पतंजलि 3.विभूति पादम
3.विभूति पादम
3.1.देशबंधश्चित्तस्य धारणा
चित्तस्य= चित्त को देशबंधः=
कोइ एक अपना शरीर के किसी एक अंगा के
साथ संबंध जोड़ना, धारणा= धारण
चित्त को, कोइ एक अपना शरीर के किसी एक अंगा के
साथ संबंध जोड़ना, धारणा है!
3.2. तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानं
तत्र= वहा, प्रत्यय= समझने में, एकतानता ध्यानं= एकाग्र ही
ध्यान है!
वह एकाग्र ही ध्यान है!
3.3. तदेवार्थ मात्रा निर्भासम् स्वरूप शून्यमिव समाधिः
तदेव= उस ध्यान
ही, अर्थमात्रा=
ध्येयाकार से, निर्भासम्= निरंतर प्रकाश
से, स्वरूप शून्यमिव= अपना स्वरूप शून्य जैसा होनेसे, समाधिः=समाधि कहते है!
वह ध्यान ही मात्र ध्येयाकार से निरंतर प्रकाश अपना स्वरूप
शून्य जैसा दिखानाहि, समाधि कहते है!
3.4. त्रयमेकत्रसंयमः
त्रयमेकत्र= धारण, ध्यान, और समाधि, तीनो एक
होने को, संयमः=संयम कहते है!
धारण,
ध्यान, और समाधि, तीनो एक होने को, संयम कहते है!
3.5.तज्जया त्प्रज्ञा
लोकः
तज्जयात्= उस संयम
स्थिर होना, प्रज्ञालोकः= प्रज्ञालोक प्राप्ति
संयम
स्थिर होना ही प्रज्ञालोक प्राप्ति है!
3.6. तस्य भूमिषु विनियोगः
तस्य=उस संयम
को, भूमिषु= योगावास्थायो में, विनियोगः= विनियोग
करना चाहिए!
उस संयम को योगावास्थायो में विनियोग करना चाहिए!
3.7. त्रयमंतरंगम्
पूर्वेभ्यः
पूर्वेभ्यः= इस से
पहले कहा गया यह यम नियम इत्यादि से, त्रयमंतरंगम्= इस संयम
समाधि में अतर्मुख होना आसान है!
इस से पहले कहा गया यह यम नियम इत्यादि से, इस संयम
समाधि में अतर्मुख होना आसान है!
3.8. तदपि बहिरंगम् निर्बीजस्य
तदपि=इस साधानात्रयम, धारण ध्यान और समाधि यानि संयमसमाधि, संप्रज्ञातसमाधि केलिए अंतरंग साधना
होगा! बहिरंगम् निर्बीजस्य= असंप्रज्ञातसमाधि
केलिए बहिरंग साधना होगा!
इस साधानात्रयम, धारण ध्यान और समाधि यानि संयमसमाधि, संप्रज्ञातसमाधि केलिए
अंतरंग साधना हे! असंप्रज्ञातसमाधि केलिए बहिरंग साधना हे!
3.9. व्युत्थान निरोध संस्कारयो रभिभव प्रादुर्भावौ
निरोधक्षण चित्तान्वयो निरोध परिणामः
व्युत्थान=आविर्भाव,
निरोध= निरोध करने, संस्कारयो= संस्कार, अभिभव प्रादुर्भावौ=बाह्य तिरोभाव,
वैराग्य, निरोधक्षण चित्तान्वयो= निरोधक्षण में चित्त में उद्भव हुआ, निरोध
परिणामः= निरोध परिणाम
संस्कार, कुल पूर्णतः निरोध
करने से अविर्भाव होगा! नूतन बाह्य तिरोभाव वैराग्य जैसे विचार उदभव होंगे! उस
निरोध क्षण में उदय हुए विचारों को निरोध परिणाम कहते है!
3.10. तस्य प्रशांत वाहिता संस्कारात्
तस्य= जैसे, प्रशांत= प्रशांतचित्तको, = निर्मल निरोध सम्स्काराधारारूपा स्थिति
मिलेगा!
