श्रीमद्भगवद्गीता part 07 to 09 हिंदी
ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेनमः
श्रीभगवद्गीत अथ सप्तमोऽध्यायः
विज्ञानयोगः
श्री
भगवान उवाच—
मय्यासक्तामनाःपार्थ
योगं युङजन्मदाश्रयः
असंशयं
समग्रं मां यथा ज्ञास्यापि
तच्छृणु 1
श्री
भगवान ने कहा—
हे अर्जुन, मुझ में ही आसक्ति लगाकर, मुझ कोही आश्रय कर के
योगाचरण करते हुए निस्संदेहपूरित से मुझ को परिपूर्णता से जानने का पद्धति को
विशदीकरण करता हु, सुनो!
योगसाधना का उचित पद्धतियाँ सद्गुरु कृपा से सीखना चाहिए!
ज्ञानंतहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्य शेषतः
यज्ञात्वानेहभूयोंयोन्यज्ञाताव्यमवशिष्यते 2
जिस को जानने से इस प्रपंच में और जानने का कुछ भी नहीं बचता
है, वैसा अनुभवसहित ज्ञान को संपूर्ण रूप में तुम को कहता हु!
साधना में योगी को शब्द ब्रह्म यानी ॐकार सुन सकता है! प्रकाश
देखा सकता है!
ॐकार में ममैक होने से खुद उस शब्द का साथ विस्तारित् होतेहुए
लगेगा! तब सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ परमात्म तत्व सुस्पष्टता से अवगत
होजाएगा! प्रकाश में ममैक होने से भी ओई परमात्म तत्व सुस्पष्टता से अवगत होजाएगा!
तब और जानने का छीज कुछ भी नहीं बचेगा!
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः 3
बहुत सारे हजारों मनुष्यों में कुछ एक मनुष्य मोक्षसिद्धि के
लिए प्रयत्न करता है! वैसा प्रयत्न करने मनुष्यों में कुछ एक मनुष्य ही मुझे
वास्तव में जानता है!
प्रारब्ध, आगामी, और संचित कर्मो कर के कर्म तीन प्रकार का
होते है!
हमारा संपादित धन एक दिन में खर्च नहीं कर सकते है! इस को
भविष्यत में उपयोग के लिए दीर्घकालिक आर्थिक पथक(fixed
deposit)में डालते है!
संचितकर्म वैसा है!
दीर्घकालिक आर्थिक पथक(fixed deposit)में से कुछ धन निकाल के वर्त्तमान में
खर्च कर सकता है! इसी को प्रारब्ध कर्म कहते है!
वर्त्तमान में खर्च करने समय में अपना काम का साथ साथ
दानधार्मो जैसा अच्छा अथवा जुआ खेलना, शराब पीना इत्यादि बुरा कामों के लिए जो
कर्म करता है, ओ भविष्यत में आगामी कर्म बनजाता है! किसी को द्वेष करने से अथवा
मोह करने से भी आगामी कर्म बनजाता है! .
सूरज हर एक राशि में एक एक मास् करके 12 राशियों में 12 मास् यानी एक वर्ष संचरण करता है! तब
एक वर्ष प्रारब्ध कर्म अनुभव किया करके अर्थ है!
हमारा संचिता कर्म दग्ध करने में 10 लाख आरोग्य जीवन अवसर है जो दुस्साध्य है! उस दुस्साध्य को
सुसाध्य करता है क्रियायोग! सब से शीघ्र जानेवाली विमान वाहक जैसा है क्रियायोग!
दृढ़तासहित क्रियायोगि एक ही जीवितकाल में 10 लाख क्रियायो को पूर्ती करके
जीवब्रह्मैक्य पासकता है! हर एक दिन 1000 क्रियायों करके केवल 3 वर्षों में 10 लाख जीवन प्रगति साध्य करसकता है! 6,12,18, 24,30,36,42 अथवा 48 वर्षों में
एक पद्धति का मुताबिक़ क्रियायों और ध्यान करके एक ही जीवनकाल
में 10 लाख जीवन प्रगति
साध्य करसकता है!
शायद क्रियायोगी संपूर्ण प्रगति साध्य नहीं करते हुए मरने से
भी अपना साथ ही क्रियायोगी फल लेजायेगा!
क्रियायोगी का जीवन संचिता कर्मो से प्रभावित नहीं होता है! उस
का जीवन को आत्म सम्पूर्ण दिशा निर्देशन देगा और आत्म मार्गदर्शकत्व में ही चलता
रहेगा! क्रियायोग मिता भोजन का साथ सम्पूर्ण एकांत में करना चाहिए!
क्रियायोग में हठयोग(शक्तिपूरक अभ्यासों, लययोग, सोऽहं और ॐ
प्रक्रियाएं, सेवा इत्यादि निष्काम कर्मयोग, मंत्रयोग, चक्रों में बीजाक्षर
उच्चारण, राजयोग प्राणायाम पद्धतियाँ, इत्यादि होते है!
भूमिरापोऽनलोवायुःखाम्मानोबुद्धिरेवच
अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा! 4
भूमि, जल्, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, और अहंकार इति मेरा
प्रकृति यानी माया आठ प्रकार का विभाजन किया हुआ है!
परमात्मा संकल्प प्रकम्पनों प्रथम में उस से स्थूल प्रमाण का
चेतनायुक्त प्राणशक्ति प्रकम्पनों में बदला जाता है! क्रमशः एलेक्ट्रांस(electrons), प्रोटांस्(protons), अणु(atoms), मालिक्यूल्स(molecules), सेल्स(cells), टिश्यूज(tissues), और आर्गानिक(organic matter)पदार्थो में बदला जाता है!
आर्गानिक(organic)और इनार्गानिक(Inorganic) दोनों पदार्थो, अणु(atoms), परमाणुओं(subatomic particles and energies), ए सब प्राणशक्ति प्रकम्पनों और
परमात्मा संकल्प प्रकम्पनों दोनों का मिलन में ही व्यक्तीकरण होते है!
आध्यात्मिकदृष्टि में भौतिक जगत का व्यक्तीकरण का रीति ए ही है!
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि में परां
जीवभूतां महाबाहो य येदं धार्यते जगत् 5
हे महाबाहो अर्जुन, इस अपरा प्रकृति अति स्वल्प और अल्प है! इस
से अलग, और इस पूरा जगत को धरनेवाला जीवरूप पराप्राकृति श्रेष्ट इति जानो!
मानव अहंकार और परमात्म प्रकृति यानी परा प्रकृति का साथ मिलके
काम करता है! उसका हेतु इस भौतिक शरीर चैतन्यमय होगा!
सूक्ष्म और कारण अहंकार भीपरा प्रकृति का साथ मिलके काम करेगा
जिस का हेतु सूक्ष्म और कारण शरीरों भी चैतन्यमय होगा!
मानावा शरीर में शुद्धात्म उस शरीर में होने सभी कार्यों का
साक्षी है! वैसा ही कूटस्थ चैतन्य परामात्मा सृष्टि का केवल साक्षी है! इस कूटस्थ
चैतन्य अपने आप को ॐ शब्द ब्रह्म जैसा व्यक्तीकरण करता है! इस ॐ शब्द ब्रह्म मलिन
अपरा प्रकृति और अमलिन सूक्ष्म परा प्रकृति का बीच में वारथी है! व्यष्टि में
स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को और समिष्टि में स्थूल, सूक्ष्म और कारण जगत को चलानेवाली
छीज इस ॐ शब्द ब्रह्म ही है!
एताद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवःप्रळयस्तथा 6
जड़ और चेतनायुत समस्त जगत इस परा और अपरा प्रकृतियो का मिलन से
भी संभव है कर के जानो! इन् परा और अपरा प्रकृतियो का माध्यम से मै समस्त जगत का
उत्पत्ती और विनाश को कारणभूत हूँ!
भौतिक अहंकार शुद्धात्मा चैतन्य का साथ मिलके काम करने से इस
को जीव कहते है!
मत्तः परतरं नान्यत किन्चिदास्ती धनञ्जय
मयिसर्वमिदम् प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव 7
हे अर्जुन, मै बिना और कोई छीज अलावा नहीं है! मणिमाला में
धागा जैसा इस समस्त प्रपंच मुझे में ही है!
परमात्मा(सत्) अनंत है! सारे प्रपंचों सब परिमित है! ए सभी
अनंत में भाग है!
रसोहमप्सु कौंतेय प्रभास्मि शशि सूर्ययोः
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं न्रुषु 8
हे अर्जुन, मै जल् में रुची हु, सूर्य और चन्द्रों में प्रकाश
हु, समस्त वेदों में ॐकार हु, आकाश में शब्द हु, मनुष्यों में पराक्रम हु!
पुण्योंगन्धः प्रुथिव्यांच तेजश्चास्मि विभावसौ
जीवनम् सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु 9
मै भूमि में सुगंध हु, अग्नि में प्रकाश हु, समस्त प्राणीयों
में प्राण हु, तापसों में तपस हु!
परमात्म चेतना साधक को मूलाधार में पृथिवीतत्व सुगंध जैसा,
स्वाधिष्ठान में में जलतत्व रस जैसा, मणिपुर में अग्नितत्व प्रकाश जैसा, अनाहत में
वायुतत्व स्पर्श जैसा, विशुद्ध में आकाशतत्व शब्द जैसा, आज्ञाचक्र में अद्भुत
प्रकाश जैसा, सहस्रार में साक्षीभूत जैसा अनुभूति देगा!
बीजं माम सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनं
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहं 10
हे अर्जुन, मुझे समस्त प्राणीयों का शाश्वत बीज करके जानो!
बुद्धिमान लोगों का बुद्धि और धीरोदात्त लोगों का धैर्य भी मै हु!
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितं
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ 11
हे भरतकुल श्रेष्ट अर्जुन, मै बलवान लोगों का आशा हु,
अनुरागरहित बल हु, प्राणियों में धर्मं का व्यतिरेक नहीं इच्छा मै हु!
येचैव सात्त्विकाभावा राजसास्तामसाश्चये
मत्ता एवेति तान्विद्धि नत्वहम् तेषुतेमयि . 12
सत्व राजस् तमो गुणों से संभावित स्वभावों जो है ओ मेरा वजह से
उद्भव हुए करके जानो! परंतु मै उन् में नहीं हु, वे मुझ में है!
हम प्रकाश में ही भोजन पकाता है! अंथेरा में नहीं पका सकता है!
एक तरकारी पकाने समय में उस में तेल, निमक, मिर्ची, इत्यादि डालते है! इन का साथ
साथ प्रकाश का किरणों भी डालके उस तरकारी पकाता है! इस का अर्थ प्रकाश का किरणों
भी हमारा भोजन पदार्थ में अन्तर्भाग है! असली में सारे सब्जियाँ घनीभव परमात्मा
चेतना ही है जो उन् पेडों को सूरज का माध्यम से मिलते है!
