संक्षिप्त रामायण—योगा पद्धति

मल विक्षेपण और् आवरण दोष 
कारण शरीर को तमो गुण प्रभाव से मल और् आवरण एवं रजो गुण प्रभाव से विक्षेपण दोष प्रभावित करते है। सत के यथार्थ रूप को छिपा कर एकदम दूसरा रूप अभिव्यक्त करना तमो गुण प्रभाव का आवरण दोष है। रजोगुण संभूत है विक्षेपण शक्ति। माया के विक्षेपण शक्ति की वजह से ही सकल सृष्टि मे सुख और दुःख, स्वार्थ, प्रेम, वात्सल्य, दया, संतोष, तृप्ति, असंतृप्ति, अरिषड्वर्ग यानि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य इत्यादि कारण शरीर को रजो गुण की प्रधानता से विक्षेपण दोष होता है।
सूक्ष्म तमो गुण प्रधान मल आवरण दोषों और सूक्ष्म रजोगुण प्रधान विक्षेपण दोषों की वजह से ही इस कारण शरीर को 1) देह वासना यानि कर्तृत्व और भोक्तृत्व, ईषण त्रयं यानि धनेषण, धारेषण और पुत्रेषण, कीर्ति वांछ, 2) शास्त्र वासना 3) लोक वासना यानि कर्मफलों को अनुभव करने की प्रीति, अविद्या, अस्मिता (भय, अहंकार) राग, द्वेष और अभिनिवेश (अपने शरीर से व्यामोह) उत्पन्न होता है।
ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति यानि जो ब्रह्मज्ञानि है वो ब्रह्म ही हो जाते है। साधक निष्काम कर्म योग द्वारा मल दोष को विसर्जित कर के ब्रह्मविद कहलाता है।
निरंतर ब्रह्मीस्थिति मे रहकर तमोगुण प्रधान आवरण दोषों को विसर्जित कर के ब्रह्मविद्वर कहलाता है।
सविकल्प समाधि की स्थिति मे रहकर रजोगुण प्रधान विक्षेपण दोषों को विसर्जित कर के ब्रह्मविद्वरीय कहलाता है।
निर्विकल्प समाधि की स्थिति मे रहकर सर्व गुण विसर्जित कर के ब्रह्मविद्वरिष्ठ कहलाता है।

गीता को उलट कर लिखने पर तागी यानि त्याग बनता है। मतलब मल, विक्षेप, आवरण दोषों का त्याग करो।

साधक अपना साधन में तीन प्रकार का अवरोध, आदिभौतिक, आदिदैविक, और आध्यात्मिक, आते है!   
आदिभौतिक अवरोध का अर्थ शारीरक रुग्मतायें, आदिदैविक अवरोध का अर्थ मानसिक रुग्मतायें, और आध्यात्मिक का अर्थ ध्यानसम्बंधिता रुग्मतायें, है!

इन्ही को मल, आवरण और विक्षेपण दोषों कहते है!
शारीरक रुग्मतायें का मतलब ज्वर, शिरदर्द, बदन का दर्द इत्यादि!
मानसिक रुग्मतायें, का मतलब मन का संबंधित विचारों इत्यादि!
ध्यानसम्बंधिता रुग्मतायें का मतलब निद्रा, तन्द्रा, आलसीपन  इत्यादि!

नाम  
चक्र
समिष्टि
व्यष्टि
समाधि
सहदेव(शेषाद्री
मूलाधार
भू
पाताळ
सविचार संप्रज्ञात
नकुल(वेदाद्री)
स्वाधिष्ठान
भुवर्
महातल
सवितर्क व सालोक्य संप्रज्ञात
अर्जुन(गरुडाद्री)
मणिपुर
स्वर्
तलातल
सानंद व सामीप्य संप्रज्ञात
भीमा(अंजनाद्री)
अनाहत
महर्
रसातल
सस्मित व सायुज्य संप्रज्ञात
युधिष्ठिर(वृषभाद्री)
विशुद्ध
जन
सुतल
असंप्रज्ञात व सारूप्य
श्रीकृष्ण(वेंकाटाद्री)
आज्ञा
तपो
वितल
सविकल्प व स्रष्ट
परमात्मा(नारायणाद्री)
सहस्रार
सत्य
अतल
निर्विकल्प
                      



                       संक्षिप्त रामायणयोगा पद्धति
अयोध्य का अर्थ मोक्ष है! इस का राजा दशरथ व परब्रह्म है! उसको तीन पत्नियों है! वे कौसल्या व ज्ञानशक्ति, सुमित्रा व क्रियाशक्ति, और तीसरा कैकेयी व इच्छाशक्ति है! पुत्रकामेष्टि का याग का हेतु कौसल्या को श्रीराम व शुद्धबुद्धि, सुमित्रा को लक्ष्मण व अहम् तत्व, शत्रुघ्न व वैराग्येच्छ, कैकेयी को भरत व मोक्षेच्छा जन्म हुआ!
