Bhajagovindam with Hindi commentary



भजगोविंदम् आदि शंकराचार्य 
भजगोविंदम् भजगोविंदम् गोविंद भज मूढमते
संप्राप्ते संन्निहितेकाले नहीं नहीं रक्षति डुक्रुं करणे
                                      भजगोविंदम् भजगोविंदम्
गोविदाम् पतिः गोविंदा यानी इन्द्रियों का भर्ता मन !
मूढमते,  मन को स्थिर करो ! उस स्थिर मन को प्रार्थना करो कि मेरा मन अस्थिर न करना! व्यकारण को रट्टा मारने से लाभ नहीं है ! अवसान दशा में उस स्थिर मन ही सर्व भयो से तेरे को आसरा देगा!
नव विध भक्ति मार्गो:
1)श्रवणं परमात्मा का शब्द ॐकार सुनना,  2) कीर्तनइस दुनिया एक न र्त की जैसा है, इस का सामना करने के लिए की र्त न करना चाहिए! यानी उस ॐ शब्द को कूटस्थ में उच्चारण करना है!, 3) स्मरणं उस ॐकार का उप्पर ही पुनः पुनः विचारा करना है!, 4) पादसेवनम्पादम् यानी मूलाधार से सहस्रारचक्र तक सभी चक्रों में सेवनम् यानी उस में ममैक होना,  5) अर्चनं सभी चक्रों में बीजा मंत्र उच्चारण करना है!, 6} वन्दनं उस ॐकार में विलीन् होना, 7) दाश्यम्उसी ॐकार को सुनने के लिए कठोर साधना करना, 8) सख्यंउसी ॐकार को चिपक्जाना, 9)आत्मनिवेदानाम ॐकार को अपने आप को निवेदन करना, तब ही मानवसेवा ही माधव सेवा इति पक्का समझेगा! 
श्लोक 2)
मूढजहीहि धनागम तृष्णां कुरु सद्बुद्धिं मनस वित्रुष्णां 
यल्लभते निज कर्मो पात्तं वित्तं तेन विनोदय चित्तं
                                           भजगोविंदम् भजगोविंदम्
 ओ अज्ञानी, धनार्जन तृष्ण को छोडो, मन में आशावों को नहीं बढावो, अच्छी विचारों में डूब जावो, तुम्हारा संचित कर्मों का अनुसार धन प्राप्त करोगे, उसी से ही सुखीरहो!  
श्लोक 3)
नारीस्थान भर नाभी देशं दृष्ट्वा मागा मोहावेशं
एतन्मांसवसादि विकारं मनसिविचिंतय वारं वारं -- भजगोविंदम् भजगोविंदम् 
नारियों का वक्ष सौंदर्य, और नाभी प्रदेश् को देख कर मोहावेश नहीं करना है ! सब मांस और चरबी से भरा हुवा ये छीज विकार उत्पन्न करेगा! तुम्हारा मन में पुनः पुनः इन का बारे में विचारण करते रहो!    
श्लोक 4:
नळिनी दलगत जलामति तरळं तद्वाज्जीवित मतिशय चपलं
विद्धिव्याद्यभिमान ग्रस्तं लोकं शोक हतं च समस्तं
                                  -- भजगोविंदम् भजगोविंदम्   
कमल पत्ता का उप्पर पानी का बूंद अधिक चंचल है! वैसा ही इस मानव जीवन भी इतना ही अस्थिर है! इस प्रपंच रोग, और धोका से दुःख पूरित है!
श्लोक 5:
यावद्वित्तोपार्जन सक्तः तावान्निज परिवारो रक्तः
पश्चात् जीवति जर्जर देहे वार्ताम् कोपि न पृच्छति गेहे
                                         -- भजगोविंदम् भजगोविंदम् 
जब तक धन आर्जन कर सकता है, तब तक उसका परिवार उसे प्रेम दिखायेंगे! जब देह बुढापे से शक्ति विहीन होता है तब उस का बारे में कोई न पूछेगा! 