कंप्यूटर में सारे प्रोग्राम सर्वस्वतंत्र है! परंतु सारे सिग्नल्स (Signals) सेन्ट्रल प्रासेसींग यूनिट(CPU) का माध्यम से ही चलता है!
संतान प्राप्ति के लिए माता पिता कारण है! परंतु संतान जो
अच्छा अथवा बुरा कार्य करते है उनका हेतु माता पिता कारण नहीं है! हत्या जो करता
है उसकों जेल(Jail) में डालते है, मगर ह्त्या करने छीज
चाकू इत्यादियों को जेल(Jail) में नहीं डालते है!
प्राणशक्ति हि परमात्मा है! असली में मनुष्य का अंदर
प्राणशक्ति होनेसे ही कुछ बी काम कर सकता है! उस अर्थ में सब छीजों के लिए
परमात्मा हेतु करके कहते है! हम जो काम करते है उसको परमात्मा हेतु और कर्ता नहीं
है!
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिःसर्वमिदं जगत्
मोहितंनाभिजानाति मामेभ्य परमं व्ययं 13
ऐसा कहागया तीन प्रकार का सत्वा राजस् तमो गुणों का
विकारस्वभावों का हेतु इस प्रपंच अविवेकयुत मोह से भरायुक्त है! इन् गुणों से अतीत
और नाशरहित मुझ को नहीं जानते है!
हमारा कामों को सत्व रजस् और तमस् इति तीन प्रकार का विभाजित
करसकते है! परंतु इस का कर्ता परमात्मा नहीं है!
दैवीह्येषागुणमयी मामा मायादुरत्यया
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेताम् तरंतिते 14
क्योंकि अलौकिक सामर्थ्यवान, दैवसंबधियुत, और त्रिगुणात्मक इस मेरा माया प्रकृति पार करना
कष्टसाध्य है! परंतु मुझको ही शरण माँगनेवाले इस माया को पार करता है!
मलदोष–– मैला लगा हुआ काँच का चिम्नी लांतर का
अंदर का ज्योति को दिखाई नहीं देगा! चिम्नी को शुभ्र करने से ज्योति का प्रकाश
दिखाई देगा! मैला लगा हुआ काँच का चिम्नी जैसा है मलदोष! इस दोष का हेतु मैला लगा
हुआ काँच का चिम्नी जैसा अज्ञानता का कारण हमारा अंदर ही स्थित परमात्मा दिखाई
नहीं देगा!
आवरणदोष––सत् वस्तु का यदार्थरूप को छिपाके दूसरा
रूप में अभिव्यक्त करना आवरणदोष का प्रभाव है!
मलदोष और आवरणदोष दोनों तमोगुण प्रभाव से होता है!
विक्षेपणदोष–– रागद्वेष, सुखदुःखे, स्वार्थ, प्रेम,
वात्सल्य, दया, संतोष, तृप्ति, असंतृप्ति, काम, क्रोध, लोभा, मोह, मद, मात्सर्य
इति अरिषड्वर्गो, ए सब रजोगुण प्रभाव से उद्भव होते है!
कारण शरीर को इस प्रकार मल और आवरणदोष तमोगुण प्रभाव से उद्भव
होते है! विक्षेपणदोष रजोगुण प्रभाव से उद्भव होते है!
न मां दुष्कृतीनोमूढाः प्रपद्यन्ते नाराथमाः
माययापहृतज्ञाना आसुराम्भावामाश्रिताः 15
पाप करनेवाले, मूढों, मायापहरणयुतज्ञान लोग, असुरगुण राक्षस
स्वभाव को आश्रय करने अथमलोग, मेरा आश्रय नहीं चाहते है!
वस्त्रं, वपुषा(मुख यानी चेहरा), वाचा(वाक्), विद्या, और विनय,
ये पांच छीजे अत्यंत कीमती है!
परमात्मा माया को सृष्टि करके उसकों अपना अधीन में रखा है!
केवल मानवजन्म ही सकल सृष्टि में कर्माधीन है! बाकी पशु पक्ष्यादी में कर्मबंधन और
इच्छाशक्ती नहीं होते है! केवल मनुष्य को
ही परमात्मा इस कर्म से बाहर आने इच्छाशक्ती दिया है!
चतुर्विधा भजंते माम् जनाः सुक्रुतिनोर्जुन
आर्तो जिज्ञासुरर्धार्धी ज्ञानीच भरतर्षभ 16
हे भरतवंश श्रेष्ट अर्जुन, आपत्तिजनक मनुष्य, भगवान को जानने
मनुष्य, धनाभिलाषी, आत्मज्ञानी कर के चार प्रकार का पुण्यात्माओं मेरा सेवा करते
है!
आर्तो—ये लोग जब आपत्ति में होते है, यानी
अपना स्वार्थ के लिए परमात्मा को याद करते है! कार्य सफल होने पश्चात परमात्मा भूल
जाते है! जो बिलकुल परमात्मा को याद नहीं करने नास्तिकों से ये लोग अधिक सुविधाजनक
है! कम से कम इस प्रकार से परमात्मा को याद करते है!
जिज्ञासु— ये लोग भगवान को जानने अभिलाषी मनुष्य
जो बिना शर्तों निस्वार्थता से परमात्मा को जानना
चाहते है!
अर्धार्धी—ये लोग परमात्मा और परमात्मा का बहुमतों
दोनों चाहते है! योगसाधना करते हुए ये लोग इह और पर दोनों में आनंद वांछित करते
है!
ज्ञानी— ये ऋषि मुनि आत्मज्ञानी लोग है! ये
परमात्मा का साथ अनुसंथान प्राप्ति करके केवल उन् का प्रेम के लिये ही जीवित होते
है! पुत्र प्राप्ति होने पश्चात फलापेक्षराहित रहित प्रेम दिखानेवाले माता पिता
जैसे है ए लोग!
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त
एकभक्तिर्विशिष्यते
प्रियोहि ज्ञानिनोत्यार्थमहं सचा ममप्रियः 17
उन् चारों में सर्वदा परमात्मा का साथ रहनेवाला और सर्वदा केवल
परमात्मा में ही भक्तियुत ज्ञानी ही सर्व श्रेष्ठ है! वैसा ज्ञानी मुझे अत्यंत
प्रीतिपात्र है और मै भी उस् को अत्यंत प्रीतिपात्र है!
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानीत्वात्मैव में मातं
आस्थितः सहियुक्तात्मा मामेवानुत्तमांगतिम 18
ए सभी लोग अच्छे है परंतु ज्ञानी तों साक्षात् मै ही हु करके
मेरा अभिप्राय है! क्यों कि ओ मेरा में ही चिता स्थिर करके मुझ को ही सर्वोत्तम
प्राप्यास्थान करके निश्चय करके आश्रय किया हुए है!
ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति—ब्रह्मज्ञान जानगया साधक साक्षात्
ब्रह्म ही है!
बहूना जन्मनामंते ज्ञानवान्माम् प्रपद्यते
वासुदेवसर्वमिति समहात्मा सुदुर्लभः 19
अनेक जन्मों के पश्चात् मनुष्य ज्ञानवंत होंकर समस्त भगवान्
वासुदेव ही करके समझकर सद्बुद्धि प्राप्ति करके मुझे प्राप्त करते है! वैसा
महात्मा लोक में दुर्लभ है!
एक श्वास + एक निश्वास = एक हंसा! आरोग्यवान साधारण व्यक्ति 24 घंटो में 21600 हंसा यानी एक मिनट में 15 करते है! आधुनिक वैद्य वैज्ञानिक
शास्त्र का मुताबिक़ मनुष्य का भेजा हर 8
वर्षों में बदल्जाता है!
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेन्य देवताः
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियतास्वया 20
कुछ लोग अपना अपना जन्मांतर संस्कार प्रकृति से उत्प्रेरित
होकर विषयादि में इच्छित होंकर विवेक खोकर देवाताराधाना संबंधित नियमपालाना करके
मेरा अलावा इतर देवताओं का सेवा करते है!
योयो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति
तस्य तस्याचलाम् श्रद्धाम् तामेव विदधाम्यहम् 21
जो जो भक्त जो जो देवातारूप को श्रद्धा से पूजा करते है, वैसा
वैसा ही उचित स्थिर श्रद्धा उन् लोगों को प्रसादित करता हु!
सतयाश्रद्धयायुक्तस्तस्याराधनमीहते
लाभतेच ततः कामान् मयैव विहितान् हितान् 22
उस् भक्त उस् देवता को ही श्रद्धा से आराधना करता है! और मेरे
से नियमित किया उसी इष्टफल उस् देवता से प्राप्त करता है!
जितना साधना करेगा इतना ही साधना का फल मिलता है!
अंतवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेथसाम्
देवान देव यजोयांति मद्भक्ता यान्तिमामपि 23
वैसे अल्पबुद्धि मनुष्यों का फलों नाशवंत है! देवताओं को पूजा
करनेवाले उन् देवताओं को ही प्राप्त करते है! मुझको पूजा करनेवाले मुझकोही प्राप्त
करते है!
जो ब्राडकास्टिंग
स्टेशन(Broadcasting Station)
चाहिए उसी स्टेशन को हम ट्यून(Tune) करेंगे! गंगा नदी में लोटा डालने से लोटा पानी ही मिलता है!
वसा हे हम परमात्मा को जिस रूप में वांछित कर के ध्यान करते है उसी रूप में दर्शन
देगा!
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यंते मामबुद्धयः
परं भावमजानन्तो ममाव्याया मनुत्तमं 24
ये लोग नाशरहित, सरोत्ताम, प्रकृती का अतीत मेरा स्वरुप नहीं
जानते है! अव्यक्तारूपी और प्रपंचातीत मुझ को पंचभौतिक देहायुत हु करके समझते है!
नहं प्रकाशः सर्वस्य योगमाया समावृतः
मूढोयं नाभिजानाति लोकोमामजमव्ययं 25
योगमाया से ढका हुआ मै सब को दिखाई नहीं देगा! ये अविवेकी मनुष्य मुख को जन्मरहित और नाशरहित
करके नहीं जानते है!
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानिचार्जुना
भाविष्याणि च भूतानि
मां तु वेदन कश्चन 26
हे अर्जुन, मै भूत भविष्यत वर्तमानकालों में जीवियों को जानते
है! परंतु मुझ को कोई नहीं जनता है!
इस भौतिक जगत में वर्तमान ही सत्य करके विश्वास करता है
मनुष्य!
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत
सर्वभूतानी सम्मोहं सर्गेयांति परंतप 27
हे अर्जुन, समस्त जीवि जन्मतः रागद्वेष जनित सुख दुःखादि
द्वंद्व रूपी व्यामोह का हेतु अत्यंत अज्ञानता को प्राप्त करता है!
शोरगुल पानी में मनुष्य अपना प्रतिबिंब नहीं देखसकते है! वैसा हे
चंचल मन का माध्यम से परमात्मा को नहीं देखसकते है!
