पतंजलि 4.1. कैवल्य पादम्


4.1. कैवल्य पादम्
4.1. जन्मौषधि मंत्रतपस्समाधिजास्सिद्धयः
जन्मौषधि मंत्रतपस्समाधिजास्सिद्धयः= जन्म, औषधि, मंत्र, तपस, समाधि – इन का हेतु पांच प्रकार का सिद्धिया है!
4.2.जात्यंतर परिणामः प्रकृत्यापूरात्
जात्यंतर परिणामः=जाती में परिवर्तन होने को,  प्रकृत्यात्= देहा के लिए पंचभूतो का अवसर, और इन्द्रियों केलिए अस्मिता यानी अहंकार, अपूरात्=अंगों केलिए
जाती से परिवर्तन होने तथ्रा देह के लिए प्रकृति यानी पंचभूतो के कारण, इन्द्रियों केलिए अस्मिता यानी अहंकार की कारण होता है!
आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी इनको पंचभूत कहते है! मनुष्य के शरीर का  मूलकारण यह पंचभूत है! इन पंचभूतों को प्रकृति कहते है!
कान (शब्द), चर्म (स्पर्श), नेत्र (देखना), जीब (रूचि), और नाक (सूंघना) इनको पंच ज्ञानेंद्रिय कहते है!  पाणि, पाद, पायु, उपस्थ, और मुह इनको पंच कर्मेंद्रिय कहते है!  मनो, बुद्धि, चित्त, अहंकार इनको अंतःकरण कहते है! अतः इंद्रियों का मूलकारण यह  अहंकार है!   
मनुष्य ध्यान न करने की कारण ही इन्द्रियों के वश में आजाता है, जिसके कारण वह  दुष्कर्म करने लगता है!  ओषधि, मंत्र, तापस, और समाधि –इनको अनुष्टान करने से मनुष्य इन्द्रियों का स्थिति से देवादि जाती रूप में परिणित होता है!
4.3 निमित्तम् प्रयोजकं प्रकृतीनां वरण भेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत् 
निमित्तम्= मंत्रों के द्वारा प्राप्त हुआ धर्म,  प्रकृतीनां= प्रकृति के लिए, अप्रयोजकं= प्रयोजक(जो काम का) नहीं है, तू= इस कारण, ततः= उस धर्मं के कारण, क्षेत्रिकवत्= कृषक के खेत जैसा, वरण भेदः=प्रतिबन्ध निवृत्त होगा!
मंत्रों के द्वारा प्राप्त हुआ धर्म, प्रकृति के लिए प्रयोजनकारी नहीं है!  परन्तु, उस धर्म के   हेतु, कृषक के क्षेत्र जैसा, साधक को मात्र प्रतिबंधक निवृत्ति होगी! कृषक अपने खेत के  बाधाओं अतः प्रतिबंधक को निकालदेगा! कृषक अपने खेत में पानी के लिए दिशा निर्धारित करता है! उसी तरह धर्मं भी प्रकृति के अनुकूल प्रतिबंधक को अपने मार्ग से हटादेता है!
4. 4. निर्माण चित्तान्य स्मितामात्रात्
स्मितामात्रात्= मात्र अहंकार को ग्रहण करेगा, निर्माण चित्तान्य= निर्माणचित्त अन्यों का होगा
मात्र अहंकार को ग्रहण करेगा,  निर्माणचित्त अनेक होगा
चित्त अलग अलग होनेपर सभी केलिए अहंकार एक ही है!
4.5.प्रवृत्तिभेदे प्रयोजकं चित्तमेक मनेकेषां
अनेकेषां= अनेक चित्तों का, प्रवृत्तिभेदे= भिन्न भिन्न प्रवृत्ति में, एकं= एक होना , चित्तं= चित्त (मन), प्रयोजकं= प्रयोगकर्ता
हमारे शरीर में चित्त वृत्तिया अनेकों है! अनेक चित्तों के भिन्न भिन्न प्रवृत्तियों  होनेपर भी, प्रवर्तक (मुख्य चित्) चित्तं  मात्र एक ही है!
एक ही चित्त वृत्ति निज यानी प्रधान शरीर में प्रवृत्ति भेद को स्वीकार करते है! इसी कारण एक ही मुख्य चित्त अनेक चित्त को अंगीकार करसकते है!