श्लोक 6:
यावत् पवनो निवसति देहे तावत् पृच्छति कुशलं गेहे
गतवति वायौ देहे पाए भार्या बिभ्यति तस्मिन् काये
                                -- भजगोविंदम् भजगोविंदम् 
जब तक इस शरीर में प्राणशक्ति होगा, तब तक उस का बंधू परिवार कुशल प्रश्न करेंगे! उस देह को कुछ अपाय होके प्राण निकल जानेपर, भार्या भी वैसा उसका विगत शरीर को देख कर भयभ्रांति होजायेगा! 
श्लोक 7:
बालास्तावति क्रीडासक्तः तरुणी स्तावत्तरूणी सक्तः
वृद्ध स्तावत चिंता सक्तः परमे ब्रह्मणि कोपि न सक्तः
                                   -- भजगोविंदम् भजगोविंदम् 
बाल्यावस्था में खेलकूद में आसक्ति करेगा! यौवनदशा में महिलाओं का उप्पर आसक्ति करेगा! वृद्धावस्था में चिंतों से व्याकुल होता है! आखरी में परमात्मा में आसक्ति दिखानेवाला कोई भी नहीं है!
श्लोक 8:
काते काँता कस्ते पुत्रः संसारो यमतीव विचित्रः
कस्यत्वं कः कुत आयातः तत्वं चिंतय तद्विह भ्रातः
                                   -- भजगोविंदम् भजगोविंदम् 
कौन तुम को भार्या है? कौन तुम को पुत्र है? इस संसार बहु विचित्र है! तुम कौन है? कहा से आया है? ओ भाई,  इस का बारे में यहाँ ही विचार करो!
श्लोक 9:
सत् संगत्वे निस्संगत्वं निस्संगत्वे निर्मोहत्वं
निर्मोहत्वे निश्चलतत्वं निश्चलतत्वे जीवन मुक्तिः
                                   -- भजगोविंदम् भजगोविंदम्
सत् पुरुष सांगत्य व संपर्क प्रापंचिक विषयों का उप्पर संगत निकाल्देगा! उस निस्संगत्व भाव संसार का उप्पर मोह और भ्रम दूर करेगा! उस से निश्चलतत्व प्राप्त होगा! उस निश्चलतत्व जीवन मुक्ति प्राप्त करवायेगा!  

श्लोक 10:
वयसि गते कः काम विकारः शुष्के नीरे कः कासारः
क्षीणे वित्तं कः परिवारः ज्ञात्वे तत्वे कः संसारः
                                   -- भजगोविंदम् भजगोविंदम्
जल सुखने पर तटाक नहीं होगा! ओमर जाने पर वृद्धावस्था में काम- विकार नहीं होंगे! धनविहीन का पास परिचारक नहीं होंगे! अज्ञान ख़तम होके शुद्ध ज्ञान आनेपर उस तत्वज्ञानी को इस जनन--मरण रूप संसार नहीं होता है!
श्लोक 11
मा कुरु धन जन यौवन गर्वं हरति निमेषात कालः सर्वः
मायामय मिदं अखिलं हित्वा ब्रह्मपदं त्वं प्रविश विदित्वा
                             - भजगोविंदम् भजगोविंदम्
धन, अनुचरगण, यौवन, है करके गर्व नहीं होना! ये सब अचिरकाल में ही हरण होजायेगा! इस सारे प्रपंच  माया यानी भ्रम से भरपूर करके समझके ब्रह्मपदं में प्रवेश करो!   
श्लोक 12
दिनायामिन्यौ सायं प्रातः शिशिर वसंतौ पुनरायातः
कालः क्रीडति गच्छत्याहुः तदपि न मुंचति आशावायुः
                             - भजगोविंदम् भजगोविंदम्
दिन--रात, उद्यम और सायंत्रं, यानी प्रातः और सायंकाल, शिशिर--वसंत पुनः पुनः आयेगा, पुनः पुनः जाएगा!  काल वैसा ही खेलता रहता रहेगा!  आखरी में आयुष्काल आयेगा! फिर भी मनुष्य आशा वायु का साथ चिपक के रहेगा!
