योगायन
अभिषेक - पंचामृत स्नान
पानी का मतलब प्रकृति, यानि प्रकृति को उस परमात्मा को अर्पण करना यानि प्रकृति से परे हो कर परमात्मा मे लय होना ही अभिषेक है। मतलब हे प्रभु आपके द्वारा प्रदान की हुई यह प्रकृति आप से अधिक नही है, इसीलिए मै इस प्रकृति को भक्ति पूर्वक आपको अर्पण कर रहा हू, ऐसा नम्रता पूर्वक आवेदन का प्रतिरूप है यह अभिषेक।
जो ज्ञानी नही है उस व्यक्ति को परमात्म
ऐक्य होने तक पृथ्वि, आपः(पानी), तेजः(अग्नि), वायु और आकाश् पंच भूत अमर और अमृत
के समान प्रतित होते है। परमात्मा को हम उपर, नीचे, दाये, बाये और चारों ओर
नमस्कार कर के अपनी भक्ति दिखाते है। ऐसे ही गाय का दूध, दही, घी, चीनी और मधु इन
पंच भूतों के प्रतीकों से परमात्मा को स्नान कराना ही पंचामृत स्नान होता है।
रमयति इति रामः मतलब अपने आकर्षण से
साधक को रमयण करने वाली आत्मज्योति दर्शन। पादुक मूलाधार चक्र का प्रतीक है।
भरत (साधक) आत्मज्योति दर्शन के लिये मूलाधार चक्र का प्रतीक पृथ्वि तत्व पर उस
परमात्मा को अंकित करना ही श्री राम पादुक पट्टाभिषेक है यानि योग ध्यान साधना
पद्धति के प्रारंभ मे इस पृथ्वि तत्व को पार करना ही श्रीराम पादुक पट्टाभिषेक है।
पट्टा का मतलब मेरुदंड होता है।
मनथर यानि अनिश्चयात्मक मन ही मंथरा
है, कैकई काम (desire)
का प्रतीक है, दशरथ निश्चयात्मक बुद्धि है, सुमित्रा अच्छा मित्र है, कौशल्या सुकौशल है। इन
दोनो की वजह से अब तक काम(कैकई) शांत था फिर तीव्रता से जागरूक हो कर मतलब
अनिश्चयात्मक मन के वशीभूत हो निश्चयात्मक बुद्धि की बात नही सुन कर भरत (साधना
प्रारंभ नही किया साधक) को ही उन्नत स्थान देने की मांग करता है मगर साधक (भरत)
साधना के बिना यानि योग्यता के बिना उन्नत स्थान नही पाना चाहता और ऐसा होता भी
नही है। इसीलिए वह
अनिश्चयात्मक मन को समझा कर उस त्रेतायुग के अनुसार 14 साल साधना करने के बाद
योग्य हो कर दूर हुए श्री राम (परमात्मा) को फिर पाता है। योग ध्यान मे श्रीराम
पराकाष्टा है, श्री यानि पवित्र राम यानि आत्म ज्योति दर्शन के लिये
पट्टा (मेरुदंड
मे स्थित चक्रो के तत्वों) को अभिषेक करना यानि पृथ्वि, आपः(पानी), तेजः(अग्नि),
वायु और आकाश् पंच भूतों को और उन तत्वों को परमात्मा को अर्पण करना ही श्री राम
पट्टाभिषेक है।
जटायु (जट= बाल, आयु=
शक्ति, सिर मे स्थित ओजःशक्ति) का मतलब ओजःशक्ति है। श्री राम (परमात्मा) सुवर्ण
हिरण को लिये सीता माता से दूर हो गए। जब किसी वजह से तनख्वाह (salary) नही मिलती तब
व्यक्ति चिल्लर (change or coins of lower denomination) या कुछ जमा रुपयो से
जीवन यापन करने की कोशिश करता है अगर इस से भी कार्य नही होता है तब वह सहायता के
लिये भटकता है और व्याकुल हो के अशांत मन से कौन सा धनी व्यक्ति आ कर मुझे इस दुःख
दरिद्रता से दूर करेगा ऐसा सोचता है.......मगर कोई सहायता भी करेगा तो कितने दिन ?