येषां त्वंतगतं पापं जनानाम पुन्यकर्मणाम्
ते द्वन्द्वामोह निर्मुक्ता भजंते मां दृढव्रताः 28
जिन पुण्यकार्यतत्पर लोग का पापा नाश् होगया है, उन् लोग सुख
दुःखादि द्वान्द्वारूपी अज्ञानता से विमुक्त होकर दृढव्रता से सेवा कररहे है!
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतंति ये
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्मचाखिलम् 29
जो साधक वार्धक्य और संसार दुःख मरण से विमुक्त होने मुझे
आश्रय करके प्रयत्न कररहे है, वे समस्त प्रत्यगात्मरूप और सकलकर्म भी ब्रह्म ही
करके जानेगा!
सादिभूतादिदैवं माम साधियज्ञंच ये विदुः
प्रयाणकालेपि च माम विदुर्युक्तचेतसः 30
अधिभूत, अधिदेव, और अधियज्ञों से समायुक्त मुझ को जानेगा, और
मरण का समय में दैवं में स्थिरता और मनोनिग्रहता पाकर मुझे जानेगा!
ॐ तत् सत् इति
श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायाम योग शास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
विज्ञानयोगोनाम सप्तमोऽध्यायः
ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेनमः
ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेनमः
श्रीभगवद्गीत अथ अष्टमोऽध्यायः
अक्षरपरब्रह्मयोगः
अर्जुन
उवाच—
किं
तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म प्रुरुषोत्तम
अधिभूतंच
किं प्रोक्तं अधिदैव किमुच्यते 1
अधियज्ञःकथं
कोत्र देहेस्मि मधुसूदन
प्रयाणकालेच
कथं ज्ञॅयोसि नियतात्मभिः 2
अर्जुन
ने कहा—
पुरुष
श्रेष्ठा हे कृष्णा, उस् ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत
किस को कहता है? अधिदैव किस को कहता है? इस देहा में अधियज्ञ कौन है? उस् को जानना
कैसे? प्राण प्रयाण समय में नियमितचित् से तुम कैसा जानेगा?
श्री
भगवान उवाच—
अक्षरम
परमब्रह्म परमं स्वभावोध्यात्ममुच्यते
भूतभावोद्भवकरो
विसर्गः कर्म संज्ञितः
3
श्री
भगवान ने कहा—
हे अर्जुन, सर्वोत्तम् और नाशरहित वस्तु ही
ब्रह्म है! प्रत्यगात्म भाव को अध्यात्म कहते है! प्राणिकोटि को उत्पत्ती करने
यज्ञादिरूपी त्यागापूर्वक क्रिया को कर्म कहते है!
1)ब्रह्मं—सर्वशाक्तिमंत, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ है ये ब्रह्मं!
इसी को सत् कहते है! ये नाद(प्रणवनाद ॐकार), बिंदु(शक्ति), और कळा(प्रकाश) को अतीत
है! ब्रह्मं अपने आप कूटस्थ चैतन्य रूप में व्यक्तीकरण करते है!
प्रणवनाद
ॐकार का माध्यम से द्वंद्वों से और सत्व रजस् और तमो गुणों का माध्यम से साधारण
नेत्रों को दिखाई देनेवाला मिथ्या स्थूल जगत जैसा व्यक्तीकरण होता है ये ब्रह्मम्!
इस ॐकार को विसर्ग भी कहते है!
2)आध्यात्मं— कूटस्थ चैतन्य जैसा व्यक्तीकरण करने इस ब्रह्मम् को
अध्यात्म कहते है! इस को तत् भी कहते है!
3)कर्मम्— ॐकार से व्यक्त होने इस ज्ञानफल को कर्मम् कहते है!
ये कार्यकारण संयुक्त है! चराचर प्रपंच और ब्रह्माण्ड सब ये कार्यकारण संयुक्त है!
जीवों और ब्रह्माण्ड अपना अपना धर्मं का मुताबिक़ भौतिक अच्छा और बुरा फल देते है!
कर्मो
लौकिक और अलौकिक करके दो प्रकार है! स्नान, उद्योग, भोजन इत्यादि लौकिक है!
संध्यावंदन, दैवपूजा, जप, योगसाधना, होम, इत्यादि अलौकिक है!
लौकिक
और अलौकिक दोनों संचिता, प्रारब्ध और आगामी करके तीन प्रकार का है! ये कर्मो फल का
आशा से कर्तृत्व भावन से करने से बन्धं, निष्काम बुद्धि से करने से निवृत्ति यानी
मोक्ष प्राप्ति कराएगा!
मनुष्य
अपना संपादित धन को एक ही दिन में खर्च नहीं करते है और नहीं करासकेगा! वैसा हे एक
जन्म में प्राप्त हुआ कर्मफलो को उसी जन्म में अनुभव नहीं कर सकेगा! क्रमशः वों
जन्म जन्म में कट्टा होतेजाते है! उन् कर्मो को संचिता कर्म कहते है!
उस्
दिन अथवा मास् के खर्च करने लाया हुआ धन जैसा है प्रारब्ध कर्म!
उस्
धन को खर्च करने विधान का आधारित अच्छी अथावा बुरी आगामी कर्म बनाता है!
प्रारब्धं
भोगते भुञ्जात् तत्वज्ञानेन संचितं
आगामी
द्विविधं प्रोक्तं तद्वेष्टि प्रियवादिनौ!
प्रारब्धकर्म
भोगना ही पढेगा! मै परामात्मा हु करके परिपूर्ण ज्ञान का हेतु संचित कर्म निवृत्ति
होता है! दूसरों को द्वेष अथावा मोह करने से आगामी कर्म बनाता है!
4)अधिभूत 5) अधियज्ञ 7)नियमित मन से तुम कैसा जान सकता है? 8)विसर्ग
अधिभूतं
क्षरोभावः पुरुषश्चाधिदैवतं
अधियज्ञोंहमेवात्र
देहे देहाभ्रुतां वर
4
हे अर्जुन,नाश् होने पदार्थ अधिभूत स्थूल शरीर अथवा स्थूल जगत
कहते है!
विराट पुरुष अथवा हिरण्यगर्भ ही अधिदैवत सूक्ष्म शरीर अथवा
सूक्ष्म जगत कहते है!
इस देह में स्थित मुझ को ही अधियज्ञ कारण शरीर अथवा कारण जगत
कहते है!
नियमित चित्तों से तुम कैसे जानेगा?—
प्रापंचिकअ मनुष्य ॐकार का बाहर स्पंदानो को वश होके माया का
परिधि में आकर परामात्मा को भूल जाता है! क्रियायोग साधक ॐकार में ममैक होंकर उस्
का मूल परामात्मा में अनुसंथान करता है!
अन्ताकालेचा मामेव स्मरण्मुक्त्वा कळेबरं
यःप्रयाति समद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः 5
जो मनुष्य मरण समय में भी मेरा ही स्मरण करते इस शरीर को
त्यागता है, उस् मनुष्य मेरा ही स्वरुप प्राप्त करता है! इस में कोई संदेह नहीं
है!
आज का दिन में सोते हुए भी गणित शास्त्र का कोई भी समस्या
आसानी से हल् करने अथवा शास्त्रीय संगीत रागालापन कारण, पिछले इस के लिए किया हुवा
वर्षों का कठोर परिश्रम ही हेतु है! ए एक
ही दिन में नहीं लभ्य होगा, कठोर परिश्रम
का आवश्यक है! नित्य साधना करने साधक मरण समय में भी परामात्मा को ही स्मरण करते
शरीर त्याग करता है! तत् पश्चात परामात्मा में ममैक होता है! इस में कोई संदेह
नहीं है!
यं यं वापी स्मरण् भावं त्यजत्यन्ते कळेबरं
तम तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः 6
हे अर्जुन, जो मनुष्य अपना मरण काल में जिस रूप अथवा भाव को
चितन करते इस शरीर को त्यगता है ओ उस् भाव का स्मरण का हेतु संप्राप्त हुआ संस्कार
का वजह से उस् उस् उचित रूप प्राप्ति करता है!
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्यच
मय्यर्पित मनोबुद्धिर्मामे वैष्यस्य संशयः! 7
इसीलिये तुम सर्वकालेपि मुझ को ही स्मरण करते हुए, तुम्हारा
स्वकीय धर्मं युद्ध को भी करो! इस प्रकार तुम तुम्हारा मन और बुद्धि को मेरे को
अर्पिता करने से मुझ को ही प्राप्त करोगे!
निरंतर साधन साधक को आवश्यक है! उस् साधना का माध्यम से मन को
स्थिर करने से परमात्म प्राप्ति सुलभतर होगा! क्रियायोग ही स्वधर्म है! क्रियायोग
साधाना ही युद्ध है!
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसानान्यगामिना
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिंतयन् 8
हे अर्जुन, अभ्याससहित योग और इतराते विषयों में नहीं जाने मन
से साधक स्वयं प्रकाशरूपी अप्राकृत सर्वोत्तम परमपुरुष को पुनः पुनः स्मरण करते
उन् को प्राप्ति करता है!
कविं पुराणमनुशासिता रमाणोराणीयां समानुस्मरेद्यः
सर्वस्य दातारमचिंत्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् 9
प्रयाणकाले मनासाचालेन भक्त्या युक्तो योगबलेनचैव
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्यसम्यक् सतं परं
पुरुषमुपैतिदिव्यं 10
जो साधक भक्ती का साथ अंत्यकाल में योगध्यानाभ्यास संस्कारबल
से प्राणवायु को भ्रूमध्य में अच्छीतरह स्थिर करके, तत् पश्चात् सर्वज्ञ, पुराणपुरुष,
जगन्नियामक, अणु से भी सूक्ष्माति सूक्ष्म, सकल प्रपंच को आधारभूत, शोचने के अतीत
स्वरूपि, सूर्यकांति से अत्यधिक कांति से स्वयंप्रकाशरूपी, अज्ञानांधकार का अतीत,
परमात्मा को निश्छल मन से सर्वदा चिंतन करता है,वैसा साधक दिव्यस्वरूपी उस्
परमात्मा को ही प्राप्त करता है!
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः
यदिच्चन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्तेपदम् संग्रहेण
प्रवक्ष्ये 11
वेदावेत्तो जिस को नाशाराहिता कहते है, इच्छारहित, रागाराहिता
और जितेंद्रिय यत्नाशील साधक लोग जिस में प्रवेश करते है, जिस को अभिलाष करते साधक
लोग ब्रह्मचर्यं को अनुष्ठान करते है, उस् परामात्मा पदम का बारे में तुम को
संक्षिप्त में समझाएंगे, सुनो!
कारणशारीर—आनंदमयकोश ही कारणशारीर है! सत्व रजो
तमो त्रिगुणात्मक है! मूल अज्ञानता, मोहस्वरूप, अविद्याकवच है ये आनंदमयकोश!
