कृष्ण क्रिया कैवल्य part2

परब्रह्म प्रथमो गुरुः परब्रह्म प्रथमो भिषक 
ब्रह्म ही प्रथम गुरु है, ब्रह्म ही प्रथम वैद्य है! वो ही हमको ओंकार द्वारा शिक्षा देता था, दे रहा है और देंगा! ओं ही वह औषधी है जो परमात्मा हम को दे रहा है, ओं ही दिव्य और उत्तमोत्तम औषधी है! ॐ मे ध्यान करना, प्राणायाम अभ्यास करना हमारे आरोग्य, ऐश्वर्य, शांति और सौभाग्य के लिये उचित है! 
समाधि की स्थिति मे ऋषियों ने जो ग्रहण किया उन को ब्राह्मण कहते है! इन्ही चीजों को व्याख्यान कहते है! ऋग, यजु, साम और अथर्व वेदों के मंत्रों को वेद कहते है! सृष्टि के आदि मे परमात्मा ने स्वयं इन मंत्रो के ज्ञान को ऋषियों को प्रदान किया! परमात्मा की करुणा से ही ये समस्त ऋषि इन मंत्रों का अर्थ प्रदान कर सके! ऋषियों के द्वारा समझाए गए मंत्रों को ब्राह्मणाए कहते है! ये समस्त ऋषिगण निस्वार्थी थे और मानवजाती के लिए इन्होने सब कुछ त्याग किया, अपनी खोज से प्राप्त की हुई चीजों को इन ऋषियों ने न्यूटन सिद्धांत, आर्किमेडिस सूत्र इत्यादि जैसा अपना नाम तक नही दिया! वेदो मे 1127 अध्याय है!
कार्य कारण सिद्धांत---
सत्व, रजस और तमस गुणों के विविध प्रकार के मिश्रण से बनती है प्रकृति! सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थ भी इसी प्रकृती का ही फल है! इस सृष्टि के सूक्ष्म और स्थूल पदार्थ इन सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थों को विविध प्रकार से मिलाकर के बनते है!
सृष्टि के आदि मे प्रथम संगत के कारणभूत सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थ को कारण कहते है! इस अतिप्रथम संसर्ग के फल को कार्य कहते है, जैसे हैड्रोजेन और ऑक्सिजन संसर्ग के पहले आंखो को दिखाई नही देते है, संयोग के बाद अपना पूर्व अदृश्य रूप खो बैठते है और पानी की बूंद के रूप मे दिखाई देने लगते है!         
परमात्म उस आदर्श स्थिति के सृष्टिकरता है जिसमे सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थ परमात्म चैतन्य के कारण संयोग मे आकर इस सृष्टि के कारणभूत होते है! इसी को प्रप्रथमावस्था या प्रधान कहते है! अतिसूक्ष्म प्रकृति जो इस प्रप्रथमावस्था से बाहर निकलती है उस प्रथमावस्था को महत्तत्व कहते है! ये महत्तत्व ही स्पर्शनीय सृष्टि का कारणभूत है! महत्तत्व से ही आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वि निकले! ततपश्चात आकाश से शब्द, वायु से स्पर्श, अग्नि से रूप, जल से रुचि(स्वाद) और पृथ्वि से गंध इन्ही के साथ-साथ निकले!
मनुष्या ऋषयाश्चयेततो मनुष्या अजायंत     य़जुर्वेद 319
सृष्टि के आदि मे मनुष्य, ऋषि और बहुत कुछ चीजे परमात्मा से निकली!
निजानीर्यानयेच दस्यवः                        ऋग्वेद
उतासुद्रेयुतार्ये                              अथर्वणवेद
सृष्टि के आदि मे समस्त मनुष्य समान थे! उन मनुष्यों के कर्मों के अनुसार बाद मे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इस तरह का वर्ण भेद आया!
विद्वान लोगों को आर्य कहते है! अविद्वान यानि अनपढ  लोगों को अनार्य अथवा दाश्यों कहते है! आर्यों ने भारत को अपना निवास स्थान माना, इसी कारण भारत को आर्यावर्त कहते है!
आकाश---नीला रंग---
60 परमाणु (60 एलेक्ट्रांस और प्रोटांस)=एक अणु (ऐटम)
दो ऐटम= द्विअणु अथवा स्थूल वायु!
तीन द्विअणु = एक अग्नि अथवा त्रस रेणु!
चार द्विअणु= एक जल रेणु(माँलेक्युल)
पांच द्विअणु= एक पृथ्वि रेणु (माँलेक्युल)
प्रत्येक चार जल रेणुओ(मालेक्युल) के संसर्ग के कारण आकाश नीले रंग का दिखाई देता है! एक द्विअणु अथवा स्थूल वायु और एक पृथ्वी रेणु के संयोग से आकाश मे धुँए जैसा दिखाई देता है, इसी धुँए का प्रतिबिंब पानी मे नीलेरंग का दिखाई देता है!
सत्यनेत्तमितांभूमिः                  ऋगवेद 10—85--14
उक्षादाधार पृथिवीमुतद्यां               ऋगवेद 10—31—8
सूर्य पृथ्वी को आकर्षित करता है, परमात्मा सूर्य को आकर्षित करता है!
यमलोक---
यमेन वायुना.........                 ऋगवेद 10—14—8
यम का अर्थ वायु! इस स्थूल शरीर को छोडने के पश्चात जीव वायुमंडल मे ही रहता है! अपने कर्मफल के अनुसार ये जीव वायु, जल, आहार और पुरुष वीर्य के द्वारा स्त्री के गर्भ मे प्रवेश करता है! तब स्त्री या पुरुष रूप मे स्त्री योनी से बाह्य प्रपंच मे शिशु रूप मे प्रवेश करता है!
एक दिन हम सभी को इस स्थूल शरीर का त्याग करना ही पडेगा! जीव कैसा भी हो आनंद के साथ रहने की कोशिश करता है! जीव सांसारिक सुख चाहता है! मुक्त हुआ जीव परमात्मा मे हमेशा के लिये नित्यसंतोष से रहता है! स्थूल प्रपंच मे हर जीव अपनी-अपनी स्थिती के अनुसार घर प्राप्त करता है उदाहरण के लिये राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और धनवान लोगों को बडे-बडे घर लभ्य होते है साथ ही साथ इन के बंधुजन भी मुफ्त मे उन बडे-बडे घरों मे रह सकते है! ऐसे ही मुक्त पुरुष भी अन्य मुक्त पुरुषों के साथ इस अनंत मे घूम सकते है! शुद्धज्ञान के साथ इस अनंत ब्रह्मांड को देख सकते है! परमात्मा मे लय होना ही असली परमानंद है! कामों (वासना) मे फसना ही नरक है! जैसे नदी सागर मे मिलने के बाद अपना अस्तित्व खो बैठती है! वैसे ही मुक्तपुरुष अंत मे परमात्मा मे लय हो के अपना अस्तित्व खो बैठता है!
गुण---
ऊर्ध्वं गछंति सत्वस्था मध्ये तिष्टंति राजसः
जघन्य वृत्तिस्था अथो गछंति तामसः!        गीता 1418
स्थूल शरीर त्याग करने के बाद सकारात्मक सत्वगुण जीव ऊर्ध्व लोकों मे यानि देव लोक मे जाता है, तटस्थ रजोगुणी जीव मध्यस्थ स्थित मानवजाति मे उत्पन्न होता है, नकारात्मक तामस गुण जीव नीच लोकों मे यानि पशु-पक्षी, क्रमी-कीट आदि लोकों मे उत्पन्न होता है! 
देवत्वं सात्विकायांति मनुष्यत्वं राजसा
तिर्यक्त्वं तामसा नित्यमित्येषा त्रिविधा गतिः!   मनु 12—40  इस का अर्थ उपर दिया गया है!
सत्वंसुखे संजयति रजः करमणि भारत
ज्ञानमाव्रित्यातु तमःप्रमादे संजयति!           गीता 149 
सत्व गुण सुख देगा, रजो गुण कार्य बद्ध करेगा, तमोगुण अनभिज्ञता प्रदान करके तुम को कष्टों मे डाल देगा!
सत्वात संजायते ज्ञानं राजसोलोभ एवच
प्रमादमोहौ तामसोभवति अज्ञानमेवच!        गीता 1417
सत्व गुण से ज्ञान मिलेगा, रजो गुण से लोभ मिलेगा और  तमोगुण से भ्रम, अनभिज्ञता और निर्लक्ष्यता मिलेगी!                                            
देवता---राक्षस
अभयं सत्वसंसुद्धि ज्ञानयोग व्यवस्थितिः
आनंदमश्च यज्ञाश्च स्वाध्यायः तप आर्जवं
अहिंसा सत्यं अक्रोधःत्यागःशांतिःअपैशुनं
दयाभूतेश्व लोलत्वं मार्दवं ह्रीरचापलं तेजः
क्षामधृष्ठः शौचं अद्रोहो नातिमानिता भवंति
संपदं दैवीं अभिजातस्य भारत!            गीता 161,2,3
भय नही होना, शुद्ध हृदय होना, योगाभ्यास करना, दान देना, इंद्रिय निग्रह, पवित्र यज्ञ करना, शास्त्र पठन करना, तप करना, निष्कपट रहना, अहिंसा, सत्यवादित्व, अक्रोधस्थिति, त्यागबुद्धि, चुगली(इधर की बात उधर नही बोलना और उधर की बात इधर नही बोलना), दया, निर्लोभ, मृदुभाषी, विनम्रता, क्षमाशिलता, धैर्य, शुभ्रता, दूसरों को हानी नही पहुचाना ये सब दैवीक गुण है!
दैवीसंपद्विमोक्षाय निबंधासुरीमता!             गीता 165
दैवीक गुण  निवृत्ति के लिये और राक्षस गुण प्रवृत्ति के लिये सहायकारी होते है!
 दंबोदर्पःअभिमांक़श्च क्रोधःपौरुष्यमेवच
अज्ञानंचाभिजातश्य पार्थसंपदमासुरीं!           गीता 164
शेखी मारना, गर्व, दुरभिमान, क्रोध, काठिन्यता, अविवेक, इत्यादि गुण राक्षस प्रवृत्ति मनुष्य के लक्षण है!
प्रवृत्तिंच निवृत्तिंच जना न विदुरासुराः
नशौचं नापिचाचारो न सत्यंतेषु विद्यते!        गीता 167
राक्षस प्रवृत्ति का मनुष्य धर्मनियति को नही जानता! अधर्म नियति से बाहर आने की कोशिश भी नही करता और वो कभी भी धर्म और सत्य मार्ग पर नही चलता!
