Spl kriya techniques part 1 in Hindi



क्रियों का अनुष्ठान पद्धति:--       

मेरुदंड मे मूलाधार चक्र का नीचे कुंडलिनी शक्ति रहती है! मूलाधार चक्र को सहदेव चक्र कहते है!
गुदास्थान में 31/2   मूलाधारचक्र के साथ चटा हुआ निद्राण स्थिति मे रहनेवाला कुंडलिनी प्राण शक्ती ही द्रौपदी! क्रिया योग साधना से कुंडलिनी जागृती होंकर योगी का  चक्रों को शक्तिशाली करती है!
मेरुदंड मे तर्जनी अंगुली का नाखून वाली जोड़  का नाप से अढय नाखून वाली जोड़ का उप्पर स्वाधिष्ठानचक्र है जिसको नकुलचक्र कहते है! 
नाभि का पीछे मेरुदंड मे मणिपुरचक्र है जिसको अर्जूनचक्र कहते है!
ह्रुदय का पीछे मेरुदंड मे अनहतचक्र है जिसको भीमचक्र कहते है!
ह्रुदय का पीछे मेरुदंड मे विशुद्धचक्र है जिसको युधिष्ठिरचक्र कहते है!
दोनों भ्रुकुटी का बीच मे कूटस्थ मे है आज्ञाचक्र है जिसको श्री कृष्णचक्र कहते है!
मस्तिष्क का बीच मे ब्रह्मरंध्र का नीचे है सहस्रार चक्र है जिसको श्री परमात्मचक्र कहते है! 
कारण चेतना का निलय है आध्यात्मिक मेरुदंड संबंधित चक्रों! इस चक्रों द्वारा आत्म अपना चेतना को व्यक्तीकरण करता है! 
विज्ञों ने क्षेत्रे क्षेत्रे धर्म कुरु इति कहा है! हर एक क्षेत्र मे धर्म करो इति इस का अर्थ है! क्षेत्र का अर्थ हर एक चक्र मे ध्यान कर के इन् का अंदर उपस्थित अन्धेरा को मिटादो!
मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, आनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार इति कारण चेतन निलय आध्यात्मिक मेरुदंडसंबधित चक्रों होते है! 
मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपुर संसार चक्रों है, इनको कुरुक्षेत्र कहते है!
मणिपुर, आनाहत और विशुद्ध चक्रों को कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र  कहते है!
विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार चक्रों को  धर्मक्षेत्र  कहते है!   .
मनुष्य का शारीर में 72,000 सूक्ष्म नाड़ीयां होते है! इन में तीन सूक्ष्म नाड़ीयां, इडा, पिंगला और सुषुम्ना, अत्यधिक प्रामुख्य नाड़ीयां  है! ए तीन सूक्ष्म नाड़ीयां मूलाधारचक्र से प्रारम्भ होंकर कूटस्थ तक साथी सफर करते है, इडा और पिंगला कूटस्थ में रुख जाते है, सुषुम्ना आगे बढ़कर ब्रह्मरंध्र नीचे स्थित सहस्राराचक्र में समाप्त होजाते है!     
मूलाधारचक्र समीप स्थित कुण्डलिनी(द्रौपदी) शक्ति को अपना साधन का सहायता से इडा और पिंगला का बीच में स्थित सुषुम्ना सूक्ष्मनाड़ी द्वारा मेरुदंड अंदर का मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर आनाहत, विशुद्ध और आज्ञा संसार चक्रों को पार कराके  सहस्रारचक्र से भ्रह्मरंध्र में पहुंचाना ही साधक का गम्य है! इस साधना में अपना अंदर का सकारात्मक और नकारात्मक, अनुकूल और प्रतिलूल, शक्तियों का अवरोध/संघर्षण ही महाभारत युद्ध!
कुण्डलिनी(द्रौपदी) शक्ति मूलाधार(सहदेव), स्वाधिष्ठान (नकुल), मणिपुर(अर्जुन), आनाहत(भीम) और विशुद्ध(युधिष्ठिर) चक्रों को पार करना ही द्रौपदी पंचपाण्डवों को विवाह करना!     
अपना साधना में साधक तीन ग्रंथियों ,ब्रह्म,रूद्र और विष्णु,  का छेदन करना है!
इनमें मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपुर तक फैला हुवा कुरुक्षेत्र संबंधित ब्रह्म ग्रंथि प्रथम है! इस ग्रंथि मानव चेतना संबंधित ग्रंथि है! भौतिक विषयासक्ति में निमग्न होगर साधना में कुछ न कुछ शारीरक बाधा देके साधक को अपना साधना में आगे बढने नहीं देगा! जब से यानी आदी से ए भौतिक शारीर उत्पन्न हुवा तब से शारीरक बाधाएं होना सहज धर्म है, इसीलिए आदिभौतिक शांति कहते है! इसीलिये आसनसिद्धि बहुत ही आवश्यक है!
इस का बाद मणिपुरचक्र से पिट्युटरी (Pitutary) ग्रंथि तक व्याप्त किया हुवा रूद्र ग्रंथि, कुरुक्षेत्र-धर्मक्षेत्र में है! ए मनो संबंधित ग्रंथि, साधक को विचारधारा में दुबाके साधना का भंग कर देता है! जब से यानी आदी से ए मन यानी सूक्ष्म शारीर उत्पन्न हुवा तब से विचारों का पीढा  होना सहज धर्म है, इसीलिए आदिदैविक शांति कहते है! इसीलिये धाराणा का बहुत ही आवश्यक है!     
इस का बाद पिट्युटरी (Pitutary) यानी आज्ञा नेगटिव चक्र से लेकर सहस्रार तक व्याप्त किया हुवा विष्णु ग्रंथि,  धर्मक्षेत्र में है! विचारधारा से विमुक्त होके स्थिर मन से साधना में आगे नहीं बढ़नेकेलिए कुछ न कुछ विघ्न करनेवाला इस ग्रंथि कारण शारीर संबंधित है! कारण शारीर जब से उत्पन्न हुवा तब से  कुछ न कुछ विघ्न का पीढा  होना सहज धर्म है, इसीलिए आध्यात्मिक शांति कहते है! इसीलिये ध्यानसमाधि का बहुत ही आवश्यक है!     
ज्ञानी और योगी लोग जो जीवनमुक्त है, वे सुषुम्ना का मार्ग से अपना अंतिमयात्र का समय में प्राणशक्ति को छोड़ देते है!  
मूलाधार से लेकर नाक का बाया रंध्र तक व्याप्ति हुवा इडा सूक्ष्मनाडी को चंद्रनाडी, पितृयान नाडी अथवा कृष्णयान नाडी कहते है! आत्मज्ञानशून्य, कर्मफल माँगनेवाले लोग इस मार्ग से निकलते है!
मूलाधार से लेकर नाक का दहिने रंध्र तक व्याप्ति हुवा पिंगळा सूक्ष्मनाडी को सूर्यनाडी, देवयान नाडी अथवा शुक्लयान नाडी कहते है! निष्कामता से कर्मफल का उप्पर आशा नहीं रखके सत्कर्मो करने लोग इस मार्ग से निकलते है!

