श्रीमद्भगवद्गीता part 10 to 12 हिंदी
ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेनमः
श्रीभगवद्गीत अथ दशमोऽध्यायः
विभूतियोगः
श्री
भगवान् उवाच—
भूययेव महाबाहो शृणु में परमं वचः
यत्तेहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया 1
श्री
भगवान् ने कहा—
हे
बलवान अर्जुन, मेरा बातों सुन के तुम संतुष्ट होरहा है! इसीलिए तुम्हारा हित के लिए पुनः पुनः
जो श्रेष्ट वाक्यों कहरहा हु उन् को
श्रद्धा से सुनो!
न मे विदुः सुरगणाः प्रभावं न महर्षयः
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः 2
मेरा उत्पत्ति को देवगणों नहीं जानते है! महर्षियों भी नहीं
जानते है! मै उन् देवगणों और महर्षियों का कारणभूत हु!
इस का अर्थ वे जानते हुए नहीं जानता है करके प्रवर्तित करते
है! नेगटिव फिल्म का माध्यम से प्रोजेक्टर का कांटी किरणों प्रसारित होने से
सिनेमा पर्दा का उप्पर तस्वीरों दिखाईदेता है! समय और आकाश नाम का पर्दा का उप्पर
माया नाम का फिल्म का माध्यम से परमात्मा प्रकाश जाने से तब सृष्टि व्यक्तीकरण
होता है! मा बाप अपन अपना बच्चों का आनंद के लिए उन् का साथ खेलते और आनंद लेते
है! इसी प्रकार माया का द्वंद्व प्रकृति जाना गया महर्षियों परमात्म लीला को
आस्वादन करते है और आनंद लेते है!
योमामजमनादिंच वेत्तिलोक महेश्वरं
असम्मूढस्समार्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते! 3
जो मनुष्य मुझको जन्मरहित, अनादिरूपी, और समस्तलोक नियामक इति
समझता है, वह मनुष्यों में अज्ञानरहित होंकर सर्व पापों से विमुक्त होता है!
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमश्चमः
सुखं दुखम भवोभावो भयंचाभयमेवच 4
अहिंसासमता तुष्टिस्तपोदानं यशोयशः
भवन्ति भावभूतानां मत्तयेव पृथग्विधाः 5
बुद्धि, ज्ञान, मोहराहित्य, सहिष्णुता, सत्य, बाह्येंद्रियानिग्रह,
अन्तारेंद्रियानिग्रह, सुख, दुःख, जन्म, मरण, भय, भयराहित्य,
अहिंस, संतुष्टि, तपस, दान, कीर्ति, अपकीर्ति, इस प्रकार
प्राणीयों का विविध प्रकार गुणों मेरा हेतु उत्पन्न होते है!
इस का अर्थ मनुष्य का शुभ, अशुभ, और मिश्रम, लक्षणों परमात्मा
का हेतु संभव होरहे करके नहीं है, केवल अपना अपना कर्मो ही कारण है!
दो अगोचर परस्पर विरुद्ध वायु हैड्रोजन्(Hydrozen) और प्राणवायु(oxygen) दोनों मिलाके गोचर पानी उत्पन्न होता
है!
समस्त दृश्य जगत् निराकारनिर्गुण परब्रह्म से ही व्यक्तीकरण
हुआ है! इस सकल चराचर जगत् माया से ही उद्भव होरहा है!
प्रकाश सूर्य का अन्तर्भाग है! वैसा ही माया परब्रह्म का
अन्तर्भाग है! सृष्टि का हेतु माया, माया का आधार परमात्मा है! सर्वव्यापक
परब्रह्म का जानकारी योगी को माया दिखाई नहींदेगा, माया देखने मनुष्य को परब्रह्म
दिखाई नहीं देता है!
माया त्रिगुणसहित है! सत्व, रजस् तमो गुणों का त्रिपुटी माया
है!
माया को अविद्या, निर्धारणकरने अशक्य है इसीलिए अव्यक्त है,
सृष्टि का अंदर का समस्त तत्वों को कल्पना करती है इसीलिए प्रकृति करके, कल्पांत
में इस समस्त सृष्टि माया में विलीन होता है इसीलिए प्रळय करके, सृष्टि का
उपादानकारण है इसीलिए प्रधान नाम में, ज्ञान का व्यतिरिक्त है इसीलिए अज्ञान इति
विविध नामों में माया को पुकारते है! वासनामय और जड़रूपी माया में ब्रह्म प्रवेश
करने से ही चैतन्यवंत होता है!
अयस्कांत का कारण अयस्कांतक्षेत्र बनता है! इसक्षेत्र लोहे का
छीजों को आकर्षित करता है! इधर अयस्कांत साक्षी यानी चैतन्यब्रह्म का प्रतीक है!
अयस्कांतक्षेत्र जडरूपी माया का प्रतीक है! अयस्कांत(चैतन्यब्रह्म) होने से ही
अयस्कांतक्षेत्र (जडरूपी मायाक्षेत्र) व्यक्तीकरण होता है!
जडरूपी माया सृष्टी का हेतू है! इस माया को योगमाया,
निश्चालाब्रह्मा का चित् शक्ती, देवी, प्रकृति, मूल अज्ञान, मूल प्रकृति और
अविद्या इत्यादि नामो से बुलायाजाता है!
सत्वगुणप्रधानी माया में शेष रजो तमो गुणों निद्राण स्थिति में
रहता है! परमात्म का अन्तर्भागी माया
से ही सृष्टि उद्भव हुआ है! नदियां, समुद्रों इत्यादियों से पानी बाष्प में बदल
जाके पुनः उनी में वापस मिलजाता है! वैसा ही प्रळयांत में सृष्टि माया में
मिलाजाजे, पुनः युग प्रारंभ में उसी माया से आविर्भाव होता है! ब्रह्म में एक भाग
है मया, शेष तीन भाग निर्गुणब्रह्म है!
महार्षयस्सप्तपूर्वे चत्वारो मनवस्तथा
मद्भावा मानसाजाता येषां लोक इमा प्रजाः 6
इस लोक में लोग जिस का संतान है, वैसा पुराणा सप्तमहर्षियों,
सनकादी चार देवर्षियों और 14 मनुवों मेरा दैवभावयुक्त होंकर मेरा ही
संकल्प से उत्पन्न हुए हि!
इस समस्त सृष्टि परमात्मा यानी सृष्टि का अतीत सत् से ही
व्यक्तीकरण हुआ है! सत् से ही सृष्टि का अंदर का परमात्मा यानी परमात्मा का
सर्वशक्तिमान शुद्धचैतन्य कूटस्थचैतन्य और महाप्रकृति और उन् का छे प्रकार का
समिष्टिकारण, समिष्टि सूक्ष्म और समिष्टि
स्थूल, व्यष्टि कारण, व्यष्टि सूक्ष्म और व्यष्टिस्थूल चेतना रुपों में आविर्भाव
हुआ!
महाप्रकृति और छे चेतनों मिलाके सप्तमहर्षियों कहते है! वे है
मरीची, अंगीरस, पुलह, करतू, पुलस्त्य और वशिष्ट!
सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार वे चारों सृष्टिकर्ता ब्रह्मा
का आदिमानसपुत्रों करके आविर्भाव हुआ! उन्हों से शेष जीवसृष्टि आविर्भाव हुआ! वे
सब परमात्म का शुद्ध निर्माणात्मक महाप्रकृति करके कहते है!
सनक का अर्थ प्रप्रथम, सानंद का अर्थ संतोष, सनातन का अर्थ
नित्य और सनत्कुमार का अर्थ नित्य यौवन!
परंतु इस ब्रह्मा का आदिमानसपुत्रों सनक सनंदनादियों का शुद्ध
और अनाड़ीपन् का कारण वे संतानोत्पाती के लिए इष्ट नहीं हुए!
परंतु नित्यासंतोषि परमात्मा और महाप्रकृति का अंतर्गत आनंद मिलके सत्व रजो तमो
गुणों व्यक्तीकरण हुए! इन तीनों गुणों महाप्रकृति में निश्चल सरोवर का पानी जैसा
शांत है! परंतु रजो गुण का चंचल अथवा स्पंदनासहित गुणों बाकी स्थितिवंत सत्व गुण
और लय अथवा नाश् करने तमो गुण का भी स्पन्दनावृत कर दिया! अपना स्पंदनों से रजोगुण
सृष्टि क कारण हुआ! इसीलिए इस को ब्रह्म कहते है! स्थितिवंत सत्व गुण को विष्णु
कहते है! लय कारण का हेतु तमो गुण को शिव कहते है!
महाप्रकृति का अंदर का अनेक रुपों में अनुभूति होने इच्छा अपना
अंतर्गत आनंद को इन् तीन सत्व रजो तमो गुणों में चार प्रधान निर्माणात्मकभावों (Ideas) रगडता है! वे है ॐकार स्पंदन(vibration),समय(Time), देश(Space), और अणु(the idea of division
of one into many)
यानी एक ही परमात्मा को अनेक रुपों में विभाजन करना!
स्वयंभुव, स्वारोचिष, औत्तमि, तमासा, रैवत, चक्षुषा, वैवस्वत,
सावर्णि, दक्षसावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, धर्मंसावर्णि, रूद्रसावर्णि, रौच्य अथवा
देवसावर्णि, भैत्य अथवा इंद्रसावर्णि इति 14 मनु है! हर एक मनु एक एक मन्वंतर को
आदिपुरुष है! एक मन्वंतर पूर्ती होने पर् प्रळय संभव होता है! तत् पश्चात दूसरा
मन्वंतर प्रारंभ होता है! वर्त्तमान में वैवस्वत मन्वंतर चलरहा है! वैवस्वत का
अर्थ परमात्मा प्रकाश, मनु का अर्थ मन, इस मन का माध्यम से ही चेतानायुत मनुष्य
आविर्भाव होता है!
एताम् विभूतिं योगं
च ममयोवेत्ति तत्वतः
सोविकंपेन योगेन युज्यते नात्र संशयः 7
मेरा ए विभूति, एैश्वर्य, विस्तार, अलौकिक योगशक्ति को जो साधक
यदार्थ रूप में जानता है वह निश्चलयोगयुक्त होता है! इस विषय में किंचित् भी संदेह
नहीं है!
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते
इति मतवा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः 8
परमात्मा ही इस समस्त जगत का उत्पत्ती कारक है! इन का हेतु इस
समस्त जगत चलता है! वैसा जानके विवेकवान साधक जानके परिपूर्ण भक्ती भाव से उन् को भज
रहा है!
मच्चित्तामद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परं
कथायाततश्च माम नित्यं तुष्यंति च रमंति च 9
मेरा में मन लगन हुए साधकों, मेरे में अपना प्राण अर्पित करके
परस्पर बोधन करते है, आपस में चर्चा करते है! सदा संतृप्ति और आनंद प्राप्त करते
है!
तेषांसततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकं
ददामि बुद्धियोगं तम येन मामुपयांतिते 10
सदा मेरे में मन लगन करके, प्रीती से मुझ को साधकों भजता है!
वैसा साधकों को मेरे प्राप्ति करने ज्ञानयोग को देताहू!
तेषामेवानुकम्पार्थ महामज्ञानजं तमः
नाशयाम्यात्मभावस्थोज्ञानदीपेनभास्वता! 11
वैसा भक्तों को दया दिखाने मै खुद उन् का अंतःकरण में विराजमान
होता हु! प्रकाशमान ज्ञानदीप से अज्ञानजन्य अंधकार को नाश् करता हु!
