पतंजलि द्वितीय पादम साधना पादम 2.1 to 2.55

2. साधना पादम
2.1. तपःस्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रियायोगः 
तपः= तपस, स्वाध्याय= स्वाध्याय(
तपः= तपस, (स्व अध्याय=अपने आप को पढ़ना), ईश्वरप्रणिधानानि= ईश्वरप्रणिधान (ईक्षणों को श्वर व बाण जैसा उपयोग करना) क्रियायोगः= क्रियायोग
तपस स्वाध्याय (स्व अध्याय=अपने आप को पढ़ना), और ईश्वरप्रणिधान यानि ईक्षणों को श्वर व बाण जैसा उपयोग करने को  क्रियायोग कहते है!
2.2. समाधि भावनार्थः कलेश तनू करणार्थश्च
 समाधि भावनार्थः= समाधि सिद्धि, कलेश तनू करणार्थश्च=अविद्यादी कलेशों
इस क्रियायोग समाधि सिद्धि लभ्य करेगा! अविद्यादी कलेशों को नाश करेगा!   
2.3. अविद्यास्मिता रागद्वेषाभि निवेशाः पंचक्लेशाः
अविद्या= अविद्या, अस्मिता= अस्मित व मै और मेरा तत्व,  राग= मोह, द्वेषा= द्वेष और अभिनिवेशाः= अभिनिवेशः= जीवन का उप्पर लगाव,  पंचक्लेशाः= पंचक्लेशाः= पंचक्लेशॉ
अविद्या, अस्मित व मै और मेरा तत्व, राग, द्वेष, और  अभिनिवेशःयानि जीवन का उप्पर लगाव, इन को पंचक्लेश कहते है!
2.4. अविद्या क्षेत्र मुत्तारेषाम् प्रसुप्त तनु विच्छिन्नो दाराणाम्
प्रसुप्त= अस्मिता को प्रसुप्त (छिपा हुआ), तनु=राग को तनु व शरीर, विच्छिन्न= द्वेष को, उदार=प्रेरेपरण अभिनिवेशको, अविद्या क्षेत्रमुत्तारेषाम्= पिचले कहागया अविद्या को हेतु
अस्मिता को प्रसुप्त (छिपा हुआ), राग को तनु व शरीर, द्वेष को विच्छिन्न, उदार व प्रेरेपरण अभिनिवेश को, हेतु है! पिचले कहागया अविद्या को ये सब हेतु है!
2.5.अनित्याशुचि दुःखानात्मसु नित्य शुचि सुखात्मख्यातिरविद्या
अनित्याशुचि दुःखानात्मसु = अनित्य वस्तु को नित्य वस्तु जैसा विचार करना, अपरिशुभ्र वस्तु को परिशुभ्र वस्तु जैसा विचार करना, दुःखकर वस्तु को सुखकर वस्तु जैसा विचार करना, अनात्म वस्तु को आत्मा वस्तु जैसा विचार करना,   नित्य शुचि सुखात्मख्यातिरविद्या= इस विपर्या भाव ही अविद्या
अनित्य वस्तु को नित्य वस्तु जैसा विचार करना, अपरिशुभ्र वस्तु को परिशुभ्र वस्तु जैसा विचार करना, दुःखकर वस्तु को सुखकर वस्तु जैसा विचार करना, अनात्म वस्तु को आत्म वस्तु जैसा विचार करना, इस विपर्या भाव ही अविद्या है!
2.6. दृग्दर्शनशक्त्यो रेकात्मतेवास्मिता!
दृग्दर्शनशक्त्योः= सर्व दर्शन करनेवाले है इसी हेतु परुष को दृच्छक्ति कहते है, बुद्धि को दर्शानशक्ति कहते है! ऐकात्मत इव अस्मिता= अभेद जैसा दिखना ही क्लेश है!
सर्व दर्शन करनेवाले है इसी हेतु परुष को दृच्छक्ति कहते है, बुद्धि को दर्शानशक्ति कहते है! दोनों अलग है! अभेद जैसा दिखना ही दुःखकारण है!
2.7. सुखानुशयी रागः
सुखानुशयी= सुख को अनुसरण करनेवाला, रागः=मोह
सुख को अनुसरण करनेवाला मोह है!
