क्रियायोग –तीसरा आँख part 2

सफलताज्ञान:
सफलत=गतजन्मों का सफलत + इस जन्म का धर्मबद्ध काम!
गतजन्मों में सफलत के लिए प्रयत्न किया मनुष्य इस जन में धर्मबद्ध काम का प्रयत्न नहीं करने से प्रत्यक्ष रूप में सफलत नहीं आसकता परंतु परोक्ष रूप में आसकता है! किसी भाग्यवान का घर में जन्म लेनाअथवा किसी का जायदाद अगस्मात आजानाऐसा सफलता मिल जासकेगा! अडोस पड़ोस लोगों को देखके उन का प्रभाव से धर्मबद्ध काम्यकर्मों नहीं भी करसकता और अच्छा अडोस पड़ोस लोगों का हेतु धर्मबद्ध काम्यकर्मों कर भी सकता है! इसी का हेतु हर एक जन्म मे सफलता हो भी हो सकता नहीं भी हो सकता है! अथात सफलता निश्चित रूप में नहीं होता है! इसी कारण साफल्यता के लिए क्रियायोगसाधना का माध्यम से अदभुत एकाग्रता अभिवृद्धि करा के अपना असाफल्यता को निर्मूलन करना चाहिए! क्रियायोगी अधर्मबद्ध काम्यकर्मों नहीं करेगा करभी नहीं सकेगा! जितना असफल मनुष्य होने से भी अपना इच्छाशक्ति का माध्यम से क्रियायोग साधना करेगा! अचिरकाल में अपना कर्मों को दग्ध करसकेगा! पुनः सफलाता मार्ग में प्रयाण करेगा!
परमात्मा को अन्वेषण करनेवाला साधक सब से विवेकवान है! परमात्मा को साध्य किया साधक सब से साफल्यवान है! बाहर से अन्दर जबरदस्त गुसानेवाला नहीं है विवेक!अंतःग्रहण शक्ति जितना पुष्कल पुष्टि और अधिक होगा उतना ज्ञान हम लभ्य करसकता है! और उतना शीघ्र भी पा सकता है! परिपूर्ण ज्ञान के लिए सारे प्रकार का अनुभूतियॉ पानेको अवसर नहीं है! इतरों को जीवन देख के सीख करसकते है! इस प्रपंच में परमात्मा का अनुसंधान शिवा कोई भी अन्य छीज हम को आकर्षणदायक और आनंदभरित नहीं होगा! इस को ग्रहण करने के लिए अनंत संघटनों का पारम्पर में पसने को अवसर नहीं है! इस जीवित इति ग्रंथ को परमात्मा ही रचयिता है! तर्क का माध्यम् से उस को जानना असंभव है! ज्यादा ज्यादा क्रियायोग ध्यान इसी का हेतु करना चाहिए! सहजावबोध(Intuition)इति अदभुत पानपात्र को विशाल रखना चाहिए! तब साधक अनंत ज्ञानसागर को अपना अन्दर रख सकते है! इस जगत एक स्वप्न है! इस ज्ञानार्जन साधन ही साधक करनेवाला महत्कार्य है! वह ही असली विवेकाभिवृद्धि है!

साधना में नकारात्मक प्रतिकूल परिस्थितियां सामने आता है! तब उस अपजय को एक स्वपन इति भावना करना चाहिए! निर्माणात्मक रूप में प्रतिकूल परिस्थितियों को साधक प्रतिघटन करना चाहिए! इस सृष्टि बाहर से अदभुत और सत्य जैसा दिखाईदेगा! परमात्मा का मन का भावनों घनीकरण होकर भौतिक रूप में बनगया इति समझना चाहिए! तीव्र क्रियायोग ध्यान का माध्यम से साधक ‘मै भौतिक रूप का धारण किया हुआ मनुष्य नहीं, असली में परमात्मा का स्वरुप’ इति ग्रहण करेगा! 
परमात्मा को अन्वेषण करनेवाला साधक सब से विवेकवान है! परमात्मा को साध्य किया साधक सब से साफल्यवान है! बाहर से अन्दर जबरदस्त गुसानेवाला नहीं है विवेक!अंतःग्रहण शक्ति जितना पुष्कल पुष्टि और अधिक होगा उतना ज्ञान हम लभ्य करसकता है! और उतना शीघ्र भी पा सकता है! परिपूर्ण ज्ञान के लिए सारे प्रकार का अनुभूतियॉ पानेको अवसर नहीं है! इतरों को जीवन देख के सीख करसकते है! इस प्रपंच में परमात्मा का अनुसंधान शिवा कोई भी अन्य छीज हम को आकर्षणदायक और आनंदभरित नहीं होगा! इस को ग्रहण करने के लिए अनंत संघटनों का पारम्पर में पसने को अवसर नहीं है! इस जीवित इति ग्रंथ को परमात्मा ही रचयिता है! तर्क का माध्यम् से उस को जानना असंभव है! ज्यादा ज्यादा क्रियायोग ध्यान इसी का हेतु करना चाहिए! सहजावबोध(Intuition)इति अदभुत पानपात्र को विशाल रखना चाहिए! तब साधक अनंत ज्ञानसागर को अपना अन्दर रख सकते है! इस जगत एक स्वप्न है! इस ज्ञानार्जन साधन ही साधक करनेवाला महत्कार्य है! वह ही असली विवेकाभिवृद्धि है!
साधना में नकारात्मक प्रतिकूल परिस्थितियां सामने आता है! तब उस अपजय को एक स्वपन इति भावना करना चाहिए! निर्माणात्मक रूप में प्रतिकूल परिस्थितियों को साधक प्रतिघटन करना चाहिए! इस सृष्टि बाहर से अदभुत और सत्य जैसा दिखाईदेगा! परमात्मा का मन का भावनों घनीकरण होकर भौतिक रूप में बनगया इति समझना चाहिए! तीव्र क्रियायोग ध्यान का माध्यम से साधक मै भौतिक रूप का धारण किया हुआ मनुष्य नहीं, असली में परमात्मा का स्वरुपइति ग्रहण करेगा! अपन शाश्वत जीवन चैतन्य प्रवाह इति स्वयं अनुभूति प्राप्ति करेगा! तब अपना निज व्यक्तित्व विकास होजाएगा! दुःख रोग वैफल्य इत्यादि दैवशासनधिक्कार का सहज फल है! वैसा अतिक्रमणों से बाहर निकल आना चाहिए! हम अपना अंतरात्मा का अनुगुण भावों व कर्मों का माध्यम से शांति और सौख्य लाभ्याहोना ही विवेक है! सकारात्मक अंशों को याद करके मन को विवेक द्वारा शाशन करना चाहिए! भू वनरों से लभ्य हुआ अल्प ज्ञान से तृप्ति करना नहीं चाहिए! परमात्मा से अपार ज्ञान को क्रियायोग साधना का माध्यम से प्राप्त करना चाहिए!
