पतंजलि योगशास्त्र 1-42
योगशास्त्र में 196
योग सूत्रों है! इन 196 योग सूत्रों चार पदों (parts) में विभाजित किया है! उन में
प्रप्रथम पद समाधि पद यानी समाधि पद का बारे में चर्चा करेंगे!
1.समाधि पद:
सम= सम, अधि= परमात्मा, पद= पद
परमात्मका समान् पद
व श्वाससहित स्थिति से श्वासरहित स्थिति को पहुँचना है!
1.1.
अथ योगानुशासनम्
अथयोग= मिलना अथवा
अईक्य होना, अनुशासनम्= अनुशासनम् व
क्रमशिक्षाना आवश्यक है!
1.2.
योगःचित्तवृत्तिनिरोधः
योगः= अईक्य होना, चित्त=
मन की, वृत्तिनिरोधः= वृत्ति को निरोध करेगा!
अईक्य होना मन की वृत्ति
को निरोध करेगा!
1.3. तदा द्रष्टुःस्वरूपे अवस्थानाम्
तदा= तदा, द्रष्टुः= दर्शन (करेगा), स्वरूपे = अपना स्वरूप
को, अवस्थानाम्= असली रूप स्थिति
तदा तुम तुम्हारा निज रूप स्थिति व अपना स्वरूप
को दर्शन करोगे!
तेजी से चलनेवाले वाहन
में चढना कठिन है! वह रुखा हुआ होने से सरक्षित चढसकता है!
वायु गति से अधिक
गति से चलनेवाली आलोचना से समायुक्त मन का निजरूपस्थिति को दर्शन करने मार्ग सुगम
होने को एक ही मार्ग यह ही है! मन आलोचनारहित स्थिति को पहुचने मार्ग यह ही है!
1.4 वृत्ति सारूप्यमितरत्र
वृत्ति = प्रकृति, सारूप्य= रूप, इतरत्र= इतरत्र
अथवा मन का प्रकृति और स्वरुप इतरत्र होंगे!
1.5 वृत्तयः पंचतव्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः
वृत्तयः= मन का प्रकृति, पंचतव्यः= पांच प्रकार,
क्लिष्ट= कठिन, और अक्लिष्टाः= सुलभतर
मन का प्रकृति पांच प्रकार है! वे कठिन और सुलभतर है!
1.6.प्रमनविपर्यय विकल्प निद्रास्म्रुतयहः
प्रमन=जानना, विपर्यय=नहीं
जानना, विकल्प=ग्रहण, निद्रा= निद्रा, स्म्रुतयः= स्म्रुतयः
प्रमन=जानना, विपर्यय=नहीं
जानना, विकल्प=ग्रहण, निद्रा= निद्रा, स्म्रुतयः= स्म्रुतयः
वे :-- जानना, नहीं
जानना, ग्रहण, निद्रा, और स्म्रुतयः
उप्पर दिया हुआ जैसा
प्रकृति को पांच प्रकार का समझसकता है! वह प्रकृति को ठीक क्रम में व गलत क्रम में
समझने को मार्ग बनेगा! सद्भाव और दुर्भाव का साथ मिला हुआ विचारे स्मृति में अपना
अपना स्थान व निवास बनाएगा!
1.7 प्रत्यक्क्षानुमानागमाः प्रमाणानि
प्रत्यक्क्ष= प्रत्यक्क्ष,
अनुमान, आगमाः= गवाह, प्रमाणानि= प्रमाण
प्रत्यक्क्ष, अनुमान,
और गवाह, यह तीनों प्रमाण है!
1.8 विपर्ययो मिथ्या ज्ञानमतद्रूप प्रतिष्ठं
विपर्ययो=गलत, मिथ्या ज्ञानम=अज्ञान, तद्रूप=मन का रूप, प्रतिष्ठं=स्थिरीकरण करना
गलत और अज्ञान मन का
रूप नहीं इति स्थिरीकरण किया है!
1.9 शब्द ज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः
शब्द=भाषा, ज्ञान= ज्ञान, अनुपाती=अनुसरण वस्तु=पदार्थ, शून्यो= शून्य विकल्पः= भाव
केवल भाषाज्ञान अनुसरण
करके पदार्थ को समझ नहीं करसकता है!
