Mantrapushpam in Hindi मंत्रपुष्पं
धाता पुरस्त्याद्य मुदा जहार शक्रः प्रविद्वान प्रतिशश्च तस्रः
तमेव नम्रुतम इह भवति नान्यः पंथा अयनाय विद्यते
ॐ सहस्रशीर्षं देवं विश्वाक्षं विश्व संभुवं
विश्वं नारायण देव मक्षरं परमं पदं
पुष्प यानी मन पूरा विकसत
होके परिवर्तन होकर फल बनता है! वैसा परिणिति नहीं हुआ मन परिवर्तन होकर
ब्राह्मीस्थिति को पहुँचना इति
मंत्रपुष्प का तात्पर्य
है! वह मंत्र का माध्यम से साध्य है! मनानात् त्रायते मंत्रः व जितना मननं करोगे
इतना परिवर्तित होगा मन!
मंत्र पुष्प में दो
भाग है, वे पूर्वार्थ और उत्तरार्था है!
पूर्वार्थ : सहस्रशीर्षा से प्रारंभ होकर
समुद्रेंतम विश्व सम्भुवं तक है! इस में हमारा लक्ष्य क्या इति सूचाना देंगे!
उत्तरार्थ : पद्मकोश प्रतीकाश से आरंभ
होकर अंत तक है! वह लक्ष्य पहुँचने में आवश्यक मार्ग यानी क्रिया योग साधना
प्रक्रिया मार्ग दिखाएगा!
चैतन्य प्रकाश निर्गुण है! नाम रूप काल
देशा शब्द नहीं है! उस निर्गुण चैतन्य प्रकाश से सहस्र व अनेक शिर नेत्र बाहू
इत्यादि व्यक्तीकरण हुआ! यानी हमारा भौतिक व सूक्ष्म व कारण अंग/अंश हमारा प्रति
एक कण सभी उस चैतन्य प्रकाश का स्वरुप ही है! पिपीलीकादी ब्रह्मा पर्यंत चराचर (movable
or immovable)
प्रपंचा में व्याप्त
हुआ जगत सर्वं वह परमात्मा ही है! हम केवल आभासचैतन्य (reflected
energy) ही है!
नारम यानी इन पंच भूतों, पंच कोशों, पंच तन्मात्रायें, पंच कर्मेन्द्रियों, इत्यादि सब का आश्रयदाता एकी तत्व व
परमात्मा तत्व ही है!
उस परमात्मा तत्व अक्षरंव नित्य है! इस
माया जगत अपरं व परिमित है! परमात्मा चैतन्य
परम व अपरिमित है! रूपरहित चैतन्यरहित माया शक्ति का माध्यम से इस प्रपंच
को नाम और रूप द्वारा व्यक्तीकरण कर रहे है!
विश्वतः परमान्नित्यं विश्वं नारायणग्ं
हारिं
विश्व में वेदं पुरुष तद्विश्व मुपजीवति
पतिं विश्वश्यात्मे श्वरग्ं
शाश्वतग्ं शिवमच्युतं
परामत्मा का एक
भाग ही व्यक्तीकरण होकर इस माया जगत बनगया है! परंतु इस माया जगत का अन्दर का मूल
विराट और बाकी तीन भागों अचंचल व अव्व्यक्तीकरण है! इस व्यक्तीकरण हुआ माया का
तरंगों (waves) उस निश्चल
परमात्मा को स्पर्शन नहीं करेगा! समुंदर निश्चल है! परंतु उस का तरंगों bubbles इत्यादि चंचल है! वैसा ही इस चंचल माया अनित्य, और परमात्मा ही नित्य है! रेल इंजन का shaft
उधर ही है, परंतु पूरा रेल गाडी को आगे लेजाते है!
परमात्मा ही परिपूर्ण
है! इस माया प्रपंचा को उस परिपूर्ण चैतन्य ही आधार
है! असत्य को सत्य जैसा, सत्य को असत्य जैसा
दिखाना ही इस माया जगत का लक्षण है! उदाहरण के लिए आकाश नीली रंग में दिखाईदेना !
इस माया जगत एक पशु जैसा
पाशं से बंधित है! परमात्मा ही इस का पति है! माया जगत का आशायें नाम और रूप है!