प्रशांतचित्तको, निर्मल निरोध सम्स्कारधारारूप स्थिति मिलेगा!
3.11.सर्वार्थतैकाग्रतायोः क्षयादयौ चित्तस्य समाधि परिणामः
चित्तस्य = चित्त को, सर्वार्थत= चंचलता का हेतु क्षण क्षण
में विविध विषयो में हस्ताक्षेप करने मन, एकाग्रतायोः= एक मात्र विषयत्व का, क्षयादयौ=
चित्तस्य तिरोभाव व एकाग्र भाव को, समाधि परिणामः= समाधि परिणाम
चित्त को, चंचलता का हेतु क्षण क्षण में विविध विषयो में हस्ताक्षेप मन, एक मात्र
विषयत्व को, चित्तस्य तिरोभाव व एकाग्र भाव को, समाधि परिणाम कहते है!
3.12.ततः पुनः शांतोदितौ तुल्यप्रत्ययौ चित्तस्यैकाग्रता परिणामः
ततः= निश्चलस्थिति पाया हुआ, चित्तस्य= मन को, पुनः= पुनः, शांतोदितौ= भूत और वर्तमान को, तुल्यप्रत्ययौ=
एक ही जैसा, एकाग्रता परिणामः= एकाग्रता
परिणाम
निश्चलस्थिति पाया हुआ मन को, भूत और वर्तमान, एक ही जैसा होना एकाग्रता का परिणाम है !
3.13. एतेन भूतेंद्रियेषु धर्मलक्षणावस्था परिणामा व्याख्याताः
एतेन=निरोध, समाधि, और एकाग्र परिणाम
हेतु, भूतेंद्रियेषु=भूत और इन्द्रियों में धर्मलक्षणावस्था परिणामा= धर्म परिणाम, लक्षण परिणामा,
अवस्था परिणाम, व्याख्याताः= विशादीकरण किया है!
निरोध, समाधि, और एकाग्र के आधार परिणाम
हेतु, भूत और इन्द्रियों में धर्म परिणाम, लक्षण परिणामा, अवस्था
परिणाम, विशादीकरण किया है!
3.14. शांतोदिताव्यपदेश्य धर्मानुपाती धर्मी
3.14. शांतोदिताव्यपदेश्य धर्मानुपाती धर्मी
शांत=भूत, उदित= वर्तमान,, अव्यपदेश्य=भविष्यत्, धर्मानुपाती=धर्मं को अनुसरणीय,
धर्मी= धर्म ही धर्मी है!
भूत, वर्तमान, भविष्यत्, सर्व काल में एक जैसा अनुसरणीय धर्मं को, धर्मी कहते है!
3.15. क्रमान्यत्वं परिणामान्यत्वे हेतुः
परिणामान्यत्वे= अलग अलग परिणाम होने में, क्रमान्यत्वं हेतुः= क्रमान्यत्वं
हेतुः क्रम ही हेतु है!
अलग अलग परिणाम होने पर, चित्त का क्रम, भिन्न होना ही हेतु है!
परिणाम का अनुसार धर्मं भी अलग है! एक धर्म का बाद दूसरा धर्म जो होता है, यह पहले धर्म का क्रम है! पहले मिट्टी, बाद में
मटका, उस मटका फटनेसे, परिणाम में बदलावू होता है! इन परिणामों के अनुसार धर्मं
बदलता है! शिशु, बालक, युवक, वृद्ध, यही परिणामो का क्रम है! इस क्रम का अनुसार
धर्मं भी बदलता है!
3.16. परिणामत्रय संयमादतीतानागतज्ञानं
परिणामत्रय=धर्म लक्षण और अवस्था तीनो परिणामोम् में, संयमात्= धारण ध्यान समाधि तीनो
में, अतीता नागतज्ञानं= भूत भविष्यत् वस्तु साक्षात्कार होगा
धर्म, लक्षण, और अवस्था तीनो परिणामोम् में, धारण ध्यान समाधि तीनो में, भूत
भविष्यत् वस्तु साक्षात्कार होता है! इसी हेतु, परंपरा संबंध से परिणाम त्रय को
भूत भविष्यत् वस्तु साक्षात्कार होने को, पदार्थ वस्तु साक्षात्कार साधना है!
