कृष्ण क्रिया कैवल्य part1

कृष्ण क्रिया कैवल्य
 *क्रियाओ की DVD उपलब्ध है*
मूल्य Rs.200/-
                  कौता मार्कंडेय शास्त्रि

पुस्तक मिलने का स्थान :    

K M SASTRY/  K SUBHALAKSHMI/ V SYAMALA
32-80/16/1, PN 42, DN 76, YSS Dhyanamandir,
Devinagar, R K Puram Gate,
HYDERABAD(India) 500056

Ph:  09440364945         09440964947
email  dhyanamandir@gmail.com


Price:   Rs.200/-       
Out side India: 10$  
 ***Postal charges additional.
प्रस्तावना
इस पुस्तक के रचना की मुझे क्यो आवश्यकता हुई ? कृष्ण क्रिया कैवल्य विषय के बारे मे अनेक पुस्तके अनादि काल से लिखी जा चुकी है और अभी भी जारी है! इस पुस्तक के द्वारा मै जिज्ञासुओ को यह बतलाना चाहता हुँ कि परमात्मा को पाना मिथ्या नही बल्कि निश्चित ही संभव है! दृढ निश्चय एवं विश्वास से साधना करने पर परमात्मा को जरूर पाया जा सकता है और साधना कर के पाना भी चाहिये ! यह कठोर साधना सशास्त्रीय है! इस ग्रंथ मे कुछ प्राणायाम क्रियाए दि गई है! इन क्रियाओ की साधना करने से केंसर, मधुमेह, किडनी, हृदय इत्यादि बीमारियों को दूर कर सकते है! एक DVD भी बना दिया गया है जिसको देखकर साधक स्वयं साधना कर सकता है! मेरी पहली पुस्तक सृष्टि जन्म साधना मे सृस्ष्टि कैसे उत्पन्न हुई? जन्म कैसे होता है? और साधना क्यो करना जरूरी है? एक डाक्टर, इंजिनीयर, शास्त्रवेत्ता बनने के लिये 15—20 साल का श्रम करना पडता है ! इसी प्रकार आध्यात्मिक उन्नति के लिये वर्षों की कठोर साधना की जरूरत होती है, यह व्यर्थ नही जाती ! अवसर भी है, अवश्यकता भी है ! एक छोटे से पत्थर को दिखाकर यदि हम विद्यार्थियो से कहे कि पहाड इस से  10000 गुणा बडा होता है तो वे समझेंगे नही अगर उन्ही विद्यार्थियो को पहाड के पास ले जाके दिखाया जाए तो वह अवश्य ही समझ जाएंगे ! आध्यात्म को समझना भी कुछ ऐसा ही है! इस पुस्तक मे लिखी समस्त बाते आध्यात्मिक क्षेत्र मे मेरे स्वानुभव से उत्पन्न विचारो को प्रकट करती है! ब्रह्म एवं शास्त्रीय विषयो को सरल उदाहरणों के साथ समझाया गया है! परमात्मा को समझने के लिये किसी शास्त्र या विज्ञान विषय की आवश्यकता नही है! श्+लोक मतलब तुम्हारे अंदर के लोकों को निश्शब्द रखो, परमात्मा का दर्शन जरूर होगा! बहुत सी पुस्तके पढने से अहंकार बढेगा, संदेह ज्यादा हो जाएगा! परमात्मा भाव प्रिय है हाव प्रिय नही ! मात्र पुस्तक पढने से आम कितना मिठा है आप नही जान सकते उसका स्वाद जानने के लिए आपको आम खाना ही पडेगा ! एक बार स्वाद जानने के बाद तो बस.......... खाओ खाते ही जाओ! परमात्मा का विषय भी ऐसा ही है, साधना करो और प्रसन्नचित्त एवं सर्वजनप्रिय हो जाओ! इस पुस्तक को लिखने की प्रेरणा श्री महावतार बाबाजी और मेरे प्रिय गुरु परमहंस श्री श्री योगानंद स्वामि ने दी !
अंत मे यह पुस्तक मै प्रिय गुरु को समर्पित करता हुँ!
                                                                 कौता मार्केंडेय शास्त्री....

किसी से डरो मत मगर डर को डराओ, याद रखो तुम्हारी जो भी कठिन परिस्थिती या परीक्षा है उस के लिए तुम इतने दुर्बल नही की उस का सामना नही कर सको! इश्वर  इतना निर्दयी नही कि तुम्हरी ऐसी असहनीय एवम कठोर परीक्षा लेवे जिस का तुम सामना नही कर सको!                                 श्री श्री परमहंस य़ोगानंद....   
श्रीमद्भगवत गीता मे कहा गया है कि जीवन के दो किनारे है!                                              1) श्रद्धावान लभते ज्ञानं यानि जिस को श्रद्धा होती है वो  जरूर ज्ञान पाता है! 2)संशयात्मा विनश्यति यानि संदेहात्मक आत्मा या मनुष्य का नाश हो जाता है!
सत्संगत्वे निस्संगत्वम निस्संगत्वे निर्मोहत्वम
निर्मोहत्वे निश्चलतत्वम निश्चलतत्वे जीवन्मुक्तिः!
अगर आप ज्ञानी लोगो की संगत मे रहते है तो नाशवान भौतिक पदार्थो की संगत होने पर भी सम्मोहित नही होओंगे, इस निर्मोहित्व की वजह से मन स्थिर होगा और इस स्थिर मन की वजह से मुक्ति पाओगे! (आदिशंकराचार्य) 
जीवन एक सवाल या चुनौती है उस को हल करो या सामना करो, जीवन एक खेल है इसे खेलो, जीवन एक स्वप्न है, इसे समझो! सदगुरु द्वारा दर्शाए गए रास्ते पर चलो, दुश्मन का सामना करो, आखरी तक लडो, युद्ध खत्म करो! (भगवान सत्य साई बाबा)

श्रीकृष्ण--- महा अवतार 
जन्म विवरण
भगवान श्रीकृष्ण एक महा मुख्य अवतार है श्री महाविष्णु के! अवतार का मतलब होता है नीचे जमीन पर आना! मथुरा के राजा का नाम है शूरसेन और उनके पुत्र है वसुदेव! देवकि और रोहिणि वसुदेव की धर्मपत्नियाँ है! इधर व्रज के राजा है नंद ! नंद और वसुदेव दोनों ही मित्र है ! दुष्ट कंस के डर से रोहिणि नंद की रक्षणा मे रहती है ! भोज देश के राजा है उग्रसेन और कंस उन का पुत्र और देवकि उनकी पुत्री! एक दिन कंस अपनी बहन देवकि और जीजा वसुदेव को अपने रथ पर बिठा कर स्वयं रथ को चला रहा था! उसी समय आकाश्वाणी हुई कि देवकि के आठवे गर्भ का शिशु कंस का वध करेगा! आकाशवाणी सुन क्रोधित होकर उसी वक्त कंस अपनी बहन देवकि और जीजा वसुदेव को  मारना चाहता था! तब देवकी कंस को रोक कर विनती करती है कि जैसे ही बच्चे पैदा होगे तुरंत उन बच्चो को वह अपने भाई कंस को सौप देगी! यह सुन कंस उन दोनों को कैदी बना कर जैल मे डाल देता है! कंस वसुदेव एवम देवकी के छः बच्चों को बडी निर्दयता से वध कर देता है! व्रज यानि बृंदावन के राजा नंद की पत्नी है यशोदा! श्रीमहाविष्णु की आज्ञा अनुसार योगमाया आदिशेषु को वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिनि के गर्भ मे रखती है!  आदिशेषु श्रीमहाविष्णु का अंश है! लोग समझते थे कि देवकी का सातवा गर्भ विच्छिन्न हुआ लकिन श्रीमहाविष्णु के आदेशानुसार योगमाया स्वयम नंद की पत्नी यशोदा के गर्भ मे प्रवेश करती है! श्रीमहाविष्णु स्वयम देवकी के गर्भ मे प्रवेश करते है! श्रीमहाविष्णु के आदेशानुसार बच्चा होने के पश्चात वसुदेव बच्चे को एक डलिया मे बिठाकर यमुना नदी पार कर के व्रज पहुंचकर यशोदा की चारपाई मे रख देते है! यशोदा की गोद से तभी जन्मी योगमाया को लेकर वापस आकर देवकि के गोद मे रख देते है! यह कार्य पूरा होने तक चौकसी करने वाले समस्त सिपाही गहन निंद्रा मे डूब जाते है, समस्त दरवाजें अपने आप खुल जाते है और यमुना नदी भी रास्ता दे देती है! बच्चे का रुदन सुनकर कंस भागा आता है! जैसे ही कंस आठवे शिशु को नीचे पटककर वध करना चाहता है तभी वह शिशु उसके हाथ से निकलकर आकाश मे उडकर कहता है हे दुष्ट कंस, तुम्हारा वध करने वाला शिशु पहले से ही पैदा हो चुका है और व्रज मे पाला जा रहा है!
नंद यशोदा के बच्चे को श्रीकृष्ण और रोहिणी के बच्चे को बलराम् कहकर नामकरण करते है! श्रीकृष्ण किशोर अवस्था से ही अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते है! वह कंस द्वारा भेजी गई पूतना एक राक्षसी उसी के स्तनो से दुध पीकर वध करते है! पूतना श्रीकृष्ण को दुध पिलाने के बहाने से अपने स्तनों पर विष का लेप करके गोद मे लेकर बैठी थी! इस का अंतरार्थ यह है कि

साधक को अपने अंदर के दुष्ट स्वभाव को यानि तामस गुणो को छोड देना चाहिए! पू (पूरा) तन (साँसारिकता)! इसके बाद शकटासुर का वध करते है मतलब साधक को मानसिक चंचलता को छोड देना चाहिये! उस के बाद तृणावर्त राक्षस का वध करते है यानि साधक को अपने अंदर की तामस प्रवृत्ति को छोड देना चाहिए!
नंद गत जन्म मे द्रोण नामक एक देवता थे एवम अष्ट वसुओं मे एक थे! धरा इनकी पत्नी थी, धरा का मतलब धरती! इस जन्म मे द्रोण ने व्रज के राजा के रूप मे और धरा ने रानी यशोदा के रूप मे जन्म लिया! द्वापर युग मे श्रावण बहुल अष्टमि के दिन श्रीकृष्ण का जन्म कारागार मे हुआ मतलब साधक को अष्टांग योग करके संसार जैसे करागार से और अविद्या से मुक्त होना चाहिए! श्रीकृष्ण का जन्म दिन जन्माष्टमि के नाम से प्रसिद्ध है!           
श्रीकृष्ण की महत्वपूर्ण लीलाए;
श्रीकृष्ण ने किशोरावस्था से ही अपने अवतार की लीलाऐ दिखाना शुरु कर दी थी श्रीकृष्ण को गाय का दूध, दही और मख्खन पसन्द था वह किसी भी तरह यह चीजे चाहे अपने घर से चुराकर या अपने साथीयों के घर से चुराकर खाते थे और अपने साथीयो को भी खिलते थे! यह समस्त आहार स्वच्छता का चिह्न है और साधक को इन चीजो की जरूरत भी होती है! श्रीकृष्ण के इन क्रियाकलापो से तंग होकर य़शोदा ने उन्हें एक गेहूँ पीसने वाले पत्थर के साथ बांधना चाहा मगर जैसे-जैसे यशोदा रस्सी लाती वैसे-वैसे बालकृष्ण अपनी कमर का कद बढाते जाते ताकि रस्सी छोटी हो जाए, माँ को थकता देख श्रीकृष्ण कमर के आकार को बढाना बंद कर स्वयं को रस्सी से बंधवा लेते है! इससे यह स्थापित होता है कि भगवान भक्त के वश मे है! ततपश्चात भगवान श्रीकृष्ण उस पत्थर को रस्सी के साथ खिंचते हुए दो पेडों के बीच मे लेजाकर उन दोनों पेडों को गिरा देते है, तब उन पेडों से नलकूबेर और मणिग्रीव नामक दो देवता पुरुष शाप विमोचन होकर बाहर निकल आते है! ये दोनों कुबेर पुत्र थे एवं इन के घमंड की वजह से देवर्षि नारद ने कुपित होकर शाप दिया था! इस के बाद श्रीकृष्ण ने चक्रवात के रूप मे आए हुवे एक राक्षस का भी वध किया था! मन भी एक चक्रवात जैसा है जिस का साधक को वध करना चाहिए! इसके बाद राक्षस बकासुर का और उसके बाद अजगर के रूप मे आए हुए अघासुर राक्षस का भी वध किया था! यह सब तमोग़ुण के प्रतीक है जिसे साधक को नष्ट करना चाहिए! एक समय गोकुल से समस्त ग्वाले और गौवे दोनों गायब हो गए, गोकुल बृंदावन मे य़मुना के किनारे को कहते है! तब लोगों का दुःख दूर करने के लिये स्वयं श्रीकृष्ण ग्वालों का और गायों का रूपधारण कर एक साल तक रहे! इससे भगवान श्रीकृष्ण की सर्वव्याप्तिक शक्ति का पता चलता है! इस के बाद श्रीकृष्ण ने कालिंदि झील मे एक महाविषधारी कालीया नाग का भी वध किया था! इस का तत्पर्य है कि साधक को अपने अंतःशत्रुओं यानि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य इति अरिषडवर्गों का दमन करना चाहिए ताकि वह एक दिव्य गोपी बने! गोपी का मतलब है दिव्य विचार ! प्रत्येक दिव्य विचार के बीच मे श्रीकृष्ण उपस्थित होते है! श्रीकृष्ण गोपिकाओं का वस्त्र हरण करते है! इसका मतलब है कि परमात्मा के सामने अपना सब कुछ खो बैठो! साधक के समस्त विचार केवल परमात्मा पर ही होने चाहिये! इसी को अनन्यभक्ति कहते है! श्रीकृष्ण अपने साथियों को कुछ भोजन लाने के लिये यज्ञ कर रहे ब्राह्मणों के पास भेजते है, वे ब्राह्मण गोपालों का परिहास कर उन्हे वापस भेज़ देते है! तब ब्राह्मण पत्नियाँ गोपालों के लिये और श्रीक्रिष्ण के लिये अनन्य भक्ति से खाना लाती है! इसका मतलब है कि साधक की श्रद्धा सिर्फ क्रतुओं की पद्धति(देवी-देवताओ की पाठ-पुजा इत्यादि) पर नही मगर परमात्मा पर होनी चाहिए! एक बार इन्द्र देवता गायों और गोपालों पर क्रोधित हो भीषण वर्षा कर देते है! श्रीकृष्ण अपनी कनिष्ठा उँगुली से गोवर्धंन पर्वत उठाकर इस के नीचे गायों, गोपालों और गोपिकाओ की सात दिनो तक वर्षा समाप्त होने तक रक्षा करते है! इन्द्र का मतलब मन और वर्षा का मतलब विचार, साधक को अपने समस्त विचारो को बंद करके मन को स्थिर करना चाहिए ऐवम भौतिक नश्वर पदार्थो से ध्यान हटाकर ज्यादा से ज्यादा समय अपनी विचारधारा को केवल परमात्मा की ओर लगाना चाहिए! श्रीकृष्ण बृंदावन मे केशि नामक राक्षस का वध करते है! तमोगुण का प्रतीक होते है केश, इसीलिए साधक को तमोगुण रहित होना चाहिए! कंस अपने मंत्री अक्रूर को श्रीकृष्ण और बलराम को लाने के लिये व्रज भेजता है! आते समय रास्ते मे भोजदेश आने से पहले श्रीकृष्ण और बलराम को मारने के लिये कुस्ती लडने वाले दो पेहलवान चानूर और मुष्टिक को कंस भेजता है! उस समय श्रीकृष्ण और बलराम दोनों की उम्र सिर्फ पाँच वर्ष की थी! श्रीकृष्ण चानूर का और बलराम मुष्टिक का वध कर देते है! इस के बाद कंस कुवलयापीड नामक हाथी को भेजता है श्रीकृष्ण उस का भी वध कर देते है! इससे परमात्मा की सर्वशक्तिमान शक्ति का पता लग जाता है! कुब्ज नामक कंस की एक कुरूप कुबड् परिचारिका अपनी अमित भक्ती की वजह से श्रीकृष्ण पर चंदन छिडकती है और उनके कंठ मे एक सुंदर माला डाल देती है! तब श्रीकृष्ण कुब्जा के कुबड को ठीक कर उसके कुरूपी तन को सुंदर बना के कुब्जा से विवाह करते है! यह घटना परमात्मा की अपने भक्तों पर प्रेम का निदर्शन है! महर्षि सांदीपनी श्रीकृष्ण और बलराम के गुरु थे! गुरु सांदीपनी महर्षि का पुत्र प्रभास क्षेत्र के समुद्र मे डूब जाता है, श्रीकृष्ण और बलराम दोनों समुद्र के अंदर जाके उस को लाकर गुरुदक्षिणा के रूप मे सांदीपनी महर्षी को समर्पित करते है! इससे सदगुरु की प्रामुख्यता और आवश्यकता का पता लगता है! इसके पश्चात श्रीकृष्ण कंस का वध कर देते है और अपने माता-पिता देवकी और वसुदेव को कारागार से विमुक्त करा लेते है! कंस वध के पश्चात उसकी पत्नियाँ अस्ति और प्राप्ति को उनके पिता जरासंध के पास भेज देते है! जरासंध मथुरा पर श्रीकृष्ण का वध करने के लिये सत्रह बार आक्रमण करता है एवम हर बार हार के मगध भाग जाता और श्रीकृष्ण कृपा करके उसे छोड देते थे! इसी समय श्रीकृष्ण समुद्र के अंदर एक नगर का निर्माण कर अपने समस्त लोगों को वहा सुरक्षित रखते है एवं बलराम को मथुरा का राज्य देते है! जरासंध का एक मित्र था कालयवन, वह बहुत बलवान था! कालयवन श्रीकृष्ण को मारने के लिये उनके पीछे पडता है, इसी समय मानधाता का पुत्र मुचकुंड दिर्घकालिक तपस्या की थकाना मिटाने के लिए एक गुफा के अंदर योगनिद्रा मे लेटा हुआ था! यह सब जानते हुए श्रीकृष्ण दौडते-दौडते मुचकुंड की गुफा मे प्रवेश कर उसके पीछे छिप जाते है! श्रीकृष्ण का पीछा करते हुए कालयवन भी उसी गुफा मे प्रवेश कर योगनिद्र मे लेटे हुए मुचकुंड को श्रीकृष्ण समझ कर क्रोध से लात मारता है, निद्राभंग हुआ मुचकुंड योगाग्नि से भरी हुई अपनी आंखों की तीक्ष्णदृष्टि खोल देता है, उन आँखों की तीव्रता से कालयवन दग्ध हो जाता है! इससे पता लगती है योग की महत्वपूर्ण शक्ति और श्रीकृष्ण की चतुराई, तात्पर्य यह है कि साधक को चतुराई से रहना चाहिए! भीष्मक विदर्भा के राजा थे! रुक्मि उनका पुत्र और रुक्मिणी उनकी पुत्री! रुक्मिणी श्रीकृष्ण से प्रेम करती थी मगर रुक्मी अपनी बहन रुक्मिणी का विवाह श्रीकृष्ण के साथ नही करना चाहता और वह श्रीकृष्ण का प्रबल विरोधी था! श्रीकृष्ण अपने पराक्रम से रुक्मिणी के भाई को पराजित कर देते है एवम रुक्मिणी को उठा कर ले जाते है और विवाह कर लेते है! इसके बाद महाबलवान जांबवंत को हरा के उस की पुत्री जांबवती से विवाह करते है और उस के बाद सत्राजित की पुत्री सत्यभामा से, अवंति राजा की बहन मित्रविंद से, कोसल राजा की पुत्री सत्या से, केकय राजा संतर्दानंद की बहन भद्रा से और मुद्र राज की पुत्री लक्ष्मणा से विवाह करते है! इससे परमात्मा के सर्वप्रेम स्वभाव का पता लग जाता है!
श्रीकृष्ण भीम के द्वारा जरासंध का वध करावा देते है! भीम पंचपांडवों मे एक थे, इससे परमात्मा की निपुणता का पता चलता है! ततपश्चात श्रीकृष्ण शिशुपाल् और दंतावक्तृ का वध कर देते है! इसीलिए कहते है कि शिशु जैसे अनाडीपन के वजह से शरीर पर जो मोह आया है उसे साधक को छोड देना चाहिये!
गीता मे अष्टांगयोग की प्रामुख्यता; भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता के संदेश द्वारा अष्टांगयोग की प्रामुखता बहुत जगह पर प्रकट की है! उस का विवरण बहुत से श्लोको द्वारा श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता मे दिया है! संदर्भानुसार एक या दो श्लोक नीचे दिए गए है! अष्टांगयोग का मतलब=अष्ट+अंग है! वह निम्नलीखित है-
1) यम; अ)अहिंसा, आ)सत्य, इ)आस्तेय ई)ब्रह्मचर्य और उ)अपरिग्रह!                                     अ) अहिंसा का मतलब किसी को भौतिक और मानसिक रूप से चोट नही पहुंचाना! (अहिंसासमतास्तिथि) 10-----5   (अहिंसाक्षांतिरार्जवम)                       13-----8 आ)सत्य:-सच(सत्यंप्रियहितंचयत) 17-----5    इ)आस्तेय:- किसी भी तरह की चोरी नही करना!
