श्रीमद्भगवद्गीता part 04 to 06 हिंदी


                     ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेनमः
                 श्रीभगवद्गीत           अथ चतुर्थोऽध्यायः
             ज्ञान योगः

श्री भगवान् उवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययं
विवस्वान मनवे प्राह मनुरिक्श्वाकवेब्रवीत्                    1
श्री भगवान् ने ऐसा कहा
मै इस नित्यासत्य योग को सूर्य को उपदेश किया थ! सूर्य ने वैवस्वत मनु को उद्बोधन किया था! उस मनु इक्ष्वाकु को बताया था! 
ध्यानपूर्वक व्यक्ति को स्थिर दृष्टि बनने से भ्रूमध्य में कूटस्थ स्थित तीसरा आँख खोलजाता है! आत्मज्योति दर्शन प्राप्ति होजाता है! दहिने आँख में ॐकार नाद सुनाई देगा!
शब्द 22 डिग्री सेंटीग्रेड में एक सेकन में 344 मीटरों प्रयाण करता है! कांति किरण एक सेकन में 3x108 मीटरों प्रयाण करता है!
परमात्मा का प्रथम व्यक्तीकरण है परामात्मा प्रकाश!
परमात्म अपना चेतन को सर्वज्ञत्वयुत सर्वशक्तिशाली शक्ति अथवा प्रकाश रूप में व्यक्तीकरण किया है! इसी को सूर्य कहते है! इस सर्वशक्तिशाली शक्ति अथवा प्रकाश ही मनुष्य का कूटस्थस्थित तीसरा आँख का अंदर का व्यष्टात्म अथवा आत्मसूर्य है!   
साधक तीव्र साधना से अपना मानव चेतना और दोनों आँखों का विद्युत को कूटस्थ में जब केंद्रीकृत करेगा, तब इस तीसरा आँख को देख सकता है! सर्वशक्तिमान परमात्मा प्रकाश को पाँचभुजोवाले रजित नक्षत्र जैसा इस तीसरा आँख में देख सकता है! इस तीसरा आँख का माध्यम से परमात्म चेतना चक्रों द्वारा नाड़ी केन्द्रों में, उधर से शरीर का अंदर प्रवेश कर के मानव चेतना का रूप लेटा है!
इस मानवचेतना चित्त(भावनो का सरोवर), अहंकार, निश्चयात्मिक बुद्धि, और चंचलात्मक मन को कारणभूत है! मानवचेतना यानी स्थूल मन चार प्रकार से काम करता है!
1)इंद्रियों को वश होंकर काम करना, 2) बुद्धि का साथ इंद्रियों को निश्चयात्मिक स्थिति से काम करवाना, 3) इंद्रियों का साथ मिलवाके इच्छाओं उद्भव करवाना, 4) मया को यदार्थ समझ के परमात्माको त्यगना!  
स्थूलमन को परिमता हुआ मानवचेतन अपरिमित परमात्मचेतन को ग्रहण नहीं कर सकते है! क्रइयायोगसधना से ही ए साध्य है! मन आत्मसूर्य से ही व्यक्तीकरण हुआ है! इसीलिए आत्मसूर्य का पुत्र कारण चेतना यानी कारण मन! कारण मन वैवस्वत का पुत्र यानी वैवस्वत मनु है!
प्राणशक्ति का मूल है सूर्य (वैवस्वत मनु) यानी परमात्म का प्रकाश! मन का माध्यम से ही इस प्राणशक्ति सूक्ष्मशरीर में व्यक्तीकरण करता है! मनुष्य का शरीर में प्राणशक्ति और मन एक दोस्सरे का उप्पर परस्पर आधारित है! चंचल मन को स्थिर करने से चंचल प्राण भी स्थिर होजाएगा!
परमात्मा का चेतना और परमात्मा का शक्ती मानव चेतना और प्राणशक्ति का रूपांतर होने का मार्ग है कूटस्थ स्थित तीसरा आँख!
कारणशरीर और सूक्ष्मशरीर दोनों का व्यक्तीकरण होने का मार्ग इस तीसरा आँख ही है!
सूक्ष्मशरीर तीसरा आँख का हेतु कारणशरीर का तीसरा आँख! कारणशरीर को कारणशरीर मेरुदंड, ऐसा ही सूक्ष्मशरीर को सूक्ष्मशरीर मेरुदंड होते है!
सुषुम्ना नाड़ी सूक्ष्मशरीर मेरुदंड समंधित है! सुषुम्ना का अंदर वज्र, वागर का अंदर चित्रि, और चित्रि का अंदर ब्रह्मनाडी होते है! ए सब कारणशरीर मेरुदंड समंधित है!
परमात्मचेतना और परमात्मशक्ति दोनों प्रथम में कारणशरीर तीसरा आँख का माध्यम से कारणशरीर मेरुदंड में कारण चेतना और कारण प्राणशक्ति का रूप में प्रवेश करेंगे!
कारणशरीर मेरुदंड का माध्यम से सूक्ष्मशरीर तीसरा आँख में प्रवेश करता है! तीसरा आँख का माध्यम से सूक्ष्मशरीर मेरुदंड में सूक्ष्म चेतना और सूक्ष्म प्राणशक्ति का रूप में प्रवेश करेंगे!
इस सूक्ष्मशरीर तीसरा आँख को इक्ष्वाकु कहते है! इक्ष का अर्थ नेत्र!
मनु यानी कारण चेतना मन का पुत्र है इक्ष्वाकु! इक्ष्वाकु स्थिति में आने अहंकार स्थूल इंद्रियों से नहीं आत्म से प्राप्त होता है जिस को सहजावबोधन कहते है!
सूक्ष्मशरीर मेरुदंड का माध्यम से स्थूलशरीर मेरुदंड में मानव चेतना और प्राणशक्ति का रूप में प्रवेश करेंगे! उधर से विषयासक्तियुत स्थूल ज्ञानेंद्रियों और कर्मेन्द्रियों में प्रवेश करेंगे! विषयासक्तियुत स्थूल ज्ञानेंद्रियों और कर्मेन्द्रियों का स्थिति को राजर्षि स्थिति कहते है! इस विषयासक्ति स्थिति में मनुष्य योग भूल जाता है और योग नहीं करेगा!
एवं परंपरा प्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः
सकालेनेहा महता योगों नष्ट परंतप                                2
ओ अर्जुन, इस प्रकार परम्परायुत ए निष्कामाकर्मयोग राजर्षिलोग जान्गया! अधिक समय बितगया, इसीलिए ओ योग अभी प्रचार में नहीं है!  
स एवायं मयातेद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः
भक्तोसि में सखाचेति रहस्यं ह्येतदुत्तमं                        3
तुम मेरा भक्त, और मित्र भी है! इसीलिए उस पुरातन निष्कामाकर्मयोग को तुम को पुनः उपदेश किया हु! ए योग अधिक श्रेष्ठतम्,और गुप्त है कर के जानो!
रहस्य क अर्थ रहित हास्य यानी हास्य रहित है!
हर एक मनुषय का अंदरस्थित आत्मा को परामात्मा का साथ अनुसंथान करानेवाले नित्यसत्य राजयोग ही क्रियायोग!   

अर्जुन उवाचा:-
अपरम भवतो जन्म परंजन्म विवस्वतः
कतामेताद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति                 4
अर्जुन ने कहा:--
हे कृष्णा, तुम्हारा जन्म आज कल का है! सूर्य का जन्म अति पुरातन है! तब मै कैसा समझेगा की तुम सूर्य को उपदेश किया कर के!
शुद्धात्म परमात्म का अबेध अंश है! अग्नि और अग्नि का रेणु अलग नहीं है! आत्म परमात्म दोनों एकी है!
शुद्धात्म, प्रक्रुति, मन, और शरीर मिलाने से जीव कहते है! सत्, चित्, और आनंद रूपी परामात्मा को नाम और रूप जोडने से इसी को जीवात्मा कहते है! परमात्म नामारूपरहित है! साधक प्रारम्भा में प्रकाश को, तत् पश्चात क्रमशः परमात्मा का चेतना को अनुभव करेगा! केवल परमात्मा का साथ अनुसंथान प्राप्त किया हुआयोगी ही कारण, सूक्ष्म, और स्थूल प्रक्रुतियों को समझ सकता है! तब तक श्रीकृष्ण यानी परमात्मा को समझना असाध्य है!
श्री भगवान उवाचा:--
बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तवार्जुन
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप              5
श्री भगवान ने कहा:-
शत्रुओं को तपन करनेवाले अर्जुन, तुम को और हम को अनेकानेक जन्मों बित गया! वों सब मै जानता हु, तुम नहीं जानते है! 
साधना में इंद्रियों का व्यापार भस्म होजाता है!  
परामात्मा चेतन से निरंतर बांधा हुआ, योगियों का योगी, श्रीकृष्ण जैसे महापुरुषों को ही गता जन्मों का स्पृहा होते है!
परमात्मा का साथ अनुबंध नहीं हुआ, परिणिति नहीं हुआ साधक को गता जन्मों का ज्ञान नहीं होते है! साधक अपना साधना से तीसरा आँख यानी ज्ञाननेत्र का माध्यम से ही गतजन्मो को देख सकते है!
असली में गतजन्मो का ज्ञान नहीं होना एक वर है! उदाहरण के लिए भार्या और भरता में एक दूसरे को गता जन्म में चित्रहिम्सा किया करके पता लगने से वों परस्पर प्रेम नहीं करसकते है!
अजोपिसन्नव्ययात्मा भूतानामीस्वरोपिसन
प्रकृतिं स्वामाधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया          6
मै जन्मरहित हु, नाशरहित हु, समस्त प्राणीयों को ईस्वर हु, परंतु मै स्वकीय प्रकृति को वश में रख कर अपना मायाशक्ति से जन्म लेरहा हु!
परमात्मचेतना को जन्म यानी आदि नहीं है! नाशरहित स्वभावयुकता है! माया परामात्मा का अंदर का एक भा है!
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानमधार्मस्य  तदात्मानं सृजाम्यहम्            7
हे अर्जुन, जब जब धार क्षीण होंकर अधर्म वृद्धि होता है, तब मै पाने आप को सृष्टि करता हु!
शक्ती को कोई भी उत्पन्न नहीं कर सकते है, नाश् भी नहीं कर सकते है! एक शक्ती को दूसरा शक्ती में बदल सकते है! विद्युतशक्ति को यान्त्रिकशक्ति में बदल कर इलेक्ट्रिक पंखे इत्यादि वस्तुवोम को चलाया जासकता है! वैसा ही टर्बाइनों को चलाकर विद्युतशक्ति का उत्पादन कर सकता है! ब्रह्माण्ड में जो भी होरहा है वों सब प्रगति के लिए ही है! उस प्रगति को जब अवरोध होता है तब परामात्मा अपने आप को व्यक्तीकरण करता है!
अवतारें:--  
1) मत्स्य--- संदेह सागर से विज्ञान कहानी को प्राप्त करो 
2)कूर्म:-- वैराग्य से जीवत को बितावो 
3) वराह:- भक्ती और क्रमशिक्षण दो दंत द्वय है! व का अर्थ वरिष्ट, राह का अर्थ रास्ता! इस दंत द्वय से वरिष्ट रास्ता मे चलते हुवे तुम्हारा कर्तव्य निभावो!
4) नारसिम्ह:-- तुम नररूप मे रहा हुवा सिंह है! सिंह तीन वर्ष में एक बार शेरनी का साथ मिलता है! वैसा ही ओ साधक, तुम भी अपना अहंकार को वर्जित करके, कामं को नियंत्रित करके परामात्मा का साथ अनुसंथान प्राप्त करो!
5)वामन:-- वा का अर्थ वरिष्ट, मन का अर्थ मनस्!
          वरिष्ट मनस् का माध्यम से आदिभौतिक, आदिदैविक, और आध्यात्मिक बाधाएं जीत के अंकित भाव में  परामात्मा का अनुसंथान प्राप्त करो!
6) परशुराम:-- ज्ञानपरशु(कुल्हाडी) से अज्ञान निर्मूलन करो, ज्ञानमार्ग में चलकर परामात्मा का अनुसंथान प्राप्त करो!
7)श्रीराम:- जीवित में सामने आने विधिनिर्णय् जिस को परामात्मा हमें दिया हुआ इच्छाशक्ती और स्वयंकृषी से परामात्मा का अनुसंथान प्राप्त करो!
8)श्रीकृष्ण:-- परामात्मा का वश होंकर साधना करो!
गजेन्द्रमोक्ष:-- गज का अर्थ हाथी, ग अक्षर ज्ञान का प्रतीक, ज का अर्थ साथ, यानी गज का अर्थ ज्ञानयुक्त!
गज इन्द्रिय का अर्थ मन!
मन एव मनुष्याणां बंधमोक्षा कारणं
मन ही बंध अथावा मोक्ष का हेतू है! 
घड़ियाल संसार का प्रतीक है!
क्रियायोगसाधना का माध्यम से स्थिर कर के सहस्रारचक्र दर्शन प्राप्ति कर के संसार बंधन से मुक्त हो जावो, ए ही है गजेन्द्रमोक्ष! सहस्रारचक्र ही सुदर्शनचक्र है! सुदर्शन का अर्थ देखानेलायक!
अहंकार से अंधा हुवा मनुष्य को तुम नर नहीं हो, दिव्यात्मस्वरूप है, शेर है कर के समझाने के लिए उद्देश्यित है नरसिंहावतार! नरसिंह का अवतार में क्रियायोग साधक बनाकर, सिंह प्रयत्न यानी तीव्र प्रयत्न करने से अहंकार से मुक्त हो सकता है करके उद्बोधन करता है हिरण्थकशिपू वध! 
व वरिष्ट राह मार्ग, वराह का अर्थ वरिष्ट मार्ग, क्रियायोग साधना मार्ग वरिष्ट मार्ग है!  
वराह अवतार में पृथ्वी को पानी का अंदर से परमात्म अपना दोनों दंतों से उप्पर उठाता है! मनुष्य पृथ्वी का प्रतीक है! संसार पानी का प्रतीक है! मनुष्य को दो ज्ञानदंतों बड़ा होने के बाद होते है! ए ज्ञान का प्रतीक है!
ओ मनुष्य, संसार नाम का पानी में डुबो मत, क्रियायोग साधना से लभ्य हुआ ज्ञान से संसार से मुक्त होजावो, परमात्मा का साथ अनुसंथान प्राप्त करो! इस के लिए उद्देश्यित है नरसिंहावतार! स्थूलशरीर सम्बंधित ब्रह्मग्रंथी विच्छेदन होता है नरसिंहावतार में!
अहंकार और कामं साधक का रावण लक्षण है! खूब खाके सोना यानी निद्रा और तंद्रा साधक का कुम्भकर्ण लक्षण है! इन दोनों को क्रियायोग साधना से निर्मूलन करने और परामात्मा से अनुसंथान के उद्देश्यित है श्रीरामावतार! सूक्ष्म शरीर संबंधित रुद्रग्रंथी विच्छेदन होता है श्रीरामावतार में! 
शिशु यानी शिशुप्रवृत्ति को पालनेवाला शिशुपाल!
दंतावक्त्र यानी नया नया दांत आने समय रहनेवाला शिशुप्रवृत्ति जो शिशु में होता है!
ओ साधक तुम्हारे अंदर का बचाहुआ शिशुप्रवृत्ति यानी मै, और मेरा अहंकार नाम का शिशुपाल और दंतावक्त्र को दोनों को क्रियायोग साधना से निर्मूलन करने और परामात्मा से अनुसंथान के उद्देश्यित है श्रीकृष्णावतार! कारणशरीर संबंधित विष्णुग्रंथी विच्छेदन होता है श्रीकृष्णावतार में!
परित्राणाय साधूनां विनाशायच दुष्कृताम्
धर्मासंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे              8
साधू सज्जन संरक्षितार्थ, दुष्टजन विनाश के लिए, और धर्म स्थापन के लिए, मै हर एक युग में अवतार लेरहा हू!
मनुष्यों, दुष्ट और शिष्ट, सब परमात्मा स्वरूपि ही है! सारे लहरों में समुद्र का पानी ही है! राक्षस का हो अथावा देवता का हो प्रतिमायें उसी पत्थर से ही बनाता है!
श्रीकृष्ण, महावतार बाबाजी, लाहिरी महाशय, स्वामी श्री युक्तेस्वर्जी, परमहम्सा श्री योगानान्दा इत्यादि महापुरुषों में भी ओही परमात्म चैतन्य रहता है! केवल संकल्प मात्र से जगत को सर्वनाश कर सकते है! परंतु लक्ष्य नाश् के लिए नहीं, लक्ष्य परामात्मा का अनुसंथान के लिए है! साधारण मनुष्य इन महापुरुषों से ढर ने का आवश्यक नहीं है! ए लोग उन् का प्रेम का माध्यम से हम को आकर्षीत करके परामात्मा का तरफ जाने का मार्ग हम को उद्भोधन करते है!
अपने संतान जितना भी दुष्ट होने से भी, मा बाप वे सुधारने के लिए उचित सलाह देते रहते है! संतान उन् का सलाह का मुताबिक़ प्रवर्तन बदलने से ठीक है, नहीं तों मा बाप उन् का कर्म कर के छोडदेते है, उन् को वध नही करेंगे! हम सब को माता पिता परमात्मा ही है! वे हम में अच्छा परिवर्तन आने के लिया चाहते है! मगर हमारा दुष्ट स्वभाव देख के वध करने नही चाहेगा!
जन्मकर्माचमे दिव्यमेवं योवेत्ति तत्वतः
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नीति मामेति सोर्जुन              9
अर्जुन, जो मेरा दिव्य्जन्मों और कर्मों को यदार्था स्थिति  इस प्रकार जानते है, उस साधक मरणानंतर पुनः जन्म नहीं होके मुझ को प्राप्त करते है!   
क्रियायोग साधना का माध्यम से मुक्त होंकर पुनः अपना स्वस्थान परामात्मा में शामिल होना चाहिए!
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः
बहवो ज्ञानतपसा पूतामद्भावमागताः                     10
अनुराग, भय, और क्रोध त्यग किया हुआ लोग, मेरा उप्पर ही चित्त लग्न हुआ लोग, मेरा ही आश्रय किया लोग, इत्यादि अनेक साधकों ज्ञानतपस से पवित्र होंकर मेरा स्वरुप यानी मोक्ष प्राप्त किया!
साधना में प्राणशक्ति यानी कुंडलिनी शक्ती को मेरुदंड का बाए दिशा यानी इडा सूक्ष्म नाड़ी का माध्यम से जाने देने से भय, और क्रोध, दाए दिशा यानी पिंगळा सूक्ष्म नाड़ी का माध्यम से जाने देने से अनुराग और मोह इत्यादि लभ्य होता है!
साधक केवल इडा और पिंगळा सूक्ष्म नाड़ीयों का बीच में स्थित सुषुम्ना का माध्यम से ही कुंडलिनी शक्ती को जाने देना और कूटस्थ में ही दृष्टि लगा के ध्यान करना चाहिए! वैसा साधाक्लोग ज्ञानतपस से पवित्र होंकर परामात्मा स्वरोप्प प्राप्त करते है!
ये यथा माम प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्
मामवर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः             11
हे अर्जुन, जो जिस प्रकार मुझे सेवा करते है, उस का सेवा का अनुगुण मै अनुग्रह करता हु! मनुष्य सर्वविधों से मेरा मार्ग ही अनुसरण करते है!
साधना का फल उस का साधना और अभिरुचि का मुताबिक़ सिद्धि होते है!
कान्क्षंतः कर्मणां सिद्धिं यजन्ते इहा देवताः
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा        12
कर्मफल प्राप्ति के लिए आशा करने मनुष्य इस प्रपंच में देवातावों का आराधन करते है! क्योंकि कर्मफलसिद्धि इस मनुष्यलोक में शीघ्र ही लभ्य होता है!
हर एक चक्र को कुछ दळों, रंग, रूचि, शब्द, शक्तिप्राप्ति, और अधिदेवता होते है!
मूलाधारचक्र को चार दळों, पीला रंग, मीठा फल जैसा रूचि, और भ्रमर का शब्द होते है! मूलाधारचक्र गंध का प्रतीक है! इस चक्र में पृथ्वीमुद्रा लगा के ध्यान करने से दुर्बल सबल होजाएगा! जीर्णशक्ति वृद्धि होजाएगा! सकारात्मक विचारों उत्पन्न होगा! इस चक्र में ध्यान करने से शरीर मे स्फूर्ति , काँति और तेजस्विता आना, दुर्बल को मोटा बनाना, वजन बढाना, जीवनी शक्ति वृद्धि, दिमाग मे शांति और विटमिनो की कमी को दूर करना इत्यादि रोग मे फायदा होता है! इस चक्र में 24 घंटे में 600 हंसाए, 96 मिनिट में होते है! इस चक्र में ध्यान करने से इच्छाशक्ती प्राप्त होता है! इस चक्र को व्यष्टि में पाताळ और समिष्टि में भूलोक कहते है! श्रीविघ्नेस्वर अधिदेवता है! ए शेष नाग जैसा कुंडलिनीशक्ती का नार्डिक में  रहने का कारण श्री तिरुपति वेंकटेस्वरस्वामी बालाजीचरित्र में इस को शेषाद्री कहते है! महाभारत में इस को सहदेवचक्र कहते है! नकारात्मकशक्तियों को प्रतिघटन करके साधक को ध्यानायोगसाधना में आगे बढ़ने को सहायता करेगा! इधर सवितर्कासंप्रज्ञात समाधी लभ्य होता है! 
कुंडलिनीशक्ती को रामायण में सीता, महाभारत में द्रौपदी, और बालाजीचरित्र में श्रीपद्मावती करके पुकारते है!
स्वाधिष्ठानचक्र को छे दळों, धवळ रंग, अल्प कड़वा जैसा रूचि, और पवित्र बन्सिरी वादन का शब्द सुनाई देने कारण श्री तिरुपति वेंकटेस्वरस्वामी बालाजीचरित्र में इस को वेदाद्री कहते है! स्वाधिष्ठानचक्र रस का प्रतीक है!  इस चक्र में वरुणमुद्रा लगा के ध्यान करने से रूखेपन की कमी और चिकनायी मे वृध्दि, चर्म मे मृदुत्व होना, मुँहासों को नष्ट करना और चहरे मे सुंदरता का बढाना रक्त विकर और जलतत्व की कमी से उत्पन्न रोगों को दूर करने मे लाभकारी है। इस चक्र में 24 घंटे में 6000 हंसाए, 144 मिनिट में होते है! इस चक्र में वरुण मुद्रा लगा के ध्यान करने से क्रियाशक्ती प्राप्त होता है! इस चक्र को व्यष्टि में महातल और समिष्टि में भुवर्लोक कहते है! श्रीब्रह्म अधिदेवता है! महाभारत में इस को नकुलचक्र कहते है!  ध्यान में चिपक के बैठने साधक को  सहायता करेगा! इधर सविचारसंप्रज्ञात अथवा सामीप्य समाधी लभ्य होता है!
मणिपुरचक्र को दसदळों, लाल रंग, कड़वा जैसा रूचि, और वीणा शब्द सुनाई देता है! इधर ज्ञानशक्ती प्राप्ति होता है! इस चक्र में अग्निमुद्र लगा के ध्यान करने से ज्ञाना(ग) रूढ बनने कारण श्री तिरुपति वेंकटेस्वरस्वामी बालाजीचरित्र में इस को गरुडाद्री कहते है! मणिपुरचक्र रूप का प्रतीक है!    इस चक्र में अग्निमुद्रा लगा के ध्यान करने से शरीर संतुलित होना, वजन घटना, मोटापा कम होना, उष्णता वृद्धि,   कोलोस्ट्रोल मे कमी   (control bad Cholesterol), मधुमेह और लिवर रोग मे फायदा (Diabetes and Liver-related problems), तनाव मे कमी (body tension) फायदा होता है! इस चक्र में 24 घंटे में 6000 हंसाए, 240 मिनिट में होते है!  इस चक्र को व्यष्टि में तलातल और समिष्टि में स्वर्लोक कहते है! श्रीविष्णु अधिदेवता है! महाभारत में इस को अर्जुनचक्र कहते है!  ध्यान में आत्मनिग्रहशक्ति का अभिवृद्धि करने साधक को  सहायता करेगा! इधर सानंदसंप्रज्ञात अथवा सायुज्य समाधी लभ्य होता है!    
अनाहतचक्र को बारहदळों, नील रंग, कट्टा जैसा रूचि, और मंदिर का घंटा का शब्द सुनाई देता है! इधर प्राणशक्ती नियंत्रण प्राप्ति होता है! इस  चक्र में वायुमुद्र लगा के ध्यान करने से  बीजशक्ति अभिवृद्धि करने साधक को  सहायता करेगा! शरीर हल्का होके हवा में उड़ने का भाव आता है! वायुदेव का दो पुत्र है, आंजनेय और भीम! इस कारण श्री तिरुपति वेंकटेस्वरस्वामी बालाजीचरित्र में इस को अंजनाद्री कहते है! अनाहतचक्र स्पर्श का प्रतीक है! इस चक्र में वायुमुद्रा लगा के ध्यान करने से वायु शाँति, लकवा, सयटिका, गठिया, संधिवात, घुटने के दर्द मे फायदा, गर्दन के दर्द मे फायदा., रीढ के दर्द मे फायदा, और पार्किसंस( Parkinson's disease) रोग मे फायदा होता है।

