श्रीमद्भगवद्गीता part 16 to 18 हिंदी
ॐ श्रीकृष्ण
परब्रह्मणेनमः
श्रीभगवद्गीत
अथ षोडशोऽध्यायः
दैवासुरसम्पद्विभागयोगः
श्री
भगवान उवाचा—
अभयं सत्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोग व्यवस्थितिः
दानं
दमश्चयज्ञश्च स्वाध्यायं तप आर्जवं 1
अहिंसासत्यमक्रोधस्त्यागाश्शांतिरपैशुनं
दयाभूतेष्वलोलत्वं मार्दवं ह्रीरचापलं 2
तेजः क्षमा ध्रुतिश्शौचमद्रोहो नातिमानिता
भवंतिसंपदं दैवी मभिजातस्य भारत 3
श्री
भगवान ने कहा—
हे
अर्जुन, भय नहीं होना, अंतःकरणशुद्धि, ज्ञानयोग में रहना, दान,
बाह्येंद्रियनिग्रह, ज्ञानयज्ञ, वेदशास्त्रों का अध्ययन, तपस, कपट नहीं होना, कोई
भी प्राणी को बाधा नहीं देना, प्राणीयों में दया(यज्ञादियों में मूक जीवों को
बलिदेना अमानुष और अन्याय है), परमात्मा का आश्रय लेना, सत्य, क्रोध नहीं होना,
त्याग, किसी का बारे में बुराई नहीं बोलना, विशयासक्तिराहित होना, मृदुत्व,
धर्माविरुद्धाकार्यो में लज्जा, चंचल स्वभाव नहीं होना, ब्रह्मतेजस होना, सहिष्णुता, कष्टों में
सहनशीलता, धैर्य होना, बाह्याब्यांतरशुद्धि, द्रोहचिंतन नहीं होना, स्वातिशय नहीं
होना और ‘मै पूजनीय हु’ करके अभिमान और गर्व नहीं होना—इत्यादि सुगुणों दैवसंपत्ति में जनम
लिया लोगों को होते है!
साधना पुरोभिवृद्धि क्रम का अनुसार इन् दैवसंपत्ति सुगुणों
साधक को होता है! इसीलिए केवल कर्म आधारित नहीं होके परमात्मा देन इच्छाशक्ती से
साधना करके इन् सुगुणों साध्य करना चाहिए!
अंग्रेजी वैद्य, आयुर्वेद, प्रकृति वैद्य और होमियो वैद्य
इत्यादि सब परमात्मा का देन है! इसीलिए कोई भी वैद्य किसी से
श्रेष्ट अथवा कमी कहना अनुचित है!
अंग्रेजी वैद्य भौतिक शरीर यानी मूलाधार, स्वाधिष्ठान और
मणिपुर चक्रों संबंधित है! होमियो वैद्य भौतिक और सूक्ष्म शरीर यानी मूलाधार,
स्वाधिष्ठान मणिपुर और अनाहत चक्रों संबंधित है! आयुर्वेद वैद्य में पित्त वायु और
कफा तीनों उचित निष्पत्तियों में रहता है कि नही है देखते है! वे तीनों उचित
अनुपात में नहीं होने से रोग प्रवेश करता है! यह आयुर्वेद वैद्य मूलाधार,
स्वाधिष्ठान मणिपुर,अनाहत और विशुद्ध चक्रों संबंधित है! प्रकृति वैद्य में उपवास
करावदेता है! अदरक, निंबू रसों का अनुपान, गीली मिट्टी शरीर का उप्पर लगवाके कुछ
देर पश्चात स्नान इत्यादि करवाता है! कुछ समय ध्यान भी करवाता है! प्रकृति वैद्य
मूलाधार, स्वाधिष्ठान मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा चक्रों संबंधित है!
योगासनों और पतांजलि अष्टांगयोग में प्राणशक्ति नियंत्रण,
मूलाधार, स्वाधिष्ठान मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार चक्रों संबंधित
है! स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीरों तीनों को भागस्वाम्य होता है! इसीलिये असली
चिकित्सा (Holistic approach)ध्यान ही है!
दंभोदर्पोभिमानश्च क्रोधः पौरुष्यमेवच
अज्ञानंचाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीं 4
हे अर्जुन, दंबं, गर्व, अभिमान, दुरहंकार, क्रोध, वाक्
इत्यादियों में काठिन्यता और अविवेकता इत्यादि गुणों असुरसंपत्तियों में जनम लिया लोगों को होता है!
दैवीसंपद्विमोक्षाय निबंधायासुरीमता
माशुचः सम्पदं दैवीमभिजातोसि पांडव . 5
हे अर्जुन, दैवीसंपद परिपूर्ण संसारबंध निवृत्ति को, असुरी
संपद संसारबंध प्रवृत्ति को करादेता है! तुम दैवी संपद में जनम लिया है! इसीलिये
शोक होने अवसर नहीं है!
क्रियायोग साधन कर के संसारर्बंधन में खैद करनेवाली आसुरीसंपद
को निवृत्ति करना चाहिए! .
द्वौभूतसर्गौ लोकेस्मिन् देव आसुर एवच
दैवो विस्तरशः प्रोक्ता आसुरं पार्थ में शृणु 6
हे अर्जुन, इस् प्रपंच में दैवसंबंधीगुण और असुरसंबंधीगुण करके
दो प्रकार की प्राणियों का सृष्टि है! इस् में दैवसंबंधीगुण का बारे में विवरण
दिया हु, अब असुरसंबंधीगुण का बारे में विवरण देरहा हु, सुनो!
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जनाना विदूरासुराः
नाशौचं नापिचाचारो नसत्यं तेषु विद्यते 7
असुरास्वभावी जन धर्माप्रवृत्ति अथवा अधर्मनिवृत्ति का बारे
में जानना नहीं चाहते है! उन् में शुचित्व अथवा सत्कार्मानुष्ठान आचार और सत्य भी
नहीं होते है!
असत्यमाप्रतिष्टं ते जगादाहुरनीश्वरं
अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकं 8
वे जगत आधाररहित और असत्य इति कहते है! भगवान नाम का कोई छीज
नहीं है! कामं और स्त्री पुरुष परस्पर संभोग ही जगत हेतु है! इस् सृष्टि का और
कारण नहीं करके कहते है!
एतांदृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोल्पबुद्धयः
प्रभवंत्युग्रकर्माणः क्षयायजगातोहिताः 9
वैसा नास्तिक दृष्टिकोण से मन दुष्ट हुआ लोग, अल्पबुद्धि लोग,
क्रूर कार्यों करनेवाले लोग, आत्म का बारेमें नहीं शोचके जगतशतृ बनकर विनाश के लिए
ही जनम लेरहा है!
कामाश्रित्य दुष्पूरं दंभमानमदान्विताः
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः 10
वे अपरिमित कामं को आश्रय करके डंबं और मदं का साथ होंकर
अविवेक से युक्ता आयुक्तों को भूलाजाते है! मूर्खतापूर्ण जिद्दीपन से अपवित्र
व्रतों करते है! नीचवृत्तियों में प्रवर्तित होते है!
चिंतामपरिमेयांच प्रलयांतमुपाश्रिताः
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः 11
मरण पर्यंत वे लोग अनंत विचारों में डूब जाते है! विषयाभोगानुतत्पर
होंकर वह ही सत्य और सुख करके भावना करते है!
आशापाश शतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः
ईहंते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसंचयान् 12
वे आशापाशपरंपरायों से नित्यबंधन में फसते है! कामक्रोध परायण
होंकर प्रवर्तित करते है! विषयभोगों को अनुभव करने के लिए अकरम मार्गो से धनार्जन
करते है!
इदमद्यमयालब्धमिमं प्राप्स्येमनोरथं
इदमस्तीदमपि में भविष्यति पुनर्धनं 13
असौमया हतश्शतृर्हनिष्ये चापरानपि
ईश्वरोहमहं भोगी सिद्धोहं बलवान् सुखी 14
आढ्योभिजनवानस्मि कोन्योस्तिसदृशोमया
यक्ष्येदास्यामिमोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः 15
अनेकचित्तविभ्रांता मोहजालसमावृताः
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतंति नरके शुचौ 16
इस् इच्छा को मै अब प्राप्त किया, और इच्छाओं को प्राप्त
करसकता हु, इस् धन को मै अब प्राप्त किया, और धन प्राप्त करसकता हु, इस् शतृ को मै
अब वध किया, और शतृओं को वध करसकता हु, मै प्रभु हु, समस्त भोगों को अनुभवकरने
वाला हु, संकल्प किया कार्यों को साध्य करने शक्त हु, बलवान हु, सुखवान हु, धनवान
हु, श्रेष्ठ वंशा में जनम लिया हु, मै असमान हु, यज्ञादि कार्यों करनेवाला हु,
दान्देनेवाला हु, आनंद अनुभव करेगा—इस् प्रकार अज्ञान का हेतु मोह और भ्रम
भ्रांतित लोग, अनेक प्रकार की चित्तचांचल्यसहित लोग, धारापुत्रक्षेत्रादियों में
मोहाभिमान नाम का जाल से अच्छी तरह ढका हुआ लोग, कामों अनुभव करने में अधिक आसक्ति
होते है! इन् असुरसंपत्ति लोगों अपवित्र नरक प्राप्त करते है!
आत्मसंभाविताःस्तब्धा धनमानमदान्विताः
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दंभेनाविधिपूर्वकं 17
अहंकारं बलंदर्पं कामंक्रोधं च संश्रिताः
मामात्म परदेहेषु प्रद्विषंतोभ्यसूयकाः 18
अपने आप को श्रष्ट समझनेवाले, विनय और मर्यादा नहीं होनेवाले,
धनगर्व से अभिमान और घमण्डी, अहंकारी, दूसरों को कष्ट देने बल, गर्व, कामं और
क्रोधों को महत्वपूर्णता से आश्रय लिया लोग, अपना देहा में और अन्येतर देहो में
साक्षीभूत रहा मुझ को अधिक द्वेष करने लोग और ईर्ष्यालु लोग असुरीसंपत्ति लोग है!
