पुरुष सूक्त
ॐ
तच्चं योरा वृणीमहे
गातुं
यज्ञाय गातुं यज्ञपतये
देवी
स्वस्तिरस्तु नः स्वस्तिर्मानुषेभ्यः
ऊर्ध्वं
जिगातु भेषजं
शं
नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे ॐ शांतिः ॐ
शांतिः ॐ शांतिः
सहस्र शीर्षा पुरुषः
सहस्राक्ष सहस्रपात्
स भूमिं विश्वतो वृत्वा
अत्य तिष्ठ दशांगुळं
पुरुष ये वदगुं सर्वं यद्भूतं
यच्च भव्यं
उताम्रुतत्व स्येशानः यदन्ने
नाति रोहति
येतावानस्य महिमा अतो जायागुश्च
पूरुषः
पादोस्य विश्वभूतानि
त्रिपादस्या मृतं दिवि
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादो
स्येहा भवात्पुनः
ततो विष्वण् व्यक्रामत्
साशनानशने अभि
तस्माद्विराडजायत विराजो
आदिपुरुषः
सजातो अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमि
मथोपुरः
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञ
मतन्वत
वसंतो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म
इध्मःश्शरद्धविः
सप्तास्यासन् परिधयः त्रिसप्त समिधः कृताः
देवा यद्यज्ञं तन्वानाः अबध्नन् पुरुषं
पशुं
तं यज्ञं बर्हिसि प्रौक्षण् पुरुषं जात
मग्रतः
तेन देवा अयजंत साध्या ऋषयश्च ये
तस्माद् यज्ञात् सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यं
पशूगुस्तागु श्चक्रे वायव्यान् आरण्यान्
ग्राम्याश्चये
तस्माद् यज्ञात् सर्वहुतः ऋचःसामानि जङ्ञिरे
छंदाग् सी जङ्ञिरे तस्मात् यजुस्तस्मा दजायत
तस्मादश्वा अजायंतये केचो भयादतः
गावोह जङ्ञिरे तस्मात् ज्ञाता अजावयः
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिथाव्यकल्पयन्
मुखं किमस्य कौ बाहू कावूरू पादा उच्येते
ब्राह्मणोस्य मुखमासीत् बाहू राजन्य कृतः
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याग्ं शूद्रो
अजायतः
चंद्रमा मनसो जातः
चक्षोः सूर्यो अजायत
मुखाद्
इंद्रश्चाग्निश्च प्राणद्वायु रजायत
नाभ्या आसीदंतरिक्षं
शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत
पद्भ्यां भूमिर्दिशः
श्रोत्रात् तथा लोकाग्ं अकल्पयन्
वेदाह मेतं पुरुषं
महांतं आदित्यवर्णां तमसस्तुपारे
सर्वाणि रूपाणि
विचित्य धीरः नामानि कृत्वा भिवदन् यदास्ते
धाता पुरस्त्याद्य मुदा जहार शक्रः प्रविद्वान् प्रतिश्श्च
तश्रः
तमेव विद्यानमृत इह भवति नान्यः पंथा अयनाय
विद्यते
यज्ञेन यज्ञमयजंत देवाः
तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्
तेहनाकं महिमानः सचंते
यत्रपूर्वे साध्यास्संति देवाः
अद्भ्यः संभूतः
पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवार्ततादि
तस्य त्वष्टा विदध
द्रूपमेति तत्पुरुषस्य विश्वमाजानमग्रे
वेदाहमेतं पुरुषं
महांतं आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्
तमेवं विद्वानमृतं
इह भवति नान्यः पंथा विद्यतेयनाय
प्रजापतिश्चरति गर्भे अंतः अजायमानो बहुधा
विजायते
तस्य धीराः परिजानंति योनिं मरीचिनां
पदमिच्चंति वेधसः
यों देवेभ्यः आतपति यों देवानां पुरोहितः
पूर्वो यों देवेभ्योजातः नमो रचाय
ब्राह्मये
रुचं ब्राह्मं जनयंतः
देवा अग्रे तदबृवन्
यस्त्वैवं
ब्राह्मणों विद्यात् तस्य देवा असन् वशे
ह्रीश्चते
लक्ष्मीश्चा पत्नौ अहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपं
अश्विनौ व्यात्तम
इष्टं मनिषाण अमुं मनिषाण सर्वं मनिषाण
वेदों में प्रस्तावित किया हुआ पुरुष सूक्त:
वैदीक धर्मं में श्रुति और स्मृति इति दो प्रकार
का नियमावली है!