असत्यं अप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरं
अपरस्परसंभूतं किमन्यकामहैतुकं             गीता 168
दुष्ट मनुष्य ऐसा कहते है, ‘’इस जगत की बुनियाद सत्य नही है, वेदप्रमाणरहित है, कोई नीतिनियम नही है, ईश्वर को सृष्टि का कर्ता बोलना अर्थरहित है, केवल कामसहित स्त्री पुरुष परस्पर संबंधो के कारण ही बन गए है और बाकी सब बाते अर्थरहित है!
त्रिविधंनरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः
कामः क्रोधः तथा लोभः तस्मात एतत्रयं त्यजेत!
                                      गीता 1621
काम, क्रोध और लोभ ये तीनों तीन नरक के द्वार है! यह तीन प्रकार के नरक के द्वार मनुष्य का विनाश करते है! इसी कारण काम, क्रोध और लोभ से विमुक्त होना चाहिये!
श्री रामानुजाचार्य---
श्री रामानुजाचार्य विशिष्ठाद्वैत सिद्धांत के व्यवस्थापक थे!
जीव, ब्रह्म और माया तींनों नित्य है ऐसा उनका सिद्धांत था, वे कहते थे कि स्वभाव सिद्ध दोष सहित मलिन पदार्थों को विसर्जित करना चाहिये! प्रेम से नही दी गई चीजों को स्वीकार नही करना चाहिये! प्रत्यक्ष प्रमाण, अनुमान प्रमाण और वेदों को मानते थे! पूज्य श्री रमानुजाचार्य, माधवाचार्य और आदि शंकराचार्य ये तीनों सिद्धांतकारी वेदों के ही अनुयायी थे और वैदिक यज्ञों के विरुद्ध नही थे!
मूर्ति पूजा---
परब्रह्म सर्वव्यापी है, वे चर-अचर समस्त ब्रह्मांड मे उपस्थित है! वे आकार  रहित और गुणरहित है, इसी कारण आकार रहित परमात्मा को कोई मूर्ती मे बांध नही सकता! अपने जन्मदाता माता-पिता को गौरव दो और उनका आदर करो क्योकि वे ही हमारे प्रत्यक्ष देवता है! गरीब-दिनहीन  मनुष्यों को भोजन, कपडा और सहानुभुती देकर उनकी अन्य जरुरत के समय पर भी सहायता करो क्योंकि मानव सेवा ही माधव सेवा है! पती-पत्नि के बीच मे प्रेम और परस्पर गौरव होना आवश्यक है! अस्पताल, पाठशाला, गौशाला और वृद्धाश्रम इत्यादि का निर्माण करो!
अपने रिश्तेदार, मित्र एवम पडोसियो की यथासमय यथोचित सहायता पुर्ण प्रेमभाव के साथ करो! हमेशा याद रखे हमारे इस स्थूल शरीर के जाते समय मतलब मृत्यु के समय एक पैसा भी हमारे साथ नही जाता है सिर्फ हमारे किये हुए अच्छे-बुरे कर्म ही साथ जाते है! मूर्तिपूजा महाभारत युद्ध के पश्चात यानि 5000 वर्ष पहले आरंभ हुआ! राजा-महाराजाओ ने और लोगो ने पैसे, सुवर्ण, चांदी, वज्र, आभरण इत्यादि पाषाण मूर्तियों के लिये दान रूप मे दिए थे साथ ही सैकडों एकड जमीन भी दि थी! इनका उद्देश्य था कि ये पाषाण मूर्तिया उन दाताओ को लाभ दिलाएगी! दान दीया गया समस्त धन और सैकडों एकड जमीन इत्यादि चीजो ने दुष्ट मनुष्यों का ध्यान अपनी और आकर्षित किया और यहा से इन चीजों को लूटना प्रारंभ हुआ! यह दमनकांड अभी तक समाप्त नही हुआ है, दान मे मंदिरों को दिया हुई व्यवसाईक भूमियों पर कब्जा करके यह लोग भू-बकासुरों के रूप मे खा रहे है! जब तक लोग अपने स्वार्थ लाभ के लिये ऐसा दान देते रहेंगे तब तक ये लूट्पाट चलती रहेगी! शताब्दीयो पहले भी ये ही हुआ था विदेशी लोग सुवर्ण, चांदी, वज्र, आभरण इत्यादि को लूटकर ले गए जिसका सबसे बडा उदाहरण है सोमनाथ मंदिर जिसको गिराकर कई बार वहा के धन एवम आभुषणो को लूटकर विदेशी आक्रांता ले गए! इस के बदले मे अगर हम गरीबों के लिये आस्पताल, पाठशाला और वृद्धाश्रम इत्यादि का निर्माण करते तो ये लूटपाट नही होती!
ऋग्वेद मे 21, यजुर्वेद मे 101, सामवेद मे 1000 और अथर्ववेद मे 9 अध्याय है, कुल मिला के 1131 अध्यायें है! 
जैमिनि मीमांसा मे कर्मकांड को प्राधानता दि गई है!
पातंजलि योग शास्त्र मे ध्यान को प्राधानता दि गई है!
श्री व्यास महाऋषि के ब्रह्मसूत्रों मे ज्ञान को प्राधानता दि गई है! वेदों के अनुसार ही ये सब लिखा गया है! यहा पर यह ध्यान देने का विषय है कि इन सभी शास्त्रों मे मूर्ति पूजा का नाम कही भी नही है!
परितव्यं तदापि मार्तव्यं दंतकटकटेटि किं कर्तव्यं
किसी व्यक्ति ने विष पीलिया, उस के बाद सोचा कि ऐसा नही करना चाहिये था और दांत को कट-कट करके  पश्चात्तप करने लगा, तब उस पश्चाताप का क्या प्रयोजन? अब उसका पश्चाताप उसकी रक्षा नही कर सकता? ऐसे ही बहुत घोर-अकृत्य करके तीर्थस्थलों पर जाने का क्या लाभ है! इसीलिए संपुर्ण मानवजाती के लिये मरण समय आसन्न होने तक उपयोगी कार्य करें!
वेदांत---
टका धर्मः टकाकर्मः टकाहि परमंपदं
यश्यगृहे टकानास्ति टका टक टकायते!
सब ये ही सोच रहे है कि पैसा ही धर्म है, पैसा ही कर्म है और पैसा ही मुक्तिप्रदात है! पैसा जिसके पास है उस के पास सब कुछ है, मृत्यु के समय भी धन का ही विचार करते है मगर कोई भी परमात्मा के बारे मे स्वप्न मे भी न सोचता है और न मरता है!
आधार बिना किसी चीज का अस्तित्व नही है! प्रत्येक कार्य का कारण भी होता है! शरीर का कोई भी अंग प्राणशक्ति  के बिना जीवित नही रह सकता है! ऐसे ही परमात्म बिना ब्रह्मांड नही हो सकता है! आकाश हर एक चीज के अंदर और बाहर मे फैला हुआ है! इस जगत को अतिसूक्ष्म एलेक्ट्रांस और प्रोटांस से बनाने के पश्चात परमात्मा ने इस जगत मे प्रवेश किया! परमात्मा ने माता-पिता के अंदर प्रवेश करके उन को बाध्यतायुक्त(responsible) बना के इस सृष्टि को नित्य जैसा रचाया! परमात्मा प्रत्येक चर और अचर प्रपंच मे उपस्थित है! इस समस्त जगत को रचाके, स्थितिवंत करके और विनाश करके फिर रचाता है परमात्मा! परमात्मा दयालु, निर्मोही, दोषरहित, गुणरहित, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है!
कर्ता परमात्मा है, कर्मा जीव है और कार्य जगत है! 
जैसे भुना हुवा बीज पुनः अंकुरीत नही होता, ऐसे ही मुक्त पुरुष फिर से जन्म नही लेता, वह परमात्मा मे लीन हो जाता है!...............आदिशंकराचार्य
पूर्णमिदं पूर्णमिदः पूर्णात पूर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते!           शुक्लयजुर्वेद
अस्पर्शनीय ब्रह्म पूर्ण है, स्पर्शनीय जगत पूर्ण है, स्पर्शनीय जगत अस्पर्शनीय ब्रह्म से आया है! स्पर्शनीय जगत अस्पर्शनीय ब्रह्म से आने पर भी ब्रह्म पूर्ण है जैसे मातृ गर्भ से आया हुआ शिशु भी पूर्णरूपी है और उस शिशु की माता भी पूर्णरूपी है!   
ईशावाश्ह्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत तेनत्यक्तेन भुंजीथामागृताः कस्यस्विधानं!                 ईशोपनिषद    
यह जगत विनाशी है, ईश्वर अविनाशी है! इस विनाशी जगत के अंदर अविनाशी ब्रह्म है! दूसरों के चीजों की आशा मत करो! परमात्म प्राप्ति के लिये सब त्याग करो!
बालावस्तात क्रीडासक्तः तरुणावस्तावत तरुणीरक्तः
वृद्धावस्तावत चिंतामग्नः परमेब्रह्मनि कोपिन लग्नः!
                                    आदिशंकराचार्य
यह मनुष्य बाल्यावस्था मे क्रीडा मे निमग्न है, य़ौवनावस्था मे स्त्री(भार्या) और विलासों मे निमग्न है और वृद्धावस्था मे चिंता या रोग मे निमग्न है, मगर परमात्मा मे निमग्न होने के लिये इस को कभी भी समय नही मिल रहा है!
चाणक्य नीति---
1) सभी कार्यों का फल मिलना चाहिये, निष्फल नही होना चाहिये!
2) ) अपनी स्त्री(पत्नी) के साथ गोप्य कामक्रीडा करना, आ) सभी कार्य गोप्य करना इ) आहार को उचित समय मे छीन लेना ई) किसी पर विश्वास नही करना, ये सभी गुण कौए से सीखना चाहिये!
3) अ) ज्यादा मांगने की इच्छा आ) थोडा मिलने पर तृप्ति  इ) गेहरी नींद मे सोना ई) फट से गेहरी नींद से उठ जाना उ) अपने मालिक पर विश्वास ऊ) धैर्य ये सब कुत्ते से सीख्नना चाहिए!
4) अ) थकने पर भी वजन उठा के ले जाना आ) शीतल और उष्ण को निर्लक्ष्य करना इ) तृप्ति होने के बाद भी पैर घसीट के चलना, ये सब  गुण गधे से सीखना चाहिए!