आकारों पाश है! मै नित्य हु इति मनसा वाचा कर्मणा परिपूर्ण होने तक इस आत्मा
अशुद्धात्मा ही है! इसी को ईश्वर भाव कहते है! एकं सत्यं विप्राः बहुदा वदन्ति!
एकी आत्मा वह विश्वात्मा है! जीवात्मा आभास है!
नारायणं महाज्ञेयं
विश्वात्मानं परायणं
नारायण को ही जानना
महाज्ञेयं व सबसे पहले जानने का छीज है! ज्ञान का अर्थ सद्बुद्धि है! क्रियायोग
साधना में हमारा चेतना को परमात्मा चेतना का साथ मिलाने से आने छीज परायणं यानी
अनंत चेतनं है! इस को देश काल वस्तु इति सरिहद (boundaries)
नहीं है!
नारायण परोज्योती
रात्मा नारायणःपरः
नारायण परम ब्रह्म तत्वं
नारायण परः
नारायण परो ध्याता
ध्यानं नारायण परः
था है होगा एक ही
परमात्मा, और एक ही चैतन्य ज्योति है! वह ही विभिन्न
प्रकारों में व्यक्त होराहा है! वास्तव में जीव, जगत्, इश्वर् अलग अलग नही है! सब वही नारायण स्वरुप, और प्रकाशा है! इसी कारण
मै ही नारायण हु! वह ही ब्रह्मा है! नारायण तत्व ही नारायण तत्वा ही सर्वों से
अयधिक श्रेष्ट है! इसी कारण नारायण ही ध्याता, नारायण ही ध्येयं, नारायण ही ध्यानं, है! तीनों एक होना तब ब्रह्मस्थान लभ्य होगा!
यच्च किङ्चिज्जगत्सर्वं दृश्यते श्रूयतेपिवा
अंतर्बहिश्चा तत्सर्वं व्याप्यनारायाण स्थितः
अनंतमाव्ययं कविग्ं समुद्रेंतं विश्व शंभुवं
इस दृश्यवान् व श्रूयवान् प्रपंच का अन्दर और बाहर सब
में परमात्मा का चैतन्य व्याप्त हुआ है!
उस चैतन्य नित्य और अनंत है! वह चैतन्य देशातीत, कालातीत है! वो नारायण ही महाकवि है! सभी
चेतनायें उन से समाप्त होता है! समुंदर जैसा इस संसार में डूबा हुआ मनुष्य को सुख
और शांति लभ्य नहीं होगा!
पद्मकोश प्रतीकाशग्ं हृदयंचाप्यथो मुखं
अथो निष्ट्या वितस्त्यान्ते नाभ्यामुपरि तिष्ठति
ज्वालामाला कुलं भाति विश्वश्यायतनं महत्
संततग्ं शिलाभिस्तु लम्बत्या कोश सन्निभं
उत्तरार्थं
पुरुषसूकतं अवरोहण मार्ग यानी हम प्रस्तुत
स्थिति में कैसा आगया बोलता है! यानी हमारा निजघर परमात्मा से इस माया का घर में
कैसा गिर पडा इति कहते है!
इस मंत्रपुष्प आरोहण मार्ग है! गतं गतः, जो होना है होगया है! अब इस स्थिती से हमारा
निजघर पहुँचने को क्रियायोग साधना मार्ग इस मंत्रपुष्प दिखाता है!
इस मार्ग शरीर से प्राराम्भा होता है! हृदयं
का अर्थ बुद्धि है! उस का वृत्ति केवल शुद्ध ज्ञान का उप्पर ही निमग्न होना चाहिए!
शतम्चैका हृदयस्य
नाड्यः यानी हृदयं 101 नाड़िया का junction है! हृदयं बुद्धि का
आसन है! उस में मूर्धान मभि निश्रिता यानी
कपाला में रक्त रवाणा करता है! तब बुद्धि आलोचना तरंगों को उत्पादन करेगा!
हृदयं कमल का bud जैसा गर्दन का नीचे बाए तरफ उलटा हर एक
व्यक्ती का अपना अपना मुट्टीभर(fistfull) जैसा परिमाण में होता है!