1.10 अभाव प्रत्ययालम्बना वृतिर्निद्रा
अभाव= अस्थिर, प्रत्यया=भाव, आलम्बना=आधार,
वृति=स्वभाव, र्निद्रा= र्निद्रा
अस्थिर भाव आधार का स्वभाव र्निद्रा है!
1.11. अनुभूतविषया सम्प्रमेषः स्मृतिः
अनुभूतविषया=
अनुभूति का साथ जोडाहुआ, सम्प्रमेषः= नहीं
भूलेगा, स्मृतिः= स्मृति
अनुभूति का साथ
जोडाहुआ स्मृति कभी नहीं भूलपाएगा!
1.12. अभ्यासवैराग्याभ्याम्
तन्निरोधः
अभ्यास= अभ्यास, वैराग्याभ्याम्= वैराग्य तन्निरोधः = उसको निरोध करेगा
अभ्यास और वैराग्य दोनों से उसको निरोध करसकेगा!
1.13.तत्र स्थितौ
यत्नोभ्यासः
तत्र स्थितौ= उस
स्थिति, यत्नोभ्यासः= प्रयत्न का अभ्यास
उस स्थिर स्थिति में
मन रखने को निरंतर प्रयत्न ही अभ्यास है!
1.14. स तु दीर्घकाल नैरंतर्य सत्कारासेवितो दृढ़भूमिः
स तु= इस प्रयत्न, दीर्घकाल= दीर्घकाल, नैरंतर्य=निरंतर, सत्कारासेवितो= चतुराई और सहिष्णुता से दृढ़भूमिः=दृढ़
इस प्रयत्न को दीर्घकाल निरंतर, चतुराई, सहिष्णुता,
और दृढ़निश्चय से करना चाहिए!
1.15. दृष्टानुश्रविकविषय
वितृष्णस्य वशीकार संज्ञावैराग्यं
दृष्टा=देखके, अनुश्रविक= सुनसे भी, विषय= विषय, वितृष्णस्य= आसक्ति, वशीकार=वश में, संज्ञावैराग्यं = चेतना अथवा वैराग्य
मन प्रतिस्पंदन नहीं करने को वस्तु को प्रत्याक्ष रूप में अथवा किसी से ग्रहण करने से भी
आसक्ति नहीं होना चाहिए! तब मन को वश में कर सकते है!
1.16. तत् परम् पुरुष
ख्यातेर् गुण वैतृष्णम्
पुरुष ख्यातेर्= प्रकृति पुरुष ज्ञानसहित,
गुण वैतृष्णम्=वैविध्य गुण, तत्
परम्= उस परा वैराग्य
प्रकृति पुरुष ज्ञानसहित वैविध्य गुण वैराग्य ही उस परा वैराग्य है! परमात्मा
का उप्पर आसक्ति ही परा वैराग्य है! काषाय वस्त्र पहनने से वैरागी नहीं कहा जाता
ही!
1.17. वितर्कविचारानन्दास्मितास्वरूपानुगमात् सम्प्रज्ञातः
वितर्कविचारानन्दास्मितास्वरूपानुगमात् = विशिष्ट व केवल तर्क, विचार, आनंद,
अस्मिता (मोह), और स्वरुपों अनुबंध व सांगत्य का, सम्प्रज्ञातः= सम्प्रज्ञात समाधि
विशिष्ट व केवल
तर्क, विचार, आनंद, अस्मिता (मोह), और स्वरुपों अनुबंध व सांगत्य का समाधि
सम्प्रज्ञात समाधि है!
1.18.विराम प्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोन्यः
विराम= उप्पर बोला हुआ केवल तर्क, विचार, आनंद, अस्मिता (मोह), और
स्वरुपों को त्याग करने को, प्रत्यय=हेतु, अभ्यासपूर्वः= अभ्यास
का पूर्व संस्कारशेषः=वृत्तिरहित सम्स्काराशेष, अन्यः=सम्प्रज्ञात समाधि कहते है!