श्रुति हर समय में सत्य है! स्मृति संदार्भानु सार परिवर्तन होगा!
श्रुति सुन के अनुभूति होके ऋषियों ने लिखाहुवा
शास्त्र है!
पुरुष सूक्त ऋग्वेद में 10th मंडलं 16 श्लोकों में बोला हुआ है! सामवेद और अथर्ववेद
में भी ये लिखा हुआ है!
वेदव्यास ने महाभारत में इस
पुरुषसूक्त श्रुतियों का सारांश कहा गया
है! शौनक आपस्तंभ ऋषियों ने भी पुरुषसूक्त का श्लाघन किया है!
पुरुषसूक्त में आदिपुरुष का बारे में
कहागया है! इन का रूप नारायण है! इन को पुरुषसूक्त में वीरपुरुष इति वर्णन किया है! पुरुषसूक्त में सृष्टि का मूलकारक नारायण ही कहागया है! वह
नारायण सर्वत्र व्याप्ति किया हुआ है! वह सब से अतीत है! नारायण को चार भाग करने
से एक भाग सृष्टि इति पुरुषसूक्त में कहागया है! शेष तीन भाग व्यक्तीकरण नहीं हुआ है! इस सृष्टि
अनिरुद्ध नारायण रूप इति कहते है!
आदिपुरुष ने अनिरुद्ध नारायण
को एक यज्ञ करने के लिए आज्ञापित करता है! उस में अनिरुद्ध नारायण का इन्द्रियों
ही देवताये है! वे ही ऋत्विक् लोग है! अनिरुद्ध नारायण का शरीर हविस व आहार है! उनका
हृदय ही मंदिर है! उस हविस का लेनेवाला आदिनारायण ही है! उस यज्ञ से अनेक प्रकार
की प्राणियों का सृष्टि आरंभ हुआ! इस यज्ञ
को सर्वहुत यज्ञ कहते है! इस में अपना शरीर को ही त्याग करना है! इन यज्ञ में
आदिपुरुष नारायण को ही प्रार्थना करना है! इस यज्ञ को निर्वर्तित करनेवाला आदिपुरुष नारायण का
स्रुजनात्माक शक्ति यानी अनिरुद्ध नारायण ही है! ऋत्विक् व पुरोहित लोग अनिरुद्ध
नारायण का इन्द्रियों ही है! यज्ञ में त्यागा किया हुआ बलि पशु आखरी में अनिरुद्ध
नारायण ही है! मंदिर उन का हृदय ही है! प्रकृती ही वेदिका है! हृदय ही अग्नि है!
आदिपुरुष नारायण का भाग अनिरुद्ध नारायण ही त्यागा किया हुआ है! इस का अर्थ
परमात्मा अपने अन्दर ही सृष्टि रचना कर रहे, आनंद लेरहे, और विलीन होरहा है! पुरुषसूक्त का मुख्य सन्देश यह ही है!
पुरुषसूक्त :
ॐ
तच्चं योरा वृणीमहे
गातुं
यज्ञाय गातुं यज्ञपतये
देवी
स्वस्तिरस्तु नः स्वस्तिर्मानुषेभ्यः
ऊर्ध्वं
जिगातु भेषजं
शं
नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे ॐ शांतिः ॐ
शांतिः ॐ शांतिः
मै
पवित्र मूर्ति आदिपुरुष को प्रार्थना करता हु! इस यज्ञ शांतियुत वातावरण में होने
को प्रार्थना करता हु! उन देवतायों व इन्द्रियों हमको सहकारसंपत्ति देनेदो!
वनस्पति और प्राणियों शांतियुत वातावरण में रहनेदो! ॐ शांतिः ॐ शांतिः ॐ शांतिः
सहस्र शीर्षा पुरुषः
सहस्राक्ष सहस्रपात्
स भूमिं विश्वतो वृत्वा
अत्य तिष्ठ दशांगुळं
आदिपुरुष को सहस्र शीर्षों, सहस्र
नेत्रों, सहस्र पादों, है! वे
भूमि को चारों वोर से घिरानेसेभी उस से 10 अंगुळ अधिक है!