 इस चक्र में 24 घंटे में 6000 हंसाए, 288 मिनिट में होते हैइस चक्र को व्यष्टि में रसातल और समिष्टि में महर्लोक कहते है! श्रीरूद्र अधिदेवता है! महाभारत में इस को भीमचक्र कहते हैइधर सस्मित संप्रज्ञात अथवा सालोक्य समाधी लभ्य होता है! 
विशुद्धचक्र को सोलह दळों, धवळ मेघ जैसा रंग, कालकूट विष जैसा कड़वा रूचि, और झील का प्रवाह जैसा शब्द सुनाई देता है! इधर आदिशक्ती प्राप्ति होता है! इस  चक्र में शून्यमुद्र लगा के ध्यान करने से  आदिशक्ति अभिवृद्धि करने साधक को  सहायता करेगा!  वृषभ जैसा संसार चक्रों से मुक्त होंकर परामात्मा का तरफ मन भागता है!इस कारण श्री तिरुपति वेंकटेस्वरस्वामी बालाजीचरित्र में इस को वृषभाद्री कहते है! विशुद्धचक्र शब्द का प्रतीक है! इस चक्र में शून्यमुद्रा लगाकर ध्यान करने से कान नाक और गले के रोगों को दूर करना  (Removes all types of  ENT problems), मसूढे की पकड मजबूत करना और थाँयराईड रोग मे फायदा होता है। इस चक्र में 24 घंटे में 1000 हंसाए, 384 मिनिट में होते है!  इस चक्र को व्यष्टि में सुतल और समिष्टि में जनलोक कहते है! श्री आत्म अधिदेवता है! महाभारत में इस को युधिष्ठिरचक्र कहते है! इधर सस्मित असंप्रज्ञात अथवा सारूप्य समाधी लभ्य होता है! साधक को शांति और प्रशांति लभ्य होते है!
आज्ञाचक्र को दो दळों, होता है!  इस चक्र में ज्ञानमुद्र लगा के ध्यान करने से पराशक्ति होता है! एक कदम् पीछे(तेलुगु भाषा में वेनकटि) में है, इस कारण श्री तिरुपति वेंकटेस्वर स्वामी बालाजीचरित्र में इस को वेंकटाद्री कहते है! इस चक्र में ज्ञानमुद्रा लगाकर ध्यान करने से स्मरण शक्ति वृद्धि,  ज्ञान की वृद्धि, पढने मे मन लगना, मस्तिष्क के स्नायु मजबूत होना, सिरदर्द दूर होना, अनिद्रा का नाश, स्वभाव परिवर्तन, अभ्यास शक्ति आना, क्रोध का नाश इत्यादि रोग मे फायदा होता है। इस चक्र में 24 घंटे में 1000 हंसाए,  48 मिनिट में होते है!  इस चक्र को व्यष्टि में वितल और समिष्टि में तपोलोक कहते है! श्रीईश्वर अधिदेवता है! महाभारत में इस को श्रीकृष्णचक्र कहते है!  इधर सविकल्प अथवा स्रष्ट समाधी लभ्य होता है! साधक को अपरिमित आनंद लभ्य होते है! काम, क्रोध, लोभा, मोह, मद, मात्सर्य अरिषड्वर्ग निर्मूलन होके साधक को क्षीरसागर जैसा अद्भुत प्रकाश दिखाई देगा! इसी को काळीयमर्दन कहते है! इस प्रकाश को वैतरिणी कहते है!
सहस्रारचक्र को सहस्र दळों, होता है!  इस चक्र में लिंगमुद्रा लगा के ध्यान करने से केवल साक्षीभूतशक्ति प्राप्त होने इस कारण श्री तिरुपति वेंकटेस्वर स्वामी बालाजीचरित्र में इस को नारायणाद्री कहते है! इस चक्र में लिंगमुद्रा लगाकर ध्यान करने से गर्मी बढाना, सर्दी, जुकाम, दमा, खाँसी, सायनस, और निम्न रक्तचाप (low Blood Pressure)  इत्यादि रोग मे फायदा होता है। इस चक्र में 24 घंटे में 1000 हंसाए, 240मिनिट में होते है!  इस चक्र को व्यष्टि में अतल और समिष्टि में सत्यलोक कहते है! श्रीसद्गुरु अधिदेवता है! इधर निर्विकल्प  समाधी लभ्य होता है!    
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः
तस्य कर्तारमपि माम् विद्धि अकर्तारं अव्ययं                13
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र करके चार वर्णों सत्वादी गुणों का और उन् गुणों का स्वभाव से करने कर्मो का  मुताबिक़ मैंने सृजन किया! मै उन् को करता होने से भी प्रकृति का अतीत होने हेतु वास्तव में मेरे को अकर्ता, नाशरहित, और निर्विकार कर के जानो!
योगसाधन जो नहीं करते है, उस को भगवान है या नहीं है कर के 100% संदेह होते है! तब तक ओ मनुष्य कलियुग में है कर के और शूद्र है कर के गिनाजाता है! उस का ह्रुदय काला जैसा रहता है और मूर्खता से भरा हुआ होते है! 
क्रियायोग साधना प्रारंभ होने से कुण्डलिनी शक्ती जागृति होके मूलाधारचक्र को स्प्रुशन करने से संदेह बीस प्रतिशत कम होके  80% होते है! ओ मनुष्य कलियुग में ही कर के गिनाजाएगा परन्तु परामात्मा के लिए तपन होते हुवे अंतःशत्रुवोम का उप्पर युद्ध प्रकट किया क्षत्रिय गिनाजायेगा! उस का ह्रुदय परामात्मा का तपन से भरा हुआ स्पंदना ह्रुदय होते है!
ओ साधक और भी साधना करके जागृती हुआ कुण्डलिनी स्वाधिष्ठानचक्र को स्प्रुशन करने से उस का संदेह 40 प्रतिशत कम होके 60 प्रतिशत शेषित होते है! तब दूसरा जन्म लिया हुआ द्विज गिनाया जाता है! द्वापरयुग में प्रवेश करते है, उस का ह्रुदय परमात्मा को खोजने स्थिर ह्रुदय बनता है!
ओ साधक और भी साधना करके जागृती हुआ कुण्डलिनी मणिपुरचक्र को स्प्रुशन करने से उस का संदेह 60 प्रतिशत कम होके 40 प्रतिशत शेषित होते है! तब वेदापारायण करने अर्हता पाके विप्र गिनाया जाता है! त्रेतायुग में प्रवेश करते है, उस का ह्रुदय परमात्मा को खोजने भक्त ह्रुदय बनता है!
ओ साधक और भी साधना करके जागृती हुआ कुण्डलिनी अनाहतचक्र को स्प्रुशन करने से उस का संदेह 80 प्रतिशत कम होके 20 प्रतिशत शेषित होते है! तब ब्रह्ज्ञान प्राप्ति  कर के ब्राह्मण गिनाया जाता है! त्रेतायुग में प्रवेश करते है, उस का ह्रुदय परमात्मा को खोजने स्वच्छ ह्रुदय बनता है! 
इसीलिए जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं है! न्यायशास्त्र पढने से न्यायवादी, डाक्टर पढने से डाक्टर, ब्रह्ज्ञान प्राप्ति करने से ही ब्राह्मण बनाता है! ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मणः!     
नामां कर्माणि लिम्पन्ति नाम कर्मफले स्पृहा
इति माम योभिजानाति कर्मभिर्न सबध्यते            14
मुझे कर्म स्पर्श नहीं करते है! मुझ को कर्मफलों में आसक्ति भी नहीं है! इस प्रकार में मेरे को जो जानते है ओ कर्मो से बंधित नहीं होगा!
हर एक मनुष्य अपना अपना गुणोंका मुताबिक़ 1)सत्व,  2) सत्व-रजो, 3)रजो, 4) रजो-तमो इन वर्णों में कोई भी वर्ण में निर्णय किया जायेगा! उन् गुणों का मुताबिक़ कर्मो करता है! परामात्मा में ममैक होने के लिए तपन करने साधक कर्मो का अतीत रहते है! कोई भी कर्मो उसकों स्पर्श नहीं करेगा! ऐसा साधक कोई भी वर्ण का सदस्य नहीं होते है! .        
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः        
कुरुकर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतं                15
मै वास्तव में करता नहीं हु, मुझे कर्मफलों में आसक्ति नहीं होने चाहिए, इस प्रकार भगवान का कर्माचरण का माध्यम से जान कर पहले बहुत सारे मुमुक्ष लोग निष्काम कर्माचरण किये थे! इसीलिएओ अर्जुन, तुम भी बुजूरुगों से किया हुआ ऐसा पुरातन निष्काम कर्माचरण करो!  
किम कर्म किमकर्मेती कवयोप्यात्रमोहिताः
तत्तेकर्मप्रवक्श्यामि यज्ञात्वा मोक्ष्यसे शुभात्            16
कर्म क्या है? अकर्म क्या है? इन छीजें का बारे में पंडित लोग भी अच्छी तरह जानता नहीं है! जिस को जानने से इस सम्साराबंधं से विमुक्त हो जायेगा उस कर्मरहस्य का बारे में अब मै तुम को विशदीकरण करता हु!
साधना में कुछ अनुभव लब्ध होंकर भी, फिर उस साधना से बाहर आके जरूरत से अधिक इंद्रियों से संपर्क करने साधकों भी क्या धर्म और क्या अधर्म कर के संदेहात्मक स्थिति में पढना सर्व साधारण है! केवल अपना स्वार्थ और अहंकार तृप्ति के लिए करने कर्म अधर्मयुक्त है, और परमात्मा को पाने के लिए करने कर्म धर्मयुक्त है! ए संसराबंधन से मनुष्य को मुक्त करते है!
कर्मणोह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं विकर्मणः
विकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः        17
शास्त्रों से विधियुक्त कर्मो, निषेधात्मक कर्मो, और कुछ भी कर्मो नहीं करने यानी अकर्म, इन कर्मो का स्वरुप का बारे में जानने का आवश्यकता है! क्यों कि कर्मो का वास्तव स्वरुप बहुत गहेरा है और अधिक कष्टतर है!
परमात्मा अपने आपको प्रकृति में विविध रूपों में व्यक्तीकरण करता है! प्राकृतिक विषयों हम को कभी तृप्ति और कभी असंतृप्ति देते है और परिमित मानव मॅथस् को व्याकुल करते है! आत्म चैतन्य को जागृती करने कर्मो धर्मयुक्त है! केवल इंद्रियों को तृप्ति के लिए करने कर्मो अधर्मयुक्त है! ओ मनुष्य को इंद्रियों का दास बनाता है! जीने के लिए खाना है परंतु खाने के लिए जीना नहीं है! स्थूलशरीर, मन, और आत्मा को हानि करने कर्मो नहीं करना चाहिए! ऐसा कर्मो अधर्मयुक्त है!
ध्होम्रपान, सुरापान, मांसभक्षण, कामलोलता, इत्यादि सभी कर्मो अधर्मयुक्त है!   
कर्मण्य कर्मयः पश्येदकर्मणि च कर्मयः
न बुद्धिमान मनुष्येषु सयुक्तः कृत्स्न कर्मकृत        18
जो साधक कर्म में अकर्म, और अकर्म में कर्म देखता है, ओ साधक मनुष्यों में विवेकवंत, योगयुक्त, और सकल्कार्मो को आचारण किया हुआ गिनाजाता है!
निर्लिप्तता से जीवन कर के नाटक में केवल परमात्मा तृप्ति के लिए कर्म करना ही कर्म में अकर्म देखना, परमात्मा तृप्ति के लिए साधक अमितोत्साहा से आर्तजनों के लिए ज्ञानबोध करना ही अकर्म में कर्म देखना है!
यस्य सर्वे समारंभाः कामासंकल्प वर्जिताः
ज्ञानाग्नि दग्ध कर्माणां तमाहुः पंडितं बुधाः        19
जिस साधक का समस्त कर्मों इच्छा, और संकल्प रहित होते है, ज्ञानाग्नि से दग्ध हुआ कर्मोंवाला मनुष्य को पंडत कर के  विज्ञों कहते है!
त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रयः
कर्मण्यभि प्रवृत्तोपि नैवकिंचित्करोति सः                 20
जो साधक कर्मफलों में निरासक्त होंकर, निरंतर संतृप्ति से किसी छीज को आश्रय नहीं लेकर रहता है वैसा मनुष्य कर्मो में प्रवर्तित होने से भी कुछ भी कर्म नहीं किया जैसा गिना जाएगा!
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः
शारीरं केवलं क्रम कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्            21
आशारहित, इन्द्रियों और मन को निग्रह किया, और कोई भी वस्तु को परिग्रह नहीं किया साधक, मात्र शरीर से देहाधाराणादि  काम करने से भी पापप्राप्ति नहीं होगा!
यदृच्चा लाभासंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः
समः सिद्धावसिद्धौच कृत्वापि न निबध्यते           22
जो बिना प्रयत्न लभ्य हुआ छीजों से संतुष्ट होते है, सुख दुःख इत्यादि द्वंद्वों को पार किया हुआ है, मात्सर्यरहित है, कर्मफलों का प्राप्ति और अप्राप्ति में समबुद्धियुक्त है, कर्यसिद्धि होने नहीं होने में समभावयुक्त है, वैसा मनुष्य कर्म करने से भी बंधन में नहीं फसेंगे!
साधक तितीक्ष का साथ सुख दुःख, उष्ण और शीतल इत्यादि द्वंद्वों को पार करना चाहिए!
गतासंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थित चेतसः
यज्ञा याचरतःकर्म समग्रं प्रविलीयते                       23
किसी में भी आसक्तिरहित होने, रागद्वेष कामाक्रोधादि रूप संसार बांधो से विमुक्त हुआ, आत्मज्ञान में ही मन निमग्न किया हुआ, भगवत्  प्रीती और परप्राण हितार्थ धर्म के लिए कर्माचरण किया साधक का सर्वकर्म विलीन होजाता है, जन्मबंधादियों में नहीं फसाके, नाश् होजाता है!
केवल यज्ञादि में आहूति के लिये उपयोग करने द्रव्यों से साधक मिक्ति नहीं प्राप्त करते है! यज्ञादि में उपयोग करने द्रव्यों इन्द्रियोंके प्रतीक है! इन भौतिक यज्ञों में श्रद्धा चाहिए! और अर्पित करने प्रतीकों का ज्ञान भी होना आवश्यक है अथावा व्यर्थ है!

