श्रीमद्भगवद्गीता part 1 to 03 हिंदी
ॐ श्री
कृष्ण परब्रह्मने नमः
श्रीमद्भगवद्गीता
अथ
प्रथमोऽध्यायः अर्जुन
विषादयोगः
धृतराष्ट्र
उवाच:-
धर्मक्षेत्रे
कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः
मामकाः
पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजयः
1
धृतराष्ट्र
ने कहा:-
ओ
संजयाँ, मेरा पुत्रों दुर्योधन इत्यादि और मेरा भाय पांड का पुत्रों धर्मक्षेत्र
जैसा कुरुक्षेत्र मे युद्धोत्साह से समायुक्त हुआ है! वे क्या किया है?
मन का साधारण लक्षण है प्रव्रुति यानी इन्द्रियों का अनुसरण से
प्रवर्तित करता है! मन का सूक्ष्मरूपी अय्स्कांत ऋणधृव भौतिक प्रपंच तरफ होनेवाली
पोंस वरोली (Pons varoli) मे रहती है! मन का स्टें(stem)मे
ए एक भाग है! मेडुल्ला(Medulla) का उप्पर दो अर्थ गोळों जैसा बड़ा
मस्तिष्क(Cerebrum)
का बीच मे, छोटा मस्तिष्क (Cerebell um) और मेडुल्ला(Medulla) को जोड़नेवाली है ए पोंस वरोली (Pons varoli)!
इस पोंस वरोली का अंदर नार्पेन्फैर्(Norepinephrine) नाम का एक रसायन पदार्थ रहता है! ए
शारीर को क्रिया के लिए समायक्त कर के निद्रा, मानसिकस्थिति और उत्प्रेरण का
कारणभूत होता है!
बुद्धि का निर्णयात्मकशक्ति आत्म का अंदर स्थित अधिचेतना से
लभ्य होता है!
कारण चेतना का निलय है आध्यात्मिक मेरुदंड संबंधित चक्रों! इस
चक्रों द्वारा आत्म अपना चेतना को व्यक्तीकरण करता है!
विज्ञों ने ‘क्षेत्रे क्षेत्रे धर्म कुरु’
इति कहा है! हर एक क्षेत्र मे धर्म करो इति इस का अर्थ है! क्षेत्र का अर्थ हर एक
चक्र मे ध्यान कर के इन् का अंदर उपस्थित अन्धेरा को मिटादो!
मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, आनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और
सहस्रार इति कारण चेतन निलय आध्यात्मिक मेरुदंडसंबधित चक्रों होते है!
मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपुर संसार चक्रों है, इनको
कुरुक्षेत्र कहते है!
मणिपुर, आनाहत और विशुद्ध चक्रों को कुरुक्षेत्र
धर्मक्षेत्र कहते है!
विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार चक्रों को धर्मक्षेत्र
कहते है!
धृतं राष्ट्रं ऐन धृतराष्ट्र, इन्द्रियोंका दास/गुलाम बनके
अंधा हुआ मन का प्रतीक धृतराष्ट्र है!
पक्षपातरहित सीदासादा अंतर्मुख हुआ, अपने आपको जाननेवाला,
इन्द्रियोंको राजा मन को जिता, शुद्ध आलोचनाशक्ति और विमर्शात्मक तत्व ही संजय है!
धृतराष्ट्र पूछा:--
मन और इन्द्रियों का इच्छानुसार करने वाले अपना कौरव पुत्रों
और शुद्ध बुद्धि का अनुसार काम करनेवाले अपना अनुज पाण्डु का पुत्रों ने पवित्र
मेरुदंड यानी धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र मे क्या किया?
जब शुक्राणु(Sperm) और अंडा(Ovum)
जब ऐक्य होके मनुष्य का शारीर बनाने लगता है, क्षणिक तेज प्रकाश सूक्ष्म प्रपंच मे
दृश्यमान होता है! ए आत्मों का दिव्या स्थान है अवतारों का बीच मे! ओ आत्म का
प्रकाश अपना अपना कर्मा के अनुसार एक
पद्धति से प्रसार कर के मनुष्य योनी मे प्रवेश करने आकर्षित होता है!
कुरुक्षेत्र संग्राम स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शारीर मे
जितना है!
1)
सदाचार
संबंधी अच्छा और बुरा का इन्द्रियों का भौतिक युद्ध—कुरुक्षेत्र
2)
मेरुदंड
सहित मस्तिष्क मे क्रियायोग करने समय जो विविध विचारों उत्पन्न होता है उन्हें
मिटाने का मानसिक युद्ध, इन्द्रियों का गुलाम मन और युक्तायुक्त विचक्षणज्ञान सहित
शुद्ध बुद्धि का बीच मे होता है मानसिक युद्ध, मन साधक को भौतिक विषयों/छीजों का
तरफ़ खीचता है, शुद्धबुद्धि परामात्मा का तरफ़ खीचता है —कुरुक्षेत्र—धर्मक्षेत्र,
3)
गेहरा
ध्यान मे केवल मस्तिष्क क्षेत्र मे, सारे निम्न चेतनों को अधिगमन करनेवाले युद्ध
है ए! इस युद्ध मे साधक अपना अहंकार और इन्द्रियों का गुलाम मन को परिपूर्णता से
अधिगमन करके अपना आत्मा ओ परमात्मा से ऐक्य करदेता है! इस जित को समाधि, मनुष्य
चेतना और परमात्म चेतना का साथ मिलजाना, कहते है! —धर्मक्षेत्र
साधक का अपना संचित, प्रारब्ध और आगामी कर्मो पूरी तरह से
मिटने तक ऐसा समाधि स्थिति साधक को अपना साधना मे कई बार मिलजाते है! तब साधक सर्व
शक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञक
परमात्मा मे जननमरण रहित शुद्ध आत्मा बनके रहेगा! ऐसा समाधी को महासमाधि
कहते है!
इस महासमाधि स्थिति पाने के समय मे अगर योगी चाहता है तो ओ
मनुष्य योनि मे निर्विकल्पसमाधि स्थिति मे फिर जन्म लेगा! इस स्थिति मे ओ योगी सदा
अपना मन परामात्मा मे लगन करके फलापेक्षारहित ‘मै परमात्मा केलिए सभी काम कर रहा हु ‘
भावना से अपना कार्य करेंगे!
दृष्ट्वातु पान्दवानीकम व्यूढंदुर्योधनस्तदा
आचार्यमुपसंगम्य राजा वाचानामाब्रवीत 2
संजय ने कहा:-
तब राजा दुर्योधन ने व्यूहात्मकयुक्त रचना किया हुआ पांडव सेना
को देख कर अपना गुरु द्रोणाचार्य को समीप मे जाकर बोला!
साधक का अंदर स्थित चंचलात्मक धृतराष्ट्र करके मानस से अपना आप
को जानकारीयुक्त शुद्धालोचना प्रज्ञ यानी संजय ने ऐसा कहा:--
(इधर से सारे गीता संजय ने धृतराष्ट्र को कहा है कर के समझने
चाहिए यानी सारे संभाषण साधक का इन्द्रियों का गुलाम अंधा मनस और शुद्धालोचना
प्रज्ञ का बीच मे है!)
दुर्योधन इच्छाओं का प्रतीक, द्रोण संस्कारों, अच्छा और बुरा
दोनों, दैवी और राक्षस प्रकृतियों, का प्रतीक! इच्छाओं का हेतु संस्कारों! साधन
करनेवाले हर एक साधक मे साधन का अनुकूल सकारात्मक शक्तियाँ यानी पांडवों और साधन
का प्रतिकूल नकारात्मक शक्तियाँ यानी कौरवों दोनों होते है! दोनों
का अपना अपना व्यूह होते है! हर एक मनुष्य का अंदर पांडवों और कौरवों दोनों होते
है! पश्यैतां पान्दुपुत्राणां आचार्यमहतींचमूं
व्यूढां द्रुपदपुत्रेणतवाशिष्येण धीमता 3
हे गुरुवर्या, बुद्धिमान और आप का शिष्य दृष्टद्युम्न से
व्यूहात्मक युक्त रचना किया हुआ पांडवों का ए महा सैन्य को देखिए:
गुदास्थान का नीचे 31/2 घुमाव करके निद्राण स्थिति मे पढ़ा हवा
कुण्डलिनी शक्ती ही महाभारत मे द्रौपदी! समिष्टी मे माया
को व्यष्टि मे कुण्डलिनी कहते है! हर एक मनुष्य का अंदर कुण्डलिनी शक्ति रहती
है!
मेरुदंड मे कुण्डलिनी शक्ति का पास मूलाधार चक्र है जिसको
सहदेवचक्र कहते है!
मेरुदंड मे तर्जनी अंगुली का नाखून वाली जोड़
का नाप से अढय नाखून वाली जोड़ का उप्पर स्वाधिष्ठानचक्र है जिसको नकुलचक्र
कहते है!
नाभि का पीछे मेरुदंड मे मणिपुरचक्र है जिसको अर्जूनचक्र कहते
है!
ह्रुदय का पीछे मेरुदंड मे अनहतचक्र है जिसको भीमचक्र कहते है!
ह्रुदय का पीछे मेरुदंड मे विशुद्धचक्र है जिसको युधिष्ठिरचक्र
कहते है!
दोनों भ्रुकुटी का बीच मे कूटस्थ मे है आज्ञाचक्र है जिसको
श्री कृष्णचक्र कहते है!
मस्तिष्क का बीच मे ब्रह्मरंध्र का नीचे है सहस्रार चक्र है
जिसको श्री परमात्मचक्र कहते है!
द्रुपद—भौतिक विशायावांछारहित का प्रतीक
दृष्टद्युम्न— द्रुपद का पुत्र अंतर्गत
आत्मज्ञानप्रकाश
पांडवसेना दैवी संस्कारों और कौरव सेना राक्षस संस्कारों का
प्रतीक है!
दुनिया मे कुत्तें, सूवर इत्यादि पशु अधिक है, व्याघ्र काम है!
ऐसा ही मनुष्य का अंदर कौरव सेना यानी राक्षस संस्कारों अधिक और पांडव सेना यानी
दैवी संस्कारों कम होते है!
ओ, संस्कारों का प्रतीक द्रोण गुरु, आप का शिष्य अंतर्गत
आत्मज्ञानप्रकाश का प्रतीक दृष्टद्युम्न ने व्यूहात्माकारूप रचना किया हुआ ए महान
पांडव सेना को देखिए!
अत्र शूरामाहेष्वासा भीमार्जुना समायुधि
युयुधानोविराटश्च दृपदाश्चा महारथः 4
दृष्टकेतुश्चेकितानाः काशीराजश्च वीर्यवान
पुरुजित कुन्तिभोजश्चशैब्याश्च नारापुंगवः 5
युधामंयुश्च विक्रांत उत्तमौजाश्च वीर्यवान
सौभद्रोद्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः 6
इस पांडवसेना मे महा तीरंदाज, युद्ध मे भीमार्जुन के सामान
शूरवीरों बहुत है, वे: युयुधान(सात्यकि), विराट, महाराथ द्रुपद, दृष्टकेतु(चेदिदेश
राजा, शिशुपाल का पुत्र),चेकितान, पराक्रमी काशीराजा, कुन्तीदेवी का अनुजों
पुरुजित और कुन्तिभोज, नरोत्तम शैब्य, शौर्यपूर्ण युधामन्यु, पराक्रमी उत्तमौजा,
अभिमन्यु, उपपांडवों, ए सभी महांरथ है!
महांरथ का अर्थ 10,000 धनुर्धरों का साथ अकेला युद्ध करने
समर्थ, और अस्त्र शास्त्र प्रवीण!
इस दैवी प्रक्रुति सहित पान्दवासेना मे भीम प्राणशक्ति को
नियंत्रण करनेवाले साधना प्रज्ञा, और अर्जुन आत्मनिग्रहशक्ति का प्रतीके है! ऐसा
सकारात्मक शक्तियों को साथ देनेवाले उपयोगकारी सहायक शक्तियों इस रथ मे यानी शारीर
मे बहुत है! वे है:-
युयुधान—दिव्यश्रद्ध, विराट—समाधि,
द्रुपद—तीव्रसंवेगा
यानी निष्पक्षता, चेकितान—आध्यात्मिकस्मृति, ज्ञप्ति, काशीराज—प्रज्ञा, दृष्टकेतु—यम-मानसिकनिग्रहशक्ति,
शैब्य—मानसिक
दृढता, कुन्तिभोज—आसन स्थिरत्व, पुरुजित—प्रत्याहार- मानसिक अंतर्मुखता,
युधामन्यु—प्राणायाम-प्राणशक्ति
निग्रहता, उत्तमौजा—वीर्य-ब्रह्मचर्य, अभिमन्यु—संयम-आत्मनिग्रहशक्ति
और उपपांडवों—चक्रों का केन्द्रों!
धारण, ध्यान और समाधि तीनों के मिलाके संयम कहते है!
ए उप्पर दिया हुवा सभी महारथियों है यानी शारीर वांछनीयता दूर
करके साधन करनेमे सहायता देनेवाले सकारात्मक महा शक्तियों है!
वीर्य, इन्द्रिय वांछनीय मनस, श्वास, और प्राणशक्ति ए चारोँ एक
दूसरे के साथ सम्बधित है!
साधक ब्रह्मचर्यं द्वारा भौतिक सुखोंसे विमुक्त होंकर दिव्यत्व
द्वार का अर्हता पाता है! दिव्या श्रद्दा का अर्थ है परमात्मा का तरह आकर्षित होना!
आध्यात्मिकस्मृति, ज्ञप्ति द्वारा अपना निज प्रकृति यानी ‘मै
परमात्मा का प्रतीक ’ करके जान जाता है!
समा-सामान, अधि-परमात्मापरामात्मा और साधक एक होने का स्थिति
समाधि स्थिति!
भौतिक वांछाँएं से विमुक्त होने के लिए 12 वर्षों
का साधन जरूरत है, तत् पश्चात तेरवा वर्ष में समाधि स्थिति का रूचि पायेगा!
प्रज्ञा का माध्यम से साधक युक्त और अयुक्तों का ज्ञान लभ्य
करके दुष्टशक्तों से सावधान रहेगा!
तीव्रसंवेग अथवा निश्पक्षपात का वजह से भौतिक वांछाँएं को अपने से दूर कर्सकेगा!
संघर्षण तीन प्रकार का होता है!
आदिभौतिक शक्तों का संघर्षण:-- साधक को अपना साधना में पैरों,
जोड़ें, कमर इत्यादि शारीरक पीडाएं,
आदिदैविक शक्तों का संघर्षण:-- साधक को अपना साधना में चंचल मन प्राणशक्ति और चेतन को प्रापंचिक भौतिक विषय वांछाँएं का तरफ खीचेंगे, शुद्धबुद्धि अंतर्मुख
होंकर आत्म का तरफ खीचेंगे, ए सब
मानसिकशक्ति पीडाएं,
आध्यात्मिक शक्तों का संघर्षण:-- साधक को अपना साधना में संचित
कर्म का कारण से बहुत बार समाधि में जाएगा और वापस भौतिक प्रपंच में आएगा!
धीरता और दृढसंकल्प से साधक अपना साधना जारी रखने से तब इन
तीनों सभी संघर्षण शक्तियों अपना अधीन में आएगा! तब कर्म दग्ध होंकर परिपूर्ण
मुक्ति यानी निर्विकल्पसमाधि लभ्य पाकर योगी अपना इच्छा से जन्म यानी शारीर धारण
कर सक्ता है अथवा शारीर छोड़ भी सक्ता है जिसको इच्छा मृत्यु कहते है!
अभिमन्यु
अभि सर्वत्र मनुते प्रकाशते इति अभिमन्यु !
महाभारत का अर्थ महा प्रकाश! परमात्म चेतना ही महा प्रकाश! उस
परमात्म चेतना केलिए साधना का अनुकूल और प्रतिकूल शक्तियों के युद्ध ही
महाभारत!
अभिमन्यु का अर्थ आत्मजय अथवा आत्मनिग्रह है!
मोहरूपी पद्मव्यूह में अभिमन्यु बंदी हुआ! दुर्योधन(काम),
दुश्शासन(क्रोध), कर्ण(लोभ), शकुनी(मोह), शल्य(मद), कृतवर्मा(मात्सर्य), द्रोण(संस्कारों) और
जयद्रथ(अभिनिवेश) करके दुष्टशक्तों चारोतरफ घेर्लिया!
मगर साधक यानी अभिमन्यु धैर्ययुक्त होके स्थूल, सूक्ष्म और
कारण तीनों शरीरों को सीमाओं का अतिक्रमण किया! उनका वजह से सम्यक समाधि से
प्रकाशित होगया!
धारण, ध्यान और समाधि तीनों को मिलाके सम्यक समाधि कहते है!
सम्यक समाधि लभ्य होंकर साधक इस भौतिक प्रपंच में रहने को इच्छा नहीं करेगा!
इसीलिए महासमाधि का अर्थ परमात्माका साथ ऐक्य होना ही अभिमन्यु का निष्क्रमण
वृत्तान्त!
ओणम्
श्री महाविष्णु वामनावतार में बलि चक्रवर्ती को तीन कदम् /फूट
का जमीन दान माँगता है! राक्षस गुरु शुक्राचार्य इंकार करने से भी नहीं सुनके
वाग्दान का मुताबिक़ चक्रवर्ती दान देदेते है!
वा का अर्थ वरिष्ठ, मन का अर्थ मनस्, वरिष्ठ मनस् यानी स्थिर
मनस् है!
स्थिर मनस् के लिए तीन कदम् का अवसर है! साधक अपना साधन में
तीन प्रकार का अवरोध, आदिभौतिक, आदिदैविक, और आध्यात्मिक, आते है!
आदिभौतिक अवरोध का अर्थ शारीरक रुग्मतायें, आदिदैविक अवरोध का
अर्थ मानसिक रुग्मतायें, और आध्यात्मिक का अर्थ ध्यानसम्बंधिता रुग्मतायें, है!
इन्ही को मल, आवरण और विक्षेपण दोषों कहते है!
शारीरक रुग्मतायें का मतलब ज्वर, शिरदर्द, बदन का दर्द
इत्यादि!
मानसिक रुग्मतायें, का मतलब मन का संबंधित विचारों इत्यादि!
ध्यानसम्बंधिता रुग्मतायें का मतलब निद्रा, तन्द्रा,
आलसीपन इत्यादि!
क्रिया योग साधक परमात्मा में ऐक्यता होनेके लिए ए उप्पर दिया
हुआ तीन प्रकार का अवरोधों का बारे में सावधान रहना चाहिए! इन तीनों को वैराग्य से
दूर करके स्थिर मन लभ्य करना चाहिए! परमात्मा से प्रार्थना करके ए तीनों कदम् पार
करने का माँगना चाहिए! ऐसा माँग ही तीन कदम्!
सब कुछ परमात्मा हे करता है! वे परिच्छिन्न भी है और
अपरिच्छिन्न भी है! परामात्मा ही साधक का साधना तीव्रतम होगा
तब ए तीन कदम् मांगेगा! तीव्रध्यान में अँगुष्ठ प्रामाण में सूक्ष्मरूपी वामन का
दर्शन कूटस्थ में होना ही इस का निदर्शन है! ए सूक्ष्मरूपी वामन साधक का स्वस्वरुप
है!
साधक अपना अंदर का इन्द्रिय विषय वांछोम् को वैराग्य से दूर
करना ही बलि है! विचारधारा वर्तुलाकार में
(चक्र) आना उनका वृत्ति (वर्ती) है! ए ही चक्रवर्ती का अर्थ है! वर्तुलाकार चित्त
वृत्तियों को वैराग्य से दूर करना ही बलि चक्रवर्ती का अर्थ है!
राक्षसगुरू शुक्राचार्य अहंकार को पालन करनेवाले है! काम,
क्रोध, लोभ, मोह, मद, और मात्स्र्योम् को मूलकारण अहंकार को त्यजना ही बलि है!
पाताललोक कही और नहीं है, हमारा अंदर ही है! इन्द्रिय विषय वांछोम् को वैराग्य से
उन से अतीत होना ही साधक का आध्यात्मिक अभिवृद्धि है!
अस्माकं तु विशिष्टाये तान्निबोधद्विजोत्तम
नायका मम सैन्यस्य संङ्ञार्थं तान् ब्रवीमिते! 7
ओ ब्राह्मणोत्तम्, अब अपना कौरव सैन्य में प्रमुखों,
सेनानायकों कौन कौन है उन को आप का ज्ञप्ति के लिए याद दिला रहा हु! ए
सब साधक का अंदर का अंतः शक्तियों का संघर्षण है!
भवान भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिङ्जय
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमिदत्तिस्तथैवच 8
अन्येच बहवः शूराःमदर्थे त्यक्तजीविताः
नानाशास्त्रप्रहरणाः सर्वेयुद्ध विशारदाः 9
आप, भीष्म, कर्ण, युद्धमे जयशील कृपाचार्य, अश्वत्थामा,
विकर्ण, भूरिश्रव, और मेरेलिए अपना अपना जीवन दान करने अनेक अन्य शूरों, ए सारे
युद्ध समर्थ और शस्त्रास्त्र संपन्न लोग इधर है!
द्रोणाचार्य(संस्कारों), भीष्म(अहंकार अथावा अस्मित),
कर्ण(राग), कृपाचार्य(अविद्या), अश्वत्थामा(छिपाहुआ इच्छाओं), विकर्ण(द्वेष),
सोमदत्त का पुत्र सौमादात्त भूरिश्रव(कर्म—अच्छा, बुरा, अच्छा और बुरा मिश्रित
कर्म), और बहुतों नकारात्मक शक्तियाँ अपना अपना सामर्थ्यों का साथ शस्त्रास्त्र
संपन्न होंकर खडा है! वे
मै, दुर्योधन(कामों का राजा), दुश्शासन(क्रोध), कर्ण विकर्ण
(लोभ), शकुनि(मोह), शल्य(मद), और कृतवर्मा(मात्सर्य). कृतवर्मा को श्रीकृष्ण से
जलन बहुत है क्योंकि जिस कन्या को कृतवर्मा शादी करना चाहा उसकों श्रीकृष्ण ने
शादी किया!
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्
पर्याप्तं त्विदमे तेषां बलं भीमाभिरक्षितं 10
ऐसा शूरों का साथ हमारा अपरिमित कौरव सेना भीष्म का रक्षा में
है, परिमित पांडव सेना भीम् का रक्षा में है!
भौतिक विषयवांछों अपरिमित है! ओ भीष्म यानी अहंकार का रक्षा
में है! सत्य और धर्म समायुक्त पांडवसेना परिमित है! ओ भीम् यानी प्राणशक्ति
नियंत्रता का रक्षा में है!
सत्य नित्य और अग्नि जैसा है! असत्य अनित्य और सूखा घास जैसा
है! अग्नि को ढकने के सूखा घास जितना डालने से भी ढक नहीं सकता और उसके अलावा जल
जाएगा! वैसा ही दृढनिश्चय से परमात्मा का अनुसंथान कामनेवाले भीम् यानी प्राणशक्ति
नियंत्रता का रक्षायुक्त परिछाया में स्थित साधक को भीष्म यानी अहंकार का रक्षा
में स्थित असत्य अनित्य और भौतिक विषयवांछों अपरिमित भीष्म यानी अहंकार और उनका
दुश्ताशाक्तियाँ का प्रभाव कुछ भी नहीं होगा!
अयनेषु च सर्वेषु यथा भागा मवस्थिताः
भीष्ममेवाभि रक्षंतु भवंतस्सर्व एवहि! 11
आप सब अपना अपना व्यूहामारगों में अपना नियमित स्थानों से
सर्वविधा भीष्म को ही रक्षा करना है!
दुष्टशक्तियों का राजा दुर्योधन को दिव्यशक्तियों सदा भय है!
उस भय का हेतु अपना सेनानायक भीष्म यानी अहंकार का रक्षा के लिए दुष्टशक्तियों को समायत के लिए
बुलाते है!
अहंकार मरने से जगत नहीं है! साधक को अपना गम्य पहुँचने के लिए
मार्ग सुगम होजाएगा! इधर दुर्योधन अपना कौरवसेना का सभी योद्धाओं को सिर्फ भीष्म
को रक्षा करने आवाज दिया! ओही केवल एक भीम यानी प्राणशक्ति नियंत्रता पांडवसेना को रक्षा करने के लिये निर्भय होंकर
खडा है! प्राणशक्ति नियंत्रता का सामने बाकी नकारात्मक शक्तियों सब निर्वीर्य होता
है!
तस्य संजनयन्हर्षम् कुरुवृद्धः पितामह
सिंहनादम् विनद्योच्चैश्शंखंदध्मौप्रतापवान् 12
पराक्रमशाली और कुरुवृद्ध भीष्मपितामह दुर्योधन का उत्साह केलिए जोर से सिंहनाद करके शंख को
बजाया!