परमात्मा सर्वत्र सर्वव्यापी
है! सर्व चराचर प्रपंच में कीड़ा पक्षी पशु मनुष्य सर्वप्राणियो में और मिट्टी, पानी, वायु, आकाश, अग्नि, पहाड़, पर्वत सभी में है!
पुरुष ये वदगुं सर्वं यद्भूतं
यच्च भव्यं
उताम्रुतत्व स्येशानः यदन्ने
नाति रोहति
भूत भविष्यत् और वर्तमानकाल
तीनों काल वो आदिपुरुष ही है! वो आदिपुरुष ही अम्रुतमूर्ति है!
येतावानस्य महिमा अतो जायागुश्च
पूरुषः
पादोस्य विश्वभूतानि
त्रिपादस्या मृतं दिवि
इन
का महिमा वैसा है! व्यक्तीकरण हुआ इस सृष्टि उस परामत्मा में एक भाग है! स्थिर मन से यानी प्राणशक्ति को नियंत्रण करके
प्रशांतता से विचारण करेंगे! इधर जो भी दिखाई देरहा वह सब परमात्मा का महिमा ही
है! उत्पन्न
हुआ सब परमात्मा में एक भाग ही है! शेष भाग गगनतल में है! ये अविनाशी है! जो मरण
होरहे वह पुनः जनम लेरहे है! वैसा ही जो जनम लिया वह पुनः मरण होरहां है ! इस
जनन-मरण चक्रभ्रमण एक महायज्ञ है! हम सिर्फ प्राणशाक्ति से प्राणवायु लेकर
अपानवायु छोड़ते है! बाकी कोई वायु नहीं लेते है! इसी रीति माया में रहके भी किसी मे
आसक्ति नहीं होना चाहीए! परमात्मा का पास पहुँचने के लिए माया एक माध्यम समझना चाहिए! हम अग्नि में आज्यं
डालके यज्ञ करते है! यानी घी इत्यादि आहुतियो को समर्पण करके उन का प्रति वर्ष
इत्यादि जीवन के लिए योग्य वस्तुओं प्राप्त करते है! गाया को दाणा देके हम उसका
प्रतिफल दूध का रूप में पाते है! इस का अर्थ परस्पर सहायता जीवन के लिए आवश्यक है!
जो भौतिक देह नहीं उसको देवता कहते है! वायु का भौतिक देह नहीं परंतु वायु है! इस
को देवता कहते है!
सृष्टि पूर्वसृष्टि और
उत्तरसृष्टि इति दो प्रकार का है! परमात्मा अपने आप को अपना एक भाग आहुति किया! उस का प्रति इस प्रपंच को सृष्टि किया है!
पूर्वसृष्टि—परमात्मा ही अपने आपको प्रपंच, प्राणों इति सृष्टि करदिया है!
उत्तरसृष्टि: उन प्राणों का जीवन
के लिए आहार इत्यादि पदार्थो सृष्टि किया है!
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादो
स्येहा भवात्पुनः
ततो विष्वण् व्यक्रामत्
साशनानशने अभि
व्यक्तीकरण नहीं हुआ आदिपुरुष का तीन अंश
उप्पर उठा गया, व्यक्तीकरण
हुआ आदिपुरुष का शेष एक अंश नीचे ही रह गया, जिस से चराचर प्रपंच उत्पन्न है!
पश्चात परमात्मा ही चराचर प्रपंच में व्याप्त हुआ!
तस्माद्विराडजायत विराजो
आदिपुरुषः
सजातो अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमि
मथोपुरः
विराट्पुरुष
से पुरुष व जीव व्यक्तीकरण हुआ! उधर से देवी शक्तियों, भूमि, मनुष्यों, पशुवों, उत्पन्न
हुआ!
पूर्वस्रुष्टि : आदिपुरुष से विराट्पुरुष व ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ! ब्रह्मांड का साथ
साथ ब्रह्मा उत्पन्न होकर सर्वत्र व्याप्ति हुआ! वे भूमि तत् पश्चात् प्राणियों का
सृष्टि किया है!
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञ
मतन्वत
वसंतो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म
इध्मःश्शरद्धविः
दैवी शक्तियों यानी देवतायो यज्ञ किया!
यज्ञ में उस विराट्पुरुष को ही त्याग किया! वसंत ऋतु घी बनगया, ग्रीष्म ऋतु इंधनं बनगया, और हेमंत ऋतु अभिषेक बनगया!