सिर्फ अपनी नौकरी ही तो हमे आजीवन सहायक होती है ऐसे ही परमात्मा दूर होने के बाद
जो ओजःशक्ति है वो कुंडलिनि शक्ति (सीता देवी) की सहायता के लिये जटायु के रूप मे
आती है। जब वह भी खर्च हो जाती है (यही होता है जटायु के पंखों का कटजाना)
कुंडलिनि शक्ति के दल नीचे हो जाते है और अहंकार (रावण अहंकार का प्रतीक है) उसे
अपने वश मे कर लेता है, तब केवल परमात्मा ही उस की रक्षा कर सकता है और किसी के बस
का काम नही है। इसी तरह अंत मे परमात्मा राम ही आकर सीता देवी की रक्षा करते है।
योगायन
सब
योग ही है
शिवालय (शिवजी का मंदिर) मे शिव लिंग क़ॆ
सामने नंदी को रखते है इस का अंतरार्थ
अष्टांग योग है। नंदी का मेरुदंड सीधा होता है और इस के दोनों सिंघ (horns) इडा और पिंगला नामक दो सूक्ष्म नाडीयों के
प्रतीक है इन दोनों सिंघो (horns) के मध्य मे स्थित सीधा हुआ मेरुदंड
सुषुम्ना नाडी का प्रतीक है। शिवलिंग सहस्रार चक्र का प्रतीक है। नंदी के नितंबों
को मलते हुए दोनों सिंघों (horns) के बीच् मे से शिवलिंग को देखने का मतलब साधना कर के मेरुदंड मे स्थित
कुंडलिनि शक्ति को गर्म कर के सुषुम्ना नाडी द्वारा सहस्रार चक्र मे भेजने का
प्रतीक है। ऐसा याद दिलाने के लिये महापुरुषों ने मंदिरों मे शिवलिंग एवं नंदी को
प्रतीक के रूप मे रखा।
काकः कृष्णः पिकः
कृष्णः को बेधः पिक काकयोः
वसंत कालः
संप्राप्ते काकः काकः पिकः पिकः।
कौआ और कोयल दोनों ही काले होते है एवं
एक समान दिखाई देते है परंतु जब वसंत ऋतु आती है तब इनकी बोली द्वारा इन दोनो का
फर्क पता चल जाता है। जैसे डॉक्टरी पढने वाला व्यक्ति डॉक्टर, इंजिनीयरिंग पढने
वाला व्यक्ति इंजिनीयर बन जाता है ऐसे ही
ब्रह्म ज्ञान जानने वाला व्यक्ति ब्रह्म ही बन जाता है।
साधना शुरु करने वाला व्यक्ति मूलाधार
चक्र मे होने की वजह से कलियुग मे होगा और क्षत्रिय यानि योद्धा माना जाएगा एवं
उसे हृदय मे कंपन्नता प्रतीत होगी। मूलाधार चक्र को सहदेव का चक्र भी कहते है और
उस के शंख का नाम मणिपुष्पक है।
कुंडलिनि शक्ति सांप के जैसी होती है उस
के उपर यह चक्र (मूलाधार) होता है, इसीलिए श्री तिरुपति वेंकटेश्वर स्वामि चरित्र
मे इसे शेषाद्रि (शेष का मतलब सांप) कहते है।
जय और विजय
श्री महाविष्णु के जय और विजय नामक दो
द्वार पाल है। आध्यात्मिक उन्नति से एकदम नीचे गिरने का प्रतीक है जय विजय की
कहानी। इसीलिए साधक को बहुत जागरूक हो कर साधना करनी चाहिये।
हिरण्याक्ष
हिरण्यकश्यप का वध (स्थूल देह निर्मूलन) =
परमात्मा की कृपा से
ध्यान साधना मे ब्रह्म ग्रंथि छेदन।
रावण कुंभकर्ण का वध
(सूक्ष्म देह निर्मूलन) =
परमात्मा की कृपा से ध्यान
साधना मे रुद्र ग्रंथि छेदन।
शिशुपाल दंतावक्तृ का
वध (कारण देह निर्मूलन) =
परमात्मा की कृपा से ध्यान साधना मे विष्णु ग्रंथि
छेदन।
हिरण्यकशिपु/हिरण्याक्ष,
रावण/कुंभकर्ण,
शिशुपाल/दंतावक्रु वध
अहंकार मे डुबे
हुए साधक को “ तुम नर नही सिंह हो” कहना ही नरसिंहावतार का उद्देश्य है। सिंह प्रयत्न यानि दृढ प्रयत्न करने से
इस भयंकर अहंकार से बाहर आ सकते हो ऐसा उद्भोदन करना ही हिरण्यकशिपु/हिरण्याक्ष वध (स्थूल शरीर निर्मूलन/ब्रह्म ग्रंथि छेदन) का उद्देश्य है। संसार(पानी)
मे डुबे हुए साधक को पृथ्वी तत्व(मूलाधार)
यानि प्रारंभिक प्रयत्न को ज्ञान के दाँतों से संसारसागर से
बाहर लाना ही व(वरिष्ठ) राह(रास्ते पर लाना) वराह अवतार की उद्देश्य है। हिरण्याक्ष (संसारी की आँख)।
अहंकार और
कामांधता मे स्थित रावण को और कुंभ(बहुत)
खाकर, कर्ण(मस्त हो कर कान बान्धकर) गहननिंद्रा मे स्थित कुंभकर्ण ( सूक्ष्म शरीर निर्मूलन/रुद्र ग्रंथि छेदन) वध कर के ध्यान साधना मे आगे बढना ही
श्रीराम अवतार का उद्देश्य है।
शिशुपाल का मतलब
जो शिशु जैसा अनाडी हो। दंतावक्रु का मतलब शिशु अवस्था जैसा। परमात्मा के बारे मे
साधक के मन मे व्याप्त शिशु अवस्था या अनाडीपन को दूर करना ही शिशुपाल और
दंतावक्रु का वध यानि कारण शरीर निर्मूलन/विष्णु ग्रंथि छेदन है। श्री कृष्णावतार का यही उद्देश्य है।
मानव जन्म, मुमुक्षत्व और महापुरुष दर्शन यह तीनों चीजे मिलना अत्यंत दुर्लभ है। आज नही
तो कल हम सभी लोगो को इस संसार सागर को घूमकर अन्त मे थकहारकर अपने स्वगृह लौटकर
यानि परमात्मा मे ही परमशांति प्राप्त होगी। चोरासी लाख(84 लाख)
योनीयो मे सिर्फ मनुष्य योनी मे ही ध्यान, साधना साध्य है पशु-पक्षि इत्यादि योनियो मे ध्यान साधना
असाध्य है,
मोक्ष के लिये देवताओ को भी ध्यान साधना की जरूरत होती है
और उस ध्यान साधना को पूरा करने के लिये उन्हे भी मानव जन्म ही लेना पडता है
इसीलिए.........ध्यान कीजिये.........ध्यान कीजिये ।।
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