कुरुवंश में बाह्लिक का बाद भीष्म ही बुजुर्ग है!
साधक का अंदर का नकारात्मक शक्तियों यानी इच्छाओं का राजा दुर्योधन को उत्साह देनेकेलिए भीष्म यानी
अहंकार तुरंत तुरंत शंखारावं यानी श्वास
क्रिया किया!
योगसाधना में प्राणशक्ति नियंत्रण अतिमुख्य और मूल्यवान है!
इच्छाओं का हेतु साधक प्राणशक्ति नियंत्रण नहीं करसकेगा जिसका वजह से उसका श्वास
जल्दी जल्दी करेगा और विषयलोल होजायेगा! विषयलोलता को साथ देता है संस्कारों! मगर
सत् संस्कारों प्राणशक्ति नियंत्रण करने सहायता देकर इंद्रिय विषयलोलता बद्ध नहीं
करेगा! अहंकार यानी मै, मेरा मुझसे इत्यादि इंद्रिय विषयलोलता बद्ध करता है मनुष्य
को!
ततः शंखाश्चभेर्यश्चपणवानक गोमुखाः
सहसैवाभ्य हन्यंत सा शब्द स्तुमुलोभावत् 13
भीष्म शंखारावं करने बाद कौरव सैन्य में बाकी सब योद्धायें
अपना अपना शंख, भेरियां, इत्यादियों को बजाया! उन् शब्दों से बहुत जोर आवाज से
दिशाओं प्रतिध्वनित हुआ!
साधक को तीव्र साधना का समय में कम शब्द भी बहुत जोर से सुनाई
देगा! भौतिक और सूक्ष्म इन्द्रियों का शब्दों सुनकर साधक अचंभा होता है क्योंकि
साधना का पहले इन का शब्द कभी सुनाई नहीं दिया! भौतिक और सूक्ष्म इन्द्रियों का
शब्द ही ए शंख इत्यादियों का शब्द!
साधना में चार छीज मुख्य है! ओ है मन, श्वास, वीर्य और
प्राणशक्ति!
मनुष्य का शारीर में 72,000 सूक्ष्म नाड़ीयां है! उन् में इडा, पिंगळा, और सुषुम्ना, तीन सूक्ष्म
नाडियां अति मुख्या है! मेरुदंड का बाए तरफ इडा, दाए तरफ पिंगळा और बीच में
सुषुम्ना नाडियां है! ए तीनों नाडियां गुदास्थान से आरम्भ करके मेरुदंड का माध्यम से
कूटस्थ तक साथ चलते है! कूटस्थ में इडा और पिंगळा रुख जाते है! सुषुम्ना आगे बढ़ कर
ब्रह्मरंध्र का नीचे उपस्थित सहस्रार तक जाता है!
गुदास्थान का नीचे मूलाधार चक्र का साथ कुंडलिनी शक्ति यानी
द्रौपदी उपस्थित है! क्रियायोग साधना का माध्यम से कुंडलिनी शक्ती को जागृत करके
मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, आनाहत, विशुद्ध, आज्ञा नेगटिव पाजिटिव और सहस्रार
चक्रों द्वारा ब्रह्मरंध्र में पहुंचाना ही साधक का धर्म/गम्य/लक्ष्य है! इस साधना
का अवरोध करने नकारात्मक और सहायत करने सकारात्मक शक्तियों का संघर्ष ही महाभारत
युद्ध है!
मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपुर, ए सभी संसार
चक्रों कुरुक्षेत्र है! ब्रह्मग्रंधि कहते है!
मणिपुर, आनाहत, विशुद्ध ए सभी संसार और धार्मिक चक्रों का मिलन
धर्मक्षेत्र -- कुरुक्षेत्र है! रूद्रग्रंधि कहते है!
विशुद्ध, आज्ञा नेगटिव पाजिटिव और सहस्रार धार्मिक चक्रों धर्मक्षेत्र
है! विष्णुग्रंधि कहते है!
कुंडलिनी शक्ती जागृत
होंकर मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, आनाहत, और विशुद्ध, चक्रों को पार करना ही
द्रौपदी पंच पांडवों को विवाह करने का अर्थ है!
ततः श्वेतैर्हहैर्युक्तेमहतिस्यन्दने स्थितौ
माधवः
पांडवाश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः
14
पश्चात श्वेताश्व लगाहुआ महा रथ में बैठाहुआ श्री क्रष्ण और
अर्जुन दोनों अपना अपना दिव्या शंखों को बजाया!
अश्व इंद्रियों का चिह्न है! सफ़ेद स्वच्छता/शुद्धता का प्रतीक
है! शुद्ध इंद्रियों का साथ साधना सर्वदा गरिष्ट है! कृष्ण शुद्ध बुद्धि और अर्जुन क्रियायोग साधक का प्रतीक है! ए
दोनों एक ही रथ(शरीर) का सदस्य है! ए दोनों अपना अपना अहंकार त्याग किया! शंख
अहंकार का प्रतीक है! रेचक यानी श्वास को निश्वास करना ही शंख बजाने का अर्थ है!
अब साधक साधना करने उपक्रम किया!
मा=पृथ्वी, धव= भर्त, माधव= श्रीकृष्ण चैतन्य यानी सृष्टि का अंदर
का परमात्मा
पाञ्चजन्यं हृषीकेशोदेवदत्तं धनंजय
पौण्ड्रं दध्मौ शँख भीमकर्मा वृकोदरः 15
अनंतविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः
नाकुलस्सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ 16
काश्यश्चपरमेश्वासश्शिखण्डीच महारथः
दृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः 17
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशःपृथिवीपते
सौभद्रश्च महाबाहुःशंखान्दध्मुः पृथक पृथक 18
श्रीकृष्ण अपना शँख पांचजन्य को, अर्जुन देवदत्तं को, भयंकर
कार्य करनेवाला भीम पौण्ड्रं को,
युधिष्ठिर ने अनन्तविजयं, नकुल ने सुघोष को और सहदेव ने मणिपुष्पक् को बजाया!
वैसा ही महा धनुर्धारी काशीराज, महारथी सिखंडी, दृष्टद्युम्न,
विराट्, अपजय नहीं जाननेवाला सात्यकि, द्रुपद्, द्रौपदी पुत्रों उपपांडवों, महाभुजबल
अभिमन्यू, और सेना का अंदर उपास्थित तदितर योद्धावो अपना अपना शंखों बजाया!
शिखंडी का अर्थ नपुंसक यानी तटस्थ है! तटस्थतावलम्भी को भीष्म
यानी अहंकार कुछ भी नहीं करसकता है!
प्रति एक चक्र को एक रंग, दळ, रूचि और शब्द होता है! शँख
इत्यादियों का शब्दों का अर्थ क्रिया योग साधक को अपना साधना में सुनाई देनेवाले
चक्रों का और सकारात्मक और नकारात्मक शक्तियोंका संघर्षण ही है!
परमात्म कोई परब्रह्म और ब्रह्मम् भी कहते है! परब्रह्म
अविद्या में अपना चेतना को फेलाई जिसका परिणाम ही सृष्टि है! ब्रह्मम् को चार
भागों में विभाजित करनेसे उसमे एक भाग नामरूप जगत में रूपांतरण हुआ! इसीको व्यक्त
ब्रह्मम् अथावा व्याकृत ब्रह्मम् और ए इन्द्रियगोचर है!
शेष तीन भाग ब्रह्मम् अव्यक्त अथावा अव्याकृत ब्रह्मम् जो
निराकार और सत् चित् आनन्द स्वरुप है!
परमात्मा हर चीज में है और हर चीज का अतीत भी है! अगर मै एक
कमरा में बैठे है समझो, ओ कमरा मेरा अंदर भी है मेरेसे अधिक भी है, इसीको अतीत
कहते है!
एक विद्युत इंस्ट्रूमेंट(Instrument) काम करने केलिए इसका अंदर का शक्ति हेतु
है! वैसा ही इस जड़ शरीर को चैतन्य करने इस शरीर का अंदर का परमात्म चेतना ही कारण
है!
दो परस्पर विरूद्द और आंखों को नहीं दिखनेवाले वायु, हैड्रोजन
और आक्सिजन, मिलके आँखों को दिखाई देनेवाले पानी बनजाता है!
जैसा सूर्य का साथ तेजस्विता है वैसा ही अविद्या से उद्भव हुआ
इस सकल चराचर दृश्य जगत यावत भी निराकार निर्गुण परब्रह्मम् अन्तर्भाग है! इस जड़
और माया जगत का आधार परमात्म चेतना ही है!
सर्वव्यापक ब्रह्मम् को पहचान किया योगी को माया दिखाई नहीं
देगा! वैसा ही माया में फसा हुआ साधारण मनुष्य को ब्रह्मम् दिखाई नहीं देगा!
जड़ाऊ माया सृष्टि का हेतु, निश्छल ब्रह्मम् नहीं है! इस माया
को ही योगमाया कहते है! सत् राजो तमो गुण संयुक्त इस योगमाया को चित् शक्ति,
महामाया और मूलप्रकृति इत्यादि नामांक्रुता है!
कारण सृष्टि:
त्रिगुणात्मक अविद्या ब्रह्मचैतन्य से सृजनात्मक शक्ति लभ्य
किया है! ब्रह्मचैतन्ययुक्त अविद्या से प्रथम में आकाश(शब्द), आकाश से
वायु(स्पर्श), वायु से अग्नि(रूपम्), अग्नि से वरुण अथावा जल(रसम्), वरुण अथावा जल
से पृथ्वी(गंध) उत्पन्न हुए! इन्हीं को पंचमहाभूतों कहते है! ए स्वयं प्रकाशित
नहीं है! जैसे अयस्कांत क्षेत्र में लोह अयास्कांतीकरण होता है वैसा ही परमात्मा
का चेतना क्रमशः पहले आकाश, पश्चात वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी में प्रवेश किया जिस
का कारण वे चैतन्यवंत हुआ!
शब्द स्पर्श रूप रस और गंध को पञ्च तन्मात्र कहते है! अविद्य
अथवा मूलप्रकृति से उत्पन्न हुआ प्रप्रथाम शब्द ॐकार है! ए सर्व सृष्टि ॐकार से ही
उत्पन्न हुआ है!
इस सूक्ष्म पञ्च महाभूतों सत्व राजो तमो गुणों सहित है! इस
त्रिगुणात्मक मूल अज्ञान् अथावा अविद्या को कारण सृष्टि कहते है! अभी तक किसी का
साथ मलिन नहीं हुआ सूक्ष्म पञ्च महाभूतों को अपंचीकरण कहते है!
अपंचीकृत समिष्ठि सत्वगुण सूक्ष्म पञ्च महाभूतों अर्थाभाग से
पञ्च ज्ञानेंद्रियों व्यक्तीकरण हुआ! आकाश से श्रोत्रं(कान), वायु से त्वक(चर्म),
जल से रस(जीब), पृथ्वी से घ्राण(नाक) व्यक्तीकरण हुए! श्रोत्रं(कान), त्वक(चर्म),
रस(जीब), घ्राण(नाक) मांसपेशियों नहीं, केवल शक्तियों है!
शेष अपंचीकृत समिष्टी सत्वगुण सूक्ष्म पञ्च महाभूतों अर्थाभाग
से अंतःकरण व्यक्तीकरण हुआ!
अपंचीकृत समिष्ठि सत्वगुण सूक्ष्म अर्थाभाग आकाश में परमात्म
चेतन स्वयं प्रवेश किया! सत्वगुण सूक्ष्म अर्थाभाग वायु में संशयात्मक मनस्, अग्नी
में निश्चयात्मक बुद्धि, जल में चंचल चित्तं, और पृथ्वी में कर्तृत्ववान अहंकार
व्यक्तीकरण हुए!
अपंचीकृत समिष्ठि रजोगुण सूक्ष्म पञ्च महाभूतों अर्थाभाग से
क्रमशः कर्मेन्द्रियाँ व्यक्तीकरण हुए!
अपंचीकृत समिष्ठि रजोगुण सूक्ष्म अर्थाभाग आकाश से वाक् यानी बोलने शक्ति(मुह) उत्पन्न हुआ!
समिष्ठि रजोगुण सूक्ष्म अर्थाभाग वायु से पाणी यानी क्रिया शक्ति(हाथों), अग्नी से
पादम् यानी गमन शक्ति(पैरों), जल से पायुवू यानी विसर्जना शक्ति(गुदास्थान), और पृथ्वी से उपस्थ/शिश्नं
यानी आनंदित शक्ति(लिंग) व्यक्तीकरण हुए!
शेष अपंचीकृत समिष्ठि रजोगुण सूक्ष्म पञ्च महाभूतों अर्थाभाग
से मुख्य प्राण व्यक्तीकरण हुआ! क्रमशः उस मुख्य प्राण का करने काम का कारण से
पञ्च प्राणों में विभाजित किया है!
अपंचीकृत समिष्ठि रजोगुण सूक्ष्म अर्थाभाग आकाश से प्राण वायु(स्थान हृदय) उत्पन्न हुआ! समिष्ठि
रजोगुण सूक्ष्म अर्थाभाग वायु से अपानवायु(गुदास्थान), अग्नी से व्यानवायु(स्थान सर्वशरीर
), जल से उड़ान वायु(स्थान कंठ), और पृथ्वी सेसामानवायु(स्थान नाभि) व्यक्तीकरण
हुए! मांसपेशियों नहीं, केवल शक्तियों है!
सूक्ष्म सृष्टि तत्वों
को अधिदेवातायें होते है! ओ सुलभरीति से समझने को निम्नलिखित टेबल दिया है!
परमात्मा
श्री कृष्ण
चैतन्य(सृष्टि का अंदर का परमात्म)
|
अविद्या (त्रिगुणात्मक)
सत्व
|
रजो
|
तमो
|
कारण शरीर
आकाश
(शब्द)
|
वायु
(स्पर्श)
|
अग्नि
(रूपं)
|
जल
(रसं)
|
पृथ्वी
(गंध)
|
अपंचीकृत समिष्ठि
अपंचीकृत समिष्ठि
सत्वगुणसूक्ष्म पञ्च सत्वगुणसूक्ष्म पञ्च
महाभूतों अर्थाभाग महाभूतों
अर्थाभाग
अंतःकरण
|
अधि
देवता
|
ज्ञानेंद्रियों
|
अधि
देवता
|
|
½ आकाश
(परमात्म चेतना)
|
परमात्म
|
½ आकाश
|
श्रोत्रं(कान)
|
दिशाओं
|
½ वायु
(संशयात्मक मनस)
|
चंद्र
|
½ वायु
|
त्वक( चर्म)
|
स्पर्शन
|
½ अग्नि
(निश्चयात्मक बुद्धि)
|
बृहस्पति
|
½ अग्नि
|
चक्षु (आँखों)
|
सूर्य
|
½जल(चंचल चित्त)
|
रूद्र
|
½जल
|
जिह्वा (जीब)
|
वरुण
|
½ पृथ्वी
(अहंकार)
|
जीव
|
½ पृथ्वी
|
घ्राण(नाक)
|
अश्वनीदेवतायें
|
अपंचीकृत समिष्ठि
अपंचीकृत समिष्ठि
रजोगुण सूक्ष्म पञ्च रजोगुण सूक्ष्म पञ्च
महाभूतों अर्थाभाग महाभूतों
अर्थाभाग
महाभूतों
|
कर्मेन्द्रियाँ
|
अधि
देवता
|
पञ्च प्राण
(स्थान)
|
अधि
देवता
|
|
½आकाश
|
मुह(बोलने
शक्ति)
|
अग्नि
|
½आकाश
|
प्राण(हृदयं)
|
विशिष्ट
|
½ वायु
|
पाणी (हाथों) क्रिया शक्ति.
|
इन्द्र
|
½ वायु
|
अपान (गुदा
स्थान)
|
विश्व कर्म
|
½अग्नि
|
पादं (गमन
शक्ति)
|
उपेन्द्र
|
½अग्नि
|
व्यान (सर्व
शरीर)
|
विश्वयोनि
|
½जल/वरुण
|
गुदास्थान(विसर्जाना शक्ति)
|
मृत्यु
|
½जल/वरुण
|
उदान (कंठ)
|
अज
|
½ पृथ्वी
|
शिशिनं (आनंद
शक्ति)
|
प्रजापति
|
½ पृथ्वी
|
समान(नाभि
)
|
जाय
|
सूक्ष्म सृष्टि 19तत्वों
का समावेत है! .वे
5 ज्ञानेंद्रियों, 5 कर्मेन्द्रियाँ, 5 प्राण, 4 अंतःकरण! इस सूक्ष्म
सृष्टि भौतिक नेत्र को दिखाई नहीं देगा!
5 ज्ञानेंद्रियों
|
5 कर्मेन्द्रियाँ
|
5 प्राण
|
4 अंतःकरण
|
कुल 19 तत्वों
|
स्थूल सृष्टि अथावा पंचीकरण:
पञ्च तन्मात्राओं विविध रूपों में मिलाने का हेतु स्थूल सृष्टि
बनगया!
अपंचीकृत समिष्ठि तमोगुण सूक्ष्म पञ्च महाभूतों अर्थाभाग क्रमशः बाकी चार तमोगुण सूक्ष्म
पञ्च महाभूतों का 1/8 भागों
का मिलाके स्थूल पञ्च महाभूतों बनगया! इस निम्नलिखित टेबल को देखिए:
आकाश
|
वायु
|
अग्नि
|
जल
|
पृथ्वी
|
पञ्चकं
|
½
|
1/8
|
1/8
|
1/8
|
1/8
|
आकाश
|
1/8
|
½
|
1/8
|
1/8
|
1/8
|
वायु
|
1/8
|
1/8
|
½
|
1/8
|
1/8
|
अग्नि
|
1/8
|
1/8
|
1/8
|
½
|
1/8
|
जल
|
1/8
|
1/8
|
1/8
|
1/8
|
½
|
पृथ्वी
|
पंचीकरण हुए आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ए पांचों उसी नाम
में बुलायाजायेगा!
अविद्या अथावा सत्व रजो तमोगुणात्मक मूलप्रकृति से व्यक्तीकरण
हुए सत्व सूक्ष्म महाभूतों हर एक को अपना ही तन्मात्रा था! तन्मात्रा का अर्थ
शक्ति है! आकाश को शब्द, वायु को स्पर्श, अग्नि को रूप, जल को रस और पृथ्वी को गंध
तन्मात्राओं था!
स्थूल सृष्टि सूक्ष्म सृष्टि जैसा नहीं है! स्थूल आकाश को
शब्द, स्थूल वायु को शब्द और स्पर्श, स्थूल अग्नी को शब्द, स्पर्श और रूप, स्थूल
वरुण/जल को शब्द, स्पर्श, रूप और रस, स्थूल पृथ्वी को शब्द, स्पर्श, रूप, रस और
गंध पाँच तत्वों व्यक्तीकरण हुए!
ए व्यक्तीकरण हुए स्थूलभूतों से जरायु यानी चतुष्पाद जंतुओं,
अंडजों यानी पक्षियों, सरीकृपों, स्वेदजों यानी मच्छर, क्रीमी कीट इत्यादि,
उद्भिजों यानी पेड पौधे व्यक्तीकरण हुए!
मनो बुद्धि चित्त और अहंकार नाम का स्थूल अंतःकरण स्थूल आकाश
पञ्चकं से हुआ! स्थूल पञ्चप्राणों स्थूल वायु पञ्चकं से, स्थूल पञ्चेंद्रियों स्थूल अग्नि पञ्चकं से,
स्थूल पञ्च तन्मात्रों स्थूल वरुण/जल पञ्चकं से, स्थूल पञ्चकर्मेन्द्रियाँ स्थूल
पृथ्वी पञ्चकं से व्यक्तीकरण हुआ!
स्थूल आकाश का अर्थाभाग में ब्रह्मचैतन्य स्वयं प्रवेश किया!
शेष स्थूल आकाश का अर्थाभाग में चार भाग करने से हर एक भाग 1/8 बनजाता है! उस का साथ बाकी स्थूल भूतों
समान प्रतिपत्ति में क्रमशः मिल के समिष्टी स्थूल अहंकार, विषय चिंतनीय चित्त,
निश्चयात्मक बुद्धि और संकल्प विकल्प युक्त मनस व्यक्तीकरण हुए! ऐसा स्थूल अंतःकरण
व्यक्तीकरण हुआ! इस निम्नलिखित टेबल देखिए:
स्थूल अंतःकरण का ½ आकाशा = ब्रह्मचैतन्य
|
1/8 स्थूल आकाश+1/8 पृथ्वी = स्थूल समिष्टी अहंकार
1/8 स्थूल आकाश +1/8 जल् = स्थूल समिष्टी चित्तं
1/8 स्थूल आकाश +1/8 अग्नि = स्थूल समिष्टी बुद्धि
1/8 स्थूल आकाश +1/8 वायु = स्थूल समिष्टी मनस
|
स्थूल वायु:
स्थूल वायु का अर्थ भाग व्यानावायु का रूप में व्यक्तीकरण हुए!
शेष स्थूल वायु का अर्थाभाग में चार भाग करने से हर एक भाग 1/8 बनजाता है! उस का साथ बाकी स्थूल भूतों
समान प्रतिपत्ति में क्रमशः मिल के समिष्टी स्थूल समान, उड़ान, प्राण और अपान वायु
का रूप में व्यक्तीकरण हुए! ऐसा स्थूल अंतःकरण व्यक्तीकरण हुआ! प्राण और अपान वायु
को व्यान वायु अनुसन्धान कराके प्रसारण करवाएगा! इस निम्नलिखित टेबल देखिए:
½ स्थूल वायु= समिष्टी स्थूल व्यान वायु
|
1/8 स्थूल वायु +1/8 स्थूल आकाश = समिष्टी स्थूल समान वायु
1/8 स्थूल वायु +1/8 स्थूल अग्नि = समिष्टी स्थूलउड़ान वायु
1/8 स्थूल वायु +1/8 स्थूल जल् = समिष्टी स्थूल प्राण वायु
1/8 स्थूल वायु +1/8 स्थूल पृथ्वी = समिष्टी स्थूल अपान वायु
|
स्थूल ज्ञानेंद्रियों:
स्थूल अग्नी का अर्थ भाग चक्षु यानी देखने का शक्ति का रूप में
व्यक्तीकरण हुए!
शेष स्थूल अग्नी का अर्थाभाग में चार भाग करने से हर एक भाग 1/8 बनजाता है! उस का साथ बाकी स्थूल भूतों
समान प्रतिपत्ति में क्रमशः मिल के समिष्टी स्थूल
श्रोत्र यानी सुनने का शक्ति, त्वक यानी स्पर्शन का शक्ति, जिह्वा यानी
रसने का शक्ति, और घ्राण यानी सूंगने का शक्ति व्यक्तीकरण हुए! इस निम्नलिखित टेबल देखिए:
½ स्थूल अग्नि= समिष्टि स्थूल नेत्र
|
1/8 स्थूल अग्नि +1/8 स्थूल आकाश = स्थूल समिष्टिकान
1/8 स्थूल अग्नि +1/8 स्थूल वायु = स्थूल समिष्टि त्वचा .
1/8 स्थूल अग्नि +1/8 स्थूल जल् = स्थूल समिष्टिजीब
1/8 स्थूल अग्नि +1/8 स्थूल पृथ्वी = स्थूल समिष्टिनाक
|
स्थूल पञ्च तन्मात्रों:
स्थूल जल्/वरुण का अर्थ भाग समिष्टि रसतत्व का रूप में
व्यक्तीकरण हुए!
शेष स्थूल जल्/वरुण का अर्थाभाग में चार भाग करने से हर एक भाग
1/8 बनजाता है! उस का
साथ बाकी स्थूल भूतों समान प्रतिपत्ति में क्रमशः मिल के समिष्टी स्थूल शब्द, स्पर्श, रूप रस और गंध स्थूल पञ्च
तन्मात्रों व्यक्तीकरण हुए! इस
निम्नलिखित टेबल देखिए:
½ स्थूल जल्/वरुण =समिष्टी स्थूल रसतत्व
|
1/8 स्थूल जल्/वरुण +1/8 स्थूल आकाश = समिष्टी स्थूल शब्द
1/8 स्थूल जल्/वरुण +1/8 स्थूल वायु = समिष्टी स्थूल स्पर्श
1/8 स्थूल जल्/वरुण +1/8 स्थूल अग्नि = समिष्टी स्थूल रूप
1/8 स्थूल जल्/वरुण +1/8 स्थूल पृथ्वी = समिष्टी स्थूल गंध
|
स्थूल पञ्च कर्मेन्द्रियाँ:
स्थूल पृथ्वी का अर्थ भाग समिष्टि स्थूल पायु/गुदा (मलविसर्जना
शक्ति) का रूप में व्यक्तीकरण हुए!
