श्रीमद्भगवद्गीता part 13 to 15 हिंदी
ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेनमः
श्रीभगवद्गीत
अथ त्रयोदशोऽध्यायः
क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगः
श्री
अर्जुन् उवाच—
प्रकृतिं
पुरुषंचैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेवच
एतद्वेदितुमिच्चामि
ज्ञानंज्ञेयमेवच केशव 1
श्री
अर्जुन् ने कहा—
हे
श्रीकृष्णा, प्रकृति, पुरष, क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, ज्ञान, ज्ञेय— इन सब का बारे में मै जानना चाहता हु!
श्री
भगवान् उवाच—
इदं शरीरं कौंतेय क्षेत्रमित्यभिदीयते
एताद्योवेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः 2
श्री
भगवान् ने कहा—
हे कुंतीनंदना, इस् शरीर को क्षेत्र कहते है! इस् को जो जनता
है उस् को क्षेत्रज्ञ करके क्षेत्र और क्षेत्रज्ञों का बारे में जाननेवाला कहते
है!
महाभारत का पात्रों सब वेदान्त को प्रतीके है! दुर्वासमहामुनी
को क्रोध अधिक है! वह कुंतीदेवी को एक मंत्र को उपदेश करता है! वैराग्य को प्रतीक
कुंतीदेवी है! वह स्त्री उस् मंत्र को परीक्ष करना चाहता है! इस् का मतलब उस् समय
में वैराग्य यानी आत्मनिग्रहशक्ति क्षीण हुवा! सूर्यभगवान परमात्म चेतना का प्रतीक है! मणिपुराचक्र
आत्मनिग्रहशक्ति का प्रतीक है! सूर्य(परमात्म
चेतना) कुंती का नाभी(आत्मनिग्रहशक्ति) में देखता है! प्रकाश नहीं होने से कोई भी
काम नहीं करसकते है! साक्षीभूत परमात्म चेतना का हेतु सर्व कार्य होते है! क्षीण
हुआ आत्मनिग्रहशक्ति से परमात्म चेतना मिलगया, इसी कारण साधक को रागाद्वेषों यानी
कर्ण जन्म हुआ!
क्षेत्रज्ञंचापिमां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत
क्षेत्रंक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ञानं मतं मम 3
हे अर्जुन, समस्त शरीर क्षेत्रो में मुझ को क्षेत्रज्ञ जैसा भी
जानो! क्षेत्रक्षेत्रज्ञों का ज्ञान जो है वोही वास्तव ज्ञान है करके मेरा
अभिप्राय है!
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्चयद्विकारि यतश्च यत्
सचयोयत्प्रभावश्च यत्प्रमासेन में शृणु 4
उस् क्षेत्र क्या है, कैसा है, किस विकारों का सहित है, किस
में से किस रीति में उत्पन्न हुआ, उस् क्षेत्रज्ञ कौन है और उस् में क्या प्रभाव
है, वों सब विषयों संक्षेप में सुनो!
सुगुणों-दुर्गुणों, आध्यात्मिकता-इंद्रियसुखों,
देवत्व-राक्षसत्व,
पराप्रकृति-अपराप्रकृति, माय को वश होना-अतीत होना— इस् युद्ध मनुष्य शरीर में निरंतर होते रहता है!
मनुष्य कर्माधीन है परंतु अपने आप को सुधारने का इच्छाशक्ती और स्वतन्त्रता केवल
मनुष्य को ही है!
पशु ध्यान करके दैवानुसंथान नहीं प्राप्त करता है! पशु को कर्म
नहीं होता है, कर्मबढ नहीं है! मनुष्य ही पशु पक्ष्यादि रूपों में अपना कर्म
निवृत्ति करता है! खैदी का जेल शिक्षा जैसा पशु पक्ष्यादि रूपों मनुष्य का शिक्षा
है! इसीलिये इच्छाओं आदतों को नहीं वश होके मनुष्य आत्मनिर्देशन का अनुसार कर्म
करना अपना कर्त्तव्य है!
गीता में श्रीकृष्ण ने जो कुछ कहा गया वह सब साधक को अपना
साधना में प्राप्त होनेवाली आत्मबोध ही है! अर्जुन का अर्थ साधक है! अहंकार को वश
होने से बंधन् मार्ग को और आत्म विधेयत मुक्ति मार्ग को लेजाता है!
काम करने पहले मनुष्य को स्वातंत्रता है! परंतु काम करने
पश्चात कर्म हमारा पीछे पड़ेगा! इस् के लिए हमारा इष्ट और अनिष्टो से निमित्त नहीं
है! ए ही कर्म सिद्धांत है!
मनुष्य सम्कालो करने से मुक्ति शीघ्र मिलता है! वह बाह्य
विजयों में नहीं है, अंतर्विजयों में आधार होता है!
इच्छा स्वातंत्र जो है वह इस् जन्म में अथवा पिछले जन्मों का
कर्मो का बना हुआ आदतों अथवा मानसिकोद्रेकों का आधारित होकर प्रवर्तित होने में
नहीं है! विवेकयुक्त होंकर सद्गुरु संकल्प का साथ अनुसंथान करने से ही मनुष्य
स्वेच्छा प्राप्त करता है!
इच्छाओं, प्रलोभों, कष्टों और मनोव्याकुलता इस् जंजीर से आत्मा
शरीर में बंदी हुआ है! दृढ़ क्रियायोग साधना का माध्यम से पूर्वकर्मबीजों नाम का
उस् जंजीर टूट जाता है और साधक स्वतंत्र होजाता है!
ऋषिभिर्भहुदागीतं छंदोभिर्विथैः पृथक्
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः 5
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञों का ज्ञान का बारे में ऋषियों और वेदों
का माध्यम से अनेक प्रकार प्रतिपादन किया हुआ! और युक्त तार्किक हेतु से निर्धारित
रूप में ब्रह्मसूत्र वाक्यों से भी कहा गया!
प्रकृति परमात्मा से जब व्यक्त होने समय वह नेत्रों को अगोचर,
शुद्ध और अव्यक्त प्रकृति का रूप में व्यक्तीकरण होता है! इस् अव्यक्त प्रकृति को
पराप्रकृति कहते है!
पराप्रकृति को माया, शब्द, पराशक्ति, प्रकृति, महाप्रकृति,
मूलप्रकृति, काळी, दुर्गा और महामाया इत्यादि नामों से बुलायाजाता है! वह सत्व रजो
और तमो गुणों से परमात्मा तत्व का उप्पर परदा डालके, नेत्रों क गोचर, अशुद्ध और
व्यक्त प्रकृति व्यक्तीकरण का हेतु बनजाता है! इस् व्यक्त प्रकृति को अपरा प्रकृति
कहते है!
राजेंदर नामका का व्यक्ति एक है, परंतु बच्चो का बाप रूप में,
भार्या क भर्ता का रूप में, किसी का मित्र का रूप में और सरकारी नुकर इत्यादि
विविध रूपधारण करता है! सोना एक ही हि, परंतु विविध आभरणों का रूपधारण करता है!
वैसा ही स्रुष्टि का अतीत और स्रुष्टि का अंदर् का परमात्मा दोनों को पुरुष कहते है!
स्रुष्टि का अतीत परमात्मा को परापुरुष, ईश्वर और परब्रह्म
इत्यादि नामो से कहते है! स्रुष्टि का अंदर् का परमात्मा को कूटस्थ पुरुष और
कूटस्थचैतन्य कहते है!