5) सुअर और कुत्ते के झगडे मे कौए का लाभ है क्योंकि उस मांस के टुकडे को वह ले उडता है!
6) जैसे रेगिस्तान मे मृगतृष्णा हमको वहा पानी नही होने पर भी पानी का भ्रम पैदा करती है, वैसा ही दुष्मन भी हम को दोस्त जैसा प्रवर्तन करके भ्रमित करता है!
7) उच्चश्रेणी के लोग अपने उत्तम गुणों को असमर्थ या वृद्ध होने पर भी त्याग नही करते जैसे बूढा हो ने पर भी सिंह घास नही खाता!
8) अपना लक्ष्य पाने तक विश्राम नही करना चाहिये! गाय का बछडा अपनी माँ के थन से दूध मिलने तक बार-बार मारता रहता है!
अनोरणीयान महतोमहीयान नात्मागुहायां नहितोश्य जंतोः
आत्मा सूक्ष्मों मे सूक्ष्म और गरिष्ठो मे गरिष्ठ है! आत्मा को वाल्मीकियों(दिमग) मे, पेड के तनो मे, पशुओ मे खोजना व्यर्थ है! आत्मा को अपने हृदय मे खोजना चाहिये!
संपादितात्मा जितात्मा भवति सर्वार्थैः समुज्यते!
अपनी आत्मा को शक्तिशाली बनाना चाहिये! जो स्वयं को जितता है उस को सकल ऐश्वर्य मिल जाता है!
प्रकृतिकोपःसर्वकोपेभ्योगरीयति
प्रजा का क्रोध बहुत खतरनाक होता है! भ्रष्ट मालिक की सेवा करने के बदले मे मरना अच्छा है! विद्वान और सदाचारी मनुष्य को अपना परामर्शदाता नियुक्त करना चाहिये!
अर्थमूलं कार्यं
किसी के ऐश्वर्य का कारण उसका परिश्रम ही है!
अलस्यलब्धमपि रक्षितुं न शक्यते
आलसी की रक्षा करना कठिन है!
बालादपि अभिजातंशृण्यतां
अर्थवंत और विद्वान होने पर बालक की भी सलाह सुननी चाहिये!
मर्यादतीतं न कदाचिदपि विश्वसेत  अतिविनयं धूर्तलक्षणं! जरूरत से ज्यादा नम्रता दिखानेवाले लोगों पर विश्वास नही करना चाहिये क्योंकि अतिविनय दुष्टो के लक्षण है!
कक्षादपि औषधं  गृह्यते
औषधी घास से भी प्राप्त कर सकते है!
अर्थवान सर्वलोकश्य बहुमतः दारिद्रयं खलु पुरुषश्य मरणं
प्रजा धनवान मनुष्य को गौरव देती है, दरिद्रता मरण के समान है!
नक्षुधासमःशतृः
सब से बढ कर भूख ही महाशत्रु है!
सतसंगःस्वर्गवासःयत्रसुखेनवर्तते तदैव स्थानं
दिव्यात्मस्वरूप पुरुषो के संग मे रहना ही स्वर्ग है! जहा हम को सुख मिलता है वही हमारा निवास स्थान है!
मांसभक्षणं मुक्तं सर्वेषां न संसारभयं ज्ञानवतां               
मांसभक्षण तुरंत छोडना देना चाहिये! ज्ञानी लोगों को संसार भय नही होता है!
धनं जाति धनं रूपं धनं विद्या धनंयशः किं धनेन विहीनमानं मुंचति जीवितैः गुणैः!
यश्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पंडितः स शृतवान गुणज्ञः स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः कांचनामाश्रयंति!
गुणाः धनेन लभ्यते न धनं लभ्यते गुणैः
ऐश्वर्य के कारण मनुष्य उत्तम कुल का माना जाता है! ऐश्वर्य ही धर्म, कीर्ति और उत्तम गुण है! ऐश्वर्य मनुष्य को ज्ञानी बना देता है! मनुष्य कुरूपी होने पर भी ऐश्वर्य के कारण सुंदर दिखायी देता है! ऐश्वर्य उस मनुष्य का दुर्गुण भी छिपा देता है! गुण ऐश्वर्य से बनता है मगर गुण से ऐश्वर्य नही बनता!
राजपत्नी गुरुपत्नी.मित्र पत्नी.तथैवच
पत्नी.माताच स्वमाताच पंच मातरः स्मृताः !
राजा की पत्नी, गुरुपत्नी, मित्र की पत्नी, पत्नी की माँ और अपनी माता ये सब पांच माताऐ है! इन का मर्यादापूर्वक आदर करना चाहिये!
धनिकःश्रोत्रियोराजा नदी वैद्यस्तु पंचमः पंचयात्रा न विद्यते न तत्र दिवसं वदेत!.
धनवान, धर्मशास्त्रों को जाननेवाले विद्वान ,राजा यानि प्रशाषक, नदी और वैद्य ये पांच चीजें बहुत ही आवश्यक है! जहा इन पांचो मे से कोई एक भी नही हो उस प्रदेश को अवश्य छोड देना चाहिये!
यस्मिन देशे न सम्मानो नवृत्तिः नबांधवाः
नच विद्यागमः कशित तंदेशं परिवर्जयेत!    
जिस देश मे सम्मान, काम, पाठशाला उपलब्ध नही हो उस प्रदेश को छोडना चाहिये!
पुनर्वित्तम पुनर्मित्रं पुनर्भार्या पुनर्मही
एतत सर्वे पुनर्लभ्यं न शरीरं पुनः पुनः
धन, मित्र, भार्या और राज्य खोने पर फिर से मिल सकता है मगर यह शरीर नही! 
नमंति फलिनो वृक्षाःनमंति गुणिनो जनाः
शुष्कवृक्षाश्च मूर्खाश्च न नमंति कदाचना!
जैसे फलों से भरे हुए वृक्षों की शाखाए नमस्कार भंगिमा मे झुकती है! वैसे ही अच्छे गुणों वाले मनुष्य झुकके अपना गौरव प्रदर्शन करते है! सुखे पडे वृक्ष एवम मूर्ख लोग कभी भी नही झुकते! 
तैलतपन तांबूलं तूलिकातप्तभोजनं
तप्तभरी तरुनांगी सीततप्तसुखंभवेत!
जो मनुष्य अच्छा भोजन, भोजन पश्चात सुगंधीत सुपारी या पान, तदौपरांत सौंदर्यवती पत्नी द्वारा सेवा और समशीतोष्ण वातावण हर दिन चाहता है उस मनुष्य को कभी भी ब्रह्मपद नही मिल सकता!
नमस्कारप्रियो सूर्यो जलधाराप्रियो हरा
उपचारप्रियो विष्णु ब्राह्मणः भोजनप्रियः!
भगवान सूर्य नमस्कार से संतुष्ट होंते है, भगवान शंकर जलाभिषेक से संतुष्ट होंते है, भगवान श्री विष्णु सेवा करने से संतुष्ट होंते है, मगर ब्राह्मण तृप्तिकर भोजन से संतुष्ट होंते है!
वित्तेन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते
मंत्रिना रक्ष्यते भूपः स्त्रियं रक्ष्यतेगृहं!
धन से धर्म की रक्षा होती है, योग से विद्या की रक्षा होती है, विद्वान मंत्री से राजा की रक्षा होती है और स्त्री से घर की रक्षा होती है!
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वेतुष्यंति जंतवः
तस्मात प्रियंहि वक्तव्यं वचनै का दरिद्रता!
प्रेमपूरित मृदुभाषण से सब लोग प्रसन्न होते है! मधुरवचन बोलने मे कैसी दरिद्रता मतलब हमेशा मनुष्य को मधुर वचन ही बोलना चाहिए!
सात रोग---
1) सिद्धांतरहित राजनीति, 2) प्रयत्नरहित धनप्राप्ति, 3) चेतनारहित सुख, 4) नीतिरहित शास्त्र, 5) चरित्र रहित ज्ञान, 6) त्यागरहित उपवास और 7) लक्ष्यरहित व्यापार!
विवाह---
वेदाहमेतंपुरुषं महंतं आदित्यवर्णं तमसः परस्तात
                                         पुरुषसूक्त                                                        
उन ऋषियो ने अज्ञान अंधकार को भगा के परमात्मा को पालिया!
नहि प्रमाणं जंतूनां उत्तरक्षणजीवने
अगले क्षण मे क्या होगा कोई नही जानता! आत्मनिग्रह शक्ति का अर्थ संस्कार और मानवीय शक्तियों का विकास है! सांघिक क्रमशिक्षण का अर्थ सभ्यता और मर्यादा है! पति और पत्नी दोनों को धर्म के लिये कठोर परिश्रम करना चाहिये! विवाह का उद्देश्य केवल संतति वृद्धि नही है!
न प्रजया धनेन त्यगेनेकैव अमृतत्व मानसुः
संतति और धन से मोक्ष नही मिलता, अपने मन को परमात्मा को अर्पित करने से ही मुक्ति लभ्य होगी!
समस्त जीवन् ब्रह्मचर्य पालन करने को नैष्टिक ब्रह्मचर्य कहते है! सिर्फ नैष्टिक ब्रह्मचर्य पालने से मुक्ति लभ्य नही होगी! ब्रह्म मे चरने से ही मुक्ति लभ्य होगी!
एकपत्नीव्रत आचरण करना यानी पत्नी के अलावा किसी पर स्त्री को माँ के समान कर्मणा मनसा और वाचा भाव रखने को ग्रहस्थ ब्रह्मचर्य कहते है! हम ग्रहस्थी होते हुए भी मुक्ति पा सकते है!
कुछ-कुछ हिंदू विवाहों मे एक सोने का पेंडेंट कूटस्थ पर एक हल्दी वाले धागे की सहायता से बांधते है! इस को भासिक कहते है! यह परंपरा कूटस्थ स्थित आज्ञा पाजिटिव और सिर के पीछे स्थित आज्ञा नेगटिव चक्र को उत्तेजित करके कुंडलिनी को जगाने की याद दिलाती है!   
मंगलसूत्र के सुवर्ण पेंडेंट को हृदय स्थान तक लटकाने के लिये इस को हल्दी वाले धागे की सहायता से गर्दन के पीछे तीन गांठ लगाते है! हृदय स्थान के पीछे अनाहत चक्र और गर्दन के स्थान पर विशुद्ध चक्र होता है, मंगलसूत्र पहनाने का उद्देश्य इन चक्रो को याद दिलाना है! मंगलसूत्र धारण के समय वर वधु के सिर पर ब्रह्मरंध्र के उपर ज़ीरा और गूड मिला हुआ लेई लगाता है! इस से याद दिलाते है कि आप पती-पत्नी दोनों एक दूसरे को सहयोग करते हुवे  योगाभ्यास द्वारा कुंडलिनी को जगाके सहस्रारचक्र मे पहुंचाना ही धर्म है!