शेष स्थूल पृथ्वी का का अर्थाभाग में चार भाग करने से हर एक
भाग 1/8 बनजाता है! उस का
साथ बाकी स्थूल भूतों समान प्रतिपत्ति में क्रमशः मिल के समिष्टी स्थूल मुह (वाक्
शक्ति), पाणी(हाथों-क्रियाशक्ति), पादं (पैरों- गमन शक्ति) और
उपस्थ/शिश्न/लिंग(आनंदशक्ति) व्यक्तीकरण हुए!
इस निम्नलिखित टेबल देखिए:
½ स्थूल पृथ्वी = समिष्टि स्थूल पायु/गुदा (मलविसर्जना शक्ति)
|
1/8 स्थूल पृथ्वी +1/8 स्थूल आकाश = समिष्टि स्थूल मुह (वाक् शक्ति)
1/8 स्थूल पृथ्वी +1/8 स्थूल वायु = समिष्टि स्थूल पाणी(हाथों-क्रियाशक्ति).
1/8 स्थूल पृथ्वी +1/8 स्थूल अग्नि = समिष्टि स्थूल पादं (पैरों- गमन शक्ति)
1/8 स्थूल पृथ्वी +1/8 स्थूल जल् = समिष्टि स्थूल उपस्थ/शिश्न/लिंग(आनंदशक्ति)
|
इसीलिए स्थूल सृष्टि 24 तत्वों से समायुक्त है!
पञ्चज्ञानेंद्रियाँ, पञ्च कर्मेन्द्रियों,
पञ्च प्राणों, पञ्च तन्मात्राओं और चार अंतःकरण कुल मिलाके 24 तत्वों है!
पञ्च ज्ञानेंद्रियाँ
|
पञ्च कर्मेन्द्रियों
|
पञ्च प्राणों
|
पञ्च तन्मात्राओं
|
चार अंतःकरण
|
कुल मिलाके 24
तत्वों
|
सघोशा धार्तराष्ट्राणाम् हृदयानी व्यदारायात्
नाभश्च पृथिवींचैव तुमुलोव्यनुनादयन् 19
पांडव वीरोंका शंखो का उस संकुल ध्वनि भूमि और आकाशों को
प्रतिध्वन करते हुए दुर्योधानावोम का ह्रुदयों को थोड़ दिया!
मूलाधारचक्र से सहदेव का मणिपुष्पक शँख से आने दिव्य भ्रमर का
शब्द, स्वाधिष्ठान से नकुल का सुघोष शँख
से आने दिव्य बांसुरी का शब्द, मणिपुर से
अर्जुन का देवदत्त शँख से आने दिव्य वीणावाद का शब्द, अनाहत से भीम का पौंड्रक शँख से आने दिव्य घड़ियाल का
शब्द, विशुद्ध से युधिष्ठिर का अनंतविजय
शँख से आने दिव्य जल् प्रवाह का शब्द, इन्द्रियोंके प्रभु हृषीकेश यानी श्री कृष्णजी का पांचजन्य शँख
से आने दिव्य ॐ शब्द ए सारे इच्छाओं का राजा दुर्योधन और उनका सहचरों को बहुत
ढरादिया!
अथ व्यवस्थितान् दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम पाण्डवः 20
हृषीकेशं तदावाक्य मिदमाह महीपते!
अर्जुन उवाचा:-
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापयामेच्युत 21
यावादेतानिरीक्षेहं योद्धुकामानवस्थितान्
कैर्मया सहयोद्धव्यम् अस्मिन रणसमुद्यामे 22
योत्स्य मानानवेक्षेहम् य येतेत्रसमागताः
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रिय चिकीर्षवः 23
हे धृतराष्ट्र महाराजा, उस पश्चात रणरंग में
आयुधों प्रयोग करने पहले कपिध्वज अर्जुन युद्ध के लिए सन्नद्ध हुए कौरवों को देख
कर धनुस हाथ में लेकर श्री कृष्ण से ऐसा कहा:--
हे कृष्णा, इस युद्ध का आरम्भ में मै जिस जिस का साथ युद्ध
करना, और युद्धाभिलाषियोम् को मै किस प्रदेस से मै अच्छी तरह से देख सकता है उस
प्रदेस में मेरा रथ को स्थापित करो!
दुष्टबुद्धि दुर्योधन को युद्ध में प्रिय करने इधर जमाहुए इन
योद्धों को मै देखना चाहता हु!
परामात्मा से उत्पन्न हुए श्री कृष्ण चैतन्य को शुद्ध तत्वा
माया अथवा सृष्टि के अंदर का परमात्म कहते है! इस सृष्टि के अंदर का परमात्म अपने
आपको ६ विधोमे विभाजित किया!
ए छे चेतनाओं और श्री कृष्णचैतन्य कुल मिलाके सात् चेतनाओं को
प्रकृति छिपाके साधारण मनुष्य को दिखने नहीं देगा! ए सात् चेतनाओं केवल योगी ही
देख सकते है! एक वास्तु हम को दिखाई देने के लिए प्रथम में उस वास्तु का उप्पर
सूर्यकिरणों गिरना चाहिए, उन् किरणों परावर्तन करने से तब ओ वस्तु दिखायी देगा!
इसी को आभास चैतन्य कहते है! अंतर्मुख हुआ अहंकार दिखाई नहीं देगा, परावर्तन हुआ
यानी इन्द्रियों से बाहर आके व्यक्त हुआ आठवीं चेतना अहंकार पूरित तमोगुण सहित
आभास चैतन्य ही हमारा साधारण नेत्रों को दिखायी देगा!
तमोगुण पंचीक्रुत पंचामहाभूतों में भी आकाश और वायु दिखाई नहीं देगा,
अग्नि, जल् और पृथ्वी ए तीनोँ ही दिखाई देगा!
जल् गंगा यानी प्रक्रुति का प्रतीक है! भीष्म अहंकार का प्रतीक
है! गंगा सात् शिशुओं को नदी में छोडने का मतलब प्रक्रुति सात् शिशुओं यानी सात्
चेतानाओं साधारण मनुष्य से छिपाके रखना ही है!
मनुष्य का शरीर में 72
हजारों सूक्ष्म नाडियां है! उन् में मेरुदंड अंदर बाए तरफ में स्थित इडा, और दहिने
तरफ स्थित पिंगळा और इन दोनोँ का बीच में स्थित सुषुम्ना नाडियां ए तीनोँ अति
मुख्य है!
मनुष्य का शरीर का अंदर गुदास्थान का पास मूलाधार्चाक्र है! इस
मूलाधार से शुरू करके इडा, पिंगळा और सुषुम्ना तीनोँ सूक्ष्म नाडियां कूटस्थ तक
साथ सफर करता है! वहा इडा और पिंगळा दोनोँ रुख्जाता है! केवल सुषुम्ना ब्रह्मरंध्र
का नीचे स्थित सहस्रार्चक्र तक सफर करता है!
भौतिक मेरुदंड का अंदर सुषुम्ना सूक्ष्मनादी, सुषुम्ना का अंदर
वज्र, वज्र का अंदर चित्र, करके सूक्ष्म नाडियां होते है! नीचे और कुछ सूक्ष्म
नाडियां का
नाम और स्थान दिया है!
पूषा
|
कानों का दोनों भुजाओं में
|
गांधारी, हस्तिजिह्वा
|
आँखों का छिद्रों का दोनों भुजाओं में
|
सरस्वति
|
जीब का अंत में
|
सिनीवाली
|
मूत्रविसर्जन छिद्र
में
|
कपिध्वज:-- ध्वजा का अर्थ मेरुदंड, कपि का अर्थ मनस मन् शिर में होता है! ध्वज यानी मेरुदंड का
उप्पर शिर में स्थित मन को स्थिर करना चाहिए साधक! गुरु का आज्ञा पाकर साधक बंदर
जैसा मुह लगा के खेचरी मुद्रा में क्रियायोग ध्यान करते हुए प्राणशक्ती को मूलाधार
से आज्ञाचक्र तक, फिर आज्ञाचक्र से मूलाधारचक्र तक फिरौती करते हुए मेरुदंड अथवा
मेरुध्वाज को अयस्कान्तईकरण करते हुए साधना करणा ही कपिध्वज का अर्थ है!
संजय उवाच--
एवमुक्तो हृषीकेशः गुदाकेशेन भारत
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा राथोत्तमम 24
भीष्मद्रोण प्रमुखतः सर्वेषांच महीक्षिताम्
उवाच पार्थ ! पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति 25
संजय ने ऐसा कहा:
हे धृतराष्ट्र महाराज, अर्जुन ने वैसा कहने का पश्चात, श्री
कृष्ण उस उत्तम रथ को दोनों सेनाओं का मध्य में भीष्म द्रोण और सर्व राजों का
सामने स्थापित करके ‘ इधर एक कट्टे हुए कौरवों को देखो’
कहा!
गुडाकेशः ----निद्रा और तमोगुणों को जय किया हुआ अति जागरूक
मनुष्य!
हृषीकेश ---- इन्द्रियोंको राजा मनस् .
साधक अपना मेरुदंड को सीदा रखना, टेडा नहीं होना है!
आत्मनिग्रह नाम का झंडा को उदाना है! कूटस्थ में दृष्टि रखना है! कपि यानी खेचरी
मुद्रा लगा के ध्यान के लिए उपक्रम करणा है!
मेरुदंड को ध्वज कहते है! मेरुदंड स्थित चक्रों में दृष्टि
केन्द्रीकरण करणा चाहिए! अथावा अनावसर विचारों मन को अस्तव्यस्थ करेगा! साधक का
चेतना को इन्द्रियोंके तरफ आकर्षित करेगा!
केवल कूटस्थ में दृष्टि रखने से ही भीष्म(अहंकार),
द्रोण(संस्कारों और बाकी कौरवसेना(दुष्ट नकारात्मक शक्तियों) को हृषिकेश(सत् मनस)
का सहायता से अर्जुन(साधक) देख सकते है और नियंत्रित कर सकता है!
साधक ने तीन ग्रंथियों को छेदन करणा है!
उस में प्रथम् ब्रह्म ग्रंथि है! इस ग्रंथि कुरुक्षेत्र का
मूलाधार चक्र से लेकर मणिपुर चक्र तक व्याप्त हुआ है! इस ग्रंथि मानवचेतना का
संबंधित है! भौतिक विषयासक्ति में निमग्न होंकर योगसाधना में कुछ न कुछ शारीरिक
क्लेश देके साधना को आगे बढ़ाने नहीं देगा! सृष्ट्यादि से स्थित इस भौतिक शरीर को
शारीरिक क्लेशों होना सहज धर्म है! इसलिए आदिभौतिक शांति कहते है! आदिभौतिक शांति
आसनसिद्धि के लिए आवश्यक है!
उन् में द्वितीय ग्रंथि रूद्र ग्रंथि है! इस ग्रंथि
कुरुक्षेत्र—धर्मक्षेत्र का मणिपुर चक्र से लेकर विशुद्ध चक्र तक व्याप्त
हुआ है! इस ग्रंथि मन को विचारों करवाके योगसाधना में कुछ न कुछ रुकावटें दाल के
साधना को आगे बढ़ाने नहीं देगा!
जिस में स्थूलशरीर बिना सूक्षमा और कारण शरीरों होता है उन्
देहधारो को देवी, देवता, शैतान वगैरा कहते है! अछ्छा गुण होने से देवी, देवता,, और
दुष्ट गुण होने से शैतान वगैरा कहते है!
मन को भी सूक्ष्म शरीर कहते है! सृष्ट्यादि से स्थित इस सूक्ष्म
शरीर को विचारों का क्लेशों होना सहज धर्म है! इसलिए आदिदैविक शांति कहते है!
आदिदैविक शांति मानसिक निश्चलता के लिए आवश्यक है!
उन् में तृतीय और आखरी ग्रंथि विष्णु ग्रंथि है! इस
ग्रंथि धर्मक्षेत्र का
मणिपुर चक्र विशुद्ध चक्र से लेकर सहस्रार चक्र तक व्याप्त हुआ है! शरीर
हल्का होना, माया का हेतु भय से साधक साधना का बीच में उड़ना जैसा भाव आना होता है
और योगसाधना में कुछ न कुछ रुकावटें दाल के साधना को आगे बढ़ाने नहीं देगा! सृष्ट्यादि से स्थित इस कारण शरीर को ऐसे रुकावटें
डालना सहज धर्म है! इसलिए आध्यात्मिक शांति कहते है! आध्यात्मिक शांति के लिए
परमात्म का करुणा और दया आवश्यक है!
गुदाकेशा :-- सदा निद्रा का अधिगमन करके माया को पार करने
सिद्ध है! ऐसा साधक का शरीर ही उत्तम रथ है! वैसा ही अथीरथ और महाराथों का अर्थ
जिन साधकों अपना अपना शरीरों को साधना के लिए सिद्ध किया है!
तत्र अपश्यत स्थितान्पार्थ पित्रून अथापितामाहान्
आचार्यान मातुलान भ्रात्रून पुत्रान पुत्रान सखीम्स्तथा 26
श्वासुरान सुह्रुदश्चैव सेनयोरुभयोरपि
तान्समीक्ष्य स कौन्तेय सर्वान बन्ढूनवस्थितान 27
कृपया पराविष्टो विषीदंनिदमब्रवीत
संजय ने ऐसा कहा :--
तत् पश्चात अर्जुन ने उधर दोनोँ सेनाओं का बीच में खडा हुए
पिताओं, दादाओं, गुरूओं, मामाए, भ्रात्रुजनोम्, पुत्रोंको, पुत्रोंको, मित्रोँ को,
श्वासुरोम् को, हितैषियों को सभी को देखलिया! उस युद्धभूमी में खडे हुए सारे
बंधुजनों को अच्छी तरह देखकर दयार्द्र ह्रुदय होंकर दुःख से ऐसा कहा!
इधर दियाहुआ बंधुजनों सभी साधक का अंदर का सकारात्मक और
नकारात्मक शक्तियां है!
प्रापंचिक व्यापार संबंधित विषयोंका यानी धनार्जन् इत्यादियों
का ज्ञान का पीछे उपस्थित इन्द्रियोंके वश होंकर परमात्म चेतना को मनुष्य नहीं
पहचानता है! इस स्थिति नकारात्मक स्थिति है!
निद्रा
को दूर करके पक्का(ఖచ్చితముగా) आत्मनिग्रह का सहायता से प्रापंचिक और
शारीरक बाधायों को अधिगमन करके आध्यात्मिकता केलिए शरीर को सिद्ध करने स्थिति
सकारात्मक स्थिति!
कुंती का दूसरा नाम है पृथा! सहिष्णुता और शांत का प्रतीक है!
पृथा का पुत्र पार्थ, पार्थ का अर्थ मन को नियंत्रण करके आध्यात्मिकता का तरफ शरीर
को सिद्ध करने स्थिति अर्जुन का वर्त्तमान पार्थ स्थिति! इस स्थति में साधक को
गहरा शांति और आत्मानान्दम कभी कभी लभ्य करता है! चक्रों में बीजाक्षर ध्यान इत्यादि
प्रक्रियों का माध्यम से साधक का चेतना चक्रों में केंद्रीकृत होंकर परमानंद और
आत्मसाक्षार पाने का स्थिति है ए! इस स्थिति अभी भी द्वैत स्थिति है!
साधक परामात्मा का साथ ऐक्य होने का स्थिति अद्वैत स्थिति!
दादा, पिता इत्यादि बन्धुजन ‘ मै, मेरा मुझे’ यानी स्वार्थपूरित अहंकार का
प्रतीकांयें है! अनुकूल और प्रतिकूल
शक्तियाँ दोनों बराबर शक्तिवंत है!
द्रुपद विपरीत शांति का प्रतीक है!
गुदास्थान का नीचे 3 ½ चक्कर लगाके निद्रावस्था में रहनेवाले
शक्ती ही कुण्डलिनी है! ए कुण्डलिनी ही द्रुपद का पुत्री द्रौपदी! समिष्टि में जो
माया कहते है, व्यष्टि में इसी को कुण्डलिनी कहते है! निद्रावस्था में निमग्न हुआ
कुण्डलिनी को इन्द्रियविषयलोलता से जागरण करके पुनः सहस्रार को साधना का माध्यम से
भेजना चाहिए!
जागृती हुआ इस कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार(सहदेव),
स्वाधिष्ठान(नकुल), मणिपुर(अर्जुन), अनाहत(भीम), और विशुद्ध(युधिष्ठिर) चक्रों को
पार करना ही द्रौपदी पंच पांडवों को विवाह करना!
इस द्रौपदी ही प्रक्रुति, पंच पांडवों पंचभूत तत्वों है!
जागृती हुआ कुण्डलिनी शक्ति ओ ओ चक्र को क्रमशः पार करने समय जो शक्तियाँ उत्पन्न
होने दिव्यशाक्तियाँ उपपांदावों है!
प्रति एक चक्र का बाए तरफ़ इडा सूक्ष्म नाड़ी होता है! ए कौरवों
यानी नकारात्मकशाक्तियाँ है! प्रति एक चक्र का दाए तरफ़ पिंगळा सूक्ष्म नाड़ी होता
है! ए पांडवों यानी सकारात्मकशाक्तियाँ है!
संस्कारों दिशा निर्देश करने गुरुओं है! वे अच्छे और बुरे कोई
भी हो सकते है! अच्छे और बुरे इन संस्कारों के पुत्रों और पौत्रों है, अच्छे और
बुरे आदतें हितैषियों और व्यतिरेकियों!
अर्जुन उवाचा:--
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्णायुयुत्सुम् समुपस्थितम् 28
सीदन्ति मामा गात्राणि मुखंच परिशुष्यति
वेपथुश्च शरीरे में रोमाहर्षश्च जायते 29
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात त्वाक्चैवा परिदह्यते
नाचाशाक्नोम्यवास्थातुम् भ्रमतीवाचा में मनः 30
अर्जुन ने कहा :--
हे कृष्णा, युद्ध करने इधर समायुक्त इन बंधुजनों को देखकर मेरा
सारे अँगे सड् जा रहा है, गला सुखा रहा है, शरीर में कंपन आ रहा है, रोमांचित(గగుర్పాటు) हो रहा है, मेरा धनुष गांडीव हाथ से
गिर रहा है, त्वचा जल् रहा है, खडा होने शक्ति नहीं होके मन घूम रहा है!
तीव्र ध्यान में निमग्न हुए साधक को अपना साधना में जो
तकलीफियां आराहाहाई उन् को अपना आत्मगुरु को निवेदन कर रहा है!
इस समय तक आलसीपन को आदत हुए और अपना इष्ट का मुताबिक़
प्रवर्तित करने अंगों, आज योग ध्यान करके अंतर्मुख होने के प्रयत्न करने समय में,
इन शरीरकपीधावोम् का हेतु आत्मनिग्रह पालन केलिए
मेरे अंगों सड रहा है, ॐ प्रणवाक्षर उच्चारण से गला सुख गया,
साधना में आगे बढ़ेगा नहीं बढ़ेगा करके विचारों का मानसिक दुर्बलता मेरे में स्थान
लेलिया, ध्यान में मेरुदंड(गाण्डीवं) को सीदा रखने असक्त होके आत्मनिर्भरता और इस
के कारण उसका इन्द्रिय विषयासक्ति से रक्षा करने ज्ञानशक्ति झुकरहा है! ध्यान समय
में ए सभी व्याकुलता का हेतु मेरा मानसिक चेतना नाम का चर्म जल् रहा है!
हे केशवा(दुष्ट संहारका), मै क्रियायोग ध्यान में पराजित होगा
करके क्लेश से मेरा मन घूम रहा है!
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशवा
नचा श्रेयोंनुपश्यामि हटवा स्वजनमाहवे 31
हे कृष्णा, अपशकुनो को भी देख रहा हु! युद्ध में ए सारे
बंधुजनों को मार के मुझे क्या लाभ लभ्य होगा नहीं देख पाराहू!
ॐकार बाण जैसा है! ॐकारोच्चारण रामबाण जैसा है! निकलाहुआ
रामबाण वृथा नहीं जाता है! वैसा ही ॐकारोच्चारणवृथा नहीं जाएगा! ओ ब्रह्माण्ड का
दुष्ट नकारात्मक शक्तियों को सम्हार करता है!
श्वास को अस्त्र जैसा उपयोग करना ही श्वास्त्र है! श्वास्त्र
श्वास्त्र कहते हुए शास्त्र होगया है!
वैराग्य का
श्वास को
पूँजी लगाके देव साम्राज्य को लब्धि होना ही वैराग्य है! इस पूँजी में प्रगति लभ्य
तुरंत नहीं होता है! वैसा लभ्य नहीं मिलनेवाले साधक का अवस्था है ए! इन्द्रिय
निग्रहता से भौतिक विषयवांछों को मारने से भी परमानंद लभ्य होगा नहीं होगा करके
संदेह साधक को अवश्य उत्पन्न होता है!
और शारीरक बाधाएँ, मानसिक विचारोंका बाधाएँ, जैसा दुश्श्कुनो
को अनुभव करते भी मेरे को आध्यात्मिक प्रगति का लाभ नहीं होगा करके व्यथ और
व्याकुलन में दूबाहुआ साधक का परिस्थिति है ए! गणित में समीकरणों नहीं करपानेवाले
विद्यार्थी का पारिस्थि जैसा है! परन्तु प्रबल और कठोर साधना से लाभ पा सकता है!
विजय तथ्य है!
न कांक्षे विजयं कृष्णा नचा राज्यम सुखानिच
किं नो राज्येन गोविंदा किम भोगैर्जीवितेनवा 32
हे कृष्णा, युद्ध विजय या राज्य भोग, मै नहीं चाहेगा, युद्ध
विजय, राज्य भोग, और इस जीवित से हमें क्या लाभ है?
एशामर्थे कान्क्षितम नोराज्यम भोगाः सुखानिच
टा इमेव स्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानिच 33
आचार्या पितारापुत्राः तथैव च पितामहाः
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः स्यालाह सम्बन्धिनस्तथा 34
जिन का हेतु हम इस राज्य, राज्यभोगों, और सुखों को चाहते है,
वे गुरुवों, पिताओं, पुत्रों, दादाओं, मामाओं, श्वसुरो, पौत्रो, सालों, संबंधों
इत्यादी सभी अपना धन, मन और प्राण को बाजी लगाकर इस रणरंग में सामने उपस्थित हुए
है!
साधक को आने सन्देहों में ए अतिमुख्य है!
दादा—अन्तःकरण, पिता—इन्द्रियों, पौत्र—इच्छाओं!
ए सभी मरने से और बचेगा कौन? इच्छाओं और उनके अनुयायीयों
संस्कारों यानी मामाओं, श्वसुरो यानी इन्द्रियाविषयलोलताएं मर जाने से इस लभ्य होनेवाले दैवासाम्राज्य को
अनुभव करने कौन है!
एतान्नाहंतुमिच्छामि घ्नातोपि मधुसूदन
अपित्रैलोक्य राज्यस्य हेतो किम नु महीकृतेः 35
हे कृष्णा, मुझे मारनेवाले होने से भी, तीन लोकों का
राज्याधिपत्य को भी मै इन लोगों को मारने अशक्त हु, फिर इस भूलोक राज्याधिपत्य के
लिए कहने का क्या अवसर नहीं है!
मधुसूदन--- अज्ञान् अथावा आध्यात्मिक प्रतिकूल छीजों को
निकालनेवाला!
ध्यान में नकारात्मक प्रतिकूल शक्तियों से तंग होंने साधक का
अवस्था है ए!
स्थूल, सूक्ष्म और कारण लोकों को पार करने से आनेवाला साम्राज्य दैव साम्राज्य हे है! ओ
तीव्रावैराग्य सहित प्राणायाम क्रियायोग साधना से ही लभ्य होगा!
उस गहरा ध्यान नहीं होने के हेतु हाथ में जो इन्द्रिय विषय
वांछों है उन् को कम से कम अनुभव करने उद्देश्य से ‘मुझे कोई भी राज्य नहीं चाहिए, जो हाथ
में है उन्ही का अनुभव से तृप्ति प्राप्त करने’ साधक का स्थिति है ए!
कक्ष्य मे प्रथम स्थान में उत्तीर्णता के लिए विद्या प्रारंभ
करके, पशात् दुष्ट सहवास से अच्छी तरह नहीं पढ के असफलता लभ्य होंकर आखरी में
निम्न स्थाई में उत्तीर्णता से संतृप्ति होने विद्यार्थी का दुस्थिति जैसा है ए!
निहत्य धार्ताराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्यात् जनार्धनः
पापमेवाश्रायेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः 36
जनार्दन—आर्ताजनों का सव्य इच्छाओं को अनुग्रह
करनेवाला
हे कृष्णा, दुर्योधनादों को मारने से हमें क्या संतोषजनक होगा?
इन लोग दुर्मार्ग लोग होने से भी हमें पाप ही प्राप्त होगा!
दुर्योधन कामं का प्रतीक है! काम, क्रोध, लोभा, मोह, मद और
मात्सर्य इत्यादि दुर्योधनादों को परामात्मा ने मनुष्य के लिए ही आविष्कार किया!