उप्पर बोला हुआ केवल तर्क, विचार, आनंद, अस्मिता (मोह), और
स्वरुपों को त्याग करने
हेतु वैराग्य है! इस का अभ्यास का पूर्व
बचा हुआ सम्स्कारों व संस्कार शेष को सम्प्रज्ञात समाधि कहते है!
1.19. भव प्रत्ययो विदेह प्रकृति लयानाम्
विदेह= स्थूलदेह
छोडाहुआ लोगो को, प्रकृति लयानाम्= सूक्ष्म कारण में लयहोने लोगो को, भव प्रत्ययो=
संसार हेतु
स्थूलदेह छोड के सूक्ष्मशरीर
और कारणशरीरों में लयहोने लोगो को, पुनः संसार हेतु है!
1.20.श्रद्धावीर्य स्मृति समाधि प्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्
इतरेषाम् =दूसरों से जादा, स्मृति समाधि प्रज्ञापूर्वक श्रद्धावीर्य= स्मृति समाधि प्रज्ञापूर्वाक श्रद्धावीर्य
पुनर्जन्म
लेने से यानी प्रकृति लय से भिन्न है योगी लोग!
स्मृति समाधि प्रज्ञा श्रद्धा और वीर्य,
समाधि के पूर्व आता है!
1.21.तीव्रसंवेगानामासन्नः
तीव्रसंवेगानाम् = वैसा तीव्रवैरागी लोगों को, आसन्नः= समाधि शीघ्र ही आयेगा!
वैसा
तीव्रवैरागी लोगों को समाधि शीघ्र ही आयेगा!
1.22. मृदुमध्याधि मात्रत्वात् ततोपि विशेषः
मृदुमध्याधि
मात्रत्वात्= मृदुत्व, मध्यत्व, अधिकत्व, मात्रत्वात्= उन तीव्र वैरागियों
में ततोपि विशेषः=
समाधिप्राप्तियो में विभेद है!
मृदुत्व,
मध्यत्व, अधिकत्व, जैसा उन तीव्र वैरागियों में समाधिप्राप्तियो
में विभेद है!
1.23. ईश्वरप्रणिधानाद्वा
वा= केवल, ईश्वरप्रणिधानाद्=
ईश्वरप्रणिधानाद्
केवल ईश्वर यानी ईक्षणों को श्वर जैसा
उपयोग करके कूटस्थ में तीव्र ध्यान करने से समाधि प्राप्ति होगा! दोनों नेत्रों का
मध्य प्रदेश को कूटस्थ कहते है!
1.24. क्लेशकर्मविपाकाशयैरापरामृष्टः पुरुष
विशेषः ईश्वरः
क्लेश= अविद्यादि क्लेशों से, कर्म= शुभ अशुभ कर्मो से, विपाक=सुख दुःख फलो
से, आशयैः=संस्कारों से, अपरामृष्टः=न
छूने योग्य, पुरुष विशेषः=अद्वितीय पुरुष, ईश्वरः= ईश्वर
अविद्यादि
क्लेशों से, शुभ अशुभ कर्मो से, सुख दुःख फलो से, संस्कारों
से,
कार्य कारण सिद्धात से न छूने योग्य, अद्वितीय
पुरुष ही ईश्वर है!
1.25. तत्र निरतिशयं
सर्वज्ञत्वबीजं
तत्र= उस ईश्वरमें, सर्वज्ञत्वबीजं= सर्वज्ञत्व ज्ञान, निरतिशयं
उस ईश्वरमें सर्वज्ञत्व
ज्ञान निरतिशय होगया!
1.26.
स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्
स= वह आदिपुरुष, पूर्वेषामपि गुरुः= पूर्वमेभी
गरिष्ठ, कालेनानवच्छेदात्= उन को काल स्पर्श नहीं कर सकता!
वह आदिपुरुष पूर्वमे भी गरिष्ठ और काल का
अतीत है!
1.27. तस्य वाचकः प्रणवः
तस्य=उनका, वाचकः=प्रतिनिधि, प्रणवः=ॐ
उनका प्रतिनिधि ॐ है!
1.28. तत् जपः तदर्थ भावनम्
तत् जपः= उसका जप करने से, तदर्थ भावनम्= उस का अर्थ समझपायेगा!