3.17.शब्दार्थ प्रत्ययानामितरेतरा
ध्यासात्संकरस्तत्प्रविभागसंयमात्सर्वभूतरुतज्ञानं
शब्दार्थ प्रत्ययानाम्= पद, तत् संबंधित अर्थ, तत् विषय ज्ञान, इतरेतर आध्यासात्=
परस्पर अभेद निश्चय का हेतु, संकरः= परस्पर सौकर्य होगी, तत् प्रविभागसंयमात्=
धारण, ध्यान, समाधि इन का हेतु, सर्वभूतरुतज्ञानं= सकलभाषा परिज्ञान होगा
पद, तात संबंधित अर्थ, तत् विषय ज्ञान, परस्पर अभेद निश्चय का हेतु, परस्पर सौकर्य
लभ्य होगी! धारण, ध्यान, समाधि इन का
हेतु, सकलभाषा परिज्ञान होगा!
3.18. संस्कार साक्षात्करणात् पूर्व जाति ज्ञानं
संस्कार साक्षात्करणात्= संस्कार साक्षात्कर होने से, पूर्व जाति
ज्ञानं= पूर्व जन्मों का ज्ञान मिलेगा!
संस्कार साक्षात्कर होने से, पूर्व जन्मों का ज्ञान मिलेगा!
3.19. प्रत्ययस्य परचित्त ज्ञानं
प्रत्ययस्य=अन्योंके मन के संयम हेतु, परचित्त ज्ञानं= उन का मन जानने का
ज्ञान मिलता है!
अन्योंके मन के संयम हेतु, उन का मन जानने का ज्ञान मिलता है!
3.20. न च तत्सालंबनं तस्याविषयी भूतत्वात्
तस्य=अन्य चित्त साक्षात्कार को, अविषयी
भूतत्वात् = रागद्वेष विषय नहीं है, इसी हेतु, तत्= उस अन्य चित्त का साक्षात्कार
को, सालंबनं= रागद्वेष विषय आधार होयेगा,
न च=नहीं
अन्य चित्त साक्षात्कार को, रागद्वेष विषय नहीं है, इसी कारण, उस अन्य चित्त
का साक्षात्कार को, साधक का चित्त आधार नहीं होगा!
3.21. कायरूप
संयमात्तद्ग्राह्यशक्तिस्तंभेचक्षुस्प्रकाशासंयोगेंतर्धानं
कायरूप= अपना शरीर का रूप विषय में, संयमात्= संयम करने हेतु, तत्= उस रूप का, ग्राह्यशक्तिः
स्तंभे= ग्रहणशक्ति निरोध करने से, चक्षुः प्रकाशा= अन्यो का नेत्रों से,
असंयोगे=अपना शरीर का नरदिक में, अंतर्धानं= अन्यो को नहीं दिखाईदेनेवाली शक्ति
सिद्धि प्राप्ति होगा!
अपना शरीर का रूप विषय में, संयम करने हेतु, उस
रूप का, ग्रहणशक्ति निरोध करने से, अन्यो का नेत्रों से, अपना शरीर के समीप
होनेपर, अन्यो को नहीं दिखाईदेनेवाली शक्ति सिद्धि प्राप्ति होती है! इसी कारण रूप
संयम में अन्यो के नेत्रों के सामने होने से भी साधक नहीं दिखाईदेता!
3.22. सोपक्रमं निरुपक्रमं च कर्म तत्सम्यमादपरांत
ज्ञानमरिष्टेभ्योवा
सोपक्रमं= प्रारब्ध, निरुपक्रमं= आगामी, च कर्म=
कर्मो को, तत्सम्यमात्=वैसे कर्मो को संमयम् से, अपरांत ज्ञानम् अरिष्टेभ्योवा=अरिष्ट का हेतु मरण ज्ञानम्
प्रारब्ध कर्म भोगने से, और आगामी कर्म सम्यमम् से, ज्ञान मिलता है! अरिष्ट यानि गलत संकेत के माध्यम से साधक को मरण ज्ञान मिलेगा!