अर्जुन
उवाचा—
परंब्रह्म परंथाम पवित्रं परमं भवान्
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजंविभुं 12
आहुस्त्वां ऋषयस्सर्वे देवर्षिर्नारयस्तथा
असीतोदेवालोव्यासस्वयं चैव ब्रवीषि में 13
अर्जुन ने कहा—
हे कृष्णा, तुम ही परब्रह्म, परमथाम, नित्य, प्रकाशस्वरूप,
परमपुरुष, आदिदेव, जन्मरहित उर सर्वव्यापक है! वैसा सर्व ऋषियों, देवर्षि नारद,
असित, देवल, वेदव्यास महर्षि, कहा रहा है! स्वयं तुमभी तुम्हारा बारे में वैसा ही
मुझे कहरहा है!
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव
नहिते भगवन् व्यक्तिं
विदुर्देवानदानवाः 14
हे कृष्णा, झो कुछ भी तुम मुझे कहरहे हो वों सब सत्य समझता हु!
हे भगवन, तुंहारा निजस्वरूप देवताओं अथवा असुरों नहीं जानासकते है!
सर्व जगत परमात्मा चैतन्य से हे व्यक्तीकरण हुआ है! देवताओं
यानी अद्भुत मंगळ सूक्ष्मशक्तियों अथवा असुरों यानी अमंगळ सूक्ष्मशक्तियों नहीं
जानासकते है!
स्थूलशरीर त्यग किया सूक्ष्म और कारण शरीर पुण्यजीवों को और
पंचभूतों को देवताओं कहते है! स्थूलशरीर त्यग किया सूक्ष्म और कारण शरीर
दुष्टजीवों को असुरों कहते है!
इन्ही को परमात्माका अवगाहन नहीं होता है! अज्ञानतायुक्त
साधारण जीवों को परमात्माका अवगाहन और दुस्साध्य है!
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थत्वं पुरुषोत्तम
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते 15
हे पुरषश्रेष्ठा, समस्त प्राणीयों का सृष्टिकरता, सकल जीवों को
नियामका, देवताओं को देवता, जगन्नाथा, तुंहारा बारे में केवल तुम्ही जानते है! तुंहारा
स्वरुप इतरों जानना दुर्ग्राह्या है!
वक्तुमार्हस्य शेषण
दिव्याह्यात्म विभूतयः
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्टसि 16
जिस माहात्म्य विस्तारों से तुम इन समस्त लोकों में व्याप्त
किया हुआ है? तेरा उन् दिव्य विभूतियों को संपूर्णरीति में कहने को तुम्ही शाक्य
है!
कथं विद्यामहं योगिस्त्वां सदा परिचिंतयन्
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योसि भगवन्मया 17
योगेश्वर, मै सर्वदा जिस प्रकार तुम को ध्यान करते तुम को
जानेगा? जिस जिस वस्तुओं में तुम को ध्यान कर सकता है?
परब्रह्म को अनेक रुपों में साधना करने को सगुणोपासना कहते है!
ए सुलभा साध्य है!परब्रह्म को एक ही रुपों में साधना करने को निर्गुणोपासना कहते
है! ए कष्ट साध्य है! साधक का संदेह ए है कि सगुणोपासना करना अथवा निर्गुणोपासना है? सगुणोपासना का माध्यम से
निर्गुणोपासना करना उत्तम है!
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिंच जनार्दन
भूयः कथयत्रुप्तिर्हि श्रुण्वतो नास्ति मेमृतं 18
हे कृष्णा, तुम्हारा योगमहिमा, ध्यानानीय वस्तुओं,
जगाल्लीलाविभूतियों को सविस्तर पुनः मुझे समझावो! क्योंकि तेरा अमृत वाक्यों को
सुनने से संतृप्ती नहीं लगरहा है, और सुनने को कुतूहल होरहा है!
श्रीभगवान् उवाच—
हंतते कथयिष्यामि दिव्याह्यात्म विभूतयः
प्राधान्यतःकुरुश्रेष्ठनास्त्यन्तो विस्तरस्य में 19
श्रीभगवान् उवाच—
कुरुवंश श्रेष्ठ अर्जुन, अब मेरा दिव्य विभूतियों में मुख्य जो
है उन् को प्राधान्यता का मुताबिक़ तुझ को कहा रहाहू क्योंकि वे अनंत है!
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशया स्थितः
अहमादिश्च मध्यं भूतानमंत एवच 20
हे अर्जुन, समस्त प्राणो का हृदय में स्थित प्रत्यगात्म मै हु
और प्राणो का आदिमध्यांत और सृष्टि स्थिति लय भी मै हु!
गुडाकेश का अर्थ निद्रा को जयकिया मनुष्य! माया नाम का निद्रा
को जय किया हुआ साधक ही सर्वं परमात्मा ही इति समझसकता है!
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी 21
मै आदित्यों में विष्णु, प्रकाशमान करने छीजों में किरणोंवाले
सूर्य हु, मरुत देवाताओं में मरीची हु, नक्षत्रों में चंद्र हु!
इस सन्दर्भ में महेश्वर सूत्रों को दिया हु!
महेश्वर सूत्रोँ
अइउण् ऋळुक् एओय् ऐओच्
हयवराट् लण् ङ्यमण्णनम्
जबगाडदस् खपचठदव् कपय्
इन शब्दों का हेतु अच्, हल्, और संयुक्ताक्षर बने है!
सूक्ष्म प्राणशक्ति में ज्ञान और शक्ति दोनों है! इस का मूल
सहस्रार में है! 49
मुख्य उपवायुवों का मूल सूक्ष्म प्राणशक्ति है!
हर एक उपवायु को अपना अपना विशेष विधियों है! आज्ञा चक्र
द्वारा विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान और मूलाधार चक्रों में बांटा हुआ है!
इन चक्रों का माध्यम से नस केन्द्रों और उन का माध्यम से विविध अवयवों को बांटा
हुआ है!
½ स्थूल वायु = समिष्टि स्थूल व्यान वायु
|
1/8 स्थूल वायु +1/8 स्थूल आकाश = स्थूल समिष्टि सामान वायु
1/8 स्थूल वायु +1/8 स्थूल अग्नि = स्थूल समिष्टि उदान वायु
1/8 स्थूल वायु +1/8 स्थूल जल = स्थूल समिष्टि प्राण वायु
1/8 स्थूल वायु +1/8 स्थूल पृथ्वी = स्थूल समिष्टि अपान वायु
|
पञ्च प्राण
|
स्थान
|
प्राण (विशुद्ध)
|
गलेमें,
|
अपान(मूलाधार)
|
गुदस्थान
|
व्यान(आनाहत)
|
सर्वशारीर
|
उदान
|
पिट्यूटरी
|
सामान (मणिपुर)
|
नाभि
|
उपवायु
|
स्थान
|
नागा
|
गलेमें(डकार आनेका हेतु)
|
कूर्म
|
पलकों को चलाने हेतु
|
कृकर
|
छींक आनेका हेतु
|
देवदत्त
|
उबासी हेतु
|
धनञ्जय
|
स्थूलशरीर पतनानंतर 10 मिनट तक शारीर को गरम रखने हेतु.
|
परमपूजनीय परमहंस श्री श्री योगानान्द स्वामीजी का करचरणकृतं
श्रीमद्भगवद्गीता में योगीराज श्री श्री लाहिरी महाशय प्रसादीत चक्रों का चित्रों
में इन उप्पर दियाहुआ मरुतों का बारे में प्रास्तावन किया! इस चित्र में लिपि
बंगाली भाषा में है! उन को यथा तथा मैंने नीचे दिया हु! अगर इन में कुछ दोष होने
से मुझे क्षमा कीजियेगा क्योंकि वों मेरा अवगाहन में कमी है!
मरुतों प्रधान में साथ है, वे
1) आव्हा, 2) प्रवाह, 3) विवह, 4) परावः, 5)उद्वाह, 6)संवह और 7) परिवाह(मरीचि)
49 उपवायुवों को ऐसा उप्पर दिया हुआ साथ
प्रधान मरुतों में विभाजित किया है!
ये मरुतों मनुष्य का शारीर का अंदर और बाहर ब्रह्माण्ड में भी
है!इसीलिए शारीर का और ब्रह्माण्ड का सम्बन्ध होता है! ऐसा ही मन और
शारीर का भी सम्बन्ध होता है!
ब्रह्मपदार्थ ही ऐसा 49 उपवायुवों का रूप में व्यक्त होगया! इस
ज्ञान का कमी का हेतु वर्त्तमान अस्तव्यस्त और आयोमय स्थिति! ए ज्ञान होने से
कोईभी व्याकुलता नहीं होतीहै!
1)
प्रवह
श्वासिनी टाना महाबल,
2)
परिवह
विहग उड्डीयान ऋतवाह
3)
परिवह
सप्तस्वर शब्दस्थिति
4)
परिवह
प्राण निमीळन बहिर्गमन त्रिशक्र
5)
परावह
मातरिश्वा अणु सत्यजित
6)
परावह
जगत् प्राण ब्रह्मऋत
7)
परावह
पवमानक्रियार् परावस्थ ऋतजित्
8)
परावह
नवप्राण प्राणरूपो चित्वहित् धाता
9)
परावह
हमि मोक्ष अस्तिमित्र
10) परावह सारङ नित्यपतिवास
11) परावह स्तंभन सर्वव्यापिमित
12)
प्रवह
श्वसनश्वास प्रश्वासादि ईंद्र
13) प्रवह सदागति गमनादौगति
14) प्रवह प्रवदश्यस्पर्शशक्तिअद्रुश्यगति
15) प्रवह गंधवाह अनुष्ण अशीत ईदृक्ष
16) प्रवह वाह चलन वृतिन
17) प्रवह वेगिकंतभोगकाम
18) उद्वह व्या न जृंभण आकुंचन प्रसारण
द्विशक्र
19) आवह गंधवह गंधेर् अणुके आने त्रिशक्र
20) आवह अशुग शैघ्रं अदृक्ष
21) आवह मारुत भित्तरेर् वायु अपात्
22) आवह पवन पवन अपराजित
23) आवह फणिप्रिय ऊर्ध्वगति धृव
24) आवह निश्वासक त्वगिन्द्रिय व्यापि
युतिर्ग
25) आवह उदान उद्गीरण सकृत्
26) परिवह अनिल् अनुष्ण अशीत अक्षय
27) परिवह समिरण पश्चिमेर् वायु सुसेन
28) परिवह अनुष्ण शीतस्पर्श पसदीक्ष
29) परिवह सुखास सुखदा देवदेव
30) विवह वातव्यक् संभव
31) विवह प्रणति धारणा अनमित्र
32) विवह प्रकंपन कंपन भीम
33) विवह समान पोषण एकज्योति
34) उद्वह मरुत उत्तरदिगेर् वायुसेनाजित्
35) उद्वह नाभस्थान अपंकज अभियुक्त
36) उद्वह धुनिध्वज अदिमित
37) उद्वह कंपना सेचना दर्ता
38) उद्वह वासदेहव्यापि विधारण
39) उद्वह
मृगवाहन विद्युत् वरण्
40) संवह चंचल उत्क्षेपण द्विज्योति
41) संवह पृषतांपति बलंमहाबल
42) संवह अपान क्षुधाकर अधोगमन एकशक्र
43) विवह स्पर्शन स्पर्श विराट्
44) विवह वात तिर्यक् गमन पुराणह्य
45) विवह प्रभंजन मन पृथक् सुमित
46) संवह अजगत् प्राण जन्म मरण अदृश्य
47) संवह आवक् फेला पुरिमित्र
48) संवह समिर प्रातःकालेर् वायुसङमित
49) संवह
प्रकंपन गंधेर अणुके आने मितासन
विभाजन
अ)
1) प्रवह श्वासिनी टाना महाबल,
12) प्रवह श्वसनश्वास प्रश्वासादि ईंद्र
13)प्रवह सदागति गमनादौगति
14) प्रवह पृवदश्यस्पर्शशक्तिअद्रुश्यगति
15)प्रवह गंधवाह अनुष्ण अशीत ईदृक्ष
16) प्रवह वाह चलन वृतिन
17) प्रवह वेगिकंतभोगकाम
आ)
2) परिवह
विहग उड्डीयान ऋतवाह
3) परिवह
सप्तस्वर शब्दस्थिति
4)परिवह
प्राण निमीळन बहिर्गमन त्रिशक्र
26) परिवह
अनिल् अनुष्ण अशीत अक्षय
27) परिवह
समिरणपश्चिमेर् वायु सुसेन
28) परिवह
अनुष्ण शीतस्पर्श पसदीक्ष
29)परिवह
सुखास सुखदा देवदेव
इ)
5) परावह मातरिश्वा अणु सत्यजित
6) परावह जगत् प्राण
ब्रह्मऋत
7) परावह पवमानक्रियार्
परावस्थ ऋतजित्
8) परावह नवप्राण
प्राणरूपो चित्वहित् धाता
9) परावह हमि मोक्ष अस्तिमित्र
10)परावह सारङ नित्यपतिवास
11) परावह स्तंभन
सर्वव्यापिमित
ई)
18) उद्वह व्या न जृंभण
आकुंचन प्रसारण द्विशक्र
34) उद्वह मरुत
उत्तरदिगेर् वायुसेनाजित्
35) उद्वह नभस्थान अपंकज अभियुक्त
36) उद्वह धुनिध्वज अदिमित
37) उद्वह कंपना सेचना दर्ता
38) उद्वह वासदेहव्यापि विधारण
39) उद्वह
मृगवाहन विद्युत् वरण्
उ)
19)आवह गंधवह गंधेर् अणुके आने त्रिशक्र
20)आवह अशुग शैघ्रं अदृक्ष
21) आवह मारुत भित्तरेर्
वायु अपात्
22) आवह पवन पवन अपराजित
23)आवह फणिप्रिय ऊर्ध्वगति धृव
24) आवह निश्वासक त्वगिन्द्रिय व्यापि
युतिर्ग
25)आवह उदान उद्गीरण सकृत्
ऊ)
30) विवह वातिव्यक् संभव
31) विवह प्रणति धारणा अनमित्र
32) विवह प्रकंपन कंपन भीम
33) विवह समान पोषण एकज्योति
43)
विवह स्पर्शन स्पर्श विराट्
44)
विवह वात तिर्यक् गमन पुराणह्य
45) विवह प्रभंजन मन पृथक् सुमित
ऋ)
40) संवह चंचल उत्क्षेपण
द्विज्योति
41)संवह पृषतांपति बलंमहाबल
42)संवह अपान क्षुधाकर अधोगमन एकशक्र
46)संवह अजगत् प्राण जन्म मरण अदृश्य
47) संवह आवक् फेला पुरिमित्र
48) संवह समिर
प्रातःकालेर् वायुसङमित
49) संवह प्रकंपन गंधेर
अणुके आने मितासन
हर चक्र में विविध अक्षरों होते है! हर चक्रों में जो अक्षरों
होते है ए सारे अक्षरों सहस्रार चक्र में होते है यानी सब अक्षरों का मूलस्थान
सहस्रार्चाक्र है!