इन् लोग डंब का हेतु शास्त्रविरुद्ध नाममात्र यज्ञ यागों करते है!
तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नाराधामान्
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु 19
परंतु वैसा समस्त प्राणियों में आत्मरूपी में हु! वैसा स्थित
मुझ को द्वेष करने लोग, क्रूर लोग और पापकर्म करने लोग, इन् सब नराथमों को
जननमरणरूपी समसारामार्गो में और असुरसंबंधित नीचजन्मों में सर्वदा डालदेता
हु!
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि
मामप्राप्यैव कौंतेय ततोयान्त्यथमांगतिं 20
हे अर्जुन, असुरसंबंधी नीचजन्म पायाहुआ मूढों हर एक जन्म में
मुझे प्राप्त नहीं करके और नीचतरजन्म प्राप्त करते है!
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः
कामःक्रोधस्तथालोभस्तस्मादेतत्रयं त्यजेत् 21
कामं, क्रोध और लोभ इन् तीनों नरकद्वारें है! इन् तीनों मनुष्य
का नाश् करता है! इसीलिए इन् को त्यागना चाहिए!
एतैर्विमुक्तः कौंतेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो यातिपरांगतिं 22
हे अर्जुन, काम, क्रोध और लोभ इन् तीनों नरकद्वारो है! इन् तीन
द्वारों से मुक्त हुआ साधक अपने को हित करके सर्वोत्कृष्ट मोक्षपदावी प्राप्त करता
है!
ध्यान में अंतर्मुख होने से ॐकार सुनाईंदेता है! उस् प्रणव
शब्द में ममैक होने से कई भाषाओं में सत्यों सुनाईदेता है! इन्ही शब्दों ऋषियों को
सुनाईदिया! इन्ही शास्त्रों को शृतियों कहते है! ध्यान साधना सूक्ष्मदृष्टि
में इन् शृतियों प्रकाशवान लिपियों में
दिखाईदेता है! बहुत बार मुझे यह अनुभव हुआ! इन्ही को आकाश लिपियों कहते है!
इडा पिंगळा और सुषुम्ना सूक्ष्मनाडियों योगे अपना साधना में
देखसकता है! आकाश वायु अग्नि वरुण और पृथ्वी इति पंचभूतों जगत निर्माण को मूलकारण
है! मेरुदंड स्थित मूलाधारचक्र में पृथ्वीतत्व स्पंदनो, स्वाधिष्ठानचक्र में वरुण
तत्व स्पंदनो, मणिपुरचक्र में अग्नितत्व स्पंदनो, आनाहतचक्र में वायुतत्व स्पंदनो
और विशुद्धचक्र में आकाश तत्व स्पंदनो को विविध प्रकाश्ररूपों में क्रियायोगी अपना
साधना में देखसकता है! कूटस्थस्थित
आज्ञाचक्र में सूक्ष्म तीसरा आँख देखसकता है!
यश्शास्त्र विधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः
नससिद्धिमवाप्नोति नसुखं नापरां गतिं 23
जो मनुष्य शास्त्रोक्त विधि को छोडकर अपना मर्जी से प्रवर्तित
करेगा उस् को पुरुषार्थसिद्धि अथवा सुखप्राप्ति अथवा उत्तमगति यानी मोक्षप्राप्ति
नहीं लभ्य होगा!
पातंजलि
अष्टांगयोग—
1)
यम—अहिंसा,
सत्यं, आस्तेयं(चोरी नहीं करना), ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह(दूसरों से कुछ भी आशा नहीं
करना),
2) नियम— सौचं(शारीरिक और मानसिक शुद्धता),
संतोषं (तृप्ति),
स्वाध्यायं(शास्त्रपठनं), ईश्वरप्रणिधानं(परमात्मा को अंकित होना)
3)
आसान—
स्थिरत्व
4)
प्राणायाम—
श्वास नियंत्रण
5)
प्रत्याहार— इंद्रियविषयों को उपसंहरण करना
6)
धारण—
वस्तु एकाग्रता
7)
ध्यान—
केवल परमात्मा में एकाग्रता
8)
समाधि—
समा अधि
यानी परमात्मा में ईक्य होना
धारण,
ध्यान और समाधि तीनों मिलाके सम्यक समाधि कहते है!
ध्यान
बीज से आरंभ होंकर निर्बीज होना है!
तस्माच्चास्त्रं प्रमाणंते कार्याकार्यव्यवस्थितौ
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्मकर्तुमिहार्हसि 24
इसीलिए तुम जो करना और जो नहीं करना निर्णय करने के लिए शास्त्र
प्रमाण है! शास्त्र में जो कहागया जानके उस् को अनुसरण करके तुम इस् प्रपंच में
कर्म करो!
क्रियायोगसाधाना से चक्रों में ॐकारोच्चारण और बीजाक्षर ध्यान
करके चक्रों का अंधकार मिटाने से ही मनुष्याहंकार को मूलकारण काम, क्रोध, लोभ,
मोह, मद और मात्सर्यों को सामूहिक निर्मूल करसकता है!
ॐ तत् सत् इति श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु
ब्रह्मविद्यायां योग शास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसम्पद्विभागयोगोनाम षोडशोऽध्यायः
ॐ श्रीकृष्ण
परब्रह्मणेनमः
श्रीभगवद्गीत
अथ सप्तदशोऽध्यायः
श्रद्धात्रयविभागयोगः
श्री
अर्जुन उवाच—
ये
शास्त्र विधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः
तेषांष्ठातुका
कृष्ण सत्व माहोरजस्तामः
1
श्री
अर्जुन ने कहा—
हे
कृष्णा, जो शास्त्रोक्तमार्ग को छोड़ के श्रद्धा से पूजादियों को करता है, उन् का
स्थिति सात्विक, राजस अथवा तामसिक?
श्री
भगवान् उवाच—
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा
सात्विकीराजसीचैव तामसीचेति ताम शृणु 2
श्री
भगवान् ने कहा—
हे अर्जुन, मनुष्यों का पूर्वजन्म संस्कारों का स्वभावों से
श्रद्धा होता है! वह श्रद्धा सात्विक, राजस और तामस इति तीन प्रकारों का होता
है! वह सुनो!
सात्वानुरूपा
सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत
श्रद्धामयोयं
पुरुषौयोयच्छ्रद्धस्स एव सः 3
हे अर्जुन, समस्त मनुष्यों को अपना अपना पूर्वजन्म संस्कारों
का वजह से हुआ अन्तःकरण का अनुसार श्रद्धा, गुणों और संस्कारों होते है!
यजंते
सात्विका देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः
प्रेतान्
भूतगणांश्चान्ये यजंते तामसा जनाः 4
सत्वगुणोंवाले देवतों को, रजोगुणोंवाले राक्षसों को और तामस
गुणों वाले भूतप्रेतों को पूजा करते है!
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यंते
येतपोजनाः
दंभाहंकार संयुक्ताः कामरागबलान्विताः 5
कर्षयातश्शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः
मांचैवांतश्शरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् 6
दंभ, अहंकार, इच्छाओं, काम, राग और आसक्तियुत पशुबलों लोग
शास्त्रविरुद्ध और मन का इच्छा का मुताबिक़ कठोर तपस करते है! शरीरस्थित पंचभूतो और
पंचेन्द्रिओं समुदाय और अंतर्यामी मुझ को हिंसा करते है! ए सब अज्ञानी और असुर
स्वभावी लोग करके जानो! .
आत्म शुद्ध और अति पवित्र है! परंतु मनुष्य को आत्मसाक्षात्कार
मिलना चाहिए! तब तक अपना जीवनकाल में पाया हुआ अनुभव ही उस् का साथ होता है! शरीर
होते हुए मोक्षार्हत साध्य किया योगों ही परमात्मा के साथ अनुसंथान प्राप्त करते
है! दूसरों को मार्गदर्शन देसकते है!
पृथ्वी जैसा सूक्ष्म प्रपंच में भी पशु जैसा लोग, दुष्ट लोग,
साधारण लोग, अच्छे लोग, योगियों और महायोगियों इत्यादि अपना अपना परिथियों में
रहते है! मोटारसायकल अथवा मोटारकार ताला नहीं लगाने से चोर लोग तस्करण करके अपना
बनाता है! इसी प्रकार बहुत दुष्टात्माओं अपना वांछित छीजों को पूरा करने के लिए
उन् को एक आलंबन चाहिए! मनुष्य अपना मन को शून्य नहीं रखना चाहिए! कुछ न कुछ काम
में निमग्न होना चाहिए! शून्य मन, बलहीन मन और रोगग्रस्थ लोगों को इन दुष्टात्माओं
आवाहन करेगा!
अधिचेतानावस्था में हम महायोगों और ऋषियों ध्यान में मिलते है!
उन् लोगों का आवरण प्रकाश(Aura) से उस् दिव्यात्मा जिस का है ध्यानी को
पता लगता है!
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः
यज्ञस्तपस्तथादानं तेषां भेदमिमं शृणु 7
मनुष्यों का स्वभावों का अनुसार उन् का आहार भी तीन प्रकारों
का होता है! वैसा ही वे लोग आचारण करने यज्ञों, तपसों और दानों भी तीन प्रकारों का
होता है! इन भेदों का बारे में कहता हु, सुनो अर्जुन!
इसीलिए हम् आहार भी अच्छीतरह शोच के लेना चाहिए! हम खाने आहार
का मुताबिक़ हमारा मनःप्रवृत्ति होता है! सात्विकाहार अत्यंत उत्तम है!
आहाराशुद्धि से मनःशुद्धि होता है, मनःशुद्धि से परमेश्वर
प्राप्ति लभ्य होता है!