उसका जप करने से ॐ
का अर्थ समझपायेगा!
1.29. ततः
प्रत्यक्चेतनाधिगमोप्यंतरायाभावश्च
ततः=उस ईस्वरप्रणिधाम से, प्रत्यक्चेतनाधिगमःअपि= अपना साक्षात्कार को, अंतरायाभावश्च= विघ्न नहीं होने
उस ईस्वरप्रणिधाम् से विघ्न नहीं होते है और अंतर्मुख होते है!
1.30.
व्याधिस्त्यानसम्शयप्रमादालस्याविरति भ्रान्तिदर्शनालाब्ध
भूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेन्तरायाः
1)व्याधि 2)स्त्यान= मन विषय का उप्पर लग्न नहीं होना, 3)संशयः 4)प्रमाद=लापरवाई 5)आलस्य 6)अविरति=विषयेंद्रियवान्छा 7)भ्रान्तिदर्शन=
योगसाधना का निरुपयोग देवातावो का दर्शन, 8)अलब्ध भूमिकत्वानि=
योगसाधना का अभिवृद्धि की उपयोगी सूचन नहीं मिलना, 9)अनवस्थितत्वानि= स्थिरत्व नहीं मिलना, चित्तविक्षेपाः=
चित्त स्थैर्य को भंग करनेवाले है, ते
अंतरायाः= ये सब योग को भंग करेगा!
1.31.
दुःख दौर्मनस्यांग में जयत्वश्वास प्रश्वासा विक्षेपसहभुवः
दुःख=भौतिक, सूक्ष्म, और कारण दुःख, दौर्मनस्य= मनस्ताप, अंगमें
जयत्व= आसनसिद्धि नहीं होना, श्वास प्रश्वासाः= श्वास प्रश्वासों का
नियंत्रण नहीं होना, विक्षेपसहभुवः= ये सब
चित्तविक्षेप का कारण होते है!
भौतिक, सूक्ष्म, और
कारण दुःख, मनस्ताप, आसनसिद्धि नहीं होना, श्वास प्रश्वासों का नियंत्रण नहीं
होना, ये सब चित्तविक्षेप का कारण होते है!
1.32.
तत् प्रतिषेदार्थमेकतत्वाभ्यासः
तत् प्रतिषेदार्थम्= चित्तविक्षेप का निवारण करने को, एकतत्वाभ्यासः= मुख्य तत्व को अभ्यास करना चाहिए!
चित्तविक्षेप का
निवारण करने को, मुख्य तत्व को अभ्यास
करना चाहिए!
1.33. मैत्री करुणा मुदितोपेक्षाणाम् सुख दुःख पुन्यापुन्य विषयाणां भावानातश्चित्त
प्रसादनम्
सुख दुःख पुन्यापुन्य विषयाणां= सुख दुःख पुन्य और पापा विषयों मे, मैत्री करुणा मुदितोपेक्षाणाम् = मैत्री
करुणा मुदित (संतोष) और उपेक्ष यानी समभाव,
भावानातः= भावाना करने से, चित्त प्रसादनम्= मन निर्मल होगा!
सुख दुःख पुन्य और पापा विषयों मे,
मैत्री करुणा मुदित (संतोष) और उपेक्ष यानी समतुल्य भावना करने से, मन निर्मल होगा!
1.34.प्रच्चर्दन विधारणाभ्याम् वा प्राणस्य
प्रच्चर्दन विधारणाभ्याम् वा प्राणस्य
प्राणस्य = प्राणशक्ति को, प्रच्चर्दन विधारणाभ्याम् वा=
उच्छ्वास और निश्वासयो को नियंत्रित करने से
प्राणशक्ति को व उच्छ्वास और निश्वास को नियंत्रित करने से मन निर्मल होगा!
1.35.विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थिति निबन्धिनी
वा =अथवा, विषयवती= विषयों में अधिक उत्साहपूर्वक्, प्रवृत्ति=योगी का चित्त
वृत्ति रुत्पन्ना= उत्पन्न, मनसः स्थिति= मन कि स्थिति, निबन्धिनी= निबन्धित व
स्थिरात्व रहेगा!