आरोग्य:
आरोग्य, अच्छा व बुरा व अच्छा-बुरा मिश्रित यह सब मात्र इस एक जन्म का फल नहीं, बल्कि गत जन्मों का फल + इस जन्म में हम किया व आगे करनेवाला हठयोग और क्रियायोग ध्यान अभ्यासों का आधार्हेतु है! एक को एक जोड़ने से ही दो बनता है! उस दो को दो जोड़ने से ही चार बनेगीं, है कि नहीँ? (1)कुछ लोगों को शीत व उष्ण काल अथात कोई भी काल में रोग बाधा नहीं होता है! गत जन्मों में किया हुआ हठयोग और क्रियायोगसाधना ही इस का हेतू है! आरोग्यहेतु पद्धतियाँ शाखाहार भोजन सेवन इत्यादि आदतें, हठयोग और क्रियायोगसाधना इस जन्म में भी करते(Continue)रहना इस का हेतू है! (2) कुछ लोग जन्मतः अरोग्यवान होते है! कभी कभी रोगग्रस्थ होते है! वे गत जन्मों में किया हुआ आरोग्यहेतु पद्धतियाँ शाखाहार भोजन सेवन इत्यादि आदतें, हठयोग और क्रियायोगसाधना इस का हेतू है! इस जन्म में जारी नहीं रखना ही इस का कारण है! (3) कुछ लोग जन्मतः मध्यस्थ आरोग्य से फैदायश होते है, बलहीन होते है, रोगग्रस्थ होजाते है! वे  गत जन्मों में आरोग्यहेतु पद्धतियाँ शाखाहार भोजन सेवन इत्यादि आदतें, हठयोग और क्रियायोगसाधना नहीं करना ही इस का हेतू है! इच्छाशक्ति से आरोग्यहेतु पद्धतियाँ शाखाहार भोजन सेवन इत्यादि आदतें हठयोग और क्रियायोगसाधना अभ्यासें करना अत्यंत आवश्यक है! (4) कुछ लोग जन्मतः अनारोग्य और आरोग्य सामान प्रतिपत्ति से फैदा होते है! वे कुछ दिन आरोग्य से रहेगा, कुछ दिन अनारोग्य से रहेगा! आरोग्यहेतु पद्धतियाँ शाखाहार भोजन सेवन इत्यादि आदतें हठयोग और क्रियायोगसाधना अभ्यासें करना अत्यंत आवश्यक है! (5) कुछ लोग जन्मतः अनारोग्य से फैदा होते है! मात्र केवल व्यामोह ही इन लोगों को ज्यादा समय जीवित रखेगा! आरोग्यहेतु पद्धतियाँ शाखाहार भोजन सेवन इत्यादि आदतें हठयोग और क्रियायोगसाधना अभ्यासें करना अत्यंत आवश्यक है!
क्रियायोगसाधना माध्यम से एकाग्रता को वृद्धि करना चाहिए! ऐसा वृद्धि हुआ एकाग्रता का वजह से मिला भगवत् भक्ति और शक्ति द्वारा अपना स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीरों को पवित्र करना चाहिए! अपना शांति आरोग्य और सफलतापूर्वक जीवन को अभिवृद्धि करके भवसागर पार कर के मुक्ति प्राप्त करना चाहिए!

परमात्मा:
परमात्मा नित्य है, नित्यचेतनामई और नित्यनूतन संतोषी है! भूत वर्त्तमान और भविष्यत कालों का अतीत है! परमात्मा को सारा वर्त्तमान काल ही है! जाग्रत और स्वप्नावस्था उन को वर्तितव्यं नहीं है! वह अपने आप को ज्ञात ज्ञेयं और ज्ञानं करा के विभाजन करदिया है! उस के लिए तारतम्य सिद्धांत(law of relativity) व माया को बनाया! सर्वसम्रुद्ध और सर्व वास्तुवो/पदार्थो/छीजों का कारणभूत और अविभक्त है! परंतु अपना ही माया का माध्यम से अपने आप को विभक्त बनाया, इस जगत को एक लीला व स्वप्ना जैसा व्यक्तीकरण किया है! मनुष्य को  अपना प्रतिबिंब दर्पण में दिखाई देता है! वैसा ही मनुष्य परमात्मा का प्रतिबिंब है! दर्पण में दिखाई देनेवाला प्रतिबिंब को स्वयं प्रतिपत्ति नहीं होती है! परंतु परमात्मा का प्रतिबिंब मनुष्य को स्वयं प्रतिपत्ति होती है! परमात्मा का दया से लभ्य हुआ इच्छाशक्ति ही इस स्वयं प्रतिपत्ति का हेतु है! ‘मैं एक हु, अनेक बनेगा’ यह परमात्मा का मात्र ऊहा है, वास्तव नहीं है! वह उन को अवसर भी नहीं है! अगर सृष्टि अवसर होने से परमात्मा पवित्र शुद्ध न्याय स्वरुप और सही नहीं हो सकता है! मनुष्य स्वप्न क्यों स्वप्नाता है? इस का सही समाधान नहीं मिलेगा! वैसा ही परमात्मा इस जगत नाम का स्वप्न क्यों स्वप्नाता है? इस का भी सही समाधान नहीं मिलेगा! मनुष्य का स्वप्ना शिर(Head) में आता है! बाकी तीन भाग यानी छाती कमर और टाँगें वह शिरस् को आधार्हेतु है! मनुष्य का अर्थ मात्र केवल शिरस् ही नहीं हैना! वैसा ही परमात्मा को चार भाग में ऊहा करने से उन में एक भाग परमात्मा का मायापूरिता जगत नाम का स्वप्न ही है!
यह माया अपरिमित है! वह अपरिमित परमात्मा को परिमित् हुआ जैसा दिखाईदेगा, इस के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहेगा! इस माया का भ्रम में गिरा हुआ मनुष्य अपना अपना भ्रम का तीव्रता का वजह से अपना स्वगृह परमात्मा से दूर बढता जायेगा और बाधावों में गिरेगा! परमात्मा से दिया हुआ इच्छाशक्ति को उपयोग कर के क्रियायोगसाधना करनेवाला साधक अपना तीव्रता का हेतु परमात्मा का नर्दिक में आता रहेगा!