इस् अविद्याकवच आनंदमयकोश का हेतु आकाश, वायु, अग्नि, जल्, और
पृथ्वी करके पंचासूक्ष्म महाभूतों सृष्टि का मूल कारण है!
सूक्ष्मशारीर—विज्ञानमय, मनोमय, और प्राणमय कोशो
तीनों मिलाके सूक्ष्मशारीर बनता है! अपन्चीक्रुत आकाश, वायु, अग्नि, वरुण और
पृथ्वी पंच सूक्ष्म महाभूतों, और सत्व राजस् तमोगुणों से व्यक्तीकरण हुआ
पायु(गुदास्थान—मल विसर्जनाशक्ति), मुख(वाक् शक्ती), पाणी(क्रियाशक्ति), पादं
(गमन शक्ति), और उपस्थ(मूत्र विसर्जन शक्ति) करके पाँच कर्मेन्द्रियाँ, चक्षु,
श्रोत्र, घ्राण, रसना, और त्वक् करके पाँच ज्ञानेंद्रियॉ, प्राण, अपान, व्यान,
समान, और उदान करके पाँच प्राणो, मनो बुद्धि चित्त अहंकार करके अन्तःकरण, इस्
सूक्ष्मशारीर में है!
स्थूलशारीर—तमोगुणात्मक और पंचीकरण किया हुआ आकाश, वायु, अग्नि, वरुण और पृथ्वी पंच स्थूल
महाभूतों में व्यक्तीकरण हुए! उन् स्थूल महाभूतों से व्यक्तीकरण हुए पाँच
कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेंद्रियॉ, पाँच प्राणो, और स्थूल अन्तःकरण मिलाके स्थूलशारीर कहलाते है!
अवस्थाएं— ये अवस्थाएं तीन प्रकार का है! वों है
जाग्रता, स्वपना और सुषुप्ति!
जाग्रतावस्थ—ब्रह्मचेतन कारणशरीर में, उस् का माध्यम
से सूक्ष्मशरीर और उस् से स्थूलशरीर में प्रवेश करके तीनों शरीरों यानी कारणशरीर,
सूक्ष्मशरीर और स्थूलशरीरों को चैतन्यवंत करने को जाग्रतावस्थ कहते है! अधिचेतना
कारणशरीर अथवा सुषुप्ति अवस्थ, चेतना स्थूलशरीर अथवा जाग्रतावस्थ, और अवचेतना अथवा स्वप्नावस्थ तीनों जाग्रतावस्थ
में चैतन्यवंत होते है!
स्वप्नावस्थ अथवा निद्रावस्था अथवा अवचेतनावस्थ—
ब्रह्मचेतन कारणशरीर में, उस् का माध्यम से सूक्ष्मशरीर में प्रवेश करके दोनों शरीरों यानी कारणशरीर और
सूक्ष्मशरीर को चैतन्यवंत करने को
स्वप्नावस्थ कहते है! अधिचेतना अथवा कारणचेतना अथवा सुषुप्ति अवस्थ, और अवचेतना
अथवा स्वप्नावस्थ दोनों चैतन्यवंत होता है! जाग्रतावस्थ यानी स्थूलशरीर निद्राण
होता है!
सुषुप्ति अथवा अधिचेतना अवस्थ— ब्रह्मचेतन कारणशरीर में, प्रवेश करके कारणशरीर को चैतन्यवंत करने को
सुषुप्ति अवस्थ कहते है! गाढा नींद में सूक्ष्म और स्थूल शरीरों दोनों चैतन्यवंत
नहीं होते है! इन्द्रियरहित अविद्यारूपी कारणशरीर ब्रह्मचेतना से तादात्म्य होंकर
बाकी सूक्ष्म और स्थूल शरीरों दोनों अचेतन होते है!
सर्वद्वारानी संयम्य मनोह्रुदिनिरुध्यचा
मूर्ध्न्याधायात्मनःप्राणमास्थितो योगधाराणां 12
ॐ इत्येकाक्षाराम ब्रह्म व्यहरम्न्मामनुस्मरण
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिं 13
जो साधक अपना इंद्रियद्वारों को निरोध करके मन को ह्रुदय में
अच्छी तरह स्थापन करके शिर का केंद्र में रहा हुआ ब्रह्मरंध्र में प्राणवायु को
रखा कर आत्मा का बारे में एकाग्रचिन्तन यानी योगधारणायुक्त होंकर परब्रह्म का वाचक
प्रतीक ॐकार को उच्चारण करते मेरे को अनुनित्य चिंतन करते शरीर्त्याग करेगा, वों
सर्वोत्तम स्थान यानी मोक्ष प्राप्ति करते है!
अनन्यचेतास्सततं यों मां स्मरति नित्यशः
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः 14
हे अर्जुन, जो साधक अनन्यचित्त होंकर केवल मुझको प्रतिदिन
निरंतर स्मरण करता है, वैसा निरंतर ध्यानपूर्वक मनुष्य को मै आसानी से मिलजाता हु!
कुण्डलिनी विद्या ही श्रीविद्या है! इस में पाँच नियम है! इस
में पाँच नियम मुख्य है!
आहारानियम—सात्विकाहार भोजन करना!
आत्मनियम—इंद्रिय निग्रह पालन करना
निवासनियम— अनुचितप्रदेशो में निवास नहीं होना
प्रवार्तना नियम—धनार्जन के लिए अनुचित कार नहीं
करना
सम्सर्गानियम— अनुचित सहवास नहीं करना
यम, नियम, और आसन पश्चात् 12 उत्तम प्राणायामों करने से प्रत्याहार
यानी अंतर्मुख होता है साधक! वैसा नही होनेसे प्रथम 12 प्राणायामों को 12 और जोडना चाहिए, अंतर्मुख होने तक 24, 36 ऐसा जोडते प्राणायामों करते जाना
चाहिए!
144 उत्तम प्राणायामों करने से धारण यानी
चित्तैकाग्रत होता है! 144
को 12 और12 और जोडते 1728 और अधिक प्राणायामों करते जाना चाहिए!
तब ध्यान में स्थिरत्व प्राप्ति होता है!
एकी बैठक में 20736 और अधिक उत्तम प्राणायामों करने से उस्
समय में समाधि मिलता है!
इस शरीर ही रथ, आत्म रथिक, बुद्धि सारथी, मन ही लगां, और
इंद्रियों अश्वों है!
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतं
नाप्नुवन्ति महात्मानस्संसिद्धिं परमां गताः 15
सर्वोत्तम मोक्ष प्राप्ति हुए माहात्मों मुझे प्राप्ति करके,
पुनः दुःखनिलय अनित्य जन्म को नहीं पाते है!
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनारावर्तिनोर्जुन
मामुपेत्यतु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते 16
हे अर्जुन, ब्रह्मलोक तक जो लोकों है वों सब मनुष्य को पुनः
पृथ्वी लोक में भेजने स्वभावी है! परंतु मुझको प्राप्ति करने से पुनः जन्म नहीं
है!
साधक के कुण्डलिनी शक्ती सहस्रारचक्र में स्थिर होने से
निर्विकल्पसमाधि लभ्य होता है! तत् पश्चात साधक को परमात्मा में लय होने स्थिति
महासमाधि मिलता है! इस महासमाधि स्थिति पाकर साधक को पुनर्जन्म नहीं है! अथवा जन्म
लेने से भी मानावाळि हित के लिए ही होता है!
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मनो विदुः
रात्रियुगासहस्रान्तां तेहोरात्र विदोजनाः 17
जो मनुष्य ब्रह्मदेव का दिन को सहस्रयुग परिमिति करके, वैसा ही
ब्रह्मदेव का रात को सहस्रयुग परिमिति करके, जानते है, वे रात और दिन का तत्व को
अच्छी तरह जाननेवाले है!
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके 18
ब्रह्मदेव का दिन प्रारंभ होने समय अव्यक्त से समस्त चराचर
वस्तुओं उत्पन्न होते है! पुनः रात होने समय समस्त चराचर वस्तुओं उस् अव्यक्त में
विलीन होते है!
भूताग्रामस्सयेवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते
रात्र्यागमॅ वशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे 19
हे अर्जुन, उस् पूर्वकल्प का इस् प्राणिसमूह ही कर्म पराधीन हो
कर जन्म का पश्चात् जन्म लेते लेते ब्रह्मदेव का
रात का प्रारंभ में पुनःविलीन होता है! ब्रह्मदेव का दिन में प्राणिसमूह
पुनः उत्पन्न होता है!
प्रळय समय में प्राणिसमूह सूक्ष्म रूप में होता है! पुनः
सृष्टि प्रारंभ में उत्पन्न होता है!
परस्तस्मात्तु भावोन्योव्यक्तोव्यक्तात्सनातनः
यस्ससर्वेषु भूतेषु नश्यत्सुनविनश्यति 20
जो परमात्म वस्तु उस् अव्यक्त से अलग है, उत्तम है, इन्द्रियों
का माध्यम से व्यक्त नहीं होता है, पुरातन है,
समस्त प्राणिकोटि नाश् होनेसे भी वों नाश् नहीं होता है!
अव्यक्तोक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिं
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम 21
जो परमात्म इंद्रियों को अगोचर और नाशरहित करके कहलाया है,
उन्ही को सर्वोत्तम प्राप्यास्थान करके वेदावेत्तों कहते है! जिस परमात्मा को
प्राप्ति करके लोग पुनः इस संसार में जन्म नहीं लेते है, वोही मेरा स्वरुप का
श्रेष्ठ स्थान है!
ॐकारं—
ॐकारं बिंदुसंयुक्तं नित्यं गायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदंचैव ॐकाराय नमोनमः
अकार(स्थूल), उकार(सूक्ष्म), और मकार(कारण), शब्दों का संयोग
ही ॐकारं है! समिष्टि स्थूल, सूक्ष्म, और कारण लोकों का संयोग ही भगवत प्रतिरूपी
ॐकारं है!
प्रळयों—
हर रात स्थूल, सूक्ष्म, और कारण लोकों अथवा सुषुप्ति में
ममैक होके चित्तवृत्तों निद्राण होने को प्रळय कहते है!
कलियुग—4,32,000वर्षों
द्वापरयुग—8,64,000वर्षों
त्रेतायुग—12,96,000 वर्षों
सत्ययुग—17,28,000 वर्षों
चार युगों— एक महायुग
71x4= 284 एक मनु का काल
परिमिति
14 मनु का काल परिमिति अथवा 14 x71=
994 युगों अथवा 43,20,000 वर्षों
एक ब्रह्म
का दिन = 1000 युगों
एक ब्रह्म
का रात् = 1000 युगों
इस ब्रह्म को कार्यब्रह्मा कहते है!
कार्यब्रह्मा का एक दिन और एक रात् = 2000 युगों
युग युग का बीचवाले समय को प्रळय अवांतरप्रळय कहते है!
हर एक प्रळय में स्थूल और सूक्ष्म शरीरों नाश् होते है!