3.23. मैत्र्यादिषु बलानि
मैत्र्यादिषु= मैत्रि इत्यादि, बलानि= शक्ति का
हेतु है!
मैत्रि इत्यादि, शक्ति का हेतु है!
मैत्रि, दया, संतोष, और समभाव साधक केलिए बल का
हेतु है!
3.24.
बलेषु हस्ति बलादीनि
बलेषु= बल में, हस्ति बलादीनि= हाथी जैसा बल मिलेगा!
साधक को हाथी जैसा बल मिलेगा!
3.25. प्रवृत्यालोकन्यासात्सूक्ष्म व्यवहित
विप्रकृष्ट ज्ञानं
प्रवृत्ति= विषयों के उप्पर उत्साह, अलोक=
सात्विक प्रकाश, न्यासात्=संयम का माध्यम से रखने से, सूक्ष्म व्यवहित विप्रकृष्ट ज्ञानं= सूक्ष्म,
छिपा हुआ वस्तु, और दूर वस्तु का ज्ञान मिलेगा
विषयों के उप्पर उत्साह का सात्विक प्रकाश संयम
के माध्यम से होनेपर, साधक को सूक्ष्म, छिपा हुआ वस्तु, और दूर वस्तु का ज्ञान प्राप्त होगा!
3.26.
भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात्
सूर्ये संयमात्= सूरज का साथ संयम का हेतु, भुवनज्ञानं=
सकललोक विषय ज्ञान मिलेगा!
सूरज का साथ संयम करने से
साधक को सकललोक विषय ज्ञान मिलेगा!
3.27.चंद्रेताराव्यूह ज्ञानं
चंद्रे= चंद्र का साथ संयम का हेतु, ताराव्यूह ज्ञानं= नक्षत्र विषय ज्ञान
मिलेगा!
चंद्र का साथ संयम का हेतु, साधक को नक्षत्र विषय ज्ञान
मिलेगा!
3.28.धृवे तद्गति ज्ञानं
धृवे= धृव नक्षत्र विषय में संयम का हेतु, तद्गति ज्ञानं= तारको
के गमन विषयक ज्ञान मिलेगा!
धृव नक्षत्र विषय में संयम का हेतु, साधक को तारको के गमन विषयक
ज्ञान मिलेगा!
3.29. नाभिचक्रे कायव्यूह ज्ञानं
नाभिचक्रे= नाभिचक्र विषय में संयम का हेतु, कायव्यूह ज्ञानं = शरीर विषयक ज्ञान मिलेगा!
नाभिचक्र विषय में संयम का हेतु, साधक को शरीर विषयक ज्ञान मिलेगा!
3.30. कंठकूपे क्षुत्पिपासा निवुत्तिः
कंठकूपे= कंठकूप विषय में संयम का
हेतु, साधक को, क्षुत्पिपासा नि निवृत्ति = भूक और प्यास निवृत्ति होगा!
कंठकूप विषय में संयम का हेतु, साधक को, भूक और प्यास निवुत्ति होगा!
3.31. कूर्मनाड्याम् स्थैर्यं
कूर्मनाड्याम्=कूर्म नाडी के उप्पर ध्यान, स्थैर्यं= स्थिरत्व देगा
कूर्म नाडी के उप्पर ध्यान, स्थिरत्व देगा!
कंठकूप विषय में संयम का हेतु, साधक को, स्थिरता मिलेगी! कंठकूप के नीचे सर्प जैसे कूर्माकार
में एक नाडी है! जिस से उस नाडी के उप्पर संयम ध्यान करने से उडुंबु (monitor
lizard) जैसा स्थिरता मिलेगी!
3.32. मूर्धज्योतिषि सिद्ध दर्शनं
मूर्ध= शिर, ज्योतिषि=ज्योति का उप्पर संयम ध्यान करने से, सिद्ध
दर्शनं= योगी को महान सिद्ध पुरुषो को दर्शन मिलेगा!