(1) पुष्पों --- चर्म यानी स्पर्शना शक्ती, (2) रंगों(कुमकुम इत्यादि)----आँखों यानी देखने का शक्ती और कर्मफल, (3) गाय का घीजीब यानी रूचि शक्ती,  (4) सुगंधद्रव्यों (अगरबत्ती इत्यादि)--- नाक यानी सूघने शक्ती, (5) शँख--- कान यानी शब्दशक्तियों को प्रतीक है!
ए कर्मकांड सभी इंद्रियों, इंद्रियों का राजा मन का शुद्धि के लिए करने प्रतीक ही है! मन का शुद्धि होने से मुक्ति साध्य है! यज्ञ में गाय का घी को परमात्मचैतान्य के साथ साधक का शुद्ध मन ममैक होने का चिह्न के लिए साधक अग्नि में आहूति करते है!
पुष्पों को इंद्रियों से एकाग्रता का माध्यम से उपसंहरण किया प्राणशक्ति को क्रमशः सात् चक्रों में अर्पित करके तत् पश्चात परमात्मा का चैतन्य का साथ ऐक्य होने का प्रतीक के लिये आहूति करते है!
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महावि ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतं
ब्रह्मैव तेना गन्तव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना!                 24
यज्ञ का होमसाधनों, होमद्रव्यो, होमाग्नि, होम करनेवाला, होम किया हुआ छीजें,, ––सभी ब्रह्म का स्वरुप है कर के एकाग्रता भाव से उन् यज्ञादि कर्म करने मनुष्य ब्रह्म को ही प्राप्त करते है!
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनेवोप जुह्वति           25
कुछ योगों देवाताराधानारूप कुछ यज्ञ को ही अनुष्ठान कर रहे है! और कुछ जीवब्रह्मैक्य भावना से जीव को परब्रह्म नाम का अग्नि में होम अथावा आहुति कर रहे है!
साधक, साधना, और साध्यम् हर एक छीज परमात्मा का स्वरुप है! उस भावना से साधक समाधि स्थिति प्राप्त करता है!  
साधक आरोग्यवान होने से ही साधना कर सकता है! इसीलिए आरोग्य के लिए व्यष्टि स्थूल में विश्व को, समिष्टि स्थूल सृष्टि का अवगाहन के लिए विराट को,
साधकों को बलोपेत करने प्राणशक्ति के लिए व्यष्टि सूक्ष्म में तेजस् को, समिष्टि सूक्ष्म सृष्टि प्राणशक्ति का अवगाहन के लिए हिरण्यगर्भ को,  
साधकों को अंतर दृष्टि और ज्ञान के लिए व्यष्टि कारण प्राज्ञ को, समिष्टि कारण सृष्टि  अवगाहन के लिए ईश्वर को, प्रार्थना करना चाहिए!
माया से विमुक्त होने के लिए ॐकार यानी महाप्रकृति को ओ, दिव्यमाता, मुझ को उस परामात्मा में ममैक करके सत्य को दिखावो करके प्रार्थना करना चाहिए!
सृष्टि का अंदर स्थित परमात्माको यानी कूटस्थ चैतन्य को प्राप्त करने के लिए ओ, कूटस्थचैतन्य, मेरा समाधि चैतन्य में व्यक्त करो करके प्रार्थना करना चाहिए!  
परमात्मा में ममैक होने संकल्प किया साधक परमात्मचैतन्य, व्यक्त करो, व्यक्त करो करके प्रार्थना करना चाहिए!
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति 
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति                          26
कुछ साधक कान इत्यादि इंद्रियों को निग्रह नाम के अग्नि में, कुछ साधक शब्दादि विषयों को इंद्रियों नाम के अग्नि में होम कर रहे है!
धारण, ध्यान, और समाधि तीनों को मिलाके संयम कहते है!
इंद्रियों को निग्रह करके साधक तीव्रध्यान से मन को स्थिर करना चाहिए!
क्रमशिक्षणायुक्त आश्रमों चार है! वों 
1)ब्रह्मचर्यविद्यार्थिदश, 2) गृहस्थविवाहदश, 3)वानाप्रस्थ लौकिक छीज को त्याग के अकेला में भगवत प्रीती के लिए करने साधना दशा, 4)संन्यास सत् यानी केवल यदार्थ के लिए करने अन्वेषणदश
सर्वानींद्रिय कर्माणि प्राणकर्माणिचापरे
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते!              27
कुछ इन्द्रियोंके व्यापार सब को ज्ञानप्रकाशित मनोनिग्रह अथवा समाधि योग नाम का अग्नि में होम कररहे है!
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे
स्वाध्यायज्ञान यज्ञास्च यतयः संशितव्रताः           28
कुछ साधक द्रव्य को दानधर्मादि सद्विषयो में विनियोग करने यज्ञ में, कुछ साधक प्राणायामादि अष्टांगयोग यज्ञ में, निमाग्नित होते है! वे सब प्रयत्नशील और दृढसंकल्प लोग है!
साधना में थोड़ा पुरोगति साध्य करके, साधक प्रारंभ में ॐकार शब्द सुनता है! पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य में प्रवेश करता है! और साधना को आगे बढाते हुए साधक परमात्म में ममैक होता है, साक्षीभूत बनाता है!
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणापानं तथापरे
प्राणापानगतीर्युध्वा प्राणायाम परायाणाः           29
प्राणायामतत्पर कुछ साधक प्राण और अपान वायुवो का मार्गों को निरोध करके अपानवायु को प्राणवायु में और प्राणवायु को अपानवायु में होम करते है!
प्राण=प्राणशक्ति को , याम=नियंत्रण करना
प्राणशक्ति नियंत्रण करने को प्राणायाम कहते है! श्वास नियंत्रण करने को प्राणायाम नहीं कहते है! ब्रह्माण्ड पूरा प्राणशक्ति से भरपूर्ण है!
विद्युत केंद्र में उत्पादन होने 24,000 विद्युतशक्ति को स्टेप डाउन त्रान्स्फार्मेर्स (Stepdown transformer) का माध्यम से कम करके 240वोल्ट्स(Volts) बनाता है ताकि हमें घरों में अनुकूल रीति में उपयोग करने के लिए!!
नदी का पानी को  पहले बड़ा बड़ा नालियों द्वारा पश्चात छोटे छोटे नालियों द्वारा हमें उपयोग ए लिए लाते है!
वैसा ही परामात्मा चेतना हम को उपयोगार्थ के लिए प्राणशक्ति का रूप में पूरा ब्रह्माण्ड में व्याप्त हुआ है और इस को स्थितिवंत कर रहा है! इसी को पराप्राकृति कहते है!
इस प्राणशक्ति कीड़ा, वृक्ष, पक्षी, पशु, और मनुष्य का रूप में व्यक्त होरहा है! फेफड़ों, लीवर, ह्रुदय, किडनी इत्यादि यांत्रिक शक्तियो का मूलाधार भी प्राणशक्ति ही है!
शरीर का जीवात्म मालिक है, प्राणशक्ति नौकर है!
जीवात्म का आदेशो को प्राणशक्ति अहंकार का माध्यम से करता है! प्राणशक्ति बुद्धिमान है, मगर आध्यात्मिक चेतना नहीं होते है! शुद्धात्मा बिना प्राणशक्ति भी रहसकता है मगर बिना आत्म प्राणशक्ति नहीं रहसकता है!
एक अनेक होना परामात्मा का स्वप्ना है! स्वप्न का चंचलता मनुष्य का शिर में होता है! बाकी शरीर निश्छल रहता है! मनुष्य स्वप्न का छीजों का द्रव्य उस मनुषय से ही लभ्य होता है! वैसा ही परमात्म स्वप्ना का द्रव्य परामात्मा से ही लभ्य होता है! भौतिक नेत्र खोलने से मनुष्य का स्वप्न मिट जाता है!  परामात्मा का स्वप्न मिटाने के लिए ज्ञान नेत्र खोलने का आवश्यकता है! उसी के लिए इस साधना है!
विविध प्राणाणुवों मिलके एक कीड़ा, वृक्ष, पक्षी, पशु, और मनुष्य रूप में व्यक्त होरहा है! इन प्राणियों और उन् प्राणियों  का संबंधित अणुओं में अपना अपना अवसर का मुताबिक़ विविध रूपों में व्यक्त होते है इस प्राणशक्ती! इस प्रकार मनुष्य का अवसर का मुताबिक़ लभ्य होने प्राणशक्ती को मुख्य प्राणशक्ती कहते है!
उस मुख्य प्राणशक्ती गर्भधारण समय में जीवात्म के साथ प्रवेश करते है! प्राणी का कर्मानुसार जीवितांत तक साथ रहेगा! आहार प्राणवायु आधारित है! मुख्य प्राणशक्ती ब्रह्माण्ड से परामात्मा चेतना का रूप में मेडुल्ला(Medulla) का माध्यम से सेरेब्रम(Cerebrum) में प्रवेश कर के निक्षिप्त रहाता है! उधर से मेरुदंडस्थित विविध चक्रों में युक्त रीति में विभाजित होता है! प्राणवायु को केवल शक्ती ही होता है मगर प्राणशक्ती को शक्ती और बुद्धि दोनों होते है! प्राणशक्ती पूरा देहा में व्याप्त होता है! विविध भागो में विविध काम करते हुए विविध नामो से व्यक्त होता है!
प्राणवायु का रूप में स्फटिकीकरण(Crystallization) यानी सर्व कामो का व्यक्तीकरण के लिए सहायता करता है!
अपानवायु का रूप में व्यर्थपदार्थों का विसर्जन(Elimination) काम के लिए सहायता करता है!
व्यानवायु का रूप में प्रसारण(Circulation) काम के लिए सहायता करता है!
समानवायु का रूप में स्पांजीकरण(Assimilation) काम के लिए सहायता करता है! हजम होने, उस का माध्यम से अंगों को आवश्यक पोषकपदार्थो का वितरण, और मरा हुआ कणों का स्थानों में नया कणों का उत्पादन करने में सहायता करता है! 
केशावृद्धि, त्वचा, मांस, इत्यादियों को विविध रूप का कणों चाहिए! उन् के लिए अनंत समीकरणों होते रहते है! इस पद्धति को जीवाणुपाक कहते है! उदानुवायु रूप में जीवाणुपाक (Metabolizing) के लिये सहायता करता है!  
प्राण और अपान वायु मनुष्य का शरीर में दो मुख्य विद्युत है! अपान वायु मनुष्य का कूटस्थ से मूलाधार का माध्यम से उस का साथ लगा हुआ मलद्वार से बाहर जाता है! ए बहुत चंचल है और मनुष्य को इंद्रियलोल करता है!
प्राण विद्युत मलद्वार का का साथ लगा हुआ मूलाधार का माध्यम से कूटस्थ तक जाता है! ए बहुत शांतियुत है! निद्रा और ध्यानासमय में मनुष्य का एकाग्रता को परमात्मा का साथ मिलाता है!
एक विद्युत(अपान) मनुष्य को नीचे यानी बाह्यप्रपंच का दिशा में खींचता है! दूसरा विद्युत(प्राण) मनुष्य को अंदर यानी अंतर्मुख करता है! साधना अंतर्मुख होने से परमात्म को मिलना सुलभ होता है! इसी को क्रियायोग कहता है!
मुख्य प्राण कूटस्थ से मलद्वार का माध्यम से बहिर्गत होने समय कणों, कंडरों और अंगों सेरेब्रम् को समाचार नाडियों का माध्यम से लेजाने, और मानसिक व्यापार के लिए शक्ती खर्च होता है! उस समय में व्यर्थ और कलुषित पदार्थो रक्त में छोडता है! उन् व्यर्थपदार्थो में कारबंडयाक्सैड्(CO2)एक है! उस कलुषित रक्त को तुरंत तुरंत शुद्धीकरण करना अत्यंत आवश्यक है अथावा भौतिक मरण संभव होता है!
उस खर्च हुआ शक्ती को पुनरुद्धारण करने श्वास का माध्यम से आने इस मुख्याप्राण आवश्यक है!
मेरुदंड में प्राण और अपान वायुवों का परस्पर विरुद्ध आकर्षणों का हेतु श्वास और निश्वास प्रक्रिया होते है! प्राणवायु सहित प्राणशक्ती उप्पर कूटस्थ में जाने समय में कारबं डयाक्सैड्(CO2) को फेफड़ों में निकलवाया जाता है! इसी को श्वास लेना कहते है!
उदर का अंदर का द्रव और घन पदार्थोंका शुद्धीकरण के लिए  अधिक समय लगता है! उस शुद्धीकरण किया हुआ शक्ती को कणों में भेजनेवाले छीज प्राणशक्ती ही है! इ शुद्धीकरण किया हुआ प्राणशक्ती मेरुदंडस्थित चक्रों, कूटस्थ और सेरेब्रम (cerebrum) में शक्ती को पुनारुद्धारण करते रहते है! श्वास का बचाहुआ शक्ती को रक्त पूरा शरीर में लेजाते रहते है! पंच प्राणों इस शक्ती को अपना अपना अवसर का मुताबिक़ उपयोग करता है!
भौतिकशरीर को भौतिक मेरुदंड, सेरेब्रम और भौतिक चक्र स्थानों होते है!
सूक्ष्मशरीर को सूक्ष्म मेरुदंड, सूक्ष्म सेरेब्रम और सूक्ष्म चक्र स्थानों, प्रकाश, और सूक्ष्मनाडियों सिस्टम होते है!
भौतिकशरीर, भौतिकशरीर पंच कर्मेन्द्रियाँ, और पंच ज्ञानेंद्रियों को आवश्यक शक्तियों का मूल है ए सूक्ष्मशरीर! सूक्ष्मनाडियों का माध्यम से पंचाप्राणों को आवश्यक रूप में शक्ती प्रसादित करता है ए सूक्ष्मशरीर! मुख्य सुषुम्ना सूक्ष्मनाडि का बाहर प्राकाशिक कवर है ए प्राणाणुवों! साथ चक्रों, और  सूक्ष्मनाडियों का प्राणाणुवों को नियंत्रित करता है ए सुषुम्ना सूक्ष्मनाडि!
सुषुम्ना सूक्ष्मनाडि मूलाधारचक्र से सेरेब्रम का अंदर का ब्रह्मरंध्र का नीचे रहा सहस्राराचक्र तक व्याप्ति होता है!
भौतिक मेरुदंड का दोनों दिशा में चार लायीन् में रहा सिंपथटिक नर्वस सिस्टम(sympatathetic nervous system) सूक्ष्मशरीर मेरुदंड जैसा है! इडा, पिंगळा, और उन् दोनों का बीच में रहा सुषुम्ना को मिलाके एक लायीन्, सुषुम्ना का अंदर का स्थित वज्र एक लायीन्, वज्र का अंदर का स्थित चित्रि एक लायीन्, चित्रि का अंदर का स्थित ब्रह्मनाडी एक लायीन्, कुल मिलाके चार लायीन् होते है! ब्रह्मनाडी कारणशारीर का मेरुदंड है!
भौतिक मेरुदंड का चार लायीन् सिंपथटिक नर्वस सिस्टम(sympathetic nervous system) का रक्षण के लिए 33 मनाका(beads) का रक्षण कवच बनाया हुआ है!
सब से बाहर नाडियों में लिम्फ्स(lymph) का साथ भरा हुआ ड्यूरा माटेर झिल्ली(Dura matter membrane) होते है! इस ड्यूरा माटेर झिल्ली का अंदर का नाडियों में आर्चनायड  (Arachnoid membrane) झिल्ली अत्यंत मृदुझिल्ली होते है! इन् नाडीयां सेरेब्रम से आनेवाले द्रव को रक्षा करते है! इस  झिल्ली(Arachnoid membrane)का अंदर पाया माटेर(pia matter) कर के white & gray matter होता है! इस white & gray matter को Vascular membrane कवर करता है! Afferent & efferent कर के अत्यंत मृदु नाडियां, सेरेब्रम कर्म, और ज्ञानेंद्रियों और मुख्य अंगों और उन् का नाडियों का साथ white & gray matter जोड़ा हुआ होते है! white & gray matter का अंदर अति सरळ नाला होता है!         
भैतिक नेत्र में सफ़ेद(White), ऐरिस(Iris) और प्यूपिल(Pupil) होते है! इस प्यूपिल(Pupil)का पीछे सूक्ष्म ज्ञाननेत्र में सफ़ेद(White) का अनुगुण सोना रंग का चक्र, इस चक्र का अंदर नील रंग का चक्र, और इस नील रंग का चक्र का अंदर पाँच भुजवाले राजित नक्षत्र क्रमशः  होते है! मनुष्य का दोनों हाथ, पादों, और शिर सब मिलाके पाँच भुजवाले राजित नक्षत्र क्रमशः  होते है! शिरआकाश, दोनों हाथवायु और अग्नि, दोनों पादों जल् और पृथ्वी को प्रतीकाए है!
अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति
सर्वेप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपित कल्माहाः                30
कुछ साधक आहाराविषय में नियमपालन करके प्राणादि वायुवों को प्राणादि वायुवों में ही होम कररहे है! ए सब यज्ञ जाननेवाले, और यज्ञों से पापा नाश् कियाहुआ लोग है!
पेट को चार भाग में विभाजन करना चाहिए, दो भाग घनाहार के लिए, एक भाग द्रव पदार्थ के लिए, और एक भाग खाली रखना चाहिए!
वायु का उत्पन्न आहार पदार्थो विसर्जन करना चाहिए! मिताहार भोजन से योगों प्राणायाम कर सकते है!