बीमारी, व्याधि इत्यादि भी परमात्मा का माया का प्रभाव ही है! यह भी भ्रम इति क्रियायोग साधक स्पष्टरूप में ग्रहण करेगा! दारेषण पुत्रेषण धनेषण को ईषणात्रयवर्जितः परिपूर्णरूप में होना चाहिए! अनित्य अशाश्वत मानवप्रेमा और व्यामोहों के लिए क्रियायोग साधक को तापत्रय नहीं होना चाहिए! शाश्वत परमात्मा प्रेमा ही नित्य है! दिव्य परमात्मा प्रेमा को मानवचेतना को जोड़ने से ही उस मानवप्रेमा शुद्ध होता है!
इच्छाशक्ति: 
इच्छाशक्ति जो है वह परमात्मा का देन है! इस प्रत्येक वर परमात्मा ने केवल मनुष्यों को ही लभ्य किया है! पशुवों को इच्छाशक्ति नहीं है! इच्छा नहीं होने से मनुष्य कोई भी कार्य अच्छा हो बुरा हो नहीं करेगा व करी नहीं पायेगा! इसी कारण मनुष्य अपना कष्ट नष्टों को स्वयं ही कारण है! अच्छा   बुरा सब शुद्धात्मा का आवरण व आक्रमण किया हुआ तात्कालिक  प्रतिबंधकों
है! वे शाश्वत नहीं है! क्रियायोग साधना का माध्यम से इन प्रतिबंधकों को निवारण करके साधक शुद्धात्म स्वरुप बन सकता है! कृषितो नास्ति दुर्भिक्षं, कृषि करने से मनुष्य ऋषि बनसकता है! रोने से व व्याकुलता से गम्यस्थान समीप में नहीं गिरेगा! थोड़ा थोड़ा समय समय में विश्रांत लेता हुआ चलने से कुछ देर ज्यादा लगाने से भी अवश्य पहुँच जाएगा! हर एक को संतुष्ट रखना न मुम्किल है! क्रियायोग साधना का माध्यम से परमात्मा को संतुष्ट रखना ही सब से अधिक युक्त है! क्रियायोग साधक को परमात्मा जो रहस्य बोलता है वह ही आत्मावाबोधन है! उस रहस्य को सुनने से हम लोग बुरा का वश नहीं होगा, परमात्मा का साथ अनुसंधान अवश्य होजाएगा! परमात्मा को केवल निश्शब्द में ही लभ्य कर सकता है! जब अवसर मिलता है तबक्रियायोग साधक उत्साह से कार्य करने के लिए आगे बढ़ना चाहिए! कार्य सामाप्त पर्यंतर् तुरन्तु अपना क्रियायोग साधना जारी रखना चाहिए!
ज्ञापकशक्ति—स्मृति:
हर एक क्रियायोग साधक अपना साधना का माध्यम से अपना स्मृति में बढ़ावा लासकता है! शिरस् का चेतना मन बाहर दुनिया से मिलनेवाला भावनों और ग्रहणों का माध्यम से संबंध बनाता है! नेत्र नाक कान जीब और त्वचा ज्ञानेंद्रियों है! उन ज्ञानेंद्रियों से आनेवाला सेंसरी(Sensor nerves) नाड़ियों का माध्यम से सिग्नल्स(Signals) पाके उन का मुताबिक् युक्त संदेशों/आज्ञाओं को मोटार नाड़ियों(Motor nerves)का माध्यम से भेजता है! अवचेतना मनस् (Sub-conscious mind) इन अनुभवों को प्रामुख्यता का अनुसार क्रमबद्धीकरण करके अपना पास रखती है! जो मनस् निद्रा स्थिति में होता है उस को सूक्ष्मचेतना मनस् (Semi-consciousness)कहते है! जो मनस् गेहरी निद्रा स्थिति में होता है उस को अधिचेतना मनस्(Super-consciousness)कहते है! सूक्ष्म और अधिचेतना मनस् दोनों को आत्मबोधना (Intuition)शक्ति होता है!
जाग्रतावस्थ में इन तीनों मन यानी स्थूल सूक्ष्म और कारण मन मिल के काम करता है! निद्रावस्थ में  सूक्ष्म और कारण चेतना मन मिल के काम करता है! जाग्रता चेतना निद्रावस्थ में होता है! गहरा निद्रावस्था व समाधि में अवस्था में मात्र केवल कारणचेताना ही काम करता है! जाग्रता और सूक्ष्म चेतना दोनों निद्रावस्थ में होता है! जाग्रतावस्थ का अनुभवों अवचेतनावस्थ में प्रवेश करेगा और उधर रखा जाएगा! इस अवचेतनावस्था को स्मृतिमनस(Memory mind) कहते है! जाग्रतामनस (Conscious mind)में ही स्मृतिमनस छिपा हुआ होता है! निद्रा में अवचेतनावस्था ही इस शरीर नाम का अग्नि-कुंड/भट्टी का आग नहीं भुजने देगा! शरीर का कार्यक्रम सक्रम रूप में होने देगा! अवचेतनावस्था व स्मृतिमनस सदा जागरूकता में होगा! हृदय फेफड़ों गुर्दा इत्यादि अपने आप काम करनेवाला अंगों/अवयवों है! इन सब निद्रावस्था में भी काम करने के लिए दोहद करता है! और चेतानापूर्वक अनुभवों को ज्ञापक रखने के लिए सहायता करेगा! अधिचेतनावस्था को अपना आत्मबोधा का माध्यम से अवचेतनावस्था और जाग्रतावस्थों में होनेवाला समाचार सब जानेगा और जानते रहेगा! क्रियायोग साधक अधिचेतना मन को अपना भूत और वर्त्तमान जीवनों का अनुभवों को याद करने  और याद रखने के लिए अभ्यास करा सकता है! और करना भी चाहिए! नहीं सर्व जाननेवाली आत्मबोध (Intuition) को खो बैठेगा! वैसा ही अवचेतनावस्था (Subconscious mind)को भी प्रस्तुत जीवन काल का अनुभवों को याद करने  और याद रखने के लिए अभ्यास करा सकता है! और करना भी चाहिए! और सृजनात्मकशक्ति को बलोपेट करने के लिए अभ्यास करवा सकता है! और करवाना भी चाहिए! नहीं तो ज्ञापकशक्ति को खो बैठेगा! निर्वीर्य बनेगा, सृजनात्मकशक्ति नहीं रहेगा! जाग्रतावस्था में चेतनामन(Conscious mind)का सृजनात्मकशक्ति में बढ़ावा के लिए कसरत करवाना चाहिए! एक राजकुमार ने पूरा मदिरा पीया! उस नशा में खुद क्या है भूल गया! मै बहुती गरीब हू, खाने के लिए भी नहीं करके रोना शुरू करदिया, जब नशा उतरने का पश्चात अपना औकात याद आगया! असलियत जान के संतुष्ट हुआ! केवल अपना अव चेतनामन ही इस का कारण है!