कारणशरीर नाश् नहीं होता है! प्रळय समय में स्थूल भूमि स्थूलजल में, स्थूलजल
स्थूलअग्नि में, स्थूलअग्नि स्थूलवायु में, स्थूलवायु स्थूलआकाश में विलीन होता
है!
इस् स्थूलआकाश सूक्ष्मभूमि में(समिष्टि अहंकार), सूक्ष्मभूमि
(समिष्टिअहंकार) सूक्ष्मजल्(समिष्टिचित्त)में, सूक्ष्मजल् (समिष्टि चित्त)में ,
सूक्ष्मअग्नि(समिष्टिबुद्धि)में, सूक्ष्मअग्नि(समिष्टिबुद्धि) में,
सूक्ष्मअग्नि(समिष्टिबुद्धि) सूक्ष्मवायु(समिष्टिमन)में विलीन होता है! इस
समिष्टिमन को महत्तत्त्व कहते है!
वर्त्तमान में आरोहण द्वापरयुग चल रहा है, वह 1700A.D. में प्रारंभ हुआ है करके मेरा परमगुरु
स्वामी श्री युक्तेस्वर गिरीजी ने अपना ग्रंथ ‘श्री कैवल्य दर्शन’
में सहेतुक विवरण दिया है!
पृथ्वी जैसा ग्रहों का चारोंओर उन् ग्रहों का उपग्रहों
चन्द्रों परिभ्रमण करते है! हर एक गृह अपना कक्ष्या में भ्रमण करते हुए सूर्य को
केंद्र बनाकर अंडा जैसा उस् कक्ष्या में(Elliptical order) भी भ्रमण करता है!
सूर्य भी अपना कक्ष्या में भ्रमण करते हुए दूसरा नक्षत्र को
केंद्र बनाकर अंडा जैसा उस् कक्ष्या में(Elliptical order) भी भ्रमण करता है! इसी को विष्णुनाभि कहते है! उस् नाभि का उप्पर
पद्म में बैठा हुआ ब्रह्मा को दिखाते है!
ब्रह्म ज्ञान का केंद्र है! पद्म पानी में रहते हुए सडता नहीं
है! वैसा ही मनुष्य पानी जैसा संसार में होते हुए सदना नहीं चाहिए! परमात्म को
भूलकर ध्यान छोडना नहीं चाहिए! इसी को ज्ञान कहते है!
सूर्य विष्णुनाभि का चारोंओर भ्रमण करने को 24000 वर्षों लगता है! 12000 वर्षों अर्थवृत्त है! उप्पर जानेवाली
अर्थवृत्त आरोहण(Ascending)
है! नीचे आनेवाली अर्थवृत्त अवरोहण(descending) है!
मार्च मास् 21
तारीख में मेष संक्रांति (Vernal Equinox) आता है! सितम्बर 23 तारीख में तुला संक्रांति (Autumnal
Equinox) आता है! इस सितम्बर 23 तारीख में रात् और दिन बराबर रहता है!
सूर्य मकरराशि में प्रवेश करने से मकर संक्रांति होता है! इसी
को उत्तरायण (Summer Solstice) कहते है!
सूर्य जून मास् 21
तारीख का आस पास में भूमध्यरेखा (Equator) की 23 ½ ౦ उत्तर दिशा में प्रयाण करता है! इसीलिए
शर्दी आरंभ होता है!
सूर्य कर्काटक राशि में प्रवेश करने से कर्काटक संक्रांति होता
है! इसी को दक्षिणायण (Winter Solstice) कहते है!
सूर्य जून दिसंबर 21
तारीख का आस पास में भूमध्यरेखा (Equator) की 23 ½ ౦ दक्षिण दिशा में प्रयाण करता है! इसीलिए
गर्मी आरंभ होता है!
24000 वर्षों सूर्य का
विष्णुनाभि परिभ्रमण में प्रथम 12000 वर्षों आरोहण(Ascending) अर्थवृत्त में कलि, द्वापर, त्रेता और सत्य युगों करके चार
युगों, तत् पश्चात अवरोहण (descending) अर्थवृत्त में वैसा ही सत्य, त्रेता,
द्वापर, और कलि युगों होते है!
हर एक युग प्रारंभ में हर एक 1000 वर्षों को 100 वर्षों का संधिकाल दोनों दिशा में 200 वर्षों होता है!
कलियुग= 100+1000+100=1200 वर्षों
द्वापरयुग =200+2000+200=2400 वर्षों
त्रेतायुग = 300+3000+300=3600 वर्षों
सत्ययुग =400+4000+400=4800 वर्षों.
कुल = 12000 वर्षों
1700A.D. से आरो़हण(Ascending) द्वापरयुग प्रारंभ हुआ है! प्रारंभक 200 वर्षों का संधिकाल भी बीत गया है! 2013
वर्ष तक 113 वर्षों का असली
आरो़हण(Ascending)
द्वापरयुग भी बीत गया है! 4100 A.D. वर्ष में आरो़हण(Ascending) त्रेतायुग प्रारंभ होगा!
राजा परीक्षित का समय में पांडवों और विज्ञों मिलके हिमालयों
चलागया! समझाने विज्ञों नहीं होने पर अवगाहना राहित्य अवरोहण(descending)कलियुग प्रारंभ हुआ करके बोलने कोई साहस
नहीं किया था! 2400वर्षों
अवरोहण (descending)
द्वापरयुग पूर्ण होने से भी उसी को बढ़ाके 2401वर्षों का अवरोहण (descending) द्वापरयुग करके कहायागया!
मेष संक्रांति (Vernal Equinox)स्थिर नक्षत्र रेवति प्रथम पादं 200
54’ 36’’दूर में है! वह समय बीत के 1394वर्षों होगया, प्रस्तुत में आरो़हण(Ascending)
194 द्वापरयुग आरंभ हुआ
है करके श्री स्वामी युक्तेस्वर हिसाब लगाके1894 में कहा था! आरो़हण द्वापरयुग प्रारंभ 200 संधिकाल भी पूर्ण होगया, 2013वर्ष
को 113आरो़हण(Ascending)निज द्वापरयुग सम्पूर्ण हुआ है और 114आरो़हण(Ascending)निज द्वापरयुग वर्त्तमान में चल रहा है!
युग लक्षणों—
कलियुग
सूर्य विष्णुनाभी का प्रदक्षिण करने 12000 वर्षों का आरोहण (Ascending)अर्थावृत्त का प्रथम 1200 वर्षों आरोहण (Ascending) कलियुग है! उस् समय में धर्म एक ही पादं में चलेगा! आरोहण(Ascending) क्रम में धर्म क्रमशः वृद्धि होता है!
बुद्धि भौतिक विषयों का अधिक प्राधान्यत देते हुए परमात्म का दूर में रहेगा!
अवरोहण(descending)
कलियुग में केवल भौतिक विषयों का यानी स्थूलशरीर को अधिक प्राधान्यत देता है
मनुष्य!
द्वापरयुग
सूर्य विष्णुनाभि का प्रदक्षिण करने 12000 वर्षों का आरोहण (Ascending)अर्थवृत्त का प्रथम 2400
वर्षों आरोहण (Ascending) द्वापरयुग है! उस् समय में धर्म दो
पादों में चलेगा! आरोहण(Ascending)
क्रम में धर्म क्रमशः वृद्धि होता है! बुद्धि विचारा क्रिया विषयों को प्राधान्यत
देते हुए परमात्मा को थोड़ा थोड़ा समीप में आएगा! सूक्ष्मशरीर को प्राधान्यत देगा
मनुष्य! इसीलिए 1700
वर्ष से अनेक शास्त्रीय परिशोधानायें(Scientific inventions) करके मनुष्य उत्तीर्ण होरहा है! अवरोहण(descending) द्वापरयुग में बुद्धि विचारा क्रिया
विषयों को नहीं प्राधान्यत देते हुए परमात्मा को थोड़ा थोड़ा दूर जाएगा!
त्रेतायुग
सूर्य विष्णुनाभी का प्रदक्षिण करने 12000 वर्षों का आरोहण (Ascending)अर्थवृत्त का प्रथम 3600
वर्षों आरोहण (Ascending) त्रेतायुग है! उस् समय में धर्म तीन
पादों में चलेगा! आरोहण(Ascending)
क्रम में धर्म क्रमशः वृद्धि होता है! बुद्धि कारणशरीर विषयों को प्राधान्यत देते
हुए परमात्मा को बहुत समीप में आएगा! कारणशरीर को प्राधान्यत देगा मनुष्य! अवरोहण(descending) त्रेतायुग में बुद्धि परमात्मा से
थोड़ा दूर जाएगा!
सत्ययुग
सूर्य विष्णुनाभी का प्रदक्षिण करने 12000 वर्षों का आरोहण (Ascending)अर्थवृत्त का प्रथम 4800
वर्षों आरोहण (Ascending) सत्ययुग है! उस् समय में धर्म चारों
पादों में चलेगा! आरोहण(Ascending)
क्रम में धर्म परमात्मा को बहुत समीप में आएगा! कारणशरीर को प्राधान्यत देगा
मनुष्य! अवरोहण(descending)
सत्ययुग में बुद्धि परमात्मा से दूर होना प्रारंभ होता है!
गलती को सही करने प्रयत्न
अवरोहण(descending) द्वापरयुग में बुद्धि विचारा क्रिया
विषयों को नहीं प्राधान्यत देते हुए परमात्मा को थोड़ा थोड़ा दूर जाएगा!
प्राचीन ऋषियों ठीक बनाया 1200वर्षों कलियुग को अवगाहना राहित्य का
वजह से 4,32,000
वर्षों परिमिति को अनुचित करके विज्ञों ने समझ गया! परंतु अधैर्य का हेतु उन्
विज्ञों ने उसी अनुचित हिसाब को समर्थन करता रहा! 1200 वर्षों परिमिति को दैव वर्ष, और एक दैव
वर्ष का 360 सूर्यदिन (Solar days) का समान करके अभिवार्ण किया!
ऐसा कलियुग=1200x360=4,32,000 सूर्यदिन (Solar days) हुआ है!
द्वापर, त्रेता और सतुयुगो को भी इस गुणकार (Calculation)एकदम ठीक बैठा है! .
:
पुरुषः सपरः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येनसर्वमिदं ततं 22
हे अर्जुन, जिस में सर्व प्राणी निवासन कर रहे है, जिस् का
हेतु समस्त जगत वाप्ति हुवा है, उस् परमात्म अनन्य भक्ती से ही साध्य है!
महत्तत्व, मूलप्रकृति, अविद्या, कारणशरीर, शेष रहना ही प्रळय
है! सद्गुरु कृपा से क्रियायोगसाधना का माध्यम से ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया साधक
का कारणशरीर भी नाश् होंकर ब्रह्म में ऐक्य होजायेगा जिस को जन्मराहित्य कहते है!
जब तक कारणशरीर रहेगा तब तक पुनर्जन्म अवश्य मिलेगा! पदार्थ नाश् नहीं होगा!