साधन उपक्रमणिका:--
अ) सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! कूटस्थ मे दृष्टि रखिये! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए! शरीर को थोडा ढीला रखीए!
दोनों भृकुटियों का बीच में अपना तर्जनी को उल्टा करके रखिए, तर्जनी का अंगुली को धीरे धीरे उप्पर उठाते हुवे  सिखर को दोनोँ नेत्रों से देखतें रहिये, जहा तर्जनी का अंगुली का सिखर दिखाना बंद हुवा वहा अपना दृष्टि स्थिर कीजिये! इसी को कूटस्थ में दृष्टि रखना कहते है! क्रिया योग ध्यान साधना सर्वदा कूटस्थ में दृष्टि रखके ही करना है!


योगी, भोगी और रोगी  
एक श्वास को अंदर लेना और एक श्वास को बाहर छोड़ना याने एक श्वास और निश्वास दोनोँ मिलाके एक हँस कहते है!
आरोग्यकारी व्यक्ति 24घंटोंमें 21600 हँस करते है यानी एक मिनिट में 15 हँस करते है! इसको भोगी कहते है! 15 हँस से अधिक करने से रोगी और 15 हँस से कम करने से योगी कहते है! 
1) गुरुवों का आह्वान 
अ) सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! कूटस्थ मे दृष्टि रखिये! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए! शरीर को थोडा ढीला रखीए!
अब मन ही मन बोलीए...........
ॐ श्रीकृष्ण आइये मेरे हृदयमंदिर मे बैठिये, आपके पादपद्मों को साष्टांग नमस्कार, आपके पादपद्मों मेरा शिर का उप्पर रख के आशीर्वाद दीजिएगा
ॐ श्रीक्रैस्त आइये मेरे हृदयमंदिर मे बैठिये, आपके पादपद्मों को साष्टांग नमस्कार, आपके पादपद्मों मेरा शिर का उप्पर रख के आशीर्वाद दीजिएगा
ॐ महावतार बाबाजी आइये मेरे हृदयमंदिर मे बैठिये, आपके पादपद्मों को साष्टांग नमस्कार, आपके पादपद्मों मेरा शिर का उप्पर रख के आशीर्वाद दीजिएगा
ॐ श्रीलाहिरि महाशय आइये मेरे हृदयमंदिर मे बैठिये, आपके पादपद्मों को साष्टांग नमस्कार, आपके पादपद्मों मेरा शिर का उप्पर रख के आशीर्वाद दीजिएगा
ॐ श्रीयुक्तेश्वरजी आइये मेरे हृदयमंदिर मे बैठिये, आपके पादपद्मों को साष्टांग नमस्कार, आपके पादपद्मों मेरा शिर का उप्पर रख के आशीर्वाद दीजिएगा
ॐ गुरु श्रीयोगानंदस्वामी आइये मेरे हृदयमंदिर मे बैठिये, आपके पादपद्मों को साष्टांग नमस्कार, आपके पादपद्मों मेरा शिर का उप्पर रख के आशीर्वाद दीजिएगा
ॐ परमात्मा आइये मेरे हृदयमंदिर मे बैठिये, आपका नामस्मरण हर पल करने का वरदान दीजिए, मुझको आपके प्रति श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, आप्यायता, गौरव, भरोसा, नम्रता, विनय, और विश्वास हमेशा बना रहे ऐसा वरदान प्रदान कीजिए, 
 ॐ दिव्य गुरुलोग आइये मेरे हृदयमंदिर मे बैठिये, आपका नामस्मरण हर पल करने का वरदान दीजिए, मुझको आपके प्रति श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, आप्यायता, गौरव, भरोसा, नम्रता, विनय, और विश्वास हमेशा बना रहे ऐसा वरदान प्रदान कीजिए !
अब 5 मिनिट ध्यान करे, अगर समय हो तो ध्यान जीतना ज्यादा हो कर सकते है! गुरुवों के आशिषों के कारण साधक को मनःशांति, आत्मसंतृप्ति मिलती है और विचारधारा सात्वीक हो जाती है!
 
मूलाधारचक्र मे  आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 96 मिनटों मे 600 हंस होते है!
स्वाधिस्ठान चक्र मे  आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 144 मिनटों मे 6000 हंस होते है!
मणिपुर चक्र मे  आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 240 मिनटों मे 6000 हंस होते है!    
अनाहत चक्र मे  आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 288 मिनटों मे 6000 हंस होते है! इधर साधक को वायु मे उड रहा हू जैसी भावना आती है!  
विशुद्धचक्र मे  आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 384 मिनटों मे 1000 हंस होते है!  
आज्ञा पाजिटिव चक्र मे  आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 48 मिनटों मे 1000 हंस होते है!
 सहस्रारचक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 240 मिनटों मे 1000 हंस होते है!    
96+144+240+288+384+48+240 मिनटों =24 घंटे =एक दिन
कछुआ 24 घंटे में अति स्वल्प हंस करके अधिक काल जीवित होता है!
ध्यान का समय में हंसा जहा तक साध्य है वहा तक दीर्घ हंसा होना चाहिए!
कूटस्थ अथवा सहस्रार में दृष्टि रख के ही ध्यान करना, कोई मंत्र उच्छारण का अवसर नहीं है!
ओंकार सुनाई देने से उस शब्द में ममैक होना चाहिए!
अथवा धवळ प्रकाश दिखने से केवल उसी को देखते रहना और उस प्रकाश में ममैक होना चाहिए!
अगर तीसरा आँख दिखाई देने से, पहले पीला प्रकाश को, उस का पश्चात नील प्रकाश को, तत् पश्चात पांच भुजवाली राजित नक्षत्र में ममैक होना चाहिए!
कूटस्थ में ध्यान करने समय अगर मन सहस्रार की तरफ दृष्टि खींचनेसे सहस्रार में ही दृष्टि लगाके ध्यान करना चाहिए!
समाधि स्थिति:--
समाधि का अर्थ परमात्मा का साथ सम यानी ममैक/लय होना! हर साधक का विधि एहीं है!
कुण्डलिनी जागृति होने पश्चात, शिर का उप्पर भारी वजन रखा है करके भावना, मेरुदंड में गुलगुलिया, गर्दन का प्रांत में prickling sensations होना, कोई बुलाराहे करके भावना, कोई कंधे पर हाथ डाला है करके भावना, कोई बाजू में बैठा करके भावना, जोर से ओमकार सुनाई देना, इत्यादि साधारण है! अगर ए सब छेजे सहन से ज्यादा होने से पृथ्वी मुद्रा लगा के मूलाधार चक्र में ध्यान करना चाहिए!  
श्रद्धा, वीर्य स्मृति और समाधि का माध्यम से ओंकार को साध्य करना चाहिए!
ह्रुदय का स्वभाव सिद्ध प्रेम भाव ही श्रद्धा,
नीतिबाहुळ्यता ही वीर्य,
सद्भावना ही स्मृति 
निश्छल एकाग्रता ही समाधी है!
यम और नियम का माध्यम से वीर्य साध्य है!
ध्यान से सर्वरोगों का निवारण होता है!