इन चक्रों का संबंधित अक्षरों और वायु नीचे दिया है!
A)
आज्ञा
1) प्रवह श्वासिनी टाना महाबल,
B)
विशुद्ध
2)
परिवह
विहग उड्डीयान ऋतवाह
3)
परिवह
सप्तस्वर शब्दस्थिति
4)
परिवह
प्राण निमीळन बहिर्गमन त्रिशक्र
5)
परावह
मातरिश्वा अणु सत्यजित
6)
परावह
जगत् प्राण ब्रह्मऋत
7)
परावह
पवमानक्रियार् परावस्थ ऋतजित्
8)
परावह
नवप्राण प्राणरूपो चित्वहित् धाता
9)
परावह
हमि मोक्ष अस्तिमित्र
10) परावह सारङ नित्यपतिवास
11) परावह स्तंभन सर्वव्यापिमित
12)
प्रवह
श्वसनश्वास प्रश्वासादि ईंद्र
13) प्रवह सदागति गमनादौगति
14) प्रवह प्रवदश्यस्पर्शशक्तिअद्रुश्यगति
15) प्रवह गंधवाह अनुष्ण अशीत ईदृक्ष
16) प्रवह वाह चलनवृतिन
17) प्रवह वेगिकंतभोगकाम
C) आनाहत
18) उद्वह व्यान जृंभण
आकुंचन प्रसारण द्विशक्र
19) आवह गंधवह गंधेर्
अणुके आने त्रिशक्र
20) आवह अशुग शैघ्रं
अदृक्ष
21) आवह मारुत भित्तरेर्
वायु अपात्
22)आवह पवन पवन अपराजित
23) आवह फणिप्रिय
ऊर्ध्वगति धृव
24) आवह निश्वासक त्वगिन्द्रिय व्यापि
युतिर्ग
25) आवह उदान उद्गीरण
सकृत्
26)परिवह अनिल् अनुष्ण अशीत अक्षय
27) परिवह समिरण पश्चिमेर् वायु सुसेन
28) परिवह अनुष्ण शीतस्पर्श पसदीक्ष
29) परिवह सुखास सुखदा देवदेव
D) मणिपुर
30) विवह वातिव्यक् संभव
31) विवह प्रणति धारणा अनमित्र
32) विवह प्रकंपन कंपन भीम
33) विवह समान पोषण एकज्योति
34) उद्वह मरुत उत्तरदिगेर् वायुसेनाजित्
35) उद्वह नभस्थान अपंकज अभियुक्त
36) उद्वह धुनिध्वज अदिमित
37) उद्वह कंपना सेचना दर्ता
38) उद्वह वासदेहव्यापि विधारण
39) उद्वह मृगवाहन विद्युत् वरण्
E) स्वाधिष्ठान
40) संवह चंचल उत्क्षेपण द्विज्योति
41) संवह पृषतांपति बलंमहाबल
42) संवह अपान क्षुधाकर अधोगमन एकशक्र
43) विवह स्पर्शन स्पर्श विराट्
44) विवह वात तिर्यक् गमन पुराणह्य
45) विवह प्रभंजन मन पृथक् सुमित
F) मूलाधार
46) संवह अजगत् प्राण जन्म मरण अदृश्य
47) संवह आवक् फेला पुरिमित्र
48) संवह समिर प्रातःकालेर् वायुसङमित
49) संवह प्रकंपन गंधेर अणुके आने
मितासन
मेष, वृषभ, मिथुन, कर्काताका, सिंह, कन्य, तुला, वृश्चिक,
धनुष, मकर, कुम्भ और मीन क्रमशः बारह राशि है! सूर्य एक एक मास् में एक एक राशि
में संचारण करता है! इसी को संक्रमण कहते है! इस प्रकार एक वर्ष में बारह संक्रमण
होते है! इन् बारह संक्रमणों बारह सूर्यप्रकाशो अथवा द्वादश आदित्य कहते है!
द्वादश आदित्य अदिति का पुत्रों है! वे
1)धाता, 2)मित्र, 3)आर्यमा, 4)शक्र, 5)वरुण, 6) अंशु, 7)भगु,
8) विवस्वंत 9) पूष, 10) सवित, 11) त्वष्ट और 12)विष्णु
भारत देश का परिपालन करने इस देश को अनेक राष्ट्रों में
विभाजित किया है! लोकसभा और राज्यसभा करके
पार्लियामेंट और लिखित राज्यांग को बनाया! उन् सभाओं में प्रजाप्रतिनिथियों
चर्चा का पश्चात शासन बनाता है! उन् शासनों प्रजाहित के लिए लागू करने एक केंद्रीय
मंडली होता है! उस् मंडली में प्रधानमंत्री तदितर मंत्रीयों होते है! उन् शासनों देशाव्याप्ति में अमल करने हर एक
राष्ट्र में राष्ट्र शासनसभाएं एवं
राष्ट्रमंत्रिमंडलियों होते है! पश्चात् केंद्र और राष्ट्र सरकारों का
अधिकारीयों होते है!
वैसा ही परमात्मा अपना जगत् पालन के लिएअपने आप को विविध रुपों
में व्यक्तीकरण किया! उन् का भाग है इन कहागया विभूतियाँ!
पृथ्वी का चारों दिशाओं में विविध प्रकार का वायु भ्रमण करता
है! प्राण अपान समान व्यान समान और उड़ान वायु व्यक्तीकरण हुआ! उन् में से नागा, कूर्म,
कृकर, देवदत्त और धनंजय इति उपवायु व्यक्तीकरण हुए! इन में से 39
और वायु व्यक्तीकरण हुए! पृथ्वी का मनुष्य शरीर! इसीलिए हमारा शरीर में प्राणशक्ति
का अलावा 49 उप वायु बनगया है!
इन में से मुख्यावायु को मरीची अथवा मरुत् कहते है! सप्त
ऋषियों में मरीची एक है! मानवशरीर मे मुख्य सप्तप्राणों सप्त ऋषियों है! इन्
सप्तप्राणों 49 मरुत बनगया है!
नाग गल्ले मे डकार आने हेतु है!
कूर्म आँखों
का पलकें का गति का हेतु है!
कृकर छींकने का हेतु है!
देवदत्त उबासियाँ आनेका हेतु है!
धनञ्जय सर्व शरीर में, आखरी में स्थूलशरीर पतनानंतर भी शरीर
में रहा के प्राण निकालने का दस मिनट तक स्थूलशरीर को गरम रखता है! .
वेदानां सामवेदोस्मि
देवानामस्मि
वासवः
इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना 22
मै वेदों में सामवेद हु, देवताओं में वासव यानी इंद्र हु,
इंद्रियों में मन हु और प्राणीयों में चेतना हु!
वेदा का अर्थ सुनना, साम का अर्थ निश्शब्द, इसीलिए निश्शब्द
में सुनाइदेने ॐकार ही सामवेद है!
अनुपूर्वि(एक क्रम पद्धति में शब्द उच्चारण करना), संधि(पदयुगळ
में पालन करने नियमों) और सनातन(अक्षर पठने पद्धति, इन् छीजों सामवेद पठन में
मुख्य है! ए अंतर्मुख होने को सहायता करता है! प्रत्येकाक्षर को एक प्रत्येकत और
आध्यात्मिक स्पंदन होते है!
इंद्रियों को अधीन किया हुआ साधक ही वासव यानी इन्द्र है!
इंद्रियों का राजा मन है! मन ही देखता है, सुनता है सुनता है और सब अनुभव करता है!
गौतम सद्गुरु है! उन् का शिष्य है उन् का भार्या अहल्या!
अहल्या का मन विछलित होके अस्थिर हुआ है! मन ही इंद्रियों का राजा इन्द्र है!
अस्थिर मन को स्थिर करो करके भरता और गुरु गौतम आदेश करता है! न हल्य=अहल्या, यानी स्थिर होके पत्थर जैसा रहो तब तुम को यानी
अहल्या को श्रीराम यानी परमात्मचैतन्य से अनुसंथान हो जाएगा करके बोलता है!
त्रेतायुग में श्रीरामचंद्रजी अपना पैर से स्थिर होके पत्थर जैसा रहा अहल्या को
स्पर्शन करके अपना साथ अनुसंथान करता है!
रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसां
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुश्शिखारिणामहं 23
मै रुद्रो में शंकर हु, यक्षों और राक्षसों में कुबेर हु,
वसुवों में अग्नि हु और पर्वतो में मेरु हु!
रुद्रों ग्यारह है! इन एकादश रुद्रों—हरा, बहुरूप, त्रयम्बक, अपराजिता,
वृषाकपि, शंभु, कपर्थी, रैवत, मृगव्याथ, सूर्य और कपालि!