पति-पत्नी दोनो यज्ञ कुंड को केंद्र बना के सात फेरे लेते है यानि सात बार घूमते है! प्रत्येक मनुष्य के शरीर मे मूलाधार, स्वाधिस्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा  और सहस्रार ये सात चक्र होते है! यज्ञ को साक्षी मानके कुंडलिनी को जगाकर सहस्रारचक्र मे पहुंचाना ही इस का अर्थ है!  जैसे दस हजार बूंद पानी मिलकर एक बडा मटका पानी से भरता है! वैसा ही हर एक मनुष्य के मूलाधार चक्र के नीचे साढे तीन लपेटे ली हुई सिर नीचे और पूंछ उपर करके सोए हुए सांप को कुंडलिनी कहते है और ब्रह्मांड के इन सब कुंडलियों को मिलाकर माया कहते है! कुंडलिनी का अर्थ व्यक्तिगत माया है! यह कुंडलिनी पिपीलिकादिपर्यंत(चिंटी से लेकर) समस्त चराचर प्रपंच मे व्याप्त है! विवाहमहोत्सव मे पति-पत्नी दोनों शपथ लेते है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष मे हम दोनों का बराबर हिस्सा है!          
सात योगिनीया---
माता का अर्थ जिससे नापा जाता है, मान का अर्थ नाप, मेय का अर्थ जिस को नापा है! इन माता. मान और मेय तीनो को मिला के कुलं कहते है! इस त्रिमूर्ति को श्रीदेवि अथवा कालेश्वरि कहते है!
1) डाकिनी आकाशतत्व, 16 पंखडियाँ, विशुद्ध चक्र, हं बीजाक्षर, वाहन सफेद हाथी, सर्वोन्मदिनी मुद्रा, वशित्व सिद्धि, मेध यानि ज्ञान फलित, बीज, न्यास और मंत्र लक्षण, संस्कृत अक्षर अ से अः तक!
2) राकिनी वायुतत्व, 12 पंखडियाँ, अनाहत चक्र, यं बीजाक्षर, वाहन हिरण, सर्व शंकरी मुद्रा, ईशत्व सिद्धि, प्राज्ञा फलित, संस्कृत अक्षर क से थ तक!
3) लाकिनी अग्नितत्व, 10 पंखडियाँ मणिपुर चक्र, रं बीजाक्षर, वाहन बकरा, सर्वाकर्षिणी मुद्रा, वशित्व सिद्धि, मेध यानि ज्ञान फलित,  संस्कृत अक्षर द से प तक!
4) काकिनी जलतत्व, 6 पंखडियाँ, स्वाधिस्ठान चक्र, वं बीजाक्षर, वाहन मगरमच्छ, सर्वाकर्षिणी मुद्रा, लघिमा सिद्धि, स्मृति फलित,  संस्कृत अक्षर ब से ल तक!
5) शाकिनी पृथ्वि तत्व, 4 पंखडियाँ, मूलाधार चक्र, लं बीजाक्षर, वाहन मगरमच्छ, सर्वासंक्षोभिणी मुद्रा, अणिमा सिद्धि, मन फलित,  संस्कृत अक्षर व से स तक!
6) साकिनी मन तत्व, 4 पंखडियाँ, आज्ञा चक्र, ओं बीजाक्षर, वाहन ओंकार, सर्वांकुश मुद्रा, अणिमा सिद्धि, बुद्धि फलित,  संस्कृत अक्षर ह और क्ष!
7) याकिनी ब्रह साक्षात्कार फलित, संस्कृत अक्षर ॐ
त्वचा, रक्त, मांस, मन और हड्डियाँ शक्ति के स्त्रोत है और बाकी हड्डी का मज्जा, वीर्य, प्राणशक्ति और जीव शिव से संबंधीत है! इन नौ तत्व के अलावा दसवे तत्व को पराशक्ति कहते है! इस दसवे तत्व यानि पराशक्ति के अंदर बाकी के नौ तत्व विध्यमान है!     
यत्र नान्यत पश्यति नान्यत शृणोति नान्यत विजानाति भूमा! छांदोग्योपनिषदस
न जानने की, सुनने की, न देखने की स्थिति यानि नही जानकारी की स्थिति को भूमा स्थिति कहते है!
नाद प्रणव से अधिक है! यह नाद श्रीचक्र त्रिकोण मे परा है, अष्टकोण मे पश्यंति है, दशरयुग्म मे मध्यमा है, चतुर्दशम मे वैखरी है! यह शिवशक्ति संबंधित चार चक्रों मे नादात्मकशक्ति निबिडीकृत है! यह सब श्रीदेवी का विविध रूप है!
इस स्थूलशरीर के पतनानंतर जीव पंचभूतों मे प्रवेश करता है! यह पंचभूत सृष्टि का हेतु है ततपश्चात आकाश मे श्रद्धा रूप मे प्रवेश करता है तदुपरांत मेघों मे चांद की किरणों द्वारा प्रवेश करता है ततपश्चात वर्षा द्वारा पृथ्वि मे प्रवेश करता है ततपश्चात अग्नि द्वारा पुरुष मे प्रवेश करता है! पुरुष के वीर्य द्वारा स्त्री योनि मे प्रवेश करता है ततपश्चात स्त्री योनि द्वारा गर्भ मे शिशु रूप मे प्रवेश कर के  रूपधारण होता है! तब स्त्री अथवा पुरुष रूप शिशु मातृ गर्भ से बाह्य प्रपंच मे प्रवेष करता है!
महऋषि जैमिनि ने महऋषि गौतम को द्युपर्जन्य पृथ्वि पुरुषयोषित्सु सूत्र द्वारा समझाया! महऋषि श्री व्यास ने भी ब्रह्मसूत्रभाष्यों मे तदंतरप्रतिपत्तौ रंहति संपरिष्वक्तः सूत्र द्वारा समझाया!
सांख्यों ने सृष्टि की जिम्मेदारी ब्रह्म पर नही प्रधान पर सोपी! गौतम(न्यायदर्शनं) और कणाद(वैशेषिकदर्शन) कहते है कि ईश्वर ने अणुवों से सृष्टि को रचाया! व्यष्टि और समिष्टि सृष्टिया दोनों परमात्मा के लिये अलग-अलग है!
माँ का महत्व---
उपाध्यायान दशाचार्यः आचार्यानां शतंपिता
सहस्रांतु पित्रून मातागौरवेनातिरिच्यते!
एक अच्छा गुरु दस साधारण गुरुवों के समान है! ऐसे एक सौ अच्छे गुरु एक पिता के समान है! मगर एक हज़ार पिता मिलकर भी एक माँ के समान नही है! इसी कारण जो  अपनी माँ को कष्ट देता है वो राक्षस के समान है!

कुछ श्लोक---
सत्यानुसारिणी लक्ष्मि कीर्तिः यज्ञानुसारिणी
अभ्यासशालिनी विद्या बुद्धिः कार्मानुसारिणी!
धनलक्ष्मि सत्यवादी का अनुसरण करती है, कीर्ति यज्ञ करने वालें का अनुसरण करती है, विद्या परिश्रम करने वाले का अनुसरण करती है, बुद्धि कर्म का अनुसरण करती है!
प्रातःजूदप्रसंगेन मध्याह्ने स्त्रीप्रसंगेन
रात्रौ चोर प्रसंगेन कालो गछ्छति धीमतां!
इस श्लोक के दो अर्थ है! 1) कुछ लोग सुबह के समय जुआ खेल के, मध्याह्ण समय मे स्त्रीओ के बारे मे बातचीत करके, रात के समय चोरी के विषय पर संभाषण करके समय बिताते है!  2) कुछ लोग सुबह का समय महाभारत के बारे मे प्रस्तापन करके, मध्याह्ण समय मे श्रीरामायण के बारे मे बातचीत करके, रात के समय श्रीमद भागवत के विषय मे संभाषण करके समय बिताते है! 
नहिजन्मनि श्रेष्टत्वं ज्येष्टत्वं गुणमुच्यते
गुणात गुरुत्वमायाति दधिदुग्धवंघृतंयथा!
महानता जन्म से नही आती उसको अपने गुणों से आर्जित करना चाहिये! .दूध से दही बनता है, दही से घी आता है अपने-अपने गुणों के अनुसार!
ओजस का अर्थ शारीरक शक्ति यानि क्रियाशक्ति!
तेजस का अर्थ मानसिक परिपक्वता यानि इच्छाशक्ति!
द्युति का अर्थ बुद्धि परिणिति यानि ज्ञानशक्ति!
स्वनाम चिह्निताधन्याः पितृनामश्य म्क़ध्यमाः
पुत्रनामश्य अथमाः श्वसुरेन अथमाथमाः
अपने सामर्थ्य से पहचान पाना उत्तम है, अपने पिता के सामर्थ्य से पहचान पाना मध्यम है, अपनी संतान के सामर्थ्य से पहचान पाना अधम है, अपने ससुर के सामर्थ्य से पहचान पाना अधमाधम है!
वेदांत---2
ग्रीक और यूरेप देशों के लोगो की आत्म और ब्रह्मन की प्रस्तुति परिशोधनाए बाह्य प्रपंच की परिमित है! प्राचीन काल के ऋषियों ने आध्यात्मिक जगत की उपयोगी चीजो को मन की गहराई मे जाकर शाश्वतप्रातिपदिका मे प्राप्त किया था! वेदांत के अनुसार धर्म इंद्रियातीत अनुभूति है! धर्म प्रकृति के बाहर है, प्रकृति के अतीत है, इस धर्म को प्रकृति के अंदर रह के प्राप्त नही कर सकते ऐसा वेदांत ने वर्णन नही किया!  उपनिषद क्या है? अंतःकरण यानि मन को पढना ही उपनिषद है! इसी को शृति कहते है! ऋषियों ने अपना स्वार्थ कभी नही सोचा! शृति हर काल मे सत्य होती है, यह समय के अनुसार नही बदलती है! श्रीमदभगवदगीता, महाभारत, श्री रामायण, मनुस्मृति, याज्ञवाल्क्य स्मृति, पराशरस्मृति, ये सब स्मृतिया है! समय के अनुसार स्मृति बदलती है! उदाहरण के लिये 1957 के पहले के रुपये को अभी कोई नही लेगा ऐसे ही एक सौ साल पहले का न्याय सिद्धांत अभी नही चलेगा! मत का अर्थ है मन! मन से आया हुवा है मत! मतकर्ता के मन से आए हुए मत को उसी के नाम से प्राचुर्य लभ्य हुवा था! वेद और प्राण हिंदू मत के आधार है! 