श्री वशिष्ठ महर्षि क्रियायोग प्रथम गुरु है! उसका सलाहा का मुताबिक़ क्रियायोग संरक्षनार्थ के लिए दशरथ व परमात्मा का कृपा का हेतु साधक का अन्दर का श्रीराम और लक्ष्मण् व शुद्धात्मा और अहम् तत्व साधक का प्रस्तुत क्रियायोग गुरु श्री विश्वामित्र महर्षि का साथ भेजता है! साधक का शुद्धात्मा व अहम् तत्व स्वयं प्रकाशित होने को अपना अन्दर का नकारात्मक शक्तियों को संहारण के लिए प्रस्तुत क्रियायोग गुरु श्री विश्वामित्र महर्षि का साथ होना आवश्यक है! मध्य में आध्यात्मिक मार्ग को रुकावट डालने आया त्राटक राक्षसी यानी मन का आवरण दोष निर्मूल करता है साधक! मूलाधारचक्र जागृती हुआ करके तात्पर्य है! मल विक्षेपण और आवरण दोषों को निवृत्ति करने से ही मोक्षप्राप्त लभ्य होगा! संतुस्ट हवा श्री विश्वामित्र महर्षि व शुद्धबुद्धि से सकारात्मक गुण यानी विविध प्राणायाम पद्धतियां और लभ्य होता है साधक को! क्रियायोग साधना को ध्वंस करने आया सुबाहु व मलदोष को आग्नेयास्त्र (मणिपुर चकरा का ज्ञानशक्ति) से निर्वीर्य करता है साधक! दूसरा राक्षस मारीच विक्षेपण दोष को मानवास्त्र से व शरीर मोह से दूर करता है! साधक का स्वाधिष्ठान और मणिपुर चक्रों जागृति होगया! मूलाधार इच्छाशक्ति, स्वाधिष्ठान क्रिया शक्ति, और मणिपुर चक्र ज्ञानशक्ति का प्रतीक है!
याग समाप्ति होने पश्चात् यानी पद्धतियां सिखाने के बाद मिथिला नगरी व एकांत में सीता स्वयंवर को जाना यानी कुण्डलिनी और जागृती करना साधक को अत्यंत आवश्यक है! इस मार्ग में अहल्या को शाप विमोचन करता है श्रीराम!
सीता स्वयंवर में व शिवधनुस तोड़ने का समय रावण अपमानित होकर लंकानगरी को वापस चलाजाता है! अहंकार से कुण्डलिनी और जागृती करना असंभव है! इसीलिए संसार को वापस जाना ही पडेगा!  राजा जनक शांत का प्रतीक है! शांत का पुत्री व्यष्टि माया कुंडलिनी को साधक का श्रीराम शुद्धबुद्धि विवाह(विशिष्ट वाहन) करता है! यानी जागृति करना चाहता है! लक्षमण(साधक का अहम् तत्व) उर्मिळा(निद्रा), भरत मांडवी(क्रियायोगसाधना) और शतृघ्न शृतकीर्ति (कीर्ति) को विवाह करता है! परशुराम(तीव्रासाधना) का इच्छा का हेतु अपना मेरुदंड(धनुष) से बाण का संधान करता है! यानी रुद्रग्रंधि विच्छेदन कर के साधक अपना शक्ति का प्रकट करता है! परिपूर्ण शुद्धबुद्धी शुद्धात्मा परिपूर्ण शुद्धमन सब एक ही है! ब्रह्मग्रंधि रुद्रग्रंधि और विष्णुग्रंधि तीनों ग्रंधियों का विच्छेदन मोक्ष के लिए आवश्यक है!   दशरथ व परमात्मा साधक का अन्दर का अपरीपक्व शुद्धबुद्धी को सद्गुरु वशिष्ट का सलहा का मुताबिक साधक को पट्टाभिषेक व मुक्ति देने निमग्न होता है! ऐसा कारना समुचित नहीं है!