स्थूल, सूक्ष्म और कारण लोकों को त्रिपुरो कहते है! इन लोकों
को अंत करने से साधक देव साम्राज्य जो नित्य और यदार्थ है उस में प्रवेश करेगा! इस
के लिए कठोर साधना आवश्यक है! इस तीव्र साधना में असफलता लब्ध पानवाला साधक ऐसा ही
व्यर्थ तर्क करेगा!
अन्नमयकोश :--
पंचीकरण का पश्चात स्थूल पंचभूतों से व्यक्तीकरण हुए 24 तत्वों सहित स्थूलशरीर ही अन्नमयकोश है! पंचज्ञानेंद्रियाँ, पंचकर्मेन्द्रियाँ, पंचप्राणों, पंचतन्मात्राएँ
और अन्तःकरण सभी मिलाके स्थूलशरीर कहते है!
तन्मात्रा का अर्थ शक्ति! आकाश को शब्द, वायु का स्पर्श, अग्नि
का रूप, जल् को रस और पृथ्वी को गंध शक्तियों होते है!
प्राणमयकोश :--
सूक्ष्मशरीर का अपंचीकृत पंचप्राणों(प्राण, अपान, व्यान, समान
और उडान), पंचकर्मेन्द्रियाँ,(पाणी, पाद, पायु, उपस्थ और शिशिनं) ए सब मिलाके
प्राणमयकोश कहते है!
मनोमयकोश :-- सूक्ष्मशरीर का पंच ज्ञानेंद्रियाँ, मन और चित्त मिलाके
मनोमयकोश कहते है!
विज्ञानमयकोश :--
सूक्ष्मशरीर
का पंच ज्ञानेंद्रियाँ, अहंकार, निश्चयात्मक बुद्धि सब मिलाके विज्ञानमयकोश कहते है !
प्राणमय, मनोमय, और विज्ञानमयकोश तीनों मिलाके सूक्ष्मशरीर
कहते है
आनंदमयकोश
:--
त्रिगुणात्मक
और मूल अज्ञान सहित मोहस्वरूपी अविद्या कवच ही आनंदामयाकोश है जिन को कारनाशारीर
कहते है!
अवस्थाएं
:--
जाग्रतावस्था:--
ब्रह्मचैतन्य
कारणशरीर में, कारणशरीर का माध्यम से सूक्ष्मशरीर में, सूक्ष्मशरीर का माध्यम से
स्थूलशरीर में प्रवेश करके, तीनों यानी स्थूल, सूक्ष्म और कारण, शरीरों चेतनात्मक
होना ही जाग्रतावस्था कहते है!
स्वप्नावस्था
:--
ब्रह्मचैतन्य
का प्रवेश का हेतु कारणशरीर और सूक्ष्मशरीर दोनों यानी सूक्ष्म और कारण, शरीरों
चेतनात्मक होना ही स्वप्नावस्था कहते है! इस अवस्था में स्थूलशरीर निद्राण स्थिति
में रहते है!
सुषुप्ति
अवस्था :--
ब्रह्मचैतन्य
का प्रवेश का हेतु केवल कारणशरीर शरीर चेतनात्मक होना ही सुषुप्ति अवस्था कहते है!
इस अवस्था में स्थूलशरीर और सूक्ष्म शरीरों अचेतानात्मक स्थिति में रहते है! गहरा
नींद में ऐसा स्थिति साधारण मनुष्य को और तीव्र ध्यान में योग साधको ऐसा अनुभव
होता है!
सृष्टि
का अंदर का परमात्मा को श्रीकृष्णचैतन्य अथवा शुद्धसत्वमाया कहते है! इस
श्रीकृष्णचैतन्य, समिष्टि का अंदर का स्थूल, सूक्ष्म और कारण चेतनाओं, व्यष्टि का
अंदर का स्थूल, सूक्ष्म और कारण चेतनाओं, कुल मिलाके सात् चेतनाओं में व्यक्तीकरण
होते है! ए सात् चेतनाओं साधारण मनुष्य नेत्रको नहीं दिखेगा!
कारणशारीर
को तमोगुण प्रभाव से मल और आवरण दोषाए, रजोगुण प्रभाव से विक्षेपण दोषाए लगता है!
मैल
लगा हुआ लाम्तर चिम्नी का अंदर का ज्योति दिखाई नहीं देता है! वैसा ही हमारा अंदर
का तमोगुण अज्ञानता करके मैला का मल दोष का हेतु हमारा अंदर का परमात्मा हमें
दिखाई नहीं देगा! अंधेरे में रस्सी को देख कर सर्प कर के भ्रम हो कर उस का
यदार्थारूप को नहीं पहचानते है! वैसा ही तमोगुणी अज्ञानता करके मनोचंचलता का हेतु
है इस आवरण दोष! इस दोष हमारा अंदर स्थित
परामात्मा को भूलने कर देता है!
रजोगुण
का हेतु और अहंकारपूर्ण है ए विक्षेपण दोष! रागद्वेषाएं, सुखदुःखो, स्वार्थ,
प्रेम, वात्सल्य, दया, संतोष, तृप्ति, असंतृप्ति, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और
मात्सर्य कर के अरिषड्वर्गाएं इत्यादि विक्षेपण दोष कहते है!
इन
मला, आवरण और विक्षेपण दोषों का हेतु
कारण
शरीर को 1) देहावासना यानी कर्त्रुत्व भोक्त्रुत्व, 2) धन, पुत्र और धारा करके ईषणात्रयम् 3) शास्त्रवासन, 4) लोकवासनाएं लभ्य होता है! इन का कारण अविद्या, भय और अहंकार इत्यादि
अस्मिता,रागद्वेष और अपना शरीर का उप्पर मोह और अभिनिवेश लभ्य होता है!
तस्मान्नार्हावयम्
हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबांधावान्
स्वजनं
ही कथं हत् सुखिनः स्याममाधवा .
37
मा का
अर्थ प्रकृति, धव का अर्थ भर्ता,
ब्रह्मांड
को चेतन देनेवाला चैतान्यमूर्ती कृष्णा, उप्पर दिया हुआ कारणों का हेतु हम हमारा
बन्धुजन दुर्योधनादोम् को मारने योग्य नहीं है! हमारा ही बन्धुजन को मार के हम
कैसा सुख प्राप्ति कर सकते है!
हमारा
अंदर का काम क्रोध इत्यादि को मार के मनुष्य कैसा सुख प्राप्ति कर सकते है!
हमारा
आदतों का हेतु संस्कारों है! संस्कारों का हेतु मनुष्य इन्द्रिय प्रलोभो का वश में
आता है! अपना इच्छाशक्ति से इस को अधिगमन
करने को साधना को उपक्रम करता है!
शराब
पीने शराबी को कुछ न कुछ बहाना चाहिए, वैसा ही साधना में असफलता अथवा बलहीनता का
हेतु साधक उस को छोड़ने के कारण डूंढता है! ए सभी तर्क इसीलिए लाता है!
यद्यप्येते
नापश्यन्ति लोभोपहतचेतसः
कुलक्षयकृतं
दोषं मित्रद्रोहेचा पाताकः 38
कथं न
ज्ञेयमस्माभिः पापादास्मान्निवर्तितुं
कुलक्षयकृतं
दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दाना 39
हे
कृष्णा, अगर राज्यलोभ से भ्रष्टचित्त होंकर वंशनाश का वजह से होने दोष को और
मित्रद्रोह से होने पाप और अनर्थ को नहीं जानने से भी, उन् दोनों का अच्छी तरह
जाननेवाले हम क्यों युद्ध विरामिण नहीं करणा है मुझे समझ नहीं आरहा है!
पाप
और पुण्य दोनों परमात्मा का अधीन में हुए माया सृष्टि का लीलाओं है! अरिषड्वर्गाएं
यानी दुर्योधनादियोम् इन्द्रियाजात है! ओ मन का माध्यम सा अपना अपना कार्य करते
जाएगा! ओ कभी कभी अवसर से अधिक व्यक्तीकरण कर सकता है! केवल इसी हेतु इन को मारने
से फिर सुख और दुःख को व्यक्तीकरण करने के लियें माध्यम नहीं होगा!
ये
अधिक मात्रा से स्पंदन कर के पाप खट्टा किया करके युक्तायुक्तविचक्षणाज्ञान् होने
हम भी इस पाप क्यों करणा है? और इस पाप को क्यों इकट्टा करना है!
पाप
और पुण्य भोगने एक तरफ इन्द्रियाविशायालोलता, दूसरी तरफ समझने युक्त बुद्धि भी जिस
के लिए साधारण साधना दोनों का आवश्यकता है करके गलत शोचता है संदिग्ध साधक! विष भी
लेलो और उस का ठीक करने अमृत भी पीलो, ऐसा है ए स्थिति!
चंचलता
सभी में अधिक दुष्ट है! ओ हमारा दृष्टि को प्रापंचिक विषयों में पूर्ति निमग्न
करके मनुष्य को अज्ञान में डूबा के परामात्मा से दूर रखेगा! क्रमबद्ध से ध्यान
करते रहने से हम सर्वदा परामात्मा में रहेंगे!
दुष्ट
छीजो के अपना शक्ति होता है! प्रलोभ का वश होने से विवेक का बंदी होंकर बलहीन
होजाता है! इच्छावों मनुष्य का बद्ध शत्रु है! इन्द्रियों को संतृप्ति करवाते जाने
से ओ और भी इच्छित होते रहेंगे और इन को संतृप्ति करना दुस्साध्य है!
मनुष्य
इन्द्रिय नहीं है! इन्द्रियों मनुष्य का केवल सेवक मात्र है! मनुष्य ए सभी को अतीत
हुए शुद्ध आत्म, एही इसका निजस्वरूप है!
प्रलोभ
मानव सृष्टि नहीं है! परामात्मा का अधीन हुए माया का सृष्टि नहीं है! सृष्टि है!
सभी मानव माया का वश होते है! माया का अधीन से बाहर आने परमात्म ने अंतरात्मा,
बुद्धि और संकल्पशक्ति दिया है! देहभाव और शरीरसौख्य में डूब के आत्मा को भूल जाना
ही प्रलोभ कहते है! प्रलोभ मिठासी विष है!
प्रापंचिका
सुख से परामात्मा में ऐक्य होना ही शास्वत आनंद है! परामात्मा ऐक्य से लभ्य होने
शाश्वतानंद का समान और कोई छीज इस जगत में नहीं है! आज नहीं होने से कल परामात्मा
का तरफ जाना हे है! ओ दिन आज का ही दिन क्यों नहीं है? हम परामात्मा का संतान है, ओ साधना शक्ति
परामात्मा हमें अवश्य दिया है!
कुलक्षये
प्रणश्यन्ति कुलाधार्मास्सनातनाः
धर्मेनष्टे
कुलंकृत्स्नं अधर्मोभिभवत्युता 40
अधर्माभि
भवात् कृष्ण प्रदुश्यंति कुलस्त्रियः
स्त्रीषु
दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः 41
सम्करोनाराकायैव
कुलघ्नानाम् कुलस्यच
पतंति
पितरोह्येषाम् लुप्तापिंडोदकक्रियाः 42
हे
कृष्णा, कुल नाश् होने अनादि से आने कुलाधार्मो खतम हो जाएगा, धर्म विनाश होने से
कुल में अधर्म व्याप्ति होगा! अधर्म वृद्धि होने पर कुलस्त्रीयां अपवित्र हो
जाएगा! स्त्रीयां अपवित्र होने से वर्णसंकर हो जाएगा! ऐसा वर्णसंकर करनेवाले और
वर्णसंकर हुए कुल दोनों को नरक प्राप्ति होंगे! उन् का पितृ देवतायें बिना
श्राद्ध, तर्पणादि नहीं लभ्य होंकर अथोगति प्राप्त होंगे!
वार्ष्णेय
:--- निपुणता, शक्तिशाली, और बलवान
जनार्दन:---
साधको का प्रार्थना सुननेवाले
साधना
में अनेकानेक संदेहों उत्पन्न होंगे!
पंचज्ञानेंद्रियाँ,
पंचकर्मेन्द्रियाँ, पंचतन्मात्राओं, पंचप्राणों और अन्तःकरण ए सभी को कुल कहते है!
ए सभी
को अपना अपना धर्म होते है! उन् का धर्म नीचे दिया हुआ है!
पंचज्ञानेंद्रियाँ:--
कान, चर्म, नेत्र, जीब और नाक
पंचकर्मेन्द्रियाँ:--
मुख(बोलने शक्ति), पाद(गमनशक्ति), पाणी( काम् करनेशक्ति), पायु(विसर्जनाशक्ति), और
लिंग(आनंदशक्ति)
पंचतन्मात्राओं:--
सुनानेशक्ति, स्पर्शाशक्ति), देखानेशक्ति), रुचिशक्ति और सूंघनेशक्ति)
पंचप्राणों:--
प्राण(स्फाटिकीकरण), अपान(विसर्जन), व्यान(प्रसरण), समान(स्पांजीकरण) और
उड़ान(जीवानुपाक)
अन्तःकरण:--
मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार
साधना
में ए सभी को ठीक काम नहीं होने पर आलसी
होके उन् का अपना अपना कुलधर्म नाश् होंकर कामं खतम होके स्त्रियाँ अपना अपना विषय
वांछाए नहीं अनुभव होने पर अपवित्र होजायेगा करके
भौतिक्वादन लाता है साधक इधर!
स्त्री:---
स् + र + त = सत्व + राजस् + तमो गुण
कामं
को अधीन में रखने का अर्थ नपुंसक होना नहीं!
साधारण
तोड़ पर स्त्री में भावावेश अधिक और तार्किकता स्वल्प होते है!
पुरष
में भावावेश स्वल्प और तार्किकता अधिक होते है!
मगर
किसी स्त्री में भावावेश स्वल्प और तार्किकता अधिक हो सकते है! इस का अर्थ स्त्री
रूप में हुआ पुरुष का शरीर है! वैसा ही किसी पुरष में भावावेश अधिक और तार्किकता
स्वल्प हो सकते है! इस का अर्थ पुरुष रूप में हुआ स्त्री का शरीर है!
ध्यान
का माध्यम अंतर्मुख हुआ अन्तःकरण द्वारा परमात्मा का अद्भुत शक्ति इन्द्रियों को
लभ्य होता है!
मन,
बुद्धि, चित्त और अहंकार हमारा पूर्वजोँ है!
तर्पण
का अर्थ अंतर्मुख हुआ प्राणशक्ति!
नियमपालन
करके उत्साहभरित तीव्र आध्यात्मिक साधनाएँ पिंडों है!
तर्पण,
पिंडों साधक का इन्द्रियों को अमित शक्तिवंत करते है!
अन्तर्मुख नहीं हुआ अन्तःकरण को अद्भुताशाक्तियां नहीं लभ्य होंगे! उपयोग
में नहीं हुआ लोहा को जंग रखने जैसा क्रमशः इन्द्रियों शक्तिहीन होके आखरी में
निरुपयोग होंगे! वैसा वैसा संदेहों साधक को उत्पन्न होता है!इन सभी संदेहों का मूल
कामं(दुर्योधन) है!
तीव्र ध्यानायुक्त योगी अपना आत्मनिग्रहशक्ति से प्राणशक्ति को नियंत्रण
करके, प्राणशक्ति को इन्द्रियों के बाहर नहीं जाने देगा! और इस शक्ति को अंतर्मुखी
कर के कूटस्थ में केंद्रीकृत कर के अद्भुत ज्योतिदर्शन प्राप्ति करेगा!
हमारा पूर्वजों को देनेवाले असली तर्पणादि एई है!
दोषैरेतैः
कुलाघ्नानाम वर्ण संकरकारकैः
उत्पाद्यानते
जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः 43
उत्पन्नाकुलधर्मानाम्
मनुष्याणां जनार्दना
नरकेनियतम्
वासो भवतीत्यनुशुश्रुमः 44
हे
कृष्णा, कुलानाशकोम का जाति संकार्य हेतु इन दोषों का वजह शाश्वत जातिधार्मो,
कुलाधार्मो, इत्यादि सर्वनाश हो जायेगा! वैसा कुलधर्मों विनाश हुआ मनुष्यों को
शाश्वत नरक निवास लभ्य होंगे करके हम सूना हुआ है!
पूर्वजों
का अर्थ मनो, बुद्धि, चित्त और अहंकार सहित जीवात्म, इन्द्रियों उनके संतान है, और
. इन्द्रियों का संतान
इच्छाएं!
इन्द्रियों
का अपना अपना काम्यकर्म ही पूर्वजों यानी अन्तःकरण तृप्ति के लिए देने तर्पणॉ
इत्यादि!
समाधि
में इन कुलों को काम नहीं होने पर पूर्वजों को तर्पणॉ देने कोई नहीं शेष रहेगा
करके गलत शोचता है साधक! .
यदार्थ
में अपना साधना का माध्यम से इन्द्रियों द्वारा बाहर जाने प्राणशक्ति को अंतर्मुख
करके सुषुम्ना का माध्यम से कूटस्थ में केंद्रीकृत करके महाभारत यानी महा प्रकाश
अथावा अद्भुत ज्योति का दर्शन प्राप्त करेगा! इस ज्योति दर्शन प्राप्ति करणा ही
आत्मा के हम देने असली तर्पण है!
चक्रध्यान:--
न
अति ऊंछा न अति नीचे होनेवाली आसन में बैठना चाहिए! पैर नीचे जमीन को सीदा
स्पर्शन् नहीं करना है! जुराब पहना चाहिए! मेरुदंड को सीदा रखना है! सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे
ज्ञानमुद्रा लगा के बैठिए! अनामिका अंगुलि के आग्रभाग को अंगुष्ठ के आग्रभाग से
लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। कूटस्थ मे दृष्टि रखीए! मन को जिस चक्र मे
ध्यान कर रहे है उस चक्र मे रखिए और उस चक्र मे तनाव डालिए! पूरब दिशा अथवा उत्तर
दिशा की और मुँह करके बैठिए! शरीर को थोडा ढीला रखीए! गर्दन को पीछे मोड़ के
अधिचेतानावस्था में बैठिए!
गुरुमुखतः क्रियायोग सीखिए! अब एक एक चक्र में ध्यान करते हुए
सहस्रार्चक्र तक जाइए!
एक श्वास + एक निस्श्वास = एक हंसा!
मनुष्य साधारण तोड़ में दिन में 21,600 हंसा यानी एक मिनट में 15 हंसा करते है!
15 हंसा करने से भोगी कहलाते है!
15 हंसा से अधिक करने से रोगी कहलाते है!
15 हंसा से कम करने से योंगी कहलाते है!
कछुआ पूरा दिन में 15
हंसा से कम करते है! इसीलिए अगर कोई नहीं मारने से 1000 वर्ष जीता है! साधक वैसा ही प्राणायाम
प्रक्रिया का माध्यम से अपना जीवन समय को अधिक करसकता है! आरोग्य रहेगा! परमात्मा
से अनुसन्धान करसकता है!
कुलों
मनुष्य का मेरुदंड में स्थित चक्रों जंक्षन बाक्सेस (Junction boxes) जैसे है!
परमात्म चेतना सहस्राराव्हाक्र में मेडुल्ला(Medulla)
का माध्यम से प्रवेश करता है! सहस्राराचक्र परमात्म चेतना भान्डार है! उधर से
परामात्म चेतना कूटस्थ स्थित आज्ञा पाजिटिव चक्र में प्रवेश कर के उधर से आज्ञा
नेगटिव चक्र में प्रवेश करता है! पश्चात् ए चेतना मेरुदंड स्थित विशुद्ध, आनाहत,
मणिपुर, स्वाधिष्ठान और मूलाधार चक्रो मे अवसर का मुताबिक़ विभाजित होता है!
तत् पश्चात् शरीर का नाड़ी केन्द्रों, उधर से नाडियों में, अंग
अंगों में भेजा जाता है!
मेरुदंड स्थित विशुद्ध, आनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान और मूलाधार
चक्रो को कुल कहते है!
कुण्डलिनी का पूँछ उप्पर चक्रों में और शिर मूलाधार का साथ
नीचे होते है! साधक अपना साधना का माध्यम से इस निद्रावस्था स्थित कुण्डलिनी को
जागृति कर के शिर उप्पर चक्रों में और पूँछ नीचे चक्रों में लाता है! ऐसा जागृती
हुआ कुण्डलिनी शक्ति जिस चक्र तक जाने से इतना साधना में आगे बढ़ेगा साधक!
जो मनुष्य बिलकुल योगसाधना नहीं कर के अपना कीमती समय गपशप में
व्यर्थ करता है, उस का कुण्डलिनी निद्रावस्था में होता है और असली में ऑई शूद्र है
और कलियुग में रहनेवाला गिना जाता है! उन् का ह्रुदय काला है कर के परिगण में लेता
है!
साधना का हेतु जागृती हुए कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार चक्र को
स्पर्श करने से उस साधक अपने को परामात्मा का साथ अनुसन्धान करने प्रतिकूल
शक्तियों को प्रतिघटन करने क्षत्रिय का समान है! ओ कलियुग में ही है, फिर भी
क्षत्रिय है! उस का ह्रुदय स्पंदना ह्रुदय है! `
साधना का हेतु जागृती हुए कुण्डलिनी शक्ति स्वाधिष्ठान चक्र को
स्पर्श करने से उस साधक पुनर्जन्म लिया द्विज का समान है! ओ द्वापरयुग में है! उस
का ह्रुदय स्थिर ह्रुदय है!
साधना का हेतु जागृती हुए कुण्डलिनी शक्ति मणिपुरचक्र को
स्पर्श करने से उस साधक वेदापारायाण करने योग्य विप्र का समान है! ओ त्रेतायुग में
है! उस का ह्रुदय श्रद्धा सहित भक्ती ह्रुदय है! `
साधना का हेतु जागृती हुए कुण्डलिनी शक्ति आनाहतचक्र को स्पर्श
करने से उस साधक ब्रह्मज्ञान पाने योग्य ब्राह्मिण का समान है! ओ सत्ययुग में है!
उस का ह्रुदय स्वच्छ ह्रुदय है!
इस प्रकार में शूद्र, क्षत्रिया, वैश्य, शूद्र कुलों उन् का
अपना अपना साधना क प्रगति का मुताबिक़ विभाजन किया!
योंग साधना क प्रगति को त्याग कर कालक्रम में माता पिताओं का
कुल का मुताबिक़ कुल निर्णय देश का ऐक्य और भद्रता का हानी का हेतु होते है! .
अहोबत महात्पापम् कर्तुं व्यवसितावयम्
यद्राज्यसुखालोभेन हन्तुं स्वजनामुच्याताः 45
यदिमामप्रतीकार
मशस्त्रम शास्त्रपाणयः
धार्तराष्ट्रारणे
हन्युस्तान्मे क्षेमतरं भवेत् 46
हां,
राज्यलोभ और सुख का आशा से हम अपना ही बंधुजनों का ह्त्या करने महापाप को संकल्प
किया है!
निरायुध
होके प्रतिघटन नहीं करने खड़ा हुआ मुझे ए दुर्योधानादियों आयुधो धर के ह्त्या करने
सिद्ध होने से भी ओ मुझे क्षेमतर ही होगा!
अष्टविधविवाहों:--
1)ब्राह्मं :-- वधु वरों दोनोँ का परस्पर
अंगीकार से बुजूरुगों का समक्ष में करने विवाह को ब्राह्मं कहते है!
2)दैवं:- बुजूरुगों का अनुमति से करने विवाह को दैवं:
कहते है!
3)आर्षं:-- वर का पास धन ले कर करने विवाह
को आर्षं: कहते है!
4)प्राजापत्यं:-- यज्ञ यागादि करतू करने
भार्या अवश्य है करके करने विवाह को प्राजापत्यं: कहते है!
5)आसुरं :-- राजा का श्रेयस्कर का हेतु
वधु वरों दोनोँ को आर्धिका सहायता करके करने विवाह को आसुरं कहते है!
6)गान्धर्वं:-- वधु वरों दोनोँ इष्ट होंकर
समय और नियमपालन नहीं करके, बुजूरुगों का अनुमति हो न हो, करने विवाह को गान्धर्वं
कहते है!
7)राक्षसम् :-- कन्या को जबरदस्ती उठाके
लेजाके करने विवाह को राक्षसम् कहते है!
8)पैशाचिकं:-- कन्या को नशीले छीजॉ खिलाके
करने विवाह को पैशाचिकं कहते है!
योगसाधना में वृद्धि नहीं होने व्यक्ति का ऐसा गलातक तर्क का
प्रयोग करता है!
इन्द्रिय विषयलोलुप आदत हुवा इन्द्रियों, संबंधित तंत्रिका
केन्द्रों और तंत्रिकाओं इत्यादि साधना का हेतु स्तब्ध होंकर निष्काम होके
निरुपयोगी होंगे! इधर विषयानंद भी खो बैठना और उस तरफ परमानंद भी खो बैठना यानी
दोनों तरफ से नुकसान ही इस का नतीजा है कर के भावना करेगा इधर असफल साधक!