तदेतत ब्रह्मपूर्वं अनंतरं अबाह्यं अयं आत्मा ब्रह्म सर्वानुभूः
                       बृहदारण्यक उपनिषद  5----19
इस ब्रह्म का आदि अंत नही है, ब्रह्म को सभी चीजों की जानकारी है! स्पर्शनीय ब्रह्म की राह से अस्पर्शनीय ब्रह्म को पाने का रास्ता हिंदूमत दिखाता है! इस के लिये कोई कुल, मत, जाति, स्त्री, पुरुष, बालक, वृद्ध, राजा, रंक ऐसी असमानता नही करता हिंदूमत! मुक्ति पाना सर्वजन का अधिकार है! जो सत्यांवेषी है और जिस के पास खोजने की शक्ति है उन सब को मुक्तिपाने का अधिकार है! लोगों को हिंसा से एक धर्म से दूसरे धर्म मे नही लाता हिंदूमत! भारत को कर्मभूमि कहते है! हिंदूधर्म और भारत का नाश होने पर  सारे प्रपंच का विनाश होगा! जो भारत के प्रति प्रतिकूल परिस्थितियो की सृष्टि करेगा वह स्वयं ही नष्ट हो जायेगा! उस देश का नामो-निशान मिट जायेगा!
सारे भौतिक सिद्धांतो को व्यक्तीकरण कहते है! ये परमात्मा की सृष्टि मे नही आता है, जैसे केंद्र की सरकार संपुर्ण देश पर शासन करती है और उस शासन को राज्य सरकारे एवम समस्त प्रजा पालन करती है! शासन करने का अधिकार केवल केंद्र सरकार और नियुक्त अधिकारीयो को है, राज्य सरकार के पास नही! कोई इस शासन का उल्लंघन नही कर सकता जो उल्लंघन करता है वह अपराधी माना जाता है दंडनीय होता है! ऐसे ही परमात्मा ही सृष्टिकर्ता और शासनकर्ता है!
गुप्तशक्ति और विमुक्तशक्ति दो प्रकार की शक्ति है! गुप्तशक्ति को अव्यक्त कहते है! वह अनंत है, निश्चल है और असमांतर है! गुप्तशक्ति को अव्यक्त ब्रह्म, विमुक्त शक्ति को व्यक्त ब्रह्म कहते है! व्यक्त ब्रह्म निर्माणात्मक है! ये चंचल और स्पंदनावृत है! ब्रह्म, शक्ति, भगवान और जगत सब एक ही चीज है!
न्यूटन ने एक सेब को नीचे गिरते हुए देखा, नीचे गिरना एक भौतिक वृत्तांत है, गिरते हुवे सेब को देखना दूसरा भौतिक वृत्तांत है! इन दोनों भौतिक वृत्तांतों के बीच का संबंध भूम्याकर्षण सिद्धांत का हेतु हुआ! वाष्प मशीन का आविष्कार भी दो भौतिक वृत्तांतों के बीच के संबंध के कारण से ही हुआ! इन चीजों के कारण भौतिक शास्त्र उत्पन्न हुवा याने भौतिक शास्त्र दो या दो से अधिक चीजों के संबंधों के बारे मे शोध करने वाला शास्त्र है! ऐसे ही दो प्राणियों के बीच के संबंध का शोध करने वाला शास्त्र है वनस्पति विज्ञान!
आल्फा, बीटा, गामा, एक्स, रडियो किरणें विद्युत अयस्कांत(मेगनेटिक) तरंगें है! चर और अचर चीजो के माध्य मे संबंध होता है! महऋषियों को ये समस्त विषय ध्यान के समय आत्मावबोध द्वारा उत्पन्न हुए! इस जगत के भौतिक और मानसिक व्यापार इन दोनों को मिला कर प्रकृति कहते है! भौतिक व्यवहारों (शारीरक प्रवृत्ति) को जाग्रतावस्था (स्थूलशरीर) कहते है! मानसिक व्यवहारों(मानसिक प्रवृत्ति) को स्वप्नावस्था (सूक्ष्मशरीर) कहते है! इन जाग्रतावस्था और स्वप्नावस्था मे जो दिखायी देता है उन चीजों को अहंकृत कहते है! ये अहंकृत सुषुप्ति अवस्था मे लय होते है! आखरी मे तीनों अवस्थाए यानि जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था परमात्म चैतन्य मे लय हो जाते है! इस परमात्म चैतन्य को ज्ञाता कहते है! जो कुछ भी हम जाग्रत और स्वप्नावस्थाओ मे देखते है वह सब परमात्मा के यानि ज्ञाता के विविध आकार है! जब अहं यानि मै करता हूँ ऐसी भावना छुट जाती है तब जो बचाता है वह आत्मा ही है! इसी को आत्मसाक्षात्कार कहते है! इसी कारण ‘’मै कौन हूँ’’ ढुंढो, ऐसा कहते है भगवान रमण महऋषि! जिस के पास आत्मनिग्रह शक्ति हो वो ही यम है! धर्म को संघ से निकालने पर बाकी क्या बचाता है संघ मे? तब संघ मे पशुप्रवृत्ति प्रबल हो जायेगी! मानवजाति का लक्ष्य केवल इंद्रिय संतुष्टि नही है, यह मानव देह मिली है ब्रह्म को पाने और ब्रह्म मे लय होने के लीए! ये ही असली ज्ञान है, आध्यात्मिक ज्ञान हम को असली ज्ञान प्रदान कर देता है! सारे भौतिक लाभ पानी पर लिखे हुए ग्रंथ जैसे है! इंद्रिय प्रलोभन स्वाभाविक है परंतु अंतिम लक्ष्य आध्यात्मिक है, उस को प्राप्त करने के बदल मे भौतिक लाभ के लिये प्रयास करना आत्महत्या सदृश है!
यावैभूमा ततसुखं नक़ अल्पे सुखमस्ति
भूमैव सुखम् भूमात्वेव विजिज्ञासितव्यैति
                                    चांदोग्यं 723
अनंत को प्राप्त करना ही असली सुख है! आदि और अंत जिस मे है वो हम को सुख नही दे सकता! इसी कारण परमात्म प्राप्त ज्ञान के लिये ही प्रयत्न करना चाहिये ऐसा प्रवचन दिया महायोगी सनतकुमार ने!                          
ओंकार---
ओं शब्दावाच्य्हंच शब्दप्रतीकंच!            आदिशंकराचार्य
ओं केवल शब्द ही नही है, उस से भी अधिक है! ओं शब्द का प्रतिक है! ओं का अर्थ और आकर भी ओं ही है!
वागर्थामिव संतृप्तौ वागर्थप्रतिपत्तये!   महाकवि क़ालिदास    शब्द और शब्द के अर्थ को तोड नही सकते! सूर्य नही होने पर सूर्य किरणे भी नही होगी! एक ही सिक्के के दो मुख है! सूर्य और सूर्य किरणों को अलग करना असंभव है! विविध प्रकार के हावभाव संज्ञाओ को एक अर्थसहित पद्धति मे लाने का प्रयत्न ही भाषा है! भाषा बनने के पश्चात ही शास्त्र निर्माण हुवा! गणित, खगोल इत्यादि शास्त्रों का निर्माण ऐसे ही हुआ!                                 अकार, उकार और मकार का मेल है ओं! ओं को विश्वजननी भावना है! संपुर्ण जगत विस्फोट यानि शब्द यानि ध्वनि से उत्पन्न हुवा! ध्वनि से उत्पन्न हुवा जगत ही व्यक्त ब्रह्म है! इस जगत का शब्दो मे वर्णन करने या समझाने के लिये उपयोगकारी शब्द है ॐ!
ॐ के गर्भ से समस्त शब्द निकलते है यानि ॐ ही सभी शब्दों का माता-पिता है!  अ मात्रा अथवा शब्दांश ओं का बिंदु है! ये सृष्टि आरंभ करने वाला कार्यब्रह्म का प्रतीक है! व मात्रा अथवा शब्दांश सृष्टि को आगे ले जाने वाला यानि ॐ का विष्णु का प्रतीक है, म् मात्रा अथवा शब्दांश सृष्टि को खत्म करनेवाला यानि ॐ का महेश्वर का प्रतीक है!  कोई भी वस्तु छोटी या बडी हो सकती है! मगर एक ही समय मे छोटी और बडी दोनों नही हो सकती! जब हम एक वस्तु को दूसरे वस्तु के साथ नापते है तो वह छोटी या बडी हो सकती है! फोटान सारे जगत जैसा बडा भी है और एक सुई के रंध्र जैसा छोटा भी ऐसा शास्त्रज्ञ कहते है! पहला शब्द ॐ ही था! इस ॐ शब्द मे लय होने पर यह शब्द साधक को परमात्मा के पास ले जायेगा और तत पश्चात परमात्मा मे लीन भी करेगा!   
ॐ तत ब्रह्म ॐ तत विष्णुः ॐ तत वायुः                    
ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर तीनों ओंकार से ही उत्पन्न हुए!

सर्ववेदायतपदं आमनंति...                   कठोपनिषद! यमदेवता ने नचिकेत को कहा कि सारे वेदों का लक्ष्य ॐ ही है!
अष्टांगं चतुष्पादं त्रिस्थानं पंचदैवतं
ऊंकारं योनजानाति ब्राह्मनॉ न ब्राह्मणः
विश्व, तैजस, प्राज्ञ, प्रत्यगात्म, विराट, हिरण्यगर्भ, अव्याकृत और परमात्म यह ओंकार के आठ अंग है, अकार, उकार, मकार और अर्थमात्र ये चार टांगे है! जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति ये तीन अवस्था है ओंकार के! ब्रह्म, विष्णु, रुद्र, सदाशिव और महेश्वर ये पांच पंख है ओंकार के! जो साधक ये सब नही जानता वो मुक्त नही हो सकता!        
ह्रस्वो दहति पापानि दीर्घोमोक्षप्रदायकः
अध्यनःप्लुतोवापित्रिविधोछ्छारनेनतु!               