रक्तदाब(blood pressure), जोड़ो की सूजन(arthiritis), और दमा जैसा(Allergy) व्याधियों के लिए गेहूँ से घर में पीसा हुआ चावल खाना ही अच्छा है!
हमारा शरीर में  72,000 सूक्ष्मनाडियां है! उन् में इडा, पिंगळा, और सुषुम्ना अतिमुख्य है! प्रकाश का बाहर कवर सुषुम्ना सूक्ष्मनाडि है! ए सूक्ष्मशरीर का सूक्ष्म प्राणाणुवों को स्थूल काम को नियंत्रित करता है! सुषुम्ना का बाए दिशा में  प्राणवायु का अनुगुण में इडा सूक्ष्मनाडि रहता है! सुषुम्ना का बाए दिशा में अपानवायु का अनुगुण में पिंगळा सूक्ष्मनाडि रहता है! इडा, और पिंगळा सूक्ष्मनाडियॉ स्थूलशरीर का सिंपथटिक नेर्वस् सिस्टम(sypathatic nervous system)को नियंत्रित करता है!  
सुषुम्ना मूलाधार से सहस्राराचक्र तक व्याप्ति होता है!
सुषुम्ना का अंदर स्थित वज्र सूक्ष्मनाडि स्वाधिष्ठानचक्र से सहस्राराचक्र तक व्याप्ति होता है! ए सूक्ष्मशरीर का संकोच,  व्याकोच और समस्त गतियो के लिए आवश्यक शक्ती लभ्य करता है!
वज्र का अंदर स्थित चित्रि सूक्ष्मनाडि मणिपुरचक्र से सहस्राराचक्र तक व्याप्ति होता है! ए सूक्ष्मशरीर का आध्यात्मिक यानी चेतना संबंधित कामो को नियंत्रित करता है! सुषुम्ना, वज्र, और चित्रि सूक्ष्मनाडियों का नियंत्रण सहस्रार चक्र करता है! सहस्रारचक्र सूक्ष्मशरीर का सेरेब्रम है!
इस सहस्रारचक्र का प्रकाशित किरणों साथ चक्रों को अपना अपना कामों और चेतना के लिए आवश्यक शक्ती को प्रसादित करते है! भौतिक सेरेब्रम और स्थूल चक्रस्थानों को, तंत्रिका केन्द्रों और उन् केन्द्रों से तंत्रिकों को, उन् स्थूल तंत्रिकों का कामों और चेतना का आवश्यक शक्ती प्रसादित करता है!
स्थूलशरीर मांसमय है! सूक्ष्मशरीर प्राणशक्ति, प्राणाणु अथवा ज्ञानप्रकाश का साथ होते है! कारणशरीर केवल चैतन्य अथवा विचाराणुवों का साथ होते है! मानावाचेतन को, स्थीतिवंत होने हेतु इस कारणशरीर ही है!
कारणशरीर को ज्ञानवंत सेरेब्रम, आध्यात्मिक सहित ब्रह्मनाडी कर के मेरुदंड होता है! चित्रि सूक्ष्मनाडी का अंदर ब्रह्मनाडी होता है! ए केवल चेतना का साथ होता है!
स्थूलशरीर को स्थूलचक्रस्थान होते है! स्थूलचक्रस्थान का अनुगुण सूक्ष्मशरीर को सूक्ष्मचक्रस्थान होते है! वैसा ही सूक्ष्मचक्रस्थान का अनुगुण कारणशरीर को साथ कारणचक्र स्थान होते है!
स्थूलचक्रस्थान, स्थूलशरीर सेरेब्रम, सूक्ष्मशरीर चक्रों, सूक्ष्म शरीर सेरेब्रम, कारण शरीर चक्रों, और कारणशरीर सेरेब्रम साथ मिलाके काम करते है! इसीलिये स्थूल, सूक्ष्म, और कारणशरीरों सब मिलके एक शरीर जैसा काम करता है!
स्थूल, और सूक्ष्म शरीरों दोनों इस कारणशरीर का हेतु पहचानना, विचार करना, इच्छा करना और अनुभव करने के लिए सहायता करता है! कारणशरीर सेरेब्रम नित्यशाक्तिवंत, नित्याचैतन्य,और नित्यनूतनानंदयुक्त परमात्मचेतना का भान्डार है!
परमात्मचेतना का व्यष्टीकरण ही व्यष्टात्मा है! परमात्मचेतन जब कारणशरीर में प्रवेशित करता है कारण सेरेब्रम शुद्धज्ञान का रूप में, कारण मेडुल्ला(Medulla) में आत्मबोध(intuition) का रूप में, कारण विशुद्ध में शांति रूप में, कारण अनाहत में प्राणशक्ति नियंत्रण का रूप में, कारण मणिपुर में आत्मनिग्रह शक्ति का रूप में, कारण स्वाधिष्ठान में दृढसंकल्प का रूप में, कारण मूलाधार में निग्रहशक्ति का रूप में, और नित्य निरंतर विचारों का चेतना का रूप में व्यक्तीकरण करते है!
गोप्य का अर्थ गुप्ता! साधना गुप्त यानी रहस्य है! रहित हास्य रहस्य है! साधना हास्य नहीं महतवपूर्णहै!
विचार गुप्त होता है! शव को विचार नहीं होता है, जीव अथावा प्राण सहित छीज को शिव कहता है! चेतना सहित होता है विचार! कवित्व से कविता आया है! वैसा ही गुप्त से आया शब्द है गोपिक! सर्वं खलु इदं ब्रह्म! सूरज और सूर्य किरणों अलग नहीं है! श्रीकृष्णपरमात्मा और परमात्म चेतना अलग नहीं है! परमात्म चेतना अथवा श्रीकृष्णपरमात्मा एक परिमित दृग्गोचर मनुष्य नहीं है! योगी का केवल एक ही चिंतन ओ है परमात्मा को पाने का चिंतन! साधारण मनुष्य को विचारों अनंत है! नाम् के वास्ते 16000 गोपिकाएं बोले है! असली में16000 गोपिकाएं का अर्थ अनेक विचारों! हर एक विचार का पीछे परामात्मा चेतना है कर के अर्थ है!
यज्ञशिष्टामृत भुजोयान्ति ब्रह्मसनातनं
नायम लोकोस्त्यज्ञस्य कुतोन्यःकुरुसत्तम            31
हे कुरुवंश श्रेष्ठ अर्जुन, ए विशदीकरण किया हुआ यज्ञों आचारण करने के पश्चात शेष अमृतरूपी अन्न को भोजन करनेवाले साधकों शाश्वत परब्रह्म को प्राप्त करते है! वैसा यज्ञ कमसेकम एक भी नहीं करने मनुष्य को इहा लोक सुख नहीं होगा, फिर परलोक सुख कैसा प्राप्त करेगा?
असली यज्ञ प्राणायाम है! इसीलिए कुछ न कुछ प्राणायाम पद्धति का माध्यम से प्राणशक्ति नियंत्रण करना चाहिए! इस प्राणशक्ति शारीरक आवश्यकता का मुताबिक़ पाँच वायुवों का रूप में बदल के आवश्यक प्रमाण में लभ्य होता है! अथवा शरीर व्याधिग्रस्त होता है!
प्राणवायु शरीर क्षीणता से रक्षा करता है!
व्यानावायु रक्तहीनता और रक्तदाब इत्याधि व्याधियों से शरीर को रक्षा करता है!
समानवायु क्षीण पाचन, से शरीर को रक्षा करता है! 
उदानावायु अंगों, कंडरों इत्यादियो को जरूरत से अधिक मात्रा में वृद्धी नहीं होने से शरीर को रक्षा करता है!
अपानवायु  विषपदार्थ वृद्धि, वात, ट्यूमरों, कांसर कणों का वृद्धि, बावासीर, इत्याधि व्याधियों से शरीर को रक्षा करता है!
परमात्मचेतना कारणशारीर का अंदर, कारणचेतना सूक्ष्मशरीर का अंदर, सूक्ष्मचेतना स्थूलशरीर का अंदर, इन्द्रियाकर्षण का माध्यम से स्थूल पदार्थ का अंदर बदलने का समय में परमात्मचेतना का आध्यात्मिक स्वभाव कम होता जाता है! शुद्धज्ञान युक्तायुक्त विचक्षणा यानी बुद्धी रूप में, बुद्धी इंद्रियों का नौकर अंथा मन का रूप में, आखरी में अंथा मन ज पदार्थ व्याक्त होता है!
एवं बहुविधा यज्ञा वित्ता ब्राह्मणों मुखे 
कर्मजान् विद्धितान् सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे        32
इस प्रकार वेदों में अनेक यज्ञों का विस्तार से विशादीकरण किया हुआ है! वों सब कर्म से उत्पन्न हुआ इसीलिए कर्म सम्बंधित है कर के जानो! वैसा जानने से विमुक्त होजायेगा!
श्रेयान् द्रव्यमयाद्यज्ञा ज्ञान यज्ञःपरंतपा
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते                    33
हे अर्जुन, द्रव्य से लभ्यहोने यज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रष्ट है! क्यों कि समस्त कर्म फलसहित ज्ञान में ही विलीन होजाता है!
बाहर में भौतिक रूप में जो भी यज्ञों सब आखरी में अंतर्मुख होंकर करने प्राणायाम नियंत्रण कर्मो का रास्ता की दिशा में चलकरज्ञान में अंतर्भूत होते है! भौतिक यज्ञों से योगसाधना यज्ञकर्म ही अत्युत्तम है!   
तद्विद्धिप्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया
उपदेक्ष्यंतिते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदार्शिनः                       34
हे अर्जुन, वैसा ज्ञान को तुम तत्ववेत्ताओं ज्ञानियों से समय देख कर साष्टांगनमस्कार कर के नम्रता से प्रश्न कर के, सेवा कर के उन् से सीखो! वे तुम को अवश्य उपदेश करेंगे!
साधक का वेदनासहित प्रार्थना को परमात्मा ग्रहण कर के सद्गुरु को भेजदेंगे!
सद्गुरु को तीन प्रकार का रूप में साधक प्रेम से अर्थित कर सकते है!   
1)अपने आप को परिपूर्णता का रूप में सद्गुरु को अर्पिता करसकते है! 2) अर्थवंत प्रश्नों का माध्यम से अपना अपना संदेहनिवृत्ति कर सकते है! 3)भक्ती का साथ सेवा का माध्यम से सद्गुरु को प्रसन्न करसकते है!
साधक अपना नियमित साधना हर एक दिन कर के, कूटस्थ में सद्गुरु को प्रेम से दर्शन के, अपना संदेहनिवृत्ति कर सकते है!
यज्ञात्वा नपुनर्मोहमेवं यास्यसि पांडव
येनभूतान्याषेशेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथोमयि                   35
हे अर्जुन, जिस को जानने से पुनः ऐसा मोह नहीं उत्पन्न होगा, और जिस से समस्त प्राणोँ को तुम में और मुझे में भी देख सकते हो, ऐसा ज्ञान को तत्ववेत्तों से जानलो!
सद्गुरु का करुणा कटाक्ष का माध्यम से ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया हुआ साधक माया वश पुनः नहीं होगा!
अपिचेदासी पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतारिष्यसि                      36
शायद समस्त पापियों में अत्यंत पाप किया हुआ मनुष्य होने से भी उस पापसमुद्र को ज्ञान नाम का नाव् से अवश्य पार सकते हो!
साधारण मनुष्य का चेतना मूलाधारचक्र से मणिपुरचक्र यानी ब्रह्मग्रंथि तक परिमित होंकर कर्माधीन होता है!
मणिपुरचक्र से विशुद्धचक्र तक परिमित हुआ है रूद्रग्रंथि! इस रूद्रग्रंथि विच्छेदन होने से साधक कर्मातीत होता है!
विशुद्धचक्र से सहस्रारचक्र यानी तक परिमित हुआ है विष्णुग्रंथि! इस विष्णुग्रंथि विच्छेदन होने से साधक कर्मातीत होके कूटस्थ में स्थतिवंत होता है! वैसा योगसाधानायुक्त साधक कर्मो से स्पर्शनारहित होंकर साक्शीभूत रहता है!
यथैथांसि समिद्धोग्नि भस्मसात्कुरुतेर्जुन
ज्ञानग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा                 37
अर्जुन,अधिक प्रज्वल हुआ अग्नि काष्टॉ को जैसा भस्म करता है, वैसा ही ज्ञान नाम के अग्नि समस्त कर्मो को भस्म करता है!
चार प्रकार का कर्मो और उन् का फलों;--
1)पुरुषाकारइच्छाशक्ती से प्रभावित होंकर वर्त्तमान में कियाजाने कर्मों! ए संचित यानी पिछले जन्मों का कर्मो का आधारित नहीं है! 
2)प्रारब्धसंचित यानी पिछले जन्मों का कर्मो का आधारित  है! ए मनुष्य का परामात्मा प्रसादीता इच्छाशक्ती अवरोधित है! संचित कर्मो मनुष्य का भौतिक और मानसिक अभिवृद्दी अथवा क्षीण परिस्थितियों को ज्यादातक कारणभूत है! संचित कर्मो कभी कभी जन्मतः प्रारम्भ से ही अपना प्रभाव दिखाता है, कभी युक्त समय के लिए इंतज़ार करके अनुकूल परिस्थतियों लभ्य होने से तुरंत फल देना प्रारंभ करते है!
3)परारब्धा अभी तक फल नहीं दिया कर्मो! ए उचित समय के लिए इंतज़ार करके इस जन्म में अथावा अगले जन्मों में फल देते है! हर एक नूतन कर्म पिछले कर्मो का अनुगुण बनजाता है! इस प्रकार पुनारावृता होते हुए संस्कारों (अच्छा अथवा बुरा)प्रस्तुत जीवन में भी प्रतिबिंबित होते है!
इस प्रकार भूत, वर्त्तमान, और भविष्यत जीवनों, उन् का अच्छा अथवा बुरा फलों इन कर्मो का साथ बांधा हुआ है!
माया का प्रभाव से मनुष्य को भूत, वर्त्तमान, और भविष्यत जीवनों में मै कौन हूँ करके पता नहीं है! धर्मबद्ध इस कर्म को अज्ञानता का हेतु बंधन् कहते है! मनुष्य साधना का माध्यम से इस बंधन् से विमुक्त होना चाहिए!
4)प्रहादारायोगी अपना साधना का हेतु लभ्य हुआ ज्ञान का सहायता से पुरुषाकार, प्रारब्ध, और परारब्धा कर्मो को दग्ध कर सकते है!
नहीं ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिहविद्यते
तत् स्वयं योगसंसिद्दः कालेनात्मनि विन्दति             38
इस प्रपंच में ज्ञान का समान पवित्र छीज कुछ भी नहीं है! वैसा ज्ञान योगस्थिति मनुष्य कालक्रम में स्वयं अपना ही में प्राप्ति करता है!
श्रद्धावान लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः
ज्ञानं लब्ध्वा पराम शांतिं अचिरेनाधिगच्छति           39
गुरु, और शास्त्र में श्रद्धा सहित, आध्यात्मिक साधना में अत्यंत निष्ठावान साधक, इंद्रियों को वश किया हुआ साधक, ज्ञानप्राप्ति करता है! वैसा ज्ञानप्राप्ति कर के परिपूर्ण शांति शीघ्र में ही लब्ध करता है!
स्वल्प और अल्प इन्द्रियसुख मनुष्य जन्मतः प्राप्त करके और उन् को आदत होजाता है!
पायस खाने आदमी बासी खाना नहीं खासकता है! वैसा ही शाश्वत, परमानंदयुक्त, परमात्मा प्राप्ति हुआ साधक इन्द्रियसुखों में आशा नही होते है!
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति
नायं लोकेस्तिन परो न सुखं संशयात्मनः     40
अज्ञानी, श्रद्धारहित, और संशयात्मा विनाश ही प्राप्त करता है! संशयात्मा को इह लोक और पर लोक दोनों में सुख नहीं पाते है!
आत्मन्यूनता का हेतु अल्प हुआ इन्द्रियालोल अत्युत्तम आत्मज्ञान को वांछित नहीं करते है! क्रियारहितत्व का बदल क्रियो करना ही अच्छा है! उस का वजह से मनुष्य का शरीर, और मस्तिष्क को अभ्यास होंकर क्रमशः आध्यात्मिकता को रास्ता बनाता है! क्रियारहित मनुष्य पक्षाघात रोगी जैसा है! जलजहाज समुद्र का किनारे में स्थित लाईट हॉउस(light house) लाईट घूमने के समय में बीच में दिखाई देनेवाले प्रकाश रास्ता दिखाने उपयोग होता है! उस प्रकाश का बदल में अंथेरा दिखने से रास्ता का बारे में अनुमान व्यक्त होते है!  वैसा ही मनुष्य इन्द्रियों का उप्पर आधारित होते है! इसीलिये अपना बुद्धि का उप्पर बीच बीच में अनुमान व्यक्त होता है! साधना से आने आत्मबोध का उप्पर आधार होना उत्तम है!
अपना साधना युक्त अथवा अयुक्त करके संदेह साधक को इहा लोक में अथावा परलोक में सुख नहीं प्राप्त कराएगा!
योग सन्यास्ताकर्माणं ज्ञान संछिन्न संशयः
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय               41
ओ अर्जुन, निष्कामकर्मयोग का माध्यम से ईस्वरार्पण कर के कर्मफलो को त्याग किया हुआ मनुष्य, ज्ञान से संशय निवृत्ति हुआ ब्रह्मज्ञानी और आत्मनिष्ठ साधक कर्मो का बंधी नहीं होता है!  
तस्मादज्ञान संभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत                  42
ओ अर्जुन, इसीलिए तुम्हारा ह्रुदय में स्थिता, और अज्ञान से उत्पन्न हुआ इस संशय नाम का ज्ञानखड्ग को छेदन् करके निष्कामकर्मयोग को आचारण करो, उठो!

