Kriya 1 in Hindi (क्रिया 1)
ओं श्री योगानंद
गुरुपरब्रह्मने नमः
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके
बैठिए! कूटस्थ मे दृष्टि रखे! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए!
शरीर को थोडा ढीला रखीए! खेचरी मुद्रा में रहिये! मुह पूरा खोलके
ही रखना चाहिये! जीब को पीछे मूड के तालु में रखना चाहिए! इसी को खेचरी मुद्रा
कहते है!
महामुद्रा:
गुरुमुखतः ए सब सीखना अत्युत्तम है!
खेचरी मुद्रा में दोनों टांगे पूरा खोल के बैठना चाहिये! बाया
पैर का एडी मोड़ के गुदस्थान का नीचे रख के खेचरी मुद्रा में बैठना चाहिए! श्वास
छोडते हुए दहिने पैर सीदा रखना चाहिये! अब दोनों हाथों का अंगुलियां से दहिने पैर
का अंगुलियां को पकड़ना चाहिये! उसी समय में शिर को झुक के दहिने पैर घुटन का उप्पर
रखना चाहिये! पैर को सीदा रखना चाहिए झुकना नही चाहिए!
खेचरी मुद्रा में रह के पूरा मुह खोल के रख के श्वास को अंदर
खींचते हुए दहिने पैर पीछे खींच के दहिने पैर का एडी को मोड़ के गुदस्थान का नीचे
रख के खेचरी मुद्रा में बैठना चाहिए! श्वास छोडते हुए बाया पैर सीदा रखना चाहिये!
अब दोनों हाथों का अंगुलियां से बाया पैर का अंगुलियां को पकड़ना चाहिये! उसी समय
में शिर को झुक के बाया पैर घुटन का उप्पर रखना चाहिये! पैर को सीदा रखना चाहिए
झुकना नही चाहिए!
खेचरी मुद्रा में रह के पूरा मुह खोल के रख के श्वास को अंदर
खींचते हुए दहिने पैर पीछे खींच के बाया पैर पूरा पीछे खींच के दहिने पैर का साथ
जोडके दोनों पैरो का घुटने एक साथ मिलाके बैठना चाहिए! अब दोनों हाथो का अंगुलियां
से दोनों पैरों को चारों ओर से पकडके शिर झुक के दोनों पैरों का घुटने का उप्पर
रखना चाहिये!
खेचरी मुद्रा में रह के पूरा मुह खोल के रख के श्वास को बाहर
छोडते हुए दोनों पैरों को सीदा करते हुए बैठना चाहिए! अब दोनों हाथों का अंगुलियां
से दोनों पैरों का अंगुलियां को पकड़ना चाहिये! उसी समय में शिर को झुक के दोनों
पैरों का घुटने का उप्पर रखना चाहिये! पैरों को सीदा रखना चाहिए झुकना नही चाहिए!
अब खेचरी मुद्रा में रहते हुए पूरा मुह खोल के रख के श्वास को श्वास को अंदर
खींचते हुए दोनों पैरों पीछे लेके बैठना चाहिए! अब एक महामुद्रा पूरी हुए है! ऐसा तीन बार करना चाहिए! यानी तीन मुद्रा पूरा
करना चाहिए!
क्रिया 1:
मनुष्य शरीर मे
72,000 सूक्ष्म नाडीयाँ होते है! इन नाडीयाँ मे इडा ( बाये तरफ), पिंगला दाये तरफ
और बीच मे सुषुम्ना नाडी मेरुदंड मे होते है! इडा(गंगा), पिगला (यमुना) और
सुषुम्ना(सरस्वती) तीनों मेरुदंड मे मूलाधारचक्र से शुरु होकर आज्ञा पाजिटिव चक्र
तक जाती है! आज्ञा पाजिटिव से सिर्फ सुषुम्ना नाडी आगे बढकर सहस्रार चक्र मे रुक
जाती है!
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके
बैठिए! कूटस्थ मे दृष्टि रखे! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए!
