तात्पर्य सहित श्री रुद्रं चमकं
श्रुति
वाजश्चमे प्रसवश्चमे प्रयतिश्चमे प्रसितिश्चमे
परमात्मा ही अग्नि, और व्याप्ति होने विष्णु है! मेरा उप्पर प्यार दिखावो ! मै परमात्मा और अग्नि यानी शुद्ध बुद्धि दोनों को संतृप्ति करेगा! आप नित्यम् वृद्धि होने दो! हम को आहार और ऐश्वर्य प्रदान करो!
धीतिश्चमे क्रतुश्चमे स्वरश्चमे श्लोकश्चमे !
हे परमात्मा, मुझे क्रियायोग साधना धारण, यज्ञ, साधना बुद्धि, और मंत्र साधना स्वर, और स्तुति देदो !
श्रावश्चमे श्रुतिश्चमे ज्योतिश्चमे सुवश्चमे
हे परब्रब्रह्मन, मुझे क्रियायोग साधन में ॐकार सुनना, सुनाने का शक्ति, सामर्थ्य, प्रकाश, और स्वर को प्रदान करो !
प्राणश्चमे अपानश्चमे व्यानश्चमे असुशश्चमे
हे परब्रह्मण, मुझे प्राणवायु, अपानवायु, व्यानवायु, समान वायु, प्राप्त करो !
चित्तंचम आधीतंचमे वाक्चमे मनश्चमे !
हे परब्रह्मण, मन में उत्पन्न हुआ शुद्ध ज्ञान, वाक्, और मन को मझे देदो !
चक्षुश्चमे श्रोंत्रंचमे दक्षश्चमे बलंचम
हे परब्रह्मण, मुझे तीसरा नेत्र, कान जो ॐकार शब्द को सुनने में सक्षम है!
ओजश्चमे सहश्चम आयुश्चमे जराचम
हे परब्रह्मण, मुझे ओजस, अंतः शत्रुवोंको सहिष्णुता से सामना करने शक्ति, आयुर्दाय, और परिपक्वता, देदो!
आत्माचमे तनूश्चमे शर्मचमे वर्मचमे
हे परब्रह्मण, मुझे परब्रह्मण का प्राप्ति, संतोष, शरीर को रक्षा करने कवच इत्यादि लभ्य करवादो!
अंगानिचमे अस्थानिचमे वरूगुंषिचमे शरीराणिचमे
हे परब्रह्मण, मुझे दृढ़ शरीर अंगों, दृढ़ हड्डियों, दृढ़ जोड़, और बाकी शरीर अवयवों भी दृढ़तावाले, देदो ! क्रियायोग साधन करने अनुकूल आरोग्यशारीर देदो !
अनुवाक 1 समाप्त
अनुवाक 2 प्रारंभ
ज्येष्ठंचम आधिपत्यंचमे मंन्युश्चमे भामश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे श्रेष्ठता देदो, मन मेरा वश में करदो, शुद्ध मन देदो, और शक्तिपूरक बनादो!
2) अमश्चमे अंभश्चमे जेमाचमे महिमाचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, शत्रुवों व नकारात्मक शक्तियाँ मुझे जय करने नहीं शक्य हो, मेरा ध्यान समय में प्यास बुझाने मीठा पानी लाबय करो, मन को जय करने सामरथ्य, और महत्व मझे देदो !
3) वरिमाचमे प्रथिमाचमे वर्ष्माचमे
द्राघुयाचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे पूजनीय शुद्ध मन देदो, मुझे वसति गृह देदो, मुझे सस्य क्षेत्र देदो, पुत्रों, पौत्रों, और दीर्घायुष देदो !
4) वृद्धंचमे वृद्धिश्चमे सत्यंचमे श्रद्धाचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मझे उत्कृष्ट ज्ञान, सत्य गुण धन, और श्रद्धा बुद्धि देदो!
5) जगच्चमे धनंचमे पशश्चमे त्विषिश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मझे स्थिरास्थी और चरास्थी, धन, स्वर्ण, और सुंदर शरीर देदो !