उत्तरस्रुष्टि : आदिपुरुष से उत्पन्न हुआ विराट्पुरुष को
आहुति करके देवातावोम् निर्वर्तित किया इस यज्ञ में वसंत ऋतु घी बनगया, ग्रीष्म ऋतु इंधनं बनगया, और हेमंत ऋतु अभिषेक बनगया!
सप्तास्यासन् परिधयः त्रिसप्त समिधः कृताः
देवा यद्यज्ञं तन्वानाः अबध्नन् पुरुषं
पशुं
यज्ञ के लिए चारों वोर
चतुरस्राकार में डालनेवाली ष्काष्टों सात, समिधावों व इन्धनां इक्कीस, उस में त्याग के लिए
पुरुष को बाँध लिया!
अर्थ इस यज्ञ के लिए पंच भूतों, रात और दिन मिलके
कुल सात चीजों सप्त परिधि बनगया! इक्कीस तत्वों समिध बनगया! देवतावों यज्ञ आरंभ किया ! ब्रह्म को होम पशु
बनादिया! क्रियायोग ध्यान में ध्यानं ध्याता और ध्येयं तीन एक होना ही बलिपशु है!
प्रकृति का विविध अंशों इस प्रपंच यज्ञ
में विविध अंगों का रूप लिया! प्रथम में यज्ञ वेदिका का परिधि यानी यज्ञकुण्डं का
परिधि यानी सरिहद रेखा (boundary) है! दुष्ट शक्तियों(opposite forces) से बचाने के लिए इस सरिहदरेखा (boundary)व्यवस्था बनादिया है! इधर कुश व दुर्भा (sacred grass), पेड़ पौधा नहीं है! क्यों की सृष्टि आरंभ
ही नहीं हुआ है! इसी हेतु
पंच भूतों, रात और दिन मिलके
कुल सात सप्त परिधि बनगया! ये बाह्य प्रकृति का सूचन देरहे है!
नेत्र (देखने का
शक्ति), नाक(सूंघने का शक्ति), कान(सुनने का शक्ति), चर्म(महसूस होने का
शक्ति), और जीब(स्वाद का शक्ति) इति पंच तन्मात्रायें, पाणी(कौशल शक्ती)
पादम(गमन शक्ति) गुदम(विसर्जनाशक्ति), शिशिनं(आनंद शक्ति) और मुंह(खाने का
शक्ति), इति पंच कर्मेंद्रियों, प्राण अपान व्यान समान और उदान इति पंच
प्राणों, मनो बुद्धि चित्त और अहंकार इति चार अंतःकरण, धर्मं आयर अधर्मं इति कुल इक्कीस तत्वों
अंतरंगिक प्रकृति का सूचन देरहे है!
तं यज्ञं बर्हिसि प्रौक्षण् पुरुषं जात
मग्रतः
तेन देवा अयजंत साध्या ऋषयश्च ये
वो देवतावों
जो प्रथम में उद्भव हुआ पुरष को पवित्र दुरभा का उप्पर त्याग किया! तत् पश्चात्
साध्यों ऋषियों सब त्याग किया है!
प्रथम में उद्भव हुआ पुरष व ब्रह्मा का
उप्पर पानी डाल के प्रौक्षण् किया! तत् पश्चात् साध्यों ऋषियों सब उस यज्ञ को जारी
रखदिया!
इन्द्रियों देवताये, कूटस्थ में मन और
दृष्टि रखके ध्यान करनेवाले साध्य है!
तस्माद् यज्ञात् सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यं
पशूगुस्तागु श्चक्रे वायव्यान् आरण्यान्
ग्राम्याश्चये
सर्वो को त्याग किया वैसा यज्ञ सर्वहुत यज्ञ कहते
है! उस यज्ञ से दही का साथ मिला हुआ मक्खन इकट्ठा किया! उस से वायुचरों—पक्षिया, वनचरों—क्रूर मृगों, ग्रामचरो—घरेलू जानवर उत्पन्न हुआ!
तस्माद् यज्ञात् सर्वहुतः ऋचःसामानि जङ्ञिरे
छंदाग् सी जङ्ञिरे तस्मात् यजुस्तस्मा दजायत
उस सर्वहुत यज्ञ से ऋग्वेद मंत्रों और
सामवेद मंत्रों गायत्री छन्दस उद्भव हुआ है! उस से यजुर्वेद समुद्भव हुआ! यानी
संप्रदाय सूत्रों उत्पन्न हुआ इति तात्पर्य है!