4.6. तत्र ध्यानजमनाशयम्
तत्र=पांच प्रकार के सिद्ध चित्त होते है! ध्यानजम्=उनमे, अनाशयम्=कर्मक्लेश वासनारहित
जन्म, औषधि, मंत्र, तापस, और समाधि इति पांच प्रकार के सिद्ध चित् है! इनमें ध्यानजन्य सिद्ध चित्त कर्मक्लेशा वासनरहित है! वह कैवल्य प्राप्ति केलिए उपयोगीकरण है!
4.7.कर्मा शुक्ल कृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषां
योगिनः= योगी के, कर्मा=पुण्य पाप कर्म, अशुक्ल कृष्णं= अशुक्ल, अकृष्णं, अशुक्ल-अकृष्णं, इतरेषां=अन्यो के कर्म, त्रिविधम्= तीन प्रकार के है!
कृष्णं=पाप,  शुक्ल= पुण्य.   
अकृष्णं= पाप नहीं होना, अशुक्ल= पुण्य नहीं होना
कैवल्य प्राप्ति हुवे योगी के लिए पाप कर्म और पुण्य कर्म दोनों समान है! , अन्यो के लिए कर्म शुक्ल, कृष्णं, शुक्ल-कृष्णं, इति तीन प्रकार के कर्म यानी पाप कर्म, पुण्य कर्म, और पाप कर्म-पुण्य कर्म इति तीन प्रकार का होते है!

4.8.ततस्तद्विपाक नुगुणा नामेवाभि व्यक्तिर्वासनानाम्
ततः= उस तीन प्रकार का कर्मो से,  तद्विपाक= उन कर्मफलो से, अनुगुणानामेव= अनुसार, वासनानाम् =वासनाओं को, अभिव्यक्तिः=प्रकाशभाव
उन तीन प्रकार के कर्मो के द्वारा, पाप कर्म, पुणयकर्म, और पाप कर्म-पुणयकर्म, यानी  उन कर्मफलो के अनुसार, वासनाओंको, प्रकाशभाव मिलेगा!
4.9.जाति देश काल व्यवहिता नामप्यानंतर्यं स्मृति संस्कारयोरेकरूपत्वात्  
जाति देश काल व्यवहितानाम् अपि= जाति, देश, और काल, से व्यवहार होनेसे भी, वासनाए,  स्मृति संस्कारयोः= स्मृति संस्कारों को, एकरूपत्वात्= समानरूप का वजह से, अनंतर्यं= छिपा नहीं होता है!
वासनाओ को  जाति, देश, और काल, व्यवहार से छिपे होने पर भी वासनाए, स्मृति संस्कारों को  समानत्व के वजह से, छिपा नहीं सकते है! ace, and time.
4.10.तासामनादित्वं चाशिषो नित्यत्वात्
आशिषः= आशिष को, नित्यत्वात्= नित्यत्वात् के कारण, तासाम्=उन वासनाए, अनादित्वं= नित्यत्व
जीवित रहना अनित्य है यह जान करभी वह वासनाओं को नित्य समझाने लगता है!
4.11.हेतुफलाश्रयालंबनैः संगृहीत त्वाद्वेषामभावे तदभावः 
हेतुफलाश्रयालंबनैः= कारण, फल, आश्रय, और आलम्बन का साथ, संगृहीतत्वात्= वासनाए संग्रहित किए हुवे है. एषां= इन कारणों से, अभावे= नाश होने पर, तदभावः=  वासनाए को अभाव होगा!
घर्मादि हेतुओ से, सुखादि फलो से, मनो रूप आश्रयो से, शब्दादि विषयो से, वासनाऐ  भाव रहित होजाऐगा ! विदेहमुक्ति के उपरांत यह कारण भी नाश होजाएंगे! विवेकख्यती के द्वारा खोये हुवे उन वासनाओं से अविद्या भी नाश होजायेगा!  
4.12.अतीतानागतं स्वरूपतोस्त्यद्वभेदाद्धार्माणाम् 
धर्माणाम्=धर्मों को, अद्वभेदात्=काल भेद का वजह से, अतीतानागतं= भूतवस्तु एवम्    भविष्यत् वस्तु,  स्वरूपतः अस्ति=स्वरुप में रहेगा!