2.8. दुःखानुशई द्वेषः  
दुःखानुशई= दुःख को अनुसरन करनेवाला, द्वेषः= द्वेष
दुःख को अनुसरन करनेवाला द्वेष है!
2.9. स्वरसवाही विदुषोपि तथारूढोभिनिवेशः
स्वरसवाही=अपना सहज स्वभाव से, विदुषोपि=बुद्धिजीवियों को भी मन में,  तथा= मूरखों का मन जैसा ही, आरूढ=मरणभय होता, अभिनिवेशः= ऐसे जीवन का उप्पर मोह को अभिनिवेश
अपना सहज स्वभाव से बुद्धिजीवियों को भी मन में मूरखों का मन जैसा ही मरणभय होता है!  ऐसे जीवन का उप्पर मोह को अभिनिवेश कहते है!
2.10. ते प्रति प्रसव हेयाःसूक्ष्माः
ते= अनंत क्लेशों, सूक्ष्माः= क्रियायोग से नाश हुआ सूक्ष्म क्लेशों व दुःखों, प्रति प्रसव हेयाः= चित्त नाश हेतु हेतु असम्प्र ज्ञातसमाधि से नाश होजायेगा!
क्रियायोग से अनंत क्लेशों व दुःखों के चित्तनाश व मन नाश के हेतु असम्प्रज्ञात समाधि से नाश हो जायेगा!
2.11. ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः  
तद्वृत्तयः= क्लेश वृत्तयः,  ध्यानहेयाः= ध्यान से निर्बीज करना चाहिए
क्लेशा वृत्तयः ध्यान से निर्बीज करना चाहिए!
2.12. क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्ट जन्मवेदनीयः
कर्माशयः= कर्म संस्कारों, क्लेशमूलः=अविद्यादि क्लेशो को मूलकारण, दृष्टादृष्ट जन्मवेदनीयः= इस जन्म में ही फल मिलेगा, देहात्यागानंतर भी फल देगा!
कर्म संस्कारों—काम का राग हेतु है, लोभ का अभिनिवेश हेतु है, क्रोध का द्वेष हेतु है, मोह का अज्ञान हेतु है! इन कर्म संस्कारों का हेतु अविद्या है! इन कर्म संस्कारों का त्यागा का हेतु इस जन्म में भी फल मिलेगा, देहात्यागानंतर भी फल मिलेगा!
2.13. सतिमूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः
मूले= धर्माधर्मो को हेतु अविद्या क्लेशो है! सति=होगा, जात्यायुर्भोगाः= जन्म आयु भोग है, तद्विपाको= कर्मा फल देगा  
अविद्या क्लेशों धर्माधर्मो को हेतु है! अविद्या क्लेशों ही कर्मा फल देगा! वो नहीं होनो से धर्माधर्मो नहीं है!
2.14.  ते ह्लाद परितापफलाः पुण्यापुण्य हेतुत्वात्
ते= जन्म, आयु, भोग, इन सब तीन विपाक है! पुण्यापुण्य हेतुत्वात्= इन सब पुण्यापुण्य हेतु है! ह्लाद परितापफलाः= इन तीनों के अनुसार  संतोष व दुःख मिलेगा!  
जन्म, आयु, भोग, इन सब तीन विपाक है! इन सब पुण्यापुण्य हेतु है! इन तीनों के अनुसार संतोष व दुःख मिलेगा!
2.15. परिणाम ताप संस्कार दुखैर्गुण वृत्ति विरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः
विवेकिनः= प्रकृति पुरुष का परिणाम का विवेक योगी को है! परिणाम ताप संस्कार दुखैः= परिणाम दुःख, ताप दुःख, संस्कार दुःख का हेतु,  गुण वृत्ति विरोधाच्च= सत्वादि गुण वृत्तियों का परस्पर विरोध का हेतु, दुःखमेव सर्वं= सारे विषय सुखो को विवेकवान् दुःख ही समझेगा!
प्रकृति पुरुष का परिणाम विवेकवान् योगी को है!  परिणाम दुःख, ताप दुःख, संस्कार दुःख, सत्वादि गुण वृत्तियों का परस्पर विरोध का हेतु, सारे विषय सुखो को विवेकवान् दुःख ही समझेगा!