ह्रस्व ओंकारोच्चारण से मनुष्य सर्वपापों से विमुक्त होता है! मध्यम यानि प्लुत ओंकारोच्चारण से मनुष्य की सर्व इच्छाए पूर्ण हो जाती है! दीर्घ ओंकारोच्चारण से मनुष्य मुक्त होता है! इसीलिए ओंकारोच्चारण सर्वदा लाभकारी है! ऊंचे स्वर मे ओंकारोच्चारण को वाचिक जाप कहते है! मुख को बंद कर के गले के अंदर ही अंदर ओंकारोच्चारण करने को उपांसु कहते है! मानसिक ओंकारोच्चारण करने पर यानी शब्द(ध्वनि) बाहर नही निकले तब उसको मानसिक जाप कहते है! नाद, बिंदु और क़ला सहित है ओंकार! ओंकार उच्चारण एकाग्रता के साथ जिस चक्र मे कर रहे हो उस चक्र से संबंधित शरीर उस से उपर के शरीर मे लय हो के शीघ्र फल देता है! ये सब  ओंकारोच्चारण एकाग्रता के साथ जिस स्थान मे कर रहे है उस स्थान के अनुसार आनंद फल मिलता है!
नाद तमो गुण, बिंदु रजो गुण और कला सत्व गुण का प्रतीक है! नाद अवचेतन, बिंदु चेतना, कला अधिचेतना आवस्थाओ का प्रतीक है! नाद अकार, बिंदु उकार और कल मकार का प्रतीक है!
प्रणवनादं जपत्वं तदा मुक्तो भविष्यंति
सभी मंत्रो मे लिंगबेध है! ओंकारोच्चारण मे लिंगबेध नही है!  इसी कारण ओंकारोच्चारण करके मुक्त हो जाओ!
मुक्त का पर्याय शब्द---
राजयोगं समाधिश्च उन्मनीच मनोमनी अमरत्वं लयसत्वं शून्याशून्यं परमपदं अमंनस्कं तथा अद्वैतं निरालंबं निरंजनं जीवन्मुक्तिश्च सहज तुर्याच इत्येकवाचक!
राजयोग, समाधि, उन्मनी, मनोमनी, अमरत्व, लयसत्व, शून्याशून्य, परमपद, अमंनस्क, अद्वैत, निरालंब, निरंजन, जीवन्मुक्ति, सहज, तुर्याच ये मुक्ति के पर्याय पदशब्द है!
उत्तमतत्व चिंतैव मध्यमा शास्त्रचिंतनं अथमा मंत्रचिंतंच तीर्थभ्रत्याः अथमाथमा!
परमात्मा को नित्य स्मरण करना अथवा याद करना उत्तम है, शास्त्र को अध्ययन करना अथवा याद करना मध्यम श्रेणी है, मंत्र को स्मरण करना अथवा याद करना अधम श्रेणी है, तीर्थ यात्रा करना अधमाधम श्रेणी है!
तपस और चांद्रायण व्रत---
तपस का अर्थ है ताप यानि उष्ण!
तेनत्यक्तेन भुंजीत                      ईशान्योपनिषद्
त्याग से जीओ! शरीर को उचित आहार नही दे कर उपवास करके हिंसा करने से मुक्ति नही मिलती! चांद को 15 दिन आरोहण और 15 दिन अवरोहण होता है! ऐसे ही चांद्रायण व्रत अवरोहण और आरोहरण दो प्रकार का होता है! आरोहण मे एक चम्मच(मुट्ठी)आहार से  पहले (शुक्ल पक्ष पाड्यमि) के दिन से शुरु करके पूर्णिमा के दिन 15 चम्मच(मुट्ठियों) का आहार लेते है! अवरोहण मे बहुल पक्ष यानि कृष्ण पक्ष पूर्णिमा से 15 चम्मच(मुट्ठिया) आहार से शुरु करके अमावास्या के दिन 1 चम्मच(मुट्ठी) आहार ही लेते है! योगी अभ्यास करके एक मिनिट मे 15 हंस से शुरु करके शून्य तक लाता है, बाद मे दो मिनट मे 15 हंस से शुरु करके शून्य तक लाना ऐसा करते-करते पूरे दिन मे शून्य तक लाता है और समाधि मे चला जाता है! अवसर होने पर अल्प आहार लेता है! ये असली चांद्रायण व्रत है! सबसे उत्तमोत्तम विद्या है आध्यात्मिक विद्या! अल्प लाभों को छोडकर उत्तमोत्तम आध्यात्मिक लाभ के लिया प्रयास करना ही असली तप है! भविष्य मे लाभ के लिये क्रीडा का समय छोडकर भी विद्याभ्यास करते है विद्यार्थी, ये भी एक तप है! शारीरक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभ के लिये साधना जो करते है उसी को तप कहते है! अगरबत्ति जलाने से उस की सुगंध चारों और फैलेगी! ऐसे ही साधना सिर्फ अपने आप को ही नही सभी लोगों को लाभ पहुँचाती है! साधना करने वाले के संग मे रहते हुए खलनायक भी कथा नायक बन जाता है! मन और इंद्रियां एक होना असली तप है! तप सभी धर्मों से अधिक है! तप के कारण ही भाषा, साहित्य, विविध कलाए और शास्त्र उत्पन्न हुए! सभी साधनाओ का बीज अथवा मूल है तप!
वेद हम को बंदुआ कर्मचारी बनाने वाला राक्षस सिद्धांत नही है, वेद कोई कारागार नही है! वेद कहते है कि तुम्हारे हृदयनिवासी परमात्मा को तुम स्वयं प्राप्त करो! तुम कैसे भी हो परमदयालु परमात्मा तुम्हारे अंदर रहने की इच्छा करता है मगर तुम परमात्मा के अंदर रहने की इच्छा नही करते हो, इसी कारण जीवन जटिल हो जात है!

तीन शरीर और पांच कोश---
1)स्थूलशरीर---अन्नमय कोश से बना हुआ है! हम स्थूल शरीर की शारीरिक रचना शास्त्र मे पढते है!
2)सूक्ष्मशरीर----प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोश तीन कोशों से बना हुआ है! मनुष्य का व्यक्तित्व और पुनर्जन्म इस सूक्ष्मशरीर से संबंधित है! हम सूक्ष्मशरीर को नाडी संबंध, तत्व और मनोविज्ञान शास्त्र मे पढते है!
3)कारणशरीर----आनंदमयकोश से बना हुआ है! हम कारणशरीर को न्याय, मीमांस और मनस्तत्व शास्त्र मे पढते है!
यदिदं किंच जगतसर्वं प्राणयेजतिनिसृतः           ऋगवेद
प्राण के स्पंदन से इस जगत का व्यक्तीकरण हुआ! वस्तु एक ही है, नाम और रूप के कारण जड जगत अथवा ब्रह्मांड हुआ! परमात्म चैतन्य के कारण यह जगत मन मे बदलता है! अव्यक्त का अर्थ बीजशक्ति याने जो व्यक्त नही हुआ है, इस का पहला उदाहरण अंकुर है जिसको महत कहते है, बाद मे यही अंकुर महावृक्ष बन जाता है और संसार भी इसी तरह बनता है!
मरण---जीव
स्थूल शरीर के पतन को मरण कहते है! जीव और प्राणशक्ति इस स्थूलशरीर के पतनानंतर इस शरीर से बाहर निकलते है ततपश्चात ये दोनो वायुमंडल मे सफर करते है! जीव और प्राणशक्ति दोनो को मिलाकर जीव कहते है जैसे सूर्य और सूर्य किरणों को मिला के सूर्य कहते है! ये जीव दूसरे इतर जीवों का साथ टकराता है और अपने अपने स्वभाव के अनुसार मित्र जीवों के साथ विविध मंडलों मे यानी उत्तम, मध्यम, अधम और अधमाधम मंडलों मे घूमता है! स्थूलशरीर रहित जीवो को प्रेत कहते है! इन प्रेतो को सूक्ष्म और कारण शरीर होते है और इस प्रपंच को प्रेतप्रपंच कहते है!
जिस प्रदेश मे मनुष्य अपना स्थूल शरीर छोडता है उसकी  प्रेत आत्मा उसी प्रदेश के आस पास मे दूसरे प्रेतप्रपंच की अनुभूतियो का आस्वादन करती है! मनुष्य मरने के बाद उस की दृष्टि सूर्य मे, प्राणशक्ति वायु मे, वाक अग्नि मे, रक्त और वीर्य (आदमी और स्त्री) जल मे और भौतिक शरीर पृथ्वि मे लय होता है! प्राणशक्ति का पांच वायुओ मे (प्राण, अपान, व्यान, समान और उदान) विभाजन होता है, ये पांच वायु दस मे और ये दस वायु पचास वायुओ मे विभजित होती है! ये सभी पचास वायु अपना-अपना धर्म निभाती है! प्राण स्फतिकीकरण के लिये, समान स्पांजीकरण के लिये, अपान विसर्जन के लिये, उदान जीवानुपाक के लिये और व्यान प्रसारण के लिये अपने धर्म को निभाती है! उदान वायु कंठ मे रह के सूक्ष्म और कारण शरीर को बाहर भेजती है!
मरण क्या है? शरीर की थकान होने पर मनुष्य सोता है! निंद्रा शरीर को नवीन उर्जा प्रदान करती है! थके हुए शरीर मे शक्ति लाने के लिये निद्रा एक तरह का अल्प विश्रांति है!   
निद्रा मे प्राणशाक्ति, मन(सूक्ष्मशरीर) और कारणशरीर दोनों जीवित है लेकीन स्थूलशरीर मरे हुए के समान है! ऐसे ही मृत्यु भी एक दीर्घ निद्रा है, फिर पुनः जन्म लेने तक सूक्ष्म और कारण शरीर दोनों उस संबंधित जीव के कर्मफल के अनुसार वायुमंडल मे रहते है! जीव के एक शरीर से दूसरे शरीर तक के प्रयाण को मरण कहते है! सूक्ष्म और कारण शरीर दोनों परमात्मा मे लय होने को मुक्ति कहते है! जन्म भी निर्धारित है, इस को प्रवेश कहते है! वैसे ही मरण भी निर्धारित है, इस को निर्गम कहते है! जन्म और मृत्यु परमात्मा मे लय होने तक अनिवार्य है!