हृदयं को निष्टि करके याने अंगुलियों से
स्पर्शन करके feel करसकते हो! सारे
प्रपंच को इस मनस ही आधार है! दूर में दिखनेवाली सूर्य ही इस सौरकुटुंब को हृदयं है! वैसा ही शरीर को
हृदयं ही आयतनं व आधार है!
सूर्य अपना प्रकाश से भूमि को घेरा हुआ जैसा
मानव हृदयं नाडीचक्र से घेरा हुआ है! व्यष्टि में हृदय और समिष्टि में सूर्य मुख्य
है!
तस्यांते
सुशिरग्ं सूक्ष्मं तस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितं
हृदयं का मध्य में सूक्ष्म रंध्र है! इसी को
हृदयाकाश व दहराकाश कहते है! इस शरीर में इस नेत्र दृष्टीको नहीं दिखाईदेनेवाला 72
हजार सूक्ष्मनाडियां है! चराचर प्रपंचा सब इसी हृदयाकाश में छिपा हुआ है! इस
स्वयाप्रकासित इस दहराकाश में ही चिदाकाश निक्षिप्त हुआ है! यह ज्ञानग्राही और
ज्ञानस्वरूपी है!
तस्य मध्ये महानग्नि्र्विश्वार्चिर्विश्वतो
मुखः
हृदय रंध्रं अनंत अग्नि है! अग्नि को तापं और रोशनी दोनों होता है! उस अग्नि ज्वालावों का जीब से विराजित है! उस का ज्वालावो चारों वोर
व्याप्ति होगा! हृदय ही एक अग्नि कुण्ड है!
वह अपना अंदर का रक्त को चारों वोर प्रसार करेगा! उस रक्त उष्ण से भरा हुआ
होता है! इस अग्नि तीन प्रकार का होता है! वे 1) आवहनीय, 2) दक्षिणाग्नि, और 3) गार्हपत्य
इस आवहनीय अग्नि आध्यात्मिक
रोशनी हमारा
मुख में दिखाईदेगा! हम खाना करने आहार को भगवान का प्रसाद जैसा लेना आवहनीय अग्नि है!
वह आवहनीय आहार आगे जाके
उदर में इक्कट्ठा होता है! उधर जीर्ण व पचन होकर रस में परिवर्तन होता है! पुनः
ह्रदय में जाएगा! उस पेड़ व उदर का अन्दर जीर्णहोने के लिए सहायता करनेवाला उस उष्ण
को गार्हपत्य अग्नि कहते है! ये रस ह्रदय पहुंचेगा! हृदय में चार कवाटे है! उस चार
कवाटो में दक्षिण कवाट में प्रप्रथम में दिखाईदेनेवाला रक्त को दक्षिणाग्नि कहते
है! तब वह प्राणशक्ति में परिवर्तित होगा!
सोग्रभुग्विभजंतिष्ठन्नाहार
मजरः कविः
मुख्यास्थान में उपतिष्ट
होने हृदय सोग्रभुक है! पशात आवहनीय है! तत्
पशात् रस् को रक्त में मिलादेगा! तब वह दक्षिणाग्नि है! इस प्रकार आहार
जीर्ण होने पद्धति को तिष्ठन् है! इसीको गार्हपत्य कहते है! इस आहार अजरं याने
क्षीणता नहीं है! उस चैतन्य ही द्रष्टा है!
तिर्यगूर्ध्व मथश्शायी
रश्मय तस्य सन्तता
सन्तापयति स्वम् देहापाद
तलमस्तकः
नाड़िया और उनका संतति इस
हृदय से चारों वोर जाएगा! शरीर को तापं और उष्ण करेगा!
तस्य मध्ये वह्नि शिखा अणियोर्ध्वा
व्यवस्थितः
नीलतो यदमध्यस्था द्विद्युलेखेव भास्वरा
नीवार शूकवत्तन्वी पीता भास्वत्यणूपमा
उन
नाड़ियों का मध्य से ह्रुदयाग्नि व वह्निशिखा यानी अग्निज्वाला उद्भवित होगा! उस अग्निज्वाला
को लेजानेवाले रक्तवाहिका अनीय व अत्यांत सूक्ष्म है! वह अणु से भी अत्यांत
सूक्ष्म है! वह सीदा कपाळ में ऊर्ध्वा व्यवस्थितः यानी रास्ता खींचेगा! यह
सुषुम्ना नाडिका साथ जोड़ा हुआ होता है!