पदार्थ का अंदर का अणु स्थानभ्रंश् हो सकता है! पदार्थ रूपांतर होंकर सूक्ष्मरूप
में कल्प और कल्प का बीच में ब्रह्म में एैक्य होके रहेगा! अव्यक्त रूप में रहेगा!
पुनः जगत् व्यक्तीकरण समय में अनेक नामारूपों में माया का हेतु ब्रह्म से अलग
वस्तु रूप में दिखायिदेना ही सृष्टि है! माया ब्रह्म से अलग नहीं है, ब्रह्म का
अंतर्भाग है!
समस्त सृष्टि ब्रह्म से भर रहना ही ब्रह्मवैवर्त है! समस्त
चराचर प्रपंच में अंतर्गत और बहिर्गत रूप में स्थित ब्रह्मचैतन्य ही प्राणो में ‘मै’
करके व्यवहरण किया हुआ है!
बाह्य संसारानुभवों और कर्मफलों को अनुभव करने बनाया हुआ उप्पर
का कवर ही इस जड स्थूलशरीर!
इस स्थूलशरीर का आवश्यक ब्रह्मचैतन्य सूक्ष्मशरीर का माध्यम से
लभ्य होता है! सूक्ष्मशरीर का सूक्ष्म अंतःकरण का माध्यम से स्थूल अंतःकरण में,
स्थूल अंतःकरण का माध्यम से स्थूलशरीर प्रवेश किया ब्रह्मचैतन्य द्वारा मांसमय
स्थूलशरीर काम करता है!
अनेक जन्म संस्कारों का कर्मफल सुखदुखानुभव को आश्रय है इस
सूक्ष्मशरीर! सूक्ष्मशरीर का साधना माध्यम है स्थूलशरीर! अवयवरहित कारणशरीर यानी
ब्रह्मनाडि का माध्यम से ब्रह्मचैतन्य सूक्ष्मशरीर में प्रवेश करता है!
सूक्ष्मशरीर अंतःकरण द्वारा ब्रह्मचैतन्य सूक्ष्मशरीर में प्रवेश कर के
सूक्ष्मशरीर को चैतन्यवंत करता है! कर्त्रुत्व भोक्त्रुत्व वासनाएँ सूक्ष्मशरीर
अंतःकरण धर्म है!
अंतःकरण ही सुख और दुःख दोनों अनुभव करता है! इस जड़शरीर
व्यष्टि सृष्टि, जड़ जगत समिष्टि सृष्टि है! इसी को माया कहते है! माया परमात्म का
अंतर्भाग है! परमात्म का चार पाद होने से उस् में एक पाद इस माया है! इस माया ही
सृष्टि में व्यक्तीकरण हुआ! शेष तीन पादों का ब्रह्म सृष्टि का अतीत है! इस तीन
पादों का ब्रह्म जड़ व्यष्टि/समिष्टि सृष्टि में प्रवेश करके इस जड़ सृष्टि को
चैतान्यवंत किया है! व्यष्टि सृष्टि को प्रत्यगात्मा कहते है! स्वप्न शिर में आता
है! स्वप्ना नहीं आने बाकी तीन भाग यानी ह्रुदय, पेड, और कमर का नीचे पैर इत्यादि
गर्दन का नीचे है! वे सब स्वप्न का अतीत है!
स्वप्न सत्य है करके विश्वास होना अविद्य है! अविद्य त्रिगुणों
को वश हुआ ब्रह्म है! इस अविद्य का कारण ब्रह्म का यदार्थ रूप विस्मृति होता है!
यात्रकालेत्वानावृत्तिमावृत्तिचैव योगिनः
प्रयाता यांतितं कालं
वक्ष्यामि भरतर्षभ 23
भरत कुलश्रेष्ट अर्जुन, जिस कल यानी मार्ग में शरीर त्यजने से
योगियों पुनः जन्म नहीं पाते है, उन् विशेषों का बारे में कहरहा हु, सुनो!
अग्निर्ज्योतिरहःशुक्लष्षण्मासा उत्तरायणं
तत्रप्रयता गच्छंति ब्रह्मब्रह्मविदोजनाः 24
अग्नि, प्रकाश, दिन, शुक्लपक्ष, छे मासों का उत्तारायण, जिस
मर्ग में है, उस् मार्ग में जाने कर्मयोगी साधकों ब्रह्म को ही प्राप्ति कररहा है!
.
ढूमोरात्रिस्ताथा कृष्णष्षण्मासा दक्षिणायनं
तत्रचान्द्रमसंज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते 25
धुआँ, रात्, कृष्ण, छे मासों का दक्षिणायण, जिस मर्ग में है,
उस् मार्ग में जाने काम्यकर्मयोगी चंद्र संबंधित प्रकाश पाकर पुनः जन्म प्राप्ति
कररहा है!
शुक्लाक्रुष्णगतीह्येते जगतः शाश्वते मते
एकयायात्यनाव्रुत्तिमन्ययावर्तते पुनः 26
ए शुक्ल और कृष्ण पक्ष मार्गो दोनों जगत में शाश्वत है! उन्
दोनों में शुक्ल पक्ष मार्ग में योगी ज्न्मराहित्य और कृष्ण पक्ष मार्ग में पुनः
जन्म प्राप्ति करता है!
अग्नि का अर्थ कुण्डलिनी शक्ती! साधक कुण्डलिनी प्राणशक्ति
नियंत्रण साध्य करना है! प्राणशक्ति नियंत्रण साध्य किया योगी का मार्ग प्रकाश
अथवा परमात्म चैतन्य यानी सहस्रार्चक्र का दिशा में होगी! ए मार्ग शुक्ल अथवा धवळ
मार्ग! इदर दिन का अर्थ साधक को समाधि स्थिति में दिखनेवाले कूटस्थ का तीसरा आँख
ही है! छे मास् का उत्तरायण का अर्थ मूलाधार, स्वाधिष्टान, मणिपुर, अनाहत,
विशुद्ध, और आज्ञा इति छे चक्रों, सहस्रार उत्तर दिशा है! इन छे चक्रों में साधक
अपना साधना में छे प्रकार का परमात्मचेतना का अनुभूति प्राप्ति करता है! इस प्रकार
कुंडलिनि प्राणशक्ति चेतन उत्तरदिशा में प्रयाण करके सुषुम्ना, वज्र और चित्रि
करके मेरुदंडस्थित तीन सूक्ष्म नाडियों को पार करके,स्थूल और सूक्ष्म शरीरों आखरी
में कारणशरीरास्थिता अत्यंत सूक्ष्म ब्रह्मनाडि का माध्यम से अत्युत्तम ब्रह्म में
ऐक्य प्राप्ति करता है! और जनन मरण बंधों से विमुक्ति पाता है!
साधारण मनुष्यों में प्राणशक्ति का मार्ग अथोमार्ग यानी अँधेरा
यानी कृष्ण मार्ग है! धुआँ का अर्थ रात् यानी अज्ञानता स्थिति! परमात्म चेतना
सहस्रारचक्र से छे मास् दक्षिणायन यानी आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर,
स्वाधिष्ठान और मूलाधार करके छे चक्रों का माध्यम से द्वांद्वायत संसार में अवरोहण
क्रम में उतरणे और जनन मरण बांधो में फसने को दक्षिणायन कहते है! मूलाधारचक्र को
दक्षिण दिशा कहते है! इस छे चक्रों में प्राणशक्ति अवरोहण क्रम में उतरणे का समय
में मनुष्य परमात्मचेतना और अनुभूति को क्रमशः खोबैठेगा!
जीव का प्रयाणसमय में अविद्या अथवा कारणशरीरयुक्त सूक्ष्मशरीर
यानी जीव का साथ ही कामं, कर्म, पंचमहाभूतों, वासनाएं, कर्मफलों, होते है!
जीव कारण और सूक्ष्मशरीरों का माध्यम से आकाश, वायु, धूम,
वर्षवाली मेघ का माध्यं से धान्य(वीह्रादि) द्वारा अन्न स्वरुप होजायेगा! उस् अन्न
को भोजन किया पुरुषशरीर में जीव प्रवेश करता है! पुरुष शक्ल का माध्यम से प्रयाण
करके स्त्री शरीर का शोणित में मिला जाता है! सूक्ष्मशरीर म्ररणानंतर नाश् हुआ
स्थूलशरीर पंचीक्रुत पञ्च महाबूतों का सूक्ष्मांश, पुण्य और पाप कर्मफलों,
वासनारूपी असफल वांछायें, त्रिगुणात्मक कारणशारीर जीव, जन्मराहित्य नहीं होने तक,
सह प्रयाणीक है!
नैतेसृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तोभवार्जुन 27
हे अर्जुन, इन दोनों मार्ग जाने योगी कोई भी और मोह प्राप्ति
नहीं करते है! इसीलिए तुम योगी बनो!
ज्ञानी अथवा अज्ञानी हो स्थूलपतनानंतर, इंद्रियों अंतःकरण में,
अंतःकरण प्राण में, प्राण, वासनाएं और कर्मफलों जीव में ले होता है!
कंठ में स्थित उदानवायु कर्मफलानुसार पुण्य और पाप यानी उत्तम
अथवा नीचलोक में जीव को लेजाते है!
एक ब्रह्मरंध्र, दो नासिकारंध्रों, दो नेत्ररंध्रों, दो
श्रोत्ररंध्रों, एक मुखरंध्र, एक मूत्रविसर्जनरंध्र, एक मलविसर्जनरंध्र, और एक
नाभिरंध्र, सब मिलाके 11रंध्रों
इस शरीर में है!
हर एक मनुष्यशरीर में 72,000 सूक्ष्म नाड़ीयां है! उन् में इडा,
पिंगळा और सुषुम्ना नाड़ीयां अति मुख्य है!
सुषुम्ना सूक्ष्म नाड़ी गुदस्थान स्थित मूलाधारर्चक्र से
ब्रह्मरंध्र स्थित सहस्रार्चक्र तक सारे मेरुदंड में व्याप्त हुआ है! ज्ञानी और
योगी लोग यानी जीवन्मुक्त लोग मरण समय में इस मार्ग से निकलते है!
इडा सूक्ष्मनाड़ी
मूलाधारर्चक्र से सुषुम्ना का बाए से नासिका रंध्र तक सारे मेरुदंड में
व्याप्त हुआ है! इसी को चंद्रनाडी अथवा पितृयाननाडी अथवा कृष्णयाननाडी कहते है!
आत्मज्ञानशून्य लोग और कर्मफलों का
प्रतिफल में आशा करने लोग मरण समय में इस मार्ग से निकलते है!
पिंगळा सूक्ष्मनाड़ी
मूलाधारर्चक्र से सुषुम्ना का दाए से नासिका रंध्र तक सारे मेरुदंड में
व्याप्त हुआ है! इसी को सूर्यनाडी अथवा देवयाननाडी अथवा शुक्लयाननाडी कहते है!