चक्रों में ध्यान करने से क्या लाभ हैविवरण


चक्र
रोगविनाश
मूलाधार
सैनसैटिस, झुकाम, मलबद्धक, डयोरिया, लिम्फ सिस्टम्, प्रोस्ट्रेट ग्लांड्स, हड्डियों, मन का संबंधित व्याधियों का निवारण
  
स्वाधिष्ठान
यूरिनो-जेनिटल सिस्टम्, मेरुदंड, अपेंडिक्स, जीब संबंधित व्याधियों का निवारण, क्रोध निर्मूलन
 
मणिपुर
मधुमेह, आंखों, प्लीह, गुदास्थान, पेठ, पक्षवात, और लिवर रोग मे फायदा,नकारात्मक विचारों का निरोध करना, शांति और सद्भावना


अनाहत
दमा, श्वास संबंधित व्याधियों, पागलपन, हृदय संबंधित व्याधियों,का निवारण करना, व्याधि निवारण शक्तिका अभिवृद्धि, रक्तशुद्धीकरण करना, द्वेष और नेरपूरित भाव निवारण, प्रेम और आप्यायत को अभिवृद्धि.


विशुद्ध
दमा, श्वास संबंधित व्याधियों, अल्लेर्जी, क्षय, आर्थराइटिस संबंधित व्याधियों,का निवारण करना,आत्महत्या करने भाव निवारण

आज्ञा नेगटिव
पीनल ग्लान्ड्स संबंधित व्याधियों का निवारण, मानसिक बलहीनता को निकालना, सप्ताधातुवों का वृद्धि, सत्सान्तानप्राप्ति

आज्ञा पाजिटिव
शिरदर्दो, तनाव, कांसर, डिप्रेषन, व्याधियों,का निवारण, द्वेष भाव निवारण, ज्ञापकशक्ति वृद्धि, सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम को बलोपेत करना  
  
सहस्रार
वीर्य वृद्धि, पूरा नर्वस सिस्टम को बलोपेत करना





समाधि लभ्य होने तक कूटस्थ में दृष्टि लगाके अधिचेतानावस्था में दीर्घ हंस करते रहना चाहिए! एक हंस और दूसरे हंस का बीच में अपना अपना सामर्थ्य का मुताबिक़ श्वास को रोख के रखना चाहिए! समाधि लभ्य होने पश्चात भौतिक स्थिति में आने तक उस आनंद को अनुभव करना चाहिए!

                          मुद्रायें



नाम
पद्धति
तंदुरुस्ती पर प्रभाव्
 प्राण
मुद्रा     
कनिष्ठा तथा अनामिका अंगुलियों के अग्रभाग को अंगुठें के अग्रभाग से मिलाए।
शरीर की दुर्बलता दूर करना, मन की शांति, आंखों के दोषों को दूर करना, शरीर की रोगनिरोधक शक्ति बढाना, विटमिनो की कमी को दूर करना, थकान दूर करना शरीर और आँखों की चमक बढती है।
अपान मुद्रा
तर्जनी अंगुली को अंगुठें के मूल मे लगाऐ, मध्यमा और अनामिका अंगुलियों को अंगुठें के अग्रभाग से मिलाऐ।

हृदय को ताकत मिलती है, दिल का दौरा पडते ही तुरंत यह मुद्रा करने से आराम मिलता है, सिरदर्द, दमे के शिकायत को ठीक करना, उच्च रक्तचाप(high blood pressure)मे फायदा होना।




लिंग मुद्रा
  मुट्ठी बाँधे और अंदर के अंगुठें को खडा रखे, अन्य अंगुलियों को बंधी हुई रखे। 
गर्मी बढाना, सर्दी, जुकाम, दमा, खाँसी, सायनस, और निम्न रक्तचाप (low Blood Pressure) मे फायदा होना।

ज्ञान मुद्रा
 अंगुठें को तर्जनी अंगुली के सिरे से लगा दे। शेष तीन अंगुलिया सीधी रखें।
 स्मरण शक्ति वृद्धि,  ज्ञान की वृद्धि, पढने मे मन लगना, मस्तिष्क के स्नायु मजबूत होना, सिरदर्द दूर होना, अनिद्रा का नाश, स्वभाव परिवर्तन, अभ्यास शक्ति आना, क्रोध का नाश।
शून्य मुद्रा
मध्यमा अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।
कान नाक और गले के रोगों को दूर करना  (Removes all types of  ENT problems), मसूढे की पकड मजबूत करना और थाँयराईड रोग मे फायदा होता है।

वायु मुद्रा
तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ
के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।
वायु शाँति, लकवा, सयटिका, गठिया, संधिवात, घुटने के दर्द मे फायदा, गर्दन के दर्द मे फायदा., रीढ के दर्द मे फायदा, और पार्किसंस रोग मे फायदा ( Parkinson's disease) होता है।

सूर्य मुद्रा
 अनामिका अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।

शरीर संतुलित होना, वजन घटना, मोटापा कम होना, उष्णता वृद्धि,   कोलोस्ट्रोल मे कमी   (control bad Cholesterol), मधुमेह और लिवर रोग मे फायदा (Diabetes and Liver-related problems) , तनाव मे कमी (body tension )
  

पृथ्वी मुद्रा
अनामिका अंगुलि को अंगुष्ठ से लगायें और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।
शरीर मे स्फूर्ति , काँति और तेजस्विता आना, दुर्बल को मोटा बनाना, वजन बढाना, जीवनी शक्ति वृद्धि, दिमाग मे शांति और विटमिनो की कमी को दूर करना।

वरुण मुद्रा
कनिष्ठा  अंगुलि को अंगुष्ठ से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया
सीधी रखें।
 
रूखेपन की कमी और चिकनायी मे वृध्दि, चर्म मे मृदुत्व होना, मुँहासों को नष्ट करना और चहरे मे सुंदरता का बढाना रक्त विकर और जलतत्व की कमी से उत्पन्न रोगों को दूर करने मे लाभकारी है।