समिष्टि का अंदर स्थित परमात्मा व्यष्टि में शुद्धात्म और
परिशुद्ध मनुष्य का रूप में प्रतिबिंबित होता है! ऋषियों, योगियों, मुनियों और
सद्गुरुओं ए सब परमात्मा का प्रतिरूप है! वे हमें दिशा निर्देश करने को अवतरण करते
है! शुद्धात्म इंद्रियों का प्रभाव से शरीर ममकार अभिवृद्धि करके अपरिशुद्धात्मा
में बदल जाते है!
सत्व रजस्तमो गुणों मनुष्य का कारण, सूक्ष्म और स्थूल शरीरों
को कारण है!
मनो, बुद्धि, चित्त और अहंकार, पंचप्राणों, पंच
ज्ञानेंद्रियों, पंच कर्मेंद्रियों और पंच तन्मात्रों इति 24
तत्वों इस् स्थूल शरीर में होता है!
मनो(इंद्रिय चेतन), बुद्धि, चित्त(परिस्थितों को स्पंदन होने
हृदय) और अहंकार(मै मेरा इत्यादि भावनों), पंचप्राणों, पंच ज्ञानेंद्रियों और पंच
कर्मेंद्रियों इति 19 तत्वों सूक्ष्मशरीर में होता है!
पंच महाभूतों, सत्व रजस्तमो गुणों इति 8
तत्वों कारणशरीर में होता है! स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीर का 24+19+8
तत्वों कुल मिलाके 51 तत्वों का मूल कारण शरीर ही है!
मरण आत्म को मुक्ती नहीं देता है! मरण का पश्चात आत्मा का साथ
सूक्ष्म और कारण शरीरों दोनों सूक्ष्मलोक में प्रयाण करते है! क्रियायोग अभ्यास का
हेतु आत्म इन दोनों शरीरों से विमुक्ति पाके परमात्मा का साथ अनुसंथान होता है!
इस् के लिए कुछ समय लगता है!
महाभूतान्यहङ्कारोबुद्धिराव्यक्तमेवच
इंद्रियाणिदशैकंच पंचेद्रिय गोचराः 6
इच्छाद्वेष सुखदुःखं संघातःचेतनाध्रुतिः
एतत्क्षेत्रं समासेना सविकारमुदाहृतम् 7
पंचमहाभूतों, अहंकार, मन, बुद्धि, मूलप्रकृति, दशेंद्रियों,
शब्द स्पर्शा रूप, रस और गंध नाम का इन्द्रियविषयों इन का बारे में संखिप्त में
कहा गया! इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, देहेंद्रियादियों, वृत्ति, ज्ञान, और धैर्य
समुदाय है इस् क्षेत्र! इस् विकारासहिता क्षेत्र का बारे में संखिप्त में कहा गया!
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षांतिरार्जवं
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः 8
इंद्रियार्थेषु वैराग्यमनाहंकार एव च
जन्ममृत्युजराव्याधि दुखदोषानुदर्शनं 9
आसक्तिरनभिष्वंगः पुत्रदारग्रुहादिषु
नित्यंच समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु 10
मयिचानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि 11
अध्यात्मज्ञान नित्यत्वं ज्ञानार्थदर्शनं
एतज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा! 12
खुद को प्रशंसा नहीं करना, शेखीबाज नहीं करना, मन और वाक् का माध्यम से परप्राणियों को बाधा नहीं
करना( पशुओं को बलिदान करना इसीलिए गलत है), सहिष्णुता होना, ऋजुता यानी शुद्धि
होना, सन्मार्ग यानी मोक्षमार्ग में स्थिरता होना, मनोनिग्रह होना, शब्द स्पर्श
इत्यादि इंद्रिय विषयों में वैराग्य होना, अहंकार नहीं होना, जन्म, मृत्यु और
बुढापा और रोगों इत्यादियों से होने दुःख और दोष को बार बार स्मरण करना, संतान,
भार्या और घर इत्यादियों में आसक्ति नहीं होना, पुत्रेषण, धने षण और धारषण यानी
ईषणत्रयं नहीं होना और उन् में संगत नहीं होना, इष्टानिष्टों और शुभाशुभो होने पर्
समबुद्धि होना, परमात्मा में अनन्यभक्ति होना,
एकांतप्रदेश में आसक्ति होना, एकांतता में आसक्ति होना, जनसमूह में प्रीती
नहीं होना, आध्यात्मज्ञान और आत्मनिष्ट निरंतर होना और तत्वज्ञान का श्रेष्ट
प्रयोजन जानना—ये सब ज्ञान और इस् का
व्यतिरेक अज्ञान करके कहालाजाता है!
ज्ञेयं यत्तत्प्रवज्ञ्यामि यज्ञात्वामृतमश्नुते
अनादिमत्परं ब्रह्ननसत्तन्नासदुच्यते 13
परब्रह्म जाननेवाला छीज है! इस् को जान के मनुष्य अमृतस्वरूपी
मोक्ष प्राप्ति करते है! इस् का बारे में अच्छीतरह कहरहा हू! इस् को आदि और अंत
नहीं है! यह परब्रह्म सत् अथवा असत कहने को अशक्य है!
सर्वतःपाणिपदं तत्सर्वतोक्षिशिरोमुखं
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति 14
ब्रह्म पदार्थ समस्त प्रदेशों में हाथ पैर, नेत्रों, शिरसों,
मुखों, और कानों फैला हुआ है! प्रपंच में समस्त में व्याप्त हुआ है!
सर्वेंद्रियगुणाभासं सर्वेंद्रियविवर्जितं
आसक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुण भोक्त्रुच 15
बहिरंतश्च भूतानामचरंचरमेवच
सोक्ष्मात्वात्तदि विज्ञेयं दूरस्थंचान्तिकेचतत् 16
अविभक्तं च भूतेषु विभस्थिमिवच स्थितं
भूतभर्त्रुच तज्ञेयंग्रसिष्णुप्रभविष्णुच 17
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसःपरमुच्यते
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्टितं 18
ज्ञेयस्वरूपि उस् ब्रह्म समस्त इंद्रियों का गुणों को प्रकाशित
करते है, समस्त इंद्रियों रहित है, अस्पर्शनीय है, समस्त को भरता है, सत्व रजस्तमो
गुणरहित है, समस्त गुणों का अनुभव करता है, प्राणियों का अंदर और बाहर रहता है,
चलसहित और चलरहित है! यह अतिसूक्ष्म का कारण अज्ञानियों को अवगाहन नहीं होता है! यह दूर में रहता है और
नार्डिक में भी रहता है, अविभाजित है परंतु प्राणियों मेंविभाजित जैसा लगता है!
प्राणियों को स्रुष्टि और पोषण करता है इति जानना चाहिए!
और इस् ब्रह्म प्रकाशमान सूर्यचंद्रादी पदार्थों को भी प्रकाश
देता है! अज्ञान तामस से अलग और अतीत है! ज्ञानस्वरूपि, चिन्मयारूपी और ज्ञेयं भी
है! अमानित्वादी ज्ञानगुणों से प्राप्तकरने योग्य है! समस्त प्राणियों का ह्रुदय
में विशेषरूप में रहता है करके कहागहा है! .
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयंचोक्तंसमासतः
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते 19
हे अर्जुन, इस् प्रकार क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय भी संक्षिप्त
में कहागया! मेरा भक्त यह जाना के मेरा स्वरुप यानी मोक्ष अथवा भगवदैक्य प्राप्ति
के लिए अर्हता प्राप्ति करते है!
प्रकृतिं पुरुषंचैव विद्ध्यनादी उभावपि
विकाराम्श्च गुणाम्श्चैव विद्धि प्रक्रुतिसंभवान् 20
हे अर्जुन, प्रकृति और पुरुष दोनों आदिरहित करके जानो! मनो
बुद्धि इंद्रियों को विकारों और सत्वा रज और तमो गुणों ए सब प्रकृति का हेतु उत्पन्न हुआ!