ॐ तत् सत् इति श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायाम योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे अर्जुन ज्ञानयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः
   

          ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेमः
                 श्रीभगवद्गीत           अथ पञ्चमोऽध्यायः
             कर्मसन्यासयोगः

श्री अर्जुन उवाच
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगंच शंससि
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम 
अर्जुन ने कहा
हे कृष्णा, तुम कभी कर्मत्यागापूर्वक ज्ञान को, और कभी कर्मयोग को प्रशंशा कर रहे हो! इन दोनोँ में कोन् सा श्रेष्ठ है निश्चय कर के कहो!
कर्म नहीं करने से भक्ती उत्पन्न नहीं होता है! वैसा श्रद्धा साधक को केवल लक्ष्य ही दिखाने को सहायता करेगा! तब ज्ञान प्राप्त होगा! इसीलिए कर्मयोग और ज्ञानयोग अलग करके संदेह होना साधक को सहज है!  . 
श्री भगवान उवाचा
संन्यासः कर्मयोगाश्च निस्श्रेयसकरा वुभौ
तयोस्तुकर्म सन्यासात्कार्मयोगो विशिष्यते                         2
श्री भगवान ने कहा
कर्मत्यागपूर्वक ज्ञानयोग, और कर्मयोग दोनों मोक्ष प्राप्त कराता है! परंतु प्रथम में कर्मत्याग से कर्मयोग श्रेष्ठ है!
कर्म और ज्ञानयोग दोनों सर्वस्वतंत्र है! कर्म करके त्याग करने से ही ज्ञान लभ्य होता है! कर्म नहीं करने से त्याग कैसा करेगा? इसीलिए बिना कर्म छुप बैठने कर्मत्याग नहीं होते है!    
ज्ञेयस्सनित्य संन्यासी योंनद्वेष्टि न कांक्षति
निर्द्वन्द्वोहि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते                 3
हे महाबाहु अर्जुन, जो कर्मयोगी जिस को भी द्वेष नहीं करते है, कोई भी छीज नही चाहता है, उस को सर्वदा सन्यासी यानी त्यागी करके जानो! रागद्वेषद्वंद्वरहित साधक शीघ्र ही सम्साराबंधन् से विमुक्त होजायेगा!
सत् का अर्थ सत्य, न्यासी का अर्थ अन्वेषण!
योगसाधना करने साधक सत्यान्वेषी होना चाहिए! भौतिक रागद्वेषादियो से दूर होना चाहिए!
सांख्य योगौ पृथग्बालाःप्रवदन्ति पण्डिताः 
एकमप्यास्थित सम्यगुभयोर्विन्दते फलं                          4
कर्मत्यागपूर्वक ज्ञानयोग, कर्मयोग दोनों अलग अलग फल देगा करके अविवेकीजन बोलते हैं, वीवेकीजन नहीं कहेगा! उन् दोनों में कोई भी एक को अच्छीतरह अनुष्ठान करने से दोनों म् का मोक्ष फल मनुष्य को लभ्य होता है!
परमात्मा ज्ञान और आनंद स्वरूपि है! योगसाधनाकर्म करने से हे ज्ञानप्राप्त होता है! ज्ञानप्राप्ति होने से ही आनंद लभ्य होता है!   
यात्सांख्यैरपि प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति सपश्यति             5
ज्ञानयोगियों से जो मोक्षप्राप्ति होता है, ओही कर्मयोगियो को भी प्राप्ति होता है! ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों समान फलप्राप्ति लभ्य करता है! ऐसा जो साधक समझता है ओ ही असलियत समझता है!
सन्यासस्तु महाबाहो दुःख माप्तुमयोगतः
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधि गच्छति     6
महाबाहो का अर्थ शरीर दारुढ्य, आरोग्य और शक्तिमान मनुष्य! वैसा हे मनुष्य योग करने को अर्ह है!
बलहीन, और आरोग्यहीन मनुष्य योग नहीं करसकते है! इसीलिये अर्जुन को महाबाहो करके श्रीकृष्ण ने संबोधन किया!
हे अर्जुन, कर्मसंन्यासस्वरूपी ज्ञानयोग बिना कर्मयोग लभ्य नहीं होगा! कर्मयोगसहित मननशील साधक अपना लक्ष्य ब्रह्म को शीघ्रता से प्राप्त करता है!
योगयुक्तोविशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः 
सर्वभूतात्म भूतात्मा कुर्वन्नपि नलिप्यते                  7
निष्कामकर्मयोगाचरण साधक, परिशुद्ध हृदय साधक, मनको परिपूर्णता से जीता साधक, इंद्रियों को वश किया साधक, समस्त प्राणो में स्थित आत्म और अपना में स्थित आत्म एक ही करके जानागया साधक, कर्म करने से भी जर्मो से  अपरिच्छिन्न रहता है!   
नैवाकिन्चित्कारोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित् 
पश्यण् श्रुण्वन्, स्प्रुशन् जिघ्रण्णश्नन् गच्छन् स्वपन् श्वशन् 8
प्रलपन् विश्रुजन् गृह्णन्नुन्मिषन् निमिषनापि
इंद्रियाणि इंद्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्                      9
परमार्थतत्व को जानगया और आत्म में एकाग्रचित्तयुक्त साधक, देखने के समय भी, सुनने के समय भी, स्पर्श करने के समय भी, सूंघने के समय भी, खाने के समय भी, चलने के समय भी, सोने के समय भी, श्वासक्रिया का समय भी, बोलने के समय भी, आँखों को बंद करने और खोलने के समय भी,  छोडने के समय भी, ग्रहण करने के समय भी, इंद्रियों अपना अपना विषयों में प्रवर्तित होरहा है कर के निश्चय करके उस कार्यों में कर्तृत्व बुद्धि नहीं होके रहता है!