आयुस्सत्वबलारोग्य सुखप्रीतिविवर्धनाः
रस्याः स्निग्धाः स्थिराह्रुद्या आहाराः सात्विकप्रियाः 8
आयुःवृद्धि,, मनोबल, देहबल और आरोग्यवृद्धि होने पदार्थों,
क्षीर, जग्गेरी, फलरसो, तेल, माखन, घी, इत्यादि स्निग्ध पदार्थों, ओजस को वृद्धि
करके शरीर में अधिक समय होने स्थिरपदार्थों और मृदुलस्वभाव वृद्धि करनेवाली
हृद्यपदार्थों सात्विकों को इष्ट है!
कट्वाम्ललवाणात्युष्ण तीक्ष्णरूक्षविदाहिनः
आहाराराजसस्येष्टा दुःख शोकामयप्रदाः 9
कडवी, खट्टा, नमकीन, मिर्ची, अधिक गरम, अधिक प्यास करने छीजों,
दुःख और मनोव्याकुलता देने छीजों रजोगुण स्वभावी को इष्ट है!
यातयामंगातरसं पूतिपर्युतिषम च यत्
उच्छिष्टमपिचामेथ्यं भोजनं तामसप्रियं 10
ठीकसे उबाला नहीं हुआ, साररहित, दुर्गंधाभूयिष्ट,
बासीपदार्थों, झूठीपदार्थों और भगवान को निवेदन नहीं किया अपवित्र पदार्थों तमोगुण
स्वभावी को इष्ट है!
मनुष्य भोजन करने अन्ना पान इत्यादि पदार्थो जठराग्नि का
माध्यम से तीन प्रकार का परिवर्तन होते है!
1)
स्थूलाभाग
मलामूत्रो में, 2) मध्यभाग मांसादि सप्तधातुओं में
और 3) कनिष्टभाग मनस् में परिवर्तन होता है!
इसीलिए आहार का मुताबिक़ मन होता है!
पंचीकरणरीती से देखने से भी आहार में आकाशसूक्ष्मांश अंतःकरण,
वायुर्वांश मन, अग्नांश बुद्धि, जलांश और प्रुथ्वांश अहंकार में परिवर्तन होता है!
पशु पक्ष्यादियों में शुक्ल शोणित और रक्त होता है! इसीलिये
1)पशु पक्ष्यादियों, उन् का बच्चों को,
अन्डों को वादा करने हिंसा को आमोदाना करनेवाले 2)मांसभक्षण उत्तम करके बोधन करनेवाले, 3)
वध करनेवाले, 4) मांस बेचनेवाले, 5)
मांस खरीदनेवाले 6)
मांस पकानेवाले 7) मांस लानेवाले और 8) मांस खानेवाले—ए सब घातुक है!
मनुष्य का मेरुदंड में 33 माला का दाना है! 32
फुट लम्बाई का आँत(Intestine)
और 32 दाँत होता है! आज का खाया शाखाहारभोजन
पचन होने को मनुष्य को 24घंटे
लगता है! कम से कम 8
बार आहार दांतों से चबाके खाना चाहिए! पशु का मेरुदंड में 11 माला का दाना है! 10 फुट लम्बाई का आँत(Intestine) और
10 दाँत होता है! इस्
का मतलब मनुष्य से सभी छीज यानी माला का दाना, आँत और दाँत तीन गुणा कम है! खाया हुआ आहार पचन होने के
लिए पशु पूरा दिन चबाते रहता है!
मनुष्य ने खाया मांसाहार पचन होने को 72घंटे
लगता है! पशु को काटने समय वह ढर से कांप के गोबर छोडता है! क्रोधित और आक्रोशित
होके मेरे को काटनेवाले को भी इसी स्थिति आना है कर के आक्रोश से मरता है! मनुष्य
का दांतों भी मांसभक्षण के लिए योग्य नहीं है! इसीलिए मांसभक्षण तुरन्त छोडना
चाहिए!
एक वृक्ष को काटने से बाद में तत्संबंधित शाखाएँ, पत्रों
पुष्पों और फलों आता है! दूसर वृक्ष का नहीं आता है! वेदों में परमात्मा परमदयालु
इति कहागया है! आवश्यकता का अनुसार अवतारों लेकर दुष्ट राक्षसों को संहार करके
शिष्टो का संरक्षण किया! वैसा परमदयालु परमात्मा मांसभक्षण को प्रोत्साह करेगा?
यज्ञों में पशु को नहीं बलिदेना चाहिए! काम, क्रोध, लोभा, मोह, मद और मात्सर्यादि
पशुओं को बलिदेना चाहिए!
12 उत्तम प्राणायामों से प्रत्याहार यानी
इंद्रियविषयों से दूर होना, 144
उत्तम प्राणायामों से धारण यानी चित्त एकाग्रता,
20,736 उत्तम प्राणायामों से समाधिस्थिति यानी
परमात्मा का साथ अनुसंथान प्राप्ति होता है!
इसीलिए परमात्मा का साथ अनुसंथान प्राप्ति के लिए मूकजीवो का
बलिदेना अमानुष और अन्यायपूर्ण है!
अफलाकांक्षिभिर्यज्ञो दृष्टोया इज्यते
यष्टव्यमेवेतिमनस्समादाय स सात्विकः 11
‘इस् यज्ञ मै करने योग्य है’ करके मन को समाधान कर के जो
शास्त्रोक्त यज्ञ फलापेक्षरहित करते है उस् यज्ञ सात्विक यज्ञ कहते है!
अभिनंदायातु फलं दंबार्थमपिचैवयत्
इज्यते भरतश्रेष्ठतं यज्ञं विद्धि राजसं 12
भारतावंशाश्रेश्ता अर्जुन, फलवांछनीय और आडंबरी यज्ञ राजस यज्ञ
कहते है!
विधिहीनमसृष्टान्नं मंत्रहीनमदाक्षिणं
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते 13
शास्त्रविधिरहित, अन्नदानरहित, मंत्ररहित, दक्षिणारहित, और
श्रद्धा रहित यज्ञ तामस यज्ञ कहते है!
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवं
ब्रह्मचर्यंमहिंसाच शारीरं तप उच्यते 14
देवताओं, ब्रह्मनिष्टों, सद्गुरुवों, महात्मों,
ब्रह्मज्ञानियों और महात्मों का पूजन, बाह्याभ्यांतराशुद्धि होना, मनोवाक्कायों से
कपटी नहीं होना, ऋजुता होना, ब्रह्मचर्य पालन करना, अहिंसा—ए
सब शरीरका तपस कहते है!
ब्रह्म में चरना यानी रहना ही ब्रह्मचर्य है! अपने आप को जानने
मनुष्य ही स्वामी है!
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्
स्वाध्याभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते 15
उद्वेगरहित, सत्यायुक्त, प्रियायुक्त, प्रयोजनमूलक,
वेदाशास्त्र पठन, परमेश्वर और प्रणवनामजपों सहित तपस वाचिक तपस है!
मनःप्रसादस्सौम्य त्वं मौनमात्मविनिग्रहः
भावसंशुद्धिरित्येतत्तापोमानसमुच्यते 16
व्याकुलतारहित निर्मलता, मनःप्रसंन्नता, शान्तास्वभाव,
भगवत्चिंतना, मनोनिग्रह और अन्तःकरणशुद्धि—ए सब को मानसिक तपस कहते है!
श्रद्धया परयातप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः
अफलाकांक्षिभिर्युक्तैःसात्विकं परिचक्षते 17
फलापेक्षारहित, निश्चालाचित और भगवत्चिंतानापर मनुष्यों से
अधिक श्रद्धा से आचरण करने तीन प्रकार का होते है! उन् को शारीर, वाचिक और मानसिक
तपस कहते है!
सत्कारमानपूजार्थं तपोदंभेनचैवयत्
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमधृवं 18
पराया लोगों से सत्कार, गौरव और पूजन पाने उद्देश्य से शेखीबाज
से करने तपस का फल अस्थिर और अनिश्चय है! इस् को राजासा तपस कहते है!
मूढग्राहेणात्मनोयात्पीडया क्रियते तपः
परस्योत्पादनार्थं तत्तामसमुदाह्रुतं 19
मूर्खतापूर्ण जिद से अपना शरीर को शुष्कोपवासों से दुखी करके,
मन और वाक् से दूसरों को हानी करने उद्देश्य से
कियाजाए तपस तामसिक तपस कहते है!
दातव्यमिति यद्दानं दीयातेनुपकारणे
देशेकाले च पात्रेच तद्दानं सात्विकंस्कृतं 20
‘दान करना हमारा कर्त्तव्य’ इति निश्चय करके पुण्यप्रदेश,
पुण्यकाल, और योग्य को प्रत्युपकारार्थं नहीं करना चाहिए! वैसा निस्वार्थभावसे
करने से उस् को सात्विक दान कहते है!
यत्तुप्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्यवापुनः
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसंस्कृतम् 21
प्रत्युपकारार्थ, फलावान्छित होंकर अथवा मनःक्लेश से दिया दान
राजस दान कहलाता है!
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतं 22
जो दान सद्भावनारहित से, दान लेने व्यक्ति में अगौरव भाव अथवा
तृणीकाराभाव से और देश और काल पालना उल्लंघ करके अनार्हता यानी अपात्रों को
कियाजाते है वह तामस दान कहते है!
ॐतत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधःस्मृतः
ब्राह्मणास्तेनवेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा 23
ॐ तत् सत्—ए तीनों नाम परब्रह्म के लिए निर्देशन
किया गया है! वैसा नामयुक्ता परमात्मा से ही ब्रह्मज्ञानियों, वेदों और यज्ञों
उत्पन्न हुआ है!
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः
प्रवर्तंते विधानोक्तास्सततं ब्रह्मवादिनां 24
इसी कारण वेदमंत्रोच्चारण करने लोग शास्त्रों में कहागया यज्ञ
दान तपोत्यादि कर्मो ॐ कहके ही तत् पश्चात अनुष्टान करते है!
