति के अनुसार इस श्वास को
रोक के रखे! इस रोकने को अंतःकुंभक कहते है! अब अपनी शक्ति के अनुसार श्वास को
लंबा छोडे एवम रोक के रखे! इस रोकने को बाह्य कुंभक कहते है! ऐसा चार बार
अंतःकुंभक-बाह्य कुंभक करे!
अब स्वाधिस्ठानचक्र मे जाए, तनाव डाले! वरुण मुद्रा लगाए! कनिष्ठा अंगुलि को अंगुष्ठ से लगाए और दबाए। शेष
अंगुलिया सीधी रखें। स्वाधिस्ठानचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! स्वाधिस्ठानचक्र मे छः पंखडियाँ होती
है! अपनी शक्ति के अनुसार लंबा श्वास लेवे एवम श्वास को रोक के रखे! अब अपनी शक्ति
के अनुसार श्वास को लंबा छोडे और इस श्वास को रोक के रखे! ऐसा छः बार अंतःकुंभक - बाह्य कुंभक करे!
अब मणिपुरचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, अग्नि
मुद्रा मे बैठे! अनामिका अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष
अंगुलिया सीधी रखें। मणिपुरचक्र मे तनाव डाले! मणिपुरचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ
मे दृष्टि रखे! मणिपुरचक्र मे दस पंखडियाँ होती है! अपनी शक्ति के अनुसार लंबा
श्वास लेवे और अपनी शक्ति के अनुसार इस श्वास को रोक के रखे! अब अपनी शक्ति के
अनुसार श्वास को लंबा छोडे और इस श्वास को रोक के रखे! ऐसा दस बार अंतःकुंभक -
बाह्य कुंभक करे!
अब अनाहतचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, वायु
मुद्रा मे बैठे! तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष
अंगुलिया सीधी रखें। अनाहतचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ
मे दृष्टि रखे! अनाहतचक्र मे बारह पंखडियाँ होती है! अपनी शक्ति के अनुसार लंबा
श्वास लेवे और अपनी शक्ति के अनुसार इस श्वास को रोक के रखे! अब अपनी शक्ति के
अनुसार श्वास को लंबा छोडे और इस श्वास को रोक के रखे! ऐसा बारह बार अंतःकुंभक -
बाह्य कुंभक करे!
अब विशुद्ध चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, शून्य
यानि आकाश मुद्रा मे बैठे! मध्यमा अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और
दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। विशुद्ध चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! विशुद्ध चक्र मे
सोलह पंखडियाँ होती है! अपनी शक्ति के अनुसार लंबा श्वास लेवे और अपनी शक्ति के
अनुसार इस श्वास को रोक के रखे! अब अपनी शक्ति के अनुसार श्वास को लंबा छोडे और इस
श्वास को रोक के रखे! ऐसा सोलह बार अंतःकुंभक - बाह्य कुंभक करे!
अब आज्ञा नेगटिव चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, ज्ञान
मुद्रा मे बैठे! आज्ञा नेगटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! आज्ञा नेगटिव
चक्र मे दो पंखडियाँ होती है! अपनी शक्ति के अनुसार लंबा श्वास लेवे और अपनी शक्ति के अनुसार इस
श्वास को रोक के रखे! अब अपनी शक्ति के अनुसार
श्वास को लंबा छोडे और इस श्वास को रोक के रखे! ऐसा 18 बार अंतःकुंभक -
बाह्य कुंभक करे!
अब आज्ञा पाजिटिव चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, ज्ञान
मुद्रा मे बैठे! अंगुठें को तर्जनी अंगुली के सिरे से लगाए। शेष तीन अंगुलिया सीधी
रखें। आज्ञा पाजिटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! आज्ञा पाजिटिव
चक्र मे दो पंखडियाँ होती है! अपनी शक्ति के अनुसार लंबा श्वास लेवे और अपनी शक्ति
के अनुसार इस श्वास को रोक के रखे! अब अपनी शक्ति के अनुसार श्वास को लंबा छोडे और
इस श्वास को रोक के रखे! ऐसा 20 बार अंतःकुंभक - बाह्य कुंभक करे!