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगम् त्यक्त्वा करोतियः
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा                  10
जो साधक अपना कर्मो को परामात्मा को अर्पिता करके निरासक्त रहता है, ओ साधक कमल पत्र पानी से जैसा गीला नहीं होता है, वैसा पापा से स्पर्शनीय नहीं होता है!
साधक प्राणशक्ति, अहंकार, और चेतना को मेरुदंड में उपसम्हारण करता है! सूक्ष्म मेरुदंड का सुषुम्ना, उस का अंदर का वज्र,और वज्र का अंदर का चित्रि सूक्ष्म नाडियो में एक विद्युतधारा जैसा भेजता है! उस विद्युतधारा चित्रि का अंदर का अत्यंत सूक्ष्म ब्रह्मनाडि का माध्यम से परामात्मा को आरोहणाक्रम में पहुंचा जाता है! इस ब्रह्मनाडि का माध्यम से ही क्रमशः आत्म, प्राणशक्ति, और चेतना का रूप में अवरोहणाक्रम में इस जड़ शरीर में प्रवेश करके उस को चैतन्यवंत करता है!
कायेन मनसा बुद्ध्या केवालैरिन्द्रियैरपि
योगिनः कर्मकुर्वंति संगम् त्यक्त्वाटमा शुद्धये            11
निष्कामकर्मयोगियो चित्तशुद्धि के लिए फलाशक्ति को त्यग कर, शरीर मन, और बुद्धि का माध्यम से, बिना अभिमान केवल इंद्रियों से कर्म कर रहे है!
साधना कर के ब्रह्मनाडी का माध्यम् से आरोहणाक्रम में प्राणशक्ति को परमात्मा को पहुंचाना ही अनन्यभक्ति है! योग साधना से सत्कर्मो करता है मनुष्य! इन सत्कर्मो अहंकार को शुद्धि करके मै आत्मस्वरूपी हु करके ज्ञप्ति दिलाता है!  
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्  
अयुक्तः कामकारेण फलेसक्तो निबध्यते                                12
निष्कामाकर्मयोगी अपना कर्मो का फल त्याग के चित्तशुद्धि से आत्मनिष्ठा संबंधित शाश्वत  शांति को  प्राप्त करता है!
योगायुक्तरहित मनुष्य यानी फलापेक्षा से कर्मों करके आशाप्रेरित होंकर कर्मफल का आसक्ति से बद्ध होजाता है!
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखंवशी 
नवद्वारे पुरेदेही नैवकुर्वन्नकारयन्                    13
इंद्रियनिग्रहायुक्त देहधारी अपना मन से समस्ताकर्मो को परित्याग कर के, कुछ भी कर्म नहीं करके, नहीं करा के, नौद्वारयुत शरीर नाम का नगर में आनंदमय होंकर रहता है!
परमात्मा से परमात्माचेतन अवरोहणाक्रम में कारण, सूक्ष्म, और स्थूल प्राणशक्ति में बदल कर,सेरेब्रम(cerebrum) से स्थूल इंद्रियाँ, नसों को पहुन्चाजाता है! स्थूल नसों का केन्द्रों प्राणशक्ति प्रवाह का मुख्याद्वारें है!
योगसाधना नहीं करने साधारण मनुष्य, वों भी प्राकृतिकता के विरुद्ध मदिरा माद्यं इत्यादि व्यसनो का दास होंकर कोई भी व्यायाम करके आलसीपन मनुष्य में विषपदार्थो(Toxins) अधिक होते है! वैसा मनुष्य का नसों का केन्द्रों मलिनों से बंद होजाते है! वे अधिक से अधिक इन्द्रियसुखों को आदत होंकर विनाश होते हुए परामात्मा का दूर और दूर होजायेगा!
योगासनों——ए मलिनों से बंद हुआ नसों का केन्द्रों को शुद्धि करके उन् में प्राणशक्ति को अच्छीतरह प्रवाहित करके शरीर को उत्साहित और शक्तिशाली बनाएगा! ऐसा शरीर योगा ध्यान के अनुकूलित है!  
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः
नकार्मफल संयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते                           14
आत्म जीवों को कर्तृत्व, कर्मों, और कर्मफलो से सम्बन्ध नहीं कराता है! किन्तु परन्तु प्रकृति सम्बन्ध का हेतु जन्मान्तर सम्स्कार ही उस कर्तृत्वादि सम्बन्धों कराता है!
मनुष्य इच्छाशक्ती से क्रियायोगासाधाना का माध्यम से आरोहणाक्रम में स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीरों, तत् पश्चात ब्रह्मरंध्र का माध्यम से अपना स्वस्थान परमात्मा में ऐक्य होना चाहिए! 
नादत्ते कस्यचित्पापं नाचैवा सुकृतं विभुः    
अज्ञानेनावृतंज्ञानं तेनमुह्यन्तिजन्तवः                   15
परामात्मा किसी का भी पापा अथावा पुण्य को स्वीकार नहीं करते है! अज्ञानता से ज्ञान कवर किया हुआ है! इसी का हेतु जीवों भ्रम होजाते है!
परमात्म प्रसादित इच्छाशक्ती का उपयोग करके साधक माया को जितना चाहिए!
ज्ञानेनातुतदज्ञानंयेषां नाशितमात्मनः 
तेषामादित्य वज्ञानंप्रकाशयति तत्परं     16
आत्मज्ञान से जिस का अज्ञान नाशा होगया है, वैसे लोगों का ज्ञान सूर्य जैसा परब्रह्म प्रकाश से विराजित होता है!
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः
गच्छन्त्य पुनरावृत्तिम् ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः                17
परमात्मा में ही एकाग्रबुद्धियुक्त, परमात्मा में ही एकाग्र मन, और निष्ठापूर्वक, और परमात्मा को ही परमागती समझने साधक लोग, ज्ञान का माध्यम से पाप को भगादिया लोग गिनाजाता है! वे पुनरावृत्तिरहित शाश्वत मोक्ष अधिकर प्राप्त करते है!  
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गावि हस्तिनी
शुनकेच श्वपाकेच पण्डिताः समदर्शिनः                  18
विद्या विनयसंपन्न ब्राह्मण में, गाय में, हाथी में, कुत्ता में, कुत्ता का मांस खाने छंडाल में, समदृष्टियुक्त साधक ही ज्ञानी कहाजाता है!
केवल योगसाधना करने समय में परामात्मा में ममैक होने स्थिति को सविकल्पसमाधि स्थिति कहते है!
आँख बंद करने और नहीं खोलने से भी, कर्म करने और नहीं करने से भी, परामात्मा में ममैक होने स्थिति को निर्विविकल्पसमाधि स्थिति कहते है!
सिनेमा परदा पे विविध रूप क हाथियों, सिंहों, व्याघ्रो, नायका नायिकाओं, दुर्मार्गो दिखाई देता है! पीछे मोड़कर देखने से ओ सभी रुपों, आकारों, एक ही प्रोजेक्टर से आने प्रकाश किरणों ही है! निर्विविकल्पसमाधि स्थिति प्राप्त किया हुआ साधक को जगत में विविध रुपों, और आकारों में व्यक्त होने पदार्थो सभी परमात्मा का प्रोजेक्टर से आने प्रकाश किरणों ही लगेगा!
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः          19
जिस साधक का मन सर्वप्राणियों में आत्म को समभाव से देखने में स्थिर रहता है, वैसा साधक इस जन्म में ही जननमरणस्वरूपि संसार को जीता जासकता है! क्यों की ब्रह्म दोषरहित है, संतुलित है, इसीलिए वे ब्रह्म में ही स्थ्तितवान लोग गिनाजाता है!
60 वर्षों का जीवन में मनुष्य 21,600 रात और दिनों का सिनेमा देखेगा! फिर भी ओ परमात्मा का स्वप्न है करके नहीं समझने से पुनः पुनः जननमरण वृत्त में परिभ्रमण करते रहते है! योगी इस को एक नाटक जैसा देखेगा!
नप्रह्रुष्येत्प्रियम् प्राप्यानोद्विजेत्प्राप्यचाप्रियम्
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणिस्थितः                 20
स्थिराबुद्धिमान, मोहरहित, और ब्रह्म में स्थिरता, ऐसा ब्रह्म ज्ञानि, इष्ट प्राप्ति में संतोष अथवा अनिष्ट प्राप्ति में दुःख नहीं प्राप्ति करते है! .
बाह्यासपर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखं 
सब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते               21
बाह्य शब्दादि विषयों में आसक्तिरहित मनुष्य, आत्म में जैसा निरतिशय सुख है वैसा ही सुख को प्राप्ति करता है! ओ ब्रह्मनिष्ट नाम का समाधि यानी ब्रह्म का साथ अनुसन्धान करके अक्षय सुख प्राप्ति करता है!
येही सम्स्पर्शजाभोगा दुःखयोनऐवते
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः                   22
हे अर्जुन, इन्द्रियविषय संयोग से आने भोग दुःखहेतु, और अल्पकालिक है इसीलिए विज्ञ कभी भी उन् छीजों में आसक्तिरहित होता है!
भौतिक सुख और दुःख दोनों अल्पकालिक है करके ग्रहण किया साधक को उन् छीजों में रूचि नहीं होता है!
शश्नोतिहैव यस्सोढुं प्राक्चारीरविमोक्षणात्
कामक्रोदोद्भवं वेगं सयुक्तः स सुखी नरः                23 
जो साधक इस शरीर त्यागने के पहले ही इस जन्म में काम क्रोधादियों को निरोधित करता है, ओ ही योगी और सुखद रहते है!
हर एक दिन प्रातः और सायं काल में साधना करने योगी भी कभी कभी इंद्रियों का जाल में आजाता है! बार बार खाने से नीम का पत्ता भी मीठा लगेगा! वैसा ही साधना करते करते स्थिर होंकर लक्ष्य को लभ्य कर सकता है! 
योंतः सुखोंतारारामस्तथान्तर्ज्योतिरेवयः
सयोगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोध गच्छति                24
जिस साधक आत्म में ही सुख प्राप्ति करके, आत्म में ही खेलते हुए, आत्म में ही प्रकाशित होता है, वैसा योगी ब्रह्मस्वरूप पाकर ब्रह्मसाक्षात्कार प्राप्ति करते है!
लभंते ब्रह्मनिर्वाणम्रुषयः क्षीणकल्माषाः
छिन्नद्वैधायतात्मनः सर्वभूतहिते रताः                         25
पापरहितलोग, संशयवर्जितलोग,इंद्रियों और मन को वश किया लोग, समस्त प्राणियों का क्षेम में आसक्तियुत लोग, अतीन्द्रियज्ञानी लोग जिन को ऋषि करके पुकारते है, ओ ऋषि लोग ब्रह्मसाक्षात्कार प्राप्ति करते है!
1)ऋषियों——
आत्मसाक्षात्कार प्राप्त हुए लोग! इन्ही को देवर्षियों भी कहते है! जैसा कमल पत्ता को पानी परिच्छिन्न नहीं करसकते वैसा ही ए महापुरुषों कर्मो से अपरिच्छिन्न है! परमात्मा का अनुमति से हम लोगों को उद्धारण करने जन्मों लेते है!
2)ब्रह्मर्षि——
परमात्म तत्व सब पता होने से भी परन्तु परिपूर्ण आत्मसाक्षार लभ्य नहीं हुए लोग!
3)राजर्षि——
आध्यात्मिक साधना करने साधक लोग! इन में ऋषियों का लक्षण होते है! आत्मसाक्षार लभ्य होने बहुत दूर तक पहुँचा हुए लोग!
4)योगी—— आत्मसाक्षार के लिए साधना करनेवाला!
5)स्वामी—— मै कौन हु जान् गया मनुष्य!
आदिशंकराचार्य 1000 वर्ष पिछले स्वामी पद्धति को प्रवेश किया था! मै कौन हु पता होने ब्रह्मचर्य और परित्याग दोनों को अवलम्बन किया!
कामाक्रोधावियुक्तानाम् यतीनां यतचेतसाम्
अभितोब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनां                        26
कामक्रोधरहित, मनोनिग्रहयुक्त, आत्मतत्व जानकारी ज्ञानि, और यात्नाशीलों को ब्रह्मानंद शरीर होने से भी नहीं होने से भी सर्वत्र प्रकाशित होता है!
1)जीवनमुक्त—— इस जीवन में ही सर्व बंधनों से मुक्त हुआ कर्मराहिता साधक! .
2)परामुकता——शरीर त्यग किया योगी सूक्ष्म लोक में बाकी अवशेष कर्म को छुड़वाता है!
स्पर्शान कृत्वा बहिर्भाह्यांश्च क्षुश्चैवान्तरेभ्रुवोः
प्राणापानौ समौकृत्वा नासाभ्यान्तरचारिणौ              27 
यतेंद्रियमनो बुद्धिर्मुनिर्मोक्ष परायणः  
विगतेच्छ भायाक्रोधौ यस्सदामुक्त एवसः                    28
जो बाहर का शब्द स्पर्सादि विषयों को बाहर ही छोड़कर अंदर प्रवेश नहीं करनेदेके, दृष्टि को भ्रूमध्य में स्थिर करके, नथुनों में संचरण करने प्राणापानावायुवों समा करके, इंद्रिय मनोबुद्धियों को निग्रह करके इच्छा भय क्रोध रहित हो कर मोक्षासक्त होंकर आत्मशील रहता है, वैसा साधक सर्वदा मुक्त ही है!
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोक महेश्वरम्
सुह्रुदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शांतिमृच्छति      29
यज्ञों और तपस का फल को अनुभव करने भोक्ता जैसा, समस्त लोकोम् का प्रभु ईश्वर जैसा, समस्त प्राणों का हितकारी जैसा, मुझे जानकर मनुष्य शांति प्राप्ति करते है!
चकोरपक्षी
अमावास्य से पूर्णिमा तक 15 दिन का शुक्ल पक्ष में इस व्रत पालन करने मनुष्य अमावास्य का दिन कुछ भी नहीं खाना है! शुक्ल पक्ष पाड्यमी का दिन एक मुट्ठी भर भोजन खाना है! विदिया का दिन दो मुट्ठी भर भोजन खाना है! वैसा बढाते हुए पूर्णिमा का दिन 15 मुट्ठी भर भोजन खाना है! पूर्णिमा से तक अमावास्य 15 दिन का कृष्ण पक्ष है! इस कृष्ण पक्ष में एक एक मुट्ठी भर कम करते हुए अमावास्य का दिन कुछ भी भोजन नहीं खाना है! इसी को कृच्छ्र चान्द्रायणव्रत कहते है! चकोरपक्षी ऐसा करता है! कृच्छ्र चान्द्रायणव्रत पालन करने पक्षी ए ही है लगता है! इसीलिए इस पक्षी को एक विशिष्टता है! आध्यात्मिक तत्व में परामात्मा का साथ अनुसन्धान करने साधकों आहारानियाम पालन में इस चकोरपक्षी का आदर्श लेते है!
जाताक पक्षी
माता पक्षी गगन में उड़ाते हुए अण्डा छोडता है! ओ अण्डा भूमि का उप्पर गिरने के पहले ही पक्षी बन कर उप्पर उड़ेगा! शिशु पक्षी को वर्ष बिंदु आहार है! शिशु पक्षी का कंठ में एक छेद होता है! माता पक्षी इस शिशु पक्षी को गिरने के पहले ही पकड़ कर कंठ को उल्टा कर के वर्ष का दिशा में पकडता है ताकि उस कंठ में वर्ष बिंदु गिरे!
साधक उन् पक्षियों का आहारानियम और तपना देखकर परमात्म का साथ अनुसंथान करने साधना तपन होना चाहिए! साधक का मन परमात्मा का करुण नाम का वर्ष बिंदु के लिए तपन होना चाहिए!
क्रियायोग कोई भी अभ्यास करसकते है! इस क्रियायोग अभ्यास से साधक अपना मन को इन्द्रिय विषयों से निग्रह कर सकता है! इन्द्रियों से प्राणशक्ति को उपसंहरण करके मन, और बुद्धि दोनों को निग्रह कर सकते है! मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकारों को मेरुदंडस्थित मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, और विशुद्ध चक्रों का माध्यम से भ्रूमध्यस्थित आज्ञाचक्र में लेजाता है! इस आज्ञाचक्र भ्रूमध्यस्थित तीसरा आँख का अयस्कांत आकर्षण से मिलाया हुआ होता है! इस तीसरा आँख सेरेब्रम(Cerebrum)केंद्र का सहस्रारचक्र से जोडाहुआ होता है! उधर क्रियायोगी अपना मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकारों को आत्माग्नी में दग्ध करके अपन को शुद्धात्मा रीति में ग्रहण करेगा!
भौतिक नेत्र से मनुष्य अपना सामने क्षेत्र को ही देख सकते है! साधक का तीसरा आँख सूक्ष्म, कारण लोकों भी दिखा सकता है! तीसरा आँख में मन को प्रवेश करागया क्रियायोगी साधक प्रथम में अपना सूक्ष्मशरीर को और पश्चात में सूक्ष्म लोक और अपना सूक्ष्मशरीर को उस सूक्ष्म लोक में एक सदस्य जैसा देखेगा! तीसरा आँख में प्रवेश नहीं करके साधक अपना प्राणशक्ति, और चेतना को मेरुदंड और मेरुदंडस्थित चक्रों में प्रवेश नहीं करपायेगा! तत् पश्चात मोक्ष प्राप्ति करते है!
इस प्रकार क्रियायोग को श्रीकृष्ण परामात्मा अर्जुन का माध्यम से श्री भगवद्गीता में हम लोगों को उद्बोधन किया!
ॐ तत् सत् इति श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायाम योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे  कर्मसन्न्यसयोगो नाम पञ्चमोऽध्यायः 

  

          ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेनमः
                    श्रीभगवद्गीत              अथ षष्ठोऽध्यायः
             आत्मसंयमयोगयोगः

श्री भगवान उवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः
स संन्यासी च योगीच ननिरग्निर्नचाक्रियः                  1
श्री भगवानने कहा
जो साधक अपना कर्म यानी निष्कामकर्मयोग को बिना फलापेक्षा से करेगा, ओई सन्यासी और योगी भी होता है!
सत् न्यासी यानी सत् को अन्वेषण करनेवाला सन्यासी! अग्निहोत्र को अथावा कर्मो को छोडनेवाला सन्यासी और योगी कभी भी होता है!
जो धर्मबद्ध क्रियाओं को छोड़कर बिना अंतर्मुख होंकर सन्यासी नहीं बन सकता है! केवल भौतिक यज्ञों करने से सन्यासी नहीं बन सकता है!
यं संन्यासमिति प्राहुःयोगं तं विद्धि पांडव 
नह्यसंन्यस्त संकल्पों योगीभवति कश्चन                     2