  
कोई भी इस निम्न लिखित क्रिया करने के पहले प्रारम्भा में ए सारे छेजे याद रख के साधना का उपक्रम करना चाहिए
निम्नलिखित प्राणायाम पद्धतियाँ करने से समाधि एवं परिपूर्ण आरोग्य मिलता है! कर्मसिद्धांत तो रहेगा ही, फिर भी हर रोज नियमानुसार अभ्यास करने से असाध्य बीमारियों से मुक्त हो सकते है! यहा मै यह भी कहना चाहुँगा कि सिर्फ सिद्दांत को पढ्कर या यह पुस्तक पढ्कर रख देने से उचित लाभ नही होगा, इसके लिये आप लोगो को नीचे बताई गई क्रियाए नियमित रुप से करने पर लाभ अवश्य होगा! क्रिया करके स्वानुभव प्राप्त करो !
हर एक क्रिया के पहले नीचे दिए हुए पाइंट्स याद रखे!
मेरुदंड के नीचे मलद्वार मे मूलाधार, मूत्रद्वार के पीछे स्वाधिस्ठान, नाभी के पीछे मणिपुर, हृदय के पीछे अनाहत, गले मे विशुद्ध, मेडुल्ला केंद्र मे आज्ञा नेगटिव चक्र और कूटस्थ मे आज्ञा पाजिटिव चक्र स्थित है! केवल आज्ञाचक्र के ही पाजिटिव नेगटिव होते है, बाकी चक्रो के पाजिटिव नेगटिव नही होते है! सिर मे उपर की तरफ ब्रह्मरंध्र मे सहस्रार चक्र होता है!                     
प्रत्येक मनुष्य शरीर मे 72,000 सूक्ष्म नाडीयाँ होती है! इन नाडीयाँ मे इडा ( बाये तरफ), पिंगला दाये तरफ और बीच मे सुषुम्ना नाडी मेरुदंड मे होती है! इडा(गंगा), पिगला (यमुन)और सुषुम्ना(सरस्वती)ये तीनों मेरुदंड मे मूलाधारचक्र से शुरु होकर आज्ञा पाजिटिव चक्र तक जाती है! आज्ञा पाजिटिव से सिर्फ सुषुम्ना नाडी आगे बढकर सहस्रार चक्र मे रुक जाती है!
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! अंगुठें को तर्जनी अंगुली के सिरे से लगाए। शेष तीन अंगुलिया सीधी रखें।पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए!  शरीर को थोडा ढीला रखीए!
अपनी तर्जनी अंगुली को दोनों आँखों के मध्य मे रखिए! अब आहिस्ता-आहिस्ता इस अंगुली को उपर की और उठाते हुवे देखते रहिए जहाँ अंगुली का सिरा अदृश्य हो वही अपनी दृष्टी बैठाईए! अंगुली को आँखों के उपर से हटा लीजिए! इसी को कूटस्थ मे द्रष्टि बैठाना कहते है!
एक श्वास लेने और छोडने को एक हंस कहते है!  अरोग्यवान मनुष्य 24 घंटों मे 21,600 अथवा 15 हंस एक मिनट मे करते है! योगी एक मिनट मे 15 से कम हंस,  और रोगी 15 से बहुत ज्यादा हंस करते है! कोई भी मनुष्य 24 घंटों मे जितने कम हंस करता है उतना ही अच्छा योगी बनता है! सभी साधकों का ये ही लक्ष्य होता है!
सम का अर्थ लय होना, अधि का अर्थ परमात्मा मे यानि परमात्मा मे लय होना ही समाधि है! समाधि मिलने के बाद और क्रिया करने की आवश्यकता नही है! समाधि मिलने तक दीर्घ हंस यानि लंबा श्वास निश्वास करना चाहिये! श्वास और निश्वास के बीच मे कुछ समय रखना या नही रखना साधक की मर्जी है! संदेहास्पद यानि मै परमात्मा को पाऊंगा नही पाऊंगा को संप्रज्ञात समाधि कहते हैं संदेहरहितसमाधि को असंप्रज्ञातसमाधि कहते है! कुंडलिनी जागृत होने के बाद   जैसे जैसे चक्रों मे आगे बढती है वैसे वैसे संदेहनिर्मूलन होता जाता है! मूलाधार मे 80%, स्वाधिस्ठान मे 60%, मणिपुर मे 40%, अनाहत मे 20% संदेह रहता है! कुंडलिनी को विशुद्धचक्र तक पहुंचने कॆ बाद संदेहरहित असंप्रज्ञातसमाधि मिलती है!
ध्यान का अर्थ कूटस्थ मे दृष्टि रखना और सहस्रारचक्र मे मन को लगाना! कोई भी मंत्त्रोच्चारण नही करना चाहिये! श्वास पर ध्यास ही ध्यान है! जैसे मोटारगाडी चलाते समय दृष्टि सामने और मन ब्रेक वगैरह पर लगाना होता है वैसे ही चक्रध्यान कॆ समय मे कूटस्थ मे दृष्टि रखना, मन को जिस चक्र मे ध्यान कर रहे हो उस चक्र मे रखना और उस चक्र पर तनाव डालना! 
मुख्य प्राणायाम पद्धतियाँ:----

1) तनाव, उदासी, मायुसी हटाने की क्रिया
एक हंस = एक श्वास और एक निश्वास
अ) अवचेतनावस्थ या निद्रावस्थ या स्वपनावस्थ
5 मिनिट तक अपनी गरदन झुकाकर या मोडकर ध्यान करे! श्वास को लंबा या दीर्घ समय तक रोकने की कोशिश करनी चाहिये! एक श्वास लेने और छोडने को एक हँसा कहते है! एक हँसा और दूसरे हँसा के बीच मे जितनॆ समय तक स्वास रोक सकते है अपनी-अपनी शक्ती के अनुसार रोकना चाहिये!
 आ)चेतनावस्थ या जाग्रतावस्था ;
10 मिनिट तक अपनी गरदन सीधी रख के ध्यान करे! श्वास को लंबा या दीर्घ समय तक रोकने की कोशिश  करनी चाहिये! 
इ)सुषुप्ति अवस्था या तुरीय अवस्था ;
15 मिनिट तक अपनी गरदन पीछे मोड के ध्यान करे! स्वास को लम्बा या दीर्घ समय तक अपनी क्षमतानुसर रोकने की कोशिश करनी चाहिए! 
ये समस्त प्राणायाम क्रियाए साधक को अमित आनंद प्रदान करती है! तनाव, उदासीपन, अनिद्रा और थकान को दूर करती है! ज्ञापकशक्ति(स्मरणशक्ति) मे बढौती होगी खास करके विद्यार्थियों के लिए बहुत लाभदायक है! आँखों के नीचे के कालेपन को भी दुर करती है!

2) ज्ञानेंद्रियों के व्यापार को बंद करना---ज्ञानेंद्रिय शक्ति प्रदान क्रियाए........
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! अनामिका अंगुलि के आग्रभाग को अंगुष्ठ के आग्रभाग से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। कूटस्थ मे दृष्टि रखीए! मन जिस चक्र मे ध्यान कर रहे है उस चक्र मे रखिए और उस चक्र मे तनाव डालिए! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए! शरीर को थोडा ढीला रखीए!
मूलाधार चक्र पर तनाव डालकर पृथ्वीमुद्रा लगाए! अनामिका अंगुलि को अंगुष्ठ से लगायें और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। मूलाधार चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मूलाधारचक्र मे तनाव डालिए! 4 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे!  यानि चार दीर्घ हंसा लीजिए! मूलाधारचक्र पृथ्वी तत्व का प्रतीक है! पृथ्वी तत्व गंध को प्रदर्शित करता है! इस का तात्पर्य है नाक बंद हो गई एवम मुलाधारचक्र का करंट उपसंहरण होकर सुषुम्ना द्वारा सहस्रार चक्र मे पहुंच जाता है!              
अब स्वाधिस्ठानचक्र मे जाए, वरुणमुद्रा लगाए! कनिष्ठा
अंगुलि के आग्रभाग को अंगुष्ठ के आग्रभाग से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।स्वाधिस्ठानचक्र पर तनाव डालिये! छः बार लंबा श्वास लेवे और छोडेअब स्वाधिस्ठानचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! स्वाधिस्ठानचक्र वरुण तत्व का प्रतीक है! वरुण तत्व रस या रुचि को प्रदर्शित करता है! इस का तात्पर्य है जीभ बंद हो गई एवम स्वाधिस्ठानचक्र का करंट उपसंहरण हो कर सुषुम्ना द्वारा सहस्रार चक्र मे पहुंच जाता है!