अधिचेतना मन साक्षात परमात्मा ही है! उस मन को दर्द नहीं होगा! धर्मबद्धा विषयों को ही सदा याद करना चाहिए! बुरा नहीं देखना, बुरा नहीं सुनना, और बुरा नहीं बोलना चाहिए! जाग्रतावस्था व्यामोह का हेतु चंचलता में रहती है! भूक लगाने से अच्छा भोजन खाने के लिए दिल होता है, वह अच्छा भोजन लभ्य नहीं होने पर मन असंतुष्ट रहता है! जाग्रतावस्था कान नेत्र नाक जीब त्वचा इति पंच ज्ञानेंद्रियों का माध्यम से काम करता है! अवचेतनावस्था जब जागृती में रहता है तब स्मृति का माध्यम् से काम करेगा, रात में जब निद्रा में होती है तब स्वप्नों का माध्यम् से काम करेगा! जब जाग्रतामन जागता है तब स्मृतिभांडार में रखा हुआ सब सन्निवेश और अनुभवों का माध्यम से सहायता और सलाहा देता रहता है! अधिचेतनावस्था में आत्मबोध जो है वह बंधनारहित होकर अवचेतना और चेतना मन दोनों को सहायता करेगा!
सिनेमा: 
जीवन एक सिनेमा जैसा है! प्रोजेक्टर(Projector)से जो कांति किरणों आरहे है वे ही नायक नायकी खलनायक घोड़े इत्यादि तस्वीरें! हम जब सिनेमा में खलनायक का दुर्मार्ग कार्यो को देखने के समय अथवा हृदय विदारक सन्निवेशों को देखने के समाया में हम को आवेदन होता है! तब प्रोजेक्टर का दिशा में देखने से उसी से कांति किरणों आनेवाला इन तस्वीरें नहीं दिखाई देगा! तब हमारा हृदय में कोई भी स्पंदनों नहीं आयेगा! साधारण स्थिति में रहेंगे! वैसा ही हम को आवेदन नहीं होने के लिए हम परमात्मा नाम का प्रोजेक्टर का दिशा में सदा देखना चाहिए! हम् को इस भूमि का उप्पर परमात्मा ने दिया हुआ नाटकीय पात्रों को श्रद्धा भक्ति और गौरव से करना चाहिए! तब हमारा जीवन सफल होगा, कोई कष्ट नहीं होगा!
स्वप्नों—दर्शनों
चेतना मन अपना ज्ञानेंद्रियों का माध्यम से अपना कार्यक्रमों निर्वर्तन करता है! निद्रावस्था में चेतना मन निद्राणस्थिति/अक्रियात्मक स्थिति में होता है! निद्रावस्था में और जाग्रतावस्था में दोनों अवस्थाओं में अवचेतना मन काम करता है! जाग्रतावस्था/चेतना मन और अवचेतना मन दोनों मानवसहज अशुद्धि अहंकार चेतना धारित होता है! अधिचेतना मन शुद्ध आत्मबोधना चेतना धारित होता है! इस अधिचेतना मन रागरहित होकर प्रथम में अवचेतना मन बाद में चेतनामन का माध्यम से काम करता रहता है! चेतानामन ही स्वप्नों का हेतु है! मनुष्य का चेतनामन, अवचेतना मन व अधिचेतना मन कुछ भी हो एक स्वपन सृष्टि कर के निद्रावस्था में अवचेतना पर्दा(Screen) का उप्पर दिखा सकता है! पाक्षिकरूप में हृदय से और सेंसरी(Sensory Nerves)नाड़ियों द्वारा उपसंहरण किया हुआ प्राणशक्ति शिरस में संग्रह किया होता है! गत जीवन का संघटनों शिरस का नालियों में निक्षिप्त किया होता है! वे संघटनों सब निद्रावस्था में कामेरामन(Cameraman),दर्शक(Director), सिनेमा आपरेटर(Cinema
Operator),प्रोजेक्टर आपरेटर(Projector Operator), इत्यादि अनेक पत्रों पोषण करनेवाला अवचेतनामन नाम का पर्दा(Screen) द्वारा निकलाता है! चेतना और अधिचेतना विचारें नामका सिनेमा कामेरामन अवचेतना मन में निक्षिप्त करता होता है! भविष्य में आनेवाले संघटनों, व्यक्तिजीवित में व इस जगत में  अन्य प्रदेशों में होनेवाले संघटनों को भी अवचेतनामन नाम का प्रोजेक्टर आपरेटर का माध्यम से कभी कभी जानकारी संकेतों देता है! मानव अहंकार का गलतियाँ और मानव मेधा का परिमती भी पथभ्रष्टक संकेतियाँ देगा! तीसरा नेत्र से लभ्य होनेवाली स्वप्नों ही सत्य है! बाकी सब सत्य नहीं है!
साधक को एक ही आलोचना होना चाहिए, वह है परमात्मा! केवल परमात्मा का उप्पर एकाग्रता रख के उन्नत स्थिति लभ्य किया हुआ साधक अपना भौतिक शरीर को निद्रामे जैसा तनाव रहित(Relax) करसकता है! सचेतानापूर्वक स्वप्न व दर्शनों को सृष्टि कर सकता है!
सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञात अधिचेतना मन जाग्रतावस्था में दर्शनों को सृष्टि कर सकता है! शिरस का शक्ति(मेधा) को उपयोग करके भविष्य संघटनों का निजस्वरूप तीव्र क्रियायोग साधना करनेवाला साधक को दिखाने/ग्रहण करने का शक्ति/सत्ता केवल अधिचेतनावस्था को ही है!
निद्रावस्था में अवचेतना पर्दा(Screen)पर निरंतर स्वप्नों आनेसे हम को गहरी नींद नहीं आयेगा! शीघ्र ही थक जाएगा! तीव्र क्रियायोगढ़याँ करने से इस अवस्था टूट जाएगा! इसी हेतु नियमानुसार प्रातः और संध्या दोनों समय में क्रम पद्धति में क्रमशः क्रियायोगध्यान करने से इस निद्रा में गहरी नींद नहीं आने का अवस्था दूर होजाएगा! हम क्रियायोगसाधना प्रातः और संध्या दोनों समय में नियम प्रकार से अवश्य करना चाहिए! इच्छानुसार जो दिशा निर्देश आवश्यक है वह हम अधिचेतना मन व कूटस्थ चैतन्य का माध्यम से स्वप्नों व सूचनों का रूप में पायेगा, पानाभी चाहिए! मानव अहंकार चेतना दिशा निर्देशन का अधिगमन करना यह गलत दिशा निर्देशन देगा! साधक उत्तीर्ण स्थिति लभ्य करना चाहिए!