निष्काम् से सत्कर्म करके कर्मफलों का प्रतिफल में आशा नहीं करने लोग मरण समय में
इस मार्ग से निकलते है!
जीवन्मुक्त केवल इस प्रपंच साक्षीभूतस्थिति में रहते है!
ध्याता, ध्येयं, ध्यानं तीनों को मिलाके तृप्ति कहते है!
स्थूलाशारीरा पतनानंतर जीव इडा, पिंगळा अथवा उन् नाडियो का साथ
जोड़ा हुआ किसी भी नाड़ी का माध्यम से प्रयाण करसकते है! गुदा स्थान से लेकर
भ्रूमध्य तक रहा कोई भी नाड़ी का माध्यम से अपना अपना कर्मानुसार गुदास्थान, मुख,
नासिका, नेत्रों,श्रोत्रों का माध्यम से निकलासकते है!
नेत्रों का दोनों तरफ गांधारी और हस्तिजिह्वा, श्रोत्र रंध्रों
का दोनों तरफपूषा, जीब का आखरी में सरस्वति, मूत्रविसर्जन रंध्र में कुहू नाडियों
है! मरण का अर्थ मैला हुआ पुराणा कपड़ा त्यग के नया कपड़ा पहनना ही! स्थूलशरीर
विसर्जन ही मरण!
वेदेषु यज्ञेषु तपसुचैव दानेषु यात्पुण्यफलं प्रदिष्टं
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैतिचाद्यं 28
अक्षरपरब्रह्मतत्व जानने योगीजो वेदों, यज्ञों, दानों, तपस,
इत्यादि में जो पुण्यफल का बारे में कहागया है उन् से अधिक प्रतिफल प्राप्त करता
है! इतना ही नहीं, अनादियुक्त सर्वोत्तामब्रह्म स्थान को प्राप्त करता है!
ॐ तत्
सत् इति श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायाम योग शास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरपरब्रह्मयोगोनाम अष्टमोऽध्यायः
ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेनमः
ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेनमः
श्रीभगवद्गीत अथ नवमोऽध्यायः
राजविद्याराजगुह्ययोगः
श्री
भगवान् उवाच—
इदं
तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे
ज्ञानं
विज्ञान सहितं यज्ञात्वा मोक्ष्यसे शुभात् 1
श्री
भगवान् ने
कहा—
हे अर्जुन, जिसको जानने से इस अशुभरूपी संसारबांध से तुम विमुक्ति होकयेगा, वैसा अतिराहस्य
अनुभवज्ञानसहित इस ब्रह्मज्ञान को
ईर्ष्यारहित तुम को निर्धारित रूप में कहता हु!
राजविद्याराजगुह्यं
पवित्रमिदमुत्तमं
प्रत्यक्षावगमं
धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययं
2
इस ब्रह्मज्ञान समस्त विद्यों में श्रेष्ट, रहस्यों में अत्यंत
रहस्य, सर्वोत्क्रुष्ट, अत्यंत पवित्र, प्रत्यक्ष में जानने का योग्य, धर्मयुक्त,
अनुष्ठान करने अत्यंत सरळ और नाशरहित है!
रहस्यका अर्थ —रहित हास्य! योगसाधन हास्य रहित नहीं
है, परमात्म का अनुसंथान के लिए करनेवाली परमोत्कृष्ट वृत्ति है!
अश्रद्धाधानाःपरुषा धर्मस्यास्य परंतप
अप्राप्य मां निवर्तंते मृत्यु संसार वर्त्मनि 3
हे अर्जुन, इस आत्मज्ञानधर्म में श्रद्धारहित मनुष्यों मुझे
प्राप्ति नहीं करते है! वे मृत्युरूपी संसार में निर्धारित रूप में वर्तित कर रहा
है!
मयाततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना
मत्थ्सानि सर्वभूतानि नचाहं तेष्ववस्थितः 4
इस समस्त प्रपंच अव्यक्तरूपी मुझ से व्याप्त किया हुआ है!
समस्त प्राणीयों मुझ में है! मुझे वों आधार नहीं है!
न च मत्थ्सानि भूतानि पश्यमे योगैश्वरं
भूतभ्रुन्नच भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः 5
प्राणों मुझ में है! इतनाही नहीं है, ईश्वर संबंधित मेरा इस
योगमहिमा को देखो! मेरा इस आत्म प्राणों को उत्पन्न करता है और भरता है! परंतु उन्
प्राणों को आधार कर के उन् में रहता नही है!
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुस्सर्वत्रगोमहान्
तथा सर्वाणि भूतानि मत्थ्सानीत्युपधारय 6
जिस प्रकार में सर्वत्र संचारण करनेवाले, उत्तमता वायु सर्वदा
आकाश में रहता है, इसी प्रकार में समस्त प्राणों मेरा में है!
एक वस्तु को स्थानभ्रंश करने को जगह चाहिए! परमात्म अपरिमित और अनंत है! सभी छीजों को रखने परमात्म में जगह रहता है!
सर्वभूतानि कौंतेय प्रकृतिं यांतिमामिकां
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विस्रुजाम्यहं 7
हे अर्जुन, समस्त प्राणीयों प्रळय काल समय में मेरा माया प्रकृति
में लीन् होके स्तब्द होके रहता है! पुनः सृष्टिकाल समय में उन् को मै सृजन करता
हु!
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विस्रुजामि पुनः पुनः
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रक्रुतेर्वशात् 8
मायाप्रकृति अथवा स्वकीयाकर्म को अधीन हुआ इस अस्वतंत्र समस्त
प्राणीयों को मै स्वकीय प्रकृति को अवलंभन् करके पुनः पुनः सृष्टि करता हु!
नच मां तानि कर्माणि निबध्नंति धनञ्जय
उदासीनवदासीनमस्तकं तेषु कर्मसु . 9
हे अर्जुन, उस् स्रुष्ट्यादि कर्मो में मुझे लगाव नहीं है!
मै साक्षीभूत हु, इसीलिए वों समस्त कर्मो
मुझे बंधन में नहीं डाल सकते है!
मय्याध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते 10
हे अर्जुन, मै साक्षीभूत और अध्यक्ष हु! समस्त चराचर प्रपंच
मुझसे ही सृजन होता है! इस का हेतु जगत प्रवर्तित है!
अवजानंति मां मूढामानुषीं तनुमाश्रितं
परंभावमजानंतो ममंभूत महेश्वरं 11
मेरा परतत्व को नहीं जाने अविवेक लोग मुझे अलक्ष्य कर के अवमान
कर रहा है! मै सर्वभूत महेश्वर हु! लोकसंरक्षणार्थ के लिए मनुष्य देह को आश्रय
किया हू!
मोघाशोमोघकर्माणो मोघ ज्ञाना विचेतसः
राक्षसीमासुरींचैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः 12
व्यर्थ आशा जीवों, व्यर्थ कर्म जीवों, व्यर्थ ज्ञानी लोग
और बुद्धिहीन जैसा लोग, राक्षससंबंधित और
असुर संबंधित स्वभाव को ही आश्रय करते है!
महात्मनस्तु मां पार्थ देवीं प्रकृतिमाश्रिताः
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययं 13
हे अर्जुन, परंतु महात्मलोग दैवी प्रकृति को आश्रय करके मुझ को
प्राणोँ का आदिकारण और नाशरहित प्रभु करके जान के दूसरा वस्तु में मन नहीं रखके
मुझ्कोही सेवा कर रहा है!
सततं कीर्तयंतोमां यतन्ताश्च दृढव्रताः
नमस्यंतश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते 14
दैवी प्रकृति लोग सर्वदा मुझ को कीर्तित करते हुए,
दृढव्रतानिष्ठ हो कर भक्ती से मुझ को नमस्कार करते है, सदा मेरे में चित्त लगाके
मुझको सेवा करते है!
ज्ञान यज्ञेन चाप्यन्ये यजंतो मामुपासते
एकत्वेन प्रुथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखं 15
और कुछ साधकों अद्वैतभाव से ज्ञानयज्ञ का माध्यम से मुझे पूजन्
कररहा है!
ब्रह्म विविध देवता रूपों में विराजित है करके कुछ साधकों
द्वैतभाव से विविध देवताओ का उपासन कर रहा है!
अहंक्रतुः अहंयज्ञःस्वधाहमहमौषधं
मंत्रोमाहमेवाज्य महामग्निरहं हुतं 16
करतू मै हु, यज्ञ मै हु, पित्रुदेवातावों को देने अन्न मै हु,
औषध मै हु, हविस मै हु, अग्नि मै हु, और होम कर्म भी मै हु!
पितामहस्य जगतो मताधाता पितामहः
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेवच! 17
इस जगत को पिता, माता, संरक्षक, कर्मफलदाता, दादा यानी पितामह,
जानने छीज, पावनपदार्थ, ॐकार, ऋगवेद, सामवेद और यजुर्वेद सब मै हु!
गतिर्भर्ता प्रभुस्साक्शी निवासश्शरणं सुहृत्
प्रभवःप्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् 18
परमलक्ष्य को भरनेवाला, प्रभु, साक्षी, प्राणो का निवास शरण
लेने योग्य, हित करनेवाला, सृष्टि स्थिति और लय करता, निक्षेप, नाशाराहिता मूलकारण
बीज, सब मै हु!
तपाम्यहमहं वर्षं निग्रुह्णा म्युत्स्रुजामिच
अमृतंचैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन 19
हे अर्जुन, मै सूर्यकिरणों से तपन कर रहा हु, वर्षा होने कारण,
वर्षा बंद होने कारण, जन्मराहित्य कारण, मरण कारण, सद्वस्तु और असद्वस्तु सब ही मै
हु!
त्रैविद्यामां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्ट्वास्वर्गतिं
प्रार्थयन्ते
ते पुण्यमासाद्य सुरेंद्रलोकमश्नंति दिव्यान्दिवि देवाभोगान् 20
तीनों वेदों को अध्यन किया लोग, कर्मकांड को समभाव से आचरण
करने लोग, सोमपान किया लोग, पापकल्मष से विमुक्त हुए लोग,यज्ञों का माध्यम से
स्वर्ग प्राप्ति के लिए मुझको पूजन कर रहा है! वे मरणानंतर उन् लोगों का पुण्यफल
प्राप्ति के लिए देवेंद्रलोक प्राप्ति करके उस् स्वर्ग में दिव्या देवभोग भोग रहा
है!
ते तं भुक्त्वास्वर्गलोकंविशालं क्षीणेपुण्ये मर्त्यलोकं
विशंति
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं काम्कामालाभंते 21
स्वर्गाभिलाषी लोग विशाल स्वर्गलोक में अनुभव करके पुण्य क्षय
होनेपर पुनः मनुष्यलोक में जन्म लेरहे है! इस प्रकार सकाम वेदोक्तधर्म अनुष्ठान
करने उन् भोगाभिलाषी लोग जनन मरण प्राप्ति कर रहे है!