अथवा, विषयों में अधिक उत्साहपूर्वक्, योगी का चित्त वृत्ति उत्पन्न, मानसिक
स्थिति, निबन्धित व स्थिरात्व रहेगा!
1.36.विशोकावा ज्योतिष्मती
विशोकावा=दुःखरहित मन, ज्योतिष्मती= ज्योतिष्मय होगा!
दुःखरहित मन ज्योतिष्मय होगा, यानि विचार रहित होगा!
1.37. वीतराग विषयं वा चित्तं
वीतराग विषयं वा=रागद्वेष त्याग कियाहुआ, चित्तं=मन
अथवा रागद्वेष त्याग कियाहुआ योगी का मन स्थिरत्व लभ्य होगा!
1.38. स्वप्ननिद्रा ज्ञानालम्बनम् वा
स्वप्ननिद्रा ज्ञानालम्बनम् वा= स्वप्नावस्थ ज्ञान निद्रावस्थ ज्ञान, आलम्बनम् वा= आधारित
स्वप्नावस्थ ज्ञान और निद्रावस्थ ज्ञान आधारित मन स्थिर है!
1.39. यथाभिमतध्यानाद्वा
यथाभिमत्= अपना इष्ट पदार्थ का उप्पर, ध्यानाद्वा= व ध्यान करने से
अथवा अपना इष्ट पदार्थ का उप्पर
ध्यान करने से, साधक का मन स्थिर होगा!
1.40. परमाणु परम महत्वान्तोस्य वशीकारः
अस्य= इस चित्त को, परमाणु= परमाणु को, परम महत्वान्तः= अनंतपदार्थ, को वशीकारः= वश करसकेगा
इस चित्त को, परमाणु को, अनंतपदार्थ को
वश करसकेगा! यानि इस स्थिर चित्त, सूक्ष्म से सूक्ष्म परमाणु को, गरिष्ट से
गरिष्ट अनंतपदार्थ को नियंत्रित करसकेगा!
1.41. क्षीण वृत्ते राभिजातस्येव मणेर्गहीतृग्रहण ग्राह्येषु तत्स्थतदंजनता
समापत्तिः
अभिजातस्य=उत्तम जाति, मणेःइव=रत्न
जैसा, क्षीणवृत्तेः=स्वच्छ मन को, र्गहीतृ=ज्ञात यानी पुरुष में, ग्रहणग्राह्येषु
=पंचभूतों में, पंच तन्मात्रो में, स्थूला सूक्ष्म, और कारण स्थितियों में, तत्स्थतदंजनता=
ऐकाग्रतास्थिति में रहना ही समापत्तिः=
संप्रज्ञातसमाधि है
उत्तम जाति, रत्न जैसा, ज्ञात यानी पुरुष का स्वच्छ मन को, पंचभूतों में,
पंच तन्मात्रो में, स्थूल, सूक्ष्म, और कारण स्थितियों में, ऐकाग्रतास्थिति में
रहना ही संप्रज्ञातसमाधि है!
1.42. तत्र शब्दार्थाज्ञान
विकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः
तत्र= ग्रहीत, ग्रहण, ग्राह्य समापप्ति में, शब्दार्थाज्ञान
विकल्पैः= शब्द का अर्थ में ज्ञान का विकल्प का वजह से, संकीर्णा= संभावित,
सवितर्का समापत्तिः= सवितर्का सप्रज्ञात समाधि है!
ग्रहीत,
ग्रहण, ग्राह्य समापप्ति व एक होने में शब्द का अर्थ में ज्ञान का विकल्प का वजह से
संभावित, सवितर्का व उत्पन्न समाधि सवितर्का सप्रज्ञात समाधि है!
1.43. स्मृति परिशुद्धौ स्वरूप शून्येवार्थ
मात्रनिर्भासा निर्वितर्का
स्मृति परिशुद्धौ= स्मृति परिशुद्ध, अर्थ
मात्रनिर्भासा= केवल ग्राह्यपदार्थ को प्रकाशित करना, स्वरूप शून्ये= अपना ही स्वरुप नहीं होना, निर्वितर्का= निर्वितर्का समाधि कहते है!