अग्नी की ज्वाला, समुद्र, नदियाँ, नाव, देवताओं (Angels), शास्त्रों, ऋषियों, मुनियों, मंदिरों, गर्भगुडि(Sanctum sanctorum), पुष्प, निर्मलाकाश, सूर्यकान्ति, संध्या व उषः(Auroras) कान्ति, चाँद, आकाश में स्वयं व्याप्ति होने जैसा दिखाई देना इत्यादि स्वप्नों अच्छे है! अपना गत जन्मों और वर्तमान जन्म का कर्मो दग्ध हो रहा इति इस का अर्थ है!  साधना में पुरोगति हो रहा इति इस का अर्थ है!
परमात्मा का साथ अनुसंधान व साधना में पुरोगति हो रहा है व अनुकूल पति/पत्नी मिलने का इति गर्भगुडि(Sanctum sanctorum) स्वप्न में दिखाई देने का संकेत है! परमात्मा का साथ अनुसंधान व साधना में पुरोगति हो रहा है व विस्तार आध्यात्मिक ग्रहणशक्ति, इति स्वप्न में निर्मलाकाश दिखाई देने का संकेत है! शुद्ध ज्ञान और शुद्ध विचारें इ इति स्वप्न में पुष्प दिखाई देने का संकेत है! केवल अपना इच्छाशक्ति का अनुसार शुभ विचारों ठीक समय में क्रियायोगसाधना साधक को आता है! सूर्यकान्ति सूक्ष्मलोक दर्शनों का प्रतीक है! तीव्र क्रियायोग साधना का समय में विस्तार कांति दिखाई देना ही इस को निदर्शन है! संध्या व उषः(Auroras) कान्ति, सूक्ष्म कान्ति(Cosmic light) का प्रतीक है! छोटा व बड़ा ग्रहों चमक चमक नील कांति प्रदर्शन करना और साधक ब्रह्मांड चेतना(Cosmic Consciousness)में डूबजाना अत्यंत सहज है! चाँद दिखाई देना क्रियायोग साधक अपना भक्ति श्राद्धों को साधना में दिखाई देनेवाला सूक्ष्म दर्शनों का साथ अनुसंधान कर के और प्रयत्न कर के आगे बढ़ना चाहिए का प्रतीक है! अग्नि ज्वाला दिखाई देना साधक का संचितकर्मों दग्ध होने का प्रतीक है! रोशनी/कांति और समुद्र दिखाई देना साधक का आध्यात्मिक बढ़ावा और आत्मसाक्षात्कार संकेतो का प्रतीक है! जल दिखाई देना दिव्य आध्यात्मिक ग्रहणशक्ति को साधक अपना क्रियायोगासाधाना में लभ्य करेगा इति अर्थ है! नाव दिखाई देना आत्मसाक्षात्कार वांछित साधक सत्वरम् सद्गुरु का शरणागति पाना चाहिए इति अर्थ है! परमात्मा और साधक का अनुसंधान कर्ता सद्गुरु है! देवताओं (Angels),ऋषि मुनि दिखाई देना गतजन्मो में किया हुआ अच्छी क्रियायोग साधना का हेतु है!
इन स्वप्नों और दिव्यदार्शानों साधक का क्रियायोग साधना का आध्यात्मिक प्रगति का प्रतीक है!  

प्राणशक्ति:
कणविभाजन(Cell division) और कणवृद्धि(Cell Multiplication) का माध्यम से जीवराशी का सृष्टि होता है! उस के लिए जीवद्रव्यम् (Protoplasm) अभिकर्ता(agent) व माध्यमं है! इस जीवद्रव्यम् मिट्टी समझो! उस का अंतर्गत में छिपा हुआ प्राणशक्ति(Life force)ही कुम्हार है!
विविध प्रकार का मिट्टी का पात्रा बनाने के लिए विविध प्रकार का रंगों का अवसर होता है! वैसा ही विविध प्रकार का प्राणियों का सृष्टि के लिए जीवद्रव्यम् भी विविध प्रकार का होना चाहिए! प्राणशक्ति अद्भुत सूक्ष्म ज्ञानशक्ति है! वह अद्भुत प्राणशक्ति ही पिपीलीकादी पर्यंतं मनुष्य तक सकलजीवजालोम् को आलवाल है! मनुष्य का वीर्यकण्(Human spermatozoa) और पशु का वीर्यकण् लीजीये! उन दोनों को एक मैक्रोस्कोप(Microscope)का माध्यम से परीक्षण करने से एक छोटा सा मेंडक(Tadpoles) जैसा इन वीर्यकणों जीवद्रव्यम् का उप्पर तैरता है! एक ही जैसा दिखाई देनेवाला मनुष्य और पशु का वीर्यकणों (Spermatozoa)से विविध प्रकारों का प्राणियों का सृष्टि करने का सामर्थ्य केवल प्राणशक्ति को ही साध्य है! प्राणवायु को केवल शक्ति ही होता है! परन्तु प्राणशक्ति को शक्ति और ज्ञान दोनों होता है!
मनुष्य और पशु दोनों कामेच्छा का हेतु सम्भोग करेगा और अपना अपना वीर्यकणों का बदली/स्थान परिवर्तन द्वारा प्राणशक्ति अपने आपको व्यक्त करती है! ऐसा सृष्टि किया हुआ संतान अपना अपना वांछों और स्वभावानुसार चलता है! परमात्मा का छाया में बना हुआ मनुष्य अपना कामसहित संभोगवांछित(Sex impulse)प्रेरेपरण से विमुक्त होने से ही इस जनन-मरण वृत्त से मुक्त होगा! तब ही परमात्मा में ऐक्य होगा! जितना पवित्र होने से भी जब तक कामसहित संभोगवांछ   मनुष्य को इस पृथ्वी का तरफ खींचते रहेगा! इसी कारण इस से पूर्णरूप में मुक्त होना अत्यंत आवश्यक है!