इसीलिए
आगे कुछ परमानंद प्राप्त होगा
करके इन सभी को स्तब्ध करना और जो हाथ में दिया हुआ विषयानंद को त्यागना पापा है करके गलत सोचेगा! .
विशायावान्छी
अंधा मन(धृतराष्ट्र) को तृप्ति का हेतु कितना भी इन्द्रियों को दुरुपयोग करने से
भी कोई लाभ नहीं होंगे!
संजय
उवाच:--
संजय
ने कहा:--
एवंउक्त्वार्जुनस्संख्येरथोपास्ता
उपाविशत्
विसृज्य
सशरं चापं शोक सम्विग्नमानसः 47
हे
ध्रितराष्ट्र महाराज, युद्धभूमि में अर्जुन ने इस प्रकार कहा कर, शोक से विछलित हो
कर बाण का साथ धनुष भी छोड़ के बैठ गया!
अर्जुन(आत्मनिर्भरता)
अपना ध्यान के लिए सीधा रखा हुआ मेरुदंड (गांडीव धनुष) को और अज्ञान विनाशी
अंतर्मुख होने उपयोगी प्राणायाम प्रक्रियों कर के बाणों, सभी को विसर्जित कर के साधारण मनुष्य का शरीर(रथ) से आसनारहित
होंकर बैठ गया! आसना पातांजलि अष्टांगयोग में तीसरा अंग है!
ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेमः
श्रीभगवद्गीत द्वितीयोऽध्यायः संख्यायोगः
संजय
उवाच:--
तम्
तथा कृपयाविष्टं अश्रुपूर्णा कुलेक्षनाणम्
विषीदंतमिदं
वाक्यं उवाच मधुसूदन 1
संजय
ने कहा:--
हे
धृतराष्ट्र महाराजन, इस प्रकार दया से व्याकुलित होंकर गद्गद स्वर से रोता हुआ
अर्जुन को देख कर भगवान श्री कृष्ण ने ऐसा कहा:
पहले दशा में ही देव साम्राज्य को पाना दुस्साध्य है! एक
इंजीनियर, डाक्टर, अथावा वैग्नानिका शास्त्रवेत्त होने के लिए 15 अथावा 20 वर्षों का कठोर परिश्रम का अवसर है!
कुछ तुरंत साध्य करना है सोच के साधना प्रारंभ करके उस का बाद आगे नहीं बढ़ने साधक
अपना मनोव्याकुलता को मधुसूदन, अज्ञान मिटानेवाले, को निवेदन करता है! ए ही शुद्ध
आलोचना शक्ति (संजय) विषयासक्त मन(धृतराष्ट्र महाराज) को कहते है!
श्री भगवान उवाच:
कुतास्त्वाकश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम
अनार्यजुष्ट मस्वर्ग्य मकीर्तिकरमर्जुन 2
श्री भगवान कहा:
हे अर्जुन,
मूर्ख लोग अनुसरण करने, स्वर्गाप्रतिबंधक , और अपकीर्ति लाने
इस मोह इस युद्ध समय में कहा से आया?
कूटस्थ में दृष्टि स्थिर कर के ध्यान करने ओ साधक, निराशा मत
होना, क्योंकि इस निराशा भौतिक विषयवासना चाहनेवाले लोग करते है! आत्मसाम्राज्य
पाने ध्यान करने तुम को, तुम्हारे दृढ़ निर्णय को नाश् करने प्रतीक्षा करने राक्षस
प्रवृत्ती क्रूर अंतः शत्रुओं को जितने योगसाधाना को इस समय में छोड़ के अपकीर्ति मत पाओ करके शुद्ध
बुद्धि साधक को नीति बोध कर रहे है!
क्लैब्यामास्मागामः पार्थ नैतत्त्वयुपपद्यते
ख्सुद्रम ह्रुदयादौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ट परंतप 3
हे परंतप, साधना को रोखने नकारात्मक अपना अंतः शत्रुवों को
तपाने, अर्जुन, अधैर्य नहीं होना, ये आप
के युक्त नहीं है, इस नीच मनोदुर्बलत्व को त्याग के युद्ध करो, उठो! .
पृथा यानी कुंती वैराग्य को प्रतीक है!
पृथा का पुत्र यानी वैराग्य का पुत्र आत्मनिग्रहशाक्ती अर्जुन,
तुम्हारा इस शक्ती को बलहीन नहीं करो, उठ के युद्ध यानी योग साधना करो!
अर्जुन उवाचा:
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन
इषुभिःप्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदाना 4
अर्जुन कहा:
हे कृष्णा! भीष्म और द्रोण दोनों पूजनीय है! वैसा व्यक्तियों
का उप्पर मै बाणों को कैसा प्रयोग करेगा?
विमान में प्रथम पर्याय सफर करने समय गभराहट होता है!
रेल में सफर करने समय पेड पौधा इत्यादि दिखाई देता है, इसीलिए
हम जमीन पर है कर के धार नहीं होता है!
साधना में क्रमशः भौतिक अहंकार क्षीण होते हुए अनंत का तरफ आगे
बढने स्थिति भीष्म (अहंकार) को वध कर के आत्मनिग्रह बलोपेत होने का स्थिति,
क्रमशः साधक का संस्कारों होते हुए अनंत का तरफ आगे बढने
स्थिति द्रोणं (संस्कारों) को वध कर के दैवाचेतना
बलोपेत होने का स्थिति!
परंतु इस स्थिती में भौतिक मानव चेतना सम्पूर्णता से नहीं मरता
है! इसीलिए कुछ जरूरती छीजे मै खो रहा हु जैसा उत्पन्न हुए संदेहॉ का बाधा से
अज्ञानता को दूर करने मधुसूदन से वादन करने सत्ती है ए!
गुरूनाहत्वाहि महानुभावान् श्रेयोभोक्तुं भैक्ष्य मपीहलोके
हत्वार्थाकामांस्तुगुरूनिहैव भुन्जीयाभोगान् रुधिर प्रदिग्धान्
5
इन गुरों जैसा महानुभावोँ को ह्त्या करने अलावा इस लोक में भिक्षान्न
खाना अच्छी है! उन् को वध करने पश्चात उन् लोगों का रक्त से लेप हुए धनसंपदा
काम्यभोगों को ही आनंद लेना होगा!
अहंकार और संस्कार नाम का गुरों को वध करने से, अगर हमें जब
विषयानंद चाहने से उन् का सहकार नहीं लभ्य होके ओ हमें तकलीफ देंगी करके साधक का
संदेह है!
नचैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वाजयेम यदिवानोजयेयुः
यानेवाहत्वा नाजिजीविषामस्तेवस्थिताः प्रमुखे
धार्तराष्ट्राः 6
इस के अलावा, इस युद्ध में हम जीतेंगे अथावा वे जीतेंगे कहा
नहीं सकते है! इस दोनों में कोना सा श्रेष्ठ है हमें पता नहीं है! जिन को वध करके
हम जीवित होना इच्छा नहीं करते है, ओ भीष्म और द्रोण हमारे सामने ही खड़े है!
इस योग साधना युद्ध में अहंकार और इन्द्रियों हमारा दास बनेगा
अथावा हमारा आत्मग्नान उन्हें दास बनेगा पता नहीं है! वैसी सम्देहस्थिती में इन को
त्याग करना युक्त है क्या?
कार्पण्य दोषोपहतस्वभावः पृच्छामित्वां धर्मसम्मूढचेताः
याच्च्रेयास्स्यान्निश्चितंब्रूहि
शिष्यस्तेहंशाधिमांत्वांप्रपन्नं 7
ओ कृष्णा, कृपणत्व और आत्मज्ञानशून्यता
इति दोष का हेतु धर्मं विषय में संदेह का कारण मै तुझे पूछ रहा हु, जो श्रेयस्कर
है उसे हम को समझावों—मै
तेरा शिष्य हु, तेरा शरण लिया हुआ मुझे ‘इस प्रकार व्यवहार करो’
करके शासन करो!
विद्याभ्यास का प्राथमिक दशा में गणित टेबिल्स रट्टा मारने,
साम्घिका शास्त्र, भूगोल इत्यादि विविध ग्रंथो को पढ़ने में क्या लाभ है विद्यार्थी
को पता नहीं लगता है, और ओ सोचेगा की बेकार में मुझे ए लोग कष्ट करते है, मुझे
खेलने नहीं देते है ए लोग! क्रमशः आगे बढ़ने से तब आस्ते असते समझ आएगा की विद्या
की लाभ!
योग साधना का आरम्भा दशा में ऐसे संदेह सहज है! आध्यात्मिक
उन्नति ठीक नहीं होने हेतु, संदिग्ध में भौतिक विषय व्यामोह और नित्य दैवासाम्राज्य
इन दोनों में कोनसा रास्ता लाभदायक है इति सद्गुरु अथावा अपना अंतरात्मा को शरण
में आता है साधक! गणित ठीक से नहीं आने पर अपना गुरु का पूछने का रीति!
नहिप्रपश्यामी ममापनुद्याद्यच्चोकमुच्चोषणमिंद्रियाणां 8
इस भूमंडल में शत्रुरहित समृद्ध राज्य और स्वर्ग में देवातावों
का उप्पर आधिपत्य पाके भी, इन्द्रियों को शोष करनेवाले इस दुःख को मिटानेवाली छीज
क्या है मै खोज नहीं पारहा हूँ!
पृथ्वी मानव शरीर का प्रतीक है! इस शरीर का उप्पर भौतिक का
अर्थ आरोग्य जीवन, और देवतों का आधिपत्य
का अर्थ व्यर्थ आलो०चना रहित मानसिक आरोग्य पाके भी मै इन्द्रियसुख से नहीं दूर
करने मोह नाम का दुःख को जो मिटा सकते है उसकों मै खोनही पा रहाहू!
संजय उवाच:-
एवमुक्त्वा हृषिकेशं गुडाकेशः परंतपः
नयोत्स्य इति गोविंदं उक्त्वा तूष्णीं बभूवह 9
संजय ने कहा:-
ओ राजा, ऐसा श्री कृष्ण से कह कर, ‘मै युद्ध नहीं करूंगा’
बोल के अर्जुन छुप होगया!
हृषीकेश = इन्द्रियों का राजा, गुडाकेश = निद्रा जीता हुए साधक, परंतप = शत्रुवों का दग्ध करनेवाला
साधना में पूर्ण सफलता नहीं पाया हुआ साधक अपना गुरु को
इन्द्रियों का राजा यानी शुद्ध मन जैसा पहचान के और आगे ध्यान करने स्थिति बताकर
फिकर से छुप होगया!
शत्रुवोम को जलाके निद्रा को जित के कुछ योग साधना प्रगति
पायाहुवा साधक का स्थति है ए!
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत
सेनयोरुभयोर्मध्ये विशीदंतमिदं वचः 10
ओ धृतराष्ट्र महाराजन, दोनों सेनाओं का बीच में व्याकुलन करने
उस अर्जुन को देख कर, श्री कृष्ण हसते हुए इस वाक्य कहा!
किताबों का बीच में बैठे गणित सवालों समझ नहीं आने से दुखित
होने विद्यार्थी को देख कर गुरु हसता है! वैसे ही कूटस्थ में दृष्टि निमग्न कर के
सकारात्मक और नकारात्मक अंतः शत्रुवों को देख कर सहायता के लिए अर्थित करते हुए
शिष्य/ साधक को देख कर अंतरात्मा/सद्गुरु दया से प्रहसन करते हुए मुझे देखरहा है
जैसा मन को लगेगा!
श्री भगवान उवाच:-
अशोचानन्व शोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे
गतासून गतासूंश्च नानुशोचंति पंडिताः 11
श्री भगवद्गीता में कही भी श्रीकृष्ण उवाचा का पद प्रयोग नहीं
किया है! श्री भगवान उवाचा का पद प्रयोग ही किया है श्री वेदव्यास महर्षि!
श्री(पवित्र) भ(भक्ती) ग(ज्ञान) वा(वैराग्य) न् यानी पवित्र
भक्ती ज्ञान वैराग्य सहित है श्रीभगवान्!
आकर्षयती इति कृष्णः
श्रीभगवान ने कहा:
हे अर्जुन, तुम जिस के लिए शोक प्रकट नहीं करना है उन् के लिए
दुःखित् हुवा! इस का अलावा बुद्धिवाद वाक्य भी बोल्र रहे हो! ज्ञानी लोग जो मरगये
और जीवित है उन् दोनोँ का बारे में कभी भी दुःखित् नहीं होते है!
इंद्रियों, संस्कारों, इच्छाओं, विशायावांछायें, इत्यादि
प्रस्तुत में होने से भी साधना में क्रमशः मर्जाते है! ओ मर् गया कर के अथावा और
है कर के भी व्याकुलता नहीं होना चाहिए! देव साम्राज्य प्राप्ती के लिए इन का मरण
आवश्यक है!
नत्वेनाहम जातुनासम नातवां नेमे जनाधिपाः
नाचैवा न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् 12
अर्जुन, मै, तुम, अथावा इन राजाओं पहले भी थे और आगे भी होंगे!
देहिनोस्मिन यथा देहे कौमारं यौवनं ज़रा
तथा देहांतरप्राप्तिः धीरस्तात्र न मुह्यति 13
जीव को इस शरीर में बाल्य, यौवन, वार्धक्य अवस्थाएँ जैसे प्राप्ती
होते है, वैसे ही मरण का पश्चात दूसरा भौतिक शरीर प्राप्ति भी लभ्य होता है!
इसीलिए इस विषय में ज्ञानि कभी भी दुःख अथावा मोह में नहे फसते है!
उप्पेर तीनों श्लोकों का अंतरार्थ इस प्रकार का है---
इंद्रियविषयों नित्य नहीं है! अनित्य छीजें का बारे में ज्ञान
से बात कर रहा हु जैसा गलत फेमी से अपना अज्ञान को बाहर रखदिया साधक इधर!
आगे बढते हुवे अनित्य इंद्रियविषयों नित्य आत्मसाम्राज्य को
कुछ नहीं कर पायेगा और मर जाएगा!
सृष्टि रहने तक ए राजाओं यानी इंद्रियॉ और इंद्रियविषयों
रहेगा! ओ कही नहीं होंगे, हमारा शरीर का अंदर ही होंगे!
शक्ति नित्य है, ओ नाश् नहीं होता है, शक्ति को कोई सृष्टि
नहीं कर सक्ते है, एक शक्ती को दूसरी शक्ती का रूप में बदल सक्ते है! आत्मस्वरूपी
मै और तुम दोनों भूत में थे, वर्त्तमान में है, और भविष्यत में भी होंगे! शरीरों
नश्वर है, इसीलिए साधक इस का बारे में शोचना अनावसर है!
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः
आगमापायिनो नित्यास्तां स्तितिक्ष्स्वभारत 14
हे अर्जुन(साधक), इंद्रियों का शब्द, स्पर्शा, इत्यादि विषय
संयोग कभी शीत और कभी उष्ण, कभी सुख और कभी दुःख, देते है! ओ आने जाने छीजे है,
अस्थिर है! इसीलिएउन् को सहन करो!
यं हि नाव्यथयन्त्ये ते पुरुषं पुरुषर्षभ
समा दुःख सुखं धीरं सोम्रुतत्वाय कल्पते 15
ओ पुरुष श्रेष्ठ अर्जुन, जिस को ए शब्द, स्पर्शा, इत्यादि पीडाजनक नहीं होते है, सुख और दुःखों को समभाव
लेनेवाले साधक धीर ही मोक्ष के लिए अर्ह है!
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः
उभयोरपि दृष्टोंत स्त्वनयो स्त्वत्व दर्शिभिः 16
असत्य, और नाश् स्वभावी देहादियों को अस्थित्व नहीं है! सत्य
आत्मा को कमी नहीं है! इन दोनों का व्यत्यास
तत्वज्ञानियों निश्चय रूप में जानते है!
पदार्थ को दो रूप में समझना चाहिए!
परमात्मा को नहीं बदलते रहने वाला यानी परिवर्तनरहित
पदार्थ(शक्ति) जैसा देखना, जिसको अनुलोम पद्धति कहते है! ये सही पद्धति है!
अम्तार्मुख होंकर आखरी में परामात्मा में ऐक्य होना अनुलोम पद्धति है!
परमात्मा को नित्य बदलते रहने वाला यानी परिवर्तनसहित
पदार्थ(शक्ति) जैसा देखना, जिसको विलोम पद्धति कहते है! ये सही पद्धति नहीं है!
परामात्म चेतना को इंद्रियों का माध्यम से ग्रहण कर के बाहर को व्यक्त करना अथावा
बहिर्मुख होंकर अज्ञान में फंसजाने को विलोम पद्धति है!
तत् त्वं ज्ञानं = तत्वज्ञानं = वों तुम्ही है जैसा ग्रहण करने
ज्ञान!
अविनाशु तु तद्विद्धि एन सर्वमिदं ततं
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति 17
हे अर्जुन, इस समस्त जगत जिस परब्रह्म से व्याप्ति हुए है, ओ
नाशरहित है करके समझ लो! अव्ययी आत्माको कोईभी विनाश नहीं कर सकते है!
अंतवंता इमेदेहा नित्यस्योक्ताश्शरीरिणः
अनाशिनो प्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्वभारत 18
ओ अर्जुन, नित्य, नाशरहित, और अप्रमेय देही यानी आत्म क इस्
देह को नाश्ववंत कहलाता है! इस देह का अंदर का आत्म शाश्वत है! इसीलिए आत्म का
अथावा और इस शरीर का बारे में शोक त्याग करके युद्ध करो!
युद्ध का अर्थ मुक्ती के लिए करने योग साधना!
एनं वेत्ति हंतारं यश्चैनं मन्यते हतं
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति नहन्यते 19
जो मनुष्य इस आत्मा मरता है अथावा जो मनुष्य इस आत्मा मारता है
जैसे भावना करते है, वों दोनों वास्ताविक नहीं जानते है! वास्तव में इस आत्मा जिसी
को भी न मारते है अथावा जिसे से भी न मरवाते है!
नाजायते म्रियतेवा कदाचित् नायम भूत्वा भवितावा न भूयः
अजोनित्यःशाश्वतोयं पुराणोनहन्यते हन्यमाने शरीरे 20
इस आत्मा न कभी जन्म लेता है, न कभी मारता है! पहले नहीं थे,
अभी नया उत्पन्न होने वाले भी नहीं है! पहले जनम लेके अभी मरने वाले छीज नहीं है!
इस को जनन मरण नहीं है, शाश्वत है, पुरातन है, शरीर मरने से भी आत्मा नहीं मरते
है!
वेदाविनाशिनं नित्यं ऐन मजमव्ययं
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हंतिकं 21
ओ अर्जुन, इस आत्मा को जो मनुष्य जनन मरण रहित और नित्य जैसे
ग्रहण करते है, ऐसा आत्म दूसरे को कैसा मार सकता है और मरवा सकता है?
वासांसि जीर्णानि यथाविहाय नवानि गृह्णाति नारोपराणि
तथाशरीराणि विहायजीर्णानि अन्यानिसंयाति नवानिदेहि 22
मनुष्य जैसे फटाहुवा और पुराना कपडे को त्याग के अलग नया कपड़े
धारण करते है वैसे ही देही यानी आत्म शिथिलता शरीर को त्याग के अलग नया शरीरों का
धारण करता है!
नैनं छिंदंति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः
नचैनं क्लेदयन्त्यापो
न शोषयति मारुतः 23
इस आत्मा को कोई भी आयुध छेदन नहीं कर सकते है, अग्नि दहन नहीं
कर सकते है, जल् भिगो कर सकते है, और वायु सूखा कर सकते है!
मानव को कारण, सूक्ष्म, और स्थूल करके तीन शरीरों होते
है!
कारणशरीर में 43 प्रप्रथम भावनाओं निक्षिप्त होते है!
इन 43 में
सूक्ष्म शरीर में 19
भावनाओं निक्षिप्त होते है! वों पञ्च ज्ञानेंद्रियों, पञ्च कर्मेंद्रियों, पञ्च
प्राणों, और अंतःकरण (मनो, बुद्धि, चित्त,
और अहंकार) है!
24 भावनाओं स्थूलशरीर में निक्षिप्त होते
है! वों पञ्च ज्ञानेंद्रियों, पञ्च कर्मेंद्रियों, पञ्च प्राणों, पञ्च तन्मात्राओं,
और अंतःकरण (मनो, बुद्धि, चित्त, और
अहंकार) है!
पानी घनीकरण होके बरफ बनाने के रीति स्थूलशरीर घनीभूत हुआ
स्पंदना शक्ती ही है!
शक्ती और मन का स्पंदना शक्तियों ही सूक्ष्मशरीर है!
परमात्माका शुद्धास्पन्दाना शक्तियों ही कारणशरीर है!
स्थूलशरीर आहार का उप्पर,
सूक्ष्मशरीर परामात्म शक्ती, इच्छाशक्ति, और विचारों का परिणाम
का उप्पर, और
कारणशरीर ज्ञान और परमानंद का उप्पर आधारित है करके बोल सकते
है!
कोई भी कारखाना से कुछ वस्तु उत्पन्न होने समय शब्द पहले
निकलते है! वैसा ही परामात्मा का कारखाना से परामात्माचेतना के हेतु माया से
सृष्टि व्यक्तीकरण होने समय जो शब्द निकालता है ओ ही है ॐकार! इस प्रणवनाद
आकार(स्थूल), उकार(सूक्ष्म), और मकार(कारण) अक्षरों का संयोग है! समिष्टि स्थूल,
सूक्ष्म, और कारण लोकों का समायुक्त इस जगत भगवत् प्रतिरूप इस ॐकार ही है!
अच्चेद्योयमदाह्योयं अक्लेद्यो शोश्ययेवच
नित्यास्सर्वगतस्थ्साणु रचालोयं सनातनः 24
ए आत्म को तोड नही सकते है, दग्ध नही सकते है, पानी में डूब नही सकते है, सूका कर नही सकते है! ए
नित्य है, सर्वव्यापी है, स्थिरस्वरूप है, निश्चल है, और पुरातन है!
षड्भावनायें:--
हर जीवी को षड्भावनायें है! वों है—जनम लेना, वृद्धि होना, परिणाम होना,
शुष्क होना, और नाश् होना!
षडूर्म--
हर
मानव को षडूर्म है! वों—भूक, प्यास, शोक, मोह, वृद्धावस्था और
मरण!
अव्यक्तोयं
अचिन्त्योयं अविकार्योंयं
उच्यते
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि 25
ए आत्मा इंद्रियों का गोचर होने शाक्य नहीं है, मन से शोचने
शाक्य नहीं है, विकार यानी अनेक रूपी नहीं हेते है, कर के कहलाते है! इसीलिए इस
प्रकार ग्रहण करके दुःख होने योग्य नहीं हो!
आथचैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतं
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हासि 26
ओ अर्जुन, संभवतः ए आत्मा शरीर का साथ निरंतर जनन मरण होने तभ
भी तुम दुक्खित होना युक्त नहीं है!
शारीरक बाधाए, बीमारियाँ, और मृत्यु का बारे में व्याकुलता
होने साधक अपना साधना में पुरोभिवृद्धि नहीं पाया है! .
हर साधक समाधि स्थिति लभ्य होने पर अपने आप को सर्वशक्तिमान,
सर्वव्यापि, और सर्वज्ञ गैसा ग्रहण करेगा!
आत्मा निश्चल है कहलाने पर भी, ओ हर एक व्यक्ती में
व्यक्तीकरणहुआ जैसा लगता है!
हम दस चीता को नंगे हाथों से मार के खत्म किया करके स्वप्नाया!
ओ स्वप्ना सत्य नहीं हैना, अपना आंखें
खोलके देखने से हम खटिया का उप्पर लेटाहुवा दिखाई देता है!
वैसा ही आत्मा का स्वप्ना है इस शरीर! तीव्र ध्यान, और गहरा
नींद में आत्मा अपना यदार्थ निस्चालास्थिति में ही रहते है!
जातास्याही ध्रुवो मृत्युः ध्रुवं जन्म मृतस्यच
तस्मात् अपरिहार्येर्थे नात्वं शोचितुमार्हसि 27
जो जनम लिया उसका मृत्यु निश्चय है, जो मृत्यु हुआ उसका जनम
निश्चय है! इस आवश्यक विषय के लिए शोक प्रकट करना उचित नही है!
निर्विकल्प समाधि अथावा महासमाधि में साधक इन स्थूल, सूक्ष्म,
और कारण शरीर स्थितियों को पार करके अपना आत्मस्वरुप स्थिति को पहचानेगा!
अज्ञान/संचित, प्रारब्ध,और आगामी कर्म परिपूर्णता से दग्द्घ होजायेगा! तब तक
दुक्खिता होते रहेगा!