यह
सुषुम्ना नाडिनीली मेघों में आकाशीय बिजली (lightning) जैसा है! उस विद्युत्
नीवारी (wild rice
seed) कांटा जैसा
है! अणूपमा यानी अत्यांत सूक्ष्म है! पीता भास्वत्य यानी सुवर्ण रंग में होंगे!
तस्याः शिखायामध्ये परमात्मा
व्यवस्थितः
सब्रह्म स शिवः स हरिः सेंद्रः
सो क्षरः परमस्वराट्
उस का मध्य में निराकार
निर्गुण परमात्मा व शुद्ध ज्ञानचैतन्य उपस्थित होता है! वोई ब्रह्मा, वोई शिव, वोई
विष्णु, वोई इंद्रा, वोई अविनाशी, वोई अत्यंत श्रेष्ट है!
योपां पुष्पं वेद पुष्पवान्
प्रजावान् पशुमान् भवति
पुष्पों का सत्य करो! पुष्पों
का प्रजा का, पशुवो का अधिनायक बनजावो यानी ज्ञानग्राही व शुद्ध ज्ञानस्वरुप बनो!
चंद्रमावा अपां पुष्पं पुष्पवान्
प्रजावान् पशुमान् भवति
य वेदं वेद
योपा मायतनं वेद आयतनवान् भवति
पुष्पों को
चन्द्र ही जल देता है, पुष्पों
का प्रजा का, पशुवो का अधिनायक बनजावो यानी ज्ञानग्राही व शुद्ध ज्ञानस्वरुप बनो! यह ही सत्य
है! तुम्हारा अस्तित्व को ग्रहण करो! अन्तर्वासी होजावो!
अग्निर्वा
अपामायतनं आयतनवान् भवति
योग्नेरायतनं
वेद आयतनवान् भवति
आपोवै
अग्नेरायतनं आयतनवान् भवति य वेदं वेद
योंपामायतनं
आयतनवान् भवति
अग्नि का जल
निवासस्थान है! अंतर्मुख होजावो! यह अग्नि का निवास सत्यं है! अंतर्मुख होजावो!
जल का निवास अग्नि है! यह ही सत्य
है! तुम्हारा अस्तित्व को ग्रहण करो! अन्तर्वासी होजावो!
वायुर्वा
अपामायतनं आयतनवान् भवति
योवायोरायतनं
वेद आयतनवान् भवति
आपोवै
वायोरायतनं आयतनवान् भवति य वेदं वेद
योंपामायतनं
आयतनवान् भवति
वायु का निवास जल है! यह ही सत्य
है! तुम्हारा अस्तित्व को ग्रहण करो! अन्तर्वासी होजावो!
जल का निवास वायु है! यह ही सत्य
है! तुम्हारा अस्तित्व को ग्रहण करो! अन्तर्वासी होजावो!
असौवै
तपन्नपामायतनं आयतनवान् भवति
यों मुष्यतपत
आयतनं वेद आयतनवान् भवति
आपो वा अमुष्यतपत
आयतनं वेद आयतनवान् भवति
य वेदं वेद
योंपामायतनं वेद आयतनवान् भवति
सूर्या को जल
ही निवास है! अन्तर्वासी हो जावो!यह ही सत्य है! तुम्हारा अस्तित्व को ग्रहण करो!
अन्तर्वासी होजावो!
चन्द्रमावा अमुष्यतपत
आयतनवान् भवति
यः चन्द्रमस
आयतनं वेद आयतनवान् भवति
आपोवै
चन्द्रमस आयतनं आयतनवान् भवति य वेदं वेद
योंपामायतनं
वेद आयतनवान् भवति
चन्द्र को जल
ही निवास है! अन्तर्वासी हो जावो!यह ही सत्य है! तुम्हारा अस्तित्व को ग्रहण करो!
अन्तर्वासी होजावो!
जल को चन्द्र
ही निवास है! अन्तर्वासी हो जावो!यह ही सत्य है! तुम्हारा अस्तित्व को ग्रहण करो!
अन्तर्वासी होजावो!