6) क्रीडाचमे मोदश्चमे जातंचमे जनिष्यमाणंचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मझे खेलो में आसक्ति और आनंद देदो, सुसंतान, और सक्षम शरीर देदो !
7) सूक्तंचमे सुकृतंचमे वित्तंचमे वेद्यंचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मझे ऋक् और मंत्रों से आनंद लभ्य होने दो, ज्ञान धन देदो, धन देदो, सुनने में आनंद देदो यानी ॐकार सुनने में आनंद देदो!
8) भूतंचमे भविष्याचमे सुगंचमे सुपथंचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मझे ॐकार सुनाने का हेतु सिद्ध प्राप्ति हुआ क्षेत्रों को वर्त्तमान में और भविष्य में लभ्य होने दो ! मै सही रास्ता में जाने को वरदान देदो !
9)ऋद्धंचमे ऋद्धिश्चमे क्लप्तंचमे क्लप्तिश्चमे मतिश्चमे सुमतिमतिश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मझे सन्मार्ग में धन वृद्धि करने, और वृद्धि किया धन सत्कर्माचरण के लिए उपयोग करने में निश्चय बुद्धि, सुमति देदो
अनुवाक 2 समाप्त
अनुवाक 3 आरंभ
1) शंचमे मयश्चमे प्रियंचमे नुकामश्चमे कामश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मझे इह लोक सुख, पर लोक सुख, प्रीतिकर वस्तु, और सकारात्मक शक्ति देदो !
2) सौमनसश्चमे भद्रंचमे श्रेयश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मन को स्वास्त्य देने सकारात्मक पदार्थ, सुमन को रक्षा देने पदार्थ, और हित पदार्थ, मुझे देदो !
3)वस्यश्चमे यशश्चमे भगश्चमे द्रविणंचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को निवास गृह देदो, मुझ को कीर्ति देदो, मुझ को सौभाग्य देदो, और मुझ को न्यायपर धन देदो!
4) यंताचमे धर्ताचमे क्षेमश्चमे ध्रुतिश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को विद्याबोधाना शक्ति देदो, मुझ को पोषक शक्ति देदो, मुझ को लोगों का क्षेम माँगने शक्ति देदो, और मुझ को धैर्य देके निश्चल होने शक्ति देदो!
5) विश्वंचमे महश्चमे संविच्चमे ज्ञात्रंचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को सर्व जनों को अनुकूल रहने सामर्थ देदो! मुझे वह तेजस, वेदशास्त्र विज्ञान, बोधना ज्ञान सामर्थ मुझे देदो!
6)सूश्चमे प्रसूश्चमे सीरंचमे लयश्चम
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को पुत्रादियो को ज्ञानमार्ग में प्रेरेपण करने सामर्थ्य, सेवकों से काम करवाने सामर्थ्य, व्यवसाय करने सामर्थ्य, काम करने को जो प्रतिबंधक शक्तियाँ उन का निवारण करने सामर्थ्य मुझ को देदो !
7)ऋतंचमे
मृतंचमे यक्ष्मंचमे नामयच्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को यज्ञादि कर्म करने और यज्ञादि कर्म फल अनुभव करने में सामर्थ्य देदो! छोटा बड़ा व्याधियों मुझको नहीं आनेदो!
8) जीवातुश्चमे दीर्घायुत्वंचमे न मित्रंचमे भयंचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को क्रियायोग
साधना दिव्य
औषधि प्रदान करो! मुझ को दीर्घायुष् देदो ! मुझे नकारात्मक शत्रुवो से
कष्ट नहीं होनेदो! मुझे भय नहीं होनेदो!
9) सुगंचमे शयनंचमे सूषाचमे सुदिनंचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को सुगमन, बिना मनो व्याकुलता रही निद्रा, स्नानादियो से प्रकाशित प्रातः काल, और सुदिन को प्राप्त करो!
अनुवाक 3 समाप्त
अनुवाक 4 आरंभ
1)ऊर्क्चमे सूनरुताचमे पयश्चमे रसश्चमे
1) हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को मिताहार, मित भाषण, गाय का दूध, और अन्न का सार देदो !