शिश में ज्योति के उपर संयम ध्यान करने से, योगी को महान सिद्ध पुरुषो को
दर्शन मिलेगा!
3.33. प्रातिभाद्वा सर्वं
प्रातिभाद्वा= प्रातिभम्
ज्ञान से, सर्वं= साधक सर्व
जानेगा!
प्रतिभा ज्ञान से, साधक सब कुछ जानसकेगा! बिना किसी कारण से ही मन में अचानक उत्पन्न
होनेवाली ज्ञान को प्रतिभा कहते है!
3.34.हृदये चित्त संवित्
हृदये= हृदय में संयमम करने से, चित्त संवित्= साधक को स्व परा
चित्त साक्षात्कार होगी!
हृदय में संयम ध्यान करने से, साधक को स्वयं परा चित्त साक्षात्कार होगा!
3.35.सत्वपुरुषयो रत्यंतासंकीर्णयोः प्रत्ययाविशेषो भोगः परार्थत्वात् स्वार्थ
संयमात् पुरुष ज्ञानं
अत्यंतासंकीर्णयोः= विरुद्ध धर्म होनेसेभी, सत्वपुरुषयो=बुद्धि और पुरुषको,
प्रत्ययाविशेषः= अभेद रूप भाव को, भोगः=भोग कहते है! परार्थत्वात्= बुद्धि सत्व
धर्मं पुरुष के लिए है, इसी कारण, स्वार्थ संयमात्= परुष में संयम करके, पुरुषज्ञानं=
आत्मज्ञान
परस्पर विरुद्ध धर्म होनेपर, बुद्धि और पुरुष को, अभेद रूप भाव को भोग कहते
है! बुद्धि सत्व धर्म, पुरुष (परमात्म) के लिए है, इसी कारण, पुरुष (परमात्म) में
संयम करके ध्यान करने से योगी को आत्मज्ञान प्राप्त होगा!
3.36. ततः प्रातिभ श्रावण वेदना दर्शा स्वाद वार्ता जायंते
ततः=इसीलिए, प्रातिभ= प्रातिभ, श्रावण = श्रवण, वेदना=स्पर्श, आदर्श= देखना, आस्वाद=
स्वाद, वार्ता= सूंघना, जायंते=होगा
इसीलिए, प्रतिभ, श्रवण, स्पर्श, देखना, स्वाद, सूंघना,-- इन इन्द्रियों में सिद्धि प्राप्त होगी!
3.37. ते समाधा वुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः
ते= उप्पर दिया हुआ छे विषय, समाधा= समाधि में, वुपसर्गा= विघ्न, व्युत्थाने=
बहिर्मुख अवस्था में, सिद्धयः= सिद्धि
उप्पर कहे गये इन छे विषयोंमे, समाधि केलिए विघ्न है! बहिर्मुख अवस्था में सिद्धि है!
3.38. बंधकारण शैथिल्या त्प्रचार संवेदानाच्च चित्तस्य परशरीरावेशः
बंधकारण= चित्तबंध कारण धर्माधर्म का, शैथिल्यात्= शिथिल का हेतु, प्रचार=चित्त संचार, संवेदानाच्च= जाननेसे,
चित्तस्य= चित्तको, परशरीरावेशः= अन्योका शरीर में प्रवेश मिलेगा!
चित्तबंध के कारण धर्माधर्म का शिथिल का हेतु, चित्त संचार को जाननेसे,
चित्तको अन्योका शरीर में प्रवेश मिलेगा!
चित्त चंचल है! पुण्य पापो का वजह से शरीर में स्थिर निवास बनाता है! इस को
चित्त बंध कहते है! इसलिए चित्त बंध पुण्य और पाप का कारण है! अतः यह संयम ध्यान से
शिथिल होगा! इसी को बंध कारण शैथिल्य कहते है! एसे संयम ध्यान से शिथिल हुआ
मन चित्त संचार को समझके अन्योंके शरीर
में प्रवेश प्राप्त करता है!