(अनपॆक्ष्यसुचिर्लक्ष्य).. 12----16 ई)ब्रह्मचर्य(ब्रह्मचारिव्रतेस्थ्तः) 6----14              उ)अपरिग्रह:-लालचनहीहोना                                             (कामंक्रोधंपरिग्रहम्विमुच्य)                  8-----53 2) नियम- अ)शौच, आ) संतोष, इ)तप, ई)स्वाध्याय और उ)ईश्वरप्रणिधाण!                            अ)शौच:-मन और शरीर को शुद्ध रखना  (तेजक्षमाधृतिशौचं)                       16-----3                                  आ)संतोष:-संतृप्ति                       (संतोषाःसततम योगी)                       12----14 इ)तप:-तपस्या(तपोमानसमुच्यते)  17—16   ई)स्वाध्याय:-अपने आपको (स्वयं को)पढना! (स्वाध्यायाभ्यसनंचैव) 17—15                      उ) ईश्वरप्रणिधान:- मामेकंशरणमव्रज            1866 3) आसन:- स्थिरमानसमात्मनः                    6---11                                               4)प्राणायाम:-प्राणापानसमायुक्त्वा    5--27                                          5) प्रत्याहार:- यतोयतोनिश्चरति                 626 6) धारणा:- मय्येनमनाधस्त्व                     12---8 7) ध्यान:- ध्यानेनात्मनि पश्यंति               13---25 8) समाधि:- समाधावचलाक़्बुद्धि                    2----53
गीता मे भगवान श्रीकृष्ण के अनेक नाम और इन नामों का अंतरार्थ---                                 
भगवान श्रीकृष्ण को अर्जुन(साधक) ने अलग अलग श्लोकों मे अलग अलग नामों से पुकारा है! इनका योग और वेदांत भाव क्या है यह हम देखते है! 1) अच्युतअस्पर्शनीय 2) अनंतसर्वव्यापी 3) अद्य सब से पहले! 4) केशिनिसुदन केशि नामक राक्षस का वध करने वाला, केशि का मतलब केश(बाल)! केश नकारात्मक तत्व का प्रतीक है, इसलिये दुष्टस्वभाव नाशक है श्रीकृष्ण! 5) कमलपत्राक्षज्ञान मूर्ती क्योकिं कमल ज्ञान का प्रतीक होता है! 6) गोविंद---गोविदांपतिः गोविंद-सर्वभूतों का आधार 7) अप्रतिमप्रभाव---सर्वशक्तिमान 8) कृष्ण---आकर्षयति इति कृष्ण----सब को यानि चर-अचर प्रपंच को आकर्षित करनेवाला 9)  जगतपति---जगत को भरने अथवा पालण-पोषण करने वाला 10) अरिसूदन----अंतः और बहिर शत्रु नाशक 11) केशव----अंतः और बहिर शत्रु नाशक 12) जगन्निवासा---- जगत मे रहने वाला 13) जनार्दन--- भक्तों का रक्षक 14) भूतभावन----भूतों का कारक 15) वार्ष्णेय---- तमोगुण नाशक 16) देव----- परमात्म 17) भूतेश---- सकल जीवों का प्रभु, 18) वासुदेव----वसुदेव का पुत्र 19)  देवदेव---- देवताओ का देवता 20) मधुसूदन-----वासना नाशक(वासना का मतलब जो काम शेष रह गया) 21) विश्वमूर्ति---विश्व के प्रभु 22) देववर----देवताओं मे प्रथम 23) महात्मा-----महान आत्मा 24) विश्वेश्वर----सारे जगत का प्रभु 25) देवेश----- देवताओं का प्रभु 26) महाबाहु-----सर्वशक्तिमान 27) विष्णु--- सर्वव्यापी 28) परमेश्वर-----परमात्मा 29) माधव---परमात्मा 30) सर्व---- सब कुछ वही है 31) पुरुषोत्तम----सब पुरुषो मे उत्तम 32) यादव----यदुवंश का पौत्र 33) सहस्रबाहु----महाबलवान  34) प्रभु 35) योगी 36) हृषीकेश-----परमात्मा  37) भगवंत----भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और तत्वज्ञान प्रतीक  38)योगीश्वर---योगियों का योगी!                योगप्रदाता श्रीकृष्ण
इमं विवश्वतेयोगं प्रोक्तवानहमव्ययं विवश्वन मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेब्रवीत                      गीता--- 4---1  इस श्लोक से पता लगता है कि योगप्रदात है श्रीकृष्ण! इस श्लोक मे श्रीकृष्ण ने अर्जुन(साधक) को कहाजीव के  परब्रह्म के साथ ऐक्यता होने को जीवब्रह्मैक्यज्ञान कहते है! यह ज्ञान अविनाशी है, अदभुत है और अपूर्व है! इस ज्ञान को पाना ही निष्काम कर्मयोग है!                
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि हे अर्जुन यह ज्ञान मैने पहले सूर्य को दिया था! ब्रह्मरंध्र मे स्थित सहस्रार चक्र के परमात्म का अद्भुत प्रकाश ही आत्म सूर्य है! इस प्राकाश से ज्ञान बाद मे मनु को मिला, यहा मनु का अर्थ अंतःकरण या मन है! इसके पश्चात  इक्ष्वाकु को मिला, इक्ष का मतलब आँख यानि कूटस्थ मे स्थित तीसरा नेत्र ! यह तीसरा नेत्र दिर्घ और तीव्र ध्यान से ही खुलेगा! तो इस जीवब्रह्मैक्यज्ञान का तीसरे नेत्र मे प्रकाट्य हुआ! ततपश्चात राजर्षियों के पास आया,राजर्षियों का मतलब इंद्रिया! ततपश्चात भुला दिया गया, क्योंकि इंद्रियों का प्रभाव अधिक होने से साधारण लोग भूल जाते है ! इंद्रियों के बाद परमात्मचैतन्य पूरे शरीर मे फैल जाता है, माया के प्रभाव से हम इस परमात्मचैतन्य को भौतिक व्यवहारओं मे फंस के भूल जाते है! इस भूलपन की वजह से हम मुसीबत उठाते है! जितना हम परमात्मा को भूलते जाते है या परमात्मा से दूर जाते है उतनी तकलीफ पाते है! तब श्री श्री परमहंस योगानंद जैसे माहायोगी के पास जाते है उन जैसे सद्गुरु से योगज्ञान पाकर साधना करके फिर परमात्मा की और वापस लौटते है!                           इस साधना मे इंद्रियों के व्यापार प्राणायाम और प्रत्याहार  पद्धतियों द्वारा बंद करते है, तब चंचल मन और चंचल प्राण दोनों स्थिर हो जाते है! इसकी वजह से कूटस्थ मे स्थित तीसरा नेत्र खुल जाता है और तीव्र ध्यान से साधक की चेतना सहस्रारचक्र को यानि आत्मसूर्य मे पहुंच जाती है! ततपश्चात साधक की चेतना ब्रह्मरंध्र के द्वारा परमात्म के साथ लय हो जाती है और साधक स्वयं ही परमात्मा बन जाता है ! इसी को जीवब्रह्मैक्यज्ञान, जीव का परमात्म के साथ मिलना और कैवल्य भी कहते है! महायोगी श्रीकृष्ण ने इस योग ज्ञान को विविध श्लोकों मे विविध अध्यायों मे प्राणायाम पद्धतियों द्वारा प्रकट किया! हर एक प्राणायाम पद्धति एक यज्ञ है! इसके लिये कोई पशु की बलि देने की आवश्यकता नही है! सिर्फ श्वास को खर्च के लिये लगाना है अर्थात श्वास-प्रवास की और ध्यान और एवं अपने मन को पुर्ण एकाग्रता के साथ लगाना है ! भगवान श्रीकृष्ण की उपाधि यानि जीवनकाल परिमिति 125वर्ष 7मास और 8दिन है! गीता उद्भोदन के समय उनकी आयु 87वर्ष थी!     भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि हे अर्जुन तुम केवल निमित मात्र होकर अपने धर्म यानि निष्कामकर्म का आचरण करो, फल परमात्मा पर छोड दो! इस तरह से निष्कामी होकर हजारों सैनिकों का इस महाभारत युद्ध मे वध करने पर भी तुम को पाप नही लगेगा अर्थात जो भी मनुष्य भगवान श्रीकृष्ण की इस सूक्ति का आचरण करके अपना काम निभाता/ती है वह कृष्णियण है! प्रभु जीसस क्रैस्त ने कहा है कि अगर कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड मारता है तो तुम उसको तुम्हारा दूसरा गाल दिखाओ! अगर क्रैस्त की इस सूक्ति का आचरण करके जो मनुष्य अपना काम निभाता/ती है वह क्रिष्टियन है!                  
श्रवण, मनन और निधिध्यास
अर्जुन विषाद, सांख्य, कर्म, ज्ञान और आत्मसम्यम योगों को कर्मषट्क यानि श्रवण कहते है! विज्ञान, अक्षरपरब्रह्म, राजविद्याराजगृह, विभूति, विश्वरूप संदर्शन, और भक्ति योगों को भक्तिषट्कं यानि मनन कहते है!                         क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभाग, गुणत्रयविभाग, पुरुषोत्तमप्राप्ति, दैवासुरसंपदविभाग, श्रद्धात्रयविभाग और मोक्षसन्यास योगों को ज्ञानषट्कं यानि निधिध्यासन कहते है!
              द्वितीय  अध्याय
आध्यात्मिकता---आधुनिक वैज्ञानिक शास्त्र.....................    सूक्ष्म मन यानि सूक्ष्म शरीर के मन मे पिछले जन्मों की करोडों वासनाऐ उपस्थित रहती है! जो काम अधूरे रह जाते है उनको वासनाऐ कहते है ऐसी करोडों वासनायें होती है! इन सब वासनाओं को योगसमाधि स्थिति द्वारा निकाल सकते है! जो योगी समाधि स्थिति पाता है वह स्वयं का लाभ तो करता ही है साथ ही साथ अपने चारों और के लोगों को भी लाभ पहुँचाता है! सुषुप्ति यानी तुरीय स्थिति मे पहुंचने वाले योगी के स्थिति को थीटा तरंग स्थिति कहते है! इस स्थिति मे योगी कम ग्लूकोज़ खर्च करते है!  परमात्मा के साथ अनुसंधान करना ही हर साधक का अंतिम लक्ष्य है! भेजा हर प्रकार के भौतिक विषयों को देखता है और मन हर प्रकार की अंतरंग यानि आंतरंगिक विषयों की देखभाल करता है! इसलिये दिव्यत्व पाने के लिये साधक को अंतर्मुखी होना चाहिए! मन को स्थिर करने के लिये दो मार्ग है एक ध्यान और दूसरा ज्ञान ! खोपडी के अंदर का सेरेब्रम चेतना केंद्र और स्वैच्छिक पद्धति का स्थान है, सेरेबेल्लम सहयोग करनेवाला स्थान है! ये सेरेबेल्लम चेतना और स्वैच्छिक पद्धति का स्थान है! ये सेरेबेल्लम अपना काम बिना किसी संदेह सेरेब्रम के साथ करके शांति सौख्य देता है मगर इस संयोग्यता मे कुछ रुकावट नही आना चाहिये, अगर कुछ रुकावट आती है तो यह(सेरेबेल्लम) सेरेब्रम के साथ संदेहात्मक स्थिति मे काम करना शुरु करेगा ! सेरेबेल्लम जितनी संदेहात्मक स्थिति मे रहेगा उतनी ही व्याकुलता से काम करेगा! अति व्याकुलता  की वजह से मनुष्य उतनी ही गलतियाँ करना शुरु करेगा यानि जितनी व्यकुलता उतना ही लोभ, मोह, बदला लेने  का स्वभाव और कंजूसी का स्वभाव वगैरा-वगैरा आयेगा! अवचेतन मे झूठ बोलने की आदत बढती जाएगी यानि नकारात्मक गुणो की वृद्धि होगी! जब साधक को सकारात्मक गुणो की वृद्धि होती है तब उसका दिव्यत्व बढता है और ओं का पवित्र शब्द सुनाई देता है! इसका मतलब साधक की कुंडलिनी शक्ति जाग्रत हो रही है! डयनसेफलान इस कुंडलिनी शक्ति के जागरण मे और बढौती करेगा! अधिचेतन स्थिति का कारण होती है सेरेब्रम और पिनियल ग्लांड्स! अधिचेतन स्थिति की कारणभूत सेरेब्रम और पिनियल ग्लांड्स को ही आध्यात्मिक केंद्र कहते है! पिनियल ग्लांड्स सात साल की आयु से सुखना शुरु हो जाती है, इसकी वजह से सकारात्मक गुणो मे बाधा आती है! सुक्ष्म शरीर यानि मानसिक प्रवर्तना का कारण है खोपडी(skull) के अंदर का लिंबिक सिस्टम! इस लिंबिक सिस्टम को ही आदिदैविक केंद्र कहते है! लिंबिक सिस्टेम के अंदर होती है हैपोथेल्मस ग्लांड! असली मे यह हैपोथेल्मस ग्लांड ही मानसिक प्रवर्तना का कारण है! दोनों आंखों के बीच की जगह को कूटस्थ या आज्ञाचक्र कहते है! पिट्युटरी ग्लांड इस कूटस्थ के पीछे होती है! यह आज्ञाचक्र भौतिक यानि स्थूल शरीर को नियंत्रण करता है एवम स्थूल शरीर को आवश्यक निर्देश भी देता है! इस आज्ञाचक्र को आधिभौतिक केंद्र कहते है! आधिभौतिक केंद्र और आध्यात्मिक केंद्र इन दोनो को सहयोग देनेवाला है सेरेबेल्लम! निर्माणात्मक भावनाओ के लिये पिनियल ग्लांड्स को उत्तेजित करना होता है! इसके लिये कूटस्थ स्थित तीसरी आँख को उत्तेजित करना आवश्यक होता है और इस प्रक्रिय के लिय क्रियायोग की और गायत्री मंत्र की जारूरत होती है! इन योग पद्धतियों द्वारा तीसरी आँख को खोलने से मानसिक और भौतिक शरीर आरोग्यवंत और उत्साहभरित होते है! मेलटोनियम नामक एक रसायन की जरूरत होती है अच्छी नींद के लिये, इस मेलटोनियम रसायन की देढ घंटे(1:30 मिनिटस) तक सत्क्रियता काफी है अच्छी नींद के लिये! मेलटोनियम रसायन का आयोजन करता है पिनियल ग्लांड्स! पिनियल ग्लांड्स सूखने की वजह से हमको गेहरी नींद नही आती है और इसिलिये अविश्रांति रहती है! बाकि नीचे के चक्रो को कूटस्थस्थित आज्ञाचक्र पिट्युटरी ग्लांड्स द्वारा अपना आदेश भेजता है ! आज्ञाचक्र के इन संदेशों को एक्सोक्रिन और एन्डोक्रिन ग्लांड्स स्वीकर करते है! एक्सोक्रिन ग्लांड्स पाचनक्रिया सम्बंधित कार्यक्रम को सहयोग करता है! एनडोक्रिन ग्लांड्स नलिकारहित है, ये हार्मोनों को रक्त मे सीधा छोड देता है! रक्त इस हार्मोनों को लिवर, फेफडो इत्यादि अंगों मे ले जाता है! ये हार्मोन विभिन्न कोशिकाओ(सेल्स) द्वारा कार्बोहैड्रेट, प्रोटीन को बढाना या घटाना कर देते है! नया प्रोटीन बनाने मे ये हार्मोन सेल्स को सहायता करते है ताकि ये सेल्स नये सेल्स बना सके साथ ही एनडोक्रिन ग्लांड्स को नियंत्रित करके अपना अपना काम निभाने मे भी सहायता करते है ये हार्मोन! उदाहरण---- नाभी के पिछे मेरुदंदड मे होता है मणिपुरचक्र, इसमे अड्रेनल ग्लांड होती है! अनाहतचक्र हृदय के पिछे मेरुदंड मे होता है, इसमे थैमस ग्लांड होता है! गले मे थायरायिड् ग्लांड होती है, इस थॉयरायिड ग्लांड को सूचनाए आज्ञाचक्र से मिलती है! योग करना बहुत आवश्यक इसलिये भी है कि आज्ञाचक्र से सूचनाए बाकी नीचे के चक्रों को अच्छी तरह से मिलती रहे! ऐसा होने से ही तंदुरुस्ती बनी रहेगी! प्रातःकाल उठकर शौच, दंतधावन, स्नान इत्यादि कार्यक्रम पूरा करने के पश्चात सूर्यनमस्कार करने से मूलाधारचक्र और उसके संबधित अंग अच्छी तरह काम करेगे! मेहनत और धर्ममार्ग से  कमा के खाने से स्वाधिस्ठानचक्र और उसके संबधित अंग अच्छी तरह काम करेगे! भगवान के बनाए इस प्रकृतिक सौंदर्य का आस्वादन करने से मणिपुरचक्र और उससे संबधित अंग अच्छी तरह काम करेगे! शास्त्रीय और मथुर संगीत सुनने से, ॐ शब्द को सुनने का प्रयत्न करने से विशुद्धचक्र और उससे संबधित अंग अच्छी तरह काम करेगे! पवित्र ॐ शब्द को ध्यान लगाकर सुनने से कुंडलिनी जागृत होती है! ह्रदय के पिछे मेरुदंड मे अनाहतचक्र है, इसमे थैमस ग्लांड है! इस थैमस ग्लांड को अच्छी तरह काम करने के लिये योग की आवश्यकता है, इससे हमारे शरीर का रक्तप्रसारण अच्छा हो जाएगा और तब सभी सेल्स को प्राणवायु मिलेगी,जिससे सिंपथटिक और पारा सिंपथटिक नसे अच्छी तरह मिल-जुलके काम करेगी! मश्तिष्क मे तीन प्रकार के न्यूरो हार्मोंस होते है! वात, पित्त और श्लेष्मा(कफ) की उत्पत्ती का कारण ये ही न्यूरो हार्मोंस है! अच्छे आरोग्य के लिये वात, पित्त और श्लेष्मों(कफ) को संतुलित करना जरूरी है! इसके लिये इम्यून सिस्टम यानि प्रतिरक्षा प्रणाली का शक्तिवंत होना आवश्यक है और इसके लिये सेल्सो(कोशिकाओ) मे मिठोखोंड्रिया की वृद्धि रखना जरूरी है, मिठोखोंड्रिया एक शक्तिमान जेनेरेटर की तरह होता है जो की  सेल्सो(कोशिकाओ)मे रहता है! अगर श्वास पद्धति ठीक नही है तो राक्त के अंदर के कारबन को निकालने और फेफडों मे प्राणवायु को भरने मे रुकावट आती है! फेफडों का कार्य है एक सेकंड मे 15 बार रक्त को प्राणवायु देके शुद्धि करना! इसी को पल्स रेट कहते है! 100 साल पहले प्रकृति मे 35 फिसदी प्राणवायु थी परंतु अब प्रकृति के दोहन, पेडो की कटाई, अति उत्खनन, अति उद्योगीकरण,अपनी जिव्हा स्वाद एवम शौक के लिए जानवरो-पक्षियो की हत्या इत्यादि अमर्यादित एवम असंतुलित मनुष्यो के कर्मो की वजह से 19 फिसदी प्राणवायु रह गई है, यानि 16 फिसदी कम हो गई है! प्रत्येक जीव के लिए प्राणवायु की अत्यंत आवश्यक है जिससे वह आरोग्यवंत दिर्घायु पा सके! तो प्रश्न यह उठता है कि अब क्या करे? पहला उत्तर है हम लोग उपर बताए गए अमर्यादित एवम असंतुलित कर्मो को तुरंत रोके और दुसरा उत्तर है योग, क्योंकि योगी ही सहन कर सकते है प्रकृती मे प्राणवायु के इस कमीपन को अपने प्राणायाम पद्धतियों द्वारा! अब हम इस दुरुस्थिती मे पहुंचे चुके है कि जापान जैसे पारिश्रामिक देशों मे प्राणवायु भी होटलो के किसी सेलूनों मे 15 मिनिटों के लिए इतना-इतना धन दे कर खरीद रहे है! माईक्रोवेव टावर्स से जो रेडियो तरंगे नीकलती है उन की वजह से प्रकृति सिद्ध पक्षियों का भी नाश हो रहा है! साधक अपनी पल्स रेट बाह्य कुंभक प्राणायाम पद्धतियों द्वारा बढा सकता है! हम प्राणायाम पद्धतियों द्वारा ऑटोनॉमस नरवस सिस्टेम को नियंत्रित कर सकते है और व्याधिनिरोधक शक्ति को बढा सकते है! पवित्र ॐ शब्द को सुनने से साधक अपने हानि हुए यानि व्याधिग्रस्त अंगों को पुनः आरोग्यपूरित कर सकते है! अपनी कुंडलिनी शक्ति को बढा के साधक निरोगी, प्रसन्न, शांत और संतुष्ट रहता है! योगी को अपने समस्त प्रश्नो के उत्तर समाधि की स्थिति मे मिल जाते है! समाधि मे उत्तर कैसे मिलते है? यह प्रश्न  तर्क के पार है, इसके लिए साधक को समाधि की स्थिती मे पहुँच कर स्वयं अनुभव करना होगा, इसी को सहजबोध कहते है! सहजबोध को मेधा(बुद्धि के तर्क-वितर्क) के साथ नही जोडना चाहिए क्योंकि मेधा का अवलोकन कभी सही और कभी गलत हो सकता है मगर सहजबोध का अवलोकन सर्वदा सही ही होंगा! 10,00,000 साल का मानसिक और शारीरिक आरोग्य जीवन चाहिए कई जन्मो के जुडे हुए संचित कर्मों को निकालने के लिये, तभी हम पशु जैसे मानव से साधारण मानव, साधारण मानव से दिव्य मानव और दिव्य मानव से स्वयं भगवान बन सकते है और इस के लिये पतांजलि महर्षि के अष्टांग योग का अभ्यास करना अति आवश्यक है! अनपढ व्यक्ति अपने बुद्धि का पांच फिसदी,पढा लिखा व्यक्ति आठ फिसदी, उद्योगपति 10 फिसदी और वैज्ञानिक 15-20 फिसदी ही उपयोग करता है परंतु हम पूरी 100 फिसदी बुद्धि का उपयोग अष्टांग योग द्वारा कर सकते है! तो अष्टांग योग का उपयोग चाहने वाले लोगों को सिखाना योगी का धर्म है! हम परिमित प्रपंच मे अपरिमित आनंद नही मिला सकते है! मृगतृष्णा की तरह रेगिस्तान मे पानी ढूंढने जैसा है परिमित प्रपंच मे अपरिमित आनंद ढूंढना! सिर्फ योग मे ही अपरिमित आनंद मिल सकता है! तो मूलाधरचक्र स्थित कुंडलिनी शक्ति को जागृत करो, उसको दिशा निर्देश करके सहस्रार चक्र मे पहुंचाओ और अपरिमित आनंद पाओ! तभी तो मनुष्य जड प्रकृति छोडकर दिव्यत्व मे सफर करेगा!      