कार्यकारणकर्तृत्वहेतुःप्रकृतिरुच्यते
पुरुषस्सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते 21
कार्यकारणों में प्रकृति हेतु है! सुख और दुःख अनुभव करने में
पुरष हेतु है कर के कहा जाता है!
पुरुषः प्रक्रुतिस्थोहि भुङ्क्ते प्रक्रुतिजान्गुणान्
कारणं गुणसंड्गोस्य सदसद्योनिजन्मसु 22
पुरुष प्रकृति में रहता है! प्रकृतिजन्य सुख दुःखादियों को
अनुभव करता है! इस अनुभवों का संगत ही जीव को उत्तम और निकृष्टतम जन्मों का हेतु
है!
उपद्रष्टानुमंताच भर्ता भोक्ता महेश्वरः
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेस्मिन्पुरुषः परः 23
पुरष इस् शरीर में रहता है! परंतु इस् शरीर से अलग, साक्षीभूत,
अनुमतिदेनेवाले, धरनेवाले, अनुभव करनेवाले, परमेश्वर और परमात्मा इति कहाजाता है!
येवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैस्सह
सर्वथावर्तमानोपि न स भूयोभिजायते 24
जो इस् प्रकार पुरुष और गुणसहित प्रकृति को जानता है, वह कैसा
भी हो वह साधक फिर जन्म नहीं होगा!
ध्यानेनात्मनि पश्यंति केचिदात्मानमात्मना
अन्ये सांख्येना योगेन कर्मयोगेनचापरे 25
आत्म को कुछ लोग शुद्ध मन से ध्यानयोग का माध्यम से अपना अंदर
स्वयं ही वीक्षण करते है! कुछ लोग सांख्ययोग का माध्यम से और कुछ लोग कर्मयोग का
माध्यम से अनुभूत करते है!
कर्म भक्ति ध्यान और ज्ञानयोगों सब स्वतंत्र नहीं है! साधना
क्रम है! ज्ञानप्राप्ति नहीं होने से मुक्ति लभ्य नहीं होता है! चंचल प्राण को
ऊर्ध्व चक्र यानी आज्ञाचक्र में स्थिर करना ही ऊर्ध्वरेतस् है! प्राण, बुद्धि, मन
और नेत्रों का माध्यम से जीव संसार जगत को देखता है! जीव इस् संसार जगत को
परित्याग करके कूटस्थ में दृष्टि स्थिर करना है! तब आध्यात्मिक जगत साध्य होता है!
पिछले जन्मों का समिष्टि कर्मो का फल ही जीव का सुख और दुःखों
का अनुभव का हेतु है! दैवशक्ति निश्चयरूप में अधिक श्रेष्ट है! पुर्शाकार का अर्थ
प्रयत्न है! प्रयत्न नहीं करने से कुछ भी साध्य नहीं है! दैवं विज्ञान सम्मत नहीं
है! कर्म नहीं करने से ज्ञान प्राप्ति नहीं होता है, प्रानायाम्कर्मा नहीं करने से
आत्मज्ञान प्राप्ति नहीं होता है!
अन्येत्वेवामजानंतः श्रुत्वान्येभ्य उपासते
तेपिचातितरन्त्येत्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः 26
और कुछ लोग इस् प्रकार ध्यान और सांख्य योगों नहीं जानते है!
दूसरों से उस् परमात्मा का बारे में सुन के उपासन करते है! उन् श्रवणतत्पर लोग भी
इस् मृत्युरूपी समसार को अवश्य पार करेंगे!
एक टन् सिद्धांतों से
एक औंस् प्रयत्न श्रेष्ट है! कितना भी ग्रंथपठनकरने से भी, रट्टा मारने से भी,
स्वयं अपने आप ही काम करने से ही उस् का आन पान पता लगता है! वैसा ही कितना भी
पूजा, व्रत, इत्यादि करने से भी क्रियायोग साधना करने से ही स्वाभाविक आकर्षण,
परमात्म को सर्वं अर्पण करने भक्ति भावना और आत्मज्ञान उत्पन्न होता है! क्यों कि
क्रियायोग साधना ग्रंथों का सिद्धांत नहीं बल्कि प्रत्यक्ष प्रयत्न है! इस् का
सहायते साधक ज्ञेय यानी परमात्मा को साध्य करसकते है!
चंचल मन स्थिर होने के लिए चंचल प्राण को स्थिर करना है! चंचल
प्राण को स्थिर करने को चंचल प्राण को स्थिर करना है! इस् का अर्थ एक स्थिर करने
से दूसरा अपने आपी स्थिर हो जाता है! प्राणायाम क्रियों का माध्यम से चंचल प्राण
स्थिर होता है! तब सत्व(सुषुम्ना), रजस्(इडा) और तमो(पिंगळा) गुणों रहित होता है!
इस् अवस्थ क्रियातीत अवस्था है! परमात्मा में विलीन होना ही ज्ञान का पराकाष्टा
है!
वेद का अर्थ प्रणव वाचक ॐकार को सुनना ही है! अंत का अर्थ
परमात्मा में विलीन होना ही है! इसी को वेदांता कहते है! सुनने का बाद शब्द अंत
होता है! तब सुनने को और सुनाने को कुछ भी नहीं होता है! वैसा ही परमात्मा का
अनुसंथान हुआ साधक ज्ञानी को सीखने और नहीं सीखने को और कुछ नहीं शेष नहीं रहता
है!
यावत्संजायते किंचित्सत्वं स्थावरजंगमं
क्षेत्र क्षेत्रज्ञ संयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ 27
भारतावंषा श्रेष्ट अर्हं, इस् प्रपंच में स्थावरजंगमात्मक
पदार्थ जो भी उत्पन्न होता है, वह सब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञयों मिलाने से ही होता
है करके जानो!
क्षेत्र का अर्थ प्रकृति और क्षेत्रज्ञ का अर्थ पुरुष यानी परमात्मा चैतन्य है!
.
सामं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठंतं परमेश्वरं
विनश्यत्स्व विनश्यंतं यह पश्यति स पश्यति 28
समस्त प्राणियों में समस्थिती में परमात्मा विराजमान है!
प्राणियों का देहादियों नाश होने से भी आत्मा नाश् नहीं होता है करके जो देखता है
वह विज्ञ है!
समंपश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरं
नहिनस्त्यात्मनात्मानं ततोयाति परांगतिं 29
समस्त प्राणियों में निश्चयरूप में समस्थिती में परमात्मा
विराजमान है! वैसा देखने साधक अपना आत्मा को हिंसा नहीं करता और सर्वोत्तमगति
प्राप्त करता है!
प्रक्रुत्यैवच कर्माणि क्रियामाणानि सर्वशः
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति 30
सर्वकर्मो को प्रकृती ही सर्वविधो से करता है! वैसा ही आत्म
अकरता करके जानता है, तब वह साधक यदार्थ
जानता है!
यदाभूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति
तत ऐवच विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा 31
अलग अलग दिखाई देने इस् समस्त भूतप्रपंच इक ही परमात्मा से
व्यक्तीकरण हुआ और उसी से विस्तार होता है! वैसा जो साधक वीक्षण करता है वह ब्रह्म
को प्राप्त करता है और स्वयं ब्रह्म ही होता है!
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः
शरीरस्थोपि कौंतेय न करोति न लिप्यते 32
हे अर्जुन, परमात्मा कारणरहित, आद्यंतहित ओर त्रिगुणरहित है!