2.16. हेयं दुःखमनागतम्
हेयं दुःखमनागतम् = आने वाले दुःख त्यागानीय है!
भूत काल का दुःख अनुभव किया है! वर्त्तमान काल का दुःख करी रहे है!इसी हेतु आने वाले दुःख त्यागानीय है!
2.17. द्रष्टृदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः
द्रष्टृदृश्ययोः=द्रष्ट पुरुष है, प्रकृति दृश्यम, संयोगो हेयहेतुः= उन दोनों का संयोग ही संसार हेतु
प्रकृति और पुरुष दोनों का परस्पर सबंध ही संसार हेतु है! यह संसार ही दुःख  हेतु है!
2.18. प्रकाश क्रियास्थितिशीलम् भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम्
प्रकाश क्रियास्थितिशीलम्= सत्वगुण प्रकाशशील, रजोगुण क्रियाशील, तमोगुण स्थितिशील,  भूतेन्द्रियात्मकं= भूतो इन्द्रियों कार्य, भोगापवर्गार्थं दृश्यम्= भोग और मोक्ष इन का फल  
सत्वगुण प्रकाशशील, रजोगुण क्रियाशील, तमोगुण स्थितिशील, इन तीनो को गुणत्रय कहते है! भूतो और इन्द्रियों दोनों का कार्य करते है! भोग और मोक्ष इन का फल है!
2.19. विशेषा विशेषलिंग मात्रा लिंगानि गुणपर्वाणि 
विशेषा विशेषलिंग मात्रा लिंगानि= 1. विशेष, 2. अविशेष, 3. लिंगमात्र, 4. आलिंगम्,  गुणपर्वाणि= इन सब गुणों का अवस्था पर्वो है!
1. विशेष, 2. अविशेष, 3. लिंगमात्र, 4. आलिंगम्,  इन सब, गुणों का अवस्था पर्व है!
1. विशेष—आकाशा, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी—इन को पंचभूत कहते है! श्रोत्रं, त्वक, चक्षु, जिह्वा, और घ्राण –इन को पंच ज्ञानेंद्रिय कहते है!  वाक् पाणि पादम पायु और उपस्थ—इन को पंच कर्मेन्द्रिय कहते है!     
1.     2. अविशेष—शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, इन को पंच ज्ञानतन्मात्रायें कहते है! इन का हेतु अहंकार है! पंच ज्ञानतन्मात्रायें और अस्मित व अहंकार को मिलके अविशेष कहते है!
3. लिंग मात्र—पंच ज्ञानतन्मात्रायें और अहंकार, इन दोनों का हेतु मूल प्रकृति है! इस का प्रथम परिणाम महत्तत्व है! इसी को लिंग मात्र कहते है!
4. आलिंग—महत्तत्व का परिणाम को आलिंग कहते है!
उप्पर कहागया जो भी, गुणों का अवस्था पर्व ही है! इन में वास्तव में गुण नाश नहीं होते और जन्म भी नहीं लेते!

2.20. द्रष्टा दृशिमात्रःशुद्धोपि प्रत्ययानुपश्यः   
दृशिमात्रः= ज्ञान स्वरूपी पुरुष, द्रष्टा= द्रष्ट, शुद्धोपि= शुद्ध होने से भी, प्रत्ययानुपश्यः= ज्ञानधार है! 
ज्ञान स्वरूपी पुरुष को द्रष्ट कहते है! वह शुद्ध होने से भी, मन का अनुसरण करेगा!
2.21. तदर्थ एव दृश्यस्यात्मा
दृश्यस्यात्मा= दिखाईदेनेवाले इस सृष्टि,  तदर्थ एव= उस नहीं दिखाईदेनेवाले परमात्मा व परमसत्य को व्यक्त करने को   
दिखाईदेनेवाले इस सृष्टि, उस नहीं दिखाईदेनेवाले परमात्मा व परमसत्य को व्यक्त करने को ही है!