मन, पंच ज्ञानेंद्रियों(त्वचा, चक्षु, श्रोत्र, जिह्वा और
घ्राण) और पंच कर्मेंद्रियों(पाणी, पादं, हाथों, गुदास्थान और उपस्थ यानी शिशिनं)
सब मिलाके एकादश रुद्रों कहाजाता है! मन ही इंद्रियों का मुख्य शंकर है!
वे अष्ट वसु है! वे—1)धर,
2)ध्रुव, 3) सोम, 4)अहु, 5)अनिल,
6) अनल, 7)प्रत्यूष और 8)प्रभास
इन ज्ञानवंत आठ मुख्य शक्तियों में पवित्र करनेवाले और प्रकाश
देने अग्नि अथवा प्रभास अतिमुख्य है!
मेरुदंड का अग्रभाग भेजा(Cerebrum) में परमात्मा आत्मरूप में राजारूप में
रहता है! मेरुदंड अग्रभाग को मेरु कहते है! मेरुदंड में पाञ्च चक्रों होता है! ए
आत्म का राज्य है! इस राज्य द्वारा शरीरापालन होता है!
पुरोथसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ ब्रुहस्पतिं
सेनानीमहं स्कंदससर्वसामस्मि सागरः 24
हे अर्जुन, पुरोहितों में श्रेष्ठ बृहस्पति करके मुझ को जानो!
सेनानायकों में स्कंद यानी कार्तिकेय हु! सरोवरों में समुद्र हु!
बृहस्पति को ही ब्रह्मणस्पति कहते है! वेदों में इन् का द्वारा
ही स्रुष्टि विस्तारण माया द्वारा होता है! बृहस्पति साधकों को माया से रक्षण देता
है! सद्गुरुओं का प्रतिनिथि है!
स्कंद का अर्थ साधक का आत्मनिग्रहशक्ति नाम का! सेनानायक है!
नारायण का अर्थ चारोओर व्याप्ति होनेवाले, शेष का अर्थ
निर्माणात्मकशक्ति है! जल् का अर्थ पंचभूतों, इन् पंचभूतों को निर्माणात्मकशक्ति
साथ देने से स्रुष्टि होता है! समुद्र परमात्मा का अनंतत्व का चिह्न है!
महर्षीणां भृगुरहंगिरामस्म्येकमक्षारं
यज्ञानां जपयज्ञोस्मि स्थावराणां हिमालयः 25
मै महर्षियों भृगुमहर्षि हु, वाक्कों में एकाक्षर प्रणवाक्षर
ॐकार हु, यज्ञों में जपयज्ञ हु स्थिरापदार्थों में हिमालयपर्वत हु!
महर्षि का अर्थ मुक्त हुआ साधक! बहुत महर्षियों संसार में रहने
को इष्ट नहीं होते है! परंतु कुछ महर्षियों संसार में रहने से भी केवल परमात्म के
लिए ही अपरिछ्छिन्न होके रहते है! भृगुमहर्षि वैसा ज्ञानि है!
सृष्टि का मूलकारण ॐकार है! ॐकार उच्चारण का माध्यम से
परमात्मा का साथ अनुसंथान होना ही जपयज्ञ हु!
अश्वत्थः वृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः
गंधर्वाणां चित्ररथः
सिद्धानां कपिलोमुनिः 26
मै वृक्षों में अश्वत्थ वृक्ष हु, देवर्षियों में नारद हु,
गंधर्वों में
चित्ररथ हु और सिद्धों में कपिल मुनि हु!
मनुष्य केवल भौतिक आहार में आधार होके जी नहीं सकता है!
परमात्मशक्ति और अपना शरीर का अंदर का परमात्म चेतना दोनों अत्यंत आवश्यक है!
अश्वत्थ वृक्ष का जड़ों भूमि का उप्पर होते है! वैसा ही मनुष्य का शिर का केशों,
नाड़ीयां, मेडुल्ला(Medulla), सूक्ष्म और कारण शरीर यांटिना (Antennae) सभी परमात्म चेतना से ही अपना शक्ती
लभ्य करता है!
ना रथ का अर्थ शरीररहित है! हर एक मनुष्य को कुछ न कुछ
निश्शब्द समय में आत्मावलोकन करने समय में सुनाई देने शब्द ही ॐकार है! वह
परमात्मा ही है!
चित्ररथ का अर्थ कूटस्थ में रहने तीसरा आँख है! कपिल मुनि
सांख्य सिद्धांतकर्तो में मुख्य है!
उच्चैश्रवसमश्वानां विद्धिमाम्रुतोद्भवं
एैरावतं गजेंद्राणां
नराणांच नराधिपं 27
अश्वो में अमृत का साथ उद्भव हुआ उच्चैश्रवसम आश्व, औनती
हाथियों में एैरावत और मनुष्यों में राजा भी मै हु!
उच्चैश्रवसम= उप्पर जानेश्रवसम यानी प्राणशक्ति
शिर से नीचे जाने प्राणशक्ति मन को इंद्रियों का दिशा में
लेजाके ‘मै
दिव्यात्मस्वरूप हु’ भावना को भूलजाने देता है और भौतिकता
का साथ जोड़ देता है! केवल क्रियायोग माध्यम से अथोमुख होंकर भौतिकता साथ जोड़ा हुआ
प्राणशक्ति को ऊर्ध्वमुख करके मेरुदंड स्थित चक्रों द्वारा शिर में लेजाके आध्यात्मिकता
का ओर लेजाता है! तब मनुष्य जनम का सार्थकता यानी अंतरार्थ क्या है पता चलता है!
एैरावत—हाथी अथवा गज ज्ञान का प्रतीक है!
इसीलिए गजब का आदमी कहते है! एैरावत का अर्थ पूरब, मनुष्य का ललाट पूरब है! ललाट
ज्ञान का प्रतीक है!
मनुष्यों में राजा यानी योगीराज, परमात्मा मनुष्य का कूटस्थ
सिंहासन में बैठने राजा है!
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्
प्रजनश्चास्मि कंदर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः 28
मै आयुधों में वज्रायुध हु! गायियों में कामधेनु मै हु,
धर्मबद्ध प्रजोत्पत्ति का कारणभूत मन्मथ और सर्पो में वासुकी मै हु!
साधक का प्राणशक्ति नियंत्रण ही माया को जय करने वज्रायुध है!
खेचरीमुद्र में साधक जीब को पीछे ताळु में लगाके क्रियायोग
करता है! वैसा साधना करने साधक को सब कुछ देने छीज है कामधेनु!
कुण्डलिनी शक्ती यानी निर्माणत्मकशक्ति निद्राण जब होता है, तब
वह इंद्रियों को उत्तेज करके कामापूरिता करता है! जब उस् कुण्डलिनी शक्ती को
योगसाधना का माध्यम से जागृती करके सहस्रार का ओर दिशा निर्देशन करने से
आध्यात्मिक औनती मिलता है! मेरुदंड द्वारा सहस्रार का ओर चलनेवाली पवित्र विद्युत
को वासुकी कहते है!
अनंताश्चास्मि नागानां
वरुणोयादसामहं
पित्रूणामर्यमा चास्मि यमस्संयमतामहं 29
मै नागों में अनंत हु, जलदेवतों में वरुण हु, पित्रुदेवताओं
अर्यामायी और नियामक करनेवालों में यम हु!
व्यष्टि में माया शेषनाग को वासुकी कहते है! समिष्टि में माया
शेषनाग को अनंत कहते है! इस माया शेषनाग अनंत का उप्पर भगवान विष्णु लेटता है!
माया स्वयं जड़ है! उस् को चैतन्य देनेवाला विष्णु है! वरुण समुद्रदेवता है! लहरों
सब समुद्र से ही व्यक्तीकरण होता है! वैसा ही समस्त व्यक्तीकरणों का हेतु परमात्मा
ही है! स्थूल सृष्टि का कारण सूक्ष्म सृष्टि है!
आर्यामायी सूक्ष्मलोक का निर्माणात्मक प्रकाश यानी पिताओं का
पिता है!
यम का अर्थ आत्मनिग्रह है!
समय पूर्ती होने का बाद यम
स्थूलशरीर से क्रमशिक्षण का साथ
कालनियम को पालन करते हुए नियमानुसार प्राण निकलता है!
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहं
मृगाणां मृगेंद्रोहं वैनतेयश्च पक्षीणां 30
मै असुरों में प्रह्लाद हु, गिननेवालों में समय हु, मृगों में
मृगराज सिंह हु और गरुत्मंत हु!
तब तक राक्षसगुण होने
से भी क्रियायोग साधना से ह्लाद का साथ साधक प्रह्लाद होता है! मनुष्य अपना स्वप्न
में देश और कालों में बहुत समय और अनेक छीजों अल्प समय में अनुभव करता है!
परमात्मा का स्वप्ना है इस समस्त जगत! जगत, देश और समय सभी देश और काल का अतीत है! भूत और
भविष्यत् परमात्मा को वर्त्तमान ही है!
सिंह तीन वर्षों में एक बार कामकेलि में भाग लेटा है! साधक
वीर्य को अथोमुख नहीं करके ऊर्थ्वमुख करके मृगराज सिंह जैसा नियंत्रण करना चाहिए!
पक्षियों में गरुत्मंत हु! मृगों उर पक्षियों में जब वह मुख्य
होने से शेष मृगों उर पक्षियों भी वोही है!
‘ग’ शब्द ज्ञान को प्रतीक है! ज्ञान(‘ग’)रूढ़
इसीलिए गरुड है!
पवनः पवतामस्मि रामश्शस्त्र भृतामहं
झषाणाम् मकरश्चास्मि श्रोतासामस्मिजाह्नावी 31
मै पवित्र करने छीजो में वायु हु, आयुधाधारियो में श्री
रामचंद्र, मछलियों में घड़ियाल और नदियों में गंगा नदी हु!
हम जो श्वास लेरहा है उस् को पवित्र करके प्राणशक्ति नियंत्रण
के सहायता करके परमात्मा का साथ अनुसंथान करनेवाला साधना क्रियायोग साधना! उस्
साधना को सहायता देकर पवित्र करने वायु परमात्मा हे है! .
क्रियायोग साधना में आटंको को निकालने आयुध है ॐकार उच्चारण!
उच्चारण किया ॐकार नाम का एक अक्षर वृधा नहीं जाएगा!
ब्रह्माण्ड में नकारात्मकशक्तियों को नाश् करते रहेगा! ॐकार परमात्म का प्रतीक है!
श्रीरामचन्द्रजी भी परमात्म का प्रतीक है! श्रीराम का एक ही बाण और एक ही वाक्
ॐकार, ॐ बाण ही रामबाण है!
साधना में अपना मन का इच्छाओं नाम का मत्स्यों को खाने घड़ियाल
परमात्मा ही है! मनुष्य का अंदर सुषुम्ना का माध्यम से प्रवाहित ज्ञानामृत नाम का
पवित्र गंगानदी भी परमात्मा ही है!
सर्गानामादिरंतश्च मध्यं चैवाहमर्जुन
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादप्रवदतामहं 32
हे अर्जुन, सृष्टियों का उत्पत्ती, स्थिति और लय यानी
आदिमध्यांत भी मै हु! विद्यों में अध्यात्मविद्य मै हु और रागद्वेषरहित तत्व
निश्चय और निर्धार करने वाद करनेवालों में वादा भी मै ही हु!
अक्षराणामकारोस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्यच
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः 33
मै अक्षरों में ‘अ’कार हु, समासों में द्वंद्वसमास हु, काल
का काल महाकाल हु और समस्त को धार के पोषण करने विराटपुरुष् भी मै ही हु!