शरीर को थोडा ढीला रखीए! खेचरी मुद्रा में रहिये! मुह पूरा खोलके
ही रखना चाहिये! जीब को पीछे मूड के तालु में रखना चाहिए! इसी को खेचरी मुद्रा
कहते है! श्वास अंदर को खींचना चाहिए! श्वास मेरुदंड का बीच में सुषुम्ना सूक्ष्म
नाडी का माध्यम से मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनहता, विशुद्ध, आज्ञा नेगटिव, आज्ञा पाजिटिव यानी कूटस्थ तक आरोहणा क्रम में जारहे कर के भावना करना
चाहिए! मन और दृष्टि उस
अंदर श्वास का उप्पर केंद्रीकृत करना चाहिए! इस श्वास को शिव बीज मंत्र और सोम
कहते है!
श्वास छोडने का समय में उस श्वास मेरुदंड का बीच में सुषुम्ना
सूक्ष्म नाडी का माध्यम से आज्ञा पाजिटिव, आज्ञा
नेगटिव, विशुद्ध, अनहता, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, और मूलाधार चक्रों से अवरोहणा क्रम में जारहे कर के भावना करना चाहिए! मन और
दृष्टि उस अंदर श्वास का उप्पर
केंद्रीकृत करना चाहिए! इस श्वास को शक्ति बीज मंत्र और अग्नि कहते है!
इस
प्रकार श्वास को
मेरुदंड का बीच में सुषुम्ना सूक्ष्म नाडी का माध्यम से मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनहता, विशुद्ध, आज्ञा नेगटिव, आज्ञा पाजिटिव यानी
कूटस्थ तक आरोहणा क्रम में जाना और श्वास
को मेरुदंड का बीच में सुषुम्ना
सूक्ष्म नाडी का माध्यम से आज्ञा पाजिटिव, आज्ञा
नेगटिव, विशुद्ध, अनहता, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, और मूलाधार चक्रों से अवरोहणा क्रम में बाहर भेजने को क्रिया कहते है!
ऐसा क्रिया करने से साधक को पवित्र ॐकार नाद सुनाई देगा! वेद का अर्थ
सुनाईदेना, विधि का अर्थ धर्मं, यानी वेदविधि का अर्थ ॐकार नाद सुनाई सुनाईदेना!
षण्मुख मुद्रा:-
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके
बैठिए! कूटस्थ मे दृष्टि रखे! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए!
शरीर को थोडा ढीला रखीए! खेचरी मुद्रा में रहिये! मुह पूरा खोलके
ही रखना चाहिये! जीब को पीछे मूड के तालु में रखना चाहिए! इसी को खेचरी मुद्रा
कहते है!
श्वास अंदर को खींचना चाहिए! श्वास मेरुदंड का बीच में सुषुम्ना
सूक्ष्म नाडी का माध्यम से मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनहता, विशुद्ध, आज्ञा नेगटिव, आज्ञा पाजिटिव यानी कूटस्थ तक आरोहणा क्रम में जारहे कर के भावना करना
चाहिए! मन और दृष्टि उस
अंदर श्वास का उप्पर केंद्रीकृत करना चाहिए!
अब दोनों कानों को दोनों अंगुष्ठ अंगुलियों से, दोनों नेत्रों
को दोनों तर्जनि अंगुलियों से, दोनों नासिका रंध्रों को दोनों मध्यमा अंगुलियों
से उप्पर होठ अनामिका अंगुलि से, और नीचे होठ
कनिष्ठ अंगुलि से तुरंत
बंद करना चाहिए! मन और दृष्टि कूटस्थ में केंद्रीकृत करना चाहिए!
अंतःकुंभक अपना अपना शक्ति का मुताबिक़ करना चाहिए! कूटस्थ का अंदर का
अद्भुतप्रकाश को अवलोकन करना चाहिए! इसी को तीसरा नेत्र कहते है! बाहर पीला रंग
(ॐकार), अन्दर नीला रंग(श्री कृष्ण चैतन्य), और उस का अन्दर रजित
रंग(परमात्मचैतन्य) का पांच भुज नक्षत्र दिखाई देता है! साधक उस परमात्मचैतन्य में
घुस के जाना चाहिए!
अब श्वास को छोडते हुए उस श्वास मेरुदंड का बीच में सुषुम्ना सूक्ष्म
नाडी का माध्यम से आज्ञा पाजिटिव, आज्ञा
नेगटिव, विशुद्ध, अनहता, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, और मूलाधार चक्रों से अवरोहणा क्रम में बाहर जारहे कर के भावना करना चाहिए! ऐसा तीन बार करना चाहिए! यानी तीन मुद्रा पूरा
करना चाहिए! अब ध्यान में निमग्न करना चाहिए!
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