इस् शरीर में रहने से भी कुछ भी नहीं करता और कोई भी इस् को स्पर्श नहीं करसकता
यानी अस्पर्शनीय है!
आत्म भौतिक, सूक्ष्म और कारणशारीरों का कवर जैसा दिखता है! वैसा ही स्रुष्टि का अंदर का परमात्मा भी भौतिक, सूक्ष्म और कारणशारीरों का
परदायें धरता है!
भौतिक
ब्रह्मंडा सृष्टिकर्ता का रूप में विराट, व्यष्टि सृष्टिकर्ता विराट का रूप में
विश्व,
सूक्ष्मब्रह्मंडा
सृष्टिकर्ता का रूप में हिरण्यगर्भ, व्यष्टि सूक्ष्म सृष्टिकर्ता का रूप में तैजस,
कारण ब्रह्मंडा सृष्टिकर्ता का रूप में ईश्वर,
व्यष्टि कारण सृष्टिकर्ता का रूप में प्राज्ञ करके व्यक्तीकरण करता है!
यथासर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मानोपलिप्यते 33
सर्वत्र व्याप्ति हुआ सूक्ष्मरूपी आकाश धूल से अस्पर्शनीय है!
वैसा ही समस्त शरीर में व्याप्ति हुआ परमात्मा शरीर गुणदोषों से अस्पर्शनीय
है!
यथाप्रकाशायत्येकःकृत्स्नं लोकमिमं रविः
क्षेत्रंक्षेत्रीतथाकृत्स्नं प्रकाशयति भारत 34
हे अर्जुन, सूर्य एक ही है, वह समस्तलोकों को प्रकाशित करता
है! वैसा हे क्षेत्रज्ञ परमात्मा इस् समस्त क्षेत्र को
प्रकाशित करता है!
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा
भूतप्रकृतिमोक्षंच ये विदुर्यांतिते परं 35
जो ज्ञानदृष्टि से इस् प्रकार क्षेत्र क्षेत्रज्ञों का भेद को,
भूतों का कारण अविद्या अथवा प्रकृति से विमुक्ति होने उपाय जानालेता है, वे साधकों
परमात्मपद यानी मोक्ष प्राप्त करते है!
साधना में प्रथम् में कुंडलिनीशक्ती को जागृती करना है! साधना कर के मूलाधारचक्र से मणिपुर तक व्याप्त
हुआ ब्रह्मग्रंथी विच्छेदन कर के संसाराचक्रो को पार करना है! यह ही कर्मकांड,
ऋगवेदकाल और कुरुक्षेत्र है!
साधना कर के मणिपुर से विशुद्धचक्र तक व्याप्त हुआ रूद्रग्रंथी
विच्छेदन करना ही उपासनाकांड, यजुर्वेदकाल ओर कुरुक्षेत्र—धर्मक्षेत्र है!
साधना कर के विशुद्ध से सहस्रारचक्र तक व्याप्त हुआ
विष्णुग्रंथी विच्छेदन करना ही ज्ञानकांड, सामवेदकाल ओर धर्मक्षेत्र है!
विष्णुग्रंथी विच्छेदन समय में सुनाई देनेवाला प्रणवनाद ॐकार
ही सामवेदगान है! इस् का अंत ही मोक्ष है!
ॐ तत्
सत् इति श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योग शास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगोनाम त्रयोदशोऽध्यायः
ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेनमः
श्रीभगवद्गीत
अथ चतुर्दशोऽध्यायः
गुणत्रयविभागयोग
श्री
भगवान् उवाच—
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानांज्ञानमुत्तमं
यज्ञात्वा मुनयः सर्वे परं सिद्धिमितो गताः 1
श्री
भगवान् ने कहा—
हे
अर्जुन, जिस को जान के मनुष्यों इस् संसारबंधं से मुक्त होंकर सर्वोत्तम
मोक्षसिद्धि को प्राप्त किया है उस् परमात्मा संबंधी और ज्ञानों से उत्तमज्ञान का
बारे में पुनः कहरहा हु!
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य ममसाधार्म्यामागताः
सर्गेपी नोपजायंते प्रलयेनव्यदंतिच 2
इस् ज्ञान को आश्रय करके लोग मुझ से ऐक्यताप्राप्त करके मेरा
स्वरुप पाकर सृष्टिकाल में जनम नही लेते है और प्रळय काल में नाश् नहीं होते है!
जनमरणरहित होके पुनरावृति नहीं होता है!
ममयोनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन गर्भं दधाम्यहं
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत! 3
एक छीज यद् रखना, श्रीकृष्णा ने पूरा गीता बोधामे एक व्यक्ति
का रूप में नहीं बल्कि परमात्मा का पात्र में ही इस् आत्मबोध को उपदेश किया!
हे अर्जुन, श्रेष्टतम महत्ब्रह्म यानी मूलप्रकृति माय(ॐ) परमात्मा
का सर्वभूतोत्पत्ति स्थान है! उस् में मै गर्भाकारण हेतु चेतानारूपी बीज रखता हु!
प्रकृति क अतीत परमात्मा स्पंदनारहित है! प्रकृति का अंदर
परमात्मा यानी कूटस्थचैतन्य स्पंदनासहित है! कूटस्थ चैतन्य अथवा पराशक्ति ही
स्रुष्टि क अंदर का परमात्मा है! यह स्पंदनायुत ॐ यानी आदिशक्ति में बीज डालता है!
इसीलिये कूटस्थचैतन्य यानी पराशक्ति भर्तरूपी है! ॐ यानी आदिशक्ति भार्या है!
स्पंदना का अतीत परमात्म ही पिता है, नाश् होने सृष्टी ही
पुत्र अथवा पुत्रिका है! यानी सब परमात्मा ही है!
सर्वयोनिषु कौंतेय मूर्तायस्संभवन्तियाः
तासां ब्रह्म महाद्योनिरहं बीजप्रदः पिता! 4
हे अर्जुन, देव मनुष्यादि जातियों में जो शरीरों उद्भव होरहा
है, उन् का मूलप्रकृति ॐकार माया ही मात्रुस्थान है! मै बीजप्रदाता पिता यानी
कूटस्थ चैतन्य हु!
कार्य कारण रूप ही स्रुष्टि है!
कुम्हार यंत्र का सहायता से मिट्टी से बर्तन बनाया!
कुम्हार निमित्ताकरण, मिट्टी द्रव्य अथवा उपादान कारण, और
यंत्र साधना कारण है!
परमात्मा स्वयं ही अपने से माया का माध्यमसे स्रुष्टि किया!
यहाँ परमात्मा ही निमित्त द्रव्य अथवा उपादान और यंत्र साधना
कारण है!
सतवं रजस्तम इति गुणाः प्रक्रुतिसंभवाः
निबध्नन्ति महाबाहो देहेदेहिनमव्ययं 5
बलिष्ठभुजोवाले अर्जुन, प्रकृतिजन्य सत्व रजस् तमो गुणों तीनों
नाशरहित आत्म को देहा में बंधन कर रहा है!
तत्रसत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकमनामयं
सुखसंगेनबध्नाति ज्ञान संगेन चा नघ 6
पापरहित अर्जुन, उन् सत्वादि गुणों में सत्वगुण निर्मल है!
इसीलिए प्रकाशसहित होते हुए उपद्रव नहीं है! इंद्रिय सुखों और वृत्तिज्ञान आसक्ति
हेतु जीव को बंधन करता है!
इस् शरीर नां का मंदिर परमात्मा का देन है! इस् को आरोग्य रखने को खाने से कर्म नहीं होता है!
परंतु भोजन का व्यामोह होने से कर्म होता है!