3.39. उदान जयाज्जल पंककंटकादिष्व संग उत्क्रांतिश्च
उदान जयात्= उदानवायु को जितने से, जल पंक कंटका आदिषु= पानी, कीचड, काँटा,
इत्यादि, असंगः= बिना सबंध, उत्क्रांतिश्च= ऊर्ध्व गमन सिद्धि होगा!
उदानवायु को जितने से, पानी, कीचड, काँटा, इत्यादि, बिना सबंध, ऊर्ध्व गमन
सिद्धि प्राप्त होगी!
3.40.समान जयाज्वलनम्
समान जयात्=समाना वायु को जितनेसे, ज्वलनम्= दीप्ति मिलेगा
समाना वायु को जितनेसे,
योगी को दीप्ति प्राप्त होगी!
3.41. श्रोत्राकाशयोस्संबंध
संयमात् दिव्यं श्रोत्रं
श्रोत्राकाशयोः= श्रोत्र इंद्रिय
और आकाश, संबंध संयमात्= संबंध संयम के हेतु,
दिव्यं श्रोत्रं= दिव्य श्रोत्र प्राप्त होगा!
श्रोत्र इंद्रिय और आकाश के संबंध संयम ध्यान के
हेतु, योगी को दिव्य श्रोत्र प्राप्त होगा!
3.42. कायाकाशयोस्संबंध संयमाल्लाघुतूल समापत्तेश्च आकाशगमनम्
कायाकाशयो= शरीर आकाशा, संबंध संयमात्= संबंध संयम ध्यान का हेतु, लघु= हल्का पदार्थ, तूल=
कपास वगैरा समापत्तेश्च= तन्मई भाव का वजह से, आकाशगमनम्= आकाशगमन शक्ति प्राप्त
होगी
शरीर और आकाशा के संबंध संयम ध्यान का हेतु, कपास व रुई जैसे हल्के पदार्थ के साथ तन्मई भाव रखने से, योगी को आकाशगमन शक्ति
प्राप्त होगी!
3.43.बहिरकल्पिता वृत्तिर्महा विदेहा ततः प्रकाशावरण क्षयः
बहिः= शरीर का बाहर, अकल्पिता= अकल्पित, वृत्ति= चित्तवृत्ति, महा विदेहा= महा
विदेहा नाम का धरणा से, ततः= इसीलिए, प्रकाशावरण=बुद्धि को ढक के
रखनेवाली क्लेशों को, क्षयः= नाश करेगा
शरीर के बाहर अकल्पित चित्तवृत्ति महा
विदेहा के नाम से धरण करके बुद्धि को ढक
के रखनेवाले क्लेशों को, क्षय करेगा! अतः
स्वतंत्र मन, महा विदेह नाम के धारणा से, शरीर के बाहर जुड़ेहुए क्लेशो को नाश
करेगा!
किसी न किसी विषय में काया के साथ मन लग्ने को विदेह धारणा कहते है!
मन शरीर के भीतर रहते
हुए, शरीर के बाहर प्रचार करने को कल्पित विदेह धारणा कहते है!
देह के साथ संबंध न रखते हुए, बाहर स्वतंत्रता से विचरण करने पर मन को अकल्पित
व महा विदेह धारणा कहते है!
योगी को कल्पित विदेह धारणा साधन है! इस के माध्यमे से महा विदेह धारणा साध्य करना है! तब वह परकायाप्रवेश कर पायेगा! इसके
उपरान्त, कलेश, कर्म, विपाक तीनोको निर्मूलन करसकेगा!
3.44.स्थूल स्वरूप सूक्ष्मान्वयार्थ वत्व संयमात् भूत जयः
स्थूल स्वरूप सूक्ष्मान्वयार्थ वत्व संयमात्= स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय,
और अर्थवत्व इति, पंचावस्थों में संयम का हेतु, भूतजयः= भूतजय नाम से सिद्धि
प्राप्त होगी !
स्थूल—पृथ्वी, स्वरूप—जल, सूक्ष्म—अग्नि, अन्वय—वायु, अर्थवत्व—आकाश इति, पंचावस्थों में संयम होने के हेतु, भूतजय
नाम से सिद्धि प्राप्त होगी !