अब सहस्रारचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव
डाले, लिंग मुद्रा मे बैठे! मुट्ठी
बाँधे और अंदर के अंगुठें को खडा रखे, अन्य अंगुलियों को बंधी हुई रखे।
सहस्रार चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे!
सहस्रारचक्र मे सहस्र यानि एक हज़ार पंखडियाँ होती है! अपनी शक्ति के अनुसार
लंबा श्वास लेवे
और अपनी शक्ति के अनुसार इस श्वास को रोक के रखे! अब अपनी शक्ति के अनुसार
श्वास को लंबा छोडे और
इस श्वास को रोक के रखे! ऐसा समाधि मे जाने तक अंतःकुंभक - बाह्य
कुंभक करते रहे! अगर समाधि नही
आती है तो अंतःकुंभक - बाह्य कुंभक जितना कर सकते है उतना करे अथवा अब इसी चक्र मे मन लगा के
ध्यान जितना कर सकते है उतने समय तक करते रहे! ध्यान का अर्थ केवल साधक साक्षीभूत
हो के सहस्रार मे मन को लगा के बैठना है!
इस प्राणायाम क्रिया के
कारण दीर्घकालिक रोग यानि डायबिटिज, किड्नी व्याधिया, ह्रदय
दुर्बलता और पार्किंसन व्याधि इत्यादि का निवारण होता है!
9) शीघ्र समाधि क्रिया
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! अनामिका अंगुलि के
आग्रभाग
को अंगुष्ठ के आग्रभाग
से लगाए
और दबाए। शेष अंगुलिया
सीधी रखें। कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मन को जिस चक्र मे ध्यान कर रहे है उसी चक्र
मे रखिए और उस चक्र मे तनाव डालिए! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके
बैठिए! शरीर को थोडा ढीला रखीए!
मूलाधारचक्र मे तनाव डालिये! अनामिका अंगुलि को अंगुष्ठ से लगायें और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।
मूलाधारचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मूलाधारचक्र मे चार पंखडियाँ होती
है! अपनी शक्ति के अनुसार श्वास को लंबा लेना और श्वास को लंबा छोडना! यहा श्वास
को रोखना नही है! ऐसा चार बार करे!
अब स्वाधिस्ठानचक्र मे जाए! तनाव डाले! वरुण मुद्रा लगाए!
कनिष्ठा अंगुलि को अंगुष्ठ से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।
स्वाधिस्ठानचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! स्वाधिस्ठानचक्र
मे छः पंखडियाँ होती है! अपनी शक्ति के अनुसार श्वास लंबा लेना और श्वास को लंबा
छोडना! श्वास को रोकना नही है! ऐसा छः बार करे!
अब मणिपुरचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, अग्नि मुद्रा मे
बैठे! अनामिका अंगुली को
मोडकर अंगुष्ठ के
मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। मणिपुरचक्र मे तनाव डाले!
मणिपुरचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मणिपुरचक्र मे दस पंखडियाँ होती है!
अपनी शक्ति के अनुसार श्वास लंबा लेवे और श्वास को लंबा छोडे! श्वास को रोके नही!
ऐसा दस बार करे!
अब अनाहतचक्र मे जाए इस चक्र मे तनाव डाले, वायुमुद्रा मे
बैठे! तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। अनाहतचक्र
मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अनाहतचक्र मे बारह पंखडियाँ होती
है! अपनी शक्ति के अनुसार श्वास लंबा लेवे
और श्वास को लंबा छोडे! श्वास को रोके नही! ऐसा बारह बार करे!
अब विशुद्धचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, शून्य यानि आकाश
मुद्रा मे बैठे! मध्यमा अंगुली को
मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। विशुद्धचक्र
मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! विशुद्धचक्र मे सोलह पंखडियाँ होती
है! अपनी शक्ति के अनुसार श्वास लंबा लेवे और श्वास को लंबा छोडे! श्वास को रोके
नही! ऐसा सोलह बार करे!