अच्छा कामों आत्मा से उत्पन्न होते है अहंकार से नहीं उत्पन्न
होते है! अच्छा कामों भी ‘मै कर रहा हु’ इति कर्त्रुत्वा भावना से करने कर्म
लगेगा! देवभावना से निष्कामता से करने से कर्म नहीं लगेगा!
राजोरागात्मकम विद्धि तृष्णा संग समुद्भवं
तन्निबध्नाति कौंतेय कर्मसंगेन देहिनं 7
हे अर्जुन, रजोगुण दृश्य विषयों में प्रीती, तृष्णा और
आसक्ति करादेता है! वह कर्मो में आसक्ति
का हेतु कर्मबंधन् जिस का कारण आत्मा को खैद करता है!
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनां
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत 8
हे अर्जुन, तमोगुण का कारण अज्ञानता है! यह समस्त प्राणियों को
मोह और अविवेक में डालता है! यह भुलक्कड़पन, विचार में खोयाहुहापन, आलसीपन और
निद्रा इत्यादियो से आत्मा को शरीर में खैद करदेता है!
सत्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत 9
हे अर्जुन, मनुष्य अच्छे काम करसकते है, परंतु ‘मै
करता हु’
करके कर्तृत्व भावना से करने सत्वगुण सुख में आसक्ति उत्पन्न करता है! स्वार्थसहित
रजोगुण कर्म में आसक्ति उत्पन्न करता है! तमोगुण ज्ञान और विवेक को ढक देता है!
जीव को खतरा में डालता है!
रजस्तमश्चाभि भूयसत्त्वं भवति भारत
रजस्सत्वं तमश्चैव तमस्सत्वं रजस्तथा 10
हे अर्जुन, सत्वगुण बलोपेत होने समय वह रजो और तमो गुणों को
दबा देके प्रवर्तित करता है! रजोगुण बलोपेत होने समय वह सत्व और तमो गुणों को दबा
देके प्रवर्तित करता है! तमो गुण बलोपेत होने समय वह सत्व और रजो गुणों को दबा
देके प्रवर्तित करता है!
सर्वद्वारेषु देहेस्मिन् प्रकाश उपजायते
ज्ञानं यदा तदा विद्या द्विवृद्धं सत्त्वमित्युत 11
जब इस् शरीर में श्रोत्रादि सब इंद्रिय द्वारों में
प्रकाशारूपी और बुद्धिवृत्तारूपी ज्ञान होता है, तब सत्वगुण जादा वृद्धि होता करके
जानना चाहिए!
लोभः प्रवृत्तिरारंभः कर्मणामशमःस्पृहा
रजस्येतानि जायंते विवृद्धेभरतर्षभ 12
भरतवंश श्रेष्ट अर्जुन, रजोगुण अभिवृद्धि होने समय में मनुष्य
में लोभात्व, कार्यों में प्रवृत्ति, काम्य और निषिद्धकर्मों को अरंभा करना,
मनःशांति नहीं होना, इन्द्रियनिग्रह नहीं होना और आशा उद्भव होते है!
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादोमोह एवाचा
तमस्येतानि जायंते विवृद्धे कुरुनंदना 13
कृरुवंश श्रेष्ट अर्जुन, सत्त्वगुण अभिवृद्धि होने समय में
मनुष्य को अविवेका, बुद्धिमांद्य, आलसीपन, अजाग्रत, अज्ञानत, मूढत्व और
विपरीतज्ञान होते है!
यदा सत्त्वे प्रवृद्धेतु प्रलयं याति देहभृत
तदोत्तमविदां लोकानामलान् प्रतिपद्यते 14
सत्त्वगुण अभिवृद्धि होने समय में मृत्यु होने से वह मनुष्य
उत्तम ज्ञानियों, परिशुद्धआत्मों,ऋषियों, मुनियों और योगियों, का गर्भों में जनम
लेता है!
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषुजायते 15
रजोगुण अभिवृद्धि होने समय में मृत्यु होने से वह मनुष्य
कर्मासक्तियो का गर्भों में जनम लेता है! तमोगुण अभिवृद्धि होने समय में मृत्यु
होने से वह मनुष्य पामरों और पशु पक्ष्यादि हीनजाती गर्भों में जनम लेता है!
कर्मणस्सुकृतस्याहुस्सात्विकं निर्मलं फलं
रजसस्तुफलं दुखमज्ञानं तमसःफलं 16
सात्विक कर्म का फल निर्मलसुख है! रजोगुण कर्म का फल दुःख है!
तमोगुण कर्म का फल अज्ञानता है!
सत्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एवच
प्रमादो मोहौ तमसो भवतो ज्ञानमेवच 17
सत्वगुण से ज्ञान, रजोगुण से लोभ, तमोगुण से अजाग्रता,
भुलक्कड़पन, भ्रम और अज्ञान होता है!
ऊर्ध्वं गच्छंति सत्वस्था मध्ये तिष्ठंति राजसाः
जघन्य गुणवृत्तिस्था अधो गच्छंति तामसाः 18
सत्वगुण लोगों को मरणानंतर ऊर्ध्वालोक प्राप्ति होता है!
साधना में सात्विकगुण अधिक होने से साधक का चेतना धर्मक्षेत्र
चक्रों यानी विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार चक्रों में केंद्रीकृत होता है!
रजोगुण लोगों को मरणानंतर मध्यमलोक यानी मनुष्यलोक प्राप्ति होता है! साधना में रजोगुण अधिक होने
से साधक का चेतना कुरुक्षेत्र-धर्मक्षेत्र चक्रों यानी मणिपुर, अनहता और
विशुद्ध, चक्रों में केंद्रीकृत होता है!
तमोगुण लोगों को मरणानंतर अथमलोक यानी पशु पक्ष्यादि लोक प्राप्ति होता है! साधना में तमोगुण अधिक होने
से साधक का चेतना कुरुक्षेत्र चक्रों यानी मूलाधार, मणिपुर और मणिपुर चक्रों में
केंद्रीकृत होता है!
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोधि गच्छति 19
जब विवेकवंत सत्वादिगुणों से अलग करके जानेगा तब वह साधक मेरा
स्वरुप प्राप्त करता है!
गुणानेतानतीत्यत्रीन् देहीदेहसमुद्भवान्
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते 20
इन तीनों गुणों देहोत्पत्ति को कारणभूतों है! जनम, मृत्यु,
वृद्धावस्था और दुःख ए सब को पार करने साधक मरणरहित आत्मस्थिति यानी मोक्ष
प्राप्ति करता है!
अर्जुन उवाचा—
कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो
किमाचारः कथंचैतां स्त्रीन्गुणानतिवर्तते 21
अर्जुन ने कहा—
प्रभू, इन तीन गुणों पार किया साधक किस लक्षण से विराजमान होता
है? इन तीन गुणों को वह कैसा पार करेगा और उस् का प्रवर्तन कैसा होगा?
जीवन्मुक्त का लक्षणों जानना चाहता है साधक यहाँ! भौतिक शरीर
होते हुए सर्व बांधो से मुक्त हुआ साधक जीवन्मुक्त है! परिणिति हुआ साधक अर्जुन
अपना अंतरात्मा को यहाँ प्रभू करके संबोधन करता है! साधक का परिणिति का मुताबिक़
अनंत(परमात्मा) से जवाब रूपों में आने आत्मबोध विविध प्रकार के होते है! वे शब्द
और रूपरहित आलोचनाओं हो सकता है! मन और बुद्धि को आत्मावाबोध रूप में अथवा
परमात्मचेतना का माध्यं से आने भावनाओं और स्पन्दनों भी होसकता है!