कामं को जागनेवाला सृजनात्मक शक्ति को अपना जैसा ही दूसरा प्राणी को जन्म देने का एक आलोचना स्वभाव व सरलीकृत होता है! उस परिस्थी को सहायता करने के लिए ज्ञान सहित प्राणशक्ति काम नाड़ियों को उत्प्रेरक करेगा! स्त्री अंडों (Ovum)को और पुरुष वीर्यकणों(Spermatozoa)को छोडता है! कामं व संभोगवांछ(Sex impulse) को वैराग्य द्वारा त्यागना  और ज्ञान से नियंत्रण करना चाहिए दबाके रखने से कोई भी लाभ नहीं होगा क्योंकि वह द्विगुणीक्रुत वेग् से विजृंभणा करेगा! वैराग्य और ज्ञान से नियंत्रण किया हुआ कामं प्रथम में आध्यात्मिकता का दिशा में तत पश्चात मोक्ष का मार्ग में चलेगा! कामं को आध्यात्मिकता का दिशा में बदिली करने के लिए श्वास को मंद गति से तीव्र और दीर्घ पद्धति से अन्दर व पूरक करके कूटस्थ में रखना व अंतःकुंभक करना चाहिए! वैसा ही श्वास को मंद गति से तीव्र और दीर्घ पद्धति से बाहर व रेचक करके कूटस्थ से नाक द्वारा छोडके बाहर रखना व बाह्यकुंभक करना चाहिए! तब इस कामचेतना प्राणवायु जैसा रूपांतर होजाता है! इस को सहायता के लिए क्रियायोगध्यान करना चाहिए! इन पद्धतियों का वजह से हृदय और फेफड़ों में अद्भुतशक्ति केंद्रीकृत होता है! शरीर का इतर प्रांतों का शक्तियाँ सब वे भी महत्वपूर्वक कामप्रांतों का शक्तियाँ सब हृदय और फेफड़ों में केंद्रीकृत होता है! तब मन तीव्र परमात्म ध्यान में डूब जाएगा! महत्वपूर्ण आध्यात्मिकतायुक्त विचारें से साधक को दुबादेगा! भेजा आध्यात्मिक अयस्कांत जैसा रूपांतर होजायेगा! छोटा भेजा (Cerebral Spiritual reservoir) एक आध्यात्मिक तटाक जैसा रूपांतर होजायेगा! हृदय फेफड़ों और शरीर का अन्य भागों का शक्तियाँ सब आकर्षित होता है!
कामोत्तेजक जीवन का दिशा में मनुष्य जितना जाएगा इतना ही अधिक मेधा और प्राणशक्ति नीचे चक्रों(मणिपुर स्वाधिष्ठान और मूलाधार) का तरफ कूदेगा! परिस्थितियों का बानीसत्व से निस्सहाय होकर  मनुष्य साररहित जीवन बिताएगा! ‘यह मेरा कर्म, मै क्या करू इति अपने आप को निंदा करते हुए निर्लिप्त जीवन बिताने अधोगति स्थिति में पडेगा! इसका विरुद्ध है आध्यात्मिक ऊर्ध्वगति स्थिति! आध्यात्मिक जीवनगति का जितना आदत पडेगा इतना ही अधिक मेधा और प्राणशक्ति ऊर्ध्वचक्रों(अनाहता विशुद्ध आज्ञा और सहस्रार) का तरफ कूदेगा! निस्सहाय स्थिति में रहा मानवचेतना और मानवशक्ति परमात्मचेतना और परमात्मशक्ति में रूपांतर होजायेगा! धैर्य से परिस्थितियों को अपना तरफ घुमाके कर्म दग्ध करके दिव्यजीवन बिताते हुए जीवन को आनंदमय करेगा! ऐसा लोगों को अनुकूल अर्धांगिनी मिलेगा! संतान भी सुंदरमई होगा! आध्यात्मिकपूर्वक शांति आनंद आरोग्य दया इत्यादि अद्भुत सुलक्षणों साथ चमकेगा!
भौतिक कामोत्तेजक में सृजनात्मकशक्ति वृथा/व्यर्थ होता है! यह बलहीनता रोग और शीग्रगति से वृद्धावस्था को मार्ग बनाएगा! सुसंतान के वास्ते भौतिक काम का सृजनात्मकशक्ति वृथा/व्यर्थ नहीं होने देना चाहिए! क्रियायोग साधना का माध्यम से ऊर्ध्वचक्रों(अनाहता विशुद्ध आज्ञा और सहस्रार) द्वारा इस सृजनात्मकशक्ति को उप्पर चक्रों का दिशा में भेज के भेजा में दिशानिर्देशन् देना चाहिए! अर्थात अद्भुत मेधा आध्यात्मिकता और धार्मिकतायुक्त संतान मिलेगा! कूटस्थ में मनस और दृष्टि निमग्न कर के अंतःकुंभक और बाह्यकुंभक कर के इन भौतिक काम वांछों को नियंत्रण कर सकता है!

भार्या भर्त:
भार्या और भर्ता दोनों सब का सामने परस्पर दूषण नहीं करना चाहिए! अभिप्रायों को दोनों परस्पर गौरव करना चाहिए! प्रेम सब से बलवान है! दिव्यप्रेम डे सहिष्णुता करुणा दृढनिश्चयता निश्शब्दता परमात्मा का अनुसंधान करने के लिए क्रियायोग साधना इत्यादि सूर्य का रोशनी जैसा है! शारीरक कामवांछ सूर्य रोशनी का सामने छोटा सा दिय्या रोशनी जैसा है! वैसा सुलाक्षणायुत साधक भौतिक और आध्यात्मिक जीवन दोनों में विप्लवात्मक विजय लभ्य करेगा! प्रेम अधिक होने से शारीरक कामवांछ कम होगा! शारीरक कामवांछ अधिक होने से प्रेम कम होगा! भार्या और भर्ता दोनों में कामवांछ(Physical instinct) से परस्पर प्रेम अधिक होना चाहिए! पवित्र विचारों से शारीरक मिलाप हुआ भार्या भर्ता उन का आलोचना सरळी का मुताबिक़ पवित्रात्मा (Highly elevated Souls)भार्या का गर्भ में प्रवेश करेगा! इस पवित्रात्मा का प्रवेशन के लिए कुछ मासों पहले ही भार्या भर्ता दोनों तयारी(Preparedness) में रहना चाहिए! शुद्ध आलोचनायें और नियम क्रम से क्रियायोग साधनाओं के साथ अपना अपना शरीरों को पवित्र देवालय जैसा रूपांतर करना चाहिए! केवल सृष्टि का निरंतरता के लिए बना है यह भौतिक कामं! मात्र इंद्रिय सुख के लिए नहीं है यह भौतिक कामं! हमारा पूर्वज ऋषियों परमात्मा से संक्रामक ज्ञान का माध्यम से इच्छाशक्ति द्वारा संतानसृष्टि करके प्रकृति नियम को जारी रखदिया! मनुष्य वास्तव में अपना इच्छाशक्ति द्वारा अपनाप्रकृति नियम को जारी रखना चाहिए! परंतु ऐसा भौतिक कामवांछ(Physical lust)को वश होने का हेतु प्रस्तुत भौतिक सृष्टि (Physical Creation) बन गया!