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञः तपः क्रियाः
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियंते मोक्षकांक्षिभिः 25
मोक्षकांक्षी लोग फलापेक्षारहित होकर ‘ये सब परमात्मा का ही
है’ भाव से ‘तत्’ शब्द उच्चारण करके विविध प्रकार का यज्ञ दान तपो कर्मो को करते
है!
सद्भावे साधुभावेच सदित्येतत्प्रयुज्यते
प्रशस्ते कर्मणि तथासच्चब्दः पार्थयुज्यते 26
हे पार्थ, परमात्म सत्य नित्य और श्रेष्ठ है! इस् में ‘सत्’
शब्द का प्रयोग करते है! वैसा ही उत्तम कर्माचरण में भी ‘सत्’ शब्द का प्रयुक्त
होते है!
यज्ञे तपसि दानेच स्थितिः सदितिचोच्यते
कर्मचैव तदर्थीयं सदित्ये वाभिदीयते 27
यज्ञ दाना तपसो में निष्ट, आस्तिकभाव और परमात्मा प्रीती के
लिए करने ब्रह्मोद्देषा कर्मो को भी‘सत्’ कहते है!
अश्रद्धयाहुतंदत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्
असदित्युच्यते पार्थ नच तत्प्रेत्यनो इह 28
हे
अर्जुन, अश्रद्धायुत होम, दान, तपस और दूसरे विपरीत कर्माएं असत कहाजाता है! वे
इहलोक फल अथवा परलोक फल प्राप्त नहीं कराएगा!
शक्तिपात—
शक्तिपात का अर्थ परमात्मचेतनायुक्त समाधि स्थिति को बहुमति
देना ही शक्तिपात है! यह केवल महावतार बाबाजी, श्री श्री लाहिरी महाशय, श्री श्री
युक्तेश्वर स्वामीजी और श्री श्री परमहंस योगानंद स्वामीजी जैसा महायोगियों ही
देसकता है!
सत् स्रुष्टि का अतीत परमात्मा, इस् का स्थान सहस्राराचक्र
है! तत् स्रुष्टि का अंदर का स्पंदनातीत
परमात्मा, इस् का स्थान कूटस्थ स्थित आज्ञाचक्र है! तत् को पराशक्ति कहते है! ॐ आदिशक्ति स्रुष्टि का प्रत्यक्षकारण
परमात्मा है! ॐ आदि
शक्ति हमारा इस् शरीरों का कारणायुक्त परमात्मा है!
ॐ स्पंदनों के हेतु कारण, सूक्ष्म और स्थूल शरीरयुक्त इस्
समिष्टि और व्यष्टि जगत व्यक्तीकरण होते है! ॐ परमात्मा का नां और वाचिक दोनों है! इस्
प्रणवनां साधक का सर्वदोषों को निवारण करता है! ॐकार को ध्यान में अंतर्मुखी होंकर
सुनना ही साधक का असली सार्धकता है! इसीलिए शारीरक व्यामोह होने से साधकों को ॐकार
प्रणवनाद नहीं सुनाईदेगा!
ॐ तत् सत् इति श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु
ब्रह्मविद्यायां योग शास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागायोगोनाम
सप्तादशोऽध्यायः
ॐ श्रीकृष्ण
परब्रह्मणेनमः
श्रीभगवद्गीत
अथ अष्टादशोऽध्यायः
मोक्षसन्यासयोगः
श्री
अर्जुन उवाच—
सन्यासस्यमहाबाहो
तत्वमिच्छामि वेदितुं
त्यागस्यच
हृषीकेश प्रुथक्केशिनिषूदन
1
श्री
अर्जुन ने कहा—
हे श्रीकृष्णा,अंतर्यामी, वासुदेवा, सन्यासतत्व और त्यागतत्व
इन् दोनों का बारे में अलग अलग जानना चाहता हु!
अपन को और परमात्माको होरहा आत्मबोध में और व्यत्यास लगने से,
तब साधक परमात्मा को हे इंद्रियजया, मायाजया, इत्यादि विशेषणों से संबोधन करता है!
अपन को इस् माया से पार करने के लिए प्रार्थना करता है!
श्री
भगवान् उवाच—
काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्यासं कवयोःविदुः
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः 2
श्री
भगवान् ने कहा—
हे
अर्जुन, काम्यकर्मफलत्याग ही सन्यास करके कुछ विज्ञों और सर्वकर्मफलों को त्याग
करना ही सन्यास करके कुछ विज्ञों कहते है!
फलों को आशा नहीं करके कर्मो करना सन्यास है!
विद्युक्तधर्मकर्मो करके उन् कर्मो को त्यजना ही त्याग है!
सत् + न्यास= सन्यास
सत् पदार्थ का अन्वेषणा ही सन्यास है! इसीलिए सत्यान्वेषणा के
लिए कना आवश्यक है!
धर्मयुक्त कार्यों करो और उन् फलों को आशा मत करो! ए ही त्याग का अर्थ है!
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्मप्राहुर्मनीषिणः
यज्ञदानतपः कर्मणा त्याज्यमितिचापरे 3
कर्मो सब ही दोषयुक्त है इसीलिए उन् का त्यागना ही चाहिए करके
कुछ विज्ञों कहते है! पक्राम्तु यज्ञ दाना तपो कर्माएं को कभी त्यजना नहीं चाहिए
करके कुछ विज्ञों कहते है!
निश्चयं शृणु मेतत्र त्यागे भरतसत्तम
त्यागोहि पुरुषव्याघ्र
त्रिविधः संप्रकीर्तितः 4
भारताकुलोतम और पुरुषश्रेष्टा अर्जुन, सन्यास और त्याग इन्
दोनों में प्रथम में त्याग का बारे में सुनो! सात्विक राजासा और तमो इति तीन
प्रकार का त्याग होता है!
यज्ञदानतपःकर्मनात्याज्यं कार्यमेवतत्
यज्ञोदानंतपश्चैव पावनानि मनीषिणां 5
यज्ञ, दान और तपस कर्मो छोडना नहीं चाहिए, करनायुक्त है! यह
बुद्धिमान लोगों को पवित्रशुद्धि करता है!
एतान्यपितु कर्माणि सङ्गंत्यक्त्वाफलानिच
कर्तव्यनीतिमे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमं 6
यज्ञ, दान और तपस कर्मो और विद्युक्ताधार्मो को फल त्याग करके
ही करना इति मेरा निश्चित अभिप्राय है!
नियतस्यतु सन्यासःकर्मणोनोपपद्यते
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः 7
वेदशास्त्रो से नियोजित शास्त्रविहितकर्मो को परित्याग करना
अनुचित है और अज्ञान से इन् को परित्याग करना तामसत्याग है!
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेश भयात्यजेत्
सक्रुत्वा राजसं त्यागं नैवत्यागफलं लभेत् 8
जो शरीरप्रयास का भय से दुःख लभ्य होगा करके विद्युक्तधर्म
कर्म को त्यागेगा, वह राजसत्याग करता है और त्यागफल प्राप्ति नहीं पाता है!
कार्यमित्येवयत्कर्मनियतंक्रियतेर्जुन
सङ्गं त्यक्त्वा फलंचैव सत्यागास्सात्विकोमतः 9
हे अर्जुन, शास्त्रविहित कर्मो को ‘यह कर्मो आचरणीय है’ समझ के
फल और अभिमान त्याग करना है! वैसा कर्मो का अंदर का सङ्गफलत्याग करके निश्चय किया
है!
परमात्मा का साथ अनुसंथान के लिए साधक अपना अल्प इंद्रियसुखों
को त्यागता है! यह सात्विकत्याग में पहले कदम् है! यह क्रमशः सर्वकर्मफलत्याग का
दिशानिर्देशन करता है! तब केवल परमात्मा के लिए मनसा कर्मणा और वाचा त्रिकरणशुद्धि
से संगत त्यगके कर्म करने को दोहद करता
है! तब आखरी रंग में साधक प्रवेश करेगा! वह ही असली सत् न्यास यानी सन्यास है!
ध्यान करने समय साधक का चारों ओर कांति व्यापक होता है! ध्यान
में महात्मो का दर्शन भी होता है! आध्यात्मिक पुरोगती का यह नाप काफी नहीं है,
परंतु वह कर्कश नित्यजीवन में जितना बाधा सहन करसकता है इस् का उप्पर उस् का
आध्यात्मिक पुरोगती आधारित होता है!
नद्वेष्ट्य कुशलं कर्म कुशालेनानुषज्जते
त्यागेसत्व समाविष्टो मेधावीछिन्न संशयः 10
जो साधक सत्वगुणसहित है, प्रज्ञाशाली है और संशयरहित त्यागशील
है, वह दुखकारक कर्म को द्वेष नहीं करता है और सुखकारक कर्म में आसक्ति भी नहीं
दिखाता है!
नहिदेहभ्रुताशक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः
यंतु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते 11
कर्मो को पूर्णरूप में त्यक्त करने शरीरधारी मनुष्य को साध्य
नहीं है!जो साधक कर्मफलों को त्यागता है, वह ही त्यागी है!
किराया मकान में रहने संसारी जब वह मकान छोडने समय खेद नही
होता है! वैसा ही त्यागी भी ‘मै परमात्मा का मकान में किराये में रहता हु’ करके
सोचके शरीर्व्यामोह छोडता है! केवल परमात्मा के लिए काम करता हु जैसा भावना करके
कर्मफल में आशा नहीं रखता है! और एक शरीर छोडके दूसरे शरीर में प्रयाण/प्रवेश करने समय में बाधा नहीं करता है!
अनिष्टमिष्टं मिश्रं त्रिविधं कर्मणः फलं
भवत्य त्यागिनां प्रेत्य नतु सन्यासिनां क्वचित् 12
दुःखकारक, सुखकारक और, सुख और दुःख मिश्रमकारक इति कर्मफल तीन
प्रकार का होता है! यह कर्मफल मरणानंतर कर्मफल नहीं करने मनुष्यों को मिलता है!