2)घ्रुतंचमे मधुचमे सग्धिश्चमे सपीतिश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को शुद्ध गाय का घी, मधु, भोजन, और पानी देदो!
3) क्रुषिश्चमे वृष्टिश्चमे जैत्रंचम औद्भिद्यंचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को खेत, वर्ष, जयस्वभाव, और फलसाय देदो!
4) रयिश्चमे रायश्चमे पुष्टंचमे पुष्टिश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को धन, दौलत, धान्य संपत्ति, और शरीरपुष्टि देदो!
5) विभुचमे प्रभुचमे बहुचमे भूयश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को सर्वव्यापकत्व, समर्थता, और आधिक्यता को पुनः पुनः देदो!
6) पूर्णंचमे पूर्णतरंचमे क्षितिश्चमे कूयवाश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को क्रियायोग साधना परिपक्वता, और परिपक्वता, अम्रुतत्व,
और अम्रुतत्व देदो!
7) अन्नंचमे क्षुच्चमे व्रीहयश्चमे यवाश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को क्रियायोग साधना करने समय में आहार बाधा से आने भूख को निवारण करदो, धान्य, धान्य का समान प्रत्यक्षाहार देदो!
8)माषाश्चमे तिलाश्चमे मुद्गाश्चमे खल्वाश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को क्रियायोग साधना करने समय में आहार बाधा से आने भूख को निवारण करदो, धान्य, धान्य का समान प्रत्यक्षाहार देदो यानी सूर्यारष्मी से जैसा वृक्ष आहार बनाता है!
9)गोधूमाश्चमे मसुराश्चमे प्रियंगवाश्चमे णवश्चमे श्यामाकाश्चमे नीवाराश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को गेहू इत्यादि धान्य देदो !
अनुवाक 4 समाप्त
अनुवाक 5 आरंभ
1)अश्माचमे मृत्तिकाचमे गिरयश्चमे पर्वताश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को पत्थर, मिटटी, पहाड़, और पर्वत जो जीवन के आवश्यक है वो सब देदो !
2)सिकताश्चमे वनस्पतयश्चमे हिरण्यंचमे यश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को रेत, वृक्षों, सोना, और चांदी जो जीवन के आवश्यक है वो सब देदो !
3) सीसंचमे त्रपुश्चमे श्यामंचमे लोहंचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को सीसं, तगरम्, लोह, और ताम्र जो जीवन के आवश्यक है वो सब देदो !
4)अग्निश्चम आपश्चमे वीरुधश्चम ओषधयश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को अग्नि, जल, लता, और ओषधियों जो जीवन के आवश्यक है वो सब देदो !
5)कृष्टपच्यंचमे अकृष्टपच्यंचमे ग्राम्याश्चमे पशव अरण्याश्च यज्ञेन कल्पंतां
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को खेत के लिए, व्यवसाय भूमि, साधारण भूमि, गाय जैसा डेयरी पशुवो, और साधारण पशुवो इत्यादि यज्ञ के लिए आवश्यक और समर्थवंत
वस्तुवों देदो !
6)वित्तंचमे वित्तिश्चमे भूतंचम भूतिश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को अब और भविष्यत् में न्यायबद्ध धन लभ्य करनेदो, मुझे योग साधना का साथ जोड़ा हुआ ऐश्वर्य, और पुत्रों को देदो!
7) वसुचमे वसतिश्चमे कर्मचमे शक्तिचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को मेरा जीवन के लिए निवास योग्य भूमि, और गृह, क्रियायोग साधना का अनुकूल कर्मजातं, और कर्माचरण को अनुकूल सामर्थ्य देदो!
8) अर्थश्चम एमश्चम इतिश्चमे गतिश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझ को धर्माचरण शक्ति, अच्छा कर्मफल, भगवत प्राप्ति के लिए सुविचार देदो!