धर्म काल भेद के वजह से, वर्तामानकाल का कोइ भी वस्तु, अतः भूतकाल एवम् भविष्यत् काल में अपने स्वरुप में रहेगा!  
4.13.व्यक्तसूक्ष्मा गुणात्मणः  
व्यक्त=वर्तमानकाल में, सूक्ष्मा= भूत, और भविष्यत्, रूपों, गुणात्मणः= त्रिगुणस्वरुप  
वर्तमानकाल में रूप, भूत, और भविष्यत्, रूपों, त्रिगुणस्वरुप है!  
यह रूप, भूत, वर्तमान, और भविष्यत्, इन तीनो कालो में रहते हुए त्रिगुणस्वरुप है!
पंचभूतो का स्वरुप= पंच तन्मात्र
पंच तन्मात्र (शब्द, स्पर्ष, रूप, रस, गंध)+एकादश इन्द्रियों(पंचकर्मेंद्रियों—हाथ, पैर, मुह, गुदा, और लिंग, पंचज्ञानेंद्रियों—आँख, नाक, कान, जीब, और त्वचा, मन) का स्वरुप= अहंकार
अहंकार का स्वरुप= महत्तत्व
महत्तत्व का स्वरुप= प्रधानम्
प्रधानम का स्वरुप= त्रिगुण
प्रपंच का विशेषता=  त्रिगुण
4.14. परिणामैकत्वाद्वस्तुतत्वं
परिणामैकत्वात्=गुण अनेक परन्तु उनका परिणाम एक जैसा है, वस्तु=तन्मात्र भूत भौतिकादि वस्तु को भी, तत्वं= एकत्व व्यवहार रखता है!  
गुण अनेक होनेपर भी, परिणाम एक जैसा होता है, तन्मात्र भूत भौतिकादि वस्तु में भी, एकत्व व्यवह्रुत होता है!
4.15. वस्तु साम्ये चित्त भेदात् तयोर्विभक्तः पन्थाः
वस्तु साम्ये= वस्तु साम्य में भी, चित्त भेदात्= चित्त अनेक होने को वजह से,  तयोः= उस ज्ञान और ज्ञेयं को, र्विभक्तः= भिन्न,  पन्थाः= मार्ग  
वस्तु के एकत्वभाव में भी, चित्त अनेक होने के वजह से, ज्ञान और ज्ञेयं के, मार्ग भिन्न है!   
4.16. नचैक चित्त तन्त्रं वस्तु तदप्रामाणिकं तदा किं स्यात्
वस्तु= बाह्य वस्तु,  क चित्त तन्त्रं= किसी के क चित्त के अधीन में रहता है,  न च= नहीं है, तदप्रामाणिकं= उस चित्त से प्रामाणिक नहीं है वस्तु, तदा=ज्ञान के विषय में  ज्ञात नहीं होने समय में, किं स्यात्=क्या होगा  
बाह्य वस्तु, चित्त पर आधारित नहीं है, अतः यह चित्त द्वारा प्रामाणिक नहीं होनेपर, उस  विषय वस्तु पर प्रामाणिक ज्ञान न होने से, उस समय में उस वस्तु पर स्थिति का क्या होगा?
4.17. दुपरागा पेक्षित्वा च्चित्तस्य वस्तु ज्ञाताज्ञातं
चित्तस्य=चित्त को, तत्= उस विषय को, पराग=इन्द्रिय समीपवाले   प्रतिबिम्ब को,  
अपेक्षित्वात्= अपेक्षा का वजह से, वस्तु= बाह्य वस्तु, ज्ञाताज्ञातं= कभी ज्ञात  और कभी अज्ञात रहेगा   
చిత్తము తనకు ఇష్టమైన విషయమును, సంబంధిత ఇంద్రియము(ల) ద్వారా ఆకర్షించును. అప్పడు ఆ విషయము జ్ఞాతముగా ఉండును.  చిత్తము తనకు ఇష్టము కాని విషయమును సంబంధిత ఇంద్రియము(ల) ద్వారా ఆకర్షించదు. అప్పడు ఆ విషయము జ్ఞాతముగా ఉండదు. అజ్ఞాతముగాను ఉండును. ఇట్లు విషయములను ఆకర్షించుట, ఆకర్షించకపోవుట జరుగును. ఇట్లు విషయాకారమున పరిణమించుట, పరిణమించకపోవుట అను తత్వముగల  చిత్తము పరిణామయుక్తము. 