कर्मफलत्याग किया मनुष्यों को वह कभी भी नहीं लगेगा!
पंचैतानी महाबाहो कारनानी निबोध में
सांख्ये कृतांते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्माणां 13
बलिष्ठ बाहों अर्जुन, समस्त कर्मो संपन्न करने कर्मकांड को अंत करनेवाले सांख्यशास्त्र में
पाँच प्रकार का कारण कहा गया है, सुनो!
हर एक मनुष्य का अपना भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक बाधाएँ को
निवारण करना परमलक्ष्य है! इसी कारण इन् तीनों का फलात्याग अत्यंत आवश्यक है इति
कहता है सांख्यशास्त्र!
योगसाधना उन् तीनों को प्राणायाम पद्धतियों द्वारा कैसा निवारण
करसकता है सिखाता है!
परमात्म में लयहोना ही परमलक्ष्य कहते है वेद का अंत यानी
वेदांत!
सांख्य और योगसाधना दोनों परमात्म में कैसा लयहोना है सिखाता
है!
सांख्य और योगसाधना दोनों में योगसाधना का अनुसरण करना मुख्य
है कहते है वेदांत! इस् से मनुष्य आखरी में प्राप्ति करता है जानकारी देता है
वेदांत!
सांख्य योग और वेदांतों
का लक्ष्य आखरी में परमात्मा में लय होना ही है! परंतु सांख्य और योग इन् दोनों
कोअनुसरण नहीं करने से इस् लक्ष्य दुस्साध्य इति कहता है वेदांत! इसीलिये
‘अथातोब्रह्मजिज्ञासा’ से आरम्भा होता है ब्रह्मसूत्र भाष्यम्!
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणंच प्रुथग्विथं
विविधाश्च प्रुथक्चेष्टा दैवंचैवात्र पंचमं! 14
इस् कर्माचरण विषय में (1)शरीर, (2)कर्ता,
(3)विविध इंद्रियों, (4) अनेक प्रकार की और अलग अलग इंद्रिय
व्यापार क्रियाएं और (5)
दैवं कारण है!
यहाँ शरीर का अर्थ स्थूलशरीर है! यहाँ कर्ता मनुष्य जिसका स्थूलशरीर, इंद्रियों और इंद्रिय व्यापार
क्रियाएं है! यहाँ आखरी में दैवं का नाम उल्लेखन् किया है! मानव प्रयत्न अतिमुख्य
है! इसीलिए निराशा नहीं होने के लिए इच्छाशक्ती परमात्मा ने दिया है!
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्मप्रारभते नरः
न्याय्यं वा विपरीतंव पंचैतेतस्यहेतवः 15
शरीर, वाक् और मन से शास्त्रीय और अशास्त्रीय कर्म जो भी
मनुष्य आरम्भा करता है, इन् को वह पाँच छीजें कारण है!
तत्रैवंसतिकर्तारमात्मानं केवलंतुयः
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः 16
कर्मविषय में वह पाँच छीजें कारण है! आत्म निरुपाधिक है! कर्ता नहीं है! परंतु विपरीतबुद्धि से आत्म को कर्ता
समझता है! वैसा अविवेकी को कर्म और आत्म का यदार्थारूप नहीं जानता है!
यस्यनाहंकृतोभावो बुद्धिर्यस्य नलिप्यते
हत्वापि स इमान् लोकान्नहन्तिननिबध्यते 17
जिस को ‘मै कर्ता’ करके विचार नहीं है, जिसका बुद्धि प्रापंचिक
विषयों में और कर्मो में कर्त्रुत्वाभाव नहीं है, वैसा मनुष्य इन् सब लोकों को
नाशा करने से भी, वास्तव में नाश् किया करके माना जाएगा! वह पाप और कर्म से
अस्पर्शनीय है!
हमारा नौकर को ‘इस् मैंने से तुम्हारा वेतन कम कर रहा हु’
बोलने से, कही वर्षों से काम किया उस् घर और मालिक का उप्पर लेशमात्र मोह नही होके
दूसरा मकान और मालिक जहा अधिक वेतन मिलेगा वहा काम करने जाएगा! वैसा ही त्रिकरणशुद्धि भावना से ‘मै सर्व कर्मो
परमात्मा के लिए कर रहा हू’ करके बिना कर्त्रुत्व भाव मनुष्य अपना कर्म करना है!
ज्ञानंज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना
करणं कर्मकर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः 18
ज्ञानं, ज्ञेयं और ज्ञाता यह तीनों कर्म का कारण है! वैसा ही
साधन, साधक और साध्य ये तीनों कर्म का आधार है!
ज्ञानंकर्मचकर्ताच त्रिधैव गुणभेदतः
प्रोच्यते गुणसंख्यानेयथावच्छ्रुणुतान्यपि 19
गुणों का बारे में विचारण करने शास्त्र में ज्ञानं, कर्म और
कर्ता सतवादी गुणों का भेद का अनुसार तीन प्रकार का कहते है! उन् का बारे में भी
यथारीति शास्त्रोक्त पद्धति में कहता हु, सुनो!
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते
अविभक्तं विभक्तेषु तत् ज्ञानं विद्धि सात्विकं 20
एक ही नाशरहित वस्तु समस्त चराचरप्राणियों में विभाजन होंकर
अलग अलग दिखता है! वैसा नाशरहित वस्तु
अविभाजन है करके जिस ज्ञान से जानता है वह ज्ञान सात्विक है!
सिनेमा प्रोजेक्टर से बाहर आने एक्र्र प्रकार का कांतिकिरणों
अनेक प्रकार की तस्वीरें का रूप में परिवर्तन होता है! वैसा ही साधना में जो उन्नत
सात्विक ज्ञानस्थिति प्राप्त हुआ साधक ‘परमात्मा एक ही अनेकरूपों में माया का कारण
दिखता है’ करके ग्रहण करता है!
पृथक्त्वेनतु यज्ञानं नानाभावान् पृथग्विथान्
वेत्तिसर्वेशु भूतेषु तज्ञानं विद्धि राजसं 21
समस्त प्राणियों अलग अलग है यानी परमात्मा अलग अलग रहता है
करके समझता है वह ज्ञान राजस ज्ञान है!
यत्तु कृत्स्नवादेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकं
अतत्वार्थवदल्पं च तत्तामासमुदाहृतं 22
शरीर संबंधी भौतिक वस्तुवों प्रकृति कार्य है! यह ही समस्त समझ
के उसी मे आसक्ति करवाके तात्विकरूप में अर्थरहित, हेतुबद्धरहित, तुच्छ और विपरीत ज्ञान तामस
ज्ञान है!
योगसाधन जो बिलकुल नहीं करता है उस् पामर का अज्ञान पूर्वक
ज्ञान इस् प्रकार का तामस ज्ञान होता है!
नियतं सङ्गरहितमारागाद्वेषतःकृतं
अफलप्रेप्सुनाकर्म यत्तत्सात्विकमुच्ते 23
शास्त्रविहित, फलापेक्षरहित, आसक्तिरहित, अभिमानरहित और
रागद्वेषरहित कर्म सात्विक कर्म है!
क्रियायोगसाधना में जब पुरोभिवृद्धि होता है तब उस् साधक का
कर्मो इस् प्रकार का होता है! सात्विकयोगी करने पूजाएँ भी फलापेक्षरहित होते है और
केवल परमात्मा में प्रेम का कारण करता है!
शिशु को बचाने सर्प को मारने से उस् मनुष्य को कोई पापा नहीं
लगता है! परन्तु उस् सर्प का उप्पर द्वेष नहीं होना चाहिए! मनुष्य मनस् का साथ छे
इन्द्रियों जीवि है! मनुष्य का प्राण कम इन्द्रियों जीवि से श्रेष्ट है! इसीलिए
मनुष्य कम इन्द्रियों जीवि को पालन पोषण करसकता है! कम इन्द्रियों जीवि मनुष्य को
पालन पोषण नहीं करसकता है!
यत्तु कामेप्सु ना कर्म साहंकारेणवापुनः
क्रियतेबहुलायासं तद्राजसमुदाह्रुतं 24
फलापेक्षसहित, अहंकारसहित, और अधिकप्रयासी कर्म राजसकर्म कहते
है!
परमात्मा का उप्पर प्रेम छोडकर लोगों का गौरव पाने केलिए करने
पूजाएं राजस पूजाएं है!
अनुबंधंक्षयं हिंसा मनपेक्ष्य च पौरुषम
मोहादाराभ्यतेकर्म यत्तत्तामसमुच्यते 25
अच्छा बुरा परिणाम, हानि, हिंसा और अपना सामर्थ्यो को नहीं
देखकर केवल अविवेक से आरम्भ करने कर्मो तामसकर्म कहते है!
मुक्त सङ्गोनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः
सिध्यसिध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्विक उच्यते 26
आसक्ति और फलापेक्षा को त्यागकिया, ‘मै कर्ता’ करके अभिमान और
अहंभाव नहीं हुआ, धीरता और उत्साहभरित मनुष्य और कार्यसिद्धि होने नहीं होने में
हर्ष शोकादि विकारों नहीं होने कर्ता सात्विक कर्ता कहते है!
एक महिला आके अपना पति से ‘हमारा केवल एक पुत्र दुर्घटना में
मृत्यु हुआ’ करके कहता है! उस् का आत्मशांति के लिए कुछ समय ध्यान करो कहता है उस्
का पति!
‘हे परमात्मा, साधू स्वभावी, सात्विक और क्रियायोगध्यान करने
पुत्र को दिया, बीस वर्ष जीवन उस् का साथ आनंद से शांतिपूर्वक गुज़रगया उस् का
साथ, इस् के लिए धन्यवाद’ करके कृतज्ञता पूर्वक हाथ जोडके प्रार्थना करता है
भर्ता!