स्थूलशरीर छोडने का अर्थ स्थूल मृत्यु, स्थूल मृत्यु का अर्थ
सूक्ष्मलोक में जनम लेना, सूक्ष्मलोक मृत्यु का अर्थ स्थूललोक यानी पृथ्वी पर जनम
लेना यानी और एक बार स्थूलशरीर धारण करना
ही है! अज्ञानता परिपूर्णता से निवृत्ति होने तक स्थूल से सूक्ष्मलोक, और सूक्ष्म
से स्थूललोक यानी पृथ्वी का उप्पर आना आवश्यक है!
संचित, प्रारब्ध, और आगामी करके कर्म तीन प्रकार का है!
जन्म जन्मों से जोड़ा हुए कर्म को संचितकर्म कहते है!
हमने कमाया हुआ धन को एक दिन में खर्च नहीं कर सकते है! ओ हमको
आगे में काम आएगा करके जोड़ देते है! वैसा ही है संचितकर्म!
जोड़ा हुआ धन में कुछ धन लाके जरूरत के लिए खर्च करते है, वैसा
ही है प्रारब्धकर्म!
प्रारब्ध अनुभव करते हुए, वर्तमान मे हम जो कर्म, अच्छा हो या
बुरा हो, करते है उसकों आगामिकर्मा कहते है!
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना 28
ओ अर्जुन, प्राणियों जनम लेने के पहले नही दिख्ते हुए, जनम का
पश्चात् दिखाई देते हुए, और मृत्यु का पश्चात पुनः नही दिख्ते हुए होते है! वैसे
छीजें के लिए दुक्खित क्यों होना है?
एक अनेक होना ही सृष्टि है! कार्य कारण रूप ही सृष्टि है!
कुम्हार मिट्टी से यंत्र का सहायता से मटका बनाया!
कुम्हार—निमित्त कारण, मिट्टी—द्रव्य अथवा उपादान कारण, और यंत्र—यंत्र
अथवा साधना कारण!
परामात्मा अपना अंदर का माया का हेतु सृष्टि किया!
परामात्मा--- निमित्त कारण,
अपना अंदर का--- द्रव्य अथवा उपादान कारण,
माया--- यंत्र अथवा साधना कारण!
इधर परामात्मा ही निमित्त, द्रव्य अथवा उपादान, और यंत्र अथवा
साधना कारण! परामात्मा का स्वप्ना ही ए सृष्टि है!
एक मनुष्य ने चार चीते को खड्ग से वध किया करके
स्व्प्नाया!
मनुष्य---- निमित्त कारण
चार चीते और खड्ग--- द्रव्य अथवा उपादान कारण
खड्ग--- यंत्र कारण
मनुष्य का स्वप्न ही स्वप्न सृष्टि!
जैसे मनुष्य का स्वप्न सृष्टि सत्य नहीं है, वैसा ही परामात्मा
का स्वप्न सृष्टि भी सत्य नहीं है!
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनः आश्चर्यवत्वदति तथैवचानयः
आश्चर्यवच्चैनमन्यश्शृणोति शृत्वाप्येनंवेदानाचैव कश्चित् 29
इस आत्म को कोई आश्चर्य से देखरहा है! कोई आश्चर्यजनक जैसा
कहते है! कोई इस का बारे में आश्चर्यजनक जैसा सुनते है! ऐसा देख कर, सुनकर, और कह
कर भी कोई भी सई तरह से जानता नहीं है!
साधक अपना तीव्र साधना में कूटस्थ में आज्ञा चक्र में सूक्ष्म
रूपी तीसरा आंख यानी ज्ञान नेत्र को देख सकते है!
तीव्र और गहरा ध्यान में योगी आत्म को कूटस्थ में अद्भुत
प्रकाश, शुद्ध ज्ञान, और ॐकारं नाद् जैसे अनुभूति पाटा है! इसी को तीसरा नेत्र
कहते है! जितना भी प्रवचनों सुनने से भी इस अद्भुत अनुभूति मनुष्य को लभ्य नहीं
होता है! केवल योगध्यान से ही इस अनुभूति मिलते है! ध्यान का माध्यम से लभ्य हुआ
ज्ञान ही सत्य है!
इस तीसरा नेत्र में एक त्रिभुज दिखाइ देगा!
उप्पर सफ़ेद, बाए में लाल, और दाए में काला रंगों दिखाई देता
है!
सफ़ेद रंग अधिक होने से योगी का चेतना में सात्विक प्रभाव अधिक
है,
लाल रंग अधिक होने से योगी का चेतना में राजसिक प्रभाव अधिक
है,
और काला रंग अधिक होने से योगी का चेतना में तामसिक प्रभाव
अधिक है!
सारे रंगों समान प्रतिपत्ति में होने से योगी क चेतना परिपूर्ण
समतुल्यता में है!
योगी परिपूर्ण समतुल्यता के लिए तीव्र योगसाधना करना चाहिए!
मनुष्य को दो प्रकार का ज्ञान जन्मतः लभ्य होता है!
1)इम्द्रियों से लभ्य होने मानव तार्किक
शक्ती, 2)
परामात्मा से लभ्य होने आत्मशक्ति
देही नित्यमवध्योयम् देहे सर्वस्य भारत
तस्मात सर्वाणि भूतानि नत्वं शोचितुमर्हसि . 30
ओ अर्जुन, प्राणों का देहों में व्यवस्थत इस आत्मा कभीभी
मृत्यु नहीं होगा! इसीलिए किसी प्राणी का बारे में तुम व्याकुलता नहीं होना!
स्वधर्ममपि चापेक्ष्य नविकम्पितुमर्हासि
धर्म्याद्धि युद्धाच्च्रेयोन्यात् क्षत्रियस्य न विद्यते 31
अपना क्षत्रिय धर्म का मुताबिकि भी इस युद्ध में पीछे हटना
युक्त नहीं है! क्योंकि क्षत्रिय को धर्मयुद्ध से आगे बढ़ कर कोई भी श्रेयोदायक
नहीं है!
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र वर्णों अपना अपना गुणों
का हेतु बनगया है!
इंद्रियविशायावांछालोलता, शरीरश्रम करना, अथवा केवल शरीर कष्ट
का उप्पर आधार होना शूद्र का लक्षण है!
ज्ञानप्राप्ति के लिए कठोरता से श्रम करना, अज्ञानता को
निकलवाकर आध्यात्मिकता क तरफ मन को रखना, वैश्य का लक्षण है!
अंतः शत्रुवों को निर्मूलन करके आत्मनिग्रह शक्ति को वृद्धि
करने प्रयत्नशीलता, क्षत्रिय का लक्षण है!
योग ध्यान का माध्यम से परामात्मा से अनुसंथान लभ्य करने
ब्राह्मण का लक्षण है!
यदृच्चयाचोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतं
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभंते युद्धमीदृशं 32
ओ अर्जुन, बिना प्रयत्न से लभ्य होने, खुला हुआ स्वर्गद्वार जैसे
इस युद्ध जो क्षत्रिय पाता है, वे निश्चय सुख प्राप्ति करेंगे!
जो योगध्यान नहीं करता है ओ ही मनुष्य शूद्र है!
योगध्यान का उपक्रमण करके मूलाधारचक्र का साथ जुदा हुआ निद्राण
स्थिति में हुए कुंडलिनीशक्ती को जागृती करनेवाला मनुष्य ही क्षत्रिय है!
योगध्यान का ताप से जागृती होंकर कुंडलिनीशक्ती का फण उप्पर
चक्रों में जाते रहेगा, उस का पूंछ नीचे चक्रों में आते रहेगा! कुंडलिनीशक्ती
मूलाधारचक्र को स्प्रुशन करने से ओ साधक क्षत्रिय बनता है!
अथाचेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं नया करिष्यसि
तातस्स्वधर्मं कीर्तिंचहित्वा पापमवाप्स्यसि 33
इस धर्मयुक्त युद्ध तुम नहीं करोगे, तब तुम स्वधर्म को निरासित
कर के अपना कीर्ति खोकर पाप पाओगे!
मनुष्य का स्वस्थान परामात्मा प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना! ए
ही मनुष्य का स्वधर्म है! उस के लिए प्रयत्न नहीं करना ही अपना कीर्ति खोकर पाप
पाना!
अकीर्तिंचापि भूतानि कथायिष्यंति तेव्यायाम
संभावितस्यचाकीर्तिर्मारणादतिरिच्यते 34
और लोग तुम्हारा अपकीर्ति का बारे में बहुत दिन बोलते रहेगा!
जो गौरव से जिया हुआ मनुष्य को अपकीर्ति मृत्यु से भी अधिक है!
इधर लोग का अर्थ इंद्रियों! उन् क लक्षण ए ही है! धर्मक्षेत्र
का माध्यम से परामात्मा के लिए तपन करने साधक को भौतिक विषय वांछों का तरफ खींचना
इंद्रियों का लक्षण है! ए हे अपकीर्ति है!
भयाद्रणादुपरतं मंस्यंते त्वां महारथाः
येषांचत्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवं 35
और जिन महारथियों से तुम अधिक करके लोग भावना कर रहा है, वे सब
तुम को अभी परिहास करेंगे और युद्ध में भय का वजह भागा हुआ ढरपूक समझेंगे!
दुर्बल साधक ही धर्मयुद्ध में जय पारहे है, और महारथी(दृढ़
आरोग्य शरीरयुक्त साधक) होंकर तुम जैसे साधक ढरनेसे बाकी साधक परिहास करेंगे!
अवाच्य वादाम्श्चा बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः
निन्दंतस्तव सामर्थ्यं ततोदुःखतरं नु किम् 36
शत्रु लोग अनेक दुर्भाषपद प्रयोग से तुम को और तुम्हारा
सामर्थ्य को दूषण करेंगे! इससे अतिरिक्त क्या दुक्ख होसकता है?
आत्मनिग्रहशक्ति से सुषुम्ना सूक्ष्मनाडी का माध्यम से
कुंडलिनीशाक्ती को मूलाधारचक्र से अपना स्वगृह परामात्मा यानी सहस्रारचक्र को
पहुंचाना तेरा काम है! उस को बीच में त्याग कर भीरुता से पीछे मोड़ा ना तुम्हारा
असमर्थता और भोगालालास को आदत हुवा तुम्हारा शत्रु इन्द्रियों का असभ्य पदाप्रयोगा
सुनने में अत्यंत दुखदायक होगा! वे तुमको अत्यंत व्यकुलाता में गिरादेंगे! .
हटवा प्राप्स्यसे स्वर्गम जित्वावा भोक्ष्यसे महीम्
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः 37
अर्जुन, शायद इस धर्मयुद्ध में शत्रुओं तुम को वध करने से भी
तुम को स्वर्ग मिलेगा! अथवा तुम को विजय प्राप्त होने से भूलोक राज्य को अनुभव
करोगे! इस प्रकार दोनों तरफ से लाभ है!
इसीलिए युद्ध के लिए संसिद्ध होजावो!
इस धर्मं युद्ध में
भोगालालस को आदत हुए इंद्रियोंको नियंत्रण करते हुए मृत्यु प्राप्त होने से भी
स्वर्ग में आनंद पायेगा! अगर इंद्रियोंको नियंत्रण करते हुए विजय प्राप्त होने से
आत्मनिग्रह शक्ती से भूलोक में आनंद में रहेगा साधक!
सुखदुखेसमेकृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ
ततो युद्धाय युज्यस्य नैवं पापमवाप्स्यसि 38
सुख और दुःख में, लाभ और नष्ट में, जाय और अपजय में भी
समबुद्धि से युद्ध के लिए संसिद्ध होजावो! ऐसा करने से तुम पापप्राप्ति नहीं
होगा!
इस धर्नायुद्ध में यानी आत्मसाम्राज्य में कदम् डालने को
शारीरक, मानसिक, और आध्यात्मिक समबुद्धि होना आवश्यक है! नहीं तों इन्द्रियों का
दास हो के जन्म जन्म पाप और दुःख पावोगे!
एषातेभी हिता सांख्ये बुद्धिर्योगेत्वीमां शृणु
बुद्ध्यायुक्तोययापार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि 39
ओ अर्जुन, अबतक मै तुम को सांख्य शास्त्र में आत्मतत्व निश्चय
का बारे में विशादीकरण किया! अब मै योगशास्त्र में कर्मयोग सम्बन्ध विवेक का ज्ञान
देरहा हु! इस ज्ञान को पाकर तुम कर्मबंधन पाश से सम्पूर्णता से विमुक्त होजावो!
इसीलिए श्रद्धा से सुनो!
साम = सम्पूर्ण, ख्य = ज्ञान, सांख्य = सम्पूर्ण ज्ञान!
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो नविद्यते
स्वल्पमप्यस्यधार्मस्य त्रायते महतो भयात् 40
ए प्रारंभ हुए कर्मयोग कंही भी परिसमाप्ति नहीं होते है!
समाप्ति होने का पहले किसी कारण से रुखने से भी दोष नहीं है! इस कर्मयोगानुष्ठान
धर्म स्वल्पमात्र में करने से भी जनन मरण प्रवाहरूपे संसार भय से मनुष्य को रक्षा
करती है!
ध्यान करना कर्म हे है! इस ध्यान कर्म हमारा कर्मो को दग्ध
करती है!
व्यवसायात्मिकाबुद्धिःएकेहकुरुनंदन
बहुशाखाह्यनन्ताश्च बुद्धयः अव्यवासायिनाम् 41
हे अर्जुन, इस कर्मयोगानुष्ठान धर्म के लिए निश्चित बुद्धि ही
आवश्यक है! जिन् का बुद्धि निश्चित नहीं है, उनका बुद्धि अनंत प्रकार होता है!
योगी अपना मन को केवल परमात्मा का उप्पर हे केंद्रीकृत करता
है! निश्चित नहीं होने पर साधारण व्यक्ति विविध प्रकार का आलोचनाएं करते है!
यामिमां पुष्पिता वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः 42
कामात्मानः स्वर्गपराजन्म कर्मफलप्रदां
क्रियाविशेषबहुलां गतिं प्रति
43
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापह्रुतचेतसाम्
व्यवसायात्मिकाबुद्धिः समाधौ न विधीयते 44
ओ अर्जुन, वेदों में कर्मो का फल का बारे में विशादीकरण किया
हुआ अध्याय में इष्ट प्रकट करने लोगों, उन् अध्यायो में स्वर्गादि फल का बारे में
लिखा हुआ है जिस से गरिष्ट छीजें और कुछ नहीं करके वादन करने लोगों, विषयवांछों से
भरा चित् जिन को है वे लोग, स्वर्गाभिलाषी अल्पज्ञ लोग, जनम्, कर्मो, कर्मफलों,
भोगैश्वर्य सम्प्राप्ति के लिए विविध कार्यों सहित फलों सहित वाक्यों यानी उपदेश
देते है, ऐसा वाक्यों में चित्त निमाग्निता लोग, उस उपदेश को विशवास रख के द्रश्य
व्यामोह में गिरनेवाले भोगैस्वर्य प्रिया लोग, दैवाध्यान में यानी समाधि निष्ठा
में निश्चित रूप में बुद्धि एकाग्रता नहीं मिलते है!
सांख्य ज्ञान परिपूर्ण ज्ञान है!
चारों वेदां में ऋग्वेद प्रथम वेद है! उस से ही बाकी
यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद उत्पन्न हुए है!
वेदां में मुख्य छीजें इन प्रकार का है---
1)
संहिता:-
ए वृक्ष जैसा है! मंत्रों से समायुक्त है!
2)
ब्राह्मणों :- ए पुष्प जैसा है! मंत्रों से समायुक्त
यज्ञ है! मंत्रों का अनुसार यज्ञ करना!
3)
अरण्यकों:-
ए फल जैसा है! परा और अपरा का बेचा का दीवार को पार करना है!
उपनिषद:- वेद का सारांश, अंतर्मुख होंकर परामात्मा में लीं हो
जावो!
वेदों प्राकृतिक शक्तियों का आराधना से आरंभ करके परामात्मा
में लीं होने तक क्रमशः पाठ सिखायेगा! यानी मनुष्य का मानसिक अभिवृद्धि का बारे
में बोला हुआ है! ए वेदों में मुख्य संदेश है!
वेदों को कर्मकांड और ज्ञानकांड करके दो भाग है बोल सकते है!
कर्मकांड मनुष्य क अपना विद्युक्त धर्मों का बारे में, और ज्ञानकांड परामात्मा को
पहचान के उन् परामात्मा में लीं कैसा होने शुद्ध ज्ञान का बारे में उद्बोधन करते
है!
कर्मकांड को पूर्व मीमांसा, और ज्ञानकांड को उत्तर मीमांसा
करके कहते है!
साधारण मनुष्यकेवल वेदों में कर्मकांड को अनुसरण कर के अल्प फल
लभ्य होने प्रयत्न करते है!
ज्ञानी लोग स्वर्ग से कई बार अधिक फल देने वेदों का ज्ञानकांड
को अनुसरण कर केपरामात्मा को पाने प्रयत्न करते है!
त्रैगुण्यविषयावेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् 45
ओ अर्जुन, वेदों का पूर्वभाग में कर्मकांड और त्रिगुणात्मक
रूपी समस्सारा विषयों का प्रस्तावना ही है! तु त्रिगुणों को त्यगा हुआ,
द्वंद्वरहित, निरंतर शुद्ध सत्व को आश्रय किया हुआ है, आत्म ज्ञानी होजाओ!
यावानार्ध उदापाने सर्वतस्सम्प्लुतोदके
तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः 46
स्नान पान के उपयुक्त स्वल्प जलयुक्त कुआं इत्यादि में जितना
प्रयोजन है, उस से अत्यधिक प्रयोजन हरतरफ पानी से भरा हुआ महत्तर जलप्रवाह में
छिपा हुआ है! वैसा ही वेदों में प्रस्तावित हुआ समस्त कर्मो में जितना प्रयोजन है,
उस से अधिक प्रयोजन परमार्थातत्व जाननेवाले ब्रह्मानिष्ट का ब्रह्मानान्द में
क्षिपा हुआ है!
कर्मण्येवाधिकारस्ते माफलेषु कदाचन
माकर्माफलहेतुर्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि 47
अर्जुन, तुम को कर्म करने में ही अधिकार है, कर्मफल का मांगे
अधिकार कभी नहीं है! तुम कर्मफल का हेतु नहीं होना, और कर्म नहीं करने में भी तुम
को रूचि नहीं होना चाहिए!
विद्यार्थी का दृष्टि विद्या का उप्पर ही केन्द्रीकृत होना
चाहिए!
आगे कुछ नौकरी प्राप्त होगा करके मन में नहीं पढते है!
वैसा ही साधक का दृष्टि कूटस्थ में ही केन्द्रीकृत होना चाहिए!
आगे कुछ फल लभ्य होंगे करके मन में नहीं होना चाहिए! ध्यान कर्म को निर्विघ्न से
आगे बढ़ाना चाहिए!
योगस्थः कुरुकर्मानी संगम् त्यक्त्वा धनञ्जय
सिद्ध्य सिद्ध्योःसमोभूत्वा समत्वं योग उच्यते 48
ओ अर्जुन, तुम योगनिष्ठा में निमग्न होंकर, संग त्याग कर,
कार्य सफल होने से भी नहीं होने से भी, स्थिर और सम चित्त होंकर कर्मो को यानी
प्राणायाम ध्यानाकर्मो करो! ऐसा समत्वबुद्धि ही योग कहलाते है! .
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगात् धनंजय
बुद्धौशरणमन्विच्च कृपणाः फलहेतवः 49
ओ अर्जुन, समत्वबुद्धिसहित निष्कामाकर्म से, फलापेक्षसहित
काम्यकर्मों बहुत अल्प है! समत्वारूपी निष्कामाकर्मानुष्ठानबुद्धि का ही तुम आश्रय
लेना! फलाकांक्षी लोक अल्पज्ञ है!
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृत दुष्कृते
तस्मात् योगायायुज्यस्व योगःकर्म सुकौशालं 50
समत्व बुद्धि जिस को है ओ मनुष्य पुण्य और पाप दनों को इसी जनम
में ही मिटादेता है! इस समत्वा बुद्धी के लिए यातना करो! कर्मों में निपुणता ही
योग है! .
कर्मजं बुद्धियुक्ताहि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः
जन्म बंध विनिर्मुक्ताः पदं गच्छंत्य नाममयं 51
समत्वबुद्धियुक्त विवेकी कर्म करने से भी उन् का फल को त्याग
करके जानन् मरण रूपी संसार बंधनों से विमुक्त होंकर दुक्खाराहिता मोक्ष लभ्य करता
है!
संसार कभी भी साधक को परमात्मा को पाने क प्रतिबंध नहीं होसकता
है! योगीराज श्री श्री लाहिरी महाशय चार बच्चों वाले संसारी है!
यदाते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितारिष्यति
तदा गंतासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्यच 52
अर्जुन, तुम्हारा बुद्धि जब अज्ञान मालिन्य को निकलवाकर
परीशुद्द होगा, तब सुनने और सुनवाने में विरक्त होगा!
यानी इन्द्रिय शब्दों में आसक्ति छोड़कर केवल ॐकार शब्द में ही
आसक्त होना चाहिए!
श्रुति विप्रतिपन्नाते यदा स्थास्यति निश्चला
समाधावचला बुद्धिः तदायोगमवाप्स्यसि 53
नानाप्रकार के इन्द्रिय शब्दों को श्रवण करके विछलित हुआ
तुम्हारा बुद्धि जब स्थिर होंकर परामात्मा का ध्यान में निमग्न होजायेगा, तब तुम
आत्म साक्षात्कार पावोगे!
अर्जुन उवाच—
स्थितप्रज्ञस्य काभाषा समाधिस्थस्यकेशवा
स्थितधीःकिं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किं 54
अर्जुन ने कहा—
हे कृष्णा, समाधि में निमग्न हुआ स्थितप्रज्ञतायुक्त
जीवन्मुक्त का लक्षण क्या है? ओ कैसा बात करेगा? उन् का रीति क्या है?
श्री भगवान् उवाच—
प्रजहातियदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्
आत्मन्येवात्मनातुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते 55
श्रीकृष्ण ने
कहा—
हे अर्जुन, मनुष्य जब अपना मन का इच्छावों को सम्पूर्णता से
त्यगेगा और निर्मल चित् से अपना आत्मा में निरंतर
संतुष्ट पायेगा तब उस साधक को स्थितप्रज्ञ कहते है!
ध्याता, ध्यान, एयर ध्येय एक होना चाहिए!
दुःखेषु अनुद्विग्नमानाः सुखेषु विगतस्पृहः
वीतरागभयक्रोधः स्थितथीर्मुनिरुच्यते 56
दुःख में सम्तुलता, और सुखों में निरासक्तता, अनुराग, भय, और
क्रोध से मुक्त हुआ साधक को स्थितप्रज्ञ कहते है!
यस्सर्वत्रानभि स्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभं
नाभिनन्दति नद्वेष्टि तस्य प्रज्ञाप्रतिष्ठिता 57
जो साधक समस्त बंधू और भोगादि विषयों में रागाराहित होते है,
प्रिय और अप्रिय संभव होने से संतुष्ट अथवा द्वेष भाव नहीं होते है, उस का ज्ञान
स्थिर है!
यदासम्हरातेचायम कूर्मोऽङ्गानीवसर्वशः
इन्द्रियाणीन्द्रियार्धेभ्यः तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता 58
कछुआ अपना अवयावयों को अंदर की तरफ जैसा खींचता है, वैसा ही
योगी जब इन्द्रियों को इन्द्रियार्थ विषयों से सर्वत्र पीछे हट जाता है, तब उस का
ज्ञान अधिकतर से स्थिर है!
मन ही देखता है, स्वाद लेता है, बोलता है, शोचता है, सूंघता
है, यानी सबके लिए मन ही प्रधान है! मगर इस मन का प्राण साथ देने से ही कुछ भी काम
होसकता है!
साधक का मन मूलाधारचक्र का उप्पर हुआ प्राणशक्ति से मिलाने से
गंध को पहचानेगा! मूलाधाराचक्र पृथ्वीतत्व यानी गंध का प्रतीक है! अपना अपना
अभिरुचि का मुताबिक़ किसी किसी को सुगंधद्रव्यों जैसा छीजों में, खाने का पदार्थों
का गंध का उप्पर व्यामोह होता है!
साधक का मन स्वाधिष्ठानचक्र का उप्पर हुआ प्राणशक्ति से मिलाने
से रूचि को पहचानेगा! स्वाधिष्ठानचक्र वरुणतत्व यानी रस का प्रतीक है! अपना अपना अभिरुचिका
मुताबिक़ विभिन्न स्वादिष्ट भोजन पदार्थों का उप्पर व्यामोह होता है!
साधक का मन मणिपुरचक्र का उप्पर हुआ प्राणशक्ति से मिलाने से
रूप को पहचानेगा! मणिपुरचक्र अग्नितत्व यानी रूप का प्रतीक है! अपना अपना
अभिरुचिका मुताबिक़ विभिन्न सिनेमा इत्यादि विषयों का उप्पर व्यामोह होता है!