2.22. तदन्य कृतार्थं प्रतिनष्टमप्यनष्टम् साधारणत्वात्
 कृतार्थं प्रति= ज्ञानी पुरुष को, तद् नष्टमपी= अदृष्य नाश होने से भी, अन्य साधारणत्वात्= अज्ञानी पुरुषों को साधारण है, अनष्टम्= अविवेकी हो होता ही
ज्ञानी पुरुष को दृष्य व सृष्टि नहीं है! अज्ञानी पुरुषों को दृष्य व सृष्टि साधारण है! इसी हेतु अविवेकी को दृष्य व सृष्टि होता ही है!

2.23. स्वस्वामिशक्त्योः स्वरूपोपलब्धि हेतुः संयोगः
स्वस्वामिशक्त्योः= अपना बुद्धि को, परमात्मा जो आदिपुरुष है, स्वरूपोपलब्धि हेतुः=दृष्ट, दृश्य दोनों का स्वरुप सिद्धि होने संबध को, संयोगः= संयोग कहते है!
अपना बुद्धि को, परमात्मा जो आदिपुरुष है,  दृष्टा, दृश्य दोनों का स्वरुप सिद्धि होने संबध को, संयोग कहते है!
दृश्य परमात्मा का अधीन में होता है! इसी हेतु वह परमात्मा का स्वशक्ति कहते है! भोग और उनका वर्गों को पुरुष पात्र है! इसी हेतु पुरुष का शक्ति,  परमात्मा का शक्ति है! इसी को स्वामि शक्ति कहते है!
2.24. तस्य हेतुरविद्या
 तस्य= उन प्रकृति पुरुष संयोग दुःख को, हेतुरविद्या= हेतु अविद्या
उन प्रकृति पुरुष संयोग दुःख का हेतु अविद्या है!
2.25. तदभावात् संयोगा भावो हानं तत् दृशेः कैवल्यं
 तदभावात् =उस अभाव नहीं होते हुवे है, संयोगा भावः= संयोगा भावः, हानं= नहीं है! तत् दृशेः कैवल्यं= वैसा नहीं होना ही कैवल्य है!
उस अभाव नहीं होते हुए संयोगा भावः नहीं है! ऐसा न होना ही कैवल्य है!

2.26. विवेकख्याति रविप्लवा हानोपायः
अविप्लवा= ज्ञानस्वरुप कष्टों से विमुक्ति करनेवाला परमात्मा, विवेकख्याति= को पाना  हानोपायः= अविद्या निवारण का उपाय
ज्ञानस्वरुपी, कष्टों से विमुक्ति करनेवाला, परमात्मा को पाना अविद्या निवारण का उपाय है!
2.27. तस्य सप्तधा प्रांतभूमिः प्रज्ञा
तस्य=वैसा योगी को, सप्तधा= साथ प्रकारका, प्रांतभूमिः= सर्वाधिक, प्रज्ञा= प्रज्ञ मिलेगा
ऐसे योगी को सात प्रकारका सर्वाधिक प्रज्ञ मिलेगा, यानी सप्त चक्रों में कुण्डलिनी जागृत होगा!
2.28. योगांगानुष्ठाना दशुद्धिक्षये ज्ञान दीप्तिरा विवेकख्यातेः
योगांगानुष्ठानात्= यम नियमादि योग को अंगो को अनुष्टान करने से, अशुद्धिक्षये= अज्ञान नाश होगा, ज्ञान दीप्तिरा विवेकख्यातेः= परमात्मा दर्शाना होने पर्यंतज्ञान दीप्ति लभ्य करेगा
यम नियमादि योग के अंगो को अनुष्टान करने से, अज्ञान नाश होगा, परमात्म दर्शान होने पर्यंत ज्ञान दीप्ति लभ्य करेगा!
2.29. यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारण ध्यान समाधयोः अष्टांगानि
यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारण ध्यान समाधि अष्टांग योग को क्रमपद्धति में अभ्यास करना चाहिए!
2.30.अहिंसा सत्यमस्तेय ब्रह्मचर्या परिग्रहायमाः
अहिंसा= अहिंसा (किसी प्राणी को हिंसा नहीं करना), सत्यम्, अस्तेय= किसी से भी शास्त्र विरुद्ध व धर्मं विरुद्ध वस्तु नहीं लेना, ब्रह्मचर्या= सदा ब्रह्म मार्ग में चलना,   अपरिग्रहा= विषयोपभोगों को त्याग करना, यमाः= इन सब को यम कहते है!