अब मणिपुर चक्र मे चले! अग्नि या सुर्यमुद्रा मे बैठे! अनामिका  अंगुलि को मोडकर अंगुष्ठ के मूल भाग से लगाए और दबाए।  शेष अंगुलिया सीधी रखें।मणिपुरचक्र पर तनाव डालिये! 10 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! अब मणिपुरचक्र मे मन लगाकर कूटस्थ मे दृष्टि रखे!  मणिपुरचक्र अग्नि तत्व का प्रतीक है! अग्नि तत्व रूप या द्रष्टि को प्रदर्शित करता है! इस का तात्पर्य है आँख बंद हो गई एवम मणिपुरचक्र का करंट उपसंहरण होकर सुषुम्ना द्वारा सहस्रार चक्र मे पहुंच जाता है! अब अनाहतचक्र मे चले एवम वायुमुद्रा मे बैठे! तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।अनाहत चक्र मे तनाव डालिये! 12 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! अब अनाहतचक्र मे मन लगाकर कूटस्थ मे दृष्टि रखे!  अनाहतचक्र वायु तत्व का प्रतीक है! वायु तत्व स्पर्श या त्वचा को प्रदर्शित करता है! इस का तात्पर्य है त्वचा बंद हो गई एवम अनाहतचक्र का करंट उपसंहरण हो कर सुषुम्ना द्वारा सहस्रार चक्र मे पहुंच जाएगा!      अब विशुद्ध चक्र मे चले और शून्य या आकाशमुद्रा मे बैठे!मध्यमा अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल भाग मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।विशुद्धचक्र पर तनाव डाले! 16 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे!  अब विशुद्ध चक्र मे मन लगाकर कूटस्थ मे दृष्टि रखे! विशुद्धचक्र आकाश तत्व का प्रतीक है! आकाश तत्व शब्द या सुनने को प्रदर्शित करता है! इस का तात्पर्य है कान बंद हो गया और विशुद्धचक्र का करंट उपसंहरण हो केर सुषुम्ना द्वारा सहस्रारचक्र मे पहुंच जाएगा!
अब विशुद्धचक्र मे ही मन लगाके इसी शून्य मुद्र मे बैठे! 16 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! विशुद्धचक्र पर से तनाव छोड देवे! इस का मतलब शब्द या कान फिर से चालू हो गया!                                    अब अनाहत चक्र मे जाकर वायुमुद्र मे बैठीए!
तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखे! अनाहत चक्र मे तनाव डालिये! 12 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! अब अनाहतचक्र मे मन लगाकर कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अनाहतचक्र  पर तनाव छोड देवे! इसका मतलब स्पर्श या त्वचा फिर से चालू हो गए!
अब मणिपुर चक्र मे चले! अग्निमुद्रा मे बैठे! अनामिका अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। मणिपुर चक्र मे तनाव डालिये! 10 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! अब मणिपुरचक्र मे मन लगावे, कूटस्थ मे दृष्टि रखेमणिपुरचक्र पर से तनाव छोड देवे! इसका मतलब रूप या आँख फिर से चालू हो गए!
अब स्वाधिस्ठान चक्र मे जाए! वरुणमुद्र मे बैठे! कनिष्ठा  अंगुलि को अंगुष्ठ से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। स्वाधिस्ठानचक्र मे तनाव डाले! 6 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! अब स्वाधिस्ठानचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! स्वाधिस्ठानचक्र पर से तनाव छोड देवे! इसका मतलब रस या जीभ फिर चालू हो गए!
अब मूलाधारचक्र मे जाए! पृथ्वीमुद्रा मे बैठे!
अनामिका अंगुलि के अग्रभाग को अंगुष्ठ के अग्रभाग से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। मूलाधारचक्र पर तनाव डालिए! 4 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! अब मूलाधार चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे!  मूलाधारचक्र पर से तनाव छोड देवे, इसका मतलब गंध या नाक फिर से चालू हो गए!
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध फिर से चालू हो गए!
नियमित रुप से ये क्रियाए करने से समस्त इंद्रियों की शक्ति मे अभिवृद्धि होती है! ये प्राणायाम पद्धतियाँ इंद्रियो की समस्त नकारात्मकता को समाप्त कर सकारात्मक क्रियाओ को फिर से चालु कर देती है!
3) चक्रों मे ओंकारोच्चारण क्रिया
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगा कर बैठिए! अनामिका अंगुलि के आग्रभाग को अंगुष्ठ के आग्रभाग से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।कूटस्थ मे दृष्टि रखीए! मन को जिस चक्र मे ध्यान कर रहे है उस चक्र मे रखिए और उस चक्र मे तनाव डालिए!  पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए!  शरीर को थोडा ढीला रखीए!
मूलाधार चक्र पर तनाव डालकर पृथ्वीमुद्रा लगाए! अनामिका अंगुलि को अंगुष्ठ से लगायें और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। मूलाधार चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अब मूलाधार चक्र मे एक लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे!  मूलाधार चक्र के तनाव को छोड देवे!
अब स्वाधिस्ठानचक्र मे चले! वरुणमुद्रा मे बैठकर इसी चक्र
पर तनाव डाले! कनिष्ठा  अंगुलि के आग्रभाग को अंगुष्ठ के आग्र भाग से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।
स्वाधिस्ठानचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! स्वाधिस्ठानचक्र मे एक लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे!  स्वाधिस्ठान चक्र पर के तनाव को छोड देवे! 
अब मणिपुरचक्र मे चले! अग्निमुद्रा मे बैठकर इसी चक्र पर तनाव डाले! अनामिका अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।
मणिपुर चक्र मे तनाव डालिये! मणिपुर चक्र मे एक बार लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे!    मणिपुरचक्र मे मन को लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे  मणिपुर चक्र पर के तनाव को छोड देवे!
अब अनाहत चक्र मे जाएवायुमुद्र मे बैठॆ एवं इसी चक्र मे तनाव डालकर बैठे! तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। अनाहतचक्र पर तनाव डाले! अनाहत चक्र मे एक लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे! अब अनाहतचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अनाहतचक्र पर के तनाव को छोड देवे!                     अब विशुद्धचक्र मे चले! शून्य या आकाश मुद्रा मे बैठकर इसी चक्र पर तनाव डाले! मध्यमा अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।विशुद्ध चक्र पर तनाव डालिये! इसी चक्र मे एक लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे!  अब विशुद्धचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! विशुद्धचक्र पर के तनाव को छोड देवे!                              अब आज्ञा नेगटिवचक्र मे जाए! ज्ञानमुद्र मे बैठना! इस चक्र मे तनाव डाल के बैठे! अंगुठें को तर्जनी अंगुली के सिरे से लगा दे। शेष तीन अंगुलिया सीधी रखें।