उस् को सुन के भार्य ‘ पुत्र का मृत्यु हुआ’, तुम को दुःख नहीं
है करके पूछती है!
‘ मै राज बनगया, भूकंप में मेरा राजभवन भूस्थापित हुआ, मेरा
तीन पुत्रों और राणी का मृत्यु हुआ’ करके रात् में स्वप्ना आया था! अब उस् स्वप्ना जिस में तीन पुत्रों और राणी का
मृत्यु के लिए खेद करू अथवा परमात्मा माया में खोयाहुआ इस् एक पुत्र के लिए खेद
करू कहता है!
रागीकर्म फलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोशुचिः
हर्षशोकान्वितःकर्ता राजसः परिकीर्तितः 27
बंधु मित्रादियो में अभिमानी और अनुरक्ती, कर्मफलासक्ती, लोभी,
हिंसास्वभावी, शुचित्वारहित, हर्षशोकों को वश हुआ मनुष्य को राजसकर्ता कहते है!
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोलसः
विषादी दीर्घसूत्रीच कर्ता तामस उच्यते 28
मनोनिग्रहरहित, अविवेकी. सुशिक्षितारहित, मूर्ख, धूर्त, अकारण
हेतु दूसरों को हानी देनेवाले, सदाचिंताग्रस्त, आलसी और स्वल्पकाल में करने काम
दीर्घकाल में भी कार्य नहीं संपन्न करने मनुष्य तामस कर्ता है!
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय 29
हे अर्जुन, बुद्धि और धर्म का गुनाभेदों का मुताबिक़ गुणों का
तीन प्रकार का है! उन् का बारे में संपूर्णरूप में और अलग अलग रूप में कहरहा हु,
सुनो!
प्रवृत्तिंच निवृत्तिंच कार्याकार्ये भायाभये
बंधं मोक्षंचयावेत्ति बुद्धिस्सापार्थसात्विकी 30
हे अर्जुन, धर्म में प्रवृत्ति और अधर्म में निवृत्ति मार्ग
सन्यास मार्ग है! क्या करना और क्या नहीं करना, भय और अभय, बंध और मोक्ष का बारे
में जानना है! वैसा बुद्धि सात्विक बुद्धी है!
ययाधर्ममधर्मंच कार्यंचाकर्यमेवच
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिस्सापार्थराजसी 31
हे अर्जुन, जिस बुद्धि से धर्म और अधर्म, कर्त्तव्य और
अकर्त्तव्य यदार्थारूप में नहीं जानेगा वह राहासबुद्धि है!
अधर्मं धर्ममिति यामन्यते तमसावृता
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिस्सापार्थतामसी 32
जो बुद्धि अज्ञान से ढक के अधर्म को धर्म समझेगा और
समस्तापदार्ठो को परस्पर विरुद्ध समझेगा वह तामस् है!
ध्रुत्यायया धारयते मनः प्राणेंद्रियक्रियाः
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिस्सापार्थसात्विकी 33
हे पार्थ, विषयों में अचंचलधीरता से मन, प्राण और इंद्रियों का
व्यापारों को योगसाधना का माध्यम से विषयों से बदल के आत्मध्यान में केंद्रीकृत
करता है उस् साधक का धीरता सात्विक धीरता है!
ययातु धर्माकामार्थान् धृत्या धारयतेर्जुन
प्रसङ्गेन फलाकांक्षी
धृतिस्सापार्थराजसी 34
हे पार्थ, जिस धैर्य का हेतु मनुष्य फलापेक्षसहित धर्म, अर्थ,
और कामं को अधिक आसक्ती से अनुष्ठान करता है उस् साधक का धीरता राजस धीरता है!
ययास्वप्नाम भयम शोकं विषादम मदमेवच
न विमुञ्चतिदुर्मेधा धृतिस्सापार्थतामसी 35
हे पार्थ, जिस बुद्धि का हेतु दुर्मति मनुष्य निद्रा, भय,
दुःख, व्याकुलता और मद् नहीं छोडता है उस् साधक का धीरता तामस धीरता है!
सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु में भरतर्षभ
अभ्यासाद्रमते यत्र दुखांतं च निगच्छति 36
भरतकुलाश्रेष्ठ अर्जुना, जिस का अभ्यास से मनुष्य आनंद दुःख और
शांति प्राप्ति करता है वह सुख तीन प्रकार का मुझ से विवरण सुनो!
यत्तदग्रेविषमिव परिणामेमृतोपमं
तत्सुखं सात्विकं प्रोक्तामात्म बुद्धिप्रसादजं 37
जो सुख आरंभ में विष जैसा और आखरी में अमृत जैसा होता है वह
सुख बुद्धि को निर्मल बनाता है! वैसा सुख सात्विक है!
साधक को आरंभ में स्थूलशरीर को बाधाएं होता है! पश्चात में
सूक्ष्मशरीर यानी मनस् को विविधप्रकारों का विचारों का बाधाएं होता है! तत् पश्चात
कारणशरीर का बाधाएं विष जैसा होता है! आखरी में अमृत जैसा निर्मल सुख मिलता
है! यह ही सात्विक सुख है!
विषयेंद्रियसंयोगाद्यत्तदग्रे मृतोपमं
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतं 38
जो सुख विषयेंद्रियसंबंध का कारण आरम्भा में अमृत जैसा और
पर्यवसान में विष जैसा होता है, वह राजस सुख है!
इंद्रियों का तृप्ति के लिए जरूरत से ज्यादा उन् को उपयोग नहीं
करना चाहिए! इंद्रियों को नियंत्रण नहीं करने से बाद में वे मनुष्य को तीव्रबाधाये
देगा!
यदाग्रेचानुबंधेच सुखं मोहनमात्मनः
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामासमुदाह्रुतं 39
निद्रा, आलसीपन और अपाय इत्यादि से उत्पन्न हुए सुख आरम्भा में
भी और अनुभव करने पश्चात अंत में भी अपने को मोह, अज्ञान और भ्रम करादेता है वह
तामस सुख है!
नतदास्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषुवा पुनः
सत्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिस्यात्रिभिर्गुणैः 40
प्रकृति यानी माया से व्यक्तीकरण हुए इन् तीन गुणों नही होने
कोई भी वस्तु इस् भूलोक अथवा स्वर्ग अथवा दे़वताओं में कही भी उत्पन्न नहीं हुए
है!
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभाव प्रभवैर्गुणैः 41
हे परंतपा, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का कर्माएं तथा
शूद्रों का कर्माएं भी अपना अपना स्वाभाविक गुणों से विभाजन किया है!
सात्विक,राजस, तामसिक, सात्विक+राजस, राजस+ तामसिक गुणोंका
मुताबिक़ कुलों को विभाजन किया है!
द्रोणाचार्य ब्राह्मण परंतु वह पांडवों और कौरवों का गुरु और
उन् को धनुर्विद्या इत्यादि सिखाया था!
डाक्टर का पुत्र या पुत्री डाक्टर होता नहीं है, इंजीनियर का
पुत्र या पुत्री इंजीनियर नहीं होता है! साधक जिस चक्र तक अपना कुंडलिनी जागृती
किया उस् का मुताबिक कुल होता है! उदाहरण के लिए मूलाधारचक्र तक कुंडलिनी जागृती
होने से क्षत्रिय, स्वाधिष्ठानचक्र तक कुंडलिनी जागृती होने से वैश्य, मणिपुरचक्र
तक कुंडलिनी जागृती होने से विप्र, तथा अनाहतचक्र तक कुंडलिनी जागृती होने से
वैश्य, ब्राह्मण होता है! इसीलिए ब्रह्म
जानाति इति ब्राह्मणः इति शास्त्र कहता है! डाक्टर पढने से डाक्टर होता है! वैसा
ही जो ब्रह्मज्ञान जानता है वह ही ब्राह्मण है! कुल एक स्थिती है! कुल को साधना
करके प्राप्त करना है! जो साधना बिलकुल नहीं करता है वह ही शूद्र है! जनम का
मुताबिक़ यानी पिता का कुल का मुताबिक़ पुत्र क कुल निर्णय करना देश विनाश का का
कारण हेतु होता है!
शमोदम्स्तपः शौचं क्षांतिरार्जमेवच
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्राह्मं कर्मस्वभावजं 42
शमं यानी मनोनिग्रह, दमं यानी इंद्रियनिग्रह, तपस् यानी
धर्मपालन में आने कष्टों को सहन करना, बाह्याभ्यंतर शुद्धि, क्षांति यानी दूसरों
का अपराथों को क्षमा करना, मनस्, शरीर और इंद्रियों का सरळ ऋजुमार्ग जीवन, वेदशास्त्रज्ञान,
ईश्वर में दैव में, परलोकादियों में और सद्गुरु में विश्वास होना, यह सब
स्वभावजनित ब्राह्मणकर्म है!
शौर्यं तेजोध्रुतिर्दाक्ष्यं युद्धेचाप्यपलायनं
दानमीश्वर भवश्च क्षात्रं कर्मस्वभावजं 43
शूरत्व, तेजस्, कीर्ति, प्रताप, धैर्य, सामर्थ्य, युद्ध में
पलायन नहीं करना, धर्मपूर्वक दान और प्रजापरिपालना शक्ती यह सब स्वभावजनित
क्षत्रियकर्म है!
कृषि गोरक्ष वाणिज्यं वैश्यंकर्म स्वभावजं
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजं 44
व्यवसाय, गोसंरक्षण और वर्तकं, यह सब स्वभावजनित क्षत्रियकर्म
है! सेवारूपकर्म स्वभावजनित शूद्रकर्म है!
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतस्संसिद्धिं लभते नरः
स्वकर्मनिरतस्सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु! 45
अपना अपना स्वाभाविक कर्मो में श्रद्धायुक्त मनुष्य ज्ञान
योग्यता सिद्धि प्राप्ति करता है! स्वकीयकर्मो में आसक्तियुत मनुष्य परमसिद्धि
प्राप्ति कैसा करता है, सुनो!