अपने इष्ट विषय पर  चित्त, चित्त के संबंधित इन्द्रिय विषयो पर आकर्षित होता है! उस समय में यह विषय ज्ञात प्रतीत होता है! अतः अयिष्ट विषय पर चित्त के संबंधित इन्द्रिय, उस विषय पर आकर्षित नहीं होते है! तब यह विषय ज्ञात नहीं, अज्ञात होता है! अतः विषयपर आकर्षण होना या न होना परस्पर चलता रहता है! अतः यह विषयाकार में परिणित होना या न होना ऐसे तत्वचित्त को चित्त परिणामयुक्त कहते है!
4.18.सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्या परिणामित्वात् 
यस्य तु=जिस चेतन को, तत्= उस विषयाकार को, चित्तं एव= चित्त ही, विषयः= विषय होगा, तस्य= उस, तत्प्रभोः= उस चित्त को प्रभु, पुरुषस्य= पुरुष, अपरिणामित्वात्= परिणाम नहीं होने के वजह, सदा= हमेशा, ज्ञाताश्चित्तवृत्तयः=चित्तविषयो में ज्ञात होगा
जिस परमात्मा को विषयाकार चेतन ही विषय है, जो उस चित को प्रभु है, उस पुरुष में  परिणाम न होने की वजह से सदा चित विषय ज्ञात  रहेगा!
चित यानी मन कि स्थिति को नित्य क्षण क्षण कण कण  जाननेवाला, वह परमात्मा को सब कुछ ज्ञात रहता है!   

जिस चेतन को उस विषयाकार चित्त ही विषय होगा, उस चित्त का प्रभु पुरुष परिणाम नहीं होने के वजह से, हमेशा चित्त सम्बंधित विषय ज्ञात विषय होगे!  
4.19.न तत् स्वाभासम् दृश्यत्वात्
तत्= यह चित, दृश्यत्वात्=दृश्यं, स्वाभासम्= अपने आप प्रकाशित होनेवाली, न= नहीं
चितदृश्य स्वप्रकाशित होनेवाली नहीं है! अतः शुद्ध चैतन्य परमात्मा द्वारा प्रकाशित होता है!
4.20.  एकसमये चोभया नवधारणं
एकसमये च= एक ही काल में, उभया नवधारणं= विषय और स्वयं को ग्रहण करना असंभव है!
एक ही काल में, विषय और स्वयं दोनों को ग्रहण करना असंभव है! चितवृत्ति को दो विषय में एक साथ ग्रहण करने का सामर्थ्य नहीं होता !
4.21. चित्तान्तर दृश्ये बुद्धिबुद्धे रतिप्रसंगः स्मृति संकरश्च
चित्तान्तर= अन्याचित्तो से, दृश्ये= ग्रहण करने योग्य, बुद्धिबुद्धे= ग्रहणकरनेवाला मन,  अति प्रसंगः=स्थिति दोष भी, स्मृति संकरश्च= स्मरण को परस्पर असौकर्य होगा  
अन्यचित्तो से ग्रहण करने मे, उस चित्तग्राहक(ग्रहण करनेवाले मन को) चित्त को अनवस्थारूप (स्थिति) दोष को एवं स्मरण को परस्पर असौकर्य होगा! यानी अन्यचित्तो द्वारा ग्रहण करने से किस चित्त (मन) ने क्या ग्रहण किया पता नहीं चलता! अतः अव्यवस्था होगी! इसी कारण मन कि स्थिति में दोष होगा! मन का स्मृति नाशा होगा! इसी कारण स्मृति में निश्चय दोष होगा!
4.22. चितेरप्रतिसंक्रमाया स्तदाकारापत्तौ स्वबुद्धि संवेदनं
प्रतिसंक्रमायाः= इंद्रियों के जैसे विषयो में प्रचार न किया हुआ, चितेः= चेतनापुरुष को, ततः= अतः प्रतिबिंबित किए हुए उस चित का, आकार= आकार, आपत्तौ= प्राप्त होने के पश्चात, स्व= अपने से संबंधित विषय,  बुद्धि= बुद्धि का, संवेदनं= ज्ञान मिलेगा 
इन्द्रियों के विषय में पुरुष (परमात्मा) के प्रतिबिंब होने पर चित को ज्ञान प्राप्त होता है!  अतः मन निश्छल होने पर परमात्मा को प्रतिबिंबित करता है!