सूर्यनाडी---चंद्रनाडी
सूर्यनाडी दहिने नथुने मे और चंद्रनाडी बाए नथुने मे होती है! इसका मतलब प्राणशक्ति दहिने नथुने से प्रवेश करने को सूर्यनाडी कहते है और प्राणशक्ति के बाए नथुने से प्रवेश करने को चंद्रनाडी कहते है! संस्कृत भाषा मे इन नाडियों को स्वर कहते है!                         सूर्यनाडी को रविवार, मंगलवार, बहुल पक्ष मे पूर्णमासी चाँद से लेकर अमावास्या चाँद के गुरुवार तक और शनिवारों मे बनाए रखना चाहिये! चंद्रनाडी को सोमवार, बुधवार, शुक्ल पक्ष मे अमावस्या चाँद से लेकर पूर्णमासी चाँद के गुरुवार तक और शुक्रवारों मे बनाये रखना चाहिए, नही तो घर मे झगडा होना, काम बिगडना, बेकार सफर करना और खर्च होना और अनारोग्य होना इत्यादि नकारात्मक स्थिति प्रबल हो जाती है! योगी के पास लकडी का मंत्रदंड होता है उस को बाए हाथ के बगल मे रख के दबाने से दहिने नथुने से प्राणशक्ति प्रवेश करेगी यानि सूर्यनाडी उपस्थित होगी और मंत्रदंड को दाये हाथ के बगल मे रख के दबाने से बाये नथुने से प्राणशक्ति प्रवेश करेगी यानि चंद्रनाडी उपस्थित होगी! कुंडलिनी शक्ती को व्यष्टि मे कुंडलिनी और समिष्ठि मे माया कहते है! कुंडलिनी शक्ती चर(चलनेवाली चीजो मे) और अचर(नही चलनेवाली चीजों मे) प्रपंच मे उपस्थित है! सृष्टि, स्थिति और लय कारक है यह कुंडलिनी शक्ति! प्रत्येक प्राण कण मे प्राणशक्ति उपस्तिथ रहती है! यह प्राणशक्ति जेनेस के रूप मे होती है, ये जेने क्रोमोजोम मे उपस्थित रहते है! जेनेस वंशानुगत गुणों के वाहक होते है! जेनेस मे डी.एन.ए मालिक्यूल्स रहते है! ये डी.एन.ए मालिक्यूल्स बहुत ही मुख्य एवम आवश्यक होते है, इन डी.एन.ए मालिक्यूल्स मे छः अम्ल होते है! अगर हम इन छः अम्लों को संतुलित कर पाए तो हम वृद्धावस्था और व्याधियों का निवारण कर सकते है! इस संसार मे प्रत्येक व्यक्ति का जेनेस 99.9 फिसदी मिलता-जुलता(सामान) है! बाकी 0.01 फिसदी की भिन्नता से ही एक व्यक्ति और दुसरे व्यक्ती के रंग, गुण और प्रकृती मे परख होती है!
क्रियायोग---
प्रत्येक व्यक्ति को कार्य शक्ति प्राप्त करने के लिए 40,000 प्रोटींस की आवश्यकता होती है! नित्य सुबह-शाम नियम से क्रियायोग करके हम इन प्रोटींस मे वृद्धि कर सकते है एवम वृद्धावस्था और व्याधियों का भी निवारण कर सकते है! फेफडों, कालेय(जिगर), गुर्दो इत्यादि अंगों के बीच मे असंतुलन ही वृद्धावस्था और व्याधियों का प्रमुख कारण है! जेनेस ही व्याधिग्रस्थ कोशिकाओ(सेल्सो) को आरोग्यवंत करा सकते है! हम क्रियायोग द्वारा इन जेनेस को जो आवश्यक प्रेरणा है वह देकर फेफडों, कालेय(जिगर), गुर्दा इत्यादि अंगों के बीच मे असंतुलित को दूर कर सकते है! शरीर के भीतर की प्रत्येक कोशिका(सेल) उस आदमी का प्रतिरूप होती है, हर जीवित कोशिका(सेल) मे जेने विध्यमान रहता है! जेने का अंदर क्रोमोजोम होते है और  इन क्रोमोजोम के अंदर डी.एन.ए होते है! जीवित सेल के अंदर डी.एन.ए मालिक्यूल अति मुख्य साझेदारी रखता है! प्रोटीन, जेने और ऐंजाईम्स का उत्पादन करने मे प्रत्येक कोशिका शक्तिशाली होती है! हम जेने से वंशपरंपराणुगत गुण निर्धारित कर सकते है! हार्मोंस इस जेनेस को आवश्यक उत्प्रेरणा देते है जिसकी वजह से यह जेनेस आरोग्यता बनाए रखते है! हजारों जेनेस मे से शास्त्रज्ञो ने  केवल मुट्टीभर व्याधिकारक जेनेस यानि 100 जेनेस तक को ही पहचाना है बाकी सब जेनेस को पहचानने के लिये बहुत वर्ष लगेंगे! यदि हम नियम से चक्रों मे ध्यान, चक्रों मे बीजाक्षर ध्यान मतलब हर एक चक्र मे बीजाक्षर मंत्र पढना और क्रियायोग इत्यादि करे तो जो 40 से 50 हजार प्रोटींस है वह अपने-अपने शरीरिक स्वास्थ्य के लिये स्वयं ही तैयारी कर सकते है जिससे हम समस्त जीवन सुख और शांति से आराम से रह सकते है! इंद्रियों मे ज्यादा लालच या चंचलता होने पर हम जीवकणो का सुधारस न पी सकते है और न ही अनुभव कर सकते है! हर एक जीवकण मे  डियोक्सी अडेनिलिक, गुआनिलिक, रिबोसी, सिटेडिलिक, थैमिडिलिक और फास्फारिक नाम के छः अम्ल और मिठापन होता है! जब साधक खेचरी मुद्रा लगा कर ॐ का ध्यान करते हुवे सहस्रार चक्र मे पहुंच कर स्थिर हो जाता है तब उसको ये मिठा-सा अमृत जैसे सोमरस का आस्वादन अवश्य मिलता है! यह मिठापन पहले कारणशरीर मे उसके बाद सूक्ष्मशरीर मे ततपश्चात स्थूल शरीर मे प्रवेश करता है!                          इडा नाडी गंगा, पिंगला नाडी यमुना और शुषुम्ना नाडी सरस्वती नदी है! ये तीनों सूक्ष्म नाडिया जब कूटस्थ यानि आज्ञाचक्र मे मिल जाती है तब इसी मिलन को गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का संग़म यानि त्रिवेणीसंग़म कहते है! अधिक साधना से प्राणशक्ति यानि जीवात्मा कूटस्थ से आगे बढकर केवल शुषुम्ना नाडी द्वारा ही सहस्रारचक्र मे पहुंचती है, इडा और पिंगला नाडियाँ केवल कूटस्थ तक ही शुषुम्ना के साथ रहती है! प्राणशक्ति के अंदर खींचने को और कूटस्थ को इस प्राणशक्ति से भरने को पूरक कहते है, कूटस्थ को इस प्राणशक्ति से भर के थोडा देर रखने को यानि कुंम्भक करने को अंतः कुंभक कहते है, इस प्राणशक्ति को बाहर निकालने को रेचक कहते है और इसी प्राणशक्ति को बाहर थोडी देर रोकने को बाह्य कुंभक कहते है! पूरक करके प्राणशक्ति को कूटस्थ मे अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार रोककर फिर इस प्राणशक्ति को रेचक करके मूलाधारचक्र द्वारा छोडने से विद्युत अयस्कांत शक्ति का उत्पादन होता है! अपनी इंद्रियों को परमात्मा के समर्पित करने को ही प्रार्थना कहते है! इडा, पिंगला, शुषुम्ना नाडियों को और प्राण, अपान, व्यान, समान और उदान इन पांच प्राणशक्तियों को परमात्मा को समर्पित करने को ही अभिषेक कहते है! अंतःकरण को पूर्णरुप से परमात्मा को समर्पित करने को ही दीपप्रज्वलित करना कहते है! मूलाधार, स्वाधिस्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा इन छः चक्रों को परमात्मा को समर्पित करने को ही अगरबत्ति लगाना कहते है! अपनी समस्त अभिलाषाओ को परमात्मा को समर्पित करने को ही नैवेद्य चढाना कहते है! इसी को ईश्वर प्रणिधान अथवा परिपूर्ण समर्पण कहते है!
क्रूरता, द्वेषभाव और चोरी करने की प्रवृत्ति जैसे दुर्गुण मूलाधारचक्र मे रहते है! संदेहात्मकस्थिति वाले दुर्गुण स्वाधिस्ठान चक्र मे रहते है! दुसरो को नीचा दिखाना स्वयं के उच्चता के लिये कुछ भी करने की भावना जैसे दुर्गुण मणिपूरचक्र मे होते है! आवेशपूर्ण मन और मै सबसे अधिक हू जैसे दुर्गुण अनाहतचक्र मे होते है, लालच और वाचालता दुर्गुण विशुद्ध मे होते है! गर्व और जल्दबाजी दुर्गुण आज्ञाचक्र मे होते है! चक्रों मे ध्यान करके इन समस्त दुर्गुणों से साधक मुक्त हो सकता है!
वेदांत---
राजा जनक और गर्गि याज्ञवल्क महर्षि के शिष्य थे! याज्ञवल्क महर्षि सूर्यभगवान के भक्त थे! इसी वजह से शुक्ल यजुर्वेद को रचाया! कात्यायनि और मैत्रेयि याज्ञवल्क महर्षि की पत्नियाँ थी! याज्ञवल्क महर्षि अपनी सम्पत्ति पत्नियों के बीच मे बाटना चाहते है! मैत्रेयि जानती थी कि इस भौतिक संपत्ति से कोई लाभ नही मिलता! महर्षि याज्ञवल्क और मैत्रेयी के बीच का आध्यात्मिक संभाषण अत्यंत रोचक है और ये संभाषणा ही अतिसुंदर उपनिषद बृहदारण्य उपनिषद का रूपधारण करता है! 
सर्वभूतेषुदात्मानमसर्वभूतानिचात्मनि  
विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्त्वम सुखीभव!        
मोह और बदला लेने की भावना छोडने से ही आत्मानंद मिलता है! (अष्टावक्र गीता) 
सत्येन लभ्यः तपासाहि येषा आत्मा सम्यक ज्ञानेन ब्रह्मचर्येन नित्यं अंतःशरीरे ज्योतिर्मयोहि सुभ्रोयम पश्यंति यतः क्षीणदोषाः !                                                 मुंडकोपनिषद.....
सत्य का अनुसरण करो, तपश्या करो, ब्रह्मचर्य का पालन करो, तब तुम्हारे समस्त दोष समूल निर्मूलन हो जाएगे! तब परमात्मा ज्योती रूप मे दिखाई देंगे, तब तुम उस ज्योती मे लीन हो जाओ! यहा ब्रह्मचर्य के पालन का मतलब बिना विवाह के रहने का नही है बल्कि ब्रह्म मे रहना है यानि अपने मन को सहस्रारचक्र मे स्थिर करना ही असली ब्रह्मचर्य है!   
योगकर्म सुकौशलम....       (पातंजलि योगसूत्र) 2-----50 अपना कर्मकरो, फल की आशा मत करो, इसी को असली योग कहते है! 
योगस्थःकुरुकर्माणि....                        2-----48
अपना कर्म योगी बनके योगी जैसा करो!
योगोभवति दुःखह.....                6-----17   योगाभ्यास सब दुखों को नाश करता है!
योगःचित्तवृद्धिनिरोधः....
योगाभ्यास समस्त विचारधारा को दूर करता है!
पातांजलि अष्टांग योग---
1)यम-- अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अनपेक्षत्व!
2)नियम-- बाह्यांभ्यंतर सुभ्रं, संत्र्प्ति, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान!                             3)आसन-- स्थिर बैठक!
4)प्राणायाम-- श्वास को नियंत्रण मे रखना!
5)प्रत्याहार-- इंद्रियो के व्यापार को बंद करना!
6)धारणा-- चित्त कीएकाग्रता! 7)ध्यान........................सिर्फ परमात्मा पर ध्यान करना! 8)समाधि........परमात्मा के विविध रूपों को छोडकर पूर्वरूप से सिर्फ परमात्म मे लय होना!
धारण, ध्यान और समाधि तीनों के मिलन को सम्यक समाधि कहते है!
ध्यान बीज से शुरु होता है और आखिरी मे बीज रहित हो जाता है! इसका मतलब पहले भगवान का ध्यान करो! परमात्मा मे लय हो जाओ और आखिर मे परमात्मा स्वयं बनो जैसे अग्नि मे जलने वाला लोहा स्वयं अंगार बन जाता है! अग्नि मे जलाने का गुण स्वयंसिद्ध है! आगरा मे जलने वाली आग हैदराबाद मे रहने वालो पर कोई असर नही करेगी! ऐसे ही हमारे सदगुरु श्री श्री परमहंस योगानंद का परमात्मा मे प्रबल भाव है मगर उनके जैसा प्रबल परमात्वभाव हमारे अंदर नही है इसीलिये शायद हम परमहंस नही होकर एक साधारण व्यक्ति है!
न तस्य रोगो न मृत्यु प्रपातस्य योगाग्निमयम शरीरं!
योग ध्यान करने वाले को व्याधि, जरा और मृत्यु का डर नही होता बल्कि वह साधक योग के श्रंगार से उज्वल रूप मे रहते हुए अंतर्मुख हो के ध्यान करने से अपरिमित आनंद पाता है!
बहूनाम जन्मनामाम्ते ज्ञानवान माम प्रपद्यंते
वासुदेव सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः! (गीता 7----19)
मनुष्य को अनेक जन्मो के बाद ज्ञान प्राप्त होता है! जब मनुष्य समझता है कि सभी कुछ परमात्मा ही है, तब वो  मुझे पाता है! मगर ऐसा मनुष्य दुर्लभ है!
मनोहि द्विविधम प्रोक्तम शुद्धम अशुद्धमेवच
अशुद्धम कामसंकल्पं शुद्धम कामविवर्जितं
मनएव मनुष्याणां बंध मोक्ष कारणं!
मन शुद्ध और अशुद्ध दो प्रकार का होता है! शुद्ध मन निष्कामी होता है इसीलिये सुखी रहता है! अशुद्ध मन सकामी होता है इसीलिये दुःख और असंतोष रहता है! मन ही बंधन और मोक्ष का कारण होता है!
ग्रंथियाँचक्र---  
ग्रंथियाँ दो प्रकार की होती है!
(1) एक्सोक्रिन ग्लांड्स जो डैजेस्टिव सिस्टेम यानि पाचन क्रिया के लिये और
(2) वाहनीरहित एंडोक्रिन ग्लांड्स जो किडनी, हृदय इत्यादि अंगों के लिये हार्मोंस का निर्माण करती है जिस की वजह से ये अंग हमारे लिये निर्धारित काम करें और हमारे शरीर को स्वास्थ्य रखे! 
अड्रेनल ग्लांड्स टोपी जैसी दोनों किडनीयों के उपर दिखायी देती है! अड्रेनल ग्लांड्स मे दो भाग होते है इस के बाहर का कोर्टेक्स भाग दो प्रकार के हार्मोंस को बनाता है, एक है कोर्टिसोल जो कार्बोहैड्रेट्स, फेट्स और प्रोटींस का मेटबालिसम को नियम के अनुसार ढालता है और  आल्डेस्टरोन की मदद करके रक्त का वाल्युम यानि प्रबलता और सोडियम लेवेल को ठीक ढंग से रखता है! इसी किडनी के अंदर के मेडुल्ला का अड्रेनल ग्लांड्स एक अड्रिनलीन ग्लांड्स को बनाता है! स्थूल और मानसिक शरीरों के तनाव, पीडा को संभालना इस अड्रिनलीन ग्लांड का काम है! स्वाधिस्ठान चक्र मे ध्यान करने से आरोग्य अच्छा रहता है किडनी मे पत्थर और अतिमूत्र की चिंता दूर होती है! पांक्रियास दो प्रकार के हार्मोंस का निर्माण करता है! (1) इंसुलिन हार्मोंन-- जिस से रक्त के ग्लूकोस का लेवेल ठीक ढंग से नियंत्रीत होता है! ऐसा नही होने पर सुगर व्याधि यानि डयबिटिस मेल्लिटुस का व्याधि आने का द्वार खुल जाता है! (2) ग्लूकागोन हार्मोंन-- रक्त मे ग्लूकोस लेवेल को नियंत्रित करने के काम मे आता है! इस नियंत्रण की वजह से लिवर अच्छा काम करता है! मणिपुरचक्र मे ध्यान करने से इन हार्मोंस का निर्माण ठीक ढंग से होगा जिससे हमारा आरोग्य अच्छा रहेगा!

गीता मे यज्ञो का प्रस्थापन---योग का संबंध--
यदृछ्छा लाभसंतुष्टो...................................गीता  422 जो मिला उससे संतृप्ति करने वाला, सुख और दुःख के अतीत, जो ईर्ष्यालु और घृणा रहित हो, सफलता और असफलता को समान देखता हो, ऐसा साधक कर्म करने पर भी कर्मबंधन मे नही बंधता है!
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महवि ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणाहुतं
ब्रह्मैव तेन गंतव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना !.......गीता  4---24
यज्ञ मे होम साधनाए, होमद्र्व्य, होमाग्नि, होम द्र्व्यों को प्रदान करने वाला, होम किया हुआ हवि यह समस्त पदार्थ परमात्मा ही है, जो इन भावों से यज्ञ करता है वह अवश्य ब्रह्म को पाता है! साधक होम मे क्या प्रदान करता है? साधक अपनी प्राणशक्ति को ही प्रदान करता है! ये प्राणशक्ति आत्मा का ही भाग है! आत्मा और परमात्मा एक ही है! व्यष्टि मे आत्मा को समिष्टि मे परमात्मा कहते है! हरिद्वार मे डुबकी लगाओ या इलाहबाद मे डुबकी लगाओ, आखिरी मे दोनों ग़ंगा ही है, ऐसे ही है आत्मा और परमात्मा! प्राणशक्ति आत्मा का भाग है! आत्मा परमात्मा का भाग है इसीलिये अंत मे प्राणशक्ति परमात्मा मे मिलनी ही है! तो जो साधक प्राणायाम साधना कर रहे है उन साधको का आदि और अंतिम लक्ष्य परमात्मा मे लय होना ही है! 
दैवमेवापर्एयज्ञं योगिनहपर्युपासते
ब्रह्माज्ञावपरेयज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति!.......गीता 4----25   
कुछ साधक सिर्फ देवताओ को प्रसन्न करने के लिये ही यज्ञ करते है! इसका मतलब वे साधक चक्रों मे ध्यान कर रहे है! कुछ साधक केवल सहस्रार चक्र मे ही ध्यान-साधना कर रहे है! साधारण जीवन मे भी कुछ लोग बडा व्यापार बिना किसी अनुभव, बिना डर के हानी उठाकर भी प्रारंभ करते है!
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषुजुह्वति
शब्दादींविषयानन्यैंद्रियाग्निषु जुह्वति!...........गीता 4----26
कुछ साधक सुनने, सूंघने, रुची, स्पर्श और देखने की शक्तियों को उन से संबंधित इंद्रियों मे अर्पण कर रहे है! इस की वजह से किसी भी इंद्रियो का दुरुपयोग नही होता है! सर्वाणींद्रियकर्माणि प्राणकर्माणिचापरे
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वतिज्ञानदीपिते!.......गीता 4---27
कुछ साधक सुनने, सूंघने, रुची, स्पर्श और देखने की शक्तियों को उपसंहरण कर के उन को अपने अंदर की आत्म निग्रह शक्ती की आग मे अर्पण करते है, इसी साधना को अष्टांग योग़ मे प्रत्याहार पद्धति कहते है! इसी को परमहंस योगानंदजी इंद्रिय टेलिफोनों को बंद करना कहते थे!
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः..........गीता 4---28
कुछ साधक अपनी संपत्तियों का दानधर्म कर के अपने मन को प्रापंचिक विषयों से परमात्मा की तरफ मोड लेते है! कुछ साधक और आगे बढ के अष्टांगयोग पद्धती के अनुसार सहस्रारचक्र मे ध्यान करते है! कुछ लोग ‘’मै कौन हू?’’ पर ध्यान करते है!
अपानेजुह्वतिप्राणं प्राणेपानंतथापरे
प्राणापानगतीरुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः!.....गीता 4----29
कुछ साधक आनेवाली प्राणवायु को और जानेवाली अपान  वायु को रोका करते है! ऐसा करते हुवे वे प्राणवायु को अपानवायु मे, अपानवायु को प्राणवायु मे रख देते है! इसी को प्राणशक्ति नियंत्रण यानि क्रियायोग कहते है! यह एक अद्भुत प्राणायाम पद्धती है जिसमे प्राण को सुषुम्ना सूक्ष्म नाडि द्वारा आज्ञाचक्र यानि कूटस्थ मे भेजते है ततपश्चात सहस्रार मे भेजते है, फिर सहस्रार से अपान को सुषुम्ना सूक्ष्म नाडि द्वारा मूलाधारचक्र मे भेजते है!
सतगुरु परमहंस श्री श्री योगानंद कहते है कि क्रियायोग प्राणायाम पद्धति से शरीर नाश मे रुकावट आती है यहा साधक समझाता है या अनुभव करता है कि शरीर की वृद्धि अथवा क्षीणता मांस की नही है अपितु वह लैफेट्रोंस यानि अतिसूक्ष्म कणों की है ! क्रियायोग स्वास का नियंत्रण नही मगर प्राणशक्ति का नियंत्रण है!       