उत्तीर्णता:
हमारा शिशु अवस्था का जीवन अब का जीवन दोनों को तुलना करना, आत्मपरिशीलन करना, तब प्रस्तुत वृत्ति को चुनना चाहिए! तब ही भावि जीवन सुखमय होगा! चाबी(Key)देके छोड दिया हुआ, बिना दिशा निर्देशनारहित (Directionless)असंतृप्तिसहित आत्मसंतृप्तिरहित खिलोना जीवन को मनुष्य नहीं बिताना चाहिए! संगीत को पसंद करानेवाला मनुष्य एक मामूली क्लर्क का काम करना कितना चिंताजनक है? इस जीवन नाम का नाटकरंग में सब ही पात्रधार है, केवल परमात्मा ही सूत्रधारी है! केवल पुराणा कर्मा का अनुसार जीवन चलाना निस्सार है! वह ही इच्छाशक्ति का अनुसार क्रियायोग साधना का माध्यम से कर्मों को दग्ध कर के उन्नत आशयों का तरफ जीवन का गति बदलना, सब बंधों से विमुक्ति पाकर अपना स्वगृह यानी परमात्मा का साथ अनुसंधान होना कितना अद्भुत है! सारे कष्ट नष्टों हमारा किया हुआ कर्मो का फल ही है! सर्वं जगन्नाथ, सर्वं खलु इदं ब्रह्मा! जब सब परमात्मा ही है तब हमारा क्या लगता है? हमारा क्या नष्ट है? मनुष्य अपना सृजनात्मकशक्ति को उपयोग करके ठीक निर्णय लेना चाहिए! धर्मबद्धसहित सब रंगों में उत्तीर्णत पाना चाहिए! असंतृप्ति क्रोध परेशान इत्यादि का हेतु असफलता ही है! असफलता को परवा नहीं करना चाहिए! वह हमको बाधा नहीं करने देने के लिए प्रयत्न से समस्थिति में रहने के लिए होशियारी होना चाहिए! क्रियायोग ध्यान का माध्यम से परमात्मा का समीप में जाना चाहिए! तब दिव्य का कृपा हमारा कृषि को सहायता करेगा!
मित्रत्व:
मित्रत्वा परमात्मा का दूसरा कोण है! हमारा प्रिय लोग का माध्यम से अपना स्वगृह व परमात्मा से मिलकर नित्यत्व नामका अमृत्व पीने के वास्ते बुलाव व आह्वान है! दो व्यक्तियों का बीच मित्रत्व स्वार्थपूरित नहीं होना चाहिए! दिव्यप्रेम से भरपूर होना चाहिए! व्यक्ति अपना मित्रप्रेमको क्रमशः कुटुंब पडौस अपन्जा जाती सर्व जातियों आखरी में जगत में व्याप्ति करना चाहिए! मनुष्य अपना स्नेहहस्त को अपना दुष्मनों को भी देना सीखना चाहिए! हम सब परमात्मा का अंश ही है! तब यह वैषम्यों और व्यत्यासों काय के लिए? मित्रत्व सर्व्यव्यापक (Universal Spiritual attraction) छीज है! आध्यात्मिक आकर्षण है! इस आकर्षण ही दो आत्माओं को दिव्यप्रेम इति बंधन से जोड देता है! परमात्मा एक है! ‘एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति’! अपना ही माया का माध्यम से सकारात्मकं(Positive)और नकारात्मकं इति द्वंद्वों में बदल गया! अनंत इति सिद्धांत(Law of Infinity)तारतम्य सिद्धांत(Law of relativity) का जोड़ के उस एक अनेक हुआ! हमारा अन्दर हुआ उस एक ही हमारा भावनों मेधा आत्मबोध इति उपकरणों का माध्यम से मित्रत्वा इति भावनों द्वारा सब को एक करने के लिए प्रयत्न करा रहा है! अपना सोदर व्यक्तियों को स्नेहहस्त नहीं देनेवाला मनुष्य दिव्यप्रेमिक का साथ अनुबंध में बढ़ावा कैसा लाएगा? दिव्यप्रेम में कपटत्व और कुचलत्व नहीं होगा, होना भी नहीं चाहिए! तुम मित्र को कैसा वंचन करसकते हो? पडौसियों कैसा भी हो तुम दया और प्रेम से तुम्हारा ह्रदय भर के रखो!
पात्रायें(Personalities):
हम एक छीज याद रखना है! हर एक मनुष्य का लक्षण वह जिस देश प्रदेश में रहता है उस का उप्पर आधारित होता है! धर्मबद्ध अनुकूल लक्षणों को हम अपना इच्छाशक्ती का अनुसरण करके आदत करना युक्त है! दुष्ट मनुष्य दुष्ट लक्षणों को शिष्ट मनुष्य शिष्ट लक्षणों को प्रदर्शन करना गमनार्ह है! अध्ययन(Study),चर्च(Discussion),साहचर्य(Association),स्नेह(Friendship), और गौरवान्वित ध्यान(Respectful attention)इत्यादियों का माध्यम से अच्छे लोगों का साथ स्नेह का वृद्धि करके उनका अच्छे लक्षणों ग्रहण करना चाहिए! आत्मा परमात्मा का ही भाग है! इसी हेतु परमात्मा का लक्षणों ही आत्मा में होता है! मानव शरीरों अभिवृद्धि पथ(Evolution Pattern)में व्यक्तीकरण किया हुआ है! इसी कारण मानव मेधा किसी न किसी का पशु का अनुसरण/अनुकरण का मुताबिक़ होता है! मनुष्य का शरीर शास्त्र (Anatomy)किसी किसी न किसी का पशु का लक्षण को अनुसरण/अनुकरण करता है! धैर्य, भूख होने से ही दूसरा पशु को वह भी सामने से शिकार करके मार के खाना, वीर मनुष्य का सिंह(lion)का लक्षण है! भूख होने से भी नहीं होने से भी दूसरा पशु को शिकार करके मारना,  मनुष्य का भाग(tiger)का लक्षण है! कुछ लोग अवसर होने से भी नहीं होने से भी सहचर लोगों को हिंसा करते है! दिखाई देने से काफी है, काटना मनुष्य का सांप का लक्षण है! कुछ लोग साथीयों का दोष् लेशमात्र नहीं होने से भी उनको नष्ट पहुँच जाते है, शारीरक हानी कर देते है! बिल्ली 4 5 चूहों को खा के भी शांत रहता हुआ दीखता है, वैसा ही कुछ लोग बिल्ली जैसा बाहर से शांतरूप दिखा के नष्ट करदेते है! कुछ लोग बहत लोगों को ठग के अपना जीवन बिताता है! परंतु बाहर में अनाड़ीपन दिखाई देता है! बिल्ली बाहर से शुभ्र दिखाई देता है! वैसा ही कुछ लोग अन्दर मानसिक अपरिशुभ्रता से भरपूर होते है! कुछ लोग वानरों जैसा दूसरों को अनुसरण/अनुकरण करने में अपना चतुरता दिखाता है! बंदर बहुत चंचल पशु है! वैसा ही कुछ लोग बंदर जैसा एक मिनट भी चुप नहीं बैठ सकते है! शांती से नहीं बैठ सकते है! कुछ लोग कबूतर व गाय का बछड़ा जैसा अधिक भीरुता प्रदर्शन करते है! कुछ लोग गधा जैसा जो गलती किया उसी को बार बार करते है! अधिक संभोग से ह्रदय भेजा वीर्य शारीर और मनस् इन सब को हानी, नष्ट और दुर्बल होगा करके जानते हुए भी गधा जैसा उसी गलती को बार बार करते है! परमात्मा क्षीणरहित ज्ञानभंडार है! क्रियायोग साधना का माध्यम से परमात्मा का अनुसंधान करना चाहिए, उस ज्ञानभंडार का अमृत पीना चाहिए!