अहिंसा (किसी प्राणी को हिंसा नहीं पहुंचाना), सत्यम्,  किसी से भी शास्त्र विरुद्ध व धर्मं विरुद्ध वस्तु नहीं लेना,  सदा ब्रह्म मार्ग में चलना, विषयोपभोगों को त्याग करना,  इन सब को यम कहते है!
2.31. एते जाति देश काल समया नवच्छिन्नाः सार्वभौमामहाव्रतम्
एते जाति देश काल समया नवच्छिन्नाः= ए यम, जाति देश काल समय से अस्पर्शनीय है! सार्वभौमा= सर्वावस्थों में, महाव्रतम्= महाव्रतम् है!  
ए यम, जाति देश काल समय से अस्पर्शनीय एवम् सर्वावस्थों में महाव्रतम् है!
2.32.शौच संतोष तपस्स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि नियमाः
शौच संतोष तपस्स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि= शुभ्रता,  संतृप्ति, तपः= तपस्, स्स्वाध्या= अपना श्वास को देखना, ईश्वर प्रणिधानानि= ईक्षणों को श्वर जैसा उपयोग करना,  नियमाः=इन को नियम कहते है!
शुभ्रता, संतृप्ति, तपस्, अपना श्वास को पढ़ना व देखना, ईक्षणों को श्वर जैसा उपयोग करना, इन को नियम कहते है!
2.33. वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम्
वितर्कबाधने= इन यम नियमो के विरुद्ध विचारे आनेपर, प्रतिपक्षभावनम्= उनका विरुद्ध विचारे करना चाहिए
इन यम नियमो के विरुद्ध विचारे आनेपर, उनका विरुद्ध विचारे करना चाहिए! तब वे विचारे मन से दूर हो जायेंगे!
2.34. वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभ क्रोध मोहपूर्वकामृदु मध्याधिमात्रा दुःखाज्ञाना नन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम्
वितर्का हिंसादयः= हिंसा इत्यादि अहिंसा विरृद्ध है!  कृतकारितानुमोदिताः= ए अपन से किया हुआ, दूसरो से करवायागया, और इतरो द्वारा करने से शाभाषी देना, लोभ क्रोध मोहपूर्वकाः= लोभ क्रोध और मोह पूर्वक, मृदु मध्याधिमात्राः= मृदु मध्य अधिकमात्रा भेद के साथ, दुःखाज्ञाना नन्तफलाः= दुःख और अज्ञान का अनुसार अन्त में फल देने इस भाव को, प्रतिपक्षभावनम्= प्रतिपक्षभावना कहते है!
हिंसा इत्यादि अहिंसा विरृद्ध है!  ए अपन से किया हुआ, दूसरो से करवायागया, और इतरों द्वारा करने से शाभाषी देना, लोभ क्रोध और मोह पूर्वक, मृदु मध्य अधिकमात्रा भेद के साथ, दुःख और अज्ञान का अनुसार, अन्त में फल देने के इस भाव को, प्रतिपक्षभावना कहते है!

2.35.अहिंसा प्रतिष्ठायाम् तत्सन्निधौ वैरत्यागः
अहिंसा प्रतिष्ठायाम्= अहिंसा में प्रतिष्ठित हुआ योगी को, तत्सन्निधौ वैरत्यागः= उन का सन्निधि में शत्रु को भी मित्रता होती है!
अहिंसा में प्रतिष्ठित हुआ योगी को, उन का सन्निधि में शत्रु को भी मित्रता होती है!
2.36. सत्य प्रतिष्ठायाम् क्रियाफला श्रयत्वम्
सत्य प्रतिष्ठायाम्= सत्य प्रतिष्ठित होने से,  क्रियाफला श्रयत्वम्= काम में और उस काम का फल में सत्य ही होगा
सत्य प्रतिष्ठित होने से, काम में और उस काम का फल में सत्य ही दिखाईदेगा! 