श्लोक 13:
काते काँता धनागता चिंता वातुला किम तवा नास्ति नियंता
त्रिजगती सज्जना संगतिरेका भवति भवार्णव तरनी नौका
                                                     - भजगोविंदम् भजगोविंदम्
तुम को तुम्हारा भार्या और धन संबंध विषयों में इतनी आसक्ती क्यों है! सब को नियमित करनेवाले सर्वज्ञ प्रभु नहीं है समझते हो?  इन तीनों लोको में जनन-मरण भव सागर पार करने के लिए सज्जनसांगत्य ही सर्वोत्तमम् यानी ठीक नय्या है! 
श्लोक 14: (तोटकाचार्य विरचित)
जटिलोमुंडी लुंचित केशः कषायांबर बहुकृत वेषः
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः उदरनिमित्तं बहुकृत वेषः
                                           - भजगोविंदम् भजगोविंदम्  
कोई जटाधारी है, कोई मुंडन करके रहता है, केश एक एक निकालके कोई रहता है, काषाय वस्त्र पहन के कोई रहता है, वैसा विविध प्रकार के वेष धारण करते है! ये सब वेषधारण उदरनिमित्तं ही है! नेत्रों से देखते हुवे भी मूर्ख मनुष्य सत्य ग्रहण नहीं करता है!  
श्लोक 15: (हस्तामलक्रुता)
अंगं गलितं पलितं मुंडं दशनविहीनं जातं तुंडं
वृद्धो याति गृहीत्वा दंडं तदपि न मुंचति आशापिंडं
                                           - भजगोविंदम् भजगोविंदम्  
शरीर झुक के कृशीना हुआ, शिर सफेद हुआ, दांत गिरगया, बुढापे में सहारा के लिए दंडा हाथ में आगया! फिर भी कामों का बंडिल (bundle) तुम को नहीं छोड़ता है! 
श्लोक 16: (सुबोध कृत)
अग्रे वह्निः पृष्ठे भानुः रात्रौ चुबुक समर्पित जानुः
करतलभिक्षा स्तरुतल वासः तदपि न मुंचती आशापाशः
                                        - भजगोविंदम् भजगोविंदम्
सामने ठण्ड से बचने का  वजह से  आग लगाके बैठेगा, ठण्ड से बचने के लिए सूर्य किरणों अपने पीछे यानी पृष्ठ भाग में पढ़ने जैसा बैठेगा, रातो में जानू में चुबुक लगाके बैठेगा, अपना करतल में भिक्षा लेगा, पेडों का नीचे में रहेगा, फिर भी इच्छाओं को विसर्जित व त्याग करने सक्षम नहीं होगा !  
श्लोक 17: (सुरेश्वराचार्य कृत)
कुरुते गंगा सागर गमनं व्रत परिपालन मथवा दानं
ज्ञानविहीनः सर्वमतेना भजति न मुक्तिं जन्म शतेन
                                      - भजगोविंदम् भजगोविंदम्
तीर्थ यात्रा करेगा, गंगा और सागर मिलने का पवित्र प्रदेश में पूजा, वरत, दान धर्म इत्यादि कार्यक्रमों करेगा! परंतु शतों जन्म लेने से भी आत्मा ज्ञान विहीन को मुक्ति लभ्य नहीं होगा! यह ही सर्व मतों का सारांश है! यह ही ब्रह्मज्ञान है! 
श्लोक 18: (नित्यानंद कृत)
सुरमंदिर तरु मूल निवासः शय्या भूतल मजिनं वासः
सर्व परिग्रह भोगत्यागः कस्य सुखं न करोति विरागः
                                      - भजगोविंदम् भजगोविंदम्
आलय मनिरो में निवास करेगा, तरु मूल में निवास करेगा, केवल भूमि का उप्पर में सोयेगा, त्वचा को वस्त्रधारण करेगा, किसी भोग वस्तुवु को स्वीकार नहीं करेगा, वैसा विरागी को सुख पक्का लभ्य होगा ! 