आलोचना स्थूलरूप में शक्ती जैसा, वह शक्ती एक स्वपन जैसा, और
अधिक स्थूल होने से दृश्य में रूपांतर होजाता है!
एक आलोचना मानसिकस्पंदन तत् पश्चात एक शब्द में बदल्जाता है! एकाग्रतायुत
साधक को समझाने के लिए उस् शब्द कोई भी भाषा में भावव्यक्तीकरण करसकता है! कभी कभी
परमात्मचेतना सगंध रूप में अथवा दृश्य वाक्यों में साधक को अपना साधना समय आकाश में
दिखाईंपड़ सकता है! इन्ही को आकाशवाणी शब्दों
करके कहते है!
श्री भगवान् उवाच—
प्रकाशंच प्रवृत्तिंच मोहमेवच पांडव
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि ननिवृत्तानि कांक्षति 22
उदासीनवदासीनो गुणैर्योन विचाल्यते
गुणावार्तंत इत्येव योव तिष्ठति नेंगते 23
समदुःख सुखः स्वस्थस्समलोष्टाश्ममा कांचनः
तुल्यपि या प्रियो धीरर्स्तुल्य निंदात्म संस्तुतिः 24
मानावामानायो धीरस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः
सर्वारंभपरित्यागी गुणातीतस्स उच्यते 25
श्री भगवान् ने कहा—
हे अर्जुन,जो अपने को संप्राप्त हुआ सत्वगुण संबंध प्रकाश अथवा
सुख को, रजोगुण संबंध कार्यप्रवृत्ति, तमोगुण संबंध मोह, निद्रा, तंद्रा यानी
आलसीपन, इन सब को द्वेष नही करेगा, ये मिटजाने से उन् को आपेक्ष नहीं करता है,
तटस्थ रहकर गुणों से, सुखादियों से चंचल नहीं होता है, केवल गुणों प्रवर्तित करता
है करके जानेगा, किसी परिस्थितियों में अचल और निश्चल रहता है, सुखा दुखो में समभावी, आत्म में ही स्थिर रहता
है, मिट्टी पत्थर और स्वर्ण—इन में समभावी, इष्टानिष्टों में समभावी, धैर्यवंत,
समस्ताकार्यो में कर्तृत्व बुद्धि को त्याग किया, काम्य कर्मो सब त्याग किया और
समस्त कार्यों को त्यागा के निरंतर ब्रह्मनिष्ट में रहनेवाले—वैसा
साधक को गुणातीत कहते है!
मांच योव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते
स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयायकल्पते 26
जो मुझ को ही अचंचल भक्तियोग से सेवा करता है, वह इन गुणों सब
को अवश्य पार करके जीवन्मुक्त होंकर ब्रह्म होने समर्थ होता है!
ब्रह्मणोहि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्यच
शाश्वतस्यच धर्मस्य सुखस्त्यैकांतिकस्यच 27
क्यों कि मै नाशरहित, निर्विकार, शाश्वत धर्मस्वरूप, दुःख
रहित, निरतिशय और अचंचलानंद स्वरूपि ब्रह्म का स्वरुप हु मै!
ॐ तत् सत् इति
श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योग शास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगोनाम चतुर्दशोऽध्यायः
ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेनमः
श्रीभगवद्गीत
अथ पंचदर्शोऽध्यायः
पुरुषोत्तमप्राप्तियोगः
श्रीभगवान
उवाचा—
ऊर्ध्वमूलमथः
शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययं
छंदांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेदस वेदवित् 1
श्रीभगवान
ने कहा—
हे
अर्जुन, संसार एक अश्वत्थ वृक्ष जैसा है! इस् का पत्रों वेदों है! इस् का जड़ उप्पर
और शाखाएं नीचे है! ज्ञानप्राप्ति
पर्यंत नाश् नहीं करके विज्ञों कहते है! जो यह जानता है वह वेदार्थ जानकारी होता
है!
मनुष्य का शिर में केशों अश्वत्थ वृक्ष जड़ों जैसा है! ब्रह्मरंथ्र का साथ लगा हुआ है सहस्रारचक्र!
इस् चक्र मेडुल्ला (Medulla) का
माध्यम से परमात्मचेतना को ग्रहण करता है! बाकी छे चक्रों जंक्षन बाक्सेस(Junction
Boxes) जैसा है!
इन्
छे चक्रों से शरीर का नाडीकेंद्रों को, वहा से नाडीयों में, उन् का माध्यम से
फेफड़ों(lungs),
ह्रुदय(heart,
गुर्दा (kidneys)
इत्यादि अवयवों को परमात्मचेतना दिया जाता है! इसीलिए मनुष्य को अश्वत्थ वृक्ष
जैसा कहते है!
अथश्चोर्ध्वं प्रस्रुतास्तस्यशाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः
अथश्चमूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनिमनुष्यलोके 2
संसारर्वृक्ष का शाखाएं सत्व रजस्तमो गुणों से वृद्धि होता है!
इस् र्वृक्ष का शब्दादि इंद्रियविषयों नाम का जड़ों से स्थावर से लेकर जंगमं यानी
ब्रह्मलोक तक व्याप्ति होके मनुष्यलोक में कर्मावासनाएं और सबंध करालेता है! इस्
का जड़ों उप्पर और नीचे में विस्तार होके दृढता से बोयाँ है!
नारूपमस्येह तथोपलभ्यते नांतोनचादिर्नचसंप्रतिष्टा
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसंगशस्त्रेण दृढेना छित्वा 3
ततःपदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन् गताननिवर्तंतिभूयः
तमेवचाद्यंपुरुषं प्रपद्ये यतःप्रवृत्ति प्रसृतापुराणी 4
इस् संसारर्वृक्ष का स्वरुप इस् प्रपंच में संसार आसक्ति सहित
लोगों से जानने को असक्य है! इस् का आदि मध्य और अंत नहीं दिखता है! प्रबल
जड़ोंवाली इस् संसार नाम का अश्वत्थ र्वृक्ष को असंग नाम का प्रबल आयुध से मूल से
काटना है! पश्चात जिस स्थान में प्रवेश किया लोग पुनः संसार में वापस नहीं आयेगा,
जिस से इस् अनादी संसारवृक्ष का प्रवृत्ति व्याप्ति हुआ, वैसा आदिपुरुष परमात्मा
को ही शरण मे हु —इस्
भक्तिभाव से परमात्मा का अनुसंथान के लिए साधना करना चाहिए!
निर्मानमोहाजितसंगदोषा अध्यात्मनित्याविनिवृत्तकामाः
द्वन्द्वैर्विमुक्ताःसुखदुःखसंगैर्गच्छंत्यमूढाःपदमव्ययंतितत् 5
अभिमान, अहंकार और अविवेक नहीं होने लोग, संगत और दृश्य
पदार्थो में आसक्ति नां का दोष को जय किया लोग, निरंतर आत्मज्ञान, ब्रह्मनिष्ट, और
इच्छाओं से पूर्णरूप में मुक्त हुआ लोग, सुख और दुःखों द्वंद्वों से संपूर्ण
मुक्ति हुआ लोग—वैसा ज्ञानियों अव्यय ब्रह्मपद प्राप्ति कररहे है!
नतदभासयातेसूर्यो नशशांको न पावकः
यद्गत्वाननिवर्तंते तद्धामपरमंमम 6
उस् परमात्मा क स्थान को सूर्य, चंद्र और अग्नी प्रकाशित नहीं
कर सकते है! जि स्थान को मिलाने से इस् संसार को पुनः वापस नहीं आते है, वह ही
मेरा(परमात्मा) श्रष्ट स्थान है!