अच् और हल् करके अक्षरों दोप्रकारा का है! अच् का सहायता का
वजह से हल् का अस्तित्व होता है! प्रणववाचक ॐकार ‘अ’ कार, ‘उ’ कार और ‘म’ कार संयुक्त है! उन् में प्रथमाक्षर ‘अ’
यानी आदि परमात्मा ही है! धर्मबद्ध स्त्री पुरुष संयोग द्वंद्वसमास हेतु परमात्मा
ही है!
मृत्युस्सर्व हरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यतामहं .
कीर्तिश्श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेथाध्रुतिः क्षमा 34
समस्त को संहार करने मृत्यु और भविष्यत में उत्पत्ती होने
समस्त जीवों का अस्तित्व भी मै हु, स्त्रीयों में सप्त गुणों यानी कीर्ति,
संपत्ति, वाक्, स्मृतिज्ञान, धारणाशक्तियुक्त बुद्धि, धैर्य और सहिष्णुता मै हु!
सृष्टि रजोगुण, स्थिति सत्वगुण और मृत्यु अथवा लय तमो गुण का
प्रतीकों है! वों तीनों परमात्मा का प्रतीक है! सृष्टि पिता और स्थिति पुत्र है!
वों दोनोँ परमात्मा ही है!
परमात्मा का स्वप्न अथवा माया प्रकृति को स्त्री अथवा
दिव्यमाता करके कहते है! उस् दिव्यमाता का सप्तगुणों परमात्मा ही है!
बृहत्सामतथा साम्नां गायत्री छंदसामहं
मासानां मार्गशीर्षोहं ऋतूनां कुसुमाकरः 35
सामवेदगान में बृहत्साम हु, छंदसों में गायत्री हु, मासों
मेंमार्गशीर्ष मास् हु और ऋतुओं में वसंतऋतु मै हु!
बृहत् का अर्थ अधिक, साम का अर्थ मेथस्, ए सब परमात्मा
ही!
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहं
जयोस्मि व्यवसायोस्मि सत्वं सत्ववातामहं 36
वंचकव्यापारों में मै जुआ हु, तेजोवंतो में तेजस् हु, जितने
वालों में जय हु, प्रयत्नाशीलों में प्रयत्न हु और सात्विकों का सत्वगुण भी मै
हु!
परमात्मा का माया ही सबसे बढ़कर वंचकव्यापार है! उस् माया से
बचनेको परमात्मा हम को इच्छाशक्ती दिया है!
वृष्णीनां वासुदेवोस्मि पाण्डवानां धनंजयः
मुनीनामप्यहम् व्यासः कवीनामुशना कविः 37
मै वृष्णी वंशी यों में वासुदेव पुत्र वासुदेव हु, पाण्डवों
में अर्जुन हु, मुनियों में वेदव्यास हु और कवियोँ में शुक्राचार्य हु!
दंडोदमयितामस्मी नीतिरस्मि जिगीषितां
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहं 38
दन्डन देने लोगों का दन्डन, जयोपाय नीति, रहस्यों में मौन और
ज्ञानवंतों में ज्ञान भी मै हु!
मानावा न्यायदंडन से लोग बचसकते है परंतु कर्म सिद्धांत
परमात्म न्यायदंडन से लोग बचना असंभव है! परमात्म को मौन यानी निश्शब्द में ही
पासकते है! ओही असली रहस्य है!
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन
नतदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरं 39
हे अर्जुन, समस्त प्राणियों को जो छीज मूलकारण है वों मै हु!
स्थावर जंगमात्मक वस्तु कोई भी मुझे बिना अस्तित्व नहीं है!
नांतोस्तिममादिव्यानां विभूतीनां परंतप
एषतूद्देशतः प्रोक्तोविभूतेर्विस्तरोमया 40
हे अर्जुन, मेरा इन दिव्या विभूतो को अंत नहीं है! परंतु कुछ
कुछ संक्षिप्त में विवरणात्मक कहदिया!
यद्याद्विभूति मत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेववा
तत्तदेवाव गच्छत्वं ममतेजोंशसंभवं 41
इस प्रपंच में एैश्वर्ययुक्त, कांतिवंत, उत्साहपूरित, शक्तिवंत
वस्तु अथवा प्राणी जो भी है, वों सब मेरा तेजस् का अंश का हेतु उत्पन्न हुआ है
करके जानो!
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नामेकांशेन स्थितो जगत् 42
हे अर्जुन, इस से अधिक जाना के प्रयोजन क्या है? इस संपूर्ण
जगत् को केवल मेरा योगशक्त का मात्र एकांश से व्याप्त हुआ हु!
ॐ तत्
सत् इति श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योग शास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
विभूतियोगोनाम दशमोऽध्यायः
ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेनमः
श्रीभगवद्गीत अथ एकादशोऽध्यायः
विश्वरूपसंदर्शनयोगः
श्री
अर्जुन उवाच—
मदनुग्रहाय
परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितं
यत्वयोक्तं
वचस्तेन मोहोयं विगतोमम
1
श्री
अर्जुन ने
कहा—
हे कृष्णा, मुझको अनुग्रह करने के लिए सर्वोत्तम आध्यात्म
रहस्य बोध जो कहे हो उस् से मेरा अज्ञान् पूर्णरूप में निकलगया!
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशोमया
त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययं 2
क्योंकि कमलनेत्र कृष्णा, तुंहारा हेतु प्राणियोंकी उत्पत्ती
और विनाशों का बारे और तुंहारा माहात्म्य भी सविस्तर सुना हु!
एवमे तद्यथात्थत्वमात्मानं परमेश्वर
द्रश्तुमिच्चामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम! 3
हे परमेश्वर, तुम्हारा बारे में तुम जो कुछ भी कहा है ओ सब सच
करके मै विश्वास कररहा हू! हे पुरुषोत्तम, तुम्हारा ईश्वर संबंधी विश्वरूप को अब
मै देखना चाहता हु!
साधक का साधना तीव्रतर होने से शास्त्रपठन परिमित ज्ञान का जगह में प्रत्यक्ष अनुभव पाने के इष्ट
करता है!
मन्यसे यदितच्चक्यं मयाद्रष्टुमिति प्रभो
योगेश्वर ततोमे त्वं दर्शयात्मान मव्ययं 4
प्रभू, उस् तुम्हारा स्वरुप को देखने मुझे साध्य है करके तुम
समझने से हे योगेश्वर, तुम्हारा वो नाशरहित विश्वरूप को मुझे दिखावो!
अब तीव्रध्यानपर आर्तजन अर्जुन यानी साधक अपना लक्ष्य परमात्मा
का अनुसंथान को अभिलाषी होरहा है!
श्री भगवान उवाचा—
पश्यमे पार्थ रूपाणि शतशोथ सहस्रशः
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनिच 5
श्री भगवान उवाचा—
हे अर्जुन, अनेक प्रकारी, अलौकिक, विविधवर्णों और आकारों वाली,
असंख्याकी मेरा रुपों को देखो!
पश्यादित्यान् वसून् रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत! 6
हे अर्जुन, सूर्यो, वसुवों, रुद्रों, अश्विनीदेवतों और
मरुत्तों को देखिए! वैसा ही और बहुत आश्चर्यों को देखो जो अब तक कभी नहीं
देखाहो!
अर्हत पाया साधक को परमात्मा अपना अपरिमित सब वोही हुआ,
सर्वशक्तिमान विश्वरूप को दिखाराहे है!
इहैकस्थं जगत्क्रुत्स्नं पश्याद्यासचराचरं
ममदेहेगुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्चसि 7
हे अर्जुन, इस समस्त चराचरप्रपंच को और जिस जिस को देखना चाहते
हो उन् सभी को मेरा शरीर में एक ही जगह में देखो!
कूटस्थ स्थित परमात्म साधक का कूटस्थ में खुला ज्ञाननेत्र में
विश्वरूप को दिखा रहा है!
नचमाम् शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा
दिव्यं ददातिमे चक्षुः पश्यमेयोगमैश्वरं 8
तुम्हारा इस मांसमया नेत्रों से तुम मेरा विश्वरूप देखने न
शक्य है! इसीलिए ज्ञाननेत्र को प्रसादित
कररहा हु! इस से ईश्वरसंबंधी मेरा योगमहिमा को देखो!
साधक अपना तीव्रध्यान में दोनों नेत्रों का बीच कूटस्थ में रहा
ज्ञाननेत्र को खोलसकता है! वैसा नेत्र से ही साधक सर्वलोकपालक ईश्वरसंबंधित योगमहिमा को देख्सकता है!.
संजय उवाचा—
एवमुक्त्वा ततो राजन् महायोगेश्वरो हरिः
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरं 9
संजय ने कहा—
हे धृतराष्ट्र महाराज, महायोगीश्वर श्रीकृष्ण इस प्रकार बताके
तत् पश्चात् अपना ईश्वरसंबंधित विश्वरूप को अर्जुन को दिखाया!
साधाकू का माया को नाश्(हरी) करने परमात्मा को यहाँ हरी करके
बतायागया!
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनं
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधं 10
दिव्यमाल्यांबरधरं दिव्यगंधानुलेपनं
सर्वाश्चर्यमयं देवमनंतम विश्वतोमुखं 11
अनेकप्रकार के नेत्रों, अद्भुत विषयों दिखाने वाले, अनेक
दिव्याभरणायुक्त, दिव्य पुष्पमालायुक्त, वस्त्रों पहना हुआ, दिव्य चन्दन धारा हुआ,
अनेक आश्चर्यों से भरा हुआ, प्रकाशमान, अंतरहित और हर दिशामे मुख हुआ अपना
विश्वरूप को भगवान ने दिखाया!
दिविसूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता
यदिभास्सदृशीसास्याद्भासस्तस्य महात्मनः 12
आकाश में हजारों सूर्य्यो का प्रकाश एकबार आने से जितना कांति
होता है उस् कांति उन् भगवान का समान नहीं है!
ए एक क्रियायोग साधक का रूप में मेरा तीव्रध्यान में बहुत बार
अनुभव किया हु!
तत्रैकस्थं जगत्क्रुस्त्नं प्रविभक्तमनेकथा
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पांडवस्तथा 13
तब अर्जुन ने नानाविध विभाजन किया समस्त जगत को श्रीकृष्ण
भगवान शरीर में एक ही जगह मे रहा जैसा देखा!
इस् स्थिति साधक को प्रत्यक्ष में तीव्रध्यान में मिलेगा करके
मेरा अनुभव है!
ततः सा विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः
प्रणम्यशिरसा देवं कृतांजलिरभाषत 14
तत् पश्चात आर्जुन अचम्भा और रोमांचक हुए! विश्वरूप धारा हुआ
भगवान को शिर झुक के नमस्कार किया और इस प्रकार उद्वेगपूर्वक कहा!
अर्जुन उवाचा—
पश्यामि देवांस्तव देवादेहे सर्वांस्तथा भूताविशेषसंघान्
ब्रह्माणमीशं कमालासनस्थमृषींश्चसर्वासुरगांश्च दिव्यान् 15
अर्जुनने कहा—
देवा, तुम्हारा शरीर में ही समस्त देवताओं को, वैसा ही चराचर
प्राणी समूहों को, कमलासन सृष्टिकर्ता ब्रह्मदेव को, समस्तऋषियों को और दिव्यसर्पो
को देख रहा हु!
हर एक मनुष्य में मलद्वार का साथ कुण्डलीनी सर्प यानी
निर्माणात्मक शक्ती रहता है! उस् शक्ती मेरुदंडा का माध्यम से नीचे दिशा में
प्रवाह करने से इंद्रियों को तृप्ति करता है और संसारबंधन में लगजाता है! वोई
मेरुदंडा का माध्यम से उप्पर चक्रों का दिशा में प्रवाह करने से परमात्मा का
अनुसंथान करके दिव्यसर्प बनजाता है!