आज्ञा नेगटिव मे तनाव डालिये! अब इसी चक्र मे एक लंबा श्वास लेते हुए मन ही मन ओंकारोच्चारण करे! अब आज्ञा नेगटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! आज्ञा नेगेटिव चक्र पर के तनाव को छोड देवे!
अब आज्ञा पाजिटिव चक्र मे जाए! ज्ञानमुद्र मे ही बैठे! इस चक्र पर तनाव डाले! अंगुठें को तर्जनी अंगुली के सिरे से लगा दे। शेष तीन अंगुलिया सीधी रखें।
आज्ञा पाजिटिव मे तनाव डालिये! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे एक बार लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे!   अब आज्ञा पाजिटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! आज्ञा पाजिटिव चक्र पर के तनाव को छोड देवे!
अब आज्ञा पाजिटिव चक्र मे ही रहे! ज्ञान मुद्र मे ही बैठे! आज्ञा पाजिटिव मे तनाव डालिये! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे एक लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! आज्ञा पाजिटिव चक्र पर के तनाव को छोड देवे!
अब आज्ञा नेगटिव चक्र मे जाए! ज्ञान मुद्रा मे ही बैठे! इस चक्र पर तनाव डालकर बैठे! आज्ञा नेगटिव चक्र मे एक बार लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे! अब आज्ञा नेगटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! आज्ञा नेगटिव चक्र पर के तनाव को छोड देवे!
अब विशुद्ध चक्र मे जाए! शून्य या आकाश मुद्रा मे बैठे!मध्यमा अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। विशुद्ध चक्र मे तनाव डालिये! विशुद्ध चक्र मे एक लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे! अब विशुद्ध चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! विशुद्ध चक्र पर के तनाव को छोड देवे!
अब अनाहत चक्र मे जाए! वायु मुद्रा मे बैठे! तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। अनाहत चक्र मे तनाव डालिये! अनाहत चक्र मे एक बार लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे! अब अनाहत चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अनाहत चक्र पर के तनाव को छोड देवे!
अब मणिपुरचक्र मे जाए! अग्नि मुद्रा मे बैठे! अनामिका अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। मणिपुरचक्र मे तनाव डालिये! मणिपुर चक्र मे एक बार लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे! मणिपुरचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मणिपुरचक्र पर के तनाव को छोड देवे!
अब स्वाधिस्ठानचक्र मे जाए! वरुण मुद्रा मे बैठे! इस चक्र पर तनाव डाले ! कनिष्ठा  अंगुलि को अंगुष्ठ से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। स्वाधिस्ठानचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! स्वाधिस्ठानचक्र मे एक लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे! स्वाधिस्ठान चक्र मे तनाव छोड देवे!
मूलाधारचक्र पर तनाव डाले! पृथ्वी मुद्रा मे बैठे! अनामिका अंगुलि को अंगुष्ठ से लगायें और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। इसी चक्र पर तनाव डाकर बैठे! मूलाधारचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मूलाधारचक्र मे एक लंबा श्वास लेते हुए मन ही मन ओंकारोच्चारण करे! मूलाधारचक्र पर के तनाव छोड देवे!
मूलाधरचक्र से ओंकारोच्चारण करते हुवे आज्ञा पाजिटिव्र चक्र तक को आधी प्रक्रिया कहते है! मूलाधरचक्र से ओंकारोच्चारण करते हुवे आज्ञा पाजिटिव चक्र तक जाकर फिर मूलाधरचक्र तक वापस आने को एक प्रक्रिया कहते है! ऐसी साढे पाँच प्रक्रिया समाप्त करने के पश्चात कूटस्थ मे गहन ध्यान लगाकर बैठना चाहिये! ओंम शब्द सुनाई देने पर उस ओंम शब्द मे ही मन को लगा के बैठे अथवा प्रकाश दिखाई देने पर उस प्रकाश मे ही मन को लगा के बैठे!
ये प्राणायाम क्रियाए चक्रों को धो डालती है और उन चक्रो से संबंधित अंगों के नुक्स को निकालर आरोग्यवंत करके शक्ति प्रदान करती है!
4) संचित कर्म दग्ध करने की क्रिया
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगा के बैठिए! अनामिका अंगुलि के आग्रभाग को अंगुष्ठ के आग्रभाग से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। कूटस्थ मे दृष्टि रखीए! मन को जिस चक्र मे ध्यान कर रहे है उस चक्र मे रखिए और उस चक्र पर तनाव डालिए! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए! शरीर को थोडा ढीला रखीए!
लिंग मुद्रा मे बैठे! सहस्रार मे तनाव डाले! मुट्ठी बाँधे और अंदर के अंगुठें को खडा रखे, अन्य अंगुलियों को बंधी हुई रखे।
सहस्रारचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! सहस्रारचक्र  मे 108 बार लंबा श्वास लेते हुवे मन ही मन ओंकारोच्चारण करे! सहस्रारचक्र मे ओंकारोच्चाण करते समय संचित कर्मों को अच्छे हो या बुरे उन कर्मों को परमात्मा को अंकित भाव से सहस्रार यानि ज्ञानाग्नि गुंड मे तीन बार हृदय से निकाल के ‘’ओं स्वाहा’’ बोलते हुवे समर्पित करे! 
ये प्राणायाम क्रियाए साधक के संचित कर्मों को जला के भस्म कर देती है! समाधी का अनुभव भी प्राप्त होता है!  
समाधी के समय साधक को सिर मे भारीपन होगा, मेरुदंड मे गुदगुदी सी लगेगी, गर्दन मे खुजली जैसा अनुभव हो सकता है अगर ये ज्यादा हो और सहन नही कर सके तो साधक को  मुलाधारचक्र मे ध्यान करने से ये नियंत्रण हो जाते है!
5) चक्रों मे ध्यान
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! अनामिका अंगुलि के आग्रभाग को अंगुष्ठ के आग्रभाग से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मन को जिस चक्र मे ध्यान कर रहे है उस चक्र मे रखिए और उस चक्र पर तनाव डालिए! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए! शरीर को थोडा ढीला रखीए!
मूलाधारचक्र मे तनाव डालिये! अनामिका अंगुलि को अंगुष्ठ से लगायें और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। अब मूलाधारचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार 4 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! श्वास को रोकना नही है!