अपरे नियताहाराः प्राणान प्राणेषु जुह्वति
सर्वेप्येतोयज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः  गीता…........4-----30
कुछ साधक परिमित आहार लेते है! प्राणवायु को प्राणवायु मे ही अर्पण करते है! इसका मतलब कर्मेंद्रीयो के व्यापार को नियंत्रित करते है! पाणि, पाद, मुँह, गुदा और शिश्न को नियंत्रित करते है! कुछ साधक ज्ञानेंद्रियों को भी नियंत्रित करते है मतलब सुनने की, सूंघने की, देखने की, स्वाद की और स्पर्श की शक्तियों पर नियंत्रण करते है! इंद्रियों का नियंत्रण करने से मन नियंत्रित होता है! मन नियंत्रित होने की वजह से चंचल प्राणशक्ति नियंत्रित होती है! मन को नियंत्रित करने के लिये दो ही रास्ते है, एक है ज्ञान और दूसरा ध्यान! स्थिर मन और स्थिर प्राण से आत्मा परमात्मा मे लय हो जाती है! ये समस्त पद्धतियाँ योगदा सतसंग सोसाईटी ऑफ इंडिया, रांचि, के अनमोल आत्मज्ञान की पुस्तको द्वारा अथवा सदस्य बनकर हम सीख सकते है! इस आत्मज्ञान को श्री श्री परमहंस योगानंदाजी ने लिखा था!
यज्ञशिष्टामृतभ्जोयांति ब्रह्म सनातनं
नायंलोकोस्त्ययज्ञस्य कुतोन्यःकुरुसत्तम!  गीता 4------31
जो साधक उपर दी गई साधना प्रक्रियाओ मे से कम से कम एक आध्यात्मिक पद्धति का अनुसरण करेगा वह बहुत लाभ उठायेगा और जिस परमात्म से वो आया उसी परमात्मा मे लय हो जायेगा! जो इन आध्यात्मिक पद्धतियों मे से किसी एक का भी अनुसरण नही करता है वह इस दुनिया मे ही सुखी नही रह सकता है तो परलोक का परमानंद कैसा पायेगा?                                                      
एवं बहुविधा यज्ञावितता ब्रह्मणो मुखे
कर्मजान विद्धितान सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे!  गीता 4---32
इस प्रकार के बहुविध यज्ञ के बारे मे वेदों मे समझाया गया है! यह समस्त ज्ञान हम किताबों से नही सीख सकते अपितु किसी अनुभवी से ही अनुभव कर सकते है! कर्म नही करने से ज्ञान नही मिलता है! यह ज्ञान् सदगुरु परमहंस श्री योगनंद जैसे किसी महापुरुषों से सीखना चाहिए! हानिरहित पशुओ की बलि देना व्यर्थ है और उससे मोक्ष नही मिलता!
श्रेयान द्रव्यमयाद्यज्ञा ज्ञानयज्ञः परंतप
सर्वंकर्माखिलंपार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते!        गीता 4---33
समस्त कर्म आखिर मे ज्ञान मे समाप्त होते है! प्राणायाम यज्ञ पद्धतियों से मिलने वाला ज्ञान भौतिक यज्ञों से बहुत ही श्रेष्ठ है! आखरी मे साधक का लक्ष्य है आत्म को परमात्मा मे मिलाना और उस परमात्मा मे लय होना! बाकी सभी कर्मों का उद्देश्य सिर्फ इस भौतिक शरीर की भूक को मिटाने के लिये है! गणित मे सातवे टेबल(पहाडे) को समझने से पहले छेः टेबल को समझना चाहिये! ऐसे ही इन प्राणायाम पद्धतियों को एक के बाद एक सीखना और अभ्यास करना चाहिए! तब ही हम और श्रेष्ठ प्राणायाम यज्ञों को सीख के अभ्यास कर सकते है!हम अपने बच्चों को गणित, अंग्रेजी वगैरह अध्ययन के विषयों को हमारे पूर्व अनुभव के अनुसार ही समझा सकते है! इसीलिये वर्तमान हमेशा भूतकाल पर आधारित है और भविष्य वर्तमान पर !  
तद्विद्धिप्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया
उपदेक्ष्यंतिते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः!       गीता 4---34  
यह अद्भुत ज्ञान सतगुरु की परिपूर्ण सेवा करके उनसे सीखना चाहिए! वह सतगुरु भी ये तत्वज्ञान अवश्य ऐसे शिष्य को प्रदान करते है परंतु यह आत्मज्ञान जब सतगुरु अपने ध्यान मे निमग्न हो उस समय नही पुछे अपितु उचित समय देखकर सतगुरु से ज्ञान प्राप्ति करनी चाहिए!
अपिचेदसिपापेभ्यः सर्वेभ्यःपापकृत्तमः
सर्वंज्ञानप्लवेनैव वृजिनंसंतरिष्यसि!          गीता 4----36
हमने गत जीवन मे कितने भी पाप किए हो अगर हम ये प्राणायाम पद्धतियों को अभी भी प्रारंभ करते है तो पतन से हमारी अभी भी रक्षा हो सकती है! साधक इस चीज मे नया होने पर भी आत्मा और परमात्मा का अनुसंधान करने के लिये योग्य हो सकता है!                                  
नैवकिंचित्करोमीति युक्तोमन्येअत तत्ववित पश्यन शृण्वन स्पृशन जिघ्रन अश्नन गच्छन स्वपन श्वसनप्रलपन विसृजन उन्मिषन निमिषन्नपि इंद्रियाणि इंद्रियार्थेषु वर्तंत इति धारयन!                                 गीता 5---9
देखते समय, स्पर्श करते समय, सूंघते समय, चलते समय, श्वास लेते समय, श्वास छोडते समय, सोते समय, आंख बंद करते समय, आंख खोलते समय और सभी चीजों मे साधक अगर यह समझता है कि इंद्रियाँ अपना-अपना व्यापार कर रही है मै कुछ नही कर रहा हूँ यानि अब उन व्यापारों की कर्तृत्व बुद्धि नही होगी!
तपस्विभ्योधिकोयोगी ज्ञानिभ्योपि मतोधिकः
कर्मिभ्यश्चाधिकोयोगी तस्माद्योगी भवार्जुन!  गीता 6---46
शरीर को शुद्ध रखने के लिये कृछ्छ्र चांद्रायणादि तपस करने वाले तपस्वियों से, सिर्फ शास्त्र अध्ययन करने वाले शास्त्र ज्ञानियों से, अग्निहोत्रादि कर्म करने वाले यानि यज्ञ और होम करनेवाले लोगों से भी योगी श्रेष्ठ है!
एलेक्ट्रोनिक इंजिनीरिंग पढने के बाद अगर उस विद्यार्थी को एक फ्युज लगाना भी नही आता हो तो उस पढाई का क्या लाभ? ऐसे ही अगर यज्ञ करके, सकल शास्त्रों का अध्ययन करके, शरीर को शुष्क् करके अगर परमात्मा के साथ तदरुप नही हो सकते है तो उन चीजों से साधक को क्या लाभ? इसीलिये प्राणायाम योग पद्धतियों द्वारा जो योगी भगवान का अनुसंधान करके परमात्मा मे लय हो सकता है वो ही सबसे उत्तम है!   
शत वर्षाणि---
कुवन्नेवेह कर्माणि जिजीयेविसेत समः एवं
त्वयि नान्यधेतह अस्ति नकर्म लिप्यतेनरे!      ईशोपनिषद  
समाज के लिये अच्छा काम करो! परमात्मा से शतवर्ष आयुष मांगो ताकि तुम समाज के लिये अच्छे कर्म कर सको! अगर तुम निष्काम कर्म करोगे तब ही तुम को आत्म परमात्म ज्ञान प्राप्त होगा!
प्रशंसाए---
प्रत्यक्षः गुरवस्तुत्याः परोक्षे मित्रबांधवाः
कार्यांते दास भृत्याश्च न स्वपुत्रः कदाचना!
सतगुर की प्रशंसा प्रत्यक्ष मे करनी चाहिए, मित्र और बंधुओ की परोक्ष मे यानि जब वे हाजिर नही हो तब करनी चाहिए, काम करने के पश्चात नौकरों की प्रशंसा करनी चाहिए, मगर अपने बच्चों की कभी भी प्रशंसा नही करना चाहिए!
स्पंदना(ए)---
स्पंदना शब्द का कारण है! शब्द का कारण स्पंदना, और कार्य शब्द है! स्पंदना रहित शब्द ओम शब्द है! ओम ऐसा शब्द है जो आकाश(शून्य) और अंतरिक्ष मे सफर कर सकता है! अंतरिक्ष आकाश से भी सूक्ष्म है, इसी को व्योम कहते है! स्थूल शरीर का स्थूल मन इस सूक्ष्म व्योम को ग्रहण नही कर सकता, व्योम को समझने के लिये सूक्ष्म अंतःकरण यानि सूक्ष्म मन(अनंतमन) की आवश्यकता होती है! साधारण शब्द आखरी मे इसी व्योम मे यानि शब्द रहित शब्द ओम मे लय हो जाते है! ऋषि-मुनिगण यह समझ गए थे कि यह व्योम ही सभी शब्दों का मूल कारण है! इसका मतलब सभी शब्द इसी शब्दरहित शब्द ओम से ही निकले है! हम अंतर्मुख होकर तीव्र एकाग्रता से भूत और भविष्यत शब्दों को सुन सकते है! शब्द तरंगों के रूप मे चारो और सफर करता है! सफर करती हुई तरंग की लंबाई जितनी ज्यादा होगी उतनी ही आवृति कम होगी और कम दूर सफर करेगी इसी के विपरीत तरंग की लंबाई जितनी कम होगी उतनी ही आवृति ज्यादा होगी और ज्यादा दूर तक सफर करेगी! अनाहतचक्र से जो अनाहत शब्द निकलता है वो शब्द स्पंदनारहित ओम शब्द है! स्पंदनारहित ओम शब्द कालरहित है, देशरहित है और अनंत आकाश मे नित्य यात्रा कर रहा है और हमेशा के लिये यात्रा करता रहेगा! ये ओम शब्द अनंत विश्वों का निर्माण भी कर सकता है और नाश भी!
शब्द शुरु मे विस्फोट के रूप मे निकलते है, सारी भावनाए इस विस्फोट से ही निकलती है, सृष्टि इस विस्फोट से ही आरंभ होती है! शब्दो के अनंत समुद्रि तरंगों की एक व्यक्तिगत तरंग होती है बिंदु!  
आवरण का मतलब छिपने की शक्ति, विक्षेपण का मतलब विस्तारण शक्ति! बाल्यवस्था का मतलब वृद्धि रहित शुद्र स्थिति, यौवन का मतलब वृद्धि हो रहा है का वेश्य स्थिति, कौमार का मतलब परिपालन कर सकनेवाला यानि अपने आपको नियंत्रित करके संभालने वाला क्षत्रिय स्थिति और वार्धक्य का मतलब ज्ञान प्रकाशित ब्राह्मण स्थिति! इस भौतिक प्रपंच के खालीपन की पूर्ण स्थिती को इस ज्ञान प्रकाशित ब्राह्मण स्थिति  मे साधक समझ सकता है और इसी के कारण साधक परमात्मा के साथ ऐक्य होने के लिये कठोर ध्यान साधना करने का धृढनिश्चय करता है और नियुक्त भी होता है!
क्रियायोग---
तपःस्वाध्यायेश्वर प्रणिधाणानि क्रियायोगः.....       पातंजलि
पातंजलि महर्षि के पिताजी दोनों हाथों की अंजलि बनाकर भगवान की प्रार्थना कर रहे थे उसी अंजलि मे पतंजलि का जन्म हुवा था यानि आविर्भाव हुआ था, इसीलिए उन का नामकरण पतंजली हुआ! कठोर तपस्या, शास्त्राध्यन, शास्त्रों को समझना और परमात्मा को पुर्ण रूप से समर्पित होना यानि ईश्वर प्रणिधान इन सब को मिला के क्रियायोग कहते है! आत्मा और परमात्मा के अनुसंधान का प्रतीक है पतंजलि महर्षि का आविर्भाव!
शारीरक व्यायाम, आत्मनिग्रह शक्ति और ओम ध्यान ये सब क्रियायोग का भाग यानि अनुयाई है! क्रियायोग एक शारीरिक और मानसिक अभ्यास पद्धती है! रक्त से कर्बन निकाल के प्राणशक्ति द्वारा रक्त को शक्ति देता है क्रियायोग! सिर के अंदर के जीव कणों मे धनात्मक ध्रुव यानि पोजिटेव पोलरिटी होती है बाकी शरीर के अंदर के जीव कणों मे ऋणात्मक ध्रुव यानि नेगटिव पोलरिटी होती है! प्राणशक्ती से बलोपेत हुए रक्त मे जीव कणों का क्षय कम होता है! हृदय को विश्रांति मिलती है! श्वास को बंद करने पर ज्यादा मुख्यता दि जाती है राजयोग मे! क्रियायोग मे साधक प्राणशक्ति पर नियंत्रण करके मेरुदंड को शक्तिवंत चुंबक बना देता है इसी प्राणशक्ति को साधक सुषुम्ना सूक्ष्मनाडी द्वारा सहस्रारचक्र की और मार्गदर्शन करके भेज देता है! इसके कारण सिर के नसो मे विश्रांति मिलती है और सामर्थ्य मिलता है! श्वास मे सिर्फ शक्ति होती है, जानकारी देने वाली शक्ति नही होती मगर प्राणशक्ति मे शक्ती भी होती है और जानकारी देने वाली शक्ति भी यानि दोनों होती है!  
तश्य वाचकः प्रणवः.......         पतंजलि योगसूत्र 1---27
ओं शब्द जो साधक को सुनाई दे रहा है वह ओं शब्द परमात्मा का नाम है!
तस्मिन सति श्वास परश्वासयोः गतिविछ्छेदः प्राणायामः
                            पतंजलि योगसूत्र 1---49 आसन सिद्धि लभ्य होने के बाद श्वास नियंत्रण का स्वामी बनने की कोशिश करनी चाहिए! इस श्वास नियंत्रण सिद्धि से मुक्ति लभ्य होती है! श्वास ही परमात्मा और इस जड शरीर को जोड कर बांधने वाला धागा है!
ध्यान साधना करने वाला योगी ॐ शब्द को सुनता है, इस ॐ शब्द को सुनने के पश्चात ही प्रकाशमान दिव्य क्षेत्रों का दर्शन साधाक अवश्य पाता है एवम योगी सविकल्प समाधि स्थिति मे आ पहुँचता है! इस का अर्थ यह है कि साधक अपनी प्राणशक्ति का उपसंहरण, शरीर के शव जैसा स्थिर होने का अनुभव और अपनी चेतना परमात्म चेतना के साथ मिल रही है का अनुभव पाता है! इन्ही अनुभवों को कुल मिला के सविकल्प समाधि कहते है! योगी इन अनुभवों को सिर्फ ध्यान साधना के समय मे ही पाता है, ध्यान से बाहर आने के बाद फिर संसार मे निमग्न हो जाता है!                                साधक ध्यान करे या नही करे वह सांसारिक जीवन के समय मे भी इन अनुभवों का आनंद लेते रहेगा! हर काम करने के समय मे साधक सोचेगा ये काम परमात्मा करा रहा है, मै परमात्मा का काम परमात्मा के लिये ही कर रहा हुँ, असली मे परमात्मा ही ये सब काम कर रहे है मै निमित्त मात्र हुँ! इसका तात्पर्य यह है है कि साधक का ध्यान परिणित हुवा है! इसी परिपूर्ण ध्यान ज्ञान को निर्विकल्प समाधि कहते है! विध्या मे परिपूर्णता होने पर ही कभी भी किसी भी समय कोई भी सवाल का जवाब आदमी दे सकता है, ऐसे ही आदमी को हम पंडित कहते है! क्रियायोग साधक मे त्वरितगती मे वृद्धि लाता है!
हर एक चक्र के बाए भाग मे एक राशि होती है और दहिने भाग मे एक राशि होती है यानि हर एक मे दोनों तरफ दो दो राशियाँ होती है!
मूलाधारचक्र मे दो राशियाँ, स्वाधिस्ठानचक्र मे दो राशियाँ, मणिपुरचक्र मे दो राशियाँ, अनाहतचक्र मे दो राशियाँ, विशुद्धचक्र मे दो राशियाँ और आज्ञाचक्र मे दो राशियाँ कुल मिला के बारह राशियाँ उपस्थित है! इस छः चक्रों को कुल कहते है! मूलाधारचक्र के नीचे उपस्तिथ है कुंडलिनी शक्ती, इसी को कुलकुंडलिनी कहते है! 
सूर्य हर एक मास मे एक राशि मे जाता है, सुर्य के एक राशि मे जाने को संक्रमण कहते है! ऐसा बारह राशियों मे जाने के बाद यानि बारह संक्रमणों के बाद एक वर्ष हो जाता है! इन बारह संक्रमणों मे दो संक्रमणों को ज्यादा प्रामुख्यता दी गईं है! एक जब सूर्य मकर राशि मे जाता है उस संक्रमण को मकरसंक्रमण यानि मकर संक्रांति कहते है, मकर संक्रांति से उत्तरायण पुण्यकाल आरंभ होता है, दूसरा जब सूर्य कर्काटक राशि मे जाता है उस संक्रमण को कर्काटक संक्रमण यानि कर्काटक संक्रांति कहते है! कर्काटक संक्रांति से दक्षिणायण पुण्यकाल आरंभ होता है!
क्रियायोगी प्रति एक क्रिया मे मूलाधरचक्र से आज्ञाचक्र तक फिर आज्ञाचक्र से मूलाधरचक्र तक अपनी प्राणशक्ति को मार्गदर्शन करके घुमाता है! ऐसा घुमाते समय मूलाधारचक्र से कूटस्थस्थित आज्ञाचक्र तक एक चक्र मे एक राशि के हिसाब से आत्मसूर्य को छः बार देखेगा, फिर कूटस्थस्थित आज्ञाचक्र से मूलाधारचक्र तक एक चक्र मे एक राशी के हिसाब से आत्मसूर्य को छः बार देखेगा, कुल मिला के बारह राशियों मे सूर्य को बारह बार देखेगा! बारह राशियों मे बारह बार सूर्य को देखने का अर्थ है कि साधक एक वर्ष के कर्म को भोगता है एक क्रिया मे! एक क्रिया करने को ज्यादा से ज्यादा 45 सेकंड्स लगते है तात्पर्य यह है कि 45 सेकंड्स मे एक साल की अभिवृद्धि साधक पाता है! हमे हैदराबाद से दिल्ली जाने के लिये हवाई जहाज से 2 घंटे, रैलगाडी से 28 घंटे, मोटारकार से 40 घंटे, साईकल से 80 घंटे और पैदल जाए तो छः महिने लगते है! बुद्धिमान व्यक्ति अगर धन सुलभ है तो हवाई जहाज से 2 घंटे मे हैदराबाद से दिल्ली जा पहुंचेगा! ऐसे ही क्रियायोग हवाई जहाज जैसा शीघ्र परमात्मा के पास ले जाने वाला योग है!
हमारे गतजन्मों के संचित कर्म को भोगने के लिये 10 लाख वर्षों के आरोग्यमय पुर्ण जीवन(100वर्ष) की आवश्यकता है, मगर कोई भी मनुष्य की आयु 10 लाख वर्षों नही होती है! ज्यादा से ज्यादा मनुष्य का आयुःप्रमाण 100 वर्षों से ज्यादा नही होता है! इसी कारण व्यक्ति क्रियायोग से 10लाख वर्षों की जीवन अभिवृद्धि एक ही जन्म के जीवनकाल मे अनुभव कर सकता है! साधारण रूप मे 6, 12, 18, 24, 30, 36, 42, और 48 वर्षों मे क्रिया योगी अद्भुत अनुभव लभ्य करता है! क्रियायोगी अपने वर्तमान जन्म के क्रिया योग ध्यान साधना के अनुभवो को आगे के जन्मों में भी ले जाते है, ऐसा करने के लिये उन्हें कोई  रुकावट नही आती, उनके जीवन का दिशा निर्देश उनकी पवित्र आत्मा करती है क्योंकि क्रियायोगी का जीवन संचितकर्मों से प्राभावित नही होता है! अब उनके जीवन का मार्गदर्शन पूरी तरफ से उनकी आत्मा ही निर्देशीत करती है! क्रियायोग का अभ्यास मित आहार लेकर पूर्ण एकांत मे करना चाहिये! एक और विशिष्ट प्राणयोग योगपद्धती है जिसको भोजन के पहले और भोजन के पश्चात भी कर सकते है वह है हँसा, इस प्राणयोग योगपद्धती को एकांत मे, समूह मे, सफर करते समय भी कर सकते है परन्तु हंसा प्राणयोग पद्धति करते समाय गाडी नही चलाना चाहिये! 
क्रिया योग इन सारे योगों का मिलित है! वह है........... 
1) हठयोग---- शक्तिपूरक व्यायाम, 2) लययोग--- हाँस और ओम प्राणायाम पद्धतियाँ  3) कर्मयोग (सेवा) 4) मंत्रयोगसही यानि उचित बीजाक्षर को सही चक्र मे उच्चारण करना और 5) राजयोग प्राणायाम पद्धतियाँ!