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतःसनातनः
मनः षष्टानींद्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति 7
परमात्मा का अंश नित्य और अनादी है! यह जीवलोक में जीव होता
है! यह प्रकृती में स्थित त्वक, चक्षु, श्रोत्र, जिह्वा, घ्राण और मनस् इति छे
इंद्रियों को आकर्षित करता है!
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः
गृहीत्वैतानि वायुर्गंधानिवाशयात् 8
देवेंद्रियादि संघातों को प्रभु है जीव! पुष्पादि स्थानों से
वायु सुगंध अपना साथ ग्रहण करके लेजाता है! वैसा ही जीव शरीर छोडने समय और नूतन
शरीर प्राप्त करने समय पंचेंद्रियो और मन इन छे छीजो को ग्रहण करके जाता है!
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेवच
अधिष्ठायमनश्चायं विषयानुपसेवते 9
इस् जीवात्मा श्रोत्र, नेत्र, त्वचा जिह्वा और घ्राण और मन का
आश्रय लेकर शब्दादि विषयों को अनुभव करता है!
उत्क्रामन्तं स्थितंवापि भुंजानंवा गुणान्वितं
विमूढानानुपश्यंति ज्ञानचक्षुषः 10
जीव एक शरीर से दूसरा शरीर में प्रयाण करने समय में, शरीर में
स्थित होने समय में, इंद्रिय विषय भोगों को अनुभव करने समय में और वैसा ही सत्वा
रजस्तामो गुणों का साथ होने समय में भी ये सब अज्ञानी लोग नहीं जानता है! केवल
विवेकशील ज्ञानी लोग ही अपना ज्ञाननेत्र का माध्यम से स्वस्वरूप को जानता है!
क्रियायोग—
दैनंदिन कार्यक्रमों के लिए करीब-करीब 40 हजारों प्रोटीन्स का आवश्यक है! इस् प्रोटीन्स का वृद्धि करके
व्याधि और बुढापा दूर रखता है क्रियायोग! जीवकणों और तत्संबंधित कालेय, फेफड़ों,
हृदय और गुर्दा(Kidneys) इत्यादि अवयावयो को समन्वयता का कमी ही
अनारोग्यता का कारण है! इस् समन्वयता करादेना क्रियायोग से सुसाध्य है!
हाइड्रोजन बांब(Hydrogen Bomb) फ्यूजन(Fusion) आधारित है! बाह्याकुंभक फ्यूजन जैसा
है! रोगग्रस्थ जीवकणों को बाह्य कुंभक का माध्यम से आरोग्यवंत करसकते है! फ्यूजन
में जीवकणों को बाहर ही छोड़ के शक्ती उत्पादन करायेगा!
आटंबांब(Atom Bomb) फिजन्(Fission) आधारित है! अंतः कुंभक फ्यूजन जैसा है!
रोगग्रस्थ जीवकणों को अंतःकुंभक का
माध्यम से आरोग्यवंत करसकते है! फिजन्(Fission) में जीवकणों को अंदर ही छोड़ के यानी कूटस्थ स्थित आज्ञाचक्र
में शक्ती उत्पादन करायेगा!
इडा सूक्ष्मनाडी गंगा, पिंगळा सूक्ष्मनाडी यमुना और सुषुम्ना
सूक्ष्मनाडी सरस्वती है! ए तीनों कूटस्थ में मिलना ही त्रिवेणी संगमं है!
कुंडलिनीशक्ती मूलाधार से कूटस्थ तक, तत् पश्चात सहस्रार में पहुंचना ही
निर्विकल्प समाधि है!
क्रियायोग एक भौतिक और मानसिक विधान है! इस् योग में साधक का
शरीर का रक्त में कार्बन(Carbon) दग्ध होके प्राणवायु(Oxygen)
से बलोपेत होता है! तब शिर का अंदर का जीवकणों धनध्रुव और शेष शरीर ऋणध्रुव बनाता
है!
साधक कूटस्थ स्थित आज्ञाचक्र तक श्वास पूरक करके पुनः उस्
श्वास को रेचक यानी निश्वास करके मूलाधार से छोड़ के विद्युदयास्कांतशक्ति उत्पादन
करता है! तब जीवकणनाश् क्षीण होता है! ह्रुदय और शिर का अंदर का नाडियों का
विश्राम मिलना इस् का नतीजा है!
सूर्य एक एक राशि में एक एक मास् रहता है! वैसा बारह राशियों
में भ्रमण करने को एक वर्ष लगता है!
मूलाधार से कूटस्थ स्थित आज्ञाचक्र तक छे चक्रों है! इन चक्रों
में प्रति एक चक्रों में दो राशियों का मुताबिक़ वैसा बारह है! क्रियायोगी अपना
प्राणशक्ति को मूलाधार से आज्ञाचक्र तक, आज्ञाचक्र
से मूलाधार तक घुमाके एक क्रिया करता है! वैसा घुमाते हुए आत्मसूर्य को इन छे
चक्रों में रहा बारह राशियों में दर्शन करता है! वैसा एक भ्रमण एक क्रिया का समान
है! वैसा क्रियायोगी हर एक क्रिया को एक वर्ष का कर्म दग्ध करता यानी एक वर्ष का
प्रगति साध्य करता है!
हमारा संचितकर्म दग्ध करने के लिए 10लाखोँ वर्षों का आरोग्यकर जीवन आवश्यक
है! दृढदीक्षायुत क्रियायोगी दिन में 1000
क्रियाएँ करके तीन वर्षों में 10लाखोँ
करेगा! अपना संचितकर्म दग्ध करके 10लाखोँ
वर्षों का प्रगति साध्य करेगा!
एक पद्धति का अनुसार इन क्रियाएं करने से 6, 12, 18,
24, 30, 36, 42, 48
वर्षों में 10लाखों
वर्षों का प्रगति सुसाध्य है! संपूर्ण प्रगति नहीं प्राप्त हुए मृत्यु होने से भी,
क्रियायोगी अपना साथ इस् क्रियायोगफल लेजाता है!
क्रियायोगी का जीवन उस् का संचितकर्मो से प्रभावित नहीं होगा!
वह परिपूर्णं रूप में आत्मनिर्देशना मार्ग में होगा! मितभोजन और पूर्ण एकान्त क्रियायोग का अत्यंत
आवश्यक है! क्रियायोग में हठयोग(शक्तिपूरक अभ्यास), लययोग(सोऽहं और ॐ
प्रक्रियायें, कर्मयोग(सेवा), मंत्रयोग(चक्रों मे बीजाक्षर ध्यान) और राजयोग
पद्धतियाँ भी होते है!
कूटस्थस्थित आज्ञाचक्र धनध्रुव(+) है! मूलाधारचक्र ऋणध्रुव (-)
है! इस् ऋणध्रुव (-) यानी मूलाधारचक्र से धनध्रुव(+) यानी आज्ञाचक्र तक, धनध्रुव(+)
यानी आज्ञाचक्र से ऋणध्रुव (-) यानी मूलाधारचक्र तक् प्राणशक्ति को घुमाने से
मेरुदंड शक्तिवंत अयस्कांत होता है! गुदास्थान का पास हुआ मूलाधारचक्र से कंठ
स्थित विशुद्धचक्र तक हुए विद्युतों सब मेरुदंड का माध्यम से शिर में स्थित
ब्रह्मरंध्र का पास लगा हुआ सहस्राराचक्र में पहुंचा जाएगा! साधक अमितानंद प्राप्त
करता है! कुछ मुद्राये भी क्रियायोग साथ मिलाके करने से मेरुदंड अत्यंत शक्तिवंत
होता है!