मूलाधारचक्र मे चार पंखडियाँ होती है! मूलाधारचक्र को व्यष्टि मे पाताललोक और समिष्टि मे भूलोक कहते है! जब तक मनुष्य ध्यान नही करता तब तक वह शुद्र ही कहलाता है! उस मनुष्य का ह्र्दय काला अर्थात अन्धकारमय है, कलियुग मे है! जब मनुष्य ध्यान साधना शुरु करता है तब वो क्षत्रिय यानि योद्धा बनजाता है, उसका हृदय चालक हृदय बन जाता है और वह साधक फिर भी कलियुग मे ही है! मूलाधारचक्र पृथवी तत्व का प्रतीक है यानि गंध तत्व है! मूलाधारचक्र पीले रंग का होता है, मिठे फल सी रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत मे सहदेवचक्र कहते है! कुंडलिनी को पांडवपत्नी द्रौपदि कहते है! श्री सहदेव का शंख मणिपुष्पक है! ध्यान कर रहे साधक को जो नकारात्मक शक्तियाँ रोक रही होती है उन का दमन करते है श्री सहदेव! कुंडलिनी शक्ति जो शेष नाग जैसी होती है वह मूलाधारचक्र के नीचे अपना फ़ण नीचे की ओर एवम पुँछ उपर की और करके साढे तीन लपेटे लिये हुए सुषुप्ती अवस्था मे रह्ती है! साधना के कारण ये शेषनाग अब जागना आरंभ करता है! जाग्रत हो रहा शेष नाग मूलाधारचक्र को पार करेगा और स्वाधिस्ठानचक्र की ओर जाना शुरु करेगा! मूलाधारचक्र शेष के उपर होता है, इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे कुंडलिनी को श्री पद्मावति देवी कहते है और मूलाधारचक्र को शेषाद्रि कहते है! यहा जो समाधि मिलती है उस को सविकार संप्रज्ञात समाधि कहते है! मूलाधारचक्र पृथ्वी तत्व का प्रतीक है! पृथ्वी तत्व का अर्थ गंध है! संप्रज्ञात का अर्थ मुझे  परमात्मा के दर्शन लभ्य होगे या नही होगे ऐसा संदेह होना! इस चक्र मे ध्यान साधक को इच्छा शक्ति की प्राप्ति कराता है!
ध्यान फल को साधक को अपने पास नही रखना चाहिये, इसी कारण ‘’ध्यानफल श्री विघ्नेश्वरार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! मूलाधारचक्र मे  आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 96 मिनटों मे 600 हंस होते है!
अब स्वाधिस्ठानचक्र मे जाए! तनाव डाले! वरुण मुद्रा लगाए! कनिष्ठा  अंगुलि को अंगुष्ठ से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।  स्वाधिस्ठानचक्र मे  मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार छः बार लंबी श्वास लेवे और छोडे!  श्वास को रोके नही!
स्वाधिस्ठानचक्र को व्यष्टि मे महातल लोक और समिष्टि मे भुवर लोक कहते है! साधक अब द्वापर युग मे है! स्वाधिस्ठानचक्र मे छः पंखडियाँ होती है! स्वाधिस्ठानचक्र सफेद रंग का होता है, साधारण कडवी सी रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत मे श्रीनकुलजी का चक्र कहते है!   श्रीनकुलजी का शंख सुघोषक है! यह चक्र ध्यान कर रहे साधक को आध्यात्मिक सहायक शक्तियों की तरफ मन लगा के रखने मे सहायता करता है! 
स्वाधिस्ठान चक्र मे ध्यान करने से पवित्र बंसुरिवादन की ध्वनी सुनाई देगी! साधक का हृदय पवित्र बंसुरिवादन सुनके स्थिर होने लगते है, साधक को इधर द्विज कहते है! द्विज का अर्थ दुबारा जन्म लेना! इधर साधक को पश्चाताप होता है कि मैने इतना समय बिना साधना किए व्यर्थ ही गवाया, इसी कारण द्विज कहते है! सुनाई देने को संस्कृत भाषा मे वेद कहते है! इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे स्वाधिस्ठानचक्र को वेदाद्रि कहते है! इधर जो समाधि मिलती है उस को सविचार संप्रज्ञात समाधि या सामीप्य समाधि कहते है! इस चक्र मे ध्यान करने से साधक को क्रिया शक्ति की प्राप्ति होती है! इस का अर्थ हाथ, पैर, मुख, शिश्न( मूत्रपिडों मे) और गुदा यानि कर्मेंद्रियों को शक्ति प्राप्त होती है!ध्यान फल को साधक को ‘’ध्यानफल श्री ब्रह्मार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! स्वाधिस्ठान चक्र मे  आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 144 मिनटों मे 6000 हंस होते है!
अब मणिपुर चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, अग्नि मुद्रा मे बैठे! अनामिका अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। मणिपुरचक्र मे तनाव डाले! मणिपुरचक्र मे  मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार दस बार लंबी श्वास लेवे और छोडे ! श्वास को रोके  नही!  मणिपुरचक्र को व्यष्टि मे तलातल लोक और समिष्टि मे स्वर लोक कहते है! साधक अब त्रेता युग मे है! मणिपुर चक्र मे दस पंखडियाँ होती है! इसी कारण इसे रावण चक्र भी कहते है! मणिपुरचक्र लाल रंग का होता है, कडवा रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत मे श्रीअर्जुनजी का चक्र कहते है! श्रीअर्जुनजी का शंख दैवदत्त है! ध्यान कर रहे साधक को दिव्य आत्मनिग्रह शक्ति लभ्य कराते है श्रीअर्जुनजीमणिपुरचक्र मे ध्यान करने से वीणा वादन की ध्वनी सुनाई देगी! साधक का हृदय इस वीणा वाद्य नाद को सुन कर भक्तिवान हृदय बनेगा! साधक विप्र बन जायेगा! इधर जो समाधि मिलती है उस को सानंद संप्रज्ञात समाधि या सायुज्य समाधि कहते है! इस चक्र मे ध्यान साधक को ज्ञान शक्ति की प्राप्ति होती है! इस का अर्थ कान (शब्द), त्वचा (स्पर्श), आँख (रूप), जीब (रस) और नाक (गंध), ये ज्ञानेंद्रियों को शक्ति प्राप्त होती है!ध्यान फल को साधक को ‘’ध्यानफल श्री श्रीविष्णुदेवार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! मणिपुर चक्र मे  आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 240 मिनटों मे 6000 हंस होते है! इधर ज्ञान(ग) आरूढ(रुड) होता है! इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे मणिपुर चक्र को गरुडाद्रि कहते है!
अब अनाहतचक्र मे जाए, उस चक्र मे तनाव डाले, वायु मुद्रा मे बैठे! तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।अनाहतचक्र मे तनाव डाले! अनाहतचक्र मे  मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार बारह बार लंबी श्वास लेवे और छोडे!  
अनाहत चक्र को व्यष्टि मे रसातल लोक और समिष्टि मे महर लोक कहते है! साधक अब सत्य युग मे है! अनाहत चक्र मे बारह पंखडियाँ है! श्री भीम और आंजनेय दोनों वायु देवता के पुत्र है! इसी कारण इसे वायु चक्र, आंजनेयचक्र भी कहते है! अनाहत चक्र नीले रंग का होता है, खट्टी रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत मे श्रीभीम का चक्र भी कहते है!   श्रीभीमजी का शंख पौंड्रं है! ध्यान कर रहे साधक को दिव्य प्राणायाम नियंत्रण शक्ति को लभ्य कराते है श्रीभीमजी! 