दोनों भृकुटियों के बीच की जगह को कूटस्थ कहते है, इसी को आज्ञाचक्र भी कहते है! कूटस्थ को धनात्मक ध्रुव(पोजिटीव पोल) और मूलाधारचक्र को ऋणात्मक ध्रुव(नेगटिव पोल) कहते है! जब प्राणशक्ति को मूलाधारचक्र ऋणात्मकध्रुव(नेगटिव पोल) से कूटस्थ धनात्मकध्रुव(पोजिटीव पोल)तक घुमा के, फिर उसी प्राणशक्ति को कूटस्थ धनात्मकध्रुव (पोजिटीव पोल) से मूलाधारचक्र ऋणात्मकध्रुव(नेगटिव पोल) तक घुमाने से मेरुदंड शक्तिशाली बनेगा और तब समस्त चक्रो की विद्ययुत तरंगे सुषुम्ना सूक्ष्मनाडी द्वारा सहस्रार मे पहुंचने को निर्देशनबद्ध होंगी, तभी साधक को असिमित अनंत आनंद प्राप्त होगा! साधना के समय जिस चक्र की जो मुद्रा है वही लगाना चाहिये, जिस चक्र मे ध्यान कर रहे है उस से सम्बंधित उचित मुद्रा लगा के ध्यान करने से लाभ और भी अधिक होगा! इस तरह मेरुदंड अच्छी तरह अत्यंत शक्तिशाली चुंबक शीघ्र समय मे बन जाता है! प्राणशक्ती को शक्ती भी होती है और चेतना भी, प्राणवायु को सिर्फ शक्ती होती है! क्रियायोग से सारे दुःख यानि भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक दुःख दूर हो जाते है एवम स्थूल शरीर और मन दोनों नियंत्रित हो जाते  है! मन जब नियंत्रित हो जाता है तब कुंडलिनी जागृत हो जाती है, तब योगी को केवलचेतन की प्राप्ति होती है! हमारे अनियंत्रित व्यवहार के लिए तीन चीजें कारण होती है, वह है, 1) मन, 2) श्वास, और 3) काम, अगर हम इन तीन चीजों को काबू मे रखे तो केवलचेतना स्थिति मे पहुंच सकते है!
मेरुदंड मे बाये तरफ इडा सूक्ष्मनाडी, दाये तरफ पिंगला सूक्ष्मनाडी और इन दोनो सूक्ष्मनाडियों के बीच मे सुषुम्ना सूक्ष्मनाडी उपस्थित है! बाये तरफ की इडा सूक्ष्मनाडी मानसिक स्वभाव की जिम्मेदारी लेती है, दाये तरफ की पिंगला सूक्ष्मनाडी शारीरिक स्वभाव की जिम्मेदारी लेती है और सुषुम्ना सूक्ष्मनाडी इडा और पिंगला दोनो सूक्ष्मनाडियों को सहयोग दे के यानि शारीरिक और मानसिक स्वभावों की परिस्थितियों को सहयोग देती है! ये छः चक्र(मुलाधार से आज्ञा तक) जो है वे संधी स्थल कहलाते है! चंचल श्वास ही चंचल मन का कारण है! प्राणायाम ही एक उपाय है चंचल श्वास को नियंत्रित कर के चंचल मन को स्थिर मन करने का! आठ वर्ष की आयु से मन का रूपधारण होता है! आठ वर्ष की आयु तक मनुष्य को मार्गदर्शन आत्मा से मिलता है, इसी कारण बच्चों को भगवान कहते है!
पुरातन मत---
कापालिक मत---
नरसीर्षकुशेशयैरक्रित्या रुधिराक्तैर्मैथुनाच भैयेवार्चां
उमा समया सरोरुहाक्ष्य कथमा स्लिष्ठ वपुर मुदंप्रयाया          शंकरविजयं  15---21---14
पुरातन काल मे अनेकों धार्मिक मत व्यवस्थाओ मे एक मत था कापालिक मत! इस धर्म को माननेवालो को कापालिक कहते है! उन दिनों मे इन कापालिकों का नायक था क्रकच! क्रकच के अनुयाई उसके सिद्धांत के अनुसार रक्तमय कपालो की गर्दन मे माला पहनते थे! वे लोग अपने देवता कालभैरव की मदिरा(शराब) से पूजा करते थे, इन लोगो की मान्यता थी की ऐसा नही करने से कालभैरव और उनकी पत्नी पार्वती संतुष्ट नही होंगे और वे क्रुद्ध होकर दर्शन नही देंगे! कापालि सिर्फ आनंद मनाने मे ही विश्वास रखते थे! शराब पीना, जिसको चाहे उसी औरत से कामक्रिडा करना उनके लिये उचित था और ऐसा करने मे वे कोई पाप नही मानते थे! जीवन मे आनंद के लिये जो मन मे आया करते थे और कालभैरव की पूजा करना उनका सिद्धांत था!उसी समय श्री श्री आदिशंकराचार्य दक्षिण मे रामेश्वरमंदिर दर्शनार्थ अपने शिष्यगणों के साथ जा रहे थे! श्री श्री आदिशंकराचार्य अद्वेतसिद्धांत के स्थापनकर्ता है! इस सिद्धांत के अनुसार परमात्मा के सिवाय बाकी सब चीजें जड है, केवल परमात्मा ही चैतन्य पदार्थ है! ब्रह्म ही सत्य है बाकी समस्त जगत मिथ्या है! विविध रूपों मे परमात्मा ही व्यवस्थित है!
श्री श्री आदिशंकराचार्य का अनुसरण करते हुए उनके पीछे आ रहे उनके शिष्यगण श्री पद्मपाद, हस्तामलक, समितपाणी, चिदविलास, ज्ञानकंद, विष्णुगुप्त, सुधाकीर्ति, भानुमरीचि, कृष्णदर्शन, बुद्धिवृद्धि, विरिंचिपाद, शुद्धानंद और आन्दगिरि इत्यादि! इन सभी की रक्षा करते हुए साथ चल रहे थे राजा सुधन्व और सुधन्व के सिपाहि! राजा सुधन्व स्वयं श्री श्री आदिशंकराचार्य के शिष्य थे! राजा सुधन्व और अनेक सिपाहियों ने क्रकच के बहुत से अनुयाइयों का वध कर दिया था क्योंकि क्रकच के अनुयाई श्री श्री आदिशंकराचार्य के शिष्यगणों से हिंसा कर रहे थे! इस बात का पता जब क्रकच को चला तो वह क्रुद्ध हो कुदाल लेकर श्री श्री आदिशंकराचार्य के शिष्यगणों का वध करने के लिये निकल पडा!  
असितोमरपट्टि शतृशूलैहि प्रजिघान सूंच्रुस मुंजिताट्टहासान यतिरात चकारभस्मसात तानि जहुंकारभुवाग्निना क्षणेन! .     शंकरविजयं 15—21—21 
श्री आदिशंकराचार्य ने जब अपने शिष्यगणों को भय से इधर-उधर भागते हुए देखा तब त्रिशूल ले के स्वयं उन्होने कापालिकों का संहार किया! धर्म की रक्षा करने के लिये सन्यासी भी समय आने पर हिंसा कर सकते है ऐसा करना भी धर्म ही है! तब कालभैरव देवता ने स्वयं प्रत्यक्ष प्रकट होकर कापालिकों के नायक क्रकच का वध किया था!
चक्रवाक मत
चक्रवाक इधम्ह्याकरोद विचारम मूर्खैर्जैनैर्व्याप्तमिदं समस्तं
देहाद अत्तीतात्मविबोधिहित सत्संगात गता मूढमत्वमन्ये!
शंकरविजयं 15—21—21
चक्रवाकों के मतानुसार जो सामने आँखों से दिख रहा है वही सत्य है, शरीर ही सच है बाकी सब झूठ है! ये लोग सूक्ष्म और कारण शरीरों मे विश्वास नही रखते है! स्थूलशरीर ही आत्मा है! इनके अनुसार सामने दिखायी दे रहे स्थूल शरीर को मिथ्या कहना और सामने नही दिखने वाली आत्मा को सत्य कहना मूर्खता है एवम मरने के बाद पुनर्जन्म होना असत्य है! इस मत के अनुसार स्थूलशरीर का पतन ही मोक्ष  और सत्य है बाकि स्वर्ग लोक, परलोक, पुनर्जन्म, पुण्य किए हुए लोग परलोक मे सुखी रहेंगे, मरने के बाद उन लोगों की उन्नती के लिये श्राद्ध करना वगैरह-वगैरह इत्यादि सब अर्थहीन व्यर्थभाषण और अज्ञान है! सुख और दुःख दोनों जीवित लोगों के लिये है! चक्रवाक मत के लोग पवित्र वेद एवम उस मे लिखी गई बातो को असत्य मानकर निंदा करते है! उनके अनुसार यह शरीर पृथ्वि, जल, अग्नि, वायु और आकाश सब इन पांच तत्वों के मिलने से ही चेतनासहित होता है और अपने आप ही जीवित शरीर पैदा होता है! पाँच भूतो की संगत टूट जाना ही मरण है, टूट जाने के बाद यानी मरने के बाद जीव को रहने के लिए जगह नही रहती है इसीलिये बाहर चला जाता है और इस भौतिक शरीर को जीव छोड़ देता है! घडा है तो उसके अंदर आकाश रहेगा! जब घडा टूट जाता है तो उसके अंदर का आकाश कही नही जाएगा उधर ही रहेगा! ऐसे ही जब पाँच भूतों से बना हुवा शरीर नही रहता है तो जीव कही दूसरे प्रपंच मे नही जाएगा बल्कि उधर ही रहेगा! इसी कारण जीव और शरीर एक ही है ऐसा चारवाकों का सिद्धांत है!
हिंदू धर्म के अनुसार बहुत कुछ संस्कार मनुष्य की मृत्यु के बाद 12 या 13 दिन तक करते है ताकि मृतक की आत्मा की उन्नति हो सके, ततपश्चात भी प्रत्येक वर्ष उस दिवंगत मनुष्य के मरण की तिथि को श्राद्ध कर्म वगैरह गया, काशी(वाराणसी), ब्रह्मकपाल पुण्य तीर्थों मे तर्पण इत्यादि संस्कार करते है! उन समय गंगा, यमुना, गोदावरी, कृष्णा इत्यादि नदियों मे पुण्यस्नान वगैरह करते है! चक्रवाकों के अनुसार ये सब पागलपन है!
                  
जैनधर्म---                                  
जीवात्मना स्थितस्योति ज्ञानमात्रेन सर्वदा
मुक्तत्वात तस्य देहस्य पातात्तु समनंतरं!
जिनदेव सभी प्राणियों के हृदय मे रहते है! जिनदेव ज्ञान का प्रतीक है इसीलिये वे मुक्त है! कुछ शुद्धि हेतु स्नान संस्कारों से ये शरीर शुद्ध नही होता है, स्थूलशरीर पतनानंतर ही आत्मा शुद्ध होती है! 
जैन लोग दो प्रकार के होते है! वे है जैन और अरहत! जिन लोगों को जैन धर्मशास्त्रों का और विधियों का पूर्ण ज्ञान है वे अरहत है!
सप्तभंगी ज्ञान अरहतों का प्रमुख वेदांत है! यह सप्तभंगी ज्ञान सात प्रकार का है, जो सप्तभंगी ज्ञान मे पंडित है वो मुक्तजीवी है! सप्तभंगी ज्ञान के अनुसार यह जगत, प्राणी, प्राणीयों के अपने-अपने कर्मबंधन सब ही नित्य है, इसी कारण इन चीजों मे आदि और अंत नही है! 
सप्तभंगी ज्ञान
1)श्यादस्तिकं.................................वस्तु है एसी भावना! 2)श्यादनिस्तिकं.......................वस्तु नही है एसी भावना! 3)श्यादस्तिनस्तिकं. .....वस्तु है, वस्तु नही है एसी भावना! 4)श्यादव्यक्तव्यः.................वस्तु है एसा बोल नही सकता! 5)श्यादस्तिचावक्तव्यः.........वस्तु उपस्थित है मगर उपस्थित है ऐसा बोल नही सकता! 
6)श्यादस्तिचा अवक्तव्यः-----वस्तु उपस्थित नही है मगर
                        नही है ऐसा बोल नही सकता!  7)श्यादस्तिच नास्तिच अवक्तव्यः-----वस्तु है या नही है बोल नही सकता!
सप्तभंगी ज्ञान के अनुसार निश्चय कर सकते है कि वो वस्तु नित्य सप्तभंगी .मे आती है या अनित्य सप्तभंगी मे आती है! पदार्थों का गुण अनंत है! सप्तभंगी भी अनंत है! इसी को श्याद्वाद या सप्तभंगी न्याय कहते है! 
चेतन और अचेतन दो ही चीजों को मानता है जैन धर्म! इस दोनों का ज्ञान ही असली ज्ञान है! उचित चीजों को ग्रहण करना और अनुचित चीजों को त्याग देना ही धर्म  है! जिनदेव के अलावा ईश्वर या परमात्मा नाम का अनादि चेतनास्वरूप और कुछ नही है! सर्वज्ञ, वीतराग, अरहन, केवली, तीर्थंकृत और जिनकर ये छः इस धर्म के अनुसार देवता है! बौद्ध धर्म और जैन धर्म के लोग दोनों श्याद्वाद और सप्तभंगी न्याय को मानते है! प्रत्यक्ष मे अगोचर परमात्मा को दोनों धर्म के लोग नही मानते है!
साथ प्रकार के सप्तभंगी ज्ञान के बारे मे विवरण नीचे दिया गया है!
1) जीव--- मार्गदर्शक, ज्ञानस्वरूप, चैतन्य पदार्थ!
2) अजीव--- चैतन्यरहित पदार्थ!
जीव अजीव का संबंध करते हुए अस्तिकाय बन गये है!    ये अस्तिकाय इस प्रकार से है ;
1) जीवास्तिकाय, 2) पुद्गलास्तिकाय, 3) धर्मास्तिकाय, 4) अधर्मास्तिकाय और 5) आकाशास्तिकाय!
फिर इन मे जीवास्तिकाय तीन प्रकार के है! वे है, बद्ध, मुक्त और नित्यसिद्ध! इन तीनों जीवास्तिकायो की स्थिति तीन विविध प्रकार की है!
नित्यसिद्ध जीवास्तिकाय को अरहन कहते है!. वो बद्ध नही है, मुक्त है!
मुक्त जीवास्तिकाय साधना से मुक्त होता है! बद्ध जीवास्तिकाय हमेशा बद्ध ही रहता है!
2) पुद्गलास्तिकाय-----पृथ्वि, आपः(जल), तेजः (अग्नि), वायु, शरीर और चेतना को पुद्गलास्तिकाय कहते है! अणु सृष्टि का हेतु है!     
3)धर्मास्तिकाय---- जो कर्म हम को आरोग्य, शांति, सुख, सौभाग्यदायक है और हमें प्रापंचिक मोह से विमुक्त करके और भी उन्नत चेतनास्थिति में ले जायेगा उसको धर्मास्तिकाय कहते है!  
4)अधर्मास्तिकाय---- जैन सिद्धांत के अनुसार नही किया गया कर्म जो हमको नीच चेतनास्थिति मे ले जाता है उस कर्म को अधर्मास्तिकाय कहते है! अविश्राँति, अनारोग्य और दुःख इसी नीच कर्म का फल है!
5)आकाशास्तिकाय---ये दो प्रकार का है! अ) लोकाकाश--- ये उन्नत प्रपंच का है, आ) अलोकाकाशसारे प्रपंचों का अतीत है और विमुक्त लोगों का स्थान है!  उपर समझाए गए विषय जीव और अजीव अस्तिकयों के है! 
3)आश्रव
सप्तभंगी ज्ञान का तीसर विभाग है आश्रव! इंद्रियों की सहायता की वजह से पाया गया ज्ञान जो आत्म प्रकाश को स्पर्श करने के लिए उपयोगकारी है उस ज्ञान को आश्रव कहते है!
4)संवर                           
इंद्रिय व्यापारो से उपसंहार करके ज़ो ज्ञान प्राप्ति करता है उस को संवर कहते है!
5)निर्जर 
पिछले जन्मों के संस्कारों से और रजोगुण की वजह से  निर्जर की प्राप्ति होती है! जीव को इस निर्जर के कारण ही पुण्य और पाप का अनुभव करना ही पडता है! पुण्य और पाप के अनुभव के पश्चात पिछले जन्मों के कर्म से मनुष्य मुक्त हो जाता है!
6) बंध
ये सप्तभंगि ज्ञान का छटवा भाग है! जैन शास्त्रों को अरहत दर्शनाए कहते है! अरहत दर्शनाओ के अनुसार कर्म दो प्रकार के है, वे है घातिक कर्म और अघातिक कर्म! फिर घातिक कर्म चार प्रकार के है और अघातिक कर्म चार प्रकार के है, कुल मिलाकर आठ प्रकार के कर्म है!
अ) घातिक कर्म---
1) ज्ञानावरणीय----मोक्ष सिर्फ ज्ञान से ही लब्ध है, ऐसा विश्वास नहीं करना!
2) दर्शनावरणीय----क्या जैन शास्त्रों को पढने से ही मोक्ष ज्ञान लब्ध होगा?
3)मोहनीय---गुरु की बात का आचरण नहीं करना!
4)अंतराय----ज़ो ज्ञान मोक्षप्रतिबंध है उस ज्ञान का अभ्यास करना!
इन चार घातिक कर्मों को ज्ञान में रुकावट करनेवाला ज्ञान कहते है!
आ) अघातिक कर्म---
1) वेदनीय---सत्वगुण से यानि सकारात्मक गुणों से प्रकाशमान शरीर को वेदनीय कहते है!
2) नामिक---- मै सकारात्मक गुणों से विराजमान हूँ ऐसी दृढनिश्चय भावना का होना, मै माँ के तीन दिनों का गर्भस्त पिंड हूँ ऐसी भावना को नामिकं कहते है! गर्भस्त पिंड को कोई भी गुण यानि सकारात्मक या नकारात्मक गुण नही होते है!
3)गोत्रिक--- ये वर्णन नही कर सकता! गर्भस्त पिंड से भी पहले की स्थिती है! इस स्थिती से जिनदेषि केंद्र का शिष्य बनने के लिये अरहत लभ्य होता है!
4)आयुष्क----यह गोत्रिक से भी पहले की स्थिति को यानि शुक्ल और शोणित स्वरूप स्थिति जो शरीर बनने के योग्य है उस स्थिती को आयुष्क कहते है! ये चार अघातिक कर्म ज्ञानप्रतिबंधक नही है!
7) मोक्ष---
ये सप्तभंगी ज्ञान का आखरी सातवा भाग है! यह धर्म और अधर्म के अतीत की स्थिति है, तर्क के अतीत है, अस्तित्व और नास्तित्व के अतीत है! मोक्ष स्त्भिति है!
देह के प्रमाण(अनुपात) के अनुसार जीव की स्थिति होती है मतलब हाथी के शरीर के प्रमाण मे बडा जीव और चीटी के शरीर के प्रमाण मे छोटा जीव रहता है! यानी जीव का प्रमाण(अनुपात) भी प्राणी के स्थूल शरीर के अनुसार छोटा या बडा होता है! इसी कारण जीव और जीव के अंग सर्वदा बदलते रहते है! ऐसा रूप मे परिवर्तन होना नित्य है! जीव के सिवाय इस प्रपंच मे और कुछ नही है! ईश्वर या भगवान या परमात्मा जैसी कोई वस्तु नही है! इस निरीश्वरवाद को बौद्ध और जैन दोनों धर्मों के अनुयाई लोग मानते है! यह प्रपंच और जीव नित्य है एवम इन चीजों का आदि और अंत दोनों नही है! माध्यमिक केवल पदार्थ ज्ञान पर विश्वास करते है परंतु पदार्थ नित्य नही है और पदार्थ तात्कालिक है ऐसा मानते है!
योगाचार्य बुद्धी और शास्त्र विज्ञान को मानते है मतलब बुद्धी के कारण वस्तु के असल मे नही होने पर भी है ऐसा भ्रम होता है, वास्तव मे वस्तु नही है! 
सौतांत्रिक कहते है असली वस्तु अंदर है वास्तव मे बाहर जो दिखायी दे रहा है वो असली वस्तु नही है! बाहर दिखायी देने वाली वस्तु की भौतिकता असत्य है उसके अंदर की चीज सत्य है!
वैभाषिक कहते है शुन्य ही सत्य है! मोहनाश ही मोक्ष है!
वैभाषिक के सिद्धांत को बाकी तीन सैद्धांतिक भी यानि माध्यमिक, योगाचार्य और सौत्रांतिक मानते है!
जैन धर्म के और बौद्ध धर्म के लोग दोनों मानते है की आत्मा नित्य है! मगर दोनों ईश्वर को नही मानते है, इसी को निरीश्वरवाद कहते है! जैन धर्म और बौद्ध धर्म के लोग दोनों ही सप्तभंगी ज्ञान को मानते है!   
आदिशंकराचार्य---
आदिशंकराचार्य दक्षिणभारत के सर्वकालों के महान संत थे! वे ज्ञान का प्रतीक थे!  लोग उनको परमेश्वर का अवतार मानते थे! उन्होने अद्वैत सिद्धांत को उद्भोध किया था! ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या उनका प्रमुख सिद्धांत था! ब्रह्म ही सत्य है बाकी सब मिथ्या है!
जीवश्य देहंत्रितयंहि विद्यते स्थूलश्च सूक्ष्मश्च तथैव कारणं
जीव को स्थूल, सूक्ष्म और कारण ये तीन शरीर होते है! मै परमात्मा से अलग हुँ ऐसा सोचना ही अज्ञान है! मै और परमात्मा एक ही हुँ ऐसा अनुभव करना ही सत्य है और मोक्ष है! मनुष्य केवल स्थूल देह पतनानंतर मुक्त नही होगा!                                         कर्ता भोक्ताहं परमानंदरूपो मन्मानस्वाभीष्टमस्यास्ति यावत तावत क्रीडान्नेषु देहेषु पश्चात देहं त्यक्त्व मुक्त इत्युक्त आह!
मै आत्मस्वरूप हुँ, मै ही कर्ता हुँ, मै ही भोक्ता हुँ, मै आनंदरूप हुँ, मै सच्चिदानंदस्वरूप हुँ ऐसा अनुभव करते हुए मनुष्य मुक्त होता है! ज्ञान या आत्मज्ञान एक है और स्थिर है, चंचल नही है! सुख और दुःख मे, उष्ण और शीत मे आत्मज्ञान चंचल नही होता है! सत्य ही ज्ञान है, ज्ञान ही सत्य है और सत्य ही ब्रह्म है!   