अनन्याश्चिंतयंतोमां ये जनाः पर्युपासते
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहं 22
जो इतर भाव नहीं होते हुए केवल मेरा ही चिंतन करते हुए निरंतर
ध्यान करते है, वैसा सदा मेरा उप्पर निष्ट होनेवाले लोगों का योगक्षेम् मै लेता
हु!
येप्यन्यदेवताभक्तायजंते श्रद्धयान्वितः
तेपि मामेव कौन्तेय यजन्त्य विधिपूर्वकं 23
हे अर्जुन, जो लोग इतर देवताओं में श्रद्धा का साथ उन् को
आराधन कररहा है, वे लोग भी परोक्ष में अक्रमशः अविधि पूर्वक मुझ को ही अआराधन
कररहा है!
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च
नातुमामाभिजानंती तत्त्वेनातश्च्यवन्तिते! 24
क्योंकि समस्त यज्ञों का भोक्ता और प्रभु मै ही हु! ऐसा मेरा
यदार्था स्थिति को लोग नहीं जानने प्रयत्न नहीं कररहे है! इसीलिये पुनर्जन्म
प्राप्ति कररहे है!
यांति देवव्रता देवान् पित्रून् यांतिपितृव्रताः
भूतानियांति भूतेज्यायांति मद्याजिनोपिमाम्
जो लोग देवाताओं को आराधन करते है वे देवाताओं को, पित्रु देवाताओं
को आराधन करते है वे पित्रु देवाताओं को, भूतों को आराधन करते है वे भूतों को और
जो मुझ को आराधन करते है वे मुझ को, प्राप्ति करते है!
पत्रं पुष्पं फलं तोयं योमे भक्त्याप्रयच्चति
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः 26
जो मनुष्य मुझे भक्ती का साथ पत्र, पुष्प, फल अथवा जल को
समर्पित करता है, उस् परिशुद्धान्तःकरण और परमार्थयत्नाशील का भक्ती से समर्पित
किया उन् पत्र पुश्पादियों को मै प्रीती का साथ आस्वादन करता हु!
यत्करोषि यदाश्नासि यज्जुहोषिददासि यत्
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणं 27
हे अर्जुन, तुम जो कुछ भी करो, खावो, होम करो, दान करो, और तपस
करो, वों सब मुझ को अर्पित करो!
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबंधनैः
सन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तोमामुपैष्यसि 28
इस प्रकार ‘कर्म समर्पण’ योगयुक्त होंकर, पुण्य और पाप फलों का
जोड़ा हुआ कर्मबंध से तुम विमुक्त होकर मुझ को प्राप्त करोगे!
समोहं सर्वभूतेषु नमे द्वेष्योस्तिनप्रियः
ये भजन्ति तु मामंभक्त्या मयितेतेषुचाप्यहं 29
मै समस्त प्राणीयों में बराबर रहता हु, मुझे कोई भी प्राणी
द्वेषनीय अथवा इष्ट नहीं है! जो मनुष्य भक्ती से मुझे सेवा करेगा, वे मेरा में और
मै उन् में होंगे!
साधक परमात्मा का प्रासाद में प्रवेश करना है, तब परमात्मा
साधक का प्रासाद में प्रवेश करता है! साधक का प्रासाद का अर्थ साधक का शरीर ही है!
इसीलिये परमात्मा का प्रासाद खाते है!
अपिचेत्सू दुराचारो भजते मामनन्यभाक्
साधुरेवासमंतव्यस्सम्यग्व्यवसितोहिनः 30
अत्यंत दुराचारी भी अनन्यभक्ति का हेतु, इतराते किसी भी छीज में भक्ती यानी श्रद्धा
नहीं लगा के आश्रय नहीं करके मुझ को आराधन करने से वैसा स्थिरमनोनिश्चय मनुषय
उत्तम ही करके गिनाजाता है!
इंद्रियविषयलोल होना दुराचार है! क्रियायोगासाधन करना सदाचार
है!
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्चांति निगच्छति
कौन्तेय प्रतिजानीहि नमेभक्तः प्रणश्यति 31
मुझे आश्रय किया पापात्म भी शीघ्र ही धर्मबुद्धि पाता है और
शाश्वतशांति प्राप्त कररहा है! हे अर्जुन,’मेरा भक्त नाश् नहीं होगा’
करके प्रतिज्ञा करो!
मांहि पार्थाव्यपाश्रित्य येपिस्युः पापयोनयः
स्त्रियोंवैश्यास्तथा सूद्रास्तेपि यांति परांगतिं 32
हे अर्जुन, जो नीच और पाप जन्म प्राप्त किया है वे लोग,
स्त्रीयों, वैश्यों, तथा शूद्रों मेरा आश्रय करके सर्वोत्तम मोक्षस्थान निश्चय रूप
में प्राप्त कररहा है!
जो मनुष्य बिलकुल साधना नहीं करता है ओई शूद्र है! योग साधना
में कुंडलिनीशक्ति को जागृति करके कुछ प्रगति साध्य करके उस् शक्ति जिस चक्र में
पहुंचेगा उस् का मुताबिक़ क्षत्रिय, वैश्य, और ब्राह्मणों स्थितियों लभ्य करते है!
अनाहत चक्र पहुँचने तककुंडलिनीशक्ति को जागृति करने से ब्राह्मण होता है!
किम पुनर्ब्राह्मणःपुन्या भक्ता राजर्षयस्तथा
अनित्यमसुखंलोकमिमं प्राप्यभजस्वमां 33
और पुण्यात्म ब्राह्मणोंके और भक्त राजर्षियों का बारे में फिर
बोलने का क्या आवश्यक है? इसीलिए इस अशाश्वत लोक
प्राप्त हुआ तुम भी मुझे भजो!
मन्मनाभव मद्भक्तो मद्याजीमां नमस्कुरु
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः 34
मुझ में ही मन निमग्न करो, मेरा भक्त होजावो, मुझ को ही पूजन
करो, और मुझ को ही नमस्कार करो! इस प्रकार मेरा उप्पर ही चित्त लगाके मुझ को ही
परमागति करके संकल्प करने से आखरी में मुझ को ही प्राप्त करोगे!
एक गुब्बारा में हवा भरने से वह फट् जाएगा और हवा प्रकृति में
मिल जाएगा! वैसा ही परमात्मा ने सृष्टि किया ए सब प्रपंचों अधिक होते होते फट के
पुनः परमात्म में ममैक होता है!
इस सृष्टि का पूर्व में पूर्णात्म एक ही थी! इस पूर्णात्म को
ब्रह्म, परमात्मा करके पुकारते है! ब्रह्म अविद्या में अपना चेतना को व्याप्ति
किया है! उस् का परिणाम ही सृष्टि है!
ब्रह्म दो प्रकार का लगता है! 1) सृष्टि में परिणाम नहीं हुआ ब्रह्म, 2) सृष्टि में परिणाम हुआ ब्रह्म
ब्रह्म को चार पाद है समझने से उन् में एक पाद नामरूपों
का जगत में रूपांतर हुआ! जगत में रूपांतर
हुआ ब्रह्म ही व्यक्त ब्रह्म अथवा व्याकृत ब्रह्म, ए इन्द्रियगोचर है!
अस्ति, भाति और प्रियं कर के तीन लाक्षणिक इन्द्रियगोचररहित
ब्रह्म को अव्यक्तब्रह्म, निराकाराब्रह्मा, अव्याक्रुताब्रह्मा, अथवा परब्रह्म
करके व्यवहार करते है!
अस्ति का अर्थ अस्तित्व अथवा सत्, भाति का अर्थ चैतन्य प्रकाश अथवा
चित्, प्रियं का अर्थ आनंद है!
सत् का अर्थ नाशरहित, सत्य स्वरुप और वह एक ही सर्व शक्तिमान
है! चित् का अर्थ चैतन्यमय है! आनंद का अर्थ आदिभौतिका, आदिदैविक और आध्यात्मिक
दुःखरहित आनंद स्वरूपिणी है!
ब्रह्म सच्चिदानंद स्वरूप है! ब्रह्म को अस्ति भाति और प्रिय
करके तीन लक्षणों है! नाम और रूप जोडने से
जगत होता है! नाम और रूप जोडा हुआ ब्रह्म को माया कहते है!
सफ़ेद सिनेमा पर्दा का उप्पर तस्वीरें जब तक गिरेगा तब तक उस्
सफ़ेद सिनेमा पर्दा नहीं दिखाईदेता है! वैसा ही नाम और रूप जोडा हुआ माया जगत ही
सत्य करके हमारा अंदर का अविद्या परमात्म को दिखाई नहीं देता है!
परमात्मा चार भाग समझने से उन् में एक भाग जगत है! बाकी भागों
सृष्टि का अतीत परमात्मा है! परमात्मा सृष्टि में भी है और सृष्टि का अतीत भी है!
शांत, सत्य, प्रसन्नता, सहन इत्यादि सत्वगुण लक्षण है!
कामाक्रोधादी अरिषड्वर्गो, इच्छाओं, चंचलता रजोगुण लक्षण है!
मोह, अविवेक, भुलक्कड़पन, आलसीपन, निद्रा, आलस्य, अजाग्रत
इत्यादि तमोगुण लक्षण है!
शुद्धसत्वगुणप्रधानी माया मे ईश्वर चैतन्य प्रतिफल होके जड़ और
निद्राण स्थिति में हुआ रजस्तमो गुणों में व्याप्ति होने कारण उन् रजस्तमो दोनों
गुणों चैतान्यवंत होके त्रिगुणात्मक, षड्विकारयुक्त विचारण करने मन से काल परिमिति
युक्त जड़ और नाशयुक्त प्रकृति अथवा अपरा प्रकृति करके नाम से मिथ्या अविद्या
व्यक्तीकरण हुआ है! इस सृष्टि कार्य व्यक्तीकरण समय में संभव हुआ प्रप्रथम
परिवर्तन है!
जीवन्मुक्त को देहभावन नहीं होता है! वह खुद ब्रह्म इति भावना
में रहता है! अपना प्ररब्धकर्म और परमात्मा ने दिया हुआ कार्य भी पूर्ती करने
पश्चात विदेहमुक्ति मिलता है! बंधरहित होंकर केवल परामात्मा के लिए कर्मो करता है!
परमहंस श्री श्री योगानंद, योगावातार श्री श्री लाहिरी महाशय,
श्री श्री विवेकानंद स्वामीजी, श्री श्री रामकृष्णपरमहंस, इत्यादि महापुरुषों
जीवन्मुक्त लोग है! जीवन्मुक्त को विदेहमुक्ति होने तक लेशमात्र रूप में अविद्य
प्रारब्धफल भोगार्थ के लिए शेष रहता है! विदेहमुक्ति लभ्य होनेपर् सूक्ष्मशरीर और कारणशरीर
परमात्मा में लय होजाता है!
ॐ तत् सत् इति
श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योग शास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
अक्षरपरब्रह्मयोगोनाम नवमोऽध्यायः
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