अनुवाक 5 समाप्त
अनुवाक 6 प्रारंभ
1)अग्निश्चम इंद्रश्चमे सोमश्चम इंद्रश्चमे सविताचम इंद्रश्चमे सरस्वतीचम इंद्रश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मेरा अंदर का अग्नि मेरा शुद्ध मन होनेदो, मेरा अंदर का मन मेरा शुद्ध मन होनेदो, मेरा अंदर का सूरज मेरा शुद्ध मन होनेदो, और मेरा अंदर का वाक मेरा शुद्ध मन होनेदो!
2) पूषाचम इंद्रश्चमे बृहस्पतिश्चम इंद्रश्चमे मित्रश्चम इंद्रश्चमे वरुणश्चम इंद्रश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मेरा अंदर का सूरज मेरा शुद्ध मन होनेदो, मेरा अंदर का बृहस्पति मेरा शुद्ध मन होनेदो, मेरा अंदर का अग्नि मेरा शुद्ध मन होनेदो, और मेरा अंदर का वरुण मेरा शुद्ध मन होनेदो !
3) त्वष्टाचम इंद्रश्चमे धाताचम इंद्रश्चमे विष्णुश्चम इंद्रश्चमे अश्विनौचम इंद्रश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मेरा अंदर का त्वष्टसूरज(द्वादश आदित्यो में एक) मेरा शुद्ध मन होनेदो, मेरा अंदर का ब्रह्म मेरा शुद्ध मन होनेदो, मेरा अंदर का व्याप्ति होनेवाला विष्णु मेरा शुद्ध मन होनेदो, और मेरा अंदर का अश्विनी देवताये यानी इंद्रियो मेरा शुद्ध मन होनेदो !
4) मरुतश्चम इंद्रश्चमे विश्वेचमे देवा इंद्रश्चमे पृथ्वीचम इंद्रश्चमे अंतरिक्षंचम इंद्रश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मेरा अंदर का वायु मेरा शुद्ध मन का हेतु होनेदो, मेरा अंदर का समस्त विश्व देवताये मेरा शुद्ध मन का हेतु होनेदो, मेरा अंदर का पृथ्वी मेरा शुद्ध मन का हेतु होनेदो, मेरा अंदर का आकाश मेरा शुद्ध मन का हेतु होनेदो !
5)द्यौश्चम इंद्रश्चमे दिशश्चम इंद्रश्चमे मूर्धाचम इंद्रश्चमे प्रजापतिश्चम इंद्रश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मेरा अंदर का स्वर्ग मेरा शुद्ध मन का हेतु होनेदो, मेरा अंदर का दिशाये मेरा शुद्ध मन का हेतु होनेदो, मेरा अंदर का उप्पर दिशा मेरा शुद्ध मन का हेतु होनेदो, मेरा अंदर का प्रजापति मेरा शुद्ध मन का हेतु होनेदो !
अनुवाक 6
समाप्त
अनुवाक 7 प्रारंभ
1) अगुम् शुश्चमे रशमिश्चमे आदाभ्याश्चमे आधिपतिश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, सोम ग्रह अथवा चंद्र गृह मुझको अच्छा करनेदो, रश्मि ग्रह अथवा सूर्य ग्रह मुझको अच्छा करनेदो, अदाभ्य ग्रह अथवा छाया ग्रह मुझको अच्छा करनेदो, और अधिपति ग्रह मुझको अच्छा करनेदो !
2) उपागुम् शुश्चमे अंतर्यामश्चमे ऐंद्रवायवश्चमे मैत्रावरुणश्चमे
ॐकार उच्चारण मानसिक, वाचिक, और उपांशु इति तीन प्रकार है! मुह नहीं खोल के गला में ही उच्छारण करने को उपांशु कहते है! मन में ही उच्छारण करने को मानसिक कहते है! बाहर में सब सुनने जैसा उच्छारण करने को वाचिक कहते है!
ॐकार उच्चारण मानसिक, वाचिक, और उपांशु
ॐकार उच्चारण मुझको उपांशु होनेदो! ॐकार उच्चारण मुझको मानसिक व अंतर्याम होनेदो ! ॐकार उच्चारण मुझको वाचिक व मैत्रावरुण होनेदो !