तस्मादश्वा अजायंतये केचो भयादतः
गावोह जङ्ञिरे तस्मात् ज्ञाता अजावयः
उसी से दोपंक्तियों दांतवाली अश्वों और अन्य जंतुवों उत्पन्न हुआ है! उस से गाय, बकरा इत्यादि अन्य उत्पन्न हुआ!
इस का अर्थ
इन्द्रियों यानी दुष्ट और शिष्ट इन्द्रियों उत्पन्न हुआ इति तात्पर्य है!
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिथाव्यकल्पयन्
मुखं किमस्य कौ बाहू कावूरू पादा उच्येते
पुरुष को विभाजन करने
के समय कितनी भागो में विभाजित हुआ? उन का मुंह, हाथ, ऊरू (laps) और पैर का पंजा कहा है? इन का क्या क्या कहते
है?
ब्राह्मणोस्य मुखमासीत् बाहू राजन्य कृतः
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याग्ं शूद्रो
अजायतः
ब्रह्मा का मुंह से
ब्राहमण, क्षत्रिय उनका हाथों से, वैश्य उन का ऊरूवों (laps)से, और शूद्र उनका पादोंसे उत्पन्न हुआ
है!
इस का तात्पर्य:
ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मणः! जो मनुष्य ब्रह्माज्ञानी है वो ब्राह्मण हुआ, जो अंतः और बाह्य शत्रुवों को साथ युद्ध करेगा वह क्षत्रिय है, जो
ब्रह्मज्ञान सीखने को
इच्छा का वजह से साधू सज्जनोंके पास जाने के लिए गमनशक्ति को उपयोग करता है वह
वैश्य है! जो भौतिक काम में निपुण है वह शूद्र है!
चंद्रमा मनसो जातः
चक्षोः सूर्यो अजायत
मुखाद्
इंद्रश्चाग्निश्च प्राणद्वायु रजायत
चन्द्र ब्रह्मा का
मन से, नेत्रों से सूर्य, मुंह से इंद्र और अग्नि, प्राण से वायु उत्पन्न
हुआ!
नाभ्या आसीदंतरिक्षं
शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत
पद्भ्यां भूमिर्दिशः
श्रोत्रात् तथा लोकाग्ं अकल्पयन्
उन का नाभि से मध्य देश, शिर से आकाश, उन का पादों से भूमि, उन का
कानों से दिशायें ऐसा प्रपंच व्यक्तीकरण हुआ!
जो परमात्मा अपने आप
को यज्ञ वस्तु जैसा भावन किया है, इस प्रपंच हमारे लिए अर्पिता किया है, उस भगवान
के लिए हम अपने आप को समर्पित करके जानना चाहीए!
वेदाह मेतं पुरुषं
महांतं आदित्यवर्णां तमसस्तुपारे
सर्वाणि रूपाणि
विचित्य धीरः नामानि कृत्वा भिवदन् यदास्ते
अज्ञान अंधकार और
सूर्य का अतीत इस पुरुष इति मेरे को ज्ञात है! इसी जनम में उस पुरुष को जानने वाले मुष्य
अमृतत्व पायेगा यानी शुद्ध ज्ञानस्वरुप होता है! मुक्ति का और कोई उपाय नहीं
है!
धाता पुरस्त्याद्य मुदा जहार शक्रः प्रविद्वान् प्रतिश्श्च
तश्रः
तमेव विद्यानमृत इह भवति नान्यः पंथा अयनाय
विद्यते
ब्रह्म ने परमात्म को आदि में
दर्शन किया है, इस विषय जान के इंद्रा चारों दिशा में अच्छीतरह देखा है! ऐसा परमात्म
को ग्रहण किया मनुष्य इसी जनम में मुक्त होजायेगा! मोक्ष के लिए और कोई मार्ग व उपाय
नहीं है!
यज्ञेन यज्ञमयजंत देवाः
तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्
तेहनाकं महिमानः सचंते
यत्रपूर्वे साध्यास्संति देवाः
देवातावों इस यज्ञ का
माध्यम से परमात्मा को आराधन किया! यह प्रप्रथम धर्मं है! जहा प्रारंभ में यज्ञ का
माध्यम से परमात्मा को आराधन किया वहा साध्यों और देवतावों निवासित करते है,
परमात्मा को आराधन करने साधक लोगों उसी लोक प्राप्त करेंगे!