निर्मल जल में प्रतिबिंबित चन्द्र स्वयं क्रियारहित है! उस निर्मल जल में जब चंचलता का प्रवाह होता है तब चन्द्र के प्रतिबिंब में भी चंचलता दिखाइ पड़ती है! चित में प्रतिबिंबित हुए पुरुष स्वयं क्रियारहित है! परन्तु कर्म य विषय के गति द्वारा चित के अन्दर निश्चल परमात्मा में किसी तरह कि गति दिखाई नहीं पड़ती है!
4.23. द्रष्ट्रु दृश्योपरक्तम् चित्तं सर्वार्थम्
द्रष्ट्रु= द्रष्ट व पुरुष का साथ, दृश्य= दृश्य विषय से, उपरक्तम्=संबंधित, चित्तं= चित्त, सर्वार्थम्= सकलरूपधारी   
द्रष्ट व पुरुष के साथ, दृश्य व विषय के साथ संबंधित चित्त सकलरूपधारी है!
4.24. तदसंख्ये यवासना भिश्चित्र मपि परार्थं संहत्य कारित्वात्
तत्= उस चित, असंख्येय= अगणित,  वासनाभिः=वासनावो से, चित्रमपि=चित्रीकरण होनेसे भी, संहत्य कारित्वात्= विषयेंद्रिय संबंध के वजह से कार्य करता है, इसी वजह से, परार्थं= पुरुष केलिए काम करेगा     
अतः यह चित अगणित वासनावो से चित्रीकरण होनेसे भी, विषयेंद्रिय संबंध के वजह से कार्य करता है, अतः वह अप्रत्यक्ष रूप में पुरुष केलिए ही कार्य करेगा

4.5 विशेष दर्शिन आत्मभाव भावनाविनिवृत्तिः  
विशेष दर्शिनः= चित और शुद्ध चित अलग इति भेदभाव, आत्मा में देखनेवाला को,    आत्मभाव भावनाविनिवृत्तिः= आत्मा के विषय संबंधि और उनकि सत्ता का विचारण होगा    
चित और शुद्ध चित अलग इति भेदभाव, आत्मा में देखनेसे, आत्म के सत्ता विषय विचारण का निवृत्ति होगा! यानी मै अलग, और आत्मा अलग इति भाव निवृत्ति होगा! अतः मै ही आत्मा हु, आत्मा ही मै हु यह समझ जाएगा!
4.26. तदा विवेकनिम्नं कैवल्य प्राग्भारम् चित्तं
तदा= विवेकज्ञान उत्पन्न हुवे समय में, चित्तं=विवेकवान् चित्त, विवेकनिम्नं= विवेक इति निम्नमार्ग प्रवृत्ति से,  कैवल्य प्राग्भारम् = मोक्ष के प्राप्त होने तक पथ गमन करता है!
विवेकज्ञान उत्पन्न समय में, विवेकवान चित्त,  विवेक इति निम्नमार्ग प्रवृत्ति से, मोक्ष के प्राप्त होने तक पथ गमन करता है! (मोक्ष पर्यन्तगामी)
4.27. तच्छिद्रेषु प्रत्ययान्तराणि संस्कारेभ्यः  
संस्कारेभ्यः= पुराण संस्कारों का वजह से, तच्छिद्रेषु= उस विवेकनिष्ठ चित का अविवेक रूपी अवकाशों में, प्रत्ययान्तराणि = अन्य ज्ञान उत्पन्न होंगे
पुराण यानी पुरातनकाल संस्कारों का वजह से उस विवेकनिष्ठ चित का अविवेक रूपी अवकाशों में, अन्य ज्ञान उत्पन्न होंगे!  

4.28. हानमेषां क्लेशवदुक्तम्
हानमेषां= इन संस्कारों को नाश करना, क्लेशवदुक्तम्= अविद्यादी क्लेश जैसा  

अविद्यादि क्लेश जैसे संस्कारों को नाश करना है!,
ज्ञान से ही संतृप्ति नहीं होना, साधक को असंप्रज्ञात समाधि प्राप्ति करने तक  साधना करना चाहिए!