दासी मंधर व मन का प्रोध्बल से भूतकाल में वाग्दान किया हुआ दो वर 1) 14 वर्षो अरण्यवास व तीव्र क्रियायोगासाधना और 2) भरत व साधक का राज्य पट्टाभिषेक्(पट्टा का अर्ध मेरुदंड) व मोक्ष तुरंत देने के लिए कैकेयी इच्छाशक्ति दशरथ परमात्मा को विवश करता है! अन्दर का अहम् तत्व और कुंडलिनी सदा साधक का साथ ही होता है! साधक का अन्दर का लक्ष्मण व अहम् तत्व अपना पत्नी ऊर्मिळा यानी निद्रा को तीव्र क्रियायोगासाधना के लिए14 वर्षो निद्रा भूलना ही इस का अंतरार्था है! जब तक मोक्ष लभ्य नहीं होगा तब तक परमात्मा साधक का दूर रहेगा! इसी कारण दशरथ व परमात्मा साधक का साथ नहीं रहेगा!
गुह व चित्त साधक का शुद्धबुद्धि कुण्डलिनी व व्यष्टि माया और अहम् तत्व तीनों को सरयू नदी व संसार् को पार करने सहायता करता है! मोक्ष प्राप्त के लिए अहंकार को चित्त में चित्त को मन में मन को बुद्धि में बुद्धि को आत्मा में आत्मा को परमात्मा में ममैक करना है! साधक का स्वाधिष्ठानचक्र जागृति होगया! क्रियाशक्ति बलोपेत् हुआ! भरद्वाज महर्षि और वाल्मीकि महर्षि आश्रमों व सकारात्मकशक्तियों का सहायता से चित्रकूट में पर्णशाला निर्माण करके प्रशांत जीवन बिताता है यानी कूटस्थ में दृष्टि और मन लगाके अहम् तत्वा को नियंत्रित करके कुण्डलिनी जागृती के लिए ध्यान करने उपयुक्त होता है साधक! सकारात्मक सेना को समायुक्त करके दूर हुआ परमात्मा को तीव्र साधना का माध्यम से पुनः लभ्य करने के प्रयत्न ही बुद्धि अहम् तत्व और कुण्डलिनी को अयोध्या का लाने का अर्थ है! कर्म निवृत्ति क्रियायोगासाधना से ही साध्य है! कर्म निवृत्ति होने से ही मोक्ष प्राप्त होगा जिस के लिए 14  वर्षों का तीव्र साधना  आवश्यक है! तब तक साधक का तृप्ति के लिए अपना पादुकाओं को व संप्रज्ञात समाधि मिलादेता है! जब तक शुद्धबुद्धि परिपूर्ण शुद्धबुद्धि में नहीं बदलेगा तब तक संदेहरहित निर्विकल्प समाधि लभ्य होना असंभव है! उप्पर दिया हुआ टेबिल(Table)  को देखिये!
श्रीराम चित्रकूट से अत्रि महर्षि का आश्रम का सदर्शन करता है! इस का अर्थ साधक का अन्दर का शुद्धबुद्धि अपना अहम् तत्व और व्यष्टि माया पार करने के लिए और भी सकारात्मक शक्तियों का सहायता जरूरत है! इसीलिए नकारात्मक विराध राक्षस को संहारण करके शरभंग, सुतीक्षण और अगस्त्य ऋषियों का आश्रमों का दर्शन करता है! सकारात्मक शक्तियों का सहायता से साधक अपना अन्दर बचा हुआ अवशेष अहंकार को निर्मूलन करना चाहिए! पंचवटी में पर्णशाल निर्माण करके साधना तीव्रतर करता है! जटायु नाम पक्षी का साथ दोस्ती और सहायता मिलता है! यानी साधक का साधना तीव्रतर होने से अपना अन्दर का सकारात्मक शक्तियों का सहायता मिलेगा!