श्लोक 19: (आनंदगिरि कृत)
योगरतो वा भोगारातो वा संगरतो वा संगविहीनः
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं नंदति नंदति नंदत्येव
                                       - भजगोविंदम् भजगोविंदम्
वह योगी व भोगी का जीवन बिता सकता है! सबसे मिलजुल के रह सकता है! फिर भी जो अपना मन और दृष्टि ब्रह्म में ही निमग्न करके जीवन करेगा वोई आनंद लभ्य करेगा, आनंद लभ्य करेगा, यह ही सत्य है!   
श्लोक 20: (धृढभक्त कृत)
भगवद्गीता किंचिदधीत गंगा जलालव कणिका पीत्वा
सकृदपियेन मुरारी समर्चा क्रियते तस्य यमेव न चर्च
                                   - भजगोविंदम् भजगोविंदम्
भ = भक्ति, ग= ज्ञान, व=वैराग्य, त= तत्वज्ञान (तत त्वम् असी) यानी वह तुमी हो , गीता=गाना
भगवद्गीता स्वल्प मात्र में अध्यन करने से भी, गंगा जल यानी शुद्ध ज्ञान जल अल्पमात्रा में पीने से भी, स्वल्प मात्र से भी कूटस्थ में ॐकार में विलीन हुआ साधक यम देवता से यानी मरण से व्याकुल नहीं होगा!
श्लोक 21: (नित्यनाथ कृत)
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनं
इह संसारे बहु दुस्तारे कृपया पारे पाहि मुरारे
                                  - भजगोविंदम् भजगोविंदम्
पुनः पुनः जनम लेना, पुनः पुनः मरण होना,  पुनः पुनः माता का गर्भ में शयन करना, इस नित्य जैसा जननमरण संसार चक्र से मुक्ति मिलना असाध्य है! ओ परमात्मा, कृपया हमें रक्षा करो!
श्लोक 22 : (नित्यनाथ कृत):
रथ्या चर्प विरचित कंथः पुण्यापुण्य विवर्जित पथः
योगीयोग नियोजित चित्तो रमते बालोन्मत्तवदेव
                                           - भजगोविंदम् भजगोविंदम्
जो भी रास्ता में मिलेगा उसी कपड़ा को ओडनेवाला, पुण्यापुण्य यानी पुण्य और पाप दोनों को विसर्जित किया हुआ, निरंतर योग में मन और दृष्टि निमग्न किया हुआ योगी पुंगव, बालक जैसा और मतिभ्रमण किया हुआ जैसा अपने आप में आनंद में मस्त रहेगा! 
श्लोक 23 : (सुरेन्द्र कृत):
कस्त्वं कोहं कुत आयातः का में जननी को में तातः
इति परभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारं
                                        - भजगोविंदम् भजगोविंदम्
तुम कौन है? मै कौन हुँ? मै कहा से आया हुँ? मेरा पिता कौन है? मेरा माता कौन है?  इस प्रकार का विचारण करो!  इस दुनिया सारविहीन है! इस दुनिया एक स्वप्न समझ कर विसर्जन यानी त्याग करो!
श्लोक 24 : (मेथातितिर  कृत):
त्वयि मयि चान्यैत्रेको विष्णुः व्यर्थं कुप्यसि मय्य सहिष्णुः
भव समचित्तः सर्वत्र त्वम् वांछस्य चिराद्यदि विष्णुत्वं
                                        - भजगोविंदम् भजगोविंदम् 
एक ही चेतना तुझ में और मुझे में उपस्थित है वह विश्व व्यापक चेतना ही है!  तुझ में सहिष्णुता नहीं है! इसी कारण मेरे उप्पर व्यर्थ रीति में कुपित हो रहे हो! सभी समयमे और सभी छीजों में समभाव रखो! तब तुम्हारा चिरकाल वांछ यानी ब्रह्मत्व सिद्धि अवश्य प्राप्त करोगे!