नक्षत्राणि वा
अपामायतनं आयतनवान् भवति
यो नक्षत्राणामायतनं
वेद आयतनवान् भवति
आपोवै
नक्षत्राणामायतनं आयतनवान् भवति य वेदं वेद
योंपामायतनं
आयतनवान् भवति
नक्षत्रों को
जल ही निवास है! अन्तर्वासी हो जावो! यह ही सत्य है! तुम्हारा अस्तित्व को ग्रहण
करो! अन्तर्वासी होजावो!
जल को
नक्षत्रों ही निवास है! अन्तर्वासी हो जावो! यह ही सत्य है! तुम्हारा अस्तित्व को
ग्रहण करो! अन्तर्वासी होजावो!
पर्जन्योवा
अपामायतनं आयतनवान् भवति
यो पर्जन्यस्यायतनं
वेद आयतनवान् भवति
आपोवै
पर्जन्यस्यायतनं आयतनवान् भवति य वेदं वेद
योंपामायतनं
आयतनवान् भवति
मेघों को जल
ही निवास है! अन्तर्वासी हो जावो! यह ही सत्य है! तुम्हारा अस्तित्व को ग्रहण करो!
अन्तर्वासी होजावो!
जल को मेघों
ही निवास है! अन्तर्वासी हो जावो! यह ही सत्य है! तुम्हारा अस्तित्व को ग्रहण करो!
अन्तर्वासी होजावो!
संवत्सरोवा
अपामायतनं आयतनवान् भवति
संवत्सरस्यायतनं
वेद आयतनवान् भवति
य वेदं वेद योप्सुनावां प्रतिष्ठितां वेद प्रत्येव तिष्ठति
इस सत्य को हर
एक प्रातः काल में सुनिए!
ॐ राजाधिराजाय प्राश्य साहिने नमो वयं वैश्रवणाय
कुर्महे
समे कामान् कामकामाय मह्यं कामेश्वरोवै श्रवणो
ददातु!
कुबेराय वै श्रवणाय महाराजाय नमः
राजाधिराजा आप
को नमस्कार करता हु! उत्तर दिक्पालक वैश्रव को नमस्कार करता हु! इच्छाधिपती, उत्तर दिक्पालक
मुझे अनुग्रह करो!
कुबेरा, वैश्रव, महाराजा, आप को नमस्कार करता
हु!
ॐ तद्ब्र्ह्म ॐतद्वायुः ॐ तदात्म ॐ तत्सत्यं
ॐ तत्सर्वं ॐ तत् पुरोर्नमः
अंतश्चरति भूतेषु हुहायां विश्वमूर्तिषु
त्वं यज्ञस्तवं वषट्कारस्त्व मिन्द्रस्वग्
म्
रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं ब्रह्मत्वं प्रजापतिः
त्वं तदाप आपोज्योति रसोमृतं ब्रह्म भूर्भ
वस्सुवरों
वो परब्रह्म ही सर्वस्व है!
सब का हृदयों में निवासित होनेवाला उस परमात्मा ही है! प्राणों का सभी मूर्तियों में
उपस्थित होनेवाला उसी परमात्मा का ही चेतना ही है!
निरुपाधिक ब्रह्म तुम ही यज्ञ, तुम को
तुम्ही समर्पित करना ही है! घी का हविस रूप में पचन करने इंद्र तुम्ही हो! ब्रह्मा,
विष्णु, और महेश्वर तीनों एक हुआ तुम्ही हो!
तुम्ही इस चराचर प्रपंचा को
प्रजापति इति संकल्प करो! उस तत्वा में लाया होजावो! पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश
पंच भूतों तुम्ही हो! तुम्ही निर्गुण हो, तुम्ही सागुण हो!
ईशानस्सर्व विद्याना मीश्वार
स्सर्व भूतानां
ब्रह्माधिपतिर ब्रह्मणोधिपतिर्
ब्रह्मा शिवों में अस्तु सदा शिवों
परमात्मा ही सर्वविद्यो को
यजमान है! परमात्मा ही प्राणों का यजमान है! शास्त्रों का, आखरी में उस कार्य ब्रह्मा
का भी यजमान परमात्मा ही है! ब्रह्मा मै हूँ, शिव मै हूँ! हम में हम ममैक होने से हम
नित्य मंगळ शिव स्वरुप होंगे!
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