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामित्वां सर्वतोनंतरूपं
नांतं न
मध्यं नपुनस्तवादिंपश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप 16
प्रपंचाधिपति जगाद्रूपा, तुम को सर्वत्र अनेक हस्तों, मुखों,
नेत्रों और अनंतरूप करके देखरहा हु! तुम्हारा आदि, मध्य और अंत दिखाईनही देरहा है!
हमारा शरीर में हर एक कण हमारा रूप और लक्षणों को विशादीकराने
प्रतिनिधि है! वैसा ही भगवान का विश्वशारीर में प्रत्येक मनुष्य और प्राणी एक एक
कण है!
किरीटिनंगदिनं चक्रिणं तेजोराशिं दीप्तिमनंतं
पश्यामित्वां दुर्निरीक्ष्यं
समंताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयं 17
तुमको हर जगह में किरीताधारी रूप में, गदाधर रूप में,
कान्तिपुंज जैसा, समस्त में प्रकाशित रूप में, ज्वाला अग्नि और सूर्य का कांति
जैसा, अपरिमित और अपरिच्छिन्न जैसा देखा रहा हु!
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानं
त्वमव्ययश्शाश्वत धर्मागोप्तासनातनस्त्वं पुरुषोमतोमे 18
तुं जाननीय
सर्वोत्तम अक्षरपरब्रह्म है, जगत का आधारभूत है, नाशरहित है, शाश्वतधर्मो का रक्षक
है और तुम पुराणपुरुष है!
परमात्म को प्रत्यक्ष में वीक्षण करने तीव्र साधक का परिस्थिति
है यह!
अनादिमध्यांत मनंतवीर्यमनंतबाहुं शशि सूर्यनेत्रं
पश्यामित्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसाविश्वमिदं तपंतं 19
तुम को आदिमध्यांतरहित, अपरिमितसामर्थ्य, अनेक हस्तों वाला
जैसा, चंद्र सूर्य तुंहारा नेत्रों जैसा, तुंहारा मुख प्रज्वलित अग्निहोत्र जैसा
और स्वकीय तेजस् का माध्यम से इस सर्व
प्रपंच को तापमान करने जैसा देखता हु!
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरंहि व्याप्तंत्वयैकेन दिशश्चा सर्वाः
दृष्ट्वाद्भुतंरूपमुग्रंतवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं
महात्मन 20
हे महात्मा, भूम्याकाशो का इस समस्त प्रदेश को और दिशाओं सब
केवल तुम अकेला से ही व्याप्त किया है! भयंकर और आशार्ययुकता तुम्हारा इस रूप को
देख के तीनों लोकों अधिक भीत हुए!
परमात्मचेतन अपरिमित है!
अमीहित्वांसुरसंघाविशंति केचिद्भीताःप्रान्जलयो ग्रुणंति
स्वस्तीत्युक्त्वामहर्षिसिद्धसंघाःस्तुवंतित्वांस्तुतिभिःपुष्कलाभिः21
देवातासमूहों सब तुम्हारा में प्रवेश
कररहे है! कुछ देवताओं भीति से
तुम को हाथों जोडके तुम को स्तुती कररहे है! महर्षों और सिद्धो का समूहों जगत को
क्षेमं भूयात् खाके संपूर्ण स्तोत्रों से तुम को स्तुती कररहे है!
रुद्रादित्यावसवो येच साध्याविश्वेनौमरूतश्चोष्मपाश्च
गंधर्वयक्षासुरसिद्धसंघावीक्षंते त्वां विस्मिताश्चैव
सर्वे 22
रुद्रों, सूर्यो, वसुवो, साध्यो(साधना करने साधकों),
विश्वेदेवताओं(ऋषियों), अश्विनी देवताओं(द्वंद्वों का हेतु अंधेरा और प्रकाश),
गंधर्वों, असुरों और सिद्धो का संघों अचंभित होके तुम को देख रहे है!
रूपम्माहत्तेबहुवक्त्रनेत्रं महाबाहोबहुबाहूरुपादं
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः
प्रव्यथितास्तथाहं 23
महा बलवान् कृष्णा, अनेक मुखों, नेत्रों, अनेक उदरो, अनेक
दांतों से विराजमान तुम्हारा भयंकर रूप को देखके समस्त लोगों को अधिक भय लगरहे है
और मुझको भी लगरहे है!
नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रं
दृष्ट्वाहित्वांप्रव्यथितांतरात्माधृतिंनविंदाविशमंचविष्णो 24
हे विष्णुमूर्ति, आकाश को स्पर्शन करने तुम्, प्रकाशित, बहुत
रंगों से विराजमान, खुलाहुआ मुखोंवाली, ज्वालामुखी जैसा विशालानेत्रोंवाले तुम को
देख कर ढराहुआ मन से धैर्य और शांति को प्राप्ति नहीं कररहा हू! .
दंष्ट्राकरालानिच ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि
दिशोनाजानेलभेचशर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास 25
बड़ा बड़ा दांतों से तुम्हारा मुख प्रळयाग्नि जैसा दिखता है! उस्
को देख के मै दिग्भ्रम होके बैठा हु! सुख भी प्राप्त नहीं कररहा हु! हे वासुदेव,
जगादाश्राया, प्रसन्ना होंकर अनुग्रह प्राप्ति करो!
अमीचत्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहिवावानिपालसंघैः
भीष्मद्रोणस्सूतपुत्रस्तथासौसहस्मदीयैरपि योधमुख्यैः 26
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशंति दंष्ट्राकरालान भयानकानि
केचिद्विलग्ना दशनांतरेषु संदृश्यंते चूर्णितैरुत्तामांगैः 27
हे श्रीकृष्णा, धृतराष्ट्र क पुत्रों सब, भीष्म, द्रोण, कर्ण,
उनका सेना में उपस्थित समस्त राजसमूहों, वैसा ही अपना सेना में उपस्थित समस्त
राजप्रमुखों तुम को अतिशीघ्रता से पहुंचाते हुए तुम्हारा बड़ा बड़ा दांतों से
विराजित भयंकर मुखों में प्रवेश करते है! कुछ लोग इन दांतों में फसकर चूर्ण हुआ
शिरों से दिख रहा है!
यथा नदीनां बहुवोंभुवेगास्समुद्रमेवाभि मुखाद्रवंति
तथातवामीनरलोकवीरा विशंति वक्त्राण्यभिविज्वलंति 28
हे श्रीकृष्ण, जिस प्रकार नदीप्रवाहों समुद्राभिमुख होंकर उन्
में प्रवेश कररहा है, उसी प्रकार इस मनुष्य लोक का वीरों और राजाओं वैसा ही एक
पद्धती का अनुसार तुम्हारा ज्वालामुखी जैसा मुखों में निर्धारित रूप में प्रवेश कर
रहा है!
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः
तथैव नाशाय विशंति लोकास्तवासि वक्त्राणि समृद्धवेगाः 29
हे श्रीकृष्ण, जिस प्रकार कीडामकोडा अपना विनाश के लिए शीघ्र
वेग से प्रज्वरिल अग्नी में में प्रवेश कररहा है, वैसा ही उसी प्रकार मनुष्यों भी
शीघ्र गति से तुम्हारा मुखों में प्रवेश कर रहा है!
लेलिह्यसेग्रसमानस्समंताल्लोकन् समग्रान् वदानैर्ज्वलद्बिः
तेजोभिरापूर्यजगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपंतिविष्णोः 30
हे श्रीकृष्ण, जलाताहुआ तुम्हारा मुखों से सभी को खाते हुए
आस्वादन कररहा है! तुम्हारा भयंकर कांतियों अपना तेजस् का माध्यम से समस्त जगत में
व्याप्ति करके तापन कररहा है!
आख्याहिमेको भवानुग्ररूपो नमोस्तुते देववरप्रसीद
विज्ञतुमिच्छामिभवंतमाद्यंनहिप्रजानामितवप्रवृत्तिं 31
देवोत्तामा, भयंकराकार से विराजमान तुम कौन है मुझे बताओ!
तुम्हारा प्रवृत्ति नहीं जान रहा हु मै! आदिपुरुष तुम्हारा बारे में जानना चाहता
हु! तुम को नमस्कार, मुझे अनुग्रह करो!
सामनेवाले का बल और सामर्थ्य नहीं जानते हुए परिहास करके, बाद
में प्रत्यक्ष में अनुभव करके समझ हुआ मनुष्य क्षमादान मांगता है! वैसा ही अपरिमित
और अनंत परमात्मा दर्शन प्राप्त करने पश्चात साधक भय से प्रसन्नानुग्रह मांगने
परसिथिति है ए!
श्री भगवान उवाच—
कालोस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान् समाहर्तुमिह
प्रवृत्तः
ऋतेपित्वानभविष्यंति सर्वेयेवस्थिताःप्रत्यनीकेषुयोधाः 32
श्री भगवान ने कहा—
हे अर्जुन, मै लोकसंहारक और विजृंभित काल हु! प्राणियों का
संहारनिमित्त इस प्रपंच में प्रवर्तित होरहा हु! प्रतिपक्ष सेना में जो वीर है वे
तुम होने और नहीं होने, युद्ध करने से भी और नहीं करने से भी जीवित नहीं होंगे!
तस्मात्त्वत्तिष्ठयशोलभस्वजित्वाशत्रून् भुङ्क्ष्यराज्यं
समृद्धं
मयैवेतेनिहता पूर्वमेव निमित्तमात्रंभव सव्यसाचिन् 33
इसीलिए हे अर्जुन, उठो, शत्रुओं को जय करो, कीर्ति प्राप्त
करो,परिपूर्ण राज्य को अनुभव करो! ए सभी लोग मेरे से पहला ही मृत्यु होगया है, तुम
निमित्तमात्र होजवो!
भूत वर्तमान और भविष्यत कालों परमात्मा को अनुवर्तित नहीं होता
है! परमात्मा को सब कालों वर्तमान ही है! 500 पृष्ठ संख्या हुआ
उपन्यास का किताब पढ़ाई किया पाठक को 300 पृष्ठ में क्या हुआ पता है! वैसा ही
परमात्मा को सब कालों में क्या होना है पता है!
द्रोणं भीष्मंच जयद्रथंच कर्णं तथान्यानपियोधवीरान्
मयाहतांस्त्वंजहिमाव्यधिष्ठायुध्यस्वस्वजेतासिरणे सपत्नान् 34
हे अर्जुन, मेरे से पहले मारागया द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण
और इतर युद्ध वीरों को तुम मारो, ढरो मत, युद्ध करो, शत्रुओं को तुम जितासकते हो!
300 पृष्ठ में दुर्मार्ग खलनायक अभी तक
नहीं मरा है करके बाधा का वश हुआ पाठक जैसा स्थिति है यह! 402 पृष्ठ पढने से ही पता लगेगा! इस जगत
नाम का उपन्यास रचयित परमात्मा को सब कुछ पता है!
संजय उवाच—
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृतांजलिर्वेपामानः किरीटि
नमस्कृत्वा भूययेवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतःप्रणम्य 35
संजय ने कहा—
इन वाक्यों सुनकर भीताहुआ अर्जुन कांपते हुए हाथ जोडकर
श्रीकृष्ण को नमस्कार किया और विनम्रता से गद्गदस्वर् से अधिकाधिक भय से ऐसा कहा!
अर्जुन उवाच—
स्थाने हृषीकेश तवप्रकीर्त्याजगत्प्रह्रुष्यत्यनुरज्यतेच
रक्षांसिभीतानि दिशोद्रवंति सर्वेनमश्यंतिच सिद्धसंघाः 36
अर्जुन ने कहा—
हे श्रीकृष्णा, तुंहारा नाम का उच्चारण और महत्य को स्तुती
करने से लोक अधिकाधिक संतुष्टिदायक और प्रीतिदायक होरहा है! राक्षसों भय से
दिगंतों का दिशाओं में भाग रहे है! सिद्धसमूहों तुम को नमस्कार कर रही है! ए सब
तुंहारा महिमा को बराबर ही है!