हे अर्जुन, जिस को सन्यास कहते है, उसी को योग कर के जानो क्योंकि कामादिसंकल्प को छोड़कर सम्कल्पराहित नहीं हुआ साधक योगी नहीं बनसकता है!
योग का अर्थ मिलना! स्थिर मन से परमात्मा का साथ अनुसंथान करना ही योग है! वैसा अनुसंथान करनेवाला ही योगी है!  
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्मकारणमुच्यते
योगारूढस्यतस्यैव शमःकारणमुच्यते              3
ज्ञान अथावा ध्यानयोग चाहने मननशील मुनि को कर्म यानी प्राणायाम पद्धतियों साधना कर के, उस को अच्छीतरह प्राप्त किया हुआ मुनी को उपरति यानी कर्मनिवृत्ति साधना कर के कहा गया है!
प्राणायाम पद्धतियों का माध्यम से भौतिक विषयों को एक स्वप्न समझ कर के साधक अपना मन को उन् छीजों से यदार्थ दिशा में बदल के परमात्मा में ममैक होजाता है! नदी पार करने तक नाव् का आवश्यक है! किनारे पहुंचने का बाद नाव् का आवश्यक नहीं है! वैसा ही परमात्मा में ममैक होने तक योगसाधना कर्म करते रहना है!
यदाहिनेंद्रियार्देषु नकर्मस्वानुषज्जते
सर्वसंकल्प संन्यासी योगारूढस्तदोच्यते                  4
जो साधक शब्दादि विषयों में, कर्मो में आसक्ति नहीं रखता है, और समस्त संकल्पों को छोडदेते है, वों साधक को योगारूढ कहाजता है!
योगसाधानाकर्म का माध्यम से लभ्य होने आलोचनारहित और श्वासरहित स्थिति को समाधिस्थिति कहते है! इस स्थिति पाया हुआ योगी को योगारूढ कहाजता है! इस स्थिति में इंद्रियव्यापारों से और इच्छासहित संकल्पों से पीछे मोडना  मै कर के भ्रान्ति से मुक्त हो कर सभी के लिए परमात्मा ही कर्ता है कर के परिपूर्ण दृढ़निश्चय संभव होता है!  
परमात्मचेतना मेडुल्ला(Medulla Oblongata)का माध्यम से सेरेब्रम्(cerebrum) में प्रवेश करता है! इसीलिए मेडुल्ला को भगवान का मुह कहते है! सेरेब्रम् को मेरुदंड को मिलानेवाला छीज इस मेडुल्ला ही है!
मेडुल्ला(Medulla Oblongata)को दो दळ होता है! मेडुल्ला को दोनों दिशा में धार होने खड्ग है! इस को पाजिटिव(+) और नेगटिव (-) दोनों विद्युत होते हऐ! इसी कारण दो हाथों, दो आँखें, दो नथुना, दो होठ, दो लायन दांतों, दो जीब(जीब का बीच में एक लायन), दो टांगों, इत्यादि होते है! दो विविध प्रकार का नर्वस सिस्टम, दो भेजा यानी द्वंद्वो म् का हेतु इन दो विद्युतों!    
सेरेब्रं(cerebrum)परमात्मचेतन का भान्डार है! उधर से आज्ञा पाजिटिव(+), आज्ञा नेगटिव (-), विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मूलाधार चक्रों को, उन् का माध्यम् से नाड़ी केन्द्रों को, नाड़ीयों को, अवयवों को, कणों को आवश्यकता का मुताबिक़ वितरण करना होता है!
मेडुल्ला(Medulla Oblongata) अंदर का पाजिटिव(+) और नेगटिव (-) दोनों विद्युत प्राणशक्ति को एलक्ट्रान्स(electrons), प्रोटांस(protons), और याटंस्(atoms) को नर्दीक में लाके द्वंद्व अवयवों को व्यक्तीकरण करता है!
हमारा विचारें अणु, प्राणाणु में, प्राणाणु एलक्ट्रान्स(electrons) में, एलक्ट्रान्स(electrons) प्रोटांस(protons)में, और याटंस (atoms)में रूपांतर होते है! याटंस (atoms) कणों(Cells) में, कणों कंडरो में, हड्डियों में,नाडियों में रूपांतर होता है!
मेडुल्ला(Medulla Oblongata) अंदर का पाजिटिव(+) और नेगटिव (-)विद्युत दोनों आँख, नाक, कान, जीब, और त्वचा कर के पंच ज्ञानेंद्रियों को, मुख्, गुदा, शिशिनं, टांगों, और हाथों कर के पंच कर्मेंद्रियों को, आवश्यक विद्युत देता है! दोनों विद्युत अपना अपना स्थूल स्पंदनों का माध्यम से भौतिक झिल्लीयों का निर्माण के लिए भी दोहदकरण होता है! योग और प्राणायाम पद्धतियों का माध्यम से सभी प्राणशक्तियों को मेरुदंड स्थित चक्रों में रवाना करसकता है! अपना कूटस्थ स्थित तीसरा आँख का माध्यम से मेरुदंड स्थित चक्रों को देखापायेगा!      
उद्धरेत् आत्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्  
आत्मैवह्यात्मनो बंधुःआत्मैवरिपुरात्मनः                       5
अपने आप को उद्धारण करना चाहिए! अथोगति यानी तिरोगमन में डालना नहीं चाहिए! इंद्रियों जय करने से अपन अपने आप को खुद बंधू होजाएगा, इंद्रियों को वश होने से अपन अपने आप को शत्रु बनेगा!
सद्गुरु भी रास्ता दिखासकता है, मोक्ष नहीं दिलासकता है!
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मनाजितः 
अनात्मानस्तु शतृत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्                    6
जो साधक विवेक वैराग्यादी छीजों से अपना मन को जीतेगा, वैसा जीता हुआ मन अपन को उपकारी बंधू जैसा बनेगा! नहीं तों अपकारी शतृ जैसा बनेगा!
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानावमानयोः                     7
मन को जीता हुआ, परमशान्ति सहित साधक को  शीतोष्णसुखदुःखों में, वैसा ही मानावमान में भी, परमात्मभाव पत्थर जैसा स्थिर रहेगा! 
साधना में कभी कभी अच्छा स्पंदनों नहीं आने से भी योगी निरुत्साहित होके व्याकुल नहीं होगा!
ज्ञान विज्ञानत्रुप्तात्मा कूतास्थोविजितेंद्रियः 
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टास्मकांचनः                       8
शास्त्रज्ञान अनुभवज्ञानों संतृप्त मन हुआ, निर्विकारी, इंद्रियों को परिपूर्णता से जीता हुआ, मिट्टी का घन, पत्थर, स्वर्ण सभी को समानभाव से देखनेवाला, योगी को आत्मानुभावयुकता योगारूढ़ कहासकता है!
अपना योगसाधना में सभी छीजों परामात्मा का विभिन्नरूप करके ग्रहण करेगा!
सुह्रुन्मित्रार्युदासीन मध्यस्थद्येष्यबंधुषु 
साधुष्वपिचपापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते                          9
प्रत्युपकार नहीं मांगते हुए सहायता करनेवाले में, प्रतिफल के लिए सहायता करनेवाले में, शतृओं में, तटस्थों में, मध्यवर्तीय लोगों में, विरोधियों में, बंधुओं में, पापियों में, समभावसहित साधक ही श्रेष्ठ है!
क्रियायोगासाधाना का माध्यम से सभी लोग परमात्मा का नाटक का पात्रधारी कर के ग्रहण करेगा!
योगी युङजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः 
एकाकी यत चित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः                                10
ध्यानयोग आभ्यास करने योगी एकांत प्रदेश में अकेला बैठकर, मन, देहेंद्रियादियों को स्वाधीन करके, निराशी होंकर, किसी से कोई भी छीज स्वीकार नहीं करके, सर्वदा मन को आत्मा में ही लय करना चाहिए!
तीव्रध्यान करने साधक अपना गुरु का उप्पर एकाग्रता से ध्यान करना चाहिए! अवकाश मिलाने से गुरु का साथ ध्यान करना चाहिए! साधना में औनती लब्ध हुआ साधक, भौतिक रूप में अपना सामने उपलब्ध होने से भी नहीं होने से भी, अपना कूटस्थ में गुरु का रूप प्रतिष्ठापन कर के ध्यान करना चाहिए!
गुरु का बारे में ध्यान का प्रारंभ में तीव्रतम विचारण करना चाहिए! परामात्म का शक्ती स्पंदन सद्गुरु का माध्यम से साधक को निश्शब्द में उपलब्ध होते है! .     
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमानसमात्मनः
नात्युच्छ्रितम् नातिनीचं चेलाजीनाकुशोत्तरं                 11
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा  यतचित्तेंद्रियक्रियः
उपविश्वासने युञ्ज्याद्योगमातम विशुद्धाये                 12
परिशुद्ध प्रदेश में, न अति उप्पर न अति नीचे होने आसन होना चाहिए! नीचे दर्भासन, उप्पर हिरण अथवा व्याघ्र का चर्म डाल कर, उस का उप्पर वस्त्र बिछाना चाहिए! उसका उप्पर स्थिरासन लगा कर बैठना चाहिए! मन को एकाग्रता करके इंद्रियव्यापारों को स्वाधीन करके अंतःकरणशुद्धीकरण के लिए ध्यानाभ्यास करना चाहिए!
दर्भासन
दर्भ सर्वत्र मुख्य में भारतदेश में आसानी से लभ्य होता है! दर्भ शरीर को पृथ्वी का गीलापन से रक्षा करेगा और मृदुता देगा! प्रस्तुत प्रपंच में कुषन् तकिया को उपयोग कर सकता है!
हिरण अथवा व्याघ्र का चर्म
हिरण अथवा व्याघ्र का चर्म शरीर में गर्म उत्पन्न करता है! इस का हेतु कुण्डलीनी जागृती होता है! हिरण अथवा व्याघ्र को मार के उन् का चर्म को उपयोग करना चाहिए! प्रस्तुत प्रपंच में वूल कंबल और उस का उप्पर रेशमी वस्त्र कवर डाल के प्रयोग कर सकते है!
समं कायशिरोग्रीवंधारयन्नचलम् स्थिरः 
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशाश्चानवलोकयन्        13
प्रशान्तात्मा विगतभीर्भ्रह्मचारिव्रते स्थितः 
मनस्संयम्य मच्चित्तोयुक्त आसीत मत्परः      14
ध्यानयोगी शरीर शिर और कंठ सीदा(Straight) रखना चाहिए! इधर उधर नहीं देखना चाहिए! कूटस्थ में दृष्टिकोण रख के प्रशांत हृदय, निर्भयचेतस्क होंकर ब्रह्मचर्यव्रत निष्ट रखना चाहिए! मन को निग्रह रख के मेरा(श्रीकृष्ण परमात्मा) उप्पर ही एकाग्रता रखा के मेरे को ही परमागति समझकर समाधियुक्त होना चाहिए!
दोनों नेत्रों का दृष्टिकोण कूटस्थ में रखने से तीन रंगी तीसरा नेत्र खुलता है! शरीर का प्राणशक्ति को अपनी दिशा में तीव्रता से अपना तरफ खींचेगा! इस तीसरा आँख में अद्भुत धवळ रंग का क्षीरसागर दिखायीदेगा! उस धवळ रंग अनंत रंगों में बदलजाते है! तारें भी दिखायी देगा! साधक का श्रद्धा, भक्ती, प्रेमा, और ज्ञान शुद्ध होने से तीसरा नेत्र का अंदर पाँच भुजवाले रजित नक्षत्र दिखायी देगा! तीव्र एकाग्रता से उस आँख में जितना अंदर जाएगा, शुद्धज्ञान(Intution) मिलेगा! श्रीकृष्णचेतना का अंदर, पश्चात् में परमात्मचेतना में प्रवेश करके परमानंद प्राप्त करेगा साधक!
ब्रह्म में चरनेवाला ही ब्रह्मचारी है! शब्दब्रह्म ही ॐकार है! ॐकारसुनने से शब्द में, प्रकाश दिखने से प्रकाश में साधक ममैक होना चाहिए!   
युञजन्नेवं सदात्मानं योगीनियतामानसः
शांतिं निर्वाण परमं मत्समस्थामधि गच्छति          15
मनोंइग्रहयुक्त योगी इस प्रकार सर्वदा मन को आत्मध्यान में स्थिर करके मेरा स्वरुपयुत उत्कृष्ट मोक्ष रूपी परमानान्दस्वरूपी शांति प्राप्ति करते है!
योगों
1)      हठयोग आसनों और व्यायामों का माध्यम से शरीर को क्रमशिक्षण में रखना,  2)लययोग ॐकार शब्द को सुनना और उस शब्द में ममैक होना,  3)कर्म योगफलरहित कर्म करना,  4) मंत्रयोगचक्रों में बीजाक्षर ध्यान करना! सहस्राराचक्र में ॐकारोच्चारण इत्यादि जो आत्म को परमात्मा का साथ अनुसंथान करने के लिए करते है! 5)राजयोग प्राणायाम पद्धतियाँ यानी पातंजलि अष्टांगयोग पद्धतियाँ का मुताबिक़ प्राणायाम नियंत्रण!   
नात्यश्नतस्तु योगोस्ति नचैकांत मनश्नतः
नचाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतोनैवचार्जुन                          16
हे अर्जुन, इस ध्यानयोग अधिक भोजन करने मनुष्य को, बिलकुल भोजन नहीं करने मनुष्य को, अधिक निद्रालु मनुष्य को, बिलकुल निद्रारहित अथवा हर समय जागने मनुष्य को, प्राप्त नहीं होता है!
नतस्य रोगा न ज़रा न मृत्युप्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरं!
रोग, वृद्धाप्य, मरण, इत्यादि त्यग के साधक योगाग्नि से प्रज्वरिल होना चाहिए!  
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्यकर्मसु
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगोभवति दुखहा                17
मिताहारी, विहारी, कर्मो में मित प्रवर्तन मनुष्य, मित निद्रालु, मित जागरण करने साधक को जननमरणादि संसार दुःखों को विमुक्त करने माध्यम होता है!
हरव्यक्ति हितभुक यानी अच्छा करना चाहिए, ऋतभुक यानी कर्म करके भोजन करना चाहिए, मितभुक यानी मिताहारी होना चाहिए!  
यदाविनियतं चित्तं आत्मन्येवावतिष्टते
निस्प्रुहसर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा                 18
जब मन पूर्णरूप से निग्रह हो कर, आत्म में ही स्थिरीकरण होता है, जब योगी समस्त इच्छाओं से निवृत्ति होता है, तभी उस साधक समाधियुक्त योगसिद्धि प्राप्त हुआ करके कहा जाता है!
साधक परामात्मा का साथ अनुसंथान प्राप्त करने पश्चात शेष भौतिक सुखों सभी स्वल्प दिखाई देगा!   
यथादीपोनिवातास्थोनेङ्गते सोपमास्मृता 
योगिनोयाताचित्तस्ययुङ्गतो योगमात्मनः 19
वायुरहित प्रदेश में दिया जिस प्रकार में निश्छल रहता है, अपना प्रकाश को पूर्णरूप में वितरण करता है, उसी प्रकार  आत्मध्यानाशीली योगी का वश हुआ चित्त भी निश्छल रहता है और आत्म प्रकाश को देखता है!  
यत्रोपरमतेचित्तं निरुद्धं योगसेवया
यत्रचैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनितुष्यति  .             20
सुखमात्यन्तिकं यत्ताद्बुद्धिग्राह्यमतींद्रियम्
वेत्तियत्रनचैवायम् स्थितिश्चलति तत्त्वतः                       21
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मान्यतेनाधिकं ततः
यस्मिन्स्थितोनदुःखेन गुरूणापिविचाल्यते                  22
तं विद्याद्दुःख संयोगवियोगं योग संज्ञितं
सनिश्चयेन योक्तव्यो योगनिर्विण्णचेतसा                         23
योगाभ्यास का वजह से निग्रह हुआ मन जहाँ परमशान्ति प्राप्ति करता है, जहाँ परिशुद्ध मन से आत्म को संदर्शन करते, अनुभव करते योगी अपने अंदर ही आनंद प्राप्ति करते है, जहा रहते हुए योगी इन्द्रिय अगोचर, निर्मल बुद्धि का माध्यम से ग्रहण साध्य अनंतयुत सुख अनुभव करते है, योगी अपना स्वानुभव से किंचित विछलित नहीं होता है, जिस को मिलने से इतराते कोई भी लाभ इस से अधिक नहीं समझते है, जिस में रहने से महत्तर दुःख से भी विछलित नहीं होता है, दुःख संबंध किंचित नहीं होने उस स्थिति को आत्मैक्यम्, आत्मसाक्षात्कार करके समझाना चाहिए! इस आत्मसाक्षात्काररूप योग को दुःख से विछलित नहीं होसके धीरमन से दृढसंकल्प से साध्य करना चाहिए!
संकल्प प्रभवान् कामाम्स्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः                         24
शनैःशनैरुपरमेद्युद्ध्याधृतिगृहीतया
आत्मसंस्थं मनःकृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्                25
संकल्प से उत्पन्न होने इच्छाओं को परिपूर्ण रूप में त्याग के, मन से इंद्रियों को चारों दिशाओं से पूर्णता से निग्रह करके, धीरतासहित बुद्धि से आस्ते आस्ते बाह्यप्रपंच से उस मन को उपसंहार करके अन्तरंग में उपरति यानी विश्रांति प्राप्त करना चाहिए! मन को आत्म में ही स्थापन करके आत्मेतरछीज किसी का बारे में चिंतन नहीं करना चाहिए!
साधक अपना साधना को अमित शीतल अथवा उष्ण प्रदेशों में, सुगंध अथवा दुर्गंध प्रदेशों में, शब्द आने प्रदेशों में, नहीं करना चाहिए!
यतोयतो निश्चरति मनः चंचलं अस्थिरं
ततस्ततो नियम्यै तदात्मन्येव वशं नयेत्         26
चंचल स्वभावयुत युत स्थिरतारहित, मन जिन जिन विषयों में संचालित होता है, उधर उधर से उस को पीछे मोडवाकर आत्म में ही स्थापित यानी आत्माधीन करना चाहिए!
मन सैकडों युगों से अच्छा या बुरा संस्कारों से भरा नहीं धोया हुआ एक मलिन वस्त्र जैसा है! वर्षों से नहीं धोया हुआ  मलिन वस्त्र, धोके सूख ने का बाद और भी मैला लगेगा क्यों की उप्पर का मलिनों निकलने के बाद नीचे छिपा हुआ सूक्ष्म मलिन अणु उप्पर आएगा! चार पाँच दफा धोने के बाद ओ वस्त्र परिशुभ्रा हो जाएगा! वैसा ही अवचेतन विचारें समाप्त होने के पश्चात उन् जन्मों का पीछे का अवचेतन विचारें/संस्कारें उप्पर आके बैठ जाता है! दृढसंकल्प से साधना करते रहने से आलोचनाराहिता स्थिति शीघ्र ही प्राप्त करेगा! ओ समय एक साल अथावा अधिक भी हो सकता है! ओ साधक का साधना का तीव्रता और साधना समय का उप्पर आधारित है! संचित कर्म पूर्णता से निवृत्ति होने पश्चात आलोचनारहित स्थिति लब्ध होगा!   
प्रशांतमनसंह्येनं योगिनं सुखमुत्तमं
उपैतिशांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषं                                 27
प्रशान्ताचित्त, कामक्रोधादि रजोगुण विकाररहित साधक, ब्रह्मरूप को प्राप्त किया साधक, दोषरहित भी होने इस ध्यानयोगी सर्वोत्तम आत्मानान्दसुख प्राप्त करते है!
पानी से भरा हुआ शीशा का पात्रा में मुट्ठी भर मिट्टी डाल के कुछ समय तक इस को छोड़देना! मिट्टी अपरिवर्तनशील (settle) हो जायेगा! घन घन पदार्थो सब उस पात्रा का नीचे, सूक्ष्म पदार्थो उप्पर, और बाके सब पदार्थो पात्र का बीच में निलंबन होके बैठेंगे! पात्रा को हिलाने से ओ पदार्थो उप्पर से नीचे चालते रहेगा! साधना का आरंभ में विचारें साधक को बड़ा हैरान करेगा! योग साधना का हेतु ए विचारधारा अधिक से अधिक आरहे करके साधक को गभारायेगा कर के साधक को लगेगा! दृढतापूर्वक साधना से निश्छल साधना करते रहने से आलोचनाराहिता आनंदस्थिति साधक को प्राप्ति होगा!
युञजन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः
सुखेनब्रह्मम्स्पर्शं अत्यन्तं सुखमश्नुते                     28
इस प्रकार में मन को सर्वदा आत्म में ही प्रतिस्थापन करके दोषरहित योगी ब्रह्मानुभावारूपी परमसुख को सुलभः प्राप्ती करता है!
सर्वभूतास्थमात्मानं सर्वभूतानिचात्मानि
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः                         29
योगायुक्त आत्मैक्यप्राप्तिकिया मन सहित योगी समस्त चराचर प्राणिकोटी में समदृष्टि पाकार, अपने को सर्वभूतो में, सर्वभूतो को अपने में, देखा पायेगा!!
योमां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति
तस्याहम न प्रणश्यामि सचमे न प्रणश्यति        30
जो साधक समस्ताभूतों में मेरे (श्रीकृष्ण) को, और मेरे में  (श्रीकृष्ण) समस्ताभूतों को देखा सकते है, वैसा साधक को मै अवश्य दिखाई देगा, और ओ भी मुझे अवश्य दिखाई देगा!    
सर्वभूतस्थितं यो माम् भजत्येकत्वमास्थितः
सरवडा वर्तामानोपि स योगी मई वर्तते               31
जो साधक समस्ताभूतों में स्थित मुझे(श्रीकृष्ण) अभेदभाव से सर्वत्र एक ही परमात्मा विराजमान है करके सेवा करता है, वैसा योगी जैसा भी प्रवर्तित करने से भी यानी समाधि निष्टा में होने अथवा व्यवहार चलाने से भी, मुझ(श्रीकृष्ण) में ही यानी आत्म में ही स्थित है कहाजायेगा!
मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर और अनाहत चक्रों में लभ्य सामाधियों को संप्रज्ञात सामाधि कहते है! परामात्मा है या नहीं है संदेह पूरा नहीं मिटेगा इन सामाधियों में!  
विशुद्ध,आज्ञा और सहस्रार चक्रों में लभ्य सामाधियों को असंप्रज्ञात सामाधि कहते है! परामात्मा है या नहीं है संदेह पूरा नहीं पूर्णता में मिटेगा इन सामाधियों में यानी परमात्म विराजमान है कर के निर्धारित होजाएगा! 
आत्मौपम्येन सर्वत्र सामं पश्यति योर्जुन
सुखं वा यदिवा दुःखम स योगी परमो मतः           32
हे अर्जुन, समस्त प्राणीयों का सुख और दुःख को अपना साथ तुलना करके, समस्त प्राणीयों का शेष प्राणी सभी अपना जैसे है समझ के वैसा भाव से जो मनुष्य देखता है, वों योगी श्रेष्टतम कर के विचार किया जाएगा!
साधना से कुल बनाता है, जन्म से कुल नहीं बनाता है!
साधना कदापि नहीं करने मनुष्य सूद्र गिना जाता है!
मूलाधारचक्र में साधना दिव्यज्ञान, दिव्यदृष्टि, नाक का घ्राणशक्ति(sensitivity) को बढ़ावा देता है! मूलाधारचक्र पृथ्वीतत्व को प्रतीक है! साधानारहित मनुष्य को क्रमशः सुखनाश प्राप्ति होता है!
स्वाधिष्ठानचक्र में साधना, इंद्रियनिग्रहशक्ति, ज्ञानशक्ति, जीब क रूचिशक्तियों को अभिव्र्रुद्धि करता है! स्वाधिष्ठानचक्र वरुणतत्व को प्रतीक है! साधानारहित मनुष्य  क्रमशः ज्ञानहीन और विषयलोल होता है! .  
मणिपुरचक्र में साधना, रोगनिरोधकशक्ति और दुष्टशक्ति निवारण करता है! मणिपुरचक्र अग्नितत्व को प्रतीक है! आँख का दृष्टि क्रमशः खो बैठता है!  साधानारहित मनुष्य  क्रमशः रोगग्रस्थ और दुष्टशक्ति वश  होजाता है!
अनाहतचक्र में साधना, परिशुद्ध प्रेमा और त्वचा क स्पर्शशक्ति को अभिव्र्रुद्धि करता है! अनाहतचक्र वायुतत्व को प्रतीक है!  साधानारहित मनुष्य  क्रमशः द्वेषभावना वश  होजाता है!
विशुद्धचक्र में साधना, शांति, प्रशांति औरकान का श्रोत्रशक्ति को अभिव्र्रुद्धि करता है! विशुद्धचक्र शून्यतत्व को प्रतीक है!  साधानारहित मनुष्य  क्रमशः अशांतिभावना वश  होजाता है! 
कुण्डलीनी प्राणशक्ति ही वासुकी है! मेरुदंडा ही मेरुपर्वत है!
श्वास को अस्त्र जैसा उपायोग करना ही श्वास्त्र है! कहते कहते श्वास्त्र शास्त्र होगया! 
कुण्डलीनी प्राणशक्ति नाम का वासुकी को सुषुम्ना सूक्ष्मनाडी   द्वारा क्रियायोग साधना माध्यम से मूलाधार(गंध), स्वाधिष्ठान(रस), मणिपुर(रूप), अनाहत(स्पर्श), और विशुद्ध (शब्द)चक्रों द्वारा उप्पर जाते हुए उन् चक्रों का स्वभाव को साथ साथ ग्रहण कर के शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गंध, पाँच फणवाली काळीय सर्प कहा गया है! इस पाँच फणवाली काळीय सर्प आज्ञाचक्र(कूटस्थ) पहुँचने तुरंत उस का अंदर का काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य कर के अरिषड्र् वर्गों को यानी विष को निकाल्वाना ही श्रीकृष्ण काळीय मर्दन है! मेरुपर्वत मथन का अर्थ भी ए ही है!
आज्ञाचक्र(कूटस्थ) में कुण्डलीनी जागृती होने के बाद लभ्य होने समाधि को सविकल्प अथवा स्रष्ट समाधि कहते है! इधर परमात्मा चेतना महाभारत यानी महा(अद्भुत) प्रकाश रूप में दिखाई देता है! साधक और परमात्मा आमने सामने होते है! इसी प्रकाश को वैतरिणी कहते है! भविष्यत को दर्शन करने दिव्यदृष्टि (clairvoyance) लभ्य होता है! इसी प्रकाशरूपी वैतरिणी को पार कर के सहस्रार चक्र में लभ्य होने समाधि को निर्विकल्प समाधि कहते है! ए सर्वश्रेष्ठ समाधि है! साधक केवल साक्षीभूत होते है! इस माया प्रपंचा से विमुक्त होता है!  
अर्जुन उवाचा
यों यं योगस्त्वायाप्रोक्तस्साम्येन मधुसूदन
एतास्याहम न पश्यामि चंचलत्वात् स्थितिम स्थिरां      33
अर्जुन ने कहा`