प्राणशक्ति में शक्ती और जागृती दोनों है! प्राणवायु में केवल
शक्ती ही है! शुष्क होने छीज है इसीलिए शरीर कहते है, दहन होने छीज है इसीलिए देहा
कहते है और सडनेवाली छीज है इसीलिए कळेबर कहते है!
यतंतोयोगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितं
यतंतोप्रक्रुतात्मानोनैनंपश्यन्त्यचेतसः 11
आत्मसाक्षात्कार के प्रयत्न करने योगियों अपना अंदर स्थित इस्
आत्म को अनुभूत कर रहे है! वैसा प्रयत्न करने से भी अंतःकरण शुद्धि नहीं होने कारण
अविवेक लोग इस् आत्मा को देख नहीं पारहे है!
इसी कारण क्रियायोग अवश्य करना चाहिए!
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेखिलं
यच्चंद्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धिमामकं 12
समस्त जगत को सूर्य तेजस् प्रकाशित करता है! तथा चंद्र और
अग्नी में जो तेजस् है वे सब परमात्मा का तेजस् करके जानो!
गामाविश्यच भूतानि धारयाम्यहमोजसा
पुष्णामि चौषधीःसर्वास्सोमोभूत्वा रसात्मकः 13
मै भूमि में प्रवेश करके अपना स्वकीय शक्ती से समस्त प्राणियों
का पोषण करता हु! रसस्वरूपी चंद्र होंकर
वनस्पतियों को पुष्टि देरहा हु!
परमात्मा का समीप में आत्मतत्व है! स्थूलशरीर अहंकार
देहाभ्मानी है! सूक्ष्मशरीरा अहंकार दोनों का बीच में है और
दोनों का संथानकर्ता है!
अहं वैश्वानरोभूत्वा प्राणिनांदेहमाश्रितः
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधं 14
मै वैश्वानर नां का जठराग्नि हु! प्राणियों का शरीरों को आश्रय
करता हु! प्राण अपान इत्यादि वायुवों का साथ हु! चार प्रकार का आहार पचन कर रहा
हु!
सर्वस्यचाहं हृदिसन्निविष्टोमत्तःस्मृतिज्ञानमपोहनंच
वेदैश्च सर्वैरहमेववेद्योवेदांतकृद्वेदविदेवचाहं 15
समस्त प्राणियोंकी ह्रुदय में अंतर्यामी मै ही हु! मेरा ही
कारण जीवियों में ज्ञापकशक्ति, ज्ञान और भुलक्कड़पन होता है! वेदों द्वारा जानने
छीज मै ही हु! वेदांतकर्ता वेड जाननेवाला मै ही हु!
वेद का अर्थ ॐकार को सुनना, विधि का अर्थ धर्म, ॐकार को सुनना ही
वेद विधि है!
ॐकार—
ॐ शब्द और उस् का प्रतीक भी है! ‘अ’ कार, ‘उ’कार और ‘म’कार, तीनों अक्षरों का संघटन ॐकार है!
विश्वजनीन लक्षणों इस् ॐकार में पूर्ण रूप में है! समस्त भौतिक जगत स्फोटं यानी
शब्द से ही व्यक्त हुआ है! यह व्यक्ताब्रह्म है! यह व्यक्त ब्रह्म है! उस् का वाचक समस्त स्वरों अपने में लीन् किया
हुआ ॐकार है!
ॐकार में ‘अ’स्रुष्टि(ब्रह्म), ‘उ’
स्थिति(विष्णु) और ‘म’
लय(महेश्वर), का प्रतीके है! आत्म अणु से सूक्ष्म और ब्रह्माण्ड से गरिष्ट
है!
ध्यानी को अपना ध्यान में सुनाईदेने नादब्रह्म ॐकार ही साधक को
परमात्मा का साथ अनुसंथान करता है! सकला वेदों का लक्ष्य ॐकार ही है!
इस् ॐकार को विश्व, तैजस, प्राज्ञ, प्रत्यगात्मा, विराट्,
हिरण्य गर्भा, अव्याकृता और परमात्मा इति आठ अँगे है! अकार, उकार मकार और
अर्थमात्र इति चार पाद है! जाग्रत,
स्वप्ना और सुषुप्ति इति तीन अवस्था है! ब्रह्म, विष्णु, रूद्र, सदाशिव और महेश्वर
इति पाँच देवाताएं इस् ॐकार में है! इस् ॐकार का बारे में नहीं जाननेवाला ब्रह्मपद
को नहीं प्राप्त करते है!
अध्यायनः प्लुतोवापी त्रिविधोच्चारणे नतुः
ह्रस्व लघुरूप में, प्लुतं थोड़ा दीर्घ रूप में और दीर्घ रूप
में ॐकार को उच्चारण करसकते है! ह्रस्व पापों से विमुक्त करेगा, प्लुतं इष्टसिद्धि
प्राप्त करेगा और दीर्घोच्चारण ॐकार मुक्तिप्रदायिनी है!
ॐकार को स्थूल यानी सुनाई देने जैसा उच्चारण करने से
वाचाकम(नादं), सूक्ष्मं यानी मुह बंद करके गले(विशुद्धचक्र) में उच्चारण करने से उपांसु(बिंदु) और कारण
यानी मन में उच्चारण करने से मानसिकं(कळ) करके कहते है!.
उत्तमः तत्वचिंतनं मध्यमा शास्त्रचिंतनं
अथमा मंत्रचिंतनं तीर्थाभ्रांति अथामाथमा
ब्रह्मचिन्तन उत्तम है, शास्त्रचिंतन मध्यम है, मंत्रचिंतन अथम
है और तीर्थयात्रों अथामाथम है!
द्वामिवौ पुरुषौलोके क्षराश्चाक्षर एवच
क्षरास्सर्वाणिभूतानि कूटस्थोक्षर उच्यते 16
इस् लोक में क्षर अक्षर करके दो पुरुष है! समस्त प्राणियों का
उपाधियों अथवा शरीरों क्षर है! कूटस्थ जीव अक्षर है!
उत्तमः पुरुषस्त्वन्य परमात्मेत्युदाहृतः
योलोकत्रयमाविश्य भिभर्त्यव्यय ईश्वरः 17
मै तीन लोकों में प्रवेश करके भरता याने पालन करता हु! वैसा
नाशरहित,जगन्नियामक और क्षर और अक्षरों से अतीत उत्तमपुरुष मुझ को को परमात्मा
कहते है!
यस्मात्क्षरमतीतोहमक्षरादपिचोत्तमः
अतोस्मिलोकेवेदेच प्रथितः पुरुषोत्तमः 18
मै क्षर से अतीत हु, अक्षर स्वरूपि जीव से श्रेष्ठ हु! इसी
कारण जगत और वेदों में पुरुषोत्तम करके प्रसिद्धि हु!
यों मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमं
ससर्वविद्भजतिमां सर्वभावेनभारत 19
हे अर्जुन, जो अज्ञानरहित होंकर इस् प्रकार मुझ को पुरुषोत्तम
कर के जानते है, वह साधक समस्त जान कर पूर्ण मन से निरंतर मेरे को परमेश्वर समझ कर
भजता है!
इतिगुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ
एतत् बुध्वा बुद्धिमान् स्यात्कृतकृत्यश्च भारत 20
हे पापरहित अर्जुन, इस् प्रकार अतिरहस्य शास्त्र तुम को बोध
किया! इस् को अच्छी तरह जानागया मनुष्य को ज्ञानि कहते है! वह ज्ञानि कृतार्थ
होजायेगा!
ॐ तत् सत् इति श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु
ब्रह्मविद्यायां योग शास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे पुरुषोत्तमप्राप्तियोगोनाम
पंचदर्शोऽध्यायः
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