कस्माच्चतेनामेरन्महात्मन् गरियन् ब्राह्मणों प्यादिकर्तरे
अनंतदेवेशजगन्निवास त्वमक्षरंसदसत्तत्परंयत् 37
महात्मा, अनंतारूपा, देवदेवा, जगादाश्रया, सत् और असत्तों,
स्थूल सूक्ष्म जगात्तों दोनों से अलग नाशरहित अक्षरपरब्रह्म तुम ही है! ब्रह्माजी
का भी आदिकारण तुम ही हो! इसीलिये तुम सर्वोत्कृष्ट हो, तुम को जनों नमस्कार क्यों
नहीं करेगा?
त्वमादिदेवःपुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परंनिधानं
वेत्तासि वेद्यंचपरंथामत्वया विश्वमनंतरूप 38
हे अनंतारूपा, श्रीकृष्णा, तुम ही आदिदेव, सनातान्पुरुष, इस्
समस्त प्रपंच को श्रेष्ठ आधार, सर्वज्ञ, समस्त लोगों को जानने का वस्तु और
सर्वोत्तमस्थान्, तुम से ही इस् समस्त जगत व्याप्ति किया हुआ है!
वायुर्यमोग्निर्वरुणश्शशांकप्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च
नमोनमस्तेस्तु सहस्रकृत्वःपुनश्चाभूयोपि नमोनमस्ते 39
हे श्रीकृष्ण, वायु, यम, अग्नी, वरुण, चंद्र, ब्रह्मदेव और
ब्रह्मदेव का पिता भी तुम ही हो! तुम को अनेक सहस्र नमस्कारों और पुनः नमस्कार!
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोस्तुते सर्वतायेवसर्वः
अनंतवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वंसमाप्नोषिततोसिसर्वः 40
सर्वरूपी श्रीकृष्णा, तुम को आगे, पीछे, चारों दिशाओं में तुम
को नमस्कार! अपरिमितसामर्थ्य और पराक्रमी तुम समस्त में पूर्णरूप में व्याप्ति हुआ
है! इसीलिए तुम सर्वरूपे हो!
सखेतिमत्वाप्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हेसखेति
अजानतामहिमानंतवेदं मयाप्रमादात्प्रणयेनवापि 41
याच्चापहासार्थमसत्क्रुतोसि विहाराशय्यासनाभोजनेषु
एकोथवाप्यच्युततत्समक्षं तत्क्षामयेत्वामहमप्रमेयं 42
हे नाशरहित श्रीकृष्णा, तुम्हारा इस् महिमा को नहीं जानते हुए,
गलती से, समीपता का कारण, मित्र समझ के हे कृष्णा, हे यादव, हे सखा, इत्यादि
संबोधनों से तुम को अलक्ष्य से जो कुछ भी कहा है मुझे क्षमा करो! हे अप्रमेय,
विहार करने समय, निद्रा का समय में, बैठने का समय में, भोजन का समय में, तुम्हारा
अकेलापन में अथवा इतरों का सामने जो कुछ भी परिहास अथवा अवमान किया अपराथों सभी को
मुझे क्षमा करो!
साधारण मानव परमात्मा का महिमा को नहीं जानते हुए जो मर्जी
प्रेलापन करता है! साधक होंकर तीव्रध्यान में परमात्मा को देखने पश्चात यदार्थ
ग्रहण करके क्षमापन मांगता है!
पितासिलोकस्य चराचरस्यत्वमस्य पूज्यश्च गुरूर्गरीयान्
नत्वत्समोस्त्यभ्यधिकः कुतोन्योलोकत्रयेप्यप्रतिमप्रभाव 43
असमान प्रभावी हे कृष्णा, तुम इस् चराचरात्मक प्रपंच को पिता
और पूजनीय सर्वश्रेष्ट गुरु का रूप में विराजमान है! तीन लोकों में तुम्हारा समान
कोई भी नहीं है! तब तुम को बढ़ के और एक कैसा होगा?
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधायाकायं प्रसादयेत्वामहमेश मीड्यं
पितेवपुत्रस्य सखेवसख्युः प्रियःप्रियायार्हसिदेवासोढुं 44
हे श्रीकृष्णा, तुम ईश्वर और स्तुतियों का योग्य है! इसी कारण
मै अपना शरीर को भूमि का उप्पर गिराके तुम को साष्टांगनमस्कार करके अनुग्रह करने प्रार्थन कररहा हु! देवा,
पुत्र का अपराथ पिता, मित्र का अपराथ मित्र और प्रेयसी का अपराथ प्रिय क्षमा करने
रीति मेरा अपराथक्षमा करो!
अदृष्टपूर्वं ह्रुषितोस्मिदृष्ट्वा भयेनच प्रव्यथितं ममोमे
तदेवमे दर्शयदेवरूपं प्रसीददेवेश जगन्निवास 45
हे श्रीकृष्णा, मै पहले कभी नहीं देखा इस् विश्वरूप को देख के
अमितानंद प्राप्त किया! परंतु, भय से मेरा मन को बहुत व्याकुलता हो रहा है! मुझे
तुम्हारा पूर्व सौम्य रूप को ही दिखाईये, देवदेवा, जगदाधारा, मुझे अनुग्रह करो!
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामित्वां द्रष्टुमहंतथैव
तेनैवरूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भवविश्वमूर्ते 46
हे श्रीकृष्णा, मै तुम को पूर्वरूप में यानी किरीट, गदा और
चक्रधारी का रूप में देखना कहता हु! हे अनेकहस्तोंवाले, जगाद्रूपा और चारभुजों
वाले, उस् पूर्वरूप को धरो!
श्री भगवान उवाच—
मयाप्रसन्नेनतवार्जुनेदंरूपं परं दर्शितमात्मयोगात्
तेजोमयं विश्वमनंतमाद्यं यन्मेत्वदन्येनदृष्टपूर्वं 47
श्री भगवान ने कहा—
हे अर्जुन, प्रकाश से परिपूर्णं हुआ, जगाद्रूपी, अंतराहिता,
आदि, तुम बिना और किसीने नहीं देखा इस् सर्वोत्तम विश्वरूप जो है, वह मेरा
स्वकीयशक्ती से तुम जैसा प्रसन्नचित्त को दिखायागया!
नवेदयज्ञाध्ययनिर्नचक्रियाभिरना तपोभिरुग्रिः
एवं रूपश्शक्य अहंनृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर 48
कुरुवंशश्रेष्ठा, अर्जुना, मेरा इस् विश्वरूप को तुम बिना और
कोई अब तक नहीं देखा! मर्रा अनुग्रह से तुम देखसका! वेदाध्ययन, यज्ञाध्ययन, दानों,
अग्निहोत्रादि और श्रोत्र स्मार्तादि क्रियाओं से भी विश्वरूपी मुझ को देखने शाक्य
नहीं है!
तीव्र क्रियायोग साधना का माध्य से ही यह साध्य है!
मातेव्यथामाचविमूढभावोदृष्ट्वा रूपं घोरमीदृंग्मेदं
व्यवेतभीःप्रीतमनाः पुनस्त्वंत देवमेरूपमिदंप्रपश्य 49
हे अर्जुन, ऐसा मेंरा भयानक इस् विश्वरूप को देख के तुम भयभीत
अथवा चित्तविकलत्व नहीं होना! तुम निर्भय और प्रसन्नचित्त होंकर मेरा इस् पूर्व
रूप को ही देखो!
संजय उवाच—
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकंरूपं दर्शयामासभूयः
आश्वासयामासभीतमेनं भूत्वा पुनास्सौम्यवपुर्महात्मा 50
संजय ने कहा—
हे धृतराष्ट्र महाराज, इस् प्रकार श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कहकर
उस् प्रकार अपना पूर्व रूप को पुनः दिखाया! महात्मा श्रीकृष्ण अपना सौम्य रूपधारण
करके डराहुआ अर्जुन को सांत्वना दिया!
मायामोहपूरक् का हेतु अंधा हुआ मन, उठो, क्रियायोग साधना करो!
तुंहारा ज्ञाननेत्र खोलो!
अर्जुन उवाच—
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्धन
इदानीमस्मि संवृत्तस्सचेताः प्रकृतिं गतः 51
अर्जुन ने कहा—
हे कृष्णा, तुंहारा प्रशांत इस् मनुष्य रूप को देख के मेरा मन
प्रशांत और स्वस्थ हुआ!
मा अपना बच्चें को खेलाने के लिए विविध रूपों और भंगिमाएं धरता
है! वैसा ही साधक का इच्छाओं पूरा करने के लिए परमात्मा विविध सगुण रूपों में
दिखाई देता है!
श्री भगवान् उवाच—
सुदुर्दशमिदं रूपं दृष्टवानसियन्मम
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शन कांक्षिणः 52
श्री भगवान् ने कहा—
हे अर्जुन, मेरा इस् रूप तुम जो देखे हो, वह महादुर्लभ है!
देवताओं इस् रूप को नित्य दर्शन करने अधिकाधिक वांछित करते है!
क्रियायोगसाधाना द्वारा ही यह साध्य है!
नाहं वेदेर्नतपसा न दानेन न चेज्यया
शक एवं विधोद्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा 53
हे अर्जुन, तुम मुझे जिस रीति में देखा हो वैसा रूपोंवाले मै
वेदों से, तपस से, दानसे और यज्ञों से देखने अशक्य हु!
इस कारण हिंसायुत पशुओं का बलि और यज्ञों अनुचित है!
भक्त्यात्वनन्यया शक्यअहमेवं विधोर्जुना
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप 54
शत्रुओं को तपन करने हे अर्जुन, इस प्रकार का रूप हुआ मै केवल
अनन्यभक्ति से ही यदार्थ रूप में जानने को, देखने को और प्रवेश करने को साध्य हु!
साधक अपना तीव्रध्यान में अंतःशत्रुओं यानी काम क्रोध लोभा मोह मद और मात्सर्यो को
दहन करेगा! तब ही अनन्य भक्ती होता है!
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तस्संगवर्जितः
निर्वैरस्सर्वभूतेषु यस्समामेति पांडव 55
हे अर्जुन, जो दैवसंबंध कार्यों मेरेलिए करेगा, मेरे को ही
परमप्राप्य करके विश्वास रखेगा, मेरे में ही भक्ती रखेगा, समस्तदृश्य पदार्थो में
आसक्ति और ममत्वा त्यागेगा, और समस्त प्राणीयों में द्वेषरहित रहेगा, वैसा साधक
मुझ को प्राप्ति करता है!
मनुष्य वास्तव में परमात्मा हे है! मनुष्य अपना यदार्थ रूप
माया का हेतु भूल जाके भौतिकता में डूब जाता है! इस जगत् परमात्मा का स्वप्ना है!
इस द्वंद्व प्रपंच कभी न कभी नाश् होना ही है!
ॐ तत्
सत् इति श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योग शास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
विश्वरूपसंदर्शनयोगोनाम एकादशोऽध्यायः
ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेनमः
ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेनमः
श्रीभगवद्गीत
अथ द्वादशोऽध्यायः
भक्तियोगः
श्री
अर्जुन उवाच—
एवं
सततयुक्ताये भक्तास्त्वां पर्युपासते
ये
चाप्याक्षरमव्यक्तं तेषां केयोगवित्तमाः 1
श्री
अर्जुन ने कहा—
इस्
प्रकार सदा तुम्हारे में ही मन लगाके जो भक्तों तुम को उपासन करते है और जो
इंद्रियों का अगोचर अक्षरापराब्रह्म को ध्यान कररहे है इन दोनों में योग अच्छी तरह
जाननेवाले कौन है?