3.45.ततोणिमादि प्रादुर्भावः कायसंपत्तद्धार्मानभिघातश्च
ततः=उन भूतो को अपना नियंत्रण में लाने से, अणिमादि प्रादुर्भावः= अणिमादि
अष्टसिद्धि प्राप्ति होगा, कायसंपत्=देहा संपत्ति भी, ततः=उन भूतो को, धर्म= धर्म,
अनभिघातश्च= प्रतिबंधक नहीं है!
पञ्च भूतो को, साधक अपना नियंत्रण में लाने से अणिमादि अष्टसिद्धि लभ्य होगी!
देह संपत्ति पञ्च भूतों के धर्मं हेतु प्रतिबंधक नहीं होंगे!
3.46.रूपलावण्य बलवज्र संहननत्वानि कायासंपत्
रूप= सुन्दर रूप, लावण्य=मनोहर लावण्य, बल= बल, वज्र
संहननत्वानि= वज्र सामान सहन शक्ति, कायासंपत्=
होनेको देहासम्पत्ति कहते है!
सुन्दर रूप, मनोहर लावण्य, बल, वज्र सामान सहनशक्ति, होनेको देहसंपत्ति कहते
है!
3.47.ग्रहण स्वरूपास्मितान्वयार्थ वत्व संयमादिंद्रिय जयः
ग्रहण स्वरूपास्मितान्वयार्थ वत्व संयमात्= ग्रहण, स्वरूप, अस्मित, अन्वय
और अर्थत्व इति पांच रूपों में संयम का
हेतु, इंद्रिय जयः= इंद्रिय जय होगा!
इंद्रिय केलिए ग्रहण यानी ग्राह्य, स्वरूप, अस्मित यानी अहंकार, अन्वय यानी उस
इंद्रिय का गुण, और अर्थत्व यानी सामर्थ्य, इति पांच रूपों में संयम के हेतु,
इंद्रिय जय यानी सिद्धि होगी!
3.48.ततो मनोजवित्वं विकरणभावः प्रधानजयश्च
ततः= इन्द्रिय जय के हेतु, मनोजवित्वं= मनोवेगको, विकरणभावः= विकरणभाव को, प्रधानजयश्च= प्रकृति जय भी मिलेगा!
इन्द्रिय जय के हेतु, मनोवेग व मन जैसा शीघ्र गमन करने शक्ति, विकरणभाव व त्रिकालज्ञान,
प्रधानजय व प्रकृतिजय यानी कार्य कारण जैसे शक्तिया भी साधका के अधीन में होगी!
3.49.सत्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वंच
सत्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य=प्रकृति पुरुष इति विवेकवान योगिको, सर्वभावाधिष्ठातृत्वं
सर्वज्ञातृत्वंच= समस्तवस्तुवो के आधिपत्य तथा सकल वस्तु विषयक यदार्थ ज्ञान
प्राप्ति होगी!
प्रकृति पुरुष इति विवेकवान योगिको,
समस्तवस्तुवों के आधिपत्य तथा सकल वस्तु विषय पर यदार्थ ज्ञान कि प्राप्ति
होगी!