अनाहत चक्र मे ध्यान करने से घंटा वादन की ध्वनी सुनाई देगी! साधक का हृदय इस घंटावाद्य नाद को सुनकर शुद्ध  हृदय बनेगा! साधक ब्राह्मण बन जायेगा! कुंडलिनी अनाहत चक्र तक नही आने तक साधक ब्राह्मण नही बन सकता! मनुष्य जन्म से ब्राह्मण नही बनता, प्राणायाम क्रिया करके कुंडलिनी अनाहत चक्र तक आने पर ही ब्राह्मण बनता है!  इधर जो समाधि मिलती है उस को सस्मित संप्रज्ञात समाधि या सालोक्य  समाधि कहते है! इस चक्र मे ध्यान साधक को बीज शक्ति की प्राप्ति कराता है!  ध्यान फल साधक को ध्यानफल श्री रुद्रार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिए! अनाहत चक्र मे  आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 288 मिनटों मे 6000 हंस होते है! इधर साधक को वायु मे उड रहा हू जैसी भावना आती है! इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे अनाहतचक्र को अंजनाद्रि कहते है!
अब विशुद्ध चक्र मे जाए, इस चक्र पर तनाव डाले, शून्य यानि आकाश मुद्रा मे बैठे! मध्यमा अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।
विशुद्ध चक्र मे तनाव डाले! अनाहत चक्र मे  मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार सोलह बार लंबा श्वास लेवे और छोडेश्वास को रोक्ना  नही है!विशुद्धचक्र को व्यष्टि मे सुतल लोक और समिष्टि मे जन लोक कहते है! विशुद्धचक्र मे सोलह पंखडियाँ होती है! विशुद्धचक्र सफेद मेघ रंग का होता है, कालकूटविष जैसी अति कडवी रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत मे श्रीयुधिस्ठिर का चक्र कहते है! श्रीयुधिस्ठिर का शंख अनंतविजय है! ध्यान कर रहे साधक को दिव्य शांति लभ्य कराते है श्रीयुधिस्ठिरजीविशुद्धचक्र मे ध्यान करने से प्रवाह ध्वनी सुनाई देगी! इधर असंप्रज्ञात समाधि या सारूप्य समाधि लभ्य होती है! असंप्रज्ञात का अर्थ निस्संदेह! साधक को सगुण रूप मे यानि अपने अपने इष्ट देवता के रूप मे परमात्मा दिखायी देते है! इस चक्र मे ध्यान साधक को आदि शक्ति की प्राप्ति कराता हैध्यान फल को साधक ‘’ध्यानफल श्री आत्मार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! विशुद्धचक्र मे  आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 384 मिनटों मे 1000 हंस होते है! असंप्रज्ञात समाधि या सारूप्य समाधि लभ्य होने से संसार चक्रों से विमुक्त हो के साधक सांड के जैसा परमात्मा के तरफ दौड पडता है! इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे विशुद्ध चक्र को वृषभाद्रि कहते है!
अब आज्ञा नेगटिव चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, ज्ञान मुद्रा मे बैठे! अंगुठें को तर्जनी अंगुली के सिरे से लगाए! शेष तीन अंगुलिया सीधी रखें। आज्ञा नेगटिव चक्र मे  मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! आज्ञा नेगटिव चक्र मे दो पंखडियाँ होती है! अपने शक्ति के अनुसार 18 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! श्वास को रोके नही!
अब आज्ञा पाजिटिव चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, ज्ञान मुद्रा मे ही बैठे रहे! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे  मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार 20 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! श्वास को रोके नही!आज्ञा पाजिटिव को व्यष्टि मे वितल लोक और समिष्टि मे तपो लोक कहते है! श्री योगानंद, विवेकानंद .लाहिरी महाशय जैसे महापुरुष सूक्ष्म रूपों मे इधर तपस करते है! इसी कारण इस को तपोलोक कहते है! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे दो पंखडियाँ है! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे प्रकाश ही प्रकाश दिखायी देता है! इस को श्रीकृष्ण चक्र कहते है! श्रीकृष्ण का शंख पांचजन्य है! पंचमहाभूतों को कूटस्थ मे एकत्रीत करके दुनिया रचाते है, इसी कारण इस को पांचजन्य कहते हैसविकल्प समाधि अथवा स्रष्ठ समाधि लभ्य होती है! यहा परमात्मा और साधक आमने सामने है! इस चक्र मे ध्यान साधक को परा शक्ति की प्राप्ति कराता हैध्यान फल  साधक को ‘’ध्यानफल श्री ईश्वरार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे  आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 48 मिनटों मे 1000 हंस होते है! इस चक्र से ही द्वंद्व शुरु होता है! केवल एक कदम पीछे जाने से फिर संसार चक्र मे पड सकता है साधक! इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे आज्ञा पाजिटिव चक्र को वेंकटाद्रि कहते है! एक कदम आगे यानि अपने ध्यान को और थोडा करने से अपने लक्ष्य परमात्मा मे लय हो जाता है साधक!
अब सहस्रारचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, लिंग मुद्रा मे बैठे! मुट्ठी बाँधे और अंदर के अंगुठें को खडा रखे, अन्य अंगुलियों को बंधी हुई रखे। सहस्रार चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार 21 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! सहस्रारचक्र को व्यष्टि मे अतल लोक और समिष्टि मे सत्य लोक कहते है! ये एक ही सत्य है बाकी सब मिथ्या है, इसी कारण इस को सत्यलोक कहते है! सहस्रारचक्र मे हजार पंखडियाँ होती है! यहा निर्विकल्प समाधि लभ्य होती है! परमात्मा, ध्यान और साधक एक हो जाते है! इस चक्र मे ध्यान साधक को परमात्म शक्ति की प्राप्ति कराता है! ध्यान के फल को साधक ‘’ध्यानफल  सदगुरू परमहंस श्री श्री योगानंद देवार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! सहस्रारचक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 240 मिनटों मे 1000 हंस होते है! तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे सहस्रार चक्र को नारयणाद्रि कहते है! 
अब इसी चक्र मे मन लगा के ध्यान जितना अधिक कर सकते है उतने समय तक करना चाहिए!
नीचे दियाहुआ Table को देखिए: इन चक्रों का महाभारत और तिरुपति बालाजिचरित्र में उन चक्रों का नाम इत्यादि दिया हुआ है!
महाभारत
चक्र
तिरुपति बालाजिचरित्र
समाधि
सहदेव
मूलाधार
शेषाद्रि
सवितर्क संप्रज्ञात
नकुल
स्वाधिष्ठान
वेदाद्रि
सविचार संप्रज्ञात (सामीप्य)
अर्जुन
मणिपुर
गरुडाद्रि
सानंद संप्रज्ञात (सालोक्य)
भीम
अनाहत
अंजनाद्रि
सस्मित संप्रज्ञात (सायुज्य)
युधिष्ठर
विशुद्ध
वेंकटाद्रि
 असंप्रज्ञात (सारूप्य)
श्रीकृष्ण
आज्ञा (कूटस्थ)
नारायणाद्रि
सविकल्प (स्रष्ट)
परमात्म
सहस्रार
नारायणाद्रि
निर्विकल्प

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