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततं
स्वकर्मणातमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः 46
जिस का कारण प्राणियों का उत्पत्ती इत्यादि प्रवृत्ति होता है
और जिस से इस् समस्त प्रपंच व्याप्ति हुआ है—वैसा परमात्म को मनुष्य स्वकीयकर्मा से
आराधन करके ज्ञानयोग्यतारूपसिद्धि को प्राप्त करता है!
श्रेयान् स्वधर्मो विगुणःप्रधार्मात्स्वनुश्तितात
स्वभावनियतं कर्मकुर्वन्नाप्नोति किल्बिषं 47
अच्छीतरह दूसरों का धर्मों से गुणरहित होनेसे भी स्वधर्माचरण ही
श्रेष्ठा है! क्यों कि स्वभाव का अनुसार हुआ स्वधर्मरूपकर्मो को करने मनुष्य पाप
प्राप्ति नहीं करते है!
मनुष्य इंद्रियधर्मोंको आचारण करना नहीं चाहिए क्योकि उन् को
कभी भी तृप्ति नहीं करसकते है! क्रियायोग साधना से इंद्रियबानिसत्व को त्याग के
गुणरहित पवित्र आत्मा को अनुसरण् करने स्वधार्माचरण ही श्रेष्ठ है!
क्रियायोग शास्त्रीय और निश्चित है! निश्चित फलप्राप्ति देने
क्रमपद्धातियो द्वारा आत्म और परमात्मा का अयिक्य ही योग है! वह मूढविश्वासों से
होने विभेदों से मतं को अतीत रखते है!
सहजं कर्म कौंतेय सदोषमपि न त्यजेत्
सर्वारंभा हि दोषेण धूमेनाग्नि रिवावृताः 48
हे कौन्तेय, दोषयुक्त होने से भी स्वभावसिद्ध कर्म को त्यजना
नहीं चाहिए! धुआँ अग्नी को ढकलेटा है! वैसा ही कर्मो सब कुछ न कुछ दोष का साथ होता
है!
साधना में प्रारंभ में शारीरक, मानसिक और अक़ध्यात्मिक दोषों
होते है! परंतु साधना को त्यजना नहीं चाहिए! ध्यान का माध्यम से आत्माको परमात्मा
का अनुसंथान करके महादानंद प्राप्त करता है! ध्यान को साधारण एकाग्रता नहीं समझना
नहीं चाहिए! अनेक चंचल विचारों से दृष्टि को अलग करके एक ही हमारा आसक्तिसहित
विचार में मन को केंद्रीकृत करना ही एकाग्रता कहते है! मनस् को अशांति से विमुक्त
करके परमात्मा में निमग्न करने प्रत्येक एकाग्रता ही ध्यान है! इसीलिए ध्यान का
अर्थ परमात्मा को जानना है!
आसक्त बुद्धिसर्वात्र जितात्मा विगतस्पृहः
नैष्कर्म सिद्धिं परमां सन्यासेनाधिगच्छति! 49
समस्त प्रापंचिका विषयों में लगन नहीं हुआ बुद्धिमान,
स्पृहारहित, मनस को जय किया, वांछारहित मनुष्य सङ्गत्याग और ज्ञानमार्ग से
सर्वोन्नत निष्क्रियात्माक स्थिति को प्राप्त करता है!
प्रगाढध्यान निश्शब्द में जितना समय करने से, उतना परमात्मा का
आनंदानुभूति को साधक प्राप्त करता है! हर कल का ध्यान से आज का ध्यान प्रगाढ होना
और आज का ध्यान से आनेवाली कल का ध्यान प्रगाढ होना ही ध्यान प्रगाढता है!
सिद्धिम प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोधमे
समासेनैव कौन्तेय निष्ठाज्ञानस्य या परा! 50
ओह कौन्तेय, ज्ञानयोग का पराकाष्ट निष्क्रियात्मकस्थिति है!
उस् का प्राप्ति करने विधान और उस् का माध्यम से ब्रह्म प्राप्ति करने विधान मेरे
से जानो!
बुद्ध्याविशुद्धयायुकतो धृत्यात्मानं नियम्यच
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्यच 51
विविक्तसेवीलघ्वाशी यथावाक्काय मानसः
ध्यानयोगापरोनित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः 52
अहंकारंबलंदर्पं कामंक्रोधं परिग्रहं
विमुच्यनिर्ममश्शांतो ब्रह्मभूयाय कल्पते 53
विशुद्धबुद्धि से हलका सात्विकाहार को मितरूप में भोजन
करनेवाला, शब्द स्पर्शा रूपादियों का विषयों को त्यग के परिशुभ्र एकांतप्रदेश में
निवास करनेवाला, स्सत्विका धारणाशक्ति का माध्यम से अंतःकरण और इंद्रियों को
समन्वय करके मन और वाक् को वश में रखनेवाला, रागद्वेषों को सर्वदा त्यज के
दृढवैराग्य का आश्रयलिया मनुष्य, अहंकार, बल, दर्प, कामं, क्रोध इत्यादियों को
परित्याग करके निरंतर ध्यानयोगातत्पर, ममतारहित और शांतियुत साधक सच्चिदानंद
परब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थितिवंत होने पात्र है!
भगवत अनुसंथान नहीं करने देने माया को प्रतिघटन करनेवाली
अत्यंतशक्तिवंत आयुध क्रियायोग है!
ब्रह्मभूतःप्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति
समस्सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते परां 54
सच्चिदानंद परब्रह्म में एकीभावस्थितिवंत होंकर निर्मल मन से
जीवन्मुक्त योगी किसी छीज का बारे में शोक नहीं करता है और किसी का उप्पर कांक्ष
नहीं रखता है! संमस्त प्राणियों में समबुद्धि होंकर उन् को अपना जैसा देखते मेरा
उप्पर उत्तमभक्ति प्राप्ति करता है!
प्रप्रथम कार्यों को प्रथम स्था न् देना चाहिए! प्रातः उठने से
ध्यान करना चाहिए! तब प्रापंचिक विषयों हम को बाधा नहीं देगा! भगवत ध्यान से आरंभ
हुआ हमारा दिन आनन्दित होगा! पुनः रात् में ध्यान करके सोना चाहिए! मध्य मद्य में
पाँच मिनट समय मिलाने से भी व्यर्थ बात छोड़ा के ध्यान करना चाहिए! इस् प्रकार जीवन
एक ध्यान और दूसरा ध्यान का बीच में होना चाहिए!
भक्त्यामामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्वतः
ततोमां तत्वतो ज्ञात्वा विशते तदनंतरं 55
ब्रह्मभूतयोगि इस् पराभक्ति का माध्यम से ‘मै कितना घन हु’
यदार्थ जानता है! तत् पश्चात मुझ में प्रवेश करता है!
स्वप्ल समय लभ्य होने से भी ध्यान करना चाहिए परंतु वह ध्यान
इतना प्रगाढ़ होना चाहिए जैसा बहुत समय परमात्मा से बितादिया!
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणोमद्व्यपाश्रयः
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययं 56
समस्त करो में कर्तृत्व भाव और कर्मफलरूपी समस्तभोगों को
त्यागना है! तब मेरा अनुग्रह से नाशाराहिता शाश्वत मोक्ष पदवी लभ्य होता है!
चेतसा सर्वकर्माणिमयि सन्यस्यमत्पारः
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्यस्सततं भव 57
समस्तकर्मो को पूर्णमनस् से मुझे अर्पण करके, मुखको ही
प्रमाप्राप्यस्थान समाख के, चित्त एकाग्रतासहित तत्वाविचारण अथवा ध्यानयोग को
अवलाम्भन करके सर्वदा मेरे में ही मन लगन करो!
ह जितना ध्यान अधिक करेगा उतना सहाय दूसरों को करसकते है!
परमात्मा का साथ अनुसंथान करके निस्वार्थता से हमारा सर्वव्यपकत्व को जानसकते है!
मच्चित्तसर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि
अथचेत्वमहंकारान्न श्रोष्यसि न विनक्ष्यसि 58
मुझ में चित्त लगन करने से मेरा अनुफ्रह से समस्त सांसारिक
दुखों को पार सकते हो! मगर अहंकारसहित होकर मेरा इन् वाक्यों को नहीं सुनने से
नाश् होजाओगे!
हम को परमात्मा क्यों आसानी से वश होना यानी दर्शन देना है? हम
धन, भार्यापुत्रादियों के लिए कठोरपरिश्रम करते है! परंतु सब कुछ देनेवाले
परमात्मा के लिए परिश्रम नहीं करते है! दिन में एक घंटा कमसेकम प्रगाढध्यान करने
से कुछ समय के पश्चात उन् का दर्शन अवश्य प्राप्त होगा!
यद्यहंकारमाश्रित्य नयोत्स्य इति मन्यसे
मिथ्यैष व्यवसायंते प्रक्रुतिस्त्वां नियोक्ष्यति 59
शायद अहंकार से ‘मै युद्ध नहीं करेगा’ इति तुम संकल्प करने से
वैसा तुम्हारा प्रयत्न व्यर्थ होजायेगा! तुम्हारा क्षत्रियस्वभाव ही तुम को युद्ध
के लिए उत्प्रेरण करेगा!
सहजावबोध अंदर से आता है! विचार बाहर से आताहै! सहजावबोध का
हेतु साधक अपना साधना का सत्य आमने सामने देख सकता है! साधना एक युद्ध है! हर एक
योग साधक, बाह्य और अंतः शतृओं से युद्ध करने क्षत्रिय है! साधक अपना विचारों से
परोक्ष में सत्य जानसकेगा, परंतु सहजावबोध अपूर्व अनुभूतों से परिपूर्णरूप में
साधक को सत्य दिखाई देगा! विचारों हर एक व्यक्ति को होता है! वैसा ही सहजावबोध भी
हर एक व्यक्ति को होता है! विचारों को जैसा वृद्धि कर सकता है, वैसा ही सहजावबोध
भी वृद्धि कर सकता है! सहजावबोध में साधक सत्य से अनुसंथान होके रहता है!