साधक का मन अनाहतचक्र का उप्पर हुआ प्राणशक्ति से मिलाने से
स्पर्श को पहचानेगा! आनाहतचक्र वायुतत्व यानी स्पर्श का प्रतीक है! अपना अपना
अभिरुचि का मुताबिक़ स्त्री विषयों का
उप्पर व्यामोह होता है!
साधक का मन विशुद्धचक्र का उप्पर हुआ प्राणशक्ति से मिलाने से
शब्द को पहचानेगा! विशुद्धचक्र आकाशतत्व यानी शब्द का प्रतीक है! अपना अपना
अभिरुचि का मुताबिक़ संगीत विषयों का उप्पर व्यामोह होता है!
उदाहरण के लिए मधुमेह व्याधि व्यक्ति लाडू इत्यादि मीठा छीजें
खाने के दिल होने से भी नहीं खा सकते है! मगर जिह्वा चंचलता को कैसा काबू में
रखेगा? प्राणायाम पद्धतियों का माध्यम से मन और प्राण को स्वाधिष्ठानचक्र का उप्पर
से निकालना चाहिए!
मूलाधारचक्र नाक को, स्वाधिष्ठानचक्र जीब को, मणिपुरचक्र आंख को, अनाहतचक्र चर्म को,
विशुद्धचक्र कान को प्रतीके है!
मन जब तक इन्द्रियोंके संग् में रहेगा, वों अपना असली आनंद
क्या है पहचान सकता है! साधक अपना मन को इन्द्रियों से विमुक्त करके अंतर्मुख
होंकर परमात्मा का साथ अनुसंथान होजाने
लगता है, तब उसका मन को पता लगेगा क्या मै खो रहा हूँ ! तब परिपूर्ण आनंद क्या है
समझ कर पश्चात्ताप से मन जलेगा!
शरीर को इंद्रियों का साथ अनुसंथान करनेवाले छीज प्राणशक्ति ही
है! क्रियायोग में साधक अपना प्राणशक्ति और मन को इंद्रियों से उपसंहरण करता है!
इसी को मनको नियंत्रण करना कहते है!
श्वास का नियंत्रण करने से ह्रुदय और प्राणशक्ति
अपना आपी नियंत्रित होते है! ह्रुदय नियंत्रण का हेतु इंद्रियों का नियंत्रण करने
का मार्ग आसान बनाता है! ए सब एक गणित समीकरण जैसे है! इस का अर्थ ए नहीं है की
श्वास को जबरदस्त फेफड़ें में रोखाना नहीं चाहिए! सद्गुरु मुखता इस क्रिया योग को
अभ्यास करना चाहिए! मानसिक ध्यान का माध्यम से मन को नियंत्रण करने को अधिक समय
लगेगा! क्रियायोग वायुयान जैसा शीघ्र ही श्वास को नियंत्रण कर के मन को अंतर्मुख
होने सहायकारी होगा!
किडनी(kidneys): ए रक्त का मलिन और व्यर्थ रासायनिक
पदार्थों को छानकर शुद्ध करेगा!
ह्रुदय:- ए प्राणवायु(Oxygen) सहित रक्त को पूरा शरीर में वितरण करते है! शरीर में शिरों
को प्राणवायु(Oxygen) सहित रक्त को वितरण कर के फिर प्राणवायुरहित रक्त को ह्रुदय में वापस लाया जाएगा! इस प्राणवायुरहित रक्त को फेफडों में प्राणवायु के लिए भेजवा जाएगा! इधर कार्बन डयाक्सैड(CO2) मुक्त करा के प्राणवायु से भार्वाके
हृदय में वापस लोटायेगा!
फेफड़ें:--
ए श्वास को अंदर लेकर उसका अंदर का
कार्बन डयाक्सैड(CO2) को
छानेगा! इसी को श्वास लेना कहते है!
ह्रुदय को नियंत्रण करने को 1) कार्बन डयाक्सैड(CO2) को कम करने अधिक तरह फलों का आहार
लेना, 2)
क्रिया योगाभ्यास करना चाहिए! इन का वजह से कार्बन डयाक्सैड(CO2) सहित रक्त को फेफडों में शुद्धीकरण
के लिए भेजने का अवसर ह्रुदय को कम हो जायेगी! क्रमशः ह्रुदय स्थिर हो जायेगी!
परिश्रम कम होके ह्रुदय विश्राम मिलेगा! प्राणशक्ति इन्द्रियों से उपसंहरण किया
जाएगा! इन्द्रियों से छोटा दिमाग यानी Cerebellum का अंदर स्थित मन को संकेत नहीं मिलेगा! मन चंचल नहीं होगा! परामात्मा का उप्पर ही मन लगन
होगा! कछुआ अपना रक्षा के लिए अंगों को अंदर की तरह खीचता है! वैसा ही साधक मन का
अंगों यानी इन्द्रियों को विषयों से उपसंहरण करता है!
विषया
विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः
रसवर्जं
रसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते 59
जो
साधक शब्दादि विषयों को स्वीकार नहीं करने से भी ओ हट जाएगा, मगर उन् का वासनाएँ नहीं जाएगा! परमात्मा का दर्शन होने से विषयों का साथ वासनाएँ भी हट
जाएगा!
विषयों
से भौतिक रूप के अलावा मानसिक रूप में भी साधक दूर होना चाहिए! जबरदस्ती एक दिन
उपवास क बरत रख के नहीं भोजन करनेवाले मनुष्य, भोजन पदार्थों को देखने से उस का
भूक अधिक रूप से बढ़ता है! वैसा ही इच्छाओं को दबाने से, विषयों का साथ थोड़ा सा
संपर्क होने से भी उनका उप्पर आसक्ति अधिक रूप से होता है!
यातातोह्यपि
कौंतेय पुरुषस्य विपश्चितः
इन्द्रियाणि
प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः 60
ओ
अर्जुन, इंद्रियों महा शक्तिशाली है! आत्मावलोकन के तीव्र प्रयत्न करने योगसाधक का
मन को भी तीव्र बल से विषयों का उप्पर लेजायेगा!
नारंगी
कपड़ा पहनने, अथावा शादी नहीं करने मात्र में इंद्रियों का प्रभाव से बचाव नहीं कर
सकते है! बाक्टीरिया(Bacteria)
मनुष्य को तुरंत रोग फायदा नहीं करेगा, शरीर जब बलहीन होजाते है तब बाक्टीरिया
विज्रुम्भन करता है! वैसा ही साधना थोड़ा सा भी बलहीन होने पर इन्द्रिय विषय
वासनाओं साधक का उप्पर आक्रमण करेगा!
तानी
सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः
वशेहि
यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्टिता 61
वैसा
प्रबल इन्द्रियोंको अछ्छीतरह वश में रख कर, साधक मनः स्थिरत्व होंकर आत्म का उप्पर
ही आसक्त्युत मन होना चाहिए! जिस का इन्द्रियों स्वाधीन में है, उस साधक का ज्ञान
ही सुस्थिर रहता है!
साधक
को दो छीज अवसर है, वों है 1) इन्द्रियों को
उपसंहरण, 2) उपसंहरण किया हुआ मन
को परमात्मा का उप्पर केंद्रीकृत होना!
ध्यायते विषयां पुंसः संगस्तेषूपजायते
संगात्संजायते कामः कामात् क्रोधोभिजायते 62
क्रोधात् भवति सम्मोहःसम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः
स्म्रुतिभ्रम्शात बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति 63
मनुष्य शब्दादि विषयोंका बारे में ध्यान देने से उन् छीजों का
उप्पर आसक्ती उत्पन्न होजाता है, आसक्ती का हेतु इछ्छा उत्पन्न होते है, इछ्छा का
वजह क्रोध उत्पन्न होजाता है, क्रोध से अविवेक, अविवेक से भुलक्कडपन, इस से
बुद्धिनाश क्रमशः सम्भव होते है! बुद्धिनाश से आखरी में परिपूर्ण स्थिती से बुद्धि
नाश होते है!
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानि इंद्रियैश्चरन्
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति 64
रागद्वेषरहित और इन्द्रियनियंत्रित साधक, इन्द्रिय संबंधित
अन्न इत्यादि छीजों को अनुभव करने से भी मनोंइर्मलात्वा पाता है!
प्रसादे सर्वदुःखानां हानि रस्योपजायते
प्रसन्नचेतसोह्यासु बुद्धिः पर्यवतिष्ठति 65
मनोनिर्मलत्व होने पर मनुष्य समस्त दुःखों से उपशमन लभ्य होता
है! निर्मलमनस्क को परामात्मा के उप्पर स्थिरत्व शीघ्र ही लभ्य होते है!
नास्तिबुद्धिरयुकतस्य नचायुक्तस्य भावना
नचाभावयतःशांतिः अशान्तस्य कुतः सुखं 66
इन्द्रिय निग्रह और मनःसंयमं नहीं हुआ मनुष्य को विवेकबुद्धि
नहीं होता है और आत्मचिंतन भी संभावित नहीं है! आत्मचिंतन नहीं होने पर शांति भी
लभ्य नहीं होगा! जिस को शांति नहीं है उस मनुष्य को सुखा कहा से प्राप्त होगा?
इन्द्रियाणां हि चरतां यान्मनोनुविदीयते
तदास्यहरती प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि 67
विषयों में प्रवर्तित मन जिस इन्द्रिय को मन अनुसरण करती है, ओ
मनुष्य विवेक को—जैसा
पानी का अंदर का नय्या को प्रतिकूल वायु दूसरे दिशा में खींचने—हरण
करती है!
तस्मादस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः
इन्द्रियाणि इन्द्रियार्धेभ्यः तस्यप्रज्ञाप्रतिष्ठिता 68
ओ अर्जुन, जो साधक अपना मन को इन्द्रियों को विषयोंका उप्पर
नहीं जाने सर्वविधों से पूरी तरह निरोध करता है, उस का ज्ञान अत्यंत स्थिर है!
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी
यास्याम जाग्रतिभूतानि सा निशा पश्यते मुनेः 69
समस्त मनुष्यों को जो परमार्थातत्व दृष्टि को गोचर नहीं हो के
रात लगता है, ओई रात इन्द्रियों को अपने वश में रखा हुआ योगी को दिन लगेगा और उसी
में सचेतसा से जागेगा! जिस शब्दादि विषयों में प्राणी जगता है, यानी आसक्ति से
रहता है, परमार्थतत्व का दर्शन करने योगीका दृष्टि को गोचर नहीं होंकर रात जैसा
लगेगा!
अपूर्वामाणमचालप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्
तद्वत्कामायं प्रविशंति सर्वे स शांतिमाप्नोति न कामकामी 70
पूरा नादीयां का पानी आके भरने से भी समुद्र निश्चल रहता है,
वैसा ही भोग्य विषय सभी जिस ब्रह्मनिष्ठ को पाकर उसकों विछलित करने में अशक्त
होंकर हर जाता है, वैसा योगी शांति प्राप्ति करेगा, मगर विषयासक्त मनुष्य कभी भी
शांति प्राप्ति नहीं करेगा!
विहायकामान् यस्सर्वान् पुमांश्चरति निस्पृहः
निर्मामोनिरहम्कारः सशान्तिमधिगच्छति 71
जो साधक समस्त इच्छाओं, शब्दादि विषयों को त्यगा के उन् में
लेशमात्र भी आसक्ति नहीं रखता है, अहम्कार और ममकार वर्जित होता है ओई शांति
प्राप्त करता है!
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति
स्थित्वास्यामंतकालेपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति 72
हे अर्जुन, ए सब ब्रह्म स्थिति है! ऐसा ब्रह्म स्थिति
प्राप्तकर्ता कभी भी व्यामोह में नहीं पडता है! अंत्यकाल में भी इस स्थिति में जो
रहता है, उस साधक ब्रह्मानान्दा मोक्षस्थिति को प्राप्त कर्ता है!
ॐ तत् सत् इति
श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायाम योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे
अर्जुन सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः
ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेमः
श्रीभगवद्गीत अथ तृतीयोऽध्यायः कर्मयोगः
अर्जुन
उवाच—
ज्यायासीचेत्कार्माणस्ते
मताबुद्धिर्जनार्दान
तत्किं
कर्मिण घोरेमां नियोजयसिकेशवा 1
अर्जुन ने कहा--- ओ कृष्णा, ज्ञान कर्म से श्रेष्टतम है कर के
तेरा अभिमत है तों, इस भयंकर युद्ध कर्म में मुझे क्यों प्रवर्तित करते हो!
कर्म का अर्थ
निष्कामकर्मयोग है! कर्म, भक्ती, ध्यान, और ज्ञान योगों सर्वस्तातंत्र योग
नहीं है! एक दूसारा योग का उप्पर आधार हेतू यानी परस्पर आधारभूत है!
पुस्तकॉ से प्राप्त किया ज्ञान को अनुभूति पाना है तभी तों उस
ज्ञान का सार्थकता है! उस अनुभव के लिए साधना युद्ध कर्म में प्रवर्तित होना
चाहिए!
मात्र पुस्तक ज्ञान से परमात्मा का साथ साधक अनुसंथान नहीं कर
सकते है!
व्यामिश्रेणवाक्येन बुद्धिम मोहयसीवमे
तदेकं वादा निश्चित्य एना श्रेयोहमाप्नुयां 2
हे कृष्णा, मिश्रित वाक्यों से मेरा बुद्धि को गभराहट
करानेवाला जैसे लगते हो! कर्म और ज्ञान दोनों में किस से श्रेयस्कर है उन्हों में
कोई एक छीज निश्चय कर के कहो!
धयान निष्कामकर्मा है! ध्यान करने से भक्ती यानी श्रद्धा
प्राप्ति होता है! ए ही भक्तियोग है! इस भक्तियोग का पराकाष्ठा ध्यान, ध्यान का
अनुभव ही ज्ञान है! .
श्री भगवान उवाचा---
लोकेस्मिन द्विविधा निष्ठा पूरा प्रोक्ता मयानघ
ज्ञानयोगेन साम्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनां 3
श्री भगवान ने कहा---
अनघा का अर्थ पापरहित,
पापरहित अंतःकरण में ब्रह्मविद्या अच्छीतरह प्रवेश करता है!
ओ पापरहित अर्जुन, भूत काल में तत्वविचारणायुक्त सांख्यों को
ज्ञानयोग, ज्ञानयोगियों को कर्मयोग इति दो प्रकार का अनुष्ठानों मेर से कहा गया
था!
कर्म नहीं करने से ज्ञान नहीं मिलेगा! इडली बनाने के लिए किताब
पढ़ने से नहीं कर सकते है! दादी अथवा नानी का पास प्रत्यक्ष में सीखने से आसानी
होगा! वैसा ही ध्यानाकर्म करनेसे ही आता है ज्ञान! आज 17x3=51 आसानी से बोलने का कारण बचपन में
टेबल्स(Tables) रट्टा करके पढ़ने का फल है! बचपन में रट्टा मार के याद करना
आसान है! बढ़ा होने का बाद याद करना मुश्किल है, मगर बचपन में याद किया हुआ छीजों
को समझना आसान है!
नकर्माणामनारंभानैष्कर्म्यंपुरुषोश्नुते
नचा संन्यासनादेवा सिद्धिम समाधि गच्छति 4
मनुष्य कर्मो को आचरण नहीं करने से निष्क्रिय आत्मस्वरूप
स्थिती प्राप्त नहीं कर पायेगा! केवल मात्र कर्म त्याग से मोक्षस्थिति लभ्य नहीं
होता है!
35 अथवा 40 वर्षोँ का नौकरी करने से ही आज का दिन
आराम से बैठकर प्रभुत्व से फेशन पाकर खा सकता है! इसीलिए कर्म कर के त्याग करना
है! बिना कर्म का क्या त्याग करोगे? और ऐसा त्याग भी निरुपयोग भी है! तुम् ताकतवर
होंकर भी प्रत्यर्थी को छोड़ने से इसी को धीरता कहते है, तुम भीर होंकर प्रत्यर्थी
को छोड़ने से उस को धीरता नहीं भीरता कहते है! भौतिक विज्ञान भी कर्म नहीं करने से
लभ्य नहीं होता है तों दुर्लभा मोक्षस्थिति ध्यानाकर्मा नहीं करने से कैसा
प्राप्ति कर सकते है!
नहि कश्चित क्षणमपि जातु तिष्ठत्य कर्मकृत
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वाः प्रक्रुतिजैःगुणैः 5
प्रपंच में कोई भी मनुष्य ऐ क्षण काल भी बिना कर्म रहा नहीं
सकता है! प्रक्रुति का साथ उत्पन्न हुए गुणोंसे, हर एक मनुष्य विवश होंकर कर्मो को
करता रहता है!
ब्रह्माण्ड सत्वा, रजो, और तमो गुणों से व्यक्तीकरण किया हुआ
है और उन् गुणों से ही चलता है! आत्म सृष्टि का अतीत है! प्राणशक्ति, और शरीर का
साथ आत्म जब मिलता है कीचड में गिराने से सोने का साथ मैला जैसा लग जाता है, वैसा
ही अहंकार नाम का मैला आत्मा का साथ लगजाता है! उस समय में शारीरक, मानसिक, और
आध्यात्मिक स्थितियों को वश हुआ जैसा लगेगा! मैला को सफाई करने से सोना फिर पूर्व
वैभव से चमकेगा! वैसा ही मला, विक्षेपन,
और आवरण दोषों से मुक्त होंकर आत्मा उज्वल स्थिती में प्रकाशितं होता है!
परिपक्वा आत्मज्ञान लब्ध हुआ योगी भी इसी कारण छुप नहीं बैठ कर
परितप्त मनुष्यों को क्रियायोग ध्यान सिखाता है!
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य
य आस्ते मनसा स्मरण
इन्द्रियार्धान्विमूढात्मा मिथ्याचारस्स उच्यते 6
जो साधक ज्ञानेंद्रिय कर्मेन्द्रियोंको दबाके मन से इन्द्रियों
का शब्दादि विषयों का बारे में चिंतन करता है, वैसा मूढचित्त मनुष्य कपटाचारी
मनुष्य कहलाते है!
योगसाधना से शाश्वत परामात्मा को लभ्य करेगा कहकर बीच में त्यग
कर पुनः क्षणिक और अल्प इन्द्रियसुखों का बारे में चिंतन करना कपटी का ही काम है!
लोगों का शहबाज के लिए काषाय वस्त्रधारण कर के संन्यासी जैसा बैठना कपटपूर्ण है!
दुष्ट आलोचनाएं क्रमशः दुष्ट कामों का आलम्बन होता है!
इसीलिए क्रियायोग से क्रमशः मन को नियत्रंण करना है! इन को दबा
के रखने से स्प्रिंग जैसा मुख में आके मारेगा! वैसा ही दुष्ट आलोचनाएं मनुष्य
विनाश हेतु है!
अपना ध्यान का माध्यम से परमहम्सा स्थिति यानी परामात्मा से
अनुसंथान होकर निर्विकल्पसमाधि स्थिति प्राप्त हुआ योगी प्रस्तुत में ध्यान करने
से भी नहीं करने से भी कोई बात नहीं है! वों परामात्मा का आध्यात्मिक पेन्शनरी ही
है! ज्ञानप्राप्ति किया हुआ साधक शांति नाम का पेन्शनरी है!
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेर्जुन
कर्मेंद्रियैः कर्मयोगमसक्तस्सविशिष्यते 7
हे अर्जुन, जो साधक अपना मन से इंद्रियों से नियंत्रित करके,
कर्मयोग को निरासक्तता से आचरण करता है, ओ साधक उत्तम है!
नियतं कुरु कर्मत्वं कर्मज्यायोह्योकर्मणः
शरीरयात्रापिचा ते नाप्रसिद्ध्येदकर्मणः 8
हे अर्जुन, तुम शास्त्रों से नियमित हुए कर्म करो! कर्म नहीं
करने बदल में कर्म करना श्रेष्ठ है! कर्म नहीं करने से देहयात्रा भी सिद्ध नहीं
होगा!
साधक शास्त्रों से
नियमित क्रियायोगकर्म साधना करना चाहिए! इस साधना पूर्णरूप से सफल नहीं होने से भी
फरवा नहीं है! ध्यानयोगी का शरीर निश्छल रहता है! इस का अर्थ ध्यान में साधक
तीव्ररूप से मानसिक रूप में काम करता है! मन को इन्द्रियों से हठा कर
सूक्ष्मशाक्तियों को अंतर्मुख कर के परमात्मा से अनुसंथान करता है! असली कर्मयोग ए
ही है!
यज्ञार्धात्कर्मणोन्यत्र लोकोयं कर्मबंधनः
तदर्धं कर्मकौंतेय
मुक्तासंगःसमाचर 9
हे अर्जुन, भगवत्प्रीतिकर, लोकहितार्थ यज्ञकर्म यानी क्रियायोग
के अलावा इतर कर्मो से लोग बंधन होते है! तुम क्रियायोग यज्ञकर्म के लिए संगरहित
होंकर फलासक्ति त्याग कर कर्माचारण करो!
सहयज्ञाःप्रजास्सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः
अनेन प्रसविष्यध्वमेषवोस्त्विष्टकामधुक् 10
पुराणा समय में ब्रह्म यज्ञों का साथ साथ प्रजाओं को सृष्टि कर
के इन् यज्ञों से तुमलोग अभिवृद्धि होजावो, उन् यज्ञों आपलोगों का अभीष्टों को
प्राप्ति करवाएंगे कर के कहा था!
यज्ञों में ब्रह्म हमेशा अन्तर्गत होता है!
परामात्मा चेतना—विचारों—प्रकाश—प्राणशक्ति—एलेक्ट्रान प्रोटान—मालिक्यूल—प्रकृति—पृथ्वी—मनुषय——ए
है जंजीर
परमात्मा
अपना चेतना कर के यज्ञ से मनुष्यों को व्यक्तीकरण किया! मेरा स्फूर्ति से
व्यक्तीकरण हुए तुमलोग उसी स्फूर्ति से अभिवृद्धि होजावो कर के आदेश किया था!
देवान्भावयतानेन ते देवाभावयंतुवः
परस्परंभावयंतःश्रेयः परमवाप्स्यथ 11
इस यज्ञों से देवताओं को संतृप्ति करो! वे आपलोगों को वर्ष
इत्यादियों से संतृप्ति करेंगे! इस प्रकार से दोनों परस्पर तृप्ति पानसे उत्तम
श्रेयस् लब्ध होगा!
योगाध्यानयज्ञ में अनेक सूक्ष्मशाक्तियों के साथ साधक ममैक
होके रहता है! सूक्ष्मशाक्तियों का अर्थ दिव्यात्मायें है! वों परमात्मा का
प्रतिनिथियां है! उन् का माध्यम से परमात्मा को निर्देशन करता है! इसीलिए ध्यान का
माध्यम से परस्पर तृप्ति लब्ध करना श्रेयस्कर है!
हमारा कर्मो का मुताबिक़ इन ग्रहों, और नक्षत्रों, जन्म समय में
नियमित स्थानों में होंगे!
इष्टान् भोगान् हि वों देवादास्यंते यज्ञभाविताः
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो योंभुङ्तेस्टेन एव सः 12
मनुष्यों का क्रियायज्ञों से संतुष्ट होंकर देवतायें उनका इष्ट
भोगों को देते है! ऐसा भोग्यवस्तुवों समर्पितभाव छोडकर जो अनुभव करता है वों तस्कर
ही है!
अभिषेक——पंचामृतस्नान--
भूमि,
जल्, अग्नि, वायु, और आकाश कर के पंचभूतों से बनी है इस सृष्टि! मनुष्य का शरीर
इसी प्रकार पंचभूतों से ही निर्माण हुआ है! इस सृष्टि जब तक है तब तक इन पंचभूतों
स्थितिवंत होते है! ए पंच अमृत है! परामात्मा से उन् का प्रसादित किया पंचभूतों
सहित सृष्टि अधिक नहीं है! ऐसा कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उन् पंचभूतों उन्ही को
समर्पित करने का प्रतीक के लिए जल् को अभिषेक का रूप में डालते है!
परमात्मा को हम उप्पर नीचे, बाए दाए, सारे तरह नमस्कार कर के
हमारा गौरव प्रवृत्ति प्रकट करने प्रतीक का रूप में पंचभूतों से स्नान करवाना ही
पंचामृतस्नान!
श्रीराम पादुका पट्टाभिषेकं —
श्रीराम पट्टाभिषेकं
रमयति इति रामः यानी आत्मज्योति दर्शन नाम का आकर्षण से हम को
आनंद करनेवाला!
पादुका मूलाधाराचाक्र का प्रतीक है! मूलाधाराचाक्र पृथ्वी तत्व
का प्रतीक है! भारत(साधक) आत्मज्योति
दर्शन का वास्ते इस पृथ्वी तत्व को परामात्मा को अंकित करना ही श्रीराम पादुका
पट्टाभिषेकं है! योगध्यानपद्धति का प्रारम्भा में पृथ्वी तत्व को पार करना ही
पादुका पट्टाभिषेकं है! पट्टा का अर्थ मेरुदंड!