श्री
भगवान् उवाच—
मय्यावेश्यमनोयेमाम्
नित्ययुक्ता उपासते
श्रद्धया
परयोवेतास्तेमे युक्ततमा मताः
2
श्री
भगवान् ने कहा—
हे अर्जुन, मननिमग्न करके अत्यंत निष्ठा और श्रद्धापूर्वक दैवचिंतना से
जो लोग मेरा उपासना करते है, वोई उत्तम योगी करके मेरा अभिप्रा है!
साधक अपना साधना में विविध प्रकार की समाधि स्थितियों को
प्राप्ति करते है!
मूलाधार, स्वाधिष्टान और मणिपुर संसार चक्रों है!
अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार उन्नत चक्रों है!
मूलाधारचक्र मलद्वार में होता है! मेरुदंड स्थित मूलाधारचक्र
का पास कुंडलिनी शक्ती होता है! इस् का शिर नीचे और पूँछ उप्पर चक्रों में होता
है!
मूलाधार का तर्जनी का नाखूनवाला पोर का अढाई पोर का उप्पर
मूत्रद्वार का पीछे मेरुदंड में स्वाधिष्टानचक्र होता है!
नाभी का पीछे मेरुदंड में मणिपुरचक्र होता है!
ह्रुदय का पास मेरुदंड में मणिपुरचक्र होता है!
कण्ठ में विशुद्धचक्र होता है!
कूटस्थ में आज्ञाचक्र होता है!
ब्रह्मरंध्र का नीचे सहस्रारचक्र होता है!
मूलाधार, स्वाधिष्टान और मणिपुर और अनाहत चक्रों में मिलने
समाधियों संदेहसहित यानी संप्रज्ञात समाधियों है!
विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार चक्रों मिलने समाधियों संदेहरहित
यानी असंप्रज्ञात समाधियों है!
श्रीकृष्ण ने अपना माता यशोदा को 14 लोकों दिखाता है! उन् में 7
लोकों मनुष्य का अंदर और 7 लोकों मनुष्य का बाहर यानी ब्रह्माण्ड
में उपस्थित है! मनुष्य का अंदर
उपस्थित 7
लोकों व्यष्टि लोकों और 7 लोकों मनुष्य का बाहर उपस्थित समिष्टि
लोकों है! समिष्टि में व्यष्टि लोकों भी आते है!
अतल(सहस्रार), वितल(आज्ञा), सुतल(विशुद्ध), रसातल (अनहता),
तलातल(मणिपुर), महतल(स्वाधिष्टान) और पाताळ( मूलाधार) व्यष्टि लोकों है!
भू, भुवर, स्वर्, महर, जन, तपो और सत्य समिष्टि लोकों है!
व्यष्टि लोकों
|
समिष्टि लोकों
|
अतल(सहस्रार)
|
सत्य
|
वितल(आज्ञा)
|
तपो
|
सुतल(विशुद्ध)
|
जन
|
रसातल (अनहता)
|
महर
|
तलातल(मणिपुर)
|
स्वर्
|
महतल(स्वाधिष्टाना)
|
भुवर
|
पाताळ( मूलाधार)
|
भू
|
एक बूँद पानी में हैड्रोजन और आक्सीजन होने से समुद्र का पूरा
पानी में भी वों दोनों वायु ही होता है! मधुमेह है या नहीं है निर्धारण करने के
लिए पूरा रक्त निकालके परीक्षा करने को अवसर नहीं है, एक बूँद रक्त लेके परिक्षा
करने से काफी है! वैसा ही अपना अंदर का लोकों(चक्रों) को कुंडलिनी जागृती करके
प्रक्षाळन करके परमात्मा का अनुसंथान करने के लिए तीव्र प्रयत्न करना चाहिए!
एक ही दिन में इंजिनियर या डाक्टर नहीं बनाता है! 15वर्षों
का कठोर अध्ययन का आवश्यक है! वैसा ही एक क्रमपद्धाती में क्रियायोग साधना करना
चाहिए! साधना में हर एक चक्र में तत्संबंधित बीजाक्षर उच्चारण करना चाहिए! तब हर
एक चक्र में तत्संबंधित समाधि प्राप्त होता है!
येत्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलंध्रुवं 3
संनियम्येंद्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः
तेप्राप्नुवंति मामेव सर्वभूतहितेरताः 4
जो साधक अपना सब इंद्रियों को निग्रह करके सर्वदा समभाव से
समस्त प्राणियों का हित में आसक्ति होना चाहिए! वैसा है करके निर्देशन् करने अशक्य
है, इंद्रियों का अगोचर, निर्विकार, अचंचल, नित्य और सर्वव्यापी अक्षरापराब्रह्मा
को जो साधक ध्यान कररहे है वों मुझे प्राप्ति कररहे है!
साधक अपना साधना प्रक्रिया में प्रथम में स्रुष्टि का अंदर का
परमात्मा, तत् पश्चात् स्रुष्टि का अतीत का परमात्मा को प्राप्ति करते है!
क्लेशोधिकरस्तेषामव्यक्तचेतसां
अव्यक्ताहि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते 5
ब्रह्म में निष्टा पाने को सगुणोपासक से अव्यक्त
निर्गुणपरब्रह्म में मन् निमग्न करने लोगों प्रयास अत्यधिक है! क्योंकि
निर्गुणोपासना मार्ग देआभिमानों को अत्यंतकष्ट से प्राप्त होता है!
नाम रूपों को आदत हुआ साधक अपना साधना में एकाग्रता के लिए
प्रथम में एक देवतामूर्ती को सृष्टि का अंदर का परमात्मा जैसा भावना करके सामने
रखा के ध्यानसाधना करता है! तत् पश्चात उस् देवतामूर्ती का बिना आलंबन ही स्रुष्टि
का अतीत का परमात्मा को प्राप्ति करता है!
येतुसर्वाणि कर्माणि मयिसन्यस्य मत्पराः
अनन्येनैव योगेन मांध्यायं उपासते 6
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसार सागरात्
भवामि न चिरात्पार्थ मय्यावेशित चेतसां 7
हे अर्जुन, जो साधक समस्त कर्मो को मुझे समर्पित करके, मुझको
ही परमागति समझ के अनन्यचित से मुझको ही
ध्यान करके उपासन करते है, मुझ में चित्त निमग्न किया वैसा साधकों को
मृत्युरूपी इस् संसारसमुद्र से मै शीघ्र ही विमुक्त करता हु!
साधना में छीजे मुख्य है, वे
1) साधक का जितना
वर्षों का आयु है इतना मिनट का ध्यान करना, 60 वर्षों आयु का मनुष्य 60
मिनट का ध्यान करना है, 2)ध्यान
में तीव्रता होना
मय्येव मन आधत्स्यमयि बुद्धिंनिवेशय
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः 8
मुझ में ही मन स्थिर करो, मुझ में ही बुद्धि को प्रवेश करो,
तत् पश्चात मेरे में ही निवास करोगे! इस् में संदेह नहीं है!
आथ चित्तं समाधातुं न शक्नोसि मयी स्थिरं
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय 9
हे अर्जुन, शायद उस् प्रकार मेरे में मन को स्थिर करने अशक्य
हो तब उस् स्थिति को अभ्यास करके साध्य करके मुझ को प्राप्त करने को प्रयत्न करो!
अभ्यासेप्यसमर्थोसि मत्कर्मपरमोभव
मदर्थमापिकर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि 10
हे अर्जुन, शायद ऐसा अभ्यास करने तुम असमर्थ हो, कम से कम मेरा
संबंधित क्रियाएँ करने में आसक्ति करो! वैसा मेरे लिए कर्मो करने से भी तुम
मोक्षस्थिति प्राप्त करसकते हो!
अथैतादप्यशक्तोसि कर्तुंमद्योगमाश्रितः
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् 11
मेरे लिए योग को अवलंभन करने में और आचारण करने में भी अशक्य
हो, तब स्थिर मन से समस्त कर्मो का फलों को त्यजो!
श्रेयोहिज्ञानमभ्यासात् ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छांतिरनंतरं 12
तत्वरहित विवेकरहित अभ्यास से शास्त्रजन्य ज्ञान श्रेष्ट है!
शास्त्रजन्य ज्ञान से ध्यान श्रेष्ट है! केवल ध्यानसमय में रहने निर्विषय मनस्थिति से प्रवृत्ति में
विषयदोषरहित कर्मफलों को त्याग करना श्रेष्ट है! वैसा कर्मफलत्याग से शीघ्रगाती से
चित्ताशांति लभ्य होता है!
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च
निर्ममोनिरहंकारः समदुःखसुखःक्षमी 13
संतुष्टस्सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्योमद्भक्तस्समेप्रियः 14
समस्त प्राणियों में द्वेषरहित, मैत्री करुण सहित, अहंकार
ममकार वर्जित, सुखदुःखों में समभावयुक्त, सहिष्णुतायुक्त, सदा संतृप्तियुक्त,
योगयुक्त, मन को स्वाधीन किया, दृढनिश्चयायुक्त, मेरे में ही समर्पित
मनोबुद्धियुक्त और मेरे में भक्तियुक्त साधक जो है वह मुझे इष्ट है!
यस्मान्नोद्विजते लोकोलोकान्नो द्विजतेचयः
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तोयस्सचमे प्रियः 15
जिस से प्रपंच में लोगों भयभीत नहीं होते है, प्रपंच से जो
भयभीत नहीं होते है, जिस को संतोष, क्रोध, भय और मनोव्याकुलता इत्यादि नहीं होते
है, वैसा साधक मुझे इष्ट है!
अनापेक्षश्शुचिर्दक्ष उदासीनोगतव्यथः
सर्वारंभ परित्यागी योमद्भक्तस्समे प्रियः 16
वांछारहित, बाह्याभ्यांतररशुद्धि, समयस्पूर्तियुक्त
कार्यसमार्थ, तटस्थ, व्याकुलतारहित, समस्तकार्यों में कर्त्रुत्व छोड़ दिया, समस्त
काम्यकर्मो और शास्त्रनिशिद्ध कर्मो में कर्त्रुत्व छोड़
दिया और मेरे में भक्तियुक्त साधक मुझे इष्ट है!
योन हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति
शुभाशुभापारित्यागी भक्तिमान् यस्समेप्रियः 17
जो संतुष्ट, द्वेष, शोक नहीं होता है और शुभाशुभों को त्याग
किया, वैसा भक्त मुझे इष्ट है!
समश्शत्रौ च मित्रेच तथामानावमानायोः
शीतोष्णसुखदुःखेषु समस्संगविवर्जितः 18
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी संतुश्तोयेनाकेनाचित
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मेप्रियोनरः 19
शत्रु, मित्र, मानावमानों में, शीतोष्णसुखदुःखों में समभावी,
किसी छीज में आसक्ति मनस्संबंध संगत नहीं होने, निन्दास्तुतियों में समभावी, मौनी,
मननशील, लभ्य हुआ वस्तु से संतृप्ति होने, गृहादियों में आसक्तिरहित, निर्दिष्ट
स्थानरहित साधक, निश्चयबुद्धी, और भक्तियुत साधक मुझे इष्ट है!
येतु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते
श्रद्धधानामत्परमा भक्तास्तेऽतीवमें प्रियाः 20
जो श्द्धावंत लोगों मुझको परमागति करके विश्वास रख के, मुझ में
आसक्ति होंकर, इस् अमृतरूपी मोक्षसाधाना धर्म को इस् कहाहुआ प्रकार अनुष्ठान करते
है वे भक्तो मुझे इष्ट है!
ॐ तत् सत् इति
श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योग शास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगोनाम द्वादशोऽध्यायः
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