3) अश्विनश्चमे प्रतिप्रस्थानश्चमे शुक्रश्चमे मंथीचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, हमें अच्छा करने इन्द्रियों देदो, पुनः परमात्मा का पास जाने प्रयाण देदो, रेतस्सू देदो, साधना मथन करने मार्ग देदो!
4)आग्रयणश्चमे वैश्वदेवश्चमे धृवश्चमे वैश्वानरश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे आग्रायणम, वैश्वदेवं, धृव ग्रहम्, और वैश्वानरम् देदो!
5) ऋतुग्रहाश्चमेति ग्राह्याश्चमे ऐंद्रांग्नश्चमे वैश्वदेवश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे छे ऋतु, ग्रहों, मन, इंद्रियों, और अनुग्रहशक्ति प्रदान करो!
6)मरुत्वतीयाश्चमे माहेंद्रश्चमे आदित्यश्चमे सावित्रश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे वायु, मन, महान मन, सूरज, और शुद्ध मन देदो!
7) सारस्वतश्चमे पौष्णश्चमे पात्नीवतश्चमे हारियोजनश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे सारस्वत, पौष्णं, पत्नीवतं, और हरियोजन देदो !
अनुवाक 7 समाप्त
अनुवाक 8 प्रारंभ
1)इध्मश्चमे बर्हिश्चमे वेदिश्चमे धिष्णीयाश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे समिधों, दुर्भा, यज्ञवेदिका, और यज्ञ करानेवाले को देदो !
2) सृचश्चमे चमसाश्चमे ग्रावाणाश्चमे स्वरश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे यज्ञ में सहकार करने महिलाओं, सोमरस पीने ठीक पात्राए, सोमरस निकालने को पत्थरों, आहुति करने गाय घी हमें देदो !
3) उपरश्चमे धिषवणेचमे द्रोणकलशश्चमे वायव्यानिचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे यज्ञगुंडं, सोमरस निकालने लकडिया, द्रोणकळश, और वयाव्यो देदो !
4) पूतभृच्चम अधवनीयश्चमे आग्नीध्रंचमे हविर्थानंचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे पूतभृत, अधवनीयम्, अग्नीद्रव वेदिका, और हविर्धानं जो यज्ञ को आवश्यक वो सभी हमें देदो !
ये सब अग्नि यज्ञ के लिए आवश्यक है! क्रियायोग साधना यज्ञ के लिए आवश्यक नहीं है!
5)गृहांश्चमे सदश्चमे पुरोडाशाश्चमे पचताश्चमे अवभृथश्चमे स्वगाकारश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे यज्ञ के लिए, मेरा गृहिणी, सदस्य लोग बैठने का स्थल, यज्ञ के लिए पकाया अन्न, अन्न पकाने को स्थल, स्नानशाला, यज्ञ के लिए समिधों देदो !
अनुवाक 8 समाप्त
अनुवाक 9 प्रारंभ
1)अग्निश्चमे मर्मश्चमे अर्कश्चमे सूर्यश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे यज्ञ के लिए अग्नि, गरमी, मन, और सूरज यानी शक्ति देदो !
2)प्राणश्चमे अश्वमेधश्चमे पृथ्वीचमे अदितिश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे प्राणायाम पद्धतिया, इन्द्रियों को नियंत्रण करने शक्ति, पृथ्वी व स्थल, और दिव्यमाता यानी माया को अधिगमन करने शक्ति, देदो !
3) दितिश्चमे द्यौश्चमे शक्वरी रंगुळमो दिशश्चमे यज्ञेन कल्पंतां
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे नकारांतक शक्तियों को अधिगमन करने शक्ति देदो ! सकारांतक शक्तियों मुझे सहकार करने दो! शक्वरी चंदस् मुझको वश होने दो! विराट पुरुष का अनुग्रह होने दो! सर्व दिशाए मुझे अनुकूल होने दो!
4)ऋक्चमे साषुचमे स्तोमश्चमे यजुश्चमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे ऋग्वेद ज्ञान देदो !ॐकार नादं से जोड़ा हुआ सामवेद देदो! यजुर्वेद ज्ञान देदो !