मुट्ठी भर मिट्टी लेकर पानी से भरे हुए शीशे के पात्र मे डालो, हम पाएंगे की अति सूक्ष्म पदार्थ पात्र के उपर तैर रहे है, कुछ पदार्थ पात्र के मध्यम भाग मे और कुछ पदार्थ पात्र के नीचे के भाग मे अपने-अपने परिणाम और भार के अनुसार तैरते हुए दिखाई देंगे! इसी तरह जीव अपने-अपने कर्मफलों के अनुसार वायुमंडल मे विविध स्थातियों मे रहते है, ये अपना कक्ष छोड के दूसरे कक्ष मे नही जा सकते! उत्तम स्थायी जीव चाहे तो नीच स्थायी जीवों के कक्ष मे घूम सकते है मगर नीच स्थायी जीव अपने से उपर वाले स्थायी जीवों के कक्ष मे नही घूम सकते! जैसे एक उच्च अधिकारी उससे निम्न अधिकारी के कमरे मे जब मर्जी जा सकता है मगर एक निम्न अधिकारी उससे उच्च अधिकारी के कमरे मे नही जा सकता! जीव का पुनर्जन्म उसके कर्मफल के अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षि, पौधा, क्रमि और कीटकादि योनियों मे होता है! पुनर्जन्म के लिये जीव को 2 से 5000 वर्ष तक लग सकते है!
अगर हमे अच्छी तरह सुनाई देता है, जिव्हा का स्वाद(रुचि) अच्छा है, पाचन क्रिया अच्छी है, निंद अच्छी आती है तब हमारे तीनों शरीर साधारण भाव मे खास करके स्थूलशरीर अच्छा काम कर रहा है ऐसा बोल सकते है!
स्वप्न अथवा कल्पनाए दिखाई दे रही है का अर्थ दोनों  शरीर यानि सूक्ष्मशरीर और कारणशरीर साधारण भाव मे  खास करके सूक्ष्मशरीर अच्छा काम कर रहा है ऐसा बोल सकते है! गेहरी नींद और ध्यान मे गेहराई का अर्थ है कि कारण शरीर असाधारण भाव( बहुत अच्छे भाव से) से काम कर रहा है ऐसा बोल सकते है! जो मनुष्य केवल स्थूलशरीर पर ही ध्यान देता है का अर्थ है वह भौतिक मनुष्य है! स्थूल शरीर के साथ सूक्ष्म शरीर का भी उपयोग करने से यानी सोचने इत्यादि करने से वह शक्तिमान मनुष्य है! कारण शरीर का भी उपयोग करने से यानी ध्यान, तप इत्यादि करने से वह प्राज्ञावान मनुष्य है!
इच्छा शक्ति का उपयोग करने का अर्थ सृष्टि की योजना बनाना, ज्ञानशक्ति का उपयोग करने का अर्थ सृष्टि क्रम  निर्धारित करना  और क्रिया शक्ति का उपयोग करने का अर्थ सृष्टि क्रम का आकार निर्धारित करना होता है!
सृष्टि का अर्थ ब्रह्म स्वयं अपने रूप को नही बदलते हुए अपने आप को सुवर्ण आभूषणों जैसे विविध रूप के आकारों मे दिखाना है, जैसे विविध रुप के आभूषण बनाने के बाद भी सुवर्ण नही बदलता है!  
असली वस्तु छिपाने को आवरणदोष कहते है! दीपक की ज्योती के धुँए की वजह से कांच की शीशी काली पड जाती है, इसी धुँए के आवरण के कारण शीशी के अंदर की ज्योती बाहर से दिखाई नही देती है, असली वस्तु के दूसरे रूप मे दिखाई देने को विक्षेपण दोष कहते है! जैसे अंधेरे मे रस्सी दूर से सर्प जैसी दिखाई देती है यहा अंधेरा आवरणदोष को प्रमाणित करता और रस्सी का सर्प जैसा दिखना विक्षेपण दोष को प्रमाणित करता है!
परमदयालु परमात्मा---
मूकंकरोति वाचालं पंगुं लंघयती गिरिं
यत्कृपा तमहं वंदे परमानंद माधवं!
परमात्मा की कृपा होने से गूंगा मनुष्य बोलने लगता है, लंगडा मनुष्य चलने लगता है! हे परमात्मा तुझको प्रणाम!
अवतार---
हिंदू पौराणिक कथा समूह के अनुसार भगवान श्रीमहाविष्णु के आठ अवतार है!
1) मत्स्यसंदेह सागर को लाघकर ज्ञानग्रहण करो!
2) कूर्म---मोहत्याग करके संसार मे रहो!
3) वराह---श्रद्धा और भक्ति के दो दांतों के साथ अपना धर्म निभाओ!
4) नारसिंह---- अहंकार का त्याग करो!  
5) वामन--- परमात्मा के लिये सब कुछ त्याग करो!
6) परशुराम--- समर्पण करो नही तो कष्ट भरो!
7) श्रीराम---कर्म और अपने ही प्रयत्नों का फल है आज की स्थिति का कारण!
8) श्रीकृष्ण----केवल परमात्मा से ही प्रभावित रहो!
भगवान श्रीमहाविष्णु का अवतार श्री कल्कि इस कलियुग मे शंभल गाँव मे जन्म लेगा ऐसा श्रीमद्भागवत मे लिखा है!
कारणजन्म महापुरुषो के दर्शन करने से सर्वपापों से, स्पर्श से सर्व कर्मों से और संभाषण करने से सर्वकष्टों से मनुष्य विमुक्त हो जाता है!
प्राणशक्ति की ध्वनि को नाद कहते है, शुद्ध सत्व बुद्धि को बिंदु कहते है और इस बिंदु मे प्रतीबिंबीत होने वाले परमतत्व को कला कहते है! नाद, बिंदु और कला के संगम को प्रणव अथवा सगुण साकार स्पर्शनीय ब्रह्म कहते है! परमात्मा नाद, बिंदु और कला के संगम से अतीत है! इस सृष्टि मे समस्त चर-अचर ब्रह्मांड इसी नाद, बिंदु और कला संगम के प्रणव से भरा हुआ है! परमात्म नाद बिंदु कलातीत है! इस प्रणव का रूप ज्योतिर्मय है! 
शब्दब्रह्ममयि, चराचरमयि, ज्योतिर्मयि, वांग्मयि, नित्यानंदमयि, परात्परमयि, मायामयि और श्रीमयि ये सब परमात्मा की अष्टशक्तियाँ है! स्थूलशरीर यानी यह शरीरिक दुर्ग ही दुर्गा है, इस शरीर के अंदर की स्पंदनाशक्ति यानी इस शरीर को चलाने वाली शक्ति ही लक्ष्मी है और इस स्पंदनाशक्ति को ठीक ढंग से रखने वाली प्राज्ञाशक्ती ही सरस्वती है!    
पौराणिक कुछ शब्दों के अर्थ---
श्री विष्णु का चक्र मन का चिह्न है, गदा बुद्धि का, धनुष अहंकार का, ओजस क्रियाशक्ति का, तेजस इच्छाशक्ती का, द्युति ज्ञानशक्ति का, नीला रंग अनंत का, श्री विष्णु का शेषनाग इन्द्रियो का चिन्ह है, श्री कृष्ण का पांचजन्य शंख पंचभुतो का, वैजयंतिमाला पंचभूत तन्मात्राओ का और स्तंभ शरीर का चिंह है!
अस्तिभातिप्रियं रूपं नामचेतश्य पंचकं अद्यात्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततोद्वयं!
अस्ति का अर्थ सत यानि सर्वशक्तिमान, भाति का अर्थ चित यानि सर्वव्यापी और प्रिय का अर्थ आनन्द ये नित्य है! नाम का अर्थ नाम और रूप का अर्थ रूप ये अनित्य है! सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी और सर्वज्ञ परमात्मा नित्य है! नाम और रूप सहित जगत मिथ्या है!       
आहार--- मन
अन्नम पुंसासितं त्रेथः जायते जठराग्निना मलंस्तविष्ठोभगश्यात मध्यमो मांसतांव्रजेत मनो कनिष्टोभगश्यात तस्मात अन्नमयं मनः!
आहार जीर्णकोश मे जाकर जठराग्नि के कारण तीन रूपों मे बदल जाता है 1) कठिन हिस्सा मल और मूत्र मे, 2) द्रव वाला हिस्सा रक्त, हड्डिया, हड्डियों मे मज्जा और नाडिया इत्यादि सप्तधातु और 3) सूक्ष्म हिस्सा मन बनता है!   
पंचीकरण पद्धति देखिये! उस मे आकाश का हिस्सा अंतःकरण, भागआयु का हिस्सा मन, अग्नि का हिस्सा बुद्धि, जल का हिस्सा चित्त और पृथ्वि का हिस्सा अहंकार बन जाता है!
अणुमंता विशासिता निहंता क्रयविक्रहः
संकर्ताच उपहर्ताच खादकश्च घातकाः
मछली, मेंडक, पक्षी, पशु इत्यादि और इन के अंडे और बच्चो का माँस खानेवाला, इन सभी को मारने या काटने को प्रोत्साहित करने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला और इन सभी को काटने के लिये ले जाने वाला ये सभी लोग पापी होते है! एक वृक्ष की शाखाएँ और पत्ते काटने के कुछ दिनों पश्चात उसी वृक्ष की शाखाएँ और पत्ते वापस आ जाते है! परमदयालु है परमात्मा! हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यप, रावण, कुंभकर्ण इत्यादि दानवों का संहार करके अपने भक्तों की रक्षा की थी परमात्मा ने! ऐसा परमदयालु  परमात्मा अपनी बनाई हुई चीजों को काट के मुझे अर्पित करो, अर्पित करके उन के माँस का भक्षण करो ऐसा कहकर कैसे प्रोत्साहित करेगा? परमात्मा पशु-पक्षिओ को प्रसाद के रूप मे नही चाहता है वह तो चाहता है की मनुष्य अपने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, अहंकार इत्यादि को उसे प्रसाद के रूप मे अर्पित करे यानि त्याग चाहता है परमात्मा! साधक को अपने अंदर के इन नकारात्मक पशुओ को मारना चाहिए!
गोमांसभक्षण ---- प्राणायाम्
गोमाँसभोजयेन्नित्यं पिबेत अमरवारुणीं
तमहंकुलीनं अन्ये इतरे कुलघातुकाः गोशब्देनादिताजिह्वात
तप्रसोहिताळूनि गोमांसभक्षणतंतु महापातकनाशनं!