3.50.तद्वैराग्यादापि दोषबीजक्षये कैवल्यं
तद्वैराग्यादापि= उस वैविध्य राग्य व मोह- यानी केवल परमात्मा में मन लग्न
होने से, दोषबीजक्षये कैवल्यं= राग द्वेष को मूल हेतु
अविद्यानाश होनेसे मोक्षप्राप्ति होगी
उस वैराग्य--वैविध्य राग्य व मोह- यानी केवल परमात्मा में मन लग्ने से, राग
द्वेष के मूल हेतु अविद्यानाश होने से मोक्षप्राप्ति होगी
3.51. स्थान्युपनिमंत्रणे संगस्मयाकरणं
पुनरनिष्ट प्रसंगात्
पुनः= पुनः, अनिष्ट प्रसंगात्= अनिष्ट संसार मिलनेसे भी, स्थानि=स्वर्ग
इत्यादि उन्नत लोक प्राप्ति होनेसेभी, उपनिमंत्रणे= सत्कारपूर्वक प्रार्थना में, संग=
रूचि भी, स्मया= देवातालोक हम पर कृतार्ता
बुद्धि दिखाने पर भी, आकरणं= नहीं होना चाहिए
पुनः अनिष्टसंसार(अनचाहा संसार) मिलनेसे भी, स्वर्ग इत्यादि उन्नत लोक
प्राप्ति होनेसेभी, सत्कारपूर्वक प्रार्थना में औत्साहिक होना एवं देवातालोक का हम
पर कृतार्थ बुद्धि दिखाना, ये सब महत्य
होने पर भी साधक में संतृप्ति नहीं होना चाहिए! इसीलिये साधकको दुःख मिलनेपर दुःखी नहीं होना चाहिए,
ना हि सुख मिलनेपर आनंदित होना चाहिए! अतः दोनों अवस्थाओं में साधकको समस्थिति रखना चाहिए!
3.52.क्षण तत् क्रमयोःसंयमाद्विवेकजम् ज्ञानं
क्षण= क्षण विषय मे, तत् क्रमयोः= क्षण विषयक्रम मे, संयमाद्विवेकजम्
ज्ञानं= संयमम से प्राप्त हुआ विवेक ज्ञान के हेतु, ज्ञान प्राप्त होगी!
क्षण विषय मे, क्षण विषयक्रम मे, संयम का वजह से उत्पन्न विवेक ज्ञान के हेतु ज्ञान
प्राप्त होगी!
क्षण= काल के, अति सुक्ष्म निर्विभजित् भाग
वैसे दो क्षण में दूसरा क्षण प्रथम क्षण का क्रम है!
घटिका, मुहूर्त, प्रहर, दिवा, रात यह सब काल के भाग है!
3.53.जाति लक्षण देशैरन्यता नवच्छेदात्तुल्य योस्ततः
प्रतिपत्तिः
जाति लक्षण देशैः= जाति
लक्षण देश इनसे, अन्यता नवच्छेदात्=भेद निश्चय नहीं होगा, तुल्ययोः= समान पदार्थो
को, प्रतिपत्तिः=उस भेदज्ञान, ततः= उस विवेकज्ञान से ही होता है!
कभी कभी जाति लक्षण
देश, इनसे भेद निश्चय नहीं होता, प्रथम मे, समान पदार्थो को, भेदज्ञान,
उस विवेकज्ञान से ही प्राप्त होता है!
3.54.तारकं सर्व विषयं सर्वथा विषयमक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानं
तारकं= संसार को पार करानेवाला, सर्व विषयं= पदार्थो को विषयीकरण
करना, सर्वथा विषयं=सभी विधानों में विषयीकरण करना, अक्रमं च इति= अचानक होने वाला
लक्षण, विवेकजं= प्रकृति पुरुष विवेक ज्ञान,
ज्ञानं= ज्ञान
विवेक ज्ञान संसार से बेडापार
कराएगा! इस स्थितिको तारक कहते है! इसमें
किसी अन्यो के उपदेश की आवश्यकता नहीं होती! वह स्वयम प्रतिबोधित होता है! भौतिक
प्रपंच विषयों से सम्बन्ध नहीं रखता, केवल
परमात्मा के साथ सम्बन्ध जुदा रहता है! इस तरह के ज्ञान को प्रकृति पुरुष विवेक
ज्ञान कहते है!
3.55.सत्व पुरुषयोश्शुद्धि साम्ये कैवल्यमिति
सत्व पुरुषयोः= बुद्धि और पुरुष का बीच में, शुद्धि साम्ये= परिशुद्ध बुद्धि, कैवल्यमिति=
कैवल्यमिति
बुद्धि और पुरुष के बीच में, परिशुद्धता के हेतु, कैवल्यप्राप्तिहोगी! योगी
स्वयं परिशुद्ध आत्मा बनजायेगा!
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