श्लोक 25 : (मेथातितिर  कृत):
शत्रौ मित्रे पुत्र बंधौ माकुरु यत्नं विग्रह संधौ
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्स्रुज भेदा ज्ञानं
                                          - भजगोविंदम् भजगोविंदम् 
शत्रु मित्रु पितृ बंधू इन का उप्पर शत्रुत्व व मित्रुत्व करने प्रयत्न छोडदो! सभी में उपस्थित आत्मा एक ही है, इस को ग्रहण करके सभी संदर्भो में बेदभाव विसर्जित यानी त्याग करो!
श्लोक 26 : (भारतिवंश  कृत):
कामं क्रोधं लोभं मोहं त्यक्त्वात्मानं भावय कोहं
आत्म ज्ञानविहीना मूढाः ते पच्यन्ते नरक निगूढः
                                          - भजगोविंदम् भजगोविंदम् 
काम, क्रोध, लोभा, मोहा, सभी को त्याग करो! तब उस परमात्मा तुम ही है जानके ग्रहण करोगे! आत्मज्ञानविहीन लोग इस जनन--मरण संसार चक्र नरक में गिरके हिंसा प्राप्त करते है!
श्लोक 27 : (श्री सुमित्र  कृत):
गेयं गीता नाम सहस्रं ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम 
नेयं सज्जन संगे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तं
                                  - भजगोविंदम् भजगोविंदम्
भगवद्गीता विष्णुसहस्रानामम गाना चाहिए! हमेशा परमात्मा का रूप यानी ॐकार को ध्यान करना चाहिए! सज्जनसांगत्य में संपर्क रखना चाहिए! दीन जनों को दानधर्म करना चाहिए यानी दरिद्र नारायण सेवा करना चाहिए!
श्लोक 28 :  
सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चात् हंत शरीरे रोगः
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुंचति पापाचरणं
                                  - भजगोविंदम् भजगोविंदम्
सुख लब्धि के लिए स्त्री पुरुष रति कार्यक्रम में निमग्न होते है! उस का फलित इस शरीर रोगों का वश होगा! आखरी में मरण तथ्य है! फिरभी पापकार्यो को मनुष्य नहीं छोड़ते है! 
श्लोक  29 :
अर्थमनर्थं भावय नित्यं नास्ति ततः सुखलेशः सत्यं
पुत्रादापि धन भाजां भीतिः सर्वत्रैषा विहिता रीतिः
                                    - भजगोविंदम् भजगोविंदम् 
धन दुःख का हेतु इति याद रखो! उस से स्वल्प मात्र में भी सुख नहीं है! यह ही सत्य है! धनवान को अपना पुत्र से भी भय है! सभी जगह में धन का रीति ऐसा ही है!
श्लोक 30:
प्राणायामं प्रत्याहारं नित्यानित्य विवेक विचारं
जाप्यसमेत समाधि विधानं कुरु अवधानां महदवधानं
                                          - भजगोविंदम् भजगोविंदम्
प्राणायामं (श्वास नियंत्रण), प्रत्याहारं ( इन्द्रिय उपसंहरण),  नित्य वस्तु क्या है? अनित्यवस्तु क्या है? इति विचारण करना (नित्यानित्य विवेक विचारं), जपा सहित ध्यान निष्ट करते हुवे सर्व संकल्पों को त्याग करना -- इत्यादि साधानों को अनुष्टान करना चाहिए!
श्लोक 31
गुरुचरणांभुज निर्भरभक्तः संसारादचिरार्भाव मुक्तः
सेंद्रिय मानस नियमादेवं द्रक्ष्यसि निज ह्रुदयस्थं देवं
                                       - भजगोविंदम् भजगोविंदम्










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