साधना करते हुए भी साधक का अन्दर का कामवासना(शूर्पणखा) बीच बीच में शुद्धबुद्धि को भंग व मलिन करने अवश्य प्रयत्न करते रहेगा! इ सब माया का प्रलोभ और प्रभाव जिस से साधक सावधान रखना है! शुद्धबुद्धि(श्रीराम) से तिरस्कार पाकर सुधारा हुआ अहं तत्व(लक्ष्मण) से भी अपमान पाकर निर्वीर्य होता है! कामवासना अपना और नकारात्मक भाईयों खर दूषण् और 14000 को लेकर आते है! साधक का स्थितप्रज्ञतायुक्त शुद्धबुद्धि इन समस्त नकारात्मक शक्तियों को निर्वीर्य करता है! काअर्थमवासनावों व इच्छावों का राजा रावण क्रोध होकर मारीच व बलोपेत कामेच्छा को छोडता है साधक का उप्पर! साधक का अन्दर का नकारात्मक शक्तियों आखरी तक साधना को भंग करने को तीव्र प्रयत्न करते रहता है! यह सब माया का खेल है! इस को साधक समझना चाहिए! बलोपेत कामेच्छा ही  मारीच का स्वर्ण हिरण का रूप है! साधक को शुद्धबुद्धि का प्रलोभ करना ही सीता व व्यष्टि माया का उद्देश्य है! इसीलिए उस हिरण को लाने के लिए श्री राम व शुद्धबुद्धि को प्रेरेपण करता हैं! शुद्धबुद्धि का शुद्धता में स्वल्प विकल्प होने से कुण्डलिनी लक्ष्मण व अहं तत्व अधीन में होगा! इसी समय के लिए इंतजार करनेवाले रावण व कामवासनों का राजा साधू सन्यासी का रूप में शुद्धबुद्धि से सीता व व्यष्टि माया को और दूर लंका नगरी व कामवासनों का नगरी में लेजाता है! उस समय में इच्छाओं साधक को साधू सन्यासी व अच्छा ही लगेगा! साधक का अंदर का जटायु व धीरता जागरण होके उस नकारात्मक कामवासनों का राजा को प्रतिरोध करने तीव्र प्रयत्न करता है! उस प्रयत्न में अपना अन्दर का कबंध राक्षस व नकारात्मक शक्तियों को वध करता है! इस का वजह से साधक का मन और भी स्थिर होजाता है! हनुमान बन जाता है!  हनु का अर्थ मारना, मन का अर्थ मनस यानी मनस को स्थिर करना ही हनुमान का अर्थ है! मन स्थिर हुआ साधक को सुग्रीव (सु=अच्छा, ग्रीव=शब्द) व ॐकार सुनाई देगा! अब साधक को अनाहत चक्र जागृति हुआ! सुग्रीव सुनाई देने के लिए तब तक अवरोध करनेवाले सुग्रीव का भाई यानी साधक का अंतर्गत भय को वध करना पडेगा! मन स्थिर होने से बुद्धि स्थिर होजाता है! जब अंतर्गत भय समाप्त होगा तब साधक का स्थिर मन व हनुमान कुण्डलिनी को परिपूर्ण जागरण के लिए प्रयत्न करता है! इसी कोशिश में सुग्रीव व ॐकार हनुमान व स्थिर मन को राजदूत का रूप में दक्षिणा दिशा में भेजने का अर्थ है! दक्षिणा दिशा में ही सीता व कुण्डलिनी व व्यष्टि माया गुदस्थान का पास 3½ turns लगाके शेषनाग जैसा फण नीचे पूंछ उप्पर चक्रों में रख के मूलाधार में निद्राणस्थिति में रहता है! अशोकवन का अर्थ अचंचल संकल्पों है! साधक का अन्दर का चंचल संकल्पों ही कुण्डलिनी परिपूर्ण जागरण नहीं होने का हेतु है! कुण्डलिनी परिपूर्ण जागरण नहीं होना ही भवसागर का सर्व शोक हेतु है! स्थिर मन का वजह से लभ्य हुआ आत्मबोध से साधक को कुण्डलिनी परिपूर्ण जागरण होगा करके प्रेरणा मिलता है! स्थिरमन का हेतु सारे नकारात्मक शक्तियों ध्वंस होने लगता है! सारे नकारात्मक शक्तियों को एक साथ करके स्थिरमन को चंचल करने इच्छाओं का राजा रावण तीव्र प्रयत्न करना ही राजदूत हनुमानजी को पकड़ के पूंछ का आग लगाने का अर्थ है! राजदूत हनुमान व स्थिर मन का हेतु साधक का स्थिर बुद्धि को कुण्डलिनी का वृत्तान्त पता लगता है! स्थिर मन, स्थिर बुद्धि और शुद्धात्मा एक ही करके श्री रामकृष्ण परमहंसा कहते थे! अब आज्ञा चक्र जागरण होता है! अच्छा हो या बुरा हो जो विपरीत है उस का प्रतीक इंद्रजीत है! महाभारत में द्रोणाचार्य सकारात्मक और नकारात्मक शक्तियों दोनों का गुरु है! इंद्रजीत को पार करके स्थिर मन शुद्धबुद्धि/शुद्धात्मा को सीता व कुण्डलिनी का अवस्था पता लगजाता है! 