                          हठयोगप्रदीपिक 3.47---48
गोमांसभक्षण  जो हर दिन करता है और सोमरस हर दिन पीता है वे लोग उच्चकोटि के है बाकी सब अधमाधम लोग है! यहा यह समझने लायक है कि गो शब्द का अर्थ जीभ होता है यानि इस जीभ को मोडकर तालुए मे लगाने को गोमांसभक्षण  कहते है! इसी को खेचरी मुद्रा कहते  है! इस खेचरी मुद्रा मे ध्यान करते समय मुँह मे मिठापन मेहसूस होता है इसी को सोमरस कहते है!  
प्राणायाम द्विषट्केन प्रत्याहारश्च प्रकीर्तितः
प्रत्याहार द्विषट्केन जयते धारणा सुभः
धारणा द्वादशा प्रोक्ता ध्यानं ध्यानविशारदः
ध्यानद्वादशकेनैव समाधं अभिदीयते!
12 अच्छे प्राणायामों से प्रत्याहार लाभ प्राप्त होगा,
144 अच्छे प्राणायामों से धारण यानि एकाग्रता की प्राप्ति होगी,
20,736 अच्छे प्राणायामों से समाधि की प्राप्त होगी!
संस्कृत---
जो सुनाई दिया उस को वेद कहते है! ध्यान के समय वेद सुनाई देता है! वह कुछ और नही ओंकार ही है! ध्यान के समय महा ऋषियों को वेद सुनाई दिया! ध्यान के समय मे जो वेद सुनाई दिए वह वेद व्याकरणबद्ध नही है! इन वेदों को देवभाषा कहते है! इस देवभाषा को आधारित करके महा ऋषियों ने अक्षरों, उनके उच्चारण ध्वनियों इत्यादि के साथ भाषा बनाई! इस देवभाषा को संस्कृत भाषा कहते है! वेद संस्कृत नही है मगर संस्कृत मे वेद है! वेद कभी नही बदलते है!
देवी के नौ अवतार--- 
1)स्कंदमाता, 2) कुसुमंदा, 3) शैलपुत्री, 4) कालरात्रि, 5)ब्रह्मचारिणी, 6)महागौरी, 7) कात्यायनि, 8) चंद्रघंटा और 9)सिद्धिधात्रि !                        
सप्तज्ञानदीपिकाए---
निम्नलिखित चीजें साधक के लिये अत्यंत आवश्यक है!
1)सुभेच्छा---सेवाभाव, 2)अंवेषणअच्छे कार्य के लिए कार्यांवित ज्ञान, 3)तनुमानसि---मन को स्थिर करना, 4)सत्यापत्ति---ज्योति दर्शन  यानि तीसरी आँख खुल जाना, 5)आत्मशक्ति---भौतिक चेतन सूक्ष्मचेतन से लय होना, 6)पदार्थ भावना---साधक की चेतना चारों तरफ फैल जाना, और 7) तुरीय----साधक स्वयंप्रकाश होना!
प्रस्थानत्रय---
1) ईश, केन, कठा, प्रश्न, मुंड, मांडूक्य, त्तित्तिरि, ऐतरेयंच चांदोग्यं बृहदारण्यकं तथा!
ईश, केन, कठा, प्रश्न, मुंड, मांडूक्य, तैत्तरेय, ऐतरेय चांदोग्य और बृहदारण्यक ये दशौपनिषद है!
2) श्रीव्यास लिखित ब्रह्मसूत्र और
3) श्रीमद्भवद्गीता, इन सभी को प्रस्थानत्रय कहते है!
ध्यान---
मनुष्य जाती मे स्त्री अथवा पुरुष के रुप मे जन्म लेना हमारे सतकर्मो का फल है! केवल मनुष्य ही साधना करके मुक्ती पा सकता है! क्रियायोग प्रतयेक दिन करना चाहिये! परमहंस श्री श्री योगानंद स्वामि जैसे सतगुरु को पाना मनुष्य का अदृष्ट(अहोभाग्य) है!
करम करो फल के विषय मे सोचन बंद करो, इसी को निष्काम कर्म यानी कर्मयोग कहते है! 
आत्मानंरथिनंविद्धि शरीरंरथमेवच
बुद्धिंसारथिंविद्धि मनःप्रग्रहमेवच!
आत्मा मालिक है, शरीर रथ है, बुद्धि रथचालक यानि सारथि है, ध्यान अस्त्र है, मुक्ती लक्ष्य है, मन को स्थिर करने के लिए श्वास पर ध्यान रखो!
इंद्रियानि हयान्याहुः विषयं तेषुगोचरं
आत्मेंद्रियं मनोयुक्तं भोक्तात्याहुःमनीषनः!
पंच कर्मेंद्रियाँ और पंच ज्ञानेंद्रियाँ ये दस घोडे है, शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन घोडो की कक्षाए है! शरीर, इंद्रिया और मन को मिलाकर संयुक्त जीव ही भोक्ता है!
सुषुम्ना सूक्ष्म नाडी ज्योती के बाहर का आवरण(कवर) है!  यह नाडी सात चक्रों द्वारा सूक्ष्मशरीर के सभी कार्यो को नियंत्रीत करती है! यह शुषुम्ना मूलाधर से लेकर सहस्रार तक उपस्थित है! शुषुम्ना के दोनो तरफ उपस्थित इडा और पिंगला सूक्ष्म नाडिया सिंपथटिक नेर्वस सिस्टम को नियंत्रित करती है! सुषुम्ना के अंदर वज्र, वज्र के अंदर चित्र, चित्र के अंदर ब्रह्म नाडी उपस्थित है! सुषुम्ना, इडा और पिंगला इन नाडीयो को शक्ति प्रदान करती है वज्र और चित्र नाडी ! वज्र नाडी स्वाधिस्ठान से लेकर सहस्रार तक है और क्रियाशक्ति प्रदाता है यानि शिश्न, मलद्वार, पाणि, पाद और जीभ इन सभी कर्मॆंद्रियो को ताकत देती है! चित्र नाडी मणिपुर से लेकर सहस्रार तक है और ज्ञानशक्ति प्रदाता है यानि आँखें, कान, नाक, मुहँ और त्वचा इन ज्ञानेद्रियो को शक्ति देती है! चेतना संबंधित कर्मो को नियंत्रित करती है चित्र नाडी! इसी कारण मणिपुरचक्र संबंधित अर्जुन इस चक्र मे आत्मनिग्रहशक्ती प्रदान करते है! समस्त गतिविधियो को सहस्रारचक्र ही नियंत्रीत करता है यह अपनी ज्योतिकिरणो को भेजकर तत चक्र संबंधित अंगो को काम करने लायक कर देता है! इसी प्रकार मनुष्य की स्थूल खोपडी या मस्तिष्क के अंदर के भाग भी सुचारु रुपा से कार्य करने लायक करने के लिये तत संबंधित अंगो की नसो और नसकेंद्रो के साथ जुडा होता है! ब्रह्मनाडी यानि ब्रह्मचेतना मूलाधार से लेकर सहस्रार तक व्याप्त है, परमात्मा इस प्रकार स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीरो मे व्याप्त है! इस व्याप्त हुई ब्रह्मचेतना को ही गॉड पार्टिकल कहते है और इस पर आधुनिक वैज्ञानिकशास्त्रवेता प्रयोग करते है!
मनुष्य के कर्मफलों को संग्रह करने का कार्य करती है चित्र नाडी! इसी को चित्रगुप्त चिट्ठा कहते है जो समय-समय पर कर्मफल प्रदान करते है! वज्रनाडी मनुष्य को इन कर्मफलो को ठीक ढंग से अनुभव कराने मे सहायता करती है इसिलीए मनुष्य के जन्म समय मे पहले वज्र और चित्र नाडी आती है और इनके साथ ही ब्रह्मचैतन्य आ बैठता है! ब्रह्मचैतन्य प्रधानमंत्री है, चित्र नाडी सेक्रटरी है और वज्र नाडी पुलीस है!
परिणित योगी के लिये ब्रह्मचैतन्य सिवाय बाकी सब तृणप्राय है!  जब तक योगी ब्रह्म प्राप्ति नही कर लेता है तब तक माया उसके पीछे जरूर रहती है! परिणित योगी के लिये पुरुष अपने लडके के समान है और स्त्री अपनी माता के समान है ऐसी भावना नही होने से मेनका अप्सरा के कारण जैसे श्री विश्वामित्र का ध्यानभंग हुआ था ऐसा ही दुसरे योगीओ के साथ भी हो सकता है! श्रीरामकृष्ण परमहंस कामिनी और कांचन को दूर रखते थे! अपना भार्या(पत्नी) श्री शारदादेवी को माता समझकर पूजा भी करते थे! मनुष्य मे इतनी निग्रह और निष्ठा होने पर ही वह महायोगी बनता है!
महायोगी पास हो या दूर हो, शरीर मे हो या नही हो, उनका दिव्य प्रेम बाहर उभर आता है! मनुष्य को ऐसे महायोगीओ के नाम स्मरण मात्र से कम से कम उस क्षण के लिए अनिर्वचनीय आनंद मिलता है और पाप कर्म करने का उस क्षण साहस नही होता है! युगों बीत गए पर आज भी वशिष्ट, विश्वामित्र, श्री श्री परमहंस योगानंद, श्री रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद इत्यादि महायोगीओ के नामो की यश एवम किर्ती विद्यमान है, इसका कारण उन महात्माओ की योगनिष्ठा का गरिष्ठ(उच्च) होना ही है!
आखरी बात---
महापुरुष लोग हमारी फालतु बातो का कोई जवाब नही देंगे! ऐसे ही दूसरों के परिहासों से दूर रहो, निश्चल रहो और ध्यान विधि करते रहो, मुक्ती ही साधक का परम लक्ष्य है!
परमात्मा नित्य आल्हादी है! परमात्मा कोई बलि नही मांगता, वह एक तरफ बलि मांगकर दानव नही बन सकता और दुसरी तरफ परमदयालु हो के भगवान नही बन सकता जैसे अच्छी अग्नि और खराब अग्नि दो प्रकार की अग्नि नही होती, अग्नि एक ही होती है!                    ऐसे ही परमात्मा भी एक ही है, सर्वदा परमदयालु....!                       हमेशा दिव्य अमृत पीते हुवे, ज्ञान की पराकाष्ठ रूपी, परिपूर्ण आनंद देनेवाला, दोषरहित, परिपूर्ण, नित्य, सुख और दुःख के अतीत, तर्क के अतीत, गुण रहित, सब के अतीत मेरे परमपूज्य परमहंस सद्गुरु श्री श्री योगानंदजी के श्री चरणों मे मेरा नमस्कार !!!!!!!

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