सवितर्क समाधि में ग्राह्यं, ग्रेह्यम, ग्रहिता ए तीनो होते है! निर्वितर्क
समाधि में ग्राह्यं, ग्रेह्यम, ग्रहिता ए तीनो नहीं होते है! ये तीनो एक बनते है!
1.44. एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्म विषया
व्याख्याता
एतया एव=इस
सवितर्का निर्वितर्का समाधि निरूपण का सहायता से, सूक्ष्म विषया= सूक्ष्म विषयों, सविचारा
निर्विचारा च व्याख्याता= सविचारा निर्विचारा समाधि इति व्याख्याता
स्थूल पादार्थो
का विषयो में इस सवितर्का निर्वितर्का समाधि निरूपण जैसे किये है, वैसा सूक्ष्म
विषयों में भी, सविचारा निर्विचारा समाधि इति कहते है!
1.45. सूक्ष्म विषयत्वं चालिंग पर्यवसानम्
सूक्ष्म विषयत्वं
च= सूक्ष्म ग्राह्य समाधि में, आलिंग
पर्यवसानम्= रूपरहित होना ही इसका आखरी लक्ष्य है
सूक्ष्म ग्राह्य
समाधि में, रूपरहित होना ही इसका आखरी लक्ष्य है!
1.46. ता एव सबीजः समाधिः
ता एव=सूक्ष्म ग्राह्य समाधि को, सबीजः
समाधिः= सबीज समाधि कहते है!
सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार,
निर्विचार, इति समाधियो चार सबीज समाधियो है!
1.47. निर्विचार वैशारद्ये आध्यात्म प्रसादः
निर्विचार
वैशारद्ये= निर्विचार समाधि में जो निर्मलत्व साधक
को मिलता है, आध्यात्म प्रसादः= वह पदार्थ का यदार्थ ज्ञान है!
निर्विचार समाधि
में जो निर्मलत्व साधक को मिलता है, वह पदार्थ का यदार्थ ज्ञान है!
1.48. ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा
तत्र
प्रज्ञा= उस आध्यात्म का प्रासाद यानी उस परमात्मा का सत्य ही, ऋतंभरा= असली सत्य
यह ऋतंभरा प्रज्ञा
ज्ञान शास्त्र अनुमान प्रमाणों से उत्तम है! ऋतंभरा प्रज्ञा ज्ञान परमात्मा का दें
है! यह असली सत्य है! ऋतंभरा प्रज्ञा विशेष अर्थ का साथ समायुक्त है!
1.49. श्रुतानुमान प्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात्
श्रुतानुमान प्रज्ञाभ्याम् = शास्त्र अनुमान प्रमाणों से से उत्पन्न हुआ
ज्ञान से यह ऋतंभरा प्रज्ञा ज्ञान भिन्न है, अन्यविषया विशेषार्थत्वात्= अन्यविषयो
से यह विशेष है!
शास्त्र अनुमान प्रमाणों से से उत्पन्न हुआ ज्ञान से यह ऋतंभरा प्रज्ञा ज्ञान भिन्न है! अन्यविषयो से यह विशेष है!
1.50. तज्जः संस्कारोन्य संस्कारप्रतिबंधी
तज्जः
संस्कारः= उस निर्विकार समाधि से प्रज्ञासंस्कारउत्पन्न होगा, जिसका हेतु, अन्य
संस्कार प्रतिबंधी= चित्त विक्षेप संस्कारों का निरोध करेगा!
उस
निर्विकार समाधि से ऋतंभरा प्रज्ञा मिलेगा! उस प्रज्ञा संस्कार हेतु, चित्त विक्षेप संस्कारों का निरोध करेगा!
1.51. तस्यापि निरोधे सर्व निरोधान्निर्बीजः
तस्यापि= उस ऋतंभरा प्रज्ञा संस्कार को भी, निरोध= निरोध होने पर, सर्व निरोधात्= सारे संस्कारों को निरोध होने
पर, निर्बीजः= निर्बीजहोगा!
उस ऋतंभरा प्रज्ञा संस्कार को भी निरोध होने पर सारे संस्कारों निर्बीजहोगा!
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