2.37. अस्तेय प्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्
अस्तेय प्रतिष्ठायां= यम में एक भाग अस्तेयं है! उस अस्तेयं में प्रतिष्ठित होने से,   सर्वरत्नोपस्थानम्= सर्वरत्न उपलब्ध होगा  
यम में एक भाग अस्तेयं है! उस अस्तेयं में प्रतिष्ठित होने से, सर्वरत्न उपलब्ध होगा!
2.38. ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायाम् वीर्यलाभः
ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायाम्= ब्रह्म में संचारण करके उसी ब्रह्मम में प्रतिष्ठित हुआ योगी को, वीर्यलाभः= वीर्यलाभ होगा!  
ब्रह्म में संचारण करके उसी ब्रह्म में प्रतिष्ठित हुआ योगी को, वीर्यलाभ होगा!  
2.39. अपरिग्रह स्थैर्ये जन्म कथंतासंबोधः
अपरिग्रह स्थैर्ये= अपरिग्रह यानी विषयोप भोग को त्यजना, अपरिग्रह स्थिरा होने पर,  जन्म कथंता संबोधः=  जन्म कैसा है पता लगेगा 
अपरिग्रह यानी विषयोप भोग को त्याजना, अपरिग्रह स्थिराभ्यास होने पर, जन्म की जानकारी मिलाजायेगी!

2.40. शौचात् स्वांग जुगुप्सापरैरसंसर्गः
शौचात्=शौच का हेतु, स्वांग= अपना शरीर का उप्पर, जुगुप्सा= अइष्टता, परैः= दूसरो का उप्पर भी, असंसर्गः= अइष्टता, होता
शौच का हेतु अपना शरीर का उप्पर अइष्टता तथा दूसरो का उप्पर भी अइष्टता होता है!
2.41. सत्वशुद्धि सौमनस्यैकाग्र्येंद्रियजयात्म दर्शानयोग्यत्वानिच
सत्व= सत्व  गुण, शुद्धि= निर्मालत्व, सौमनस्य=स्वच्छता, एकाग्र्य= एकाग्रता,  इंद्रियजय=इंद्रियों को वश में रखना, आत्म दर्शानयोग्यत्वानिच= आत्मसाक्षात्कार
सत्व गुण से निर्मलत्व प्राप्ति होगा, उस निर्मलत्व से चित्त स्वच्छता मिलेगा, उस  चित्त स्वच्छता से मनो एकाग्रता मिलेगा, उस मनो एकाग्रता से  आत्मसाक्षात्कार प्राप्ति होगा!
2.42. संतोषादानुत्तमः सुखलाभः
संतोषात्= संतृप्ति का हेतु, अनुत्तमः= अत्युत्तम, सुखलाभः= सुख लभ्य होगा!
संतृप्ति के हेतु अत्युत्तम सुख लभ्य होगा!
2.43. कायेंद्रिय सिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः
तपसः=तपस का हेतु, अशुद्धिक्षयात्= मालिन्य नाश होने पर, कायेंद्रिय सिद्धिः= इन्द्रियों का माध्यम से शरीर पवित्र हो जाएगा!
तपस के हेतु मालिन्य नाश होने पर इन्द्रियों, और इन्द्रियों का माध्यम से शरीर पवित्र हो जाएगा!
2.44. स्वाध्याया दिष्टदेवता सुप्रयोगः
स्वाध्यायात्= स्वाध्याय यानी खुद के श्वास को स्वयं देखना, इष्टदेवता सुप्रयोगः= इष्टदेव की प्राप्ति होगी!
स्वाध्याय यानी खुद के श्वास को स्वयं देखना, जिस से इष्टदेव की प्राप्ति होगी!
2.45.समाधिसिद्धिः ईश्वरप्रणिधानात्
ईश्वरप्रणिधानात् = ईक्षण को श्वर जैसा उपयोग करा के ध्यान करने से, समाधिसिद्धिः= समाधि सिद्धि अवश्य मिलेगा!
ईक्षण को श्वर जैसा उपयोग करा के ध्यान करने से, समाधि सिद्धि अवश्य मिलेगा!
2.46. स्थिर सुखमासनम्
स्थिर सुखम्= निश्चल और सुख, आसनम्= आसनम्
आसनम् निश्चल और सुख होना चाहिए!