अब आज्ञा नेगटिव चक्र
मे जाए, इस चक्र मे तनाव
डाले, ज्ञान मुद्रा मे
बैठे! अंगुठें को तर्जनी
अंगुली के सिरे से
लगा दे। शेष तीन अंगुलिया सीधी रखें। आज्ञा नेगटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि
रखे! आज्ञा नेगटिव मे दो पंखडियाँ होती है! अपनी शक्ति के अनुसार श्वास लंबा लेवे
और श्वास को लंबा छोडे! श्वास को रोके नही! 18
बार करे!
अब आज्ञा पाजिटिव चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले,
ज्ञान मुद्रा मे ही बैठे! आज्ञा पाजिटिव
चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे दो पंखडियाँ
होती है! अपनी शक्ति के अनुसार श्वास लंबा
लेवे और श्वास को लंबा छोडे! श्वास को रोके नही! ऐसा 20 बार करे!
अब सहस्रारचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव
डाले, लिंग मुद्रा मे बैठे! मुट्ठी
बाँधे और अंदर के अंगुठें को खडा रखे, अन्य अंगुलियों को बंधी हुई रखे। सहस्रारचक्र मे मन
लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे!
सहस्रारचक्र मे सहस्र यानि एक हज़ार पंखडियाँ होती है! अपनी शक्ति के अनुसार 21
श्वास लंबा लेवे और 21 श्वास लंबा ही छोडे! श्वास को रोके नही! ऐसा समाधि मे जाने
तक श्वास लंबा लेवे और श्वास लंबा ही छोडते रहे! जितना अधिक कर सकते है उतना करे
अथवा अब इसी चक्र मे मन लगा
के ध्यान जितना कर सकते है उतने समय तक करते रहे! ध्यान का अर्थ केवल साधक
साक्षीभूत हो कर सहस्रारचक्र मे मन को लगा के बैठना है!
10) संचित कर्म घटाने की क्रिया
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! अनामिका अंगुलि के
आग्रभाग
को अंगुष्ठ के आग्रभाग
से लगाए
और दबाए। शेष अंगुलिया
सीधी रखें। कूटस्थ मे दृष्टि रखीए! मन को जिस चक्र मे ध्यान कर रहे है उस चक्र
मे रखिए और उस चक्र मे तनाव डालिए! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके
बैठिए! शरीर को थोडा ढीला रखीए!
मूलाधारचक्र मे तनाव डालिये! पृथ्वीमुद्रा लगाए!अनामिका अंगुलि को अंगुष्ठ से
लगायें और
दबाए। शेष अंगुलिया
सीधी रखें। मूलाधारचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मूलाधारचक्र मे चार पंखडियाँ होती
है! अपनी शक्ति के अनुसार श्वास लंबा लेवे और श्वास को लंबा छोडे! श्वास को रोके
नही! एसा चार बार करे!
अब स्वाधिस्ठानचक्र मे जाए!
तनाव डाले! वरुण मुद्रा
लगाए! कनिष्ठा अंगुलि
को अंगुष्ठ से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। स्वाधिस्ठानचक्र मे मन लगाए,
कूटस्थ मे दृष्टि रखे! स्वाधिस्ठानचक्र मे छः पंखडियाँ होती है! ! अपनी शक्ति के
अनुसार श्वास लंबा लेवे और श्वास को लंबा छोडे! श्वास को रोके नही! ऐसा छः बार करे!
अब मणिपुरचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले,
अग्नि मुद्रा मे बैठे! अनामिका अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए।
शेष अंगुलिया सीधी रखें। मणिपुरचक्र
मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मणिपुरचक्र मे दस पंखडियाँ होती है! अपनी शक्ति के अनुसार श्वास लंबा लेवे और श्वास
को लंबा छोडे! श्वास को रोके नही! ऐसा दस बार करे!
अब अनाहतचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, वायु मुद्रा मे
बैठे!
तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष
अंगुलिया सीधी रखें। अनाहतचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अनाहतचक्र मे बारह पंखडियाँ होती
है! अपनी शक्ति के अनुसार श्वास लंबा लेवे
और श्वास को लंबा छोडे! ऐसा बारह बार करे!
अब विशुद्धचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, शून्य यानि आकाश
मुद्रा मे बैठे! मध्यमा अंगुली को
मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। विशुद्ध चक्र
मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! विशुद्धचक्र मे सोलह पंखडियाँ होती
है! अपनी शक्ति के अनुसार श्वास लंबा लेवे और श्वास को लंबा छोडे! श्वास को रोके
नही! ऐसा सोलह बार करे!
अब आज्ञा नेगटिव चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले,
ज्ञान मुद्रा मे बैठे! आज्ञा नेगटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! आज्ञा नेगटिव मे
दो पंखडियाँ होती है! अपनी शक्ति के
अनुसार श्वास लंबा लेवे और श्वास को
लंबा छोडे! श्वास को रोके नही! ऐसा 18 बार
करे!
अब आज्ञा पाजिटिव चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, ज्ञान मुद्रा मे
ही बैठे! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे दो पंखडियाँ
होती है! अपनी शक्ति के अनुसार श्वास लंबा लेवे और श्वास को लंबा छोडे! श्वास को
रोके नही! ऐसा 20 बार करे!
अब सहस्रारचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, लिंग मुद्रा मे
बैठे! मुट्ठी बाँधे और अंदर के अंगुठें को खडा रखे, अन्य अंगुलियों को
बंधी हुई रखे। सहस्रारचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! सहस्रारचक्र मे सहस्र यानि एक हज़ार
पंखडियाँ होती है! अपनी शक्ति के अनुसार 21 श्वास लंबा लेवे और 21 श्वास लंबा ही
छोडे! श्वास को रोके नही! अब श्वास को ‘’ह.....हा ” कहके छोड देवे!
ऐसा समाधि मे जाने तक श्वास लंबा लेवे और श्वास लंबा ही छोडते रहे! जितना अधिक
कर सकते है उतना करे अथवा अब
इसी चक्र मे मन लगा के ध्यान जितना कर सकता है उतने समय तक करते रहे! ध्यान का
अर्थ केवल साधक को साक्षीभूत होकर सहस्रारचक्र मे मन लगा के बैठना है!सहस्रारचक्र
महाभारत मे लिखा हुवा धर्मक्षेत्र का अंत है!
अब पांच सूक्ष्म शरीरों
को व्यक्तीकरण करो! “यद्भावं तत्भवति” का तात्पर्य तुम जैसा
सोचोगे वैसा बनोगे! पांच शरीरों से ज्यादा व्यक्तीकरण नही करे! अब धृढ निश्चय से
सोचे कि अपना संचित कर्म इस व्यक्तीकरण किए हुए पांच सूक्ष्म शरीरों मे मै अनुभव
कर रहा हू! अब ये शपथ मन ही मन करे ---
‘’ओ
कर्म सिद्धांत मै अपनी दिव्य दृष्टी मे तीव्र एकाग्रता और दिव्य चेतनों से पांच
सूक्ष्म शरीरों का व्यक्तीकरण किया है, अब मैने अपने संचित कर्मों को
इन व्यक्तीकरण किए हुए सूक्ष्म शरीरों मे अनुभव किया है, अब मै मुक्त हू! ऐसी शपथ
पांच सूक्ष्म शरीरों के लिये पांच बार लेवे!
11) चक्र स्पंदन समाधि
क्रिया
सीधा
वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञान मुद्रा लगा के बैठिए! अनामिका
अंगुलि के आग्रभाग को अंगुष्ठ के आग्रभाग से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी
रखें। कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मन को जिस चक्र मे ध्यान कर रहे है उस चक्र मे रखे और उसी
चक्र मे तनाव डाले! पूरब
दिशा अथवा उत्तर दिशा की और
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