इस यज्ञ करना प्रधान धर्मं है,
इस को आचरण करनेवाले लोग श्लाघनीय है!
अद्भ्यः संभूतः
पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवार्ततादि
तस्य त्वष्टा विदध
द्रूपमेति तत्पुरुषस्य विश्वमाजानमग्रे
आदित्य, इंद्र, और
अन्य देवतों से विश्वकर्मा अतीत है! इस जगत्, पानी, भूमि, अग्नि, वायु, और आकाश
विश्वकर्मा से ही उत्पन्न हुआ! प्रथम में इस मृत प्रपंच सर्वं अथकार में थे! सूर्य
प्रकाश से विराजमान् इस जगत् परमात्मा का वरदान ही है!
जल से, पृथ्वी का सारांश से इस प्रपंच
उद्भव हुआ! प्रपंच को उत्पन्न किया परमात्मा से श्रेष्ठवान् ब्रह्मा उत्पन्न हुआ!
ब्रह्मा 14 लोको को उत्पन्न करके उन लोको में व्याप्त हुआ!
वेदाहमेतं पुरुषं
महांतं आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्
तमेवं विद्वानमृतं
इह भवति नान्यः पंथा विद्यतेयनाय
महिमान्वित,
सूर्यप्रकाश से अधिक प्रकाशमान, अंथकार से परे भगवान को मै जानता हु! उसको ऐसा जाननेवाला इस जनम में ही मुक्त होजायेगा!
मुक्ति का अन्य मार्ग नहीं है!
मुक्ति के लिए हम क्यों व्याकुलता होना
है?
प्रजापतिश्चरति गर्भे अंतः अजायमानो बहुधा
विजायते
तस्य धीराः परिजानंति योनिं मरीचिनां
पदमिच्चंति वेधसः
सूर्य प्राणों का पति है! आकाश मे घूमते
हुवे रात और दिन बनता है! परमात्मा क्रियाशील है! प्रजापति मूलपुरुष है! मरीचि
इत्यादि ऋषियों उस स्थान प्राप्त किया है! परमात्मा का जनम नहीं है, जनन-मरण
चक्रभ्रमण का अतीत है! इसीलिये सृष्टिकर्ता कार्यब्रह्म भी मरीचि इत्यादि ऋषियों
का स्थान चाहते है! प्रलय का पश्चात् ब्रह्मा का स्थान समाप्त होता है! परंतु
मुक्ति पाया हुआ साधको का स्थिति अजरामर है!
यों देवेभ्यः आतपति यों देवानां पुरोहितः
पूर्वो यों देवेभ्योजातः नमो रचाय
ब्राह्मये
सूर्य परब्रह्मण से
ही उत्पन्न हुआ! अन्य देवतायो से पूर्व ही सूर्या उत्पन्न हुआ! अन्य देवतायो के लिए
वो प्रकाश देते है! उस सूर्य ही इन देवतायो से अधिक है! वो ही हिरण्यगर्भ है!
सूर्यको आवाहन करना युक्त है!
रुचं ब्राह्मं जनयंतः
देवा अग्रे तदबृवन्
यस्त्वैवं
ब्राह्मणों विद्यात् तस्य देवा असन् वशे
देवातावो
शुद्धज्ञानब्रह्मा को स्थापन किया! परिपूर्ण सत्य वो ही इति प्रचार किया है! जो साधक
शुद्धज्ञानब्रह्म तत्व लभ्य करता वोही शुद्धज्ञानब्रह्म स्थान प्राप्त करेगा! ऐसा
साधक को समस्त देवातवो वशमान होते है!
ह्रीश्चते
लक्ष्मीश्चा पत्नौ अहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपं
अश्विनौ व्यात्तम
इष्टं मनिषाण अमुं मनिषाण सर्वं मनिषाण
हे परब्रह्मण,
सरस्वती और पार्वती तुम्हारा सहाय देवताये है! यानी शुद्धज्ञान और अनंत शक्ति
तुम्ही हो! दिन और रात तुम्हारा दो दिशा है! काल स्वरुप तुम्ही हो! अश्वनी देवताये
तुम्हारा मुह है! यानी नक्षत्रों वर्तमान सृष्टि का प्रतीक है! मुझे शुद्धज्ञान
प्रसाद करो! अम्रुतत्व को प्रसाद करो!
ॐ शांतिः ॐ शांतिः ॐ
शांतिः
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