आसनम् केलिए वस्त्र, दुर्भा, कंबल उपयोग करसकता है!  कुछ आसन:
पद्मासन, वीरासन, भद्रासन, गोरक्षासन, सिद्धासन, कपालासन, स्थिरसुखासन, पश्चिमतानासन, मयूरासन, शवासन, और सर्वांगासन इत्यादि है!
2.47.प्रयत्न शैथिल्यानन्त समापत्तिभ्याम् 
प्रयत्न=शरीर से  स्वाभाविक प्रयत्न,  शैथिल्य= क्षीण होने पर, अनन्त समापत्तिभ्याम्= कूटस्थ में मन एकाग्र हो जाएगा!
शरीर से स्वाभाविक प्रयत्न क्षीण होने पर, कूटस्थ में मन एकाग्र हो जाएगा!

2.48. ततो द्वन्द्वानभिघातः
ततः= उस आसनासिद्धि हेतु, द्वन्द्वानभिघातः= शीतोष्ण द्वंद्वो पीढा नहीं होगी!
उस आसनासिद्धि हेतु, शीतोष्ण द्वंद्वो पीढा नहीं होगी!

2.49. तस्मिन् सति श्वास प्रश्वासयोर्गति विच्छेदः प्राणायामः
तस्मिन्= आसनसिद्धि, सति= हुआ, श्वास प्रश्वासयोर्गति विच्छेदः= श्वास प्रश्वास कि गति आने जाने, प्राणायामः= प्राणायाम
आसनसिद्धि हुआ साधक का श्वास प्रश्वास आने जाने कि गति ही प्राणायाम है!
2.50.बाह्याभ्यंतर स्तंभवृत्ति र्देशकाल संख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः
बाह्याभ्यंतर स्तंभवृत्ति= श्वास प्रश्वास वृत्ति दोनों स्थगित होजायेगा! देशकाल संख्याभिः= देश काल और ज्ञान,  परिदृष्टो= परिशीलन करके, दीर्घसूक्ष्मः= दीर्घ और सूक्ष्म होगा!
श्वास प्रश्वास वृत्ति दोनों स्थगित होजायेगा! देश काल और ज्ञान, परिशीलन करनेके पश्चात, बाह्याभ्यंतर स्तंभवृत्ति दीर्घ और सूक्ष्म होगा!
2.51. बाह्याभ्यंतर विषया क्षेपी चतुर्थः
बाह्याभ्यंतर विषया क्षेपी चतुर्थः= बाह्य रेचकम, अभ्यंतर पूरकं इन दोनों को व्यत्यास व दूर होने से आत्मसाक्षात्कार मिलेगा! इसी को केवल कुम्भक कहते है!
रेचकम और पूरकं इन दोनों को व्यत्यास व दूर होने से आत्मसाक्षात्कार मिलेगा! इसी को केवल कुम्भक कहते है!
2.52. ततःक्षीयते प्रकाशावरणम्
ततः=इस प्राणायाम अनुष्ठान का हेतु, क्षीयते= नाश होगा, प्रकाशावरणम्= अज्ञान
इस प्राणायाम अनुष्ठान का हेतु अज्ञान नाश होगा!
2.53. धारणासु च योग्यता मनसः
धारणासु च = एकाग्र का हेतु, योग्यता मनसः= मन का सामर्थ्य मिलेगा!
एकाग्र का हेतु, मन का सामर्थ्य मिलेगा!
2.54.स्वविषया संप्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेंद्रियाणां प्रत्याहारः
इंद्रियाणां= इंद्रियों को, स्वविषया= अपने अपने विषयों में, असंप्रयोगे= उपयोग नहीं होनेपर, चित्तस्य= मन के, स्वरूपानुकार इव= स्वरुप जैसा होना, प्रत्याहारः= प्रत्याहार कहते है!
इंद्रियों को अपने अपने विषय में, उपयोग नहीं होनेपर, मन के, स्वरुप जैसा होना,  प्रत्याहार कहते है!
2.55.ततः परमावश्यतेंद्रियाणाः 
ततः= उस प्रत्याहार हेतु, परमावश्यतेंद्रियाणाः= इन्द्रिय वश में आएगा 
उस प्रत्याहार हेतु, इन्द्रिय वश में आएगा!  .






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