5) दीक्षाचमे तपश्चम ऋतुश्चमे व्रतंचमे होरात्रयोर्वृष्ट्वा
बृहद्रधंरेचमे यज्ञेन कल्पेतां
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे अग्नि यज्ञों साधना प्राप्ति करदो ! ऋतु यानी ठीक समय देदो! आहारनियामो का व्रता ज्ञान देदो! परमानंद सुख हमें देदो! मेरा यज्ञों से आप को तृप्ति मिले!
अनुवाक 9 समाप्त
अनुवाक 10
आरंभ
1)गर्भाचमे वत्साश्चमे त्र्यविश्चमे त्र्यवीचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे गाय का बछड़ा और गाय देदो! मुझे बैल देदो! मुझे डेरी ऐश्वर्य देदो!
2) दित्यावाट्चमे दित्यौहीचमे पंचाविश्चमे पंचावीचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे दूध देनेवाले डेरी गाय, बछड़ा, और सांड इत्यादि देदो!
3) त्रिवत्सश्चमे त्रिवत्साचमे तुर्यवाट्चमे तुर्यौहीचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे दूध देनेवाले डेरी गाय, बछड़ा, और सांड इत्यादि देदो!
4) पष्ठवाच्चमे पष्ठौहीचमे उक्षाचमे बशाचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र,
मुझे दूध देनेवाले डेरी गाय, बछड़ा, व्यवसाय निमित्त बैलो और सांड इत्यादि विविधाप्रकार का पशु देदो! .
5) मेवेहच्चमे अनड्वांचमे धेनुश्चम आयुर्यज्ञेन कल्पताम् प्राणों यज्ञेन कल्पतां अपानो यज्ञेन कल्पतां व्यानो यज्ञेन कल्पतां चक्षुर्यज्ञेन कल्पतां श्रोत्रं यज्ञेन कल्पतां मनो यज्ञेन कल्पतां वाक् यज्ञेन कल्पतां आत्मा यज्ञेन कल्पतां यज्ञो यज्ञेन कल्पतां
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे दूध देनेवाले डेरी गाय, बछड़ा, और सांड इत्यादि देदो! मुझे प्रण, अपान, व्यान, वायु देदो! मुझे चक्षुः
शक्ति, सुनने का शक्ति, मनः
शक्ति, और वाक्
शक्ति, देदो!
अनुवाक 10 समाप्त
अनुवाक 11 आरंभ
1)एकाचमे तिस्रश्चमे पंचचमे सप्तचमे नवचम एकादशचमे त्रयोदशचमे पंचदशचमे सप्तदशचमे नवदशचमे
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, परमात्म एक ही है! वह एक मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो, तीन यानी इच्छाशक्ति, क्रिया शक्ति, ज्ञानशक्ति,(दुर्गा, लक्ष्मी, और सरस्वती) मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो, पाँच यानी मनो बुद्धि चित्त अहंकार और परमात्मा मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो, सात यानी पाँच ज्ञानेंद्रियों, मन, और बुद्धि मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो, नव दुर्गो मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो, ग्यारह यानी नवद्वारो, कपाळ बिल, और नाभिबिल मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो, तेरह यानी दश दिशाए, और त्रिमूर्तिया मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो, पंद्रह यानी श्रोत्रादी चौदह सूक्ष्मनाडिया, और सुषुम्ना नाडी मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो, सत्रह यानी दशेंद्रियां और सप्त धातुओं मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
2)एकविगुम् शतिश्चमे त्रयोविगुम् शतिश्चमे पंचविगुम् शतिश्चमे सप्तविगुम् शतिश्चमे नवविगुम् शतिश्चमे एकत्रिगुम् शतिश्चमे त्रयस्त्रिगुम् शच्चमे !