अब इस अवस्था में यानी आज्ञाचक्र जागृति होने पश्चात साधक का अन्दर का विभीषण व सत्वगुण रावण व इच्छाओं का राजा को अपना वश में रखने को कोशिश करता है! माया आखरी तक यानी मोक्ष प्राप्ति लभ्य होने तक अपना हरकत नही छोडेगा! सत्वगुण संसार का लौकिकता को अब दूर होने के लिए शुद्धबुद्धि/शुद्धात्मा का साथ इकट्ठा होना चाहेगा! यह ही विभीषण रावण को छोड के राम का आश्रय लेने का अर्थ है! समस्त सकारात्मकशक्तियों अब  शुद्धबुद्धि/शुद्धात्मा का आज्ञा का तीव्र निश्चय से  लौकिकता और
अलौकिकता का बीच में वारधि बनाएगा! माया व संसार में रहते हुए माया पार करने को प्रयत्न करना चाहिए! क्रियायोग साधना नहीं करना और कुण्डलिनी जागरण नहीं करके निद्राणस्थिति में रखना लौकिकानंद है! क्रियायोग साधना करना और कुण्डलिनी जागरण  करने को अलौकिकानंद कहते है! रावण व कामवासनों का राजा लौकिकानंद को ही दृढता से पसंद करता है! साधक का तीव्र साधना का हेतु सकारात्मकशक्तियों मिलके समस्त नकारात्मकशक्तियों को निर्मूलन करता है!
कुंडलिनीशक्ति साधना का समय में ठीक इडा और पिंगळा दोनों सूक्ष्म नाडियों का बीच में सुषुम्ना से ही सहस्रार तरफ जाना चाहिए! मणिपुरचक्र मेरुदंड में नाभी का पास है! इस  को दस दळ है! इसीलिए दशकंठ रावणचक्र कहते है! इस चक्र इच्छाओं का हेतु है! अग्नितत्व का प्रतीक है! ठीक तरफ से कुंडलिनीशक्ति सुषुम्ना का माध्यम से जाने से ज्ञानशक्ति मिलता है और आत्मविश्वास में बढ़ावा आएगा! इस मणिपुरचक्र में कुंडलिनीशक्ति इडा सूक्ष्म नाडि का माध्यम से जाने से अनंत इच्छाओं और क्रोध उत्पन्न होता है! रावण का  कोई भी शिर काटने से भी पुनः जीवित होने का अर्थ साधक का कुंडलिनीशक्ति सुषुम्ना का माध्यम से नहीं जारहा है बल्कि इडा सूक्ष्म नाडि का माध्यम से जारहे कर के अर्थ है! विभीषण् व सत्वगुण का वजह से शुद्धबुद्धि कुंडलिनीशक्ति को ठीक रास्ता यानी मणिपुर चक्र में सुषुम्ना का माध्यम से भेजना ही रावण का नाभी का पास बाण (ॐकार) से मार के वध करने की अर्थ है! सत्वगुण लौकिकता से अधिक उत्तम है करा के दिखाना ही विभीषण् को लंका का राजा बानाने का अर्थ है!
सीता व कुण्डलिनी शकति व्यष्टि माया है! अपना तीव्र साधना से साधक प्रकृति पार कर सकता है! पृथ्वी आपः तेजो(अग्नि) वायुः आकाश पंचभूत समायुक्त प्रकृती ही माया है! इच्छाओं का राजा का पास होने दो अथवा तीव्र साधक का पास रहने दो प्रकृती  प्रकृती ही रहेगा! यह स्थापित करने के लिए ही सीता अग्निप्रवेश करने का अर्थ है! अग्नि भी प्रकृती का भाग है, प्रकृती ही है! प्रकृती प्रकृती को कुछ भी नहीं कारपाएगा!
आखरी में तीव्र क्रियायोगासाधाना से साधक का शुद्धबुद्धि परिपूर्ण शुद्धबुद्धि में बदलना और परिपूर्ण शुद्धात्मा जैसा परिणाम होक परमात्मा में ममैक होना ही श्रीरामराज्य पट्टाभिषेक है!                           
   
               









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