जीव महत या अणु नही है! जीवास्तिकायद्वय् और सप्तभंगि ज्ञान दोनों ही मोक्ष साधन के उपकरण नही बन सकते, दोनों उपस्थित और अनुपस्थित रूप है और ये दोनों परस्पर विरुद्ध है! दो परस्पर विरुद्ध धर्मों को एक ही समय मे एक ही वस्तु यानि जीव या आत्मा के उपर प्रयोग नही कर सकते! केवल ज्ञान से ही मोक्ष प्राप्ति लभ्य है! परमात्मा ही जगतकर्ता है! ब्रह्मांड/जगत/जीव/ये सब मिथ्या है! ये सब स्वप्न जैसा है! जगत की सृष्टि करने वाला, सृष्टि की स्थिति करने वाला फिर सृष्टि को लय करने वाला और सृष्टि मे रहने वाला भी केवल परब्रह्म ही है! परमात्मा ही प्रत्येक चर-अचर प्रपंच मे रह कर नाटक रचा  रहे है!
गुण साम्यं प्रधानं स्यात मत्तत्वादिकरणं
अव्यक्तं व्यक्तब्रह्माच जगत्येकं पराप्तरं!
सत्व, रजस और तम तीन गुण है इन तीनों को मिला के प्रधान कहते है! ये तीनों गुण आपस मे मिल के महत और सृष्टि का व्यक्तीकरण करते है! ये प्रधान जब व्यक्तीकरण नही करते है तब इस को अव्यक्त और कारण कहते है, जब व्यक्तीकरण होता है तब इसी प्रधान को व्यक्त और भौतिक प्रपंच कहते है! ये ज्ञान यानि व्यक्त और अव्यक्त जो जानते है एवम जानकर जो सभी परिस्थितियों मे यानि सुख-दुःख मे, शीतोष्ण मे व्याकुल नही होते है वो ही ज्ञानी है और वो ही मुक्त मनुष्य है!  
ना शब्दमीक्षते      -------------               ब्रह्मसुत्र
शब्द देख नही सकता है! प्रधान तीन ग़ुण सम्मित है! ये सम्मिश्र शब्द रहित नही है! ये सम्मिश्र शब्दसहित है! शब्दसहित प्रधान जो देख नही सकता है इस सृष्टी का कारण नही हो सकता है! परब्रह्म/परमात्मा/ब्रह्मन् सब एक ही है! ब्रह्म सिवाय सब जड है, ब्रह्मन ही चैतन्यवंत है बाकी सब जड है! जड और अचेतनात्मक पदार्थ सृष्टि नही कर सकते,   इसी कारण सचेतनात्मक ब्रह्मन ही सृष्टिकर्ता है!
पृथ्वि,आपः(जल), तेज(अग्नि), वायु, आकाश ये सब पंचभूतों का व्यक्तीकरण परमात्म के कारण से हुआ, परमात्मा ही नित्य है! परमात्मा यानि सृष्टिकर्ता की इच्छा के अनुसार सृष्टि, स्थिति और लय होती है! वेद भी नित्य नही है, केवल परब्रह्म ही नित्य,सत्य और अनंत है!
कर्म को मानो और करो मगर उसी कर्म को छोडो मुक्ति पाने के लिये ऐसा कहते है मीमाँसक! सत्य एक ही है, परमात्मा सगुणरूप मे स्पर्शनीय है और निर्गुण निराकाररूप मे अस्पर्शनीय है!.
वेदांत् ---
निस्त्रैगुण्योभव----सत्व, रज और तम तीनों गुणों का त्याग करो! परमात्मा को संपूर्ण समर्पण करना ही मोक्ष का मार्ग है! परमात्मा सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञानी और सर्वव्यापी है! आप इलाहाबाद मे स्नान करो या हरिद्वार मे स्नान करो उस स्नान को गंगा स्नान ही कहते है! गंगा का प्रवाह या नदी एक ही है, स्थान अलग-अलग हो सकता है! निमित्त कारण, द्रव्य कारण सब परमात्मा ही है!  माया परमात्मा का भाग है जिसको साधना कारण कहते है! 
मीमांसिका वेद कर्म ही हर एक को लक्ष्य कहते है! उपनिषदों को वेदांत कहते है! परमात्मतत्वज्ञान इन उपनिषदों से मिलते है! आदिशंकराचार्य असली मे वेदों को भी नित्य नही मानते है! परमात्मा ही नित्य है! आप को मुक्ति या मोक्ष पाने तक ही वेद के ज्ञान की जरूरत है, जैसे नदी पार करने तक ही नैया की जरूरत होती है, उस के बाद नैया का क्या लाभ? समस्त चीजे नाश हो जाएगी परमात्मा के सिवाय!
बौद्ध धर्म---
मोक्ष पाने के लिये शरीर को शुष्क करने की एवम कठोर व्रत नियम पालन करने की आवश्यकता नही है! बुद्ध ने सत्य मार्ग पर रहने के लिये अष्टांग मार्ग का उद्बोबोध किया था! वह है----
1) सम्यक दृष्टि---दुःख, दुःख हेतु, दुःख उपशमन मार्ग का ज्ञान होना, 2) सम्यकसंकल्प---- इंद्रियसुखों का, द्वेषभावों का त्याग करना, दूसरों को हानी नही करना और ठीक विचार होना, 3) सम्यक वाक---- सत्यवाक्यपालन करना,, 4) सम्यक कर्म----- सत प्रवर्तन, अहिंस, चोरी नही करना, 5) सम्यक जीवन--- नीति नियमों के अनुसार जीवन बिताना, 6) सम्यक कृषि---- दुष्टस्वभावों से दूर से निबद्धता से रहना, 7) सम्यक स्मृति--- परिपूर्णमन  और 8) सम्यक समाधि--- शांति से रहना!
बाह्यार्थवाद, योगाचार और माध्यमिक बौद्ध धर्म मे मुख्य है!
सौत्रांतिक और वैभाषिक बाह्यार्थवाद दो प्रकार के है!   
अनुमान प्रमाण मे विश्वास रखते है सौत्रांतिक! जो कोई भी किसी प्रकार का ज्ञान पाना चाहते है वो इस अनुमान प्रमाण से पा सकते है!
प्रत्यक्ष प्रमाण मे विश्वास रखते है वैभाषिक! ये लोग जो सामने दिखायी दे रहे है उस चीज मे ही विश्वास रखते है!
मगर सौत्रांतिक और वैभाषिक दोनों की भावना एक ही है वस्तु नाश के बारे मे!
विज्ञानवादिय और सून्यवादिय नामक योगाचार्य भी दो प्रकार के है! आत्मज्ञान क्षणिक है और विविध प्रकार का है ऐसा विज्ञानवादियों का विश्वास है!
साँख्य सिद्धांत---
प्रकृति और पुरुष दो अलग अलग चीजें है! कारण को समझनेवाला और जाननेवाला पुरुष है! पुरुष निर्गुण और निराकार है! मख्खन को उष्णता के पास रखने से पिघल जाता है, उस को उष्णता पर सीधा रखने की जरुरत नही है! एसे ही पुरुष प्रकृती के पास होने की वजह से प्रकृती मे हलचल प्रारंभ होकर सृष्टी का आरंभ होता है! प्रकृती को माया भी कहते है! पुरुष स्वयं कुछ नही करता है!
आत्मा और पुरुष एक ही चीज है! पुरुष सब का कारण होते हुवे भी स्वयं कुछ नही करता है!
सृष्टी का कारण माया है! समस्त जगत 24 तत्वों से बना हुआ है! ये माया से ही शुरु होता है, इसी कारण माया पहला तत्व है और इसी माया को प्रधान कहते है!
इसके बाद का तत्व महत है! समिष्टि, प्रकृति और मेधा को महत कहते है और व्यष्टि मे भी ये ही मेधा उपलब्ध है!
ततपश्चात अहंकार का व्यक्तीकरण हुआ! ये अहंकार दो प्रकार का है! 1) सचेतनात्मक प्राणशक्ति जिसमे शक्ति, जागरुकता, बुद्धि, पाँच ज्ञानेंद्रिया और पाँच कर्मैंद्रियाँ 2) , बुद्धि, पांच ज्ञानेंद्रिया और पांच कर्मेंद्रिया, 2) अचेतनात्मक पांच तन्मात्राएँ और पांच महाभूत!   
आँखें, नाक, कान, जीभ और त्वचा ये पांच ज्ञानेंद्रियाँ है! बाहरी चीजों का ज्ञान इन्ही पांच ज्ञानेंद्रियों से उपलब्ध होता है! मुख, पाणि, पाद, गुदा और लिंग पांच कर्मेंद्रियाँ है!
सुनने की शक्ति, स्पर्शन की शक्ति, देखने की शक्ति, स्वाद की शक्ति और सूंघने की शक्ति को तन्मात्रा कहते है! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वि को पंचमहाभूत कहते है! इन 24 तत्वों को यानि प्रकृति, महत, अहंकार, मन, पांच ज्ञानेंद्रियाँ, पांच कर्मेंद्रियाँ, पांच तन्मात्राएँ और पांचमहाभूत सब मिल के जगत या जीव का व्यक्तीकरण होता है! साँख्य मे ब्रह्मन का प्रस्तावना नही है! वेदांत के अनुसार प्रकृति और माया सब एक ही चीज का यानि ब्रह्मन का भाग है!सत्व, रजस और तमस तीन गुण है! वेदांत और साँख्य दोनों इस विषय मे सम्मत है! इन तीनों गुणों के कारण मनुष्य दुःख पाता है! इन 24 तत्वों के त्याग से ही मुक्ति लभ्य है! प्रकृती ही द्रव्य, निमित्त और साधना का कारण है!
सत्व, रजस और तमस इन तीनों गुणों के व्यक्तीकरण को ही समिष्टी मे महत और व्यष्टी मे बुद्धि कहते है! बुद्धि से पत्थर तक सभी चीजो का हेतु इन तीनों गुणों का कई प्रकार का मीलाप है! व्यत्यास सिर्फ स्थूल,सूक्ष्म और कारण मे है! कारण सूक्ष्म और कार्य स्थूल है! मन सब विचारो को इकट्ठा करके बुद्धि को भेजता है, बुद्धि क्या करना है क्या नही का निश्चय करती है, व्यष्टि मे बुद्धि और समिष्टि मे महत होता है! अहंकार इसी महत से बाहर आया है!
कारण सृष्टि और सूक्ष्म सृष्टि बाद मे हुए! सूक्ष्म परमाणुओ के मेल से स्थूल जगत उत्पन्न हुआ! यह पुरुष प्रकृति और तीनो गुणों के अतीत है! बुद्धि, मन, तन्मात्राएँ, स्थूल, सूक्ष्म और कारण सृष्टियो से अतीत है पुरुष! पुरुष नित्य है, पुरुष अनंत है! बुद्धि(व्यष्टि मे) और महत( समिष्टि मे) पहले आया ततपश्चात पदार्थ आया! अंतर्गत कारण शक्तियों को मन कहते है! बाह्य स्थूल शक्तियाँ और अंतर्गत कारण शक्तियाँ मिलके स्थूल शरीर और स्थूल प्रपंच बन गया!
तं कापिलप्राहुच मूलयोनिः किंवा स्वतंत्राचिदधिष्ठितावा
जगन्निदानं वदसर्ववित्वानोचेत प्रवेशस्तव दुर्लभश्यात!      
क्या मूलप्रकृति के स्वतंत्र प्रवृत्ति के कारण इस जगत का बीज हेतु होता है या सचेतनात्मक ब्रह्म के साथ मिल के इस जगत का बीज हेतु होता है? साँख्यों का विश्वास है कि प्रकृति जड नही है वह सर्वस्वतंत्र है और इसी कारण इस जगत का बीज हेतु होता है!
स्वयं स्वतंत्रात त्रिगुणात्मिकासती!  
प्रकृति मे सकरात्मक सत, तटस्थात्मक रज और नकारात्मक् तम तीनो गुण है! इन तीनो गुणो का कई प्रकार से मिलाप होकर सृष्टि का व्यक्तीकरण हुआ है! प्रकृति का मतलब स्वभाव और इसी स्वभाव के कारण सृष्टि, स्थिति और लय होता है!
परमाणुवाद---
विधायसृष्ट्वा विविधांश्चजीवानानैस्वयंसाक्षिवदेषपूर्णः
                          शंकरविजयं 1542294 ब्रह्मन ही इस जगत का कर्ता है! वह पृथ्वि, जल, अग्नि, वायु और आकाश पंचभूतों से इस जगत का व्यक्तीकरण करता है! सृष्टि आरंभ मे इस पांचों को जोडती है और नाश मे तोडती है! इन्ही सूक्ष्म पंचभूतों के संगत से सृष्टि और इन्ही पंचभूतों के अलग होने पर प्रलय होती है!
आदिशंकराचार्य कहते है कि केवल परमात्मा के कारण आकाशादि पंचभूत उत्पन्न हुए, केवल परमात्मा ही नित्य है! परमेश्वर के कारण उत्पन्न हुई चीजो को उन्ही के आज्ञानुसार प्रवर्तन करके सृष्टि और प्रलय वृत्त मे रहना पडेगा! जड पदार्थों को स्वातंत्रता असाध्य है, जड पदार्थ स्वयं संयोग और वियोग नही कर सकते है!    
कुछ व्याख्याए---
सतकर्म का अर्थ संघ के और अपने अच्छे के लिये काम्यकर्म करना! सतकर्म इष्ट और पूर्त नामक दो प्रकार के होते है! इष्ट का अर्थ यज्ञ इत्यादि और पूर्त का अर्थ पानी का तलाब खुदवाना, अस्पताल और पाठशाला इत्यादि का निर्माण करवाना! 
राष्ट्रंवा अश्वमेधः                     शतपथ 13163   
राजा का अपने राज्य और प्रजा का धर्म और न्याय से पालन करने को अश्वमेध कहते है, मुक पशुओ को देवताओ की प्रीति के लिये बलिदान देना अश्वमेध नही है!
अन्नंहि गौः                    शतपथ 43125 अग्निर्वा अश्वः                   शतपथ 3555


आज्यं मेथः                   शतपथ  132112 अन्न और इंद्रियों को शुद्ध रखना ही गोमेथ है!
जैसा अन्न हम ग्रहण करते है वैसे ही हमारी इंद्रिया भी काम करती है! गोक्षीर, फल इत्यादि सात्विक आहार लेने से इंद्रिया भी शांत रहेगी, माँसभक्षण करने से राजसिक गुण प्रबल होकर अशांति और क्रोध उत्पन्न होगा, तामसिक भोजन करने से अज्ञान और निद्रा स्वभावयुक्त होगा!
आयुस्सत्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः
रस्याः स्निग्धाः स्थिराहृद्याआहाराःसात्विकप्रियाः!
                                     गीता 7----8 आयु, मनोबल, स्थूलदेह बल, आरोग्य, सौख्य, प्रीति वृद्धि करनेवाला, रसदार, चिकना(तेली), शरीर मे ज्यादा देर तक रहनेवाला और मनोहर भोजन सत्वगुणी मनुष्य को पसंद होता है!
कत्वाम्ललवणातुष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः
आहाराराजसस्येष्णादुःखस्शोकामयप्रदाः.....गीता 7----9
कडवा, खट्टा, लवणयुक्त, ज्यादा उष्ण, ज्यादा मिर्चीवाला, तेलरहित, ज्यादा प्यासयुक्त, शरीर को दुःख देनेवाला और मन को व्याकुल करने वाला भोजन रजोगुणी मनुष्य को पसंद होता है!
यातयामंगतरसं पूति पर्युषितंचयत
उछ्छिष्टमपिचामेध्यं भोजनंतामसप्रियं!.....गीता 7----10

ठीक से पका नही हो, साररहित, दुर्गंधपूरित, बासी भोजन(बन के चार घंटे से उपर हुए हो), झूठा, भगवान को निवेदन नही किया गया, अशुद्ध भोजन तमोगुणी मनुष्य को पसंद होता है!
मनुष्य के मरण के बाद जो दाह संस्कार करते है उस को नरमेथ कहते है!
पृथ्वि, जल, अग्नि और वायु के परमाणुओ के मिलन की वजह से आकाश नीले रंग का दिखाई देता है!
अमेरिका एक दम भारत के नीचे है, इसी कारण इस देश को पाताक लोक कहते है! महाभारत युद्ध कुरुक्षेत्र(अभी का हरियाणा राज्य) मे हुआ था! महाभारत युद्ध उस समय का प्रपंच युद्ध था! इस युद्ध मे कई देशों के लोग शामिल हुए थे! बभ्रुवाहन पाताल लोक (अमेरिका) से आया था! शल्य इरान से आया! भगदत्त चीन से आया!
संस्कृत भाषा मे एक शब्द आता है मंत्री ! इसी मंत्री शब्द से मंत्र और मंत्रांग दो शब्द और निकले है! जो विद्वान हो और अच्छा भी सोच सकता हो उनको मंत्री कहते है! जो सोच मन की रक्षा करती है उसको मंत्र कहते है! सोच की पद्धती को मंत्रांग कहते है! सब कुछ सोच से ही लभ्य होता है जैसे दवाइयाँ, अस्त्र-शस्त्र, लिखना, पढना, कविता, और बहुत सारे निर्माणात्मक कार्य! महाभारत मे जो अस्त्र-शस्त्र जैसे अग्निआस्त्र, वारुणास्त्र, नागपाश, और सम्मोहनास्त्र यह सब सोच से ही लभ्य हुआ! अस्त्र का अर्थ आयुध, जिस अस्त्र से आग निकलती है उस अस्त्र को अग्निआस्त्र, जिस अस्त्र से जल निकलता है उस अस्त्र को वारुणास्त्र, जिस अस्त्र से इंद्रिया अचेतावस्था मे आ जाए उस अस्त्र को नागपाश और जिस अस्त्र से शत्रु सम्मोहित हो जाय उस अस्त्र को सम्मोहनास्त्र कहते है! नाग का अर्थ है इंद्रियाँ! अग्निआस्त्र के आयुध मे जलने वाले पदार्थ डालते है जो शत्रु पर प्रयोग करने से वायुमंडल की प्राणवायु के साथ मिल के अग्नि उत्पन्न करते है! वारुणास्त्र मे उदजन गैस(हैड्रोजेन) और प्राणवायु(आक्सिजन)को कुछ इस तरीके से बंद करते है कि जब शत्रु पर इस का प्रयोग होता है तब इस वरुणास्त्र के अंदर की उदजन गैस(हैड्रोजेन) और प्राणवायु(आक्सिजेन) आपस मे मिलकर वायुमंडल मे जल की उत्पत्ति करते है!
चिकित्साशास्त्र मे किसी अंग को काटने या चिर-फाड करने के पहले उस अंग को अचेतन करने के लिये एनेस्थीसिया देते है, ऐसे ही नागपाश प्रयोग करने पर शत्रु की इंद्रियाँ कुछ समय के लिये अचेतन हो जाती है!
भारत---
जब विश्व के दुसरे देशो ने चलना भी नही सीखा था, ज्ञान-विज्ञान का क-ख-ग भी वे लोग नही जानते थे उस समय मे इस महान, पवित्र भारत भुमि पर महाविद्वानो, पतंजलि जैसे योगीओ, चक्रवर्तीओ मे चक्रवर्ती राजा जैसे शिबि, ज्ञानी राजाओ मे जनक जैसे राजा इत्यादि, संतों मे वशिष्ठ, विश्वामित्र जैसे संत इत्यादि हो चुके थे! विश्व मे विविध धर्म, विविध प्रकार की विद्याए ये सब इसी भारत की ही देन है! पांच हजार वर्षॉं पहले महाभरत युद्ध मे विविध क्षेत्रों के विद्वान, दुरंधर लोग दिवंगत हुए!  
निरस्त पादपेदेशे एरंडोपि द्रुमायते यस्मिन देशे द्रुमोनास्ति तत्र येरंडोपि द्रुमायते!
अलसी या अरंडी का पौधा बहुत छोटा होता है, जहा पेड पौधे नही होते है उस प्रदेश मे ये पौधा ही बडा गिनाया जाता है! ऐसे ही महाभारत युद्ध मे समस्त विद्वानो, पंडितो, विज्ञानीको, शुरवीरो के मारे जाने के बाद जो थोडे बहुत अल्पज्ञानी, अल्पमति वाले बचे थे उन को ही महाविद्वान, महापंडित माना जाने लगा! 
कुलक्षये प्रणश्यंति कुलधर्मास्सनातनाः
धर्मे नष्टेकुलं कृष्णं अद्हर्मोभि भवात्युता!......गीता 140
समाज मे जाति या वर्ग को कुल कहते है! गुणों के अनुसार समाज मे वर्ग या जाति को निर्धारीत करते है! जाति का निर्मूलन या नाश होने पर उस वर्ग के गुण भी नष्ट हो जाते है, ततपश्चात धर्म का नाश हो जाता है! धर्म नष्ट होने से पूरा समाज और उस के साथ-साथ नागरिको का भी नाश हो जाता है! महाभारत युद्ध के बाद सच मे ये ही हुआ! पुरातन अनुभवैद्येक ज्ञान, धर्म और वेदविद्या बहुत नष्ट हुए! समाज बच्चे, विधवाए और अशक्त-अनासक्त वृद्धजनो के हाथों मे आ गया! बच्चे, विधवाए और अशक्त-अनासक्त वृद्धजन अवसर के अनुसार विवाह करने मे लग गए! विद्वान, अनुभवी बुजुर्ग गुरुजनो का मार्गदर्शन दूर हो गया! चक्रवाकों, कापालिकों इत्यादि बहुत सारे धर्मों ने जन्म लिया! जिसके पास ताकत थी वे ही राजा बन गए, राजा को जो उचित लगा वो ही धर्म अपनाया और लोगों को भी ताकत के बल पर मनवाया! जो राजा की बात नही सुनता उस मनुष्य का वध कर दिया गया! संपुर्ण भारत तुकडे-तुकडे हो गए! कामवासनाए, माँसभक्षण, लैंगिक सुख के लिये पशु जैसा व्यवहार, शास्त्रो को अपने लाभ के अनुसार अनुवाद करना इत्यादि सर्वसाधारण हुआ! देवताओ को संतुष्ट करने के बहाने से माँसभक्षण के लिये मूक पशुओ की और रास्ते मे जो भी रुकावट बना उन लोगों के बाल-बच्चों को भी भगवान या देवता चाहते है ऐसा कहकर बलिदान करना ततपश्चात उसी पशु को या कभी-कभी बली दिए गए बच्चों को भी पका के उन का माँस खाना सर्वसाधारण हुआ! वेदों और शास्त्रों की बहुत सी शाखाए नष्ट हुई और उन नष्ट हुई शाखाओ मे इन पशु, नर बलिदान और माँसभक्षण के बारे मे लिख कर लोगो मे मिथ्या प्रचार किया गया कि शास्त्रो मे ऐसा लिखा है! आम के पेड की शाखाए काटने पर जब फिर से शाखाए और पत्ते आते तो वे उसी पेड के आते है किसी दूसरे पेड के नही! परमात्मा परमदयालु, न्यायशील और धर्ममूर्ती है ये बाते जो वेदों की शाखायें लभ्य है उन मे लिखा है, तब अलभ्य वेदों की शाखाओ मे परमदयालु, न्यायशील और धर्ममूर्ती परमात्मा निर्दय, अन्यायशील और अधर्ममूर्ती हो कर नरबलि और पशुबलि को प्रोत्साहन देगा क्या?