हे कृष्णा, मनोनिश्चलता से सिद्धि होने जिस योग को तुम उपदेश किया है, उस का स्थिरीकरण को मन का चंचलता का हेतु समझ नहीं पारहा हु!
साधक अपना साधना में तीव्र एकाग्रता से जागृती हुआ कुण्डलीनी शक्ती को सुषुम्ना सूक्ष्मनाडी का माध्यम से सहस्रारचक्र को पहुंचाना चाहिए!
इडा सूक्ष्मनाडी का माध्यम से जागृती हुआ कुण्डलीनी शक्ती जाने से क्या होगा, पिंगळा सूक्ष्मनाडी का माध्यम से जागृती हुआ कुण्डलीनी शक्ती जाने से क्या होगा, चक्र क्रमशः विवरण नीचे दिया है!   
               इडा
सुषुम्ना
          पिंगळा

सहस्रार

अहंकार, घबडा देना    
आज्ञा
पूर्ण मौनता, निदान, स्थिरत्व  
चंचलता, अधिकभाषी
  
विशुद्ध
मिताभाषी, स्थिरत्व, मौनता, शांति  
मूर्खता,संतुलनरहित श्वासक्रिया 
अनाहत
प्राणशक्ति नियंत्रण
भय, द्वेष, बदला लेना स्वभाव, लोभ, अधिकार दाह 
मणिपुर
धैर्य, स्नेहशीलता, बहुमुख श्रद्धा, आत्मनिग्रह
संतुलन रहित मन, प्रापंचिकइच्छाओं
स्वाधिष्ठान
स्थिर मन,पश्चाताप, आध्यात्मिक श्रद्धा
क्रूरता,पशुत्व,असत्यता, कठिन स्वभाव
मूलाधार
सत्यता,इच्छारहित स्वभाव, मृदु स्वभाव, नकारात्मक क्रियाओं को निरोध करना   

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढं
तस्याहम निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करं              34
हे कृष्णा, मन
हे कृष्णा, मन चंचल, विक्षोभकारी, बल और दृढ़ है! मन को निग्रह करना वायु को दबाना जैसा अधिक कष्टप्रद है! ए है मेरा भावना है!
प्राणायाम करना प्रथम में बहुत कष्टप्रद है! क्रियायोगी को ओ अत्यंत सुलाभतर है! परमात्म प्राप्ति के लिए श्वास को स्थिर अथवा मन को स्थिर करना है! श्वास स्थिर करने से मन  स्थिर होजाएगा, मन स्थिर करने से श्वास स्थिर होजाएगा!
क्रियायोगी श्वास स्थिर कर के मन स्थिर करता है और परमात्मा से अनुसंथान करता है!
खेछरी मुद्रा लगाके क्रिया करने साधक, जीब को ग्रसिका में लगाके क्रिया करता है! हर एक निश्वास में ग्रसिका से जीब फिसलने नहीं होना चाहिए! जीब फिसलने पर मन चंचल होजाएगा! फिसला हुआ जीब को पुनः ग्रसिका गुसा के क्रिया करना चाहिए! वैसा नियमानुसार हर दिन अवश्य करने से ग्रसिका से जीब नहीं फिसलेगा और स्थिर रहेगा! तब मन और श्वास दोनों स्थिर होजाएगा!         
श्री भगवान उवाच
असंशयं महाबाहो मनोदुर्निग्रहंचलं
अभ्यासेनतु कौन्तेय वैराग्येणचा गृह्यते                 35
श्री भगवान ने कहा
हे महाबाहो अर्जुन,मन को निग्रह करना कष्टप्रद है! और मन चंचल भी है! इस में कोई संदेह नहीं है! परंतु अभ्यास और वैराग्य माध्यम से मन को निग्रह कर सकता है!
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः
पश्यात्मनातु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः                  36

निग्रहरहित मन से ब्रह्मैक्य लभ्य होना दुर्लभ है इति मेरा अभिप्राय है! परंतु अपना वश हुआ मन से प्रयत्न करने उपाय से ब्रह्मैक्य लभ्य होना दुर्लभ नहीं है!  
अर्जुन उवाचा
अयतिश्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः
अप्राप्यायोगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति           37
अर्जुन ने कहा
श्रीकृष्ण, श्रद्धासहित परंतु निग्रहरहित साधक योग से नीचे गिर् जाता है! वैसा साधक आत्मसाक्षात्कार स्थिति प्राप्त नहीं होता है! फिर किस गाती प्राप्त करता है!
कच्चिन्नो भायाविभ्रष्टश्चिन्नाभ्रमिवा नश्यति
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि              38
हे महाबाहो श्रीकृष्ण, ब्रह्मयोग मार्ग में जो स्थिरत्वरहित मूर्ख साधक इह और पर दोनों में नुक्स होंकर विछलित मेघ जैसा नाश् नहीं होगा?
योग में स्थिरत्व पानेतक योगी को इस संदेह उत्पादन होते रहेगा! हर एक साधक को ए संदेह उत्पन्न होता है!
एतन्मेसंशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः
त्वदन्यःसंशयस्यास्य छेत्ता न हुपपद्यते     39
हे श्रीकृष्ण, इस संदेह को सम्पूर्ण निवारण करने केवल तुम ही समर्थ और बाकी असमर्थ है!
इधर श्रीकृष्ण जैसा सद्गुरु का सलाह और सहायता अत्यंत अवसर है!
श्री भगवान उवाच
पार्थनैवेहनामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते
नहिकल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति        40
श्री भगवान ने कहा
वैसा योगभ्रष्ट को इह लोक में अथवा परलोक में विनाश नहीं होता ही नहीं है! प्रिय अर्जुन, सत्कार्य करने मनुष्य कोई भी दुर्गति प्राप्ति नहीं करता है ना?
500 पेज(Page) का ग्रंथ से 300 पन्ना पढ के निद्रा में गया  समझो! निद्रा से उठने के बाद पुनः सारे 500 पेज(Page) पढने के अवसर नहीं है! एक अथवा दो पन्ने पीछेवाले पढके  फिर आगे जाते है!
योग करते हुए बीच में शरीर छोड़दिया लोगोंको योगभ्रष्ठ कहते है! वे भय को वश होने आवश्यकता नहीं है! मरण एक दीर्घनिद्रा जैसा है! योगभ्रष्ठ अपना असंपूर्ण योग को दूसरी जन्म में आगे लेजाते है!
रत्नाकर वाल्मीकि बनकर रामायण महाकाव्य रचाया!
प्राप्यापुण्य कृतांलोकानुषित्वा शाश्वतीःसमाः
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते                41
योगभ्रष्ट मराणानंतर पुण्यात्मों का लोक प्राप्त करता है! उधर कही वर्षों रहता है! पश्चात में सदाचारी, परिशुद्ध और श्री(पवित्र) मान्(मन्) लोगों का गृह में जन्म लेटा है!
में उत्तीर्ण नहीं हुआ विद्यार्थी पुनः पिछली नवा श्रेणियों को पढने अवसर नहीं है! विद्यार्थी पुनः दशवा श्रेणी श्रद्धा से पढके सफल होने काफी है! छोटा श्रेणियों में असफलता पाया हुआ बहुत विद्यार्थियों पशात में में श्रद्धा से पढकर बड़ा बड़ा शास्त्रवेत्तायों बनगया है!  
अथावायोगिनामेव कुलेभवति धीमतां
एतद्धि दुर्लाभाताराम लोके जन्मयदीदृशं                 42
अथावा उत्तम योगी होने से ज्ञानवान् योगियों के वंस में जन्म लेता है! इस प्रकार का जन्म इस लोक में दुर्लभ है!
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदैहिकं
यतते च ततो भूयस्संसिद्धौ कुरुनन्दन                      43
हे अर्जुन, वैसा ओ योगियों का वंश में जन्म लेकर पूर्वदेहा संबंधित योगविषयिक बुद्धि से संपर्क प्राप्त करता है! इस योग संस्कार से संपूर्ण योग सिद्धि यानी मोक्ष प्राप्ति के लिए पुनः पुनः तीव्रतर प्रयत्न करते है!
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोपि सः
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते                             44
योगभ्रष्ट योगाभ्यास अपने आप निश्चय प्रथम में निश्चय करने से भी, पूर्वजन्म अभ्यासबल का हेतु योग का दिशा मे ही खींचवा जाते है! केवल योगाभ्यास करने संकल्प से ही वेदों में कहागया कर्मानुष्टानफल को साधक पार कर देता है!
योगसाधना का औन्नत्य का बारे में जानकारी दिया परामात्मा इधर!   
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्ध किल्बिषः
अनेकाजन्म संसिद्धस्ततो याति परां गतिं     45
दृढसंकल्प से प्रयत्न करने योगी पापरहित होंकर, अनेक जन्मों से किया योगाभ्यास से सिद्धि प्राप्त कर के, पश्चात में सर्वोत्तम मोक्षस्थिति प्राप्ति करता है!
जन्मतः कुछ लोग एकसंथाग्रही और महामेथावी होते है! पिछले जन्मों में किया हुआ साधना का फल ही है ए! जन्मतः कुछ लोग रोगाग्रास्थ होने कारण वे पिछले जन्मों में किया हुआ दुर्व्यसनों का फल ही है!
आरोग्य, विद्या, धैर्य, भीरु, और रोगों का हेतु पिछले जन्मों में किया हुआ कर्मो का फल ही है!
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योपि मतोधिकः
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन             46
हे अर्जुन, कृच्छ्र चान्द्रायणादि तपस्या करने लोगों से, शास्त्रज्ञानी लोगों से, अग्निहोत्रादि कर्म करने लोगों से, सभी लोगों से योगी श्रेष्ठ करके गिना जाता है! इसीलिए तुम योगी बनो!
योगिनामपि सर्वेषाम मद्गतेनान्तारात्मना
श्रद्धावान्. भजते यों मां समेयुक्ततमो मतः           47
योगियों में जो योगी अपना मन मेरा उप्पर निमग्न करके श्रद्धा से ह्याना करता है, वे सर्वश्रेष्ठ योगी कर के में रा अभिप्राय है!   
ॐ तत् सत् इति श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायाम योग शास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगोनाम षष्ठोऽध्यायः    


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