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, पाँच ज्ञानेंद्रियों, पाँच कर्मेंद्रियों, पाँच तन्मात्राए, पाँच महाभूताये, और मन, इक्कीस, मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, पाँच ज्ञानेंद्रियों, पाँच कर्मेंद्रियों, पाँच तन्मात्राए, पाँच महाभूताये, इडा पिंगळा
सुषुम्ना सूक्ष्म नाडियाँ, तेईस, मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, पाँच ज्ञानेंद्रियों, पाँच कर्मेंद्रियों, पाँच तन्मात्राए, पाँच महाभूताये, पाँच प्राणों, पच्चीस, मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, अश्वनी भरणि इत्यादी सत्ताईस नक्षत्रों मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, पाँच ज्ञानेंद्रियों, पाँच कर्मेंद्रियों, पाँच तन्मात्राए, पाँच महाभूताये, पाँच प्राणों, मनो बुद्धि चित्त और, अहंकार, उन्तीस, मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, पाँच ज्ञानेंद्रियों, पाँच कर्मेंद्रियों, पाँच तन्मात्राए, पाँच महाभूताये, पाँच प्राणों, मनो बुद्धि चित्त अहंकार, पाताळ, और पृथ्वी, इकत्तीस, मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, वसुवु आठ, रुद्राया ग्यारह, आदित्य बारह, अश्वनी देवताये दो, तेहतीस, मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
3)चतस्रश्चमे अष्ठाचमे दवादशचमे षोडशचमे विगुंशतिश्चमे चतुर्विगुंशतिश्चमे अष्ठाविगुंशतिश्चमे द्वात्रिगुं
शच्चमे चतुश्चत्वारिगुं
शच्चमे अष्ठौचत्वारिगुम् शच्चमे!
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र,
धर्मार्थ कामा मोक्ष इति चार विद्या मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
अष्ठविधा प्रकृतिया आठ मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
शिक्षादी वेदांगों छे, धर्मं शास्त्रादी छे, कुल बारह मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
दूरश्रवण दूरदर्शन विद्या एक, ज्ञानेंद्रिय सिद्धि विद्याये पाँच, कर्मेंद्रिय सिद्धि विद्याये पाँच, स्थापत्य वेदसिद्धि विद्या एक, पर्जन्य सिद्धि विद्या एक, ज्योतिर्विद्या एक, आयुर्विद्या एक, परोक्ष ब्रह्म विद्या एक, कुल सोलह मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
पाँच भूताये, पाँच महाभूताये, पाँच शब्द स्पर्श रूप रस गंध स्थूल तन्मात्राए, पाँच शब्द स्पर्श रूप रस गंध सूक्ष्म तन्मात्राए, कुल बीस मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
महाभूताये पांच, शब्द स्पर्श रूप रस गंध तन्मात्राए पांच, ज्ञानेंद्रियों पांच, कर्मेन्द्रियो पांच, मनो बुद्धि चित्त और अहंकार, कुल चौबीस मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
गाय, बकरा इत्यादि अट्ठाइस पशु सृष्टि मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
देव सृष्टि आठ, स्थावर सृष्टि छे, कौमार मानस सृष्टि दो, ज्ञानेंद्रियों पांच, कर्मेन्द्रियो पांच, कारण सूक्ष्म सृष्टि तीन, सत्व रजो तमो सृष्टि तीन, कुल बत्तीस मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
छत्तीस अक्षर बृहती चंदस मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
चालीस अक्षर पंक्ती चंदस मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
चवालीस अक्षर त्रिष्टुप् चंदस मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
अड़तालीस अक्षर बृहती चंदस मेरा उप्पर प्रसन्न होनेदो!
4) वाजश्च प्रसवश्चा अपिजश्च क्रतुश्च सुवश्च मूर्धाच
व्यश्नि यश्चांत्याय नश्चांत्यश्च भौवनश्च भुवनश्चाधिपतिश्च
हे शुद्ध ज्ञानरूपी रूद्र, मुझे अन्न देदो! अन्न का उत्पत्ति करने का सामर्थ्य देदो! क्रियायोग साधना यज्ञ ज्ञान, और करने का सामर्थ्य देदो! इस क्रियायोग साधना यज्ञ संकल्प करने का हेतु आदित्य, आकाशा, सर्वव्याप्ति होने का सामर्थ्य देदो! आध्यात्मिक विजय देसों !
अनुवाक 11 समाप्त
चमकं - भाव – समाप्त
श्रीकृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहितं, चौथा अध्याय सप्तम प्रपाटक
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