एकंसत विप्रा बहुधा वदंति’’!
परमात्मा एक ही है मगर ज्ञानी लोग वे बहुत है ऐसा बोलते है! जैसे गंगा का पानी हरिद्वार मे पीओ या इलाहाबाद मे आखरी मे वो गंगा का पानी ही है, वही पानी अलग-अलग प्रदेशो मे पीने पर भी गंगा का नाम तो अलग-अलग नही होगा! ऐसे हम लोग अज्ञानता के कारण एक ही परमात्मा को विविध नामों से पुकार के और मेरा भगवान तेरे भगवान से अधिक है कहकर आपस मे झगडा कर रहे है! तुलनात्मक विधि मे अपने-अपने भगवान का पत्थर, लकडी, मिट्टी, सुवर्ण, रजत, पितल, ताम्र, लोहा इत्यादि से मूर्तियाँ बनाके सर्वव्यापी, निराकार, निर्गुण परमात्म को इन मूर्तियों मे परिमित(सीमित) करने की मूर्खता और व्यर्थ प्रयास का प्रदर्शन करके अनाडी, अज्ञानी लोगों को भटका रहे है और मुर्ख बना के धन कमा रहे है!
महाभारत युद्ध के पश्चात भारत छोटे-छोटे क्षेत्रों मे या राज्यों मे बाँटा गया! गुरुकुल विद्यापद्धति का दमन कर के संस्कृत भाषा के बदले मे अपने-अपने प्रांत की भाषाओ को ज्यादा प्रामुखता दे दि गई!          
चातुर्वर्ण्यं मयसृष्टं गुणकर्मविभागिना
तश्य कर्तारपि मां विद्धि अकर्तारं अव्ययं!     गीता 4----13
ब्राह्मिन, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र इन चार वर्णों को जन्म के अनुसार नही उन के गुणों के अनुसार मैने बनाया! 
उस धर्म का जिसे स्वयं श्रीकृष्ण ने प्रतिपादन किया, उस सिद्धांत को छोड कर लोगों ने अधर्म का अनुसरण करना आरंभ किया! कुल या वर्ण जन्म के अनुसार यानि ब्राह्मण के यहा पैदा होने से ब्राह्मण, क्षत्रिय के यहा पैदा होने से क्षत्रिय ऐसा पहचानना शुरु किया, गुणों के अनुसार पहचान का अंत कर दिया! कप्तान, मेजर, कर्नल, ब्रिगेडियर, जेनेरल जैसे वेदो के समय मे ब्राम्हण, क्षत्रिय इत्यादि वर्ण योग्यता के अनुसार एक पद होता था! बाद में राजाओ के वंशज ही राज करेंगे ऐसा खानदानी हक बन गया! निकम्मा,असमर्थ होने पर भी खानदानी हक से राजा बनना आरंभ हुआ! राजा धीर, कर्तव्यपरायण और सत्यवादी होना चाहिये! खानदानी परम्परा एवम कुलव्यवस्था के कारण बलहीन, बुद्धिहीन राजाओ का   आना आरंभ हुए जिस की वजह से धर्म भ्रष्ट हो गया और असमर्थ नायक, राजा प्रजा का गलत रीति से पालन करने लगे! इस का नतीजा यह हुआ कि राजाओ के बीच मे और राजाओ के भाई-बहनों मे राज्य के लिये संघर्ष होने लगा, प्रजा की स्थिती और बिगड गई जिससे भारत  का और भी पतन हुआ! इस स्थिति को देख विदेशी लोगो ने भारत को अपने अधीन कर यहा की संस्कृती, सभ्यता और संपत्ती को लुटा एवम उनका नाश कर अपनी विदेशी संस्कृति एवम सभ्यता को यहा के लोगो पर थोप दिया!
उपदेश्योपदेष्टृत्वात तत सिद्धिः इतरथांथ परंपरा
                              सांख्यं 3---79---81 जिस देश मे अच्छे विद्वान गुरु लोग होंगे तभी वह देश विकास करेगा नही तो अवश्य उसका नाश हो जाएगा!
चतुर्दशविद्या---
ज्ञान की चार शाखाऐ है---
1) चार वेदऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद!
2) षडंग--- शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त, कल्प, छंद, और ज्योतिष!
शिक्षा वेद की नाक, व्याकरण वेद का मुँह, निरुक्त वेद के कान, कल्प वेद के हाथ, छंद वेद के पाद, और ज्योतिष वेद की आँखें!
3) चार उपांग----ये कुछ विषयो को सहायता करने वाली चीजें है! वह हैमीमांसा, न्याय, पुराण और धरमशास्त्र! 
शिक्षा---
हर एक शब्दांश को कुछ विशिष्ठ पद्धती मे उच्चारण करना है, न अति कम न अति ज्यादा, एकदम बराबर और उचित! जैसे हम किसी को कहे कि मुँह बंद करोतो वह हम से कुपिता हो जायेगा मगर उसी को हम ऐसा कहे थोडा शांत रहोतो वह कुपित नही होगा! ऐसे ही स्वर की इन मंत्रों मे प्रामुख्यता है! .
व्याकरण---
शरीर मे जैसे मुख यानी चेहरा होता है वैसे ही भाषा मे व्याकरण होता है! ये भाषा की विशेषता का प्रदर्शन करता है!
छंद (पाद)---
ऋगवेद और सामवेदों के ऋक्क(मंत्र) पद्य के रूप मे है!  यजुर्वेद मे पद्य और गद्य दोनों है! वेदों मे सभी मंत्र पाद रुप मे है, इसी रुप को छंद या छंद शास्त्र कहते है! वेदो मे जो छंद है उन मे अलग-अलग व्याकरण सुत्रो का उपयोग किया गया है! कोइ भी मंत्र हो उसे इस छंद शास्त्र के अनुसार ही पढना पडेगा!
महावाक्य---
प्रज्ञानंब्रह्म---ज्ञान ही ब्रह्म है! ये महावाक्य ऐतरेय उपनिषद का है जो ऋगवेद मे आता है! ऋगवेदीय यज्ञों मे मंत्रों को पढनेवाले ब्राह्मिन को होता कहते है! 
अहं ब्रह्मास्मि---मै ब्रह्म हूँ! ये महावाक्य बृहदाराण्यक  उपनिषद का है जो यजुर्वेद मे आता है! यजुर्वेदीय यज्ञों मे मंत्रों को पढनेवाले ब्राह्मिन को अधर्व कहते है!
तत्वमसि---वो परमात्मा तुम स्वयं हो! ये महावाक्य छांदोग्य उपनिषद का है जो सामवेद मे आता है! सामवेदीय यज्ञों मे मंत्रों को पढनेवाले ब्राह्मिन को उद्गाता कहते है! 
अयं आत्मा ब्रह्म---यह आत्मा ही ब्रह्म है! ये महावाक्य मांडूक्य उपनिषद का है जो अथर्ववेद मे आता है! अथर्वववेद यज्ञों के मंत्रों को होता, अथर्व और उद्गाता सब मिलकर पढते है और यज्ञ करवाते है! अथर्वववेदीय यज्ञो के व्यवस्थापक ब्राह्मिन को ब्रह्म कहते है इस यज्ञ के व्यवस्था की समस्त जिम्मेदारी इसी ब्रह्म की होती है!   
पवित्र मंत्रों को विशिष्ठ पद्धति मे पढते है! कुछ मंत्रों को गला उठाकर यानि उच्च स्वर मे, कुछ मंत्रों को गला नीचे करके यानि नीच या मंद स्वर मे और कुछ मंत्रों को गला सीदा करके यानि समान स्वर मे पढते है! उच्च स्वर मे जो मंत्र पढते है उन मंत्रों को उदत्ता कहते है, नीच स्वर मे जो मंत्र पढते है उन मंत्रों को अनुदत्ता कहते है, समान स्वर मे जो मंत्र पढते है उन मंत्रों को स्वरिता कहते है! ऐसा गाने के लिये यानि उदत्ता, अनुदत्ता और समान स्वरों मे गाने के लिये सुदीर्घ शिक्षना करना चाहिये!
नाटक अथवा नाट्य मे एक पात्र को नट कहते है!
संगीत और साहित्य मे अच्छे जानकार को विट कहते है!संगीतकार को गायक कहते है!उच्चारण, स्वर, मात्रा, समा और सांत्वना यह सब बेहतरीन गाने के अंग है!
उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्यवरान्निबोधित क्षुरश्य धारा निशितः दुरत्याय दुर्गं पतस्थ कवयो वदंति!     कठोपनिषद 3---14
अज्ञान से जागो, परमात्मा को पाने तक अप्रमत्ता से रहो,  तलवार की धार पर चलने के लिये जितनी जागरूकता की जरुरत होती है उतनी ही जागरूकता की जरुरत है आध्यात्मिक ज्ञान पाने के लिये! विद्वान कहते है की यह राह कठिन है मगर असाध्य नही!

वेदो मे चार भाग होते है! वे इस प्रकार है:--
1) संहित  2) ब्राह्मण  3) अरण्यक  4) उपनिषद !
1) संहित---ये पेड जैसा है, इस मे प्रार्थाना मंत्र होते है!
2) ब्राह्मण---ये फूल जैसा है, इस मे यज्ञ मंत्र होते है!
3) अरण्यक---ये फल जैसा है, ये पेड जैसा है, परा और अपरा के प्रतिबंध को निकालने का तरीका होता है!
4) उपनिषद---ये वेद का सारांश होता है, अंतर्मुख हो के परमात्मा के साथ मिलने का तरीका होता है!
यज्ञ तीन प्रकार के होते है ;
1) पाक यज्ञ,  1) हविर यज्ञ  3) सोमयज्ञ !
1) पाकयज्ञ---ये सात प्रकार के है, वह है:-- 
अष्टक, स्थालीपाक, पर्वान, श्रावनि, अह्रावनि, अग्रहयानि, चैत्रि, और अश्वायुज,  इन सात प्रकार के पाकयज्ञ मे पशुबलि नही होती है!
2) हविर यज्ञ---ये सात प्रकार के है, वह है:--
अग्नियथन, अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, अग्रायन, चातुर्माश्य, इन पांच हविर यज्ञो मे पशुबलि नही होती है! परंतु निरूढपशुबंध और सत्रामणि इन दो प्रकार के हविर यज्ञो मे पशुबलि होती है!
3) सोमयज्ञ---ये सात प्रकार के है, वह है:--
अग्निस्थोम, अत्याग्निस्थोम, उक्त्य, षोडसि, वाजपेय, अतिरत्र और अपूर्यमा!इन सात प्रकार के हविर यज्ञो मे पशुबलि होती है! वाजपेय यज्ञ मे 23 पशुओ की बलि देते है, यहा पशु बलि से तात्पर्य मनुष्यो के अंदर विद्यमान पशुओ के समान गुण से है मतलब हमारे अंदर अज्ञानतावश जो पशुओ के गुण है उनकी बलि देकर नर से नारायण बनना!
इन यज्ञो के अलावा अश्वमेध यज्ञ भी होता है जिसमे 100 घोडों की बलि देते है अश्वमेध मतलब इंद्रिया यानि 100 तरह के इंद्रिय अवगुणो की बलि देते है! यह यज्ञ सिर्फ क्षत्रियों के लिये है, योग की भाषा मे जिस व्यक्ति ने ध्यान आरंभ किया है उसे क्षत्रिय कहते है! असली मे अपनी नकारात्मक भावनाओ और क्रियाओ का त्याग करना बली कहलाता है और अपने आपको परमात्मा के साथ जोडना ही यज्ञ कहलाता है!
उपन्यास रचयिता के पास ये चिजे जरूर होना चाहिये ;
1) उपकर्म---उपन्यास को प्रारंभ करने की पद्धति, 2) अभ्यास---क्या बोलना है, 3) अपूर्वत----संदेश् की विशिष्टता, 4) फल---उपयोग या लाभ 5) अर्थवाद---उपन्यास का उद्देश्य यानि विवरण, 6) उपपत्ति---अपने संदेश को प्रतिस्ठापीत करने की पद्धति, 7) उप्संहार---अर्थसहित समाप्त करने की पद्धति !
महेश्वर सूत्र---
ऋलुक, ए ओय, ऐ वोच, हयवरट, लन, न्यमन्नम, यभग्न, घडाधष, जबगडधस, खफछथधव, यैवुन, कपय ये शब्द ओम शब्द से निकले है! स्वर और व्यंजन के लिये यही बीज है!
प्राचीन काल का व्याकरण---
वेदो के पश्चात आई हुई कविताओ मे विविध प्रकार के व्याकरण का उपयोग किया गया था एवम इन कविताओ मे श्लोकों के रूप मे वृत्तांत को समझाया गया था! इसी को छंद कहते है! हर एक श्लोक मे साधारण रूप मे चार पाद होते है! अक्षर, अक्षर और व्यंजन के साथ बने हुए संयुक्त अक्षर इन दोनो को मिलाकर आठ अक्षरो के पदो से बने हुए श्लोक को अनुष्टुप छंद कहते है! उदाहरण के लिये,
शुक्लांबरधरंविष्णुं शशिवर्णंचतुर्भुजं
प्रसन्नवदनंध्यायेत सर्वविघ्नोपशांतये !
इस श्लोक के प्रत्येक पद मे आठ अक्षर होते है एवम यह अनुष्टुप छंद से बना हुआ है!
हर एक मंत्र या प्रार्थना के एक अधिदेवता होते है, प्रत्येक मंत्र एक विशिष्ठ पद्धति से बनता है और उस मंत्र से संबंधित ऋषि होता है! इस मंत्र से संबंधित ऋषि को उनके ध्यान मे वह मंत्र मिला होता है! मंत्र या प्रार्थना पढते  समय साधक या भक्त को अपना हाथ सर पर रख के यह मंत्र जिस ऋषि से संबंधित है उस ऋषि के पैरो को मै स्पर्श करके अपनी भक्ति और गौरव दे रहा हूँ एसी भावना करनी चाहिये!
वेद मंत्रों के पदो मे अक्षरो की संख्या अलग-अलग है! वह 9, 11, 12 अक्षरों के पद होते है! ऐसे पदो से बने हुए मंत्रों मे गायत्री, उस्निक, अनुष्टुप, बृहति, पंक्ति, त्रिष्तुभ और जगति इत्यादि है!वैदिक समय मे कविता के रुप मे लिखा गया आदि ग्रंथ रामायण अद्भुत ग्रंथ है, इसको महर्षि वाल्मीकीजी ने लिखा थ! इस ग्रंथ का पहला श्लोक इस प्रकार का है!
मा निषाद प्रतिस्थं त्वं अगमः शाश्वतीसमः
यत क्रौंचंमिथिन्नादेकं अवधिः काममोहितं !
इस श्लोक का अर्थ दो प्रकार से है ;
1) ऐ शिकारी! तुमने उस क्रौंच पक्षी को मारा है जो अपने साथी के साथ आनंद से रह रहा था! अब उसके दुसरे साथी की तरह तुम भी ऐसे ही अशांती से रहो!
2) रावण और मंदोदरी दोनों काम और अज्ञान से भरे हुए है! रावण वध करके हे राम, तुम नित्य यशश्वी बन गये हो! तो इधर शिकरी श्री राम है जो श्री महाविष्णु के अवतार है!.                                           
सात प्रकार के पदार्थ---
द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये सात प्रकार के पदार्थ है! पृथ्वि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, समय, दिशा, आत्मा(मै) और मन ये नौ प्रकार के द्रव्य है! पृथ्वि, जल, अग्नि, वायु, आकाश को पंचभूत यानि पंच स्पंदनावृत चीजें कहते है! ज्ञान, इच्छा, सुख, दुःख और रंग ये सब गुण मे आते है! कर्म का अर्थ काम! मनुष्य, पशु, पक्षि इत्यादि जातिया सामान्य मे आते है! जातियों के बीच के गुणो के व्यत्यास(भिन्नता) को विशेष कहते है जैसे साधारण गाय और अच्छा दूध देने वाली गाय, साधारण मनुष्य और विद्वान मनुष्य इत्यादि! दोनों एक साथ होना यानि एक के बिना दूसरा हो नही सकता, इस को समवाय कहते है जैसे सूर्य और सूर्य की किरण अलग नही हो सकते! शब्द रहित स्थिति को अभाव कहते है!
निरुक्त---वेदों के कान
निरुक्त का अर्थ होता है शब्दकोश! किसी शब्द का मूल या धातु निरुक्त से पता लगता है! प्रारंभ मे दुनिया की भाषा संस्कृत थी बाद मे स्थानीय बोलचाल की भाषा की उत्पत्ति हुई जिस का मूल संस्कृत था!   .
ज्योतिष-----वेदों की आँखें
खगोल विज्ञान और ज्योतिष विज्ञान दोनों को मिलाकर ज्योतिषशास्त्र कहते है! ग्रह और नक्षत्र मंडल इत्यादियों का स्थान और स्थिति का शास्त्र खगोल विज्ञान है! सूर्य और सौर कुटुंब जैसे चंद्र, बृहस्पति, मंगल, शनि, शुक्र, राहु, केतु इत्यादि ग्रहों का स्थान एवम अश्वनि, भरणि, कृत्रिका इत्यादि नक्षत्रों का स्थान एवम मेष, मिथुन, सिंह, कुंभ, वृश्चिक इत्यादि राशियों का स्थान और स्थिति एवम ये समस्त चीजे कहा पर है शिशु जन्म के समय और उनका प्रभाव शिशु पर क्या हो सकता है यह सब ज्योतिष शास्त्र की परिधि मे आता है!
कल्प-----वेदों के हाथ
जन्म से लेकर मरण तक नित्यजीवन मे मोक्ष पाने के लिये प्रयोग मे लाए जानेवाले संस्कारो के बारे मे जानकारी देनेवाले ज्ञान को कल्प कहते है! जन्म से लेकर मरण तक चालीस संस्कार होते है! इन को गृहसूत्र या स्रौतसूत्र कहते है!                                         मीमांसा---
मीमांसा भी पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा दो प्रकार के है! पूर्व मीमांसा वेदों मे यज्ञों और कर्मकांडों को प्रामुख्यता देते है जिसको कर्मकांड कहते है! उत्तर मीमांसा वेदों मे आत्मज्ञान को प्रामुख्यता देते है जिस को ज्ञानकांड कहते है! ब्रह्मसूत्र और उपनिषद को उत्तर मीमांसा कहते है!
पूर्व मीमांसा---
पहले वेदों के बारे मे एक प्रश्न उठाना, फिर उसकी उत्पत्ति को संशय के रूप मे निकालना इसकी अनोखी पद्धति है! तब प्रत्यर्थी (प्रश्नकर्ता) की बात को सामने रखते है! प्रत्यर्थी को पूर्वपक्षी कहते है! प्रत्यर्थी के संशय का जो निवारण करता है उसको उत्तरपक्षी कहते है! इस वाद और उपवाद के पश्चात एक निर्णय मे पूर्वपक्षी और उत्तरपक्षी दोनों आते है! वादोपवादों के पश्चात दोनो के एक संतृप्तिकर तार्किक निर्णय/परिणाम मे पहुंचने को अधिकरण कहते है! जैमिनि महर्षि इस पूर्व मीमांसा सूत्र के व्यवस्थापक थे! 
सांख्य और मीमांसकों का दोनों का निश्चित अभिप्राय सिद्धांत है कि परब्रह्मन इस जगत का कर्ता नही हो सकता!! अपने-अपने कर्म के अनुसार मनुष्य फल पाता है! ईश्वर सचेतनात्मक, पवित्र, अमलिन ज्ञान का प्रतीक है! यह जगत धूल, पानी, पत्थर इत्यादी से भरपूर है, जड है और नकारात्मक है! सचेतनात्मक किसी नकारात्मक जड जगत का कर्ता नही हो सकता! सभी मनुष्य अपने-अपने कर्म अपने आप ही भुगत रहे है इस मे परमात्मा को जोडना उचित नही है!
मीमांसिकों के अनुसार बाकी सभी कर्मो का विसर्जन करके वैदिक कर्मों का ही अनुसरण करना चाहिये! वैदिक कर्म मनुष्य को आरोग्य, ऐश्वर्य और मोक्ष देते है!