4.29. प्रसंख्याने प्यकुसीदस्य सर्वदा विवेकख्यातेर्धर्म मेघस्समाधिः
प्रसंख्याने अपि=संप्रज्ञातसमाधि में भी, अकुसीदस्य= लाभ नहीं देखेगा,  सर्वदा= निरंतर,  विवेकख्याते=विवेकज्ञान होगा, धर्म मेघस्समाधि= धर्म मेघस्समाधि कहते है
संप्रज्ञातसमाधि में साधक लाभ नहीं देखता, साधक नित्य विवेकज्ञान में रहता है!  इस को धर्म मेघस्समाधि कहते है!  
4.30.  ततः क्लेशकर्म निवृत्तिः 
ततः= धर्म मेघस्समाधि के कारण साधक को, क्लेशकर्म निवृत्तिः= क्लेशकर्म निवृत्ति होगा!
धर्म मेघस्समाधि के कारण साधक को, कर्मक्लेश निवृत्ति होती है!
4.30. तदा सर्वावरण मलापेतस्य ज्ञानस्या नंत्याज्ञेय मल्पम्  
 तदा= धर्म मेघस्समाधि के कारण साधक को, सर्वावरण मलापेतस्य= सकल चित्तनिष्ठ सत्वगुण को छिपा के रखनेवाले क्लेशकर्मरूपी आच्छादनों को निकलने के पश्चात, ज्ञानस्या नंत्या= ज्ञान अपरिमित होने पर, ज्ञेय मल्पम्= जाननेवाला वस्तु अल्प रहेगा
धर्म मेघस्समाधि के कारण साधक को, सकल चित्तानिष्ठ सत्वगुण को छिपा के रखनेवाले क्लेशकर्मरूपी आच्छादनों को निकलने के पश्चात, ज्ञान अपरिमित होने पर   वस्तु अल्प रहेगा
4.32.ततः कृतार्थानां परिणामक्रम समाप्तिर्गुणानां
ततः= धर्म मेघस्समाधि के कारण साधक को, कृतार्थानां= समाप्त कर्तव्यों को,  गुणानां= गुणों को, परिणामक्रम समाप्ति= परिणामक्रम समाप्ति होगा
धर्म मेघस्समाधि के उदय होने के वजह से साधक को, समाप्त कर्तव्य जैसे गुणों को, परिणामक्रम समाप्ति मिलेगी!
4.33. क्षण प्रतियोगी परिणामपरांत निर्ग्राह्यः क्रमः
क्षण प्रतियोगी= क्षणों से संबंधित, परिणाम= परिणाम का, अपरांत= समाप्ति से,  निर्ग्राह्यः= जानने का योग्य, क्रमः=को क्रम कहते है!
परिणाम कि समाप्ति से संबंधित क्षणों से जानने के योग्य को क्रम कहते है!
4.34. पुरुषार्थ शून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूप प्रतिष्ठावा चितिशक्तिरितिः
पुरुषार्थ शून्यानां= पुरुषार्थरहित, गुणानां=गुणों को,  प्रतिप्रसवः=अपने अपने कारण में लय करना ततः पश्चात प्रधान में लय करने को, कैवल्यं= कैवल्य, स्वरूप प्रतिष्ठा=अपना शुद्ध रूप स्थिति में, चितिशक्तिरितिः वा= चेतनाशक्ति, कैवल्यं
पुरुषार्थ को प्राप्त करने के पश्चात त्यागा करना चाहिए! अतः उन के सहायकारी गुणों को उनके  कारण में लय करना चाहिए! तत् पश्चात प्रधान में लय करना चाहिए! यही कैवल्य है! यानी, व्युत्थान, समाधि, और निरोध संस्कारों, ये सब को इनके कारण मन में लय करना चाहिए! मन को अहंकार मे, अहंकार  को बुद्धि मे, बुद्धि को प्रधानम् में लय करना चाहिए! उसी को कैवल्य कहते है! अपना शुद्धरूप में चेतनाशक्ति रूप में रहना ही कैवल्य कहते है!



समाप्त   समाप्त   समाप्त



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