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धस्वेनकर्मणा
कर्तुंनेच्चसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोपितत् 60
हे अर्जुन, पूर्वजन्मसंस्कारों स्वभाव का वजह से तुम्हारा
प्रक्रुतिसिद्ध कर्म से अवश्य खैदी हो जायेगा और जिस को करने को अविवेक से इच्छा
नहीं करते हो उस् को कर्माधीन होंकर अवश्य करोगे!
परमात्म अनंत और तर्क का अतीत है! केवल कार्यकारण संबंध ही
तर्कबुद्धि ग्रहण करसकता है! कार्यकारणरहित परमात्म को तर्कबुद्धि ग्रहण नहीं
करसकता है! मनुष्य का अत्युत्तम शक्ती बुद्धि नहीं बल्कि सहजावबोध ही है! इंद्रिय
ग्रहण ज्ञान दोषभूयिष्ट है! सहजावबोध परमात्मा से साधक को तक्षण प्राप्त होता है
और सत्य भी है!
ईश्वरस्सर्वभूतानां ह्रुद्देशेर्जुन तिष्ठति
भ्रामयन् सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया 61
हे अर्जुना, जगन्नियामक परमेश्वर अपना माया से समस्त प्राणियों
को यंत्र जैसा आरोह कर के कटपुतली जैसा घुमाता है और समस्त प्राणियों का हृदय में
रहता है!
मनस् और बुद्धि का केंद्र अधिचेतानामनस् है! इस् अधिचेतानामनस्
द्वारा ही परमात्मा का साथ अनुसंथान होना है! केवल ध्यान का माध्यम से ही साधक
माया को पार करसकता है! ध्यान में मिलने आनंद सर्वस्रुष्टिव्याप्त नित्यानन्दा को
बहिर्गत करता है! इस् समस्त दृश्य प्रपंच सूक्ष्मतेजस से व्याप्त किया यानी
उत्पन्न हुआ है! ध्यान में दिखने तेजस् वह ही है! उस् कांति को दर्शन किया साधक
स्रुष्टि का समस्त वस्तु समुदाय से ऐक्यता प्राप्ति करता है!
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत
तत्प्रसादात्परां शांतिम स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतं 62
हे अर्जुन, सर्वविधों से उस् ह्रुदयस्थ परमेश्वर का ही शरण
लेलो! प्रभु का अनुग्रह से सर्वोत्तम शांति और शाश्वत शांति को प्राप्ति करोगे!
शारीरक व्यामोह और बानिसत्व को मनुष्य पूर्णता से छोडना चाहिए!
आधिपत्य साध्य करने तक शरीर ही साधक को शत्रु है! दैवानामाव्याप्ति करना, नित्यं
उन् का बारे में विचार करना और उन् का ही गुणों का गाना—ये बिना साधक और कुछ मांगना नहीं चाहिए!
आत्मसमर्पण बिना परमात्मा का प्रेम प्राप्त करने और दूसरा मार्ग नहीं है! वह मार्ग
है क्रियायोग साधना जिस से मन को वस् में अवश्य रखसकता है!
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरम मया
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरू 63
इस् प्रकार अत्यंतगोप्य और श्रेष्ठ ज्ञान तुम को दिया हु! तुम
इस् अत्यंतगोप्य और श्रेष्ठ ज्ञान पूर्णता से ग्रहण करके तुम्हारा इच्छारीति आचारण
करो!
सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु में परमं वचः
इष्टोसि में दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितं 64
समस्त गोप्याविषयों में परम गोप्य मेरा वचन है! इस् को पुनः
शुनो! तुम मेरा अत्यंत इष्ट है! इस् कारण तुम्हारा हित के लिए पुनः पुनः कहरहा हु!
मन्मनाभवा मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोसि में 65
मुझ में मनस लगन करो, मेरे में भक्तिभाव रखो, मुझ को आराधन करो
और मेरे को नमस्कार करो! वैसा करने से तुम मुझ को प्राप्त करसकते हो! तुम मेरे को
इष्ट है! इसी कारण यदार्थ में प्रतिज्ञ करके कहरहा हु!
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणंव्रज
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माशुचः 66
सर्वधार्मो को त्यग कर मुझ को ही शरण करो! मै समस्त पापों से
तुम को विमुक्त करेगा!
इंद्रियों का सर्वधार्मो को साधक त्याग के परमात्मा को
परिपूर्णता से शरण लेना चाहिए! तब संचिता, प्रारब्ध और आगामी कर्मो का पापों
निकलजायेगा!
इदं ते न तपस्काय ना भक्ताय कदाचना
नचा शुश्रूषवे वाच्यं नचमां योभ्यसूयति 67
तपस् नहीं करने मनुष्य, भक्तिरहित, सुनने को इष्ट नही मनुष्य
को और मुझ में दोषदृष्टि से देखने मनुष्य को, तुम को बोधकिया इस् गीता शास्त्र को
उद्बोधन नहीं करना चाहिए!
य इमं परमंगुह्यं मद्भक्त्वेष्वभि दास्यति
भक्तिमयिपरां कृत्वामामेवैष्यत्यसंशयः 68
गीताशास्त्र अतिरहस्य है! जो साधक इस् को मेरा भक्तों को कहेगा
वह मेरे में भक्तियुक्त और संशयरहित होंकर मुझको निस्संदेह से पायेगा!
नच तस्मान्मनुश्येषु कशिन्मे प्रियकृत्तमः
भविता नचमे तस्माधन्यः प्रियतरोभुवि 69
मनुष्यों में वैसा साधक से मुझको अत्यंत प्रिय करने शिष्य और
दूसरा नहीं है! उस् के अलावा अत्यंत इष्टतम भक्त इस् पृथ्वी में उर दूसरा नहीं
होगा!
अध्येष्यतेचय इमंधर्म्यं संवादामावयोः
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टःस्यमितिमेमतिः . 70
जो साधक धर्मयुक्त और धर्मस्वरूपी हम दोनों का इस् संभाषण
अध्ययन करेगा उस् साधक का ज्ञानयज्ञ से मै आराधन कियागया है करके मेरा निश्चय है!
श्रद्धावाननसूयश्च श्रुणुयादपि यो नरः
सोपिमुक्तश्शुभान्लोकान् प्राप्नुयात्पुन्यकर्मणां 71
जो साधक श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टिरहित होंकर इस् गीताशास्त्र
को सुनेगा, वह भी पापों से विमुक्त होंकर पुण्यलोकप्राप्ति लभ्य करता है!
कच्चिदेतच्छ्रुतम पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनंजय 72
हे धनंजय, मेरा इस् बोधा को तुम एकाग्रता मन से सूना ही कि
नहीं?अज्ञानजनितयुक्त तुम्हारा भ्रम सम्पूर्णता से नाश् हुआ कि नहीं है?
अर्जुन उवाच—
नाष्टोमोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रासादान्मयाच्युत
स्थितोस्मि गतसंदेहः करिषयेवचनंतव 73
अर्जुन ने कहा—
हे श्रीकृष्णा, तुम्हारा अनुग्रह से मेरा अज्ञान नाश् होगया!
आत्मस्मृतिज्ञान लभ्य हुआ! संशय निवृत्ति हुआ! अब तुम्हारा आज्ञापालन करूंगा!
संजय उवाच—
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थास्यच महात्मनः
संवादामिमश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणं 74
संजय ने कहा—
हे धृतराष्ट्र महाराज, इस् प्रकार मै श्रीकृष्णपरमात्मा और
महात्म अर्जुन का आश्चर्यचकित और रोमांचक करने इस् संभाषण को सुना है!
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यतमं परं
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतःस्वयं 75
यह गीताशास्त्र अतिरहस्य और अधिक श्रेष्ट है! इस् योगशास्त्र
श्रीकृष्ण परमात्मा को बोध किया! श्री वेदव्यासमहर्षि का अनुग्रह से, मै स्वयं
प्रत्यक्ष में सूना!
राजन् संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतं
केशवार्जुनयोः पुण्यम हृष्यामि च मुहुर्मुहुः 76
हे धृतराष्ट्र महाराज, आश्चर्यजनक और पुण्यप्रद इस्
श्रीकृष्णार्जुन संभाषण को विचार कर करके आनंदप्राप्ति कररहा हु!
ताच्चा संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः
विस्मयोमे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः
पुनः 77
हे धृतराष्ट्र महाराजा, श्रीकृष्ण का
वैसा अद्भुत दिव्यरूप को पुनः पुनः स्मरण करते हुए मुझे अरिमित आश्चर्य होता है!
मै पुनः पुनः परमानंद प्राप्ति कररहा हु!
यत्रयोगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो
धनुर्थरः
तत्र श्रीर्विजयो भूतिः ध्रुवा
नीतिर्मतिर्मम 78
जहा योगीश्वर श्रीकृष्ण भगवान और गांडीव
धनुर्धारी अर्जुन होगा वहा सर्व विजयों, सकल ऐश्वर्यों और सुस्थिरनीति होगा—इति मेरा निश्चित अभिप्राय है!
गांडीव धनुर्धारी यानी मेरुदंडा को सीदा
रख के ध्यान करने साधक को सर्व विजयों, सकल ऐश्वर्यों और सुस्थिरनीति होगा—यानी आत्मजय को सर्वसिद्धि होता है!
जहा योगीश्वर श्रीकृष्ण भगवान जैसा
सद्गुरु और अर्जुन जैसा साधक होगा तब आत्मजय अवश्य लभ्य होगा!
ॐ तत् सत्
इति श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योग शास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
मोक्षसन्यासयोगोनाम अष्टादशोऽध्यायः
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