वेदों के ज्ञानकांड यानी उपनिषदों का अनुसरण करने वालें को वेदांती कहते है! वेदांती लोगो के अनुसार सांख्य लोग जिस पुरुष के बारे मे कहते है वह पुरुष निर्गुण ब्रह्म ही है! ये निर्गुण ब्रह्म जगत की रचना के समय सगुणब्रह्म हो के जीवों को अपने-अपने कर्म के अनुसार कर्मफल प्रदान करते है!                                          
न्याय---
न्याय को तर्क शास्त्र कहते है! गौतम ऋषि इस तर्क शास्त्र के व्यवस्थापक थे! न्याय और तर्क दोनों साथ-साथ चलते है, ये अलग अलग नही है! न्यायशास्त्र का अनुसरण करने वालें को नैय्यायिक कहते है! तर्क द्वारा ईश्वर है ऐसा स्थापित करने का प्रयत्न करते है! आकाश जैसी सर्वव्यापी,निर्विकार और केवल ज्ञान से प्रकाशित महाउन्नत स्थिती ही मोक्ष है! ईश्वर कुम्हार जैसा जगत कर्ता है और निमित्त कारण है! ईश्वर ही मार्गदर्शक है!  ईश्वर और जगत अलग अलग चीजे है! जगत नित्य है और ईश्वर जगत का मार्गदर्शक है!
वैशेषिक---
वैशेषिक भी न्यायशास्त्र का ही भाग है! इस के प्रत्येकता(विशेषता) के कारण इस को वैशेषिक कहते है! कणाद ऋषि इस वैशेषिक के व्यवस्थापक है!  इस जगत को परमात्मा ने सूक्ष्म पदार्थों से अलग-अलग मेल-जोल और क्रमशः करके रचाया! व्यष्टात्मा और ये जगत ईश्वर से अलग है ऐसा नैय्यायिक और वैशेषिक दोनों कहते है! परमात्मा इस जगत का करता है! इस सिद्धांत को वैशेषिक अवश्य मानते है और तर्क से स्थापित भी करते है!   
पुराण---
ब्रह्मं पद्मं वैष्णवंच शैवं लैंगं सगारुडं न्नारदीयं भागवतं
आज्ञेयं स्कांदसंज्ञातं भविष्यं ब्रह्मवैवर्तं मार्कंडेयं सवामानं
वराहं मस्त्य कूर्मं च ब्रह्मांडाख्यमिति त्रिषट!
ब्रह्म, पद्म, विष्णु, शिव, लिंग, गरुड, नारद, अग्नि, स्कंद, भविष्य, ब्रह्मवैवर्तं, मार्कंडेयं, वामन, वराह, मस्त्य, कूर्म, और ब्रह्मांड इति अठारह पुराणे है!
हर एक पुराण एक विशिष्ट धर्म और नीति को मृदु मधुर कहानियों और उदाहरणों के साथ प्रामुख्यता देता है और प्रदर्शन करता है! इसी कारण शिव पुराण मे शिवजी के अलावा किसी और देवता को अधिक प्रामुख्यता नही देकर शिवजी को ही परमात्मा कहते है! ऐसे ही विष्णुपुराण मे श्रीमहाविष्णु के अलावा किसी और देवता को अधिक प्रामुख्यता नही देकर श्रीमहाविष्णु को ही परमात्मा कहते है! पृथक पृथक संप्रदायों के अनुयाई/समर्थक अंतरार्थ नही जानते हुवे आपस मे झगडने लगे! सभी सांप्रदायों का अंतिमलक्ष्य एक ही है परमात्मा को जानना और उन्ही मे लय होना! किसी भी पदार्थ का तत्व/मूल(element) लेने पर आखरी मे सूक्ष्माणु(electrons&protons)का समुदाय होता है! सुवर्ण, रजत और ताँबा इत्यादि पदार्थो का तत्व/मूल(element) लेने पर भी सिर्फ सूक्ष्माणु (electrons&protons) के टटियानिर्माण(lattice stracture) की ही भिन्नता है! किसी कंपनी के कर्मचारियों को बोनस देते है ताकि वे और उत्साहिकता से काम करे और कंपनी का उत्पादन बढे! बच्चों को चाकलेट देते है ताकि वे और उत्साहिकता से पढे और अच्छी श्रेणी मे उत्तिर्ण हो! ऐसे ही पुराणों मे लिखी हुई मिठी और आश्चर्यजनक कहानियाँ का मतलब है कि हम परमात्मा को और समीप से जानने के लिये प्रयत्न करें! धर्म, मानव मूल्य, माता-पिता और बच्चों के बीच संबंधो के बारे मे, पति और पत्नि का बीच संबंधो के बारे मे, राजा और प्राजा के बीच संबंधो के बारे मे, सत्य, न्याय इत्यादि विषयों का प्रस्तावन इन अठारह पुराणों मे दिया हुवा है!  
धर्मशास्त्र---
मनु, याज्ञवल्क्य, पराशर स्मृति इत्यादि धर्मशास्त्रों की परिधि मे आते है! संघ मे अलग अलग वऱणो का अलग अलग धर्मों के बारे मे, विधि नियमों के बारे मे सूचनाए देते है ये धर्मशास्त्र!
धर्मशास्त्रों के अनुसार चालीस संस्कारों का आचरण करना मनुष्यों के लिए अवसरनीय(जरुरी) है क्यों कि मनुष्य संघजीवी है! नामकरण, अन्नप्राशन, चौल और चूडा कर्म, पाणिग्रहण और गर्भादान इत्यादि संस्कार सभी इन स्मृतियों मे दिए  हुए है!
प्रमाण---
प्रमाण का अर्थ है मात्रा, परिमाण, अधिकारिता, समझने का हेतु और मूल ज्ञान जिस का वजह से एक निश्चित निर्णय का मार्ग मिलना! वे आठ प्रकार के है!
1) प्रत्यक्ष-
प्रत्यक्षं किं प्रमाणं?
इंद्रियार्थ सन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानं अन्यपदेश्यं अव्यभिचारी व्यवसायात्मिकं प्रत्य्क्षं!               गौतम न्याय दर्शन
आपने देखा है, सूंघा है, रुचि किया है, स्पर्श किया है और सुना है! शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंधों से श्रोत्र, त्वक, चक्षु, जिह्व और घ्राणों से आस्वादित किया है उस वस्तु को! यह प्रत्यक्ष प्रमाण संदेहरहित है और इससे बढकर कोई प्रमाण और नही है!
2) अनुमान-
कारण को देख के कार्यज्ञान होना! उदाहरण के लिये मेघ को देख कर बारिश होने की संभावना अनुमान कहलाता है!
3) उपमान-
जो पता है उन चीजो के साथ जो सामने दिखाई दे रहा है उन चीजों को पहचानना! उदाहरण के लिये जंगल मे पंजा, नख, मोहर इत्यादि चिन्हो को देख कर व्याघ्र है ऐसा महसूस करना या पहचानना वगैरह!
4)शब्दप्रमाण-
ध्यान के समय मे ओं शब्द को सुनकर परमात्मा के नदजीक हो रहा हुँ ऐसा जानकर साधक संतुष्ट होता है!
5) ऐतिह्यं-
वस्तु ऐसी होनी चाहिये, वो ऐसी ही है इसी कारण वो वही है!
6) अर्थापत्ति-
कारण नही होने पर कार्य संभव नही है! शीतल और कंपन होना कार्य है, इस के कारण उस मनुष्य के अंदर ज्वर या वातावरण मे अचानक व्यत्यास आया होगा!
7) संभव-
सृष्टि क्रम को जो अनुकूल है उस को संभव कहते है!.
8) अभाव-
जड को या निष्क्रियता को, जो ठीक है उस वस्तु को गलत समझना और जो गलत हो उस वस्तु को ठीक समझना यानि उचित को अनुचित और अनुचित को उचित समझने को अभाव कहते है!
ऐतिह्यं, संभव और अभव तीनों को मिल के अनुपलब्धि कहते है! इसी कारण कई ग्रंथो मे छः प्रमाण ही होते है!
सभी लोगो को वेद पढने का अधीकार है!
यथेमांवाचकल्याणी मावदानि जनेभ्यः ब्रह्म राजन्यभाग शूद्राय चार्यायच स्वायचारणाय च!              यजुर्वेद 26----2
मै ब्रह्म कह रहा हुँ कि इस वेद को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और स्त्रीयाँ इत्यादि मानव जाति का सभी वर्णों के लोगों की भलाई के लिये प्रदान कर रहा हुँ!
नास्तिको वेदनिंदकः
जो वेदो की निंदा करता है वो नास्तिक है!
ब्रह्मचर्येणकन्यायुवानां विंदते पतिं         अथर्ववेद 3---
गर्गि, मैत्रेयी इत्यादि सब स्त्रीयाँ ही थी, वे सभी वेदविद्या मे निष्णात थी! वेदविद्या सीख के कन्याओ को उचित अविवाहित पुरुषो से विवाह करना चाहिये!
मीमांसकों के अनुसार सृष्टिक्रम वैदिकर्म के कारण हुआ, वैशेषिकों के अनुसार सृष्टिक्रम कालचक्र के कारण हुआ, नैय्यायिकों के अनुसार सृष्टिक्रम एलेक्ट्रान और प्रोटान के कारण हुआ, योग के अनुसार सृष्टिक्रम पुरुषार्थ के कारण हुआ, सांख्यो के अनुसार सृष्टिक्रम प्रकृति के कारण हुआ और वेदांत के अनुसार सृष्टिक्रम ब्रह्म के कारण हुआ!
आठ प्रकार का विवाह---
1) ब्राह्म विवाह
बडो के एवम वधु और वर के परस्पर अंगीकार से और शास्त्रविधि के अनुसार होना!
2) दैव विवाह
बडो यानि वधु और वर के माता-पिता के अंगीकार से होना!
3) आर्षविवाह
वर से दौलत ले के विवाह करना!
4) प्राजापत्य विवाह
यज्ञ इत्यादि वेदकर्मों के लिये साथ मे पत्नी का होना धर्मशास्त्र के अनुसार आवश्यक है! इसी कारण धर्म रक्षा के लिये विवाह करने को प्राजापत्य विवाह कहते है!
5) असुर विवाह
राज्य के क्षेम और लाभ के लिये वधु और वर दोनों को धन धान्य दे के विवाह करवाने को असुर विवाह कहते है!
6) गांधर्व विवाह
बडों की अनुमती नही होने पर भी, वधु और वर दोनों के परस्पर अनुराग के कारण जो विवाह होता है उस को गांधर्व विवाह कहते है!यह लोग अनुकूल एवं शुभ समय और धर्मशास्त्र के नियमों का पालन नही देखते है!
7) राक्षस विवाह बल प्रयोग से वधु को उठाकर ले जाकर विवाह करने को राक्षस विवाह कहते है!.
8) पिशाच विवाह
मादक पदार्थ खिलाकर या पिलाकर बिना कन्या की अनुमती और इच्छा से बलप्रयोग द्वारा हरण करके विवाह करना पिशाच विवाह कहलाता है!
ब्राह्म विवाह श्रॆष्ठ श्रेणी का उत्तम विवाह है! दैव और प्राजापत्य द्वितीय श्रेणी का विवाह माना जाता है! आर्ष, असुर और गांधर्व तृतीय श्रेणी का विवाह माना जाता है!                                         राक्षस चतुर्थ श्रेणी का विवाह माना जाता है! पैशाचिक विवाह सबसे अथम और निकृष्ठ विवाह माना जाता है!                               मोह, द्वेषभाव, प्रयत्न यानि पुरुषार्थ, सुख, दुःख, मेध और सत्व, रजस और तमोगुण जीव यानि अशुद्ध आत्म के लक्षण है!
ब्रह्मनोश्य मुखमासीत बहुराजन्यकृतः उरूतदश्य यद्वैश्यः
पद्भागां शूद्रो अजयत..................       य़जुर्वेद 31----11
ब्रह्मिन ब्रह्म का मुह से आया, शरीर के अंगों मे मुँह मुख्य भाग है, इसी कारण जो ब्रह्म मे चरता है ब्रह्म कर्म करता है वही ब्रह्मन कहलाता है! क्षत्रिय ब्रह्म की भुजाओ से आया, भुजाए बल का प्रतीक है, इसी कारण क्षत्रिय युद्ध करता है और क्षत्रिय कहलाता है! वैश्य ब्रह्म के ऊरुओं(जाँघा) से आया, ऊरु गमन शक्ति का प्रतीक है, व्यापार और व्यवसाय(agriculture) गमन शक्ति की वजह से ही संभव है! शूद्र ब्रह्म के पाद(पैर) से आया! पाद (पैर) परिश्रम का प्रतीक है!
ब्रह्म आकार रहित, गुण रहित और निर्विकल्प है! फिर रूप रहित और गुण रहित परमात्म से विविध प्रकार के जीव कैसे उत्पन्न हुऐ? अपने-अपने गुणों के अनुसार वर्ण अथवा कुलव्यवस्था उत्पन्न हुई, जन्म के अनुसार वर्ण अथवा कुलव्यवस्था उत्पन्न नही हुई! कुल या वर्ण भी योग्यता के आधार पर है जैसे इन्स्पेक्टर, डेप्युटी इन्स्पेक्टर जेनेरल ऑफ पोलीस सभी योग्यता के अनुसार होते है!
स्त्री---
यत्र नार्यास्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः
यत्रैतास्तुन पूज्यंते सर्वास्त त्रा फलाः क्रियाः.....मनु 3---56
जिस प्रदेश मे स्त्रीयो को गौरव या आदर लभ्य होता है वही देवता निवास करते है, जहाँ स्त्रीयों का आदर नही होता वह प्रदेश देवता छोड देते है!
स्तुति, पूजा और उपासना---
भक्त को अपने इष्ट के मुताबिक परमात्मा की इष्ट रूप मे पूजा करने को स्तुति कहते है!
पूजा करते समय भक्त परमात्मा की विविध नामों से प्रशंसा करते है! ऐसा करते करते अपना रूप भी उन नामों के प्रकार से अपने ख्यालों (भावो) मे बदलते है! ऐसा करते हुए भक्त मोह से विमुक्त होता है! भक्त का मन परमात्मा मे निमग्न हो जाता है! परमात्मा के प्रति अपने ख्याल के रूप के अनुसार भक्त को परमात्मा की सहायता मिलती है तब भक्त और भी उत्सुकता से परमात्मा के प्रति मन को लगाता है! परमात्म के मंदिर या गर्भगृह के सामने एक विशिष्ठ आसन मे बैठकर ध्यान करने को उपासना कहते है! इसी उपासना के कारण भक्त और परमात्मा के बीच मे एक विशिष्ठ संबंध उत्पन्न होता है!
स्वातंत्रता---
पुलीस का अपने उच्च अधिकारी के आदेशानुसार उपद्रवी भीड पर बंदूक से गोली चलाने पर, सिपाहियों के युद्ध मे हजारों शत्रु सैनिकों को मारने पर भी उन लोगो को कोई पाप नही लगता है! मगर अपने-अपने उच्च अधिकारियों के आदेशों के बिना यह सब करने से पाप लगता है! स्थूल शरीर, अंतःकरण, प्राणशक्ति और इंद्रिया अपने अधीन होंना अत्यंत आवश्यक है! तभी उस मनुष्य को स्वतंत्र कहते है! माता-पिता सिर्फ हमारे जन्म के लिये जिम्मेदार है! संतति के ठीक या गलत कर्मो की बाध्यता(जिम्मेदारी) माता-पिता पर नही है! संतति अपने-अपने कर्मफल स्वयं भोगती है! ऐसे ही परमात्मा हमारे कर्मों का जिम्मेदार नही है! हम लोगो को अपने-अपने कर्मफल स्वयं ही भोगना पडते है!       
जीव-परमात्मा---
परमात्म चैतन्य सहित जीव ही सचेतनात्मक है! सचेतनात्मक शरीर ही शिव और मंगल स्वरूप है, अचेतनात्मक शरीर शव है, जड और अमंगल स्वरूप है!
सृष्टि, स्थिति और लय करना, सारे ब्रह्मांड को अपनी परिधि मे रखना, अपने-अपने कर्मफलो के अनुसार जीव को उचितरीति से जन्म देना, ये सब परमात्म करता है!
संतति को बढाना, संतति की देखभाल करना, संतति के विद्या का सदुपाय करना, परमात्मा की देन इच्छाशक्ति को सही प्रकार से उपयोग करना, ब्रह्मविद्या को सीखना इत्यादि मनुष्यों का धर्म है!
इच्छा होना न होना, सुख-दुःख, शीत-उष्ण, ज्ञान-अज्ञान, प्रयत्न, इत्यादि जीव के लक्षण है! न्याय और वैशेषिक दोनों ने इस दृष्टिकोण को अंगीकार किया!
जब तक इस शरीर मे आत्मा रहती है यह लक्षण होंगे! हर एक विषय परमात्मा के लिये वर्तमानकाल है, परमात्मा अनोखी चीज है!
आग्नेर ॠगवेदो, वायोर यजुर्वेदो, सूर्यत सामवेदः
                                शतपथ 11—4—2.3       
सृष्टि के आदि मे परमात्मा ने वेदों का ज्ञान अग्नि, वायु, आदित्य और आंगीरस ऋषियो को प्रदान किया!
अग्नि वायु  अविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनं        
दुदोहयज्ञ सिध्यर्थं ॠग्याजुसाम लक्षणं!        मनु  123
सृष्टि के आदि मे परमात्मा ने जीवो का अग्नि, वायु, आदित्य और आंगीरस ऋषियों की सहायता से व्यक्तीकरण किया! वेदों का ज्ञान कार्यब्रह्म को प्रदान किया!
यहा पर मणिपुर चक्र अग्नि, वायु अनहत चक्र, आदित्य सहस्रार चक्र, आंगीरस स्वाधिस्ठान चक्र और जो सुनायी देता है उसी को वेद कहते है! ओंकार प्रथम वेद है!
ओं इत्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्ममं अनुस्मरण
यः प्रयाति त्यजन्देहं सयाति परमं गातिं!      गीता 8—13
ॐ ब्रह्म का वाच्य है! इसी कारण ॐ को हर पल स्मरण करो! ॐ स्मरण करते हुए जो जीव इस शरीर का त्याग करता है वो परमात्मा की सन्निधि पाता है!
परब्रह्म प्रथमो गुरुः परब्रह्म प्रथमो भिषक 
ब्रह्म ही प्रथम गुरु है, ब्रह्म ही प्रथम वैद्य है! वो ही हमको ओंकार द्वारा शिक्षा देता था, दे रहा है और देंगा! ओं ही वह औषधी है जो परमात्मा हम को दे रहा है, ओं ही दिव्य और उत्तमोत्तम औषधी है! ॐ मे ध्यान करना, प्राणायाम अभ्यास करना हमारे आरोग्य, ऐश्वर्य, शांति और सौभाग्य के लिये उचित है! 
समाधि की स्थिति मे ऋषियों ने जो ग्रहण किया उन को ब्राह्मण कहते है! इन्ही चीजों को व्याख्यान कहते है! ऋग, यजु, साम और अथर्व वेदों के मंत्रों को वेद कहते है! सृष्टि के आदि मे परमात्मा ने स्वयं इन मंत्रो के ज्ञान को ऋषियों को प्रदान किया! परमात्मा की करुणा से ही ये समस्त ऋषि इन मंत्रों का अर्थ प्रदान कर सके! ऋषियों के द्वारा समझाए गए मंत्रों को ब्राह्मणाए कहते है! ये समस्त ऋषिगण निस्वार्थी थे और मानवजाती के लिए इन्होने सब कुछ त्याग किया, अपनी खोज से प्राप्त की हुई चीजों को इन ऋषियों ने न्यूटन सिद्धांत, आर्किमेडिस सूत्र इत्यादि जैसा अपना नाम तक नही दिया! वेदो मे 1127 अध्याय है!
कार्य कारण सिद्धांत---
सत्व, रजस और तमस गुणों के विविध प्रकार के मिश्रण से बनती है प्रकृति! सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थ भी इसी प्रकृती का ही फल है! इस सृष्टि के सूक्ष्म और स्थूल पदार्थ इन सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थों को विविध प्रकार से मिलाकर के बनते है!
सृष्टि के आदि मे प्रथम संगत के कारणभूत सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थ को कारण कहते है! इस अतिप्रथम संसर्ग के फल को कार्य कहते है, जैसे हैड्रोजेन और ऑक्सिजन संसर्ग के पहले आंखो को दिखाई नही देते है, संयोग के बाद अपना पूर्व अदृश्य रूप खो बैठते है और पानी की बूंद के रूप मे दिखाई देने लगते है!         
परमात्म उस आदर्श स्थिति के सृष्टिकरता है जिसमे सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थ परमात्म चैतन्य के कारण संयोग मे आकर इस सृष्टि के कारणभूत होते है! इसी को प्रप्रथमावस्था या प्रधान कहते है! अतिसूक्ष्म प्रकृति जो इस प्रप्रथमावस्था से बाहर निकलती है उस प्रथमावस्था को महत्तत्व कहते है! ये महत्तत्व ही स्पर्शनीय सृष्टि का कारणभूत है! महत्तत्व से ही आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वि निकले! ततपश्चात आकाश से शब्द, वायु से स्पर्श, अग्नि से रूप, जल से रुचि(स्वाद) और पृथ्वि से गंध इन्ही के साथ-साथ निकले!
मनुष्या ऋषयाश्चयेततो मनुष्या अजायंत     य़जुर्वेद 319
सृष्टि के आदि मे मनुष्य, ऋषि और बहुत कुछ चीजे परमात्मा से निकली!
निजानीर्यानयेच दस्यवः                        ऋग्वेद
उतासुद्रेयुतार्ये                              अथर्वणवेद
सृष्टि के आदि मे समस्त मनुष्य समान थे! उन मनुष्यों के कर्मों के अनुसार बाद मे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इस तरह का वर्ण भेद आया!
विद्वान लोगों को आर्य कहते है! अविद्वान यानि अनपढ  लोगों को अनार्य अथवा दाश्यों कहते है! आर्यों ने भारत को अपना निवास स्थान माना, इसी कारण भारत को आर्यावर्त कहते है!
आकाश---नीला रंग---
60 परमाणु (60 एलेक्ट्रांस और प्रोटांस)=एक अणु (ऐटम)
दो ऐटम= द्विअणु अथवा स्थूल वायु! 

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