श्री का अर्थ पवित्र, राम का अर्थ आत्मज्योति दर्शन!
पवित्र आत्मज्योति दर्शन!ध्यान का
पराकाष्ठा है! पट्टा यानी मेरुदंड स्थित पंचभूत तत्वों को परामात्मा को अर्पित
करना ही श्रीराम पट्टाभिषेकं है!
चक्रों में ॐकारोच्चारण श्रद्धा से करने से उस उस चक्र का
सूक्ष्मशक्तियों भी साधक को योगसाधना आगे बढ़ाने में सहायता करेगा!
क्रियायोग अभ्यास से बाहर जाने शक्ती इंद्रियों में वृथा नहीं
होगा! वों सारे शक्तियों मेरुदंड स्थित चक्रों का सूक्ष्मशक्तियों का साथ मिल
जाएगा! साधक का शरीर और मस्तिक्ष(cerebrum) का कणों विद्युदयस्कान्तशक्ति से भर के अमृत बन जाएगा!
मस्तिक्ष का कणों स्वल्प वृद्धि होने 12 वर्षों का आरोग्य जीवन अवसर है!
पूर्णता से अभिवृद्धि होने को और परमात्म चेतना में व्यक्तीकरण के लिए 10,00, 000 स्वाभाविक
प्राकृतिक परिवर्तन और आरोग्य जीवन आवश्यक है! इस को क्रियायोग सुलाभातर करते है!
याज्ञशिष्टाशिवस्संतो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः
भुंजते तेत्वघं पापाये पचात्यान्त्म कारणात् 13
यज्ञ शिष्टान्न खाने सत्पुरुषों सारे पापों से मुक्त
होजायेंगे! जो मनुष्य केवल अपना शरीर पोषण के लिए आहार पकाके खाते है, वों लोग पाप
को ही खा रहा है!
भोजन के पहले क्रियायोग याज्ञ करके
परामात्मा का साथ अनुसंथान होंकर भोजन करना सत्पुरुषों का लक्षण है!
प्राणशक्ति स्थूलशरीर को आधार देने
दिव्यशक्ति है!
मानसिक ज्ञानशक्ती और बाहर जानेवाली
प्राणशक्ति दोनों जब स्थूल पदार्थो से मिलजाते है तब शारीरक जीवकणों आहार और श्वास
का उप्पर आधार होते है!
मानसिक ज्ञानशक्ती आत्मा से जब से इस
शरीर में स्पंदना शक्त्ति यानी प्राणशक्ति का रूप में आविर्भाव हुवा तब से
शारीरक जीवकणों को आध्यात्मिक बदलावू
लाने में प्रयत्न करते रहता है! असली में ए ही प्रधान है!
स्थूलशरीर आहार और श्वास का उप्पर
आधारित है! पूरी तरह से आध्यात्मिक परिवर्तन होने तक जनन मरण आवश्यक है!
प्राणशक्ति मानसिक रूप में आत्मसंदेश को
जीवकणों में देते रहता है और अमरत्व उपदेश करता रहता है! हम जितना भी
आरोग्यसूत्रों का पालन करने से भी मरण तथ्य है! केवल परामात्मा चेतना का उप्पर
आधार करने महावतार बाबाजी जैसे सिद्ध पुरुषों अपना अपना योगशक्ती से स्थूलशरीर को
बदलते हुए नित्य यवन के साथ आरोग्यता से अचिरकाल रहसकते है!
अन्नाद्भवन्तिभूतानि पर्जन्यात्
अन्नसंभवः
यज्ञद्भवति पर्जन्यो
यज्ञःकर्मसमुद्भवः 14
कर्मब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षर
समुद्भवं
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे
प्रतिष्ठितं 15
प्राणी अन्ना से उत्पन्न होते है, अन्ना
वर्षा से होते है, वर्ष यज्ञ से होते है, यज्ञ सत्कर्म से होते है, सत्कर्म वेद से
होते है, वेद अक्षरापराब्रह्मा से होते है! इसीलिए सर्वव्यापक ब्रह्म निरंतर यज्ञ
में प्रतिष्ठित हुआ करके जानो!
प्राणी को आहार मुख्य है! शारीर पोषण के
लिए आवश्यक आहार वर्ष से लभ्य होता है!
पदार्थ का मूल है अग्नि और उस का
प्रकाश! ए परमात्म से ही उत्पन्न होते है! इस अग्नि का प्रकाश् घनीभाव होके हम
जीने के लिए आवश्यक वर्ष उत्पन्न होते है!
सृष्टि एक यज्ञ है! इस यज्ञ के लिए
प्रकाश का आवश्यकता है! इस प्रकाश का मूल है परामात्मा का चैतन्य यानी परब्रह्म!
मूलप्रकृति का अर्थ व्यक्तीकरण नहीं हुआ
प्रकृति! हमारा कर्म का अनुसार, परमात्मा के अभिमत से बुद्धिमानी ॐ स्पन्दानाएं
निकलते है! ए ही मूलप्रकृति है! मूलप्रकृति परमात्मा का अंतर्भाग है! इसी से अनेक
रूपी और प्रकार की सृष्टि कार्यक्रम व्यक्तीकरण होता है!
परमात्मा चेतना को दो प्रकार का समझना
चाहिए! 1) परमात्मा
का प्रकाश, 2)ॐकार यानी प्रनावानाद! परमात्मा चेतना को एक स्वप्ना जैसा समझ
सकते है! ए स्वप्ना कारण, सूक्ष्म, और स्थूल स्वप्न!
मानव शरीर असली में एक विद्युदयस्कांत
तरंग है! मनुष्य भी अपना स्वप्ना में कारण, सूक्ष्म, और स्थूल पात्रों को दर्शन
करते है! मनुष्य परमात्मा का प्रतिरूप इसीलिए कहते है!
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीहयः
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ सा
जीवति 16
हे अर्जुन, इस प्रकार सृष्टि चक्र को
प्रवर्तित किया गया है! प्रपंच में जो मनुष्य इस को अनुसरण करके चलता नहीं है, वों
पापी का जीवन बितानेवाले, इन्द्रियवश होंकर और व्यर्थ जीवन बिताता है!
परमात्मा चेतना ब्रह्मरंध्र से
सहस्र्रारचक्र में तद्वारा मेरुदंड में बहता है! तत् पश्चात मानवचेतना में बदलजाता
है! इस का अर्थ मानवचेतना का मूल आधार ब्रह्मरंध्र नीचे स्थित सहस्र्रारचक्र! इस
चेतना सहस्र्रारचक्र से आज्ञाचक्र, विशुद्ध, आनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्टान, और
मूलाधाराचाक्रों का माध्यम से नीचे की तरह बहकता है! उधर से शिरा संबंधी पद्धती(Nervous system)
क अंदर और रक्तमांसों में प्रवेश करता है! उधर से भ्रमासहित बाहर प्रपंच से संबंध
रख के इंद्रियों का वश में रहता है!
खाया हुआ आहार वीर्य में बदल ने के लिए
साथ प्रकार का परिवर्तन होते है!
1)
आहार रस, 2) रक्त, 3)मांस, 4) शिरा, 5) हड्डीयों, 6)मज्जा, और 7) शुक्ल
रस साधारण रक्त होने को 15(एक पक्ष)दिन लगता है!
साधारण रक्त स्वच्छ रक्त होने को 27(नक्षत्र) दिन लगता है!
स्वच्छ रक्त मांस होने को 41(मंत्रदीक्ष) दिन लगता है!
मांस शिरा होने को 52 (संस्कृत अक्षर) दिन लगता है!
शिरा हड्डीयों होने को 64 (कलाशास्त्र) दिन लगता है!
हड्डीयों मज्जा होने को 84 (जीवराशी) दिन लगता है!
मज्जा शुक्ल होने को 96 (सांख्यों का अनुसार इस शरीर 96 तत्वों से व्यक्तीकरण) दिन लगता है!
शुक्ल ओजःशक्ति होने को 108(अष्टोत्तर) दिन लगता है!
योगसाधना से ही मानावचेतन पुनः मेरुदंडा
का माध्यम से परमात्माचेतना का साथ ऐक्य होगा! सृष्टि चक्र इस प्रकार मेरुदंडा का
माध्यम से चलता रहता है!
यस्त्वात्मरतिरेवस्याद् आत्मत्रुप्तस्य
मानवः
आत्मन्येवच संतुष्टः तस्य कार्यं न
विद्यते 17
हे अर्जुन, जो केवल आत्मा में ही खेलते
आत्म में ही तृप्ति पाके आत्म में ही संतुष्ट होता है, वैसा आत्म ज्ञानि को करने
के लिए कुछ भी काम रहा नहीं है!
साधारण मनुष्य का चेतन मूलाधार,
स्वाधिष्ठान, और मणिपुर चक्रों का माध्यम से काम करते हुए इंद्रियों का वश में
रहता है!
कवियोंकी चेतना आनाहतचक्र से काम करता
है!
शांति और स्थिरत्व युक्त योगी का चेतना
विशुद्धचक्र से काम करता है!
आत्मसाक्षार अथावा सविकल्पसमाधि लब्ध
हुआ योगी अपने आप को कूटस्थ में वामनावतार रूपे में देखता है! इस का चेतना आज्ञाचक्र
से काम करता है!
सविकल्पसमाधि लब्ध हुआ योगी का चेतना
सहस्रारचक्र का परमात्मा का चेतना से काम करता है!
नैवतस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेहकश्चन
नचास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः 18
ऐसा आत्मज्ञानी को इस प्रपंच में कर्म
अकरने में प्रयोजन भी नहीं है, नहीं करने से दोष भी कुछ नहीं लगता है! उन् को
समस्ताभूतो से कुछ भी प्रयोजन के लिए आश्रय करने छीज भी कुछ नहीं होंगे!
तस्मादसक्तस्सततं कार्यम कर्म समाचार
असक्तोह्याचरण् कर्म परमाप्नोति
पूरुषः 19
इसीलिए तुम फलापेक्श्रहिता होंकर कर्मो
को हर समय अछ्छी तरह आचरण करो! ऐसा मनुष्य क्रमशः मोक्ष प्राप्त करता है!
प्राणशक्ति और मन दोनों भौतिककर्म करने
उपकरणों है! भौतिककर्म का अर्थ शुभ्रता, युक्ताहर, और प्रापंचिक प्रवर्तन!
ध्यान के लिए प्राणशक्ति और मन इन दोनों
का आवश्यकता नहीं है! इन दोनों का उपसम्हारण करना है!
साधक फलापेक्षा रहित साधन करते रहना है!
कर्मणैवहि संसिद्धि मास्थिता जनकादयः
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्
कर्तुमर्हासि 20
जनक इत्यादि लोग निश्कामाकर्म से ही
मोक्ष प्राप्त हुए! जनों को अथम पक्ष सन्मार्ग में प्रवर्तित करने उद्देश्य में भी
तुम कर्मो करने युक्त हो!
साधका साफल्य को देख कर जनों साधन
सीखेंगे!
यद्यदाचरति श्रेष्ठःतत्तदेवेतरोजनाः
स यत्प्रामाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते 21
श्रेष्ठ पुरुष जो कर्म करता है, इतर लोग
भी वों ही करेंगे! श्रेष्ठ पुरुष जिस को प्रमाण लेटा है, बाकी लोग भी उसी को
अनुसरण करते है!
परमात्मा को प्राप्त हुआ साधक साक्षात्
परामात्मा ही होंगे! वैद्य बनाने के बाद वैद्यग्रंथों और पढने आवश्यकता नहीं है!
परंतु रोगी का तृप्ति के लिए वैद्यग्रंथों पढ के सुनाते है! वैसा ही परमात्मा को
प्राप्त हुआ साधक और साधना करने अवसर नहीं है! परंतु प्रजों के लिए ध्यान करते
रहता है!
नमे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषुलोकेषु
किंचन
नानवाप्तमवाप्ताव्यं वर्त एवच कर्मणि . 22
अर्जुन, इन तीन लोकों में मेरे लिए करने
योग्य काम कुछ भी नहीं है! आसाध्य और अलभ्य छीज कुछ भी नहीं है! परन्तु मै काम में
ही प्रवर्तित हूँ!
साधक को स्थूल, सूक्ष्म, और कारण लोकों
में साध्य काम कुछ भी नहीं है!
कारण जगत से ही सूक्ष्म जगत को आवश्यक
शक्ती मिलता है! सूक्ष्मजगत से स्थूलाजागत का आवश्यक शक्ती मिलता है!
पदार्थ का मूलकारण परमात्मा का चेतना ही
है! चेतना का अर्थ मन! परमात्म का तीन रूप है मन, शक्ती, और पदार्थ!
यदिह्यहं न वर्तेयं जातु कार्माण्य
तन्द्रितः
ममवार्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याःपार्थ
सर्वशः 23
हे पार्थ, जभीभी मै सावधान से कर्मो में
प्रवर्तित नहीं होने से जगत को हानी संभव हो जाएगा! क्यों की मनुष्य सर्वविधों से
मेरा ही मार्ग को अनुसरण करेंगे!
परमात्म चेतना सर्व लोकों में आत्म, मन,
शरीर, कुटुम्ब, देश, और प्रपंच का परिधी में काम करते है! मनुष्य परमात्म का मूसा
में बना हुआ है! इसीलिए परमात्मा का ही मार्ग को अनुसरण करना पढेगा!
उत्सीदेयुरिमेलोकाः नकुर्याम कर्मचेदहं
संकरास्यच कर्तास्यां उपहन्यमिमाःप्रजाः
24
और मै कर्म नहीं करने से ए प्रजा भ्रष्ट
होजायेगा! और लोकों में अराचक और साम्कर्य्यो आएगा! लोगों का अनर्थ को मै कारणभूत
बंजाएगा!
जब अवसररहित परामात्मा ही कर्म कर रहे
है तों तब अवसरयुकत मनुष्य उन् का मार्ग को अनुसरण करना ही पढेगा!
सक्ताः कर्मण्य विद्वांसो यथा कुर्वंति
भारत
कुर्वाद्विद्वां स्तथासक्तः
चिकीर्षुर्लोकासंग्रहं 25
हे भारत, जैसा अज्ञानी कर्मासक्ती होंकर
कर्माचारण में लगा जाता है, वैसा ही विद्वान लोग कर्मानिरासक्ती होंकर लोक का हित
के लिए कर्माचारण में लगा जाता है!
नबुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनां
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः
समाचरन् 26
परमात्मा में निस्चालास्थिति पायाहुआ
ज्ञानि शास्त्रविहित कर्मो को फलासक्ती से आचारण करनेवाले अज्ञानी लोगों का बुद्धी
को भरमा को वश नहीं करना चाहिए! कर्मो में अश्रद्धा फाईदा नहीं करना चाहिए! ज्ञानी
शास्त्रविहित समस्त कर्मो को खुद
फलासक्तिरहित से अच्छी तरह आचारण करते हुए, उन् अज्ञानी लोगों से भी वैसा
ही करवाना चाहिए!
प्रक्रुतेःक्रियामाणानि गुणैः कर्माणि
सर्वशः
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमितिमन्यते 27
यदार्थ में सारी कर्मो सर्व विधो से
प्राकृतिक गुणों से ही करायाजाता है! अहंकार मोहित अंतःकरणयुक्त अज्ञानी ए बिना
समझ के खुदी कर्ता कर के भावना में रहता है!
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः
गुणागुणेषु वर्तन्त इति मतवा नया
सज्जते! 28
हे महाबाहो, गुणविभागतत्त्व, और
कर्मविभागतत्त्व को जानकारी ज्ञानयोगी गुण गुणों में ही प्रवर्तित होरहा है समझ के
उन् में आसक्ति नहीं रखता है!
स्वप्नावी(dreamr) जब समझेगा की ओ स्वप्नाराहे, तब उस को
उस स्वप्नों का विषयों आसक्तिदायक नहीं होते अथवा दिख्ते है! स्वप्ना विषयोंपर
तादात्मत होके व्यथ नहीं करके दुःख नहीं होते है! साधक गुणों के अतीत होंकर साधना
करना चाहिए!
प्रक्रुतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते
गुणकर्मसु
तानाकृत्स्न विदोमंदान् कृत्स्नविन्न्न
विचालायेत्
प्राकृतिक गुणों से पूर्णरूप से मोहित
हुए मनुष्यों उन् उन् गुणों में और कर्मो में अधिकतर आसक्ति होंगे! ऐसा असंपूर्ण
ज्ञानयुक्त लोगों को परिपूर्ण ज्ञानि संदिग्धता में डालना चाहिए!
आध्यात्मिक योगसाधना में आगे बढ़ा हुआ
योगी बाकी साधको को हेळना पूर्वक आँख से नया देखना चाहिए!
मयिसर्वाणि कर्माणि
सन्यास्याध्यात्मचेतासा
निराशीर्निर्मामोभूत्वा युध्यस्व
विगतज्वरः 30
मै अंतर्यामी हु, परमात्मा हु, तुम्हारा
चित्त सम्पूर्णता से मेरा ही उप्पर लग्न करो, सर्वकर्मो को मुझे अर्पित करो, आशा,
ममता, और संतापो को त्याग के युद्ध करो!
साधक कूटस्थ स्थित परमात्मा का उप्पर ही
दृष्टि लगाकर, अहं त्याग के, इच्छाओं को निरोध करके परमानंद केलिए साधना करना
चाहिए!
हैदराबाद से दिल्ली पहुचने के लिए कुछ
रेल या विमान का माध्यम होना चाहिए! क्रियायोग नाम का अद्भुत शीघ्रतरह योगसाधना का
माध्यम से परमात्मा को पाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए!
ये मेमतमिदं नित्यमनुतिष्ठंति मानवाः
श्रद्धावंतः अनुसूयांतो मुच्यन्तेपि
कर्मभिः 31
दोषदृष्टि रहित होके, श्रद्दावान होंकर
जो साधक ए मेरा मत को अनुसरण करते है वों समस्त कर्मबंधों से मुक्त होजायेंगे!
अंधा दूसरा अंधा को मार्ग दिखा नहीं
सकते है! इसीलिए सद्गुरु अथवा सुशिक्षित क्रियायोगी को प्राप्त करके क्रियायेग
साधना का माध्यम से समस्त कर्मबंधोम से मुक्त जाएगा!
येत्वेतदभ्यासूयंतो नाम तिष्ठंति मे मतं
सर्वज्ञानविमूढाम्स्तान विद्धि
नष्ठानचेतसः 32
परन्तु जो ए मेरा आध्यात्मिक मार्ग, और
निष्कामाकर्मयोग मार्ग को द्वेष करके अनुसरण नहीं करते है, ऐसा लोगों को
बुद्धिहीन, ज्ञानहीन, और भ्रष्ट लोग करके समझने चाहिए!
दृग्गोचर प्रपंचों को, उन् का अनुभवों
को विश्लेषणों को जानने के लिए व्यक्तीकरण किया हुआ है ए बुद्धि! केवल पहचानने
वस्तुपरीज्ञान अथवा आत्मसंत्रुप्ती के लिए नहीं है! ए बुद्धि युक्तायुक्ता
विचक्षणा ज्ञान से आत्मज्ञान के लिए उद्देश्य किया है! इसीलिए मनुष्य इस को दुर्विनियोग
नहीं करना चाहिए!
सदृशं चेष्टते स्वस्याः
प्रक्रुतेःज्ञानवानपि
प्रकृतिम यान्ति भूतानि निग्रहः किं
करिष्यति 33
समस्त प्राणी अपना अपना प्रक्रुतोम को
स्वभावों का अनुसार कर्म करते है! ज्ञानी भी अपना स्वभाव का अनुसार ही कर्मों करते
है! तों फिर निग्रह क्या करसकता है!
इन्द्रियस्येंद्रियस्यार्थे रागद्वेषौ
व्यवस्थितौ
तयोर्नवाशमागच्चेत्तौह्यस्य परिपन्थिनौ 34
शब्ददियो में यानी इन्द्रियार्थों में
रागद्वेष और इष्टानिष्ट बनता है! उन् रागद्वेष को कोई भी वश नहीं होना चाहिए! वों
मनुष्य को प्रबलाशात्रू है!
सत्यशोधक कभी भी किसी भी परिस्थितियों
में इंद्रियों को दास नहीं होना चाहिए!
श्रेयां स्वधर्मो विगुणः
पर्धर्मात्स्वनुष्ठितात्
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो
भयावहः 35
अच्छी तरह आचारण किया हुआ इतर धर्मों से
गुणहीन होने से भी अपना ही धर्म वरिष्ठ है! अपना धर्माचरण में मरण भी श्रेयस्कर
है! इतरों का धर्मं भयदायक है!
इधर स्वधर्म का अर्थ आत्मधर्मं है! वों
स्वच्छ है! आत्मधर्मं साधक को परमात्मा में ऐक्य होने देगा! परधर्मं यानी
इन्द्रिय धर्मं साधक को परमात्मा से दूर
करेगा! इन्द्रियों का वश करेगा और जनन मरण वलय में घुमाएगा!
अर्जुन उवाच:-
अथ केन प्रयुक्तेयं पापं चरती पूरुषः
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव
नियोजितः 36
अर्जुन ने कहा:-
ओ कृष्णा, मनुष्य इच्छा नहीं होने सभी
किस प्रेरणा से विवश हो के पाप करता है?
सच्चाई से रहना चाहने से भी, धूम्रपान
करना हानिकर है जानने से भी, मनुष्य गतजन्मों का संस्कारों का हेतु गलतियां करते
रहता है! इसी कारण सुसंस्कारों का अभ्यास करना आवश्यक है अथावा जन्म जन्मों हमारा
पीछे पढ़ेगा और हानी करते रहेगा
श्री भगवान उवाचा:--
काम एष क्रोध एष राजोगुणसमुद्भवः
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह
वैरिणम् 37
श्री भगवान ने कहाँ-:-
कामं रजोगुण से उद्भव होते है! ए क्रोध
में बदला जाते है! ए कितना अनुभव करने से भी तृप्ती लभ्य नहीं होगा! ए अधिक
पापदायक है! अपरिमित पापकर्माचरण को कामं ही प्रेरक है! ए मोक्ष मार्ग का शत्रु है
कर के जानो!
धूमेनाव्रियाते वह्निर्यथा दर्शो मलेनच
यथोल्बेनावृतो गर्भास्तथा तेनेदमावृतम् 38
धुआँ से अग्नि, धूळ से दर्पण, और मावी से गर्भस्थ शिशु ढका
हुआ जैसा कामं से आत्मज्ञान भी ढका हुआ है!
आवृतं ज्ञानमेतेनज्ञानिनोनित्य वैरिणा
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च 39
हे अर्जुन, कामं अग्नि जैसा है! वों कभी
बुझेगा नहीं है! आत्मज्ञानी को नित्यशात्रू है! मनुष्य का ज्ञान कामं से आवृत है!
इन्द्रियाणि मनोबुद्धिः रस्याधिष्ठांन
मुच्यते
एतैर्विमोहयत्येषज्ञानमावृत्य
देहिनं 40
इंद्रियों, मन, और बुद्धि इस कामं का
निवासस्थान है! इन का माध्यम से ज्ञान को ढक के जीवात्म को मोहित करेगा!
तस्मात्सर्वं इन्द्रियान्यादौ नियम्य
भारतर्षभ
पाप्मानं प्रजहिह्येनं ज्ञान विज्ञान
नाशनं 41
इस का हेतु ओ अर्जुन, प्रथम में
इंद्रियों को वश करके, ज्ञान और विज्ञान दोनों को नाश् करनेवाली महापापी इस कामं
को अवश्य संहार करो!
इन्द्रियाणि पराण्याहुः इन्द्रियेभ्यः
परं मनः
मनसस्तु पराबुद्धिः यो बुद्धेः परतस्तु
सः 42
स्थूलशरीर से इंद्रियों, इंद्रियों से
मन, मन से बुद्धि से आत्म प्रबल है!
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा
संस्ताभ्यात्मानमात्मना
जहिशात्रुं महाबाहो कामरूपं
दुरासदं 43
ऐसा बुद्धि से आत्म सूक्ष्म और प्रबल और
श्रेष्ठ कर के जानके बुद्धि का माध्यम से इंद्रियों, मन,और शरीर को वश में रखो!
दुर्जय शत्रु कामं को निर्मूलन करो!
साधक दृढसंकल्पशक्ती से कूटस्थ में आत्मा का परमानंद के लिए
ध्यान करने से इंद्रियों का तरफ दृष्टि नहीं लगेगा! बुद्धि से भी श्रेष्ठतर
आत्मज्ञान का उप्पर ही ध्यान रखना चाहिए!
ॐ तत् सत् इति
श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायाम योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे
अर्जुन कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः
Comments
Post a Comment