विवाह:
हम कुछ लोगों को देखने से कही इन लोगों को कही और कभी देखा है कर के ख्याल आता है! भूत व गत जन्मों में उन लोगों का हमारा साथ जोड़ा हुआ अनुबंध ही इस का हेतु है! इच्छाशक्ति का उपयोग करके हम अब क्रियायोग साधना करनेवाला और दया दाक्षिण्यादि धर्मबद्ध विषयों का   अनुकूल व्यक्तियों का साथ स्नेह अभिवृद्धि कने को निरंतर प्रयत्न करना चाहिए! जिन लोगों का प्रवर्तन इस का विरुद्ध होने से ऐसा लोगों से स्नेह नहीं करना चाहिए और उन से दूर रहना चाहिए! भौतिकसौंदर्य से अधिक मूल्य मानसिकसौंदर्यता को देना चाहिए! नहीं तो उस दांपत्य मनःस्पर्थों का दिशा में जाएगा और नाराकप्राय होजायेगा! एक सौंदर्यवति व धनवान स्त्री अति साधारण निराडंबर व्यक्ति को भर्ता का रूप में स्वीकार करने को गत जन्मों का उन लोगों का बीच में जोड़ा हुआ अनुबंध ही कारण है! कुछ लोगों को गत जन्मों में धनव्यामोह अधिकरूप में होता है! इसी कारण दौलत लेके अइष्ट कन्या को विवाह करने को सिद्ध होते है!

नम्रत:
परमात्मा का आलवाल प्रदेश नम्रता है! अहंकार ज्ञान को परिमिति करनेवाला दीवार जैसा है! भूमी में जैसा बीज डालने से वैसा ही फल मिलता है! हम अपने आप को निष्पक्षता निर्मोह और निर्द्वंद्वता से स्वयं परिशीलन और आत्म विमर्शन  करना चाहिए! इतरों को निस्वार्थसेवा करना चाहिए! इच्छाशक्ति को उपयोग करके अज्ञानता को नाश करना चाहिए! न्यूनता और मै गरिष्ट हूँ जैसा भाव को समूलनाश करना चाहिए! मै आत्मस्वरूप हु इति भाव को अधिकाधिक वृद्धि करना चाहिए!

तीसरा नेत्र:
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! कूटस्थ मे दृष्टि रखिये! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए! शरीर को थोडा ढीला(Relax) रखीए! अपनी तर्जनी अंगुली को दोनों आँखों के मध्य मे रखिए! अब आहिस्ता-आहिस्ता इस अंगुली को उपर की और उठाते हुवे देखते रहिए जहाँ अंगुली का नख अदृश्य हो वही अपनी दृष्टी बैठाईए! अंगुली को आँखों के उपर से हटा लीजिए! इसी को कूटस्थ मे द्रष्टि बैठाना कहते है! अब खेचरी मुद्रा में बैठिए!
क्रियायोगासाधना ध्यान में साधक मानवाचेतना को पार करना प्रथम कदम है! कूटस्थ में तीसरा नेत्र दिखाई देना द्वितीय कदम है! भौतिक नेत्र कुछ दूर/प्रदेश तक ही देख सकते है! इस सूक्ष्म तीसरा नेत्र से सृष्टि का हेतु ॐकार(पीला रंग) में, पश्चात् सृष्टि का अन्दर का परमात्मा(तत् - नीलरंगश्रीकृष्ण चेतना), तत् पश्चात् कारण चेतना को भी पार करके सृष्टि का अतीत् परमात्मा (सत् - 5 भुजवाला रजत नक्षत्र) में साधक पहुँच सकता है! इस पृथ्वी, अनेकानेक सौरमंडलों, आकाशगंगा(Milky way of Galaxies) समस्त एक ही जगह इक्कट्ठे क्रियायोग साधक देख सकेगा!
ॐकार(पीला रंग) को बैबिल(Bible) में होलीघोष्ट(Holy Ghost)कहते है! सृष्टि का अन्दर का परमात्मा(तत् – नीलरंग श्रीकृष्ण चेतना) को परमात्मा का बेटा (Son of the Father) कहते है! सृष्टि का अतीत् परमात्मा (सत् - 5 भुजवाला रजत नक्षत्र) को परमात्मा-पिता (Father the God) అంటారు. कहते है!

भौतिक नेत्र का बीच में उपस्थित हुआ प्यूपिल (Pupil) परमात्मा (सत् - 5 भुजवाला रजत नक्षत्र) का प्रतीक है!
भौतिक नेत्र में नीलरंग ऐरिस(Iris) श्रीकृष्ण चेतना का प्रतीक है! भौतिक नेत्र में नीलरंग ऐरिस(Iris) का चारों ओर सफ़ेद(White) ॐकार(पीला रंग) का प्रतीक है! यह परमात्मा का शक्ति किरणों है! प्रकृति को रोशनी देनेवाला यह ही है!
साधारण व्यक्ति का प्राणशक्ति इन्द्रियों का माध्यम से बाहर जाते रहता है! क्रियायोग साधक सोऽहं ॐकार को सुनना इति लययोग प्रक्रियों का माध्यम से अपना प्राणशक्ति नियंत्रण करता है! ह्रदय का लब डब का नियंत्रण होता है! पाँच ज्ञानेंद्रियों का शक्तियाँ उपसंहरण किया जाएगा! इस शरीर पृथ्वी पत्थरों नक्षत्रों ब्रह्माण्ड का सर्वस्वा इस तीसरा नेत्र का द्वारा आनेवाले परमात्मशक्ति का माध्यम से ही नियंत्रण हो रहा है इति परिपूर्णरूप में ग्रहण में आजायेगा!

इन्द्रियों का माध्यम से बाहर जानेवाला प्राणशक्ति अपना गति को बदल के पुनः तीसरा नेत्र की दिशा में जाने की दशाओं चार प्रकार का होता है!

1)प्रथम दशा मे झिल्ली(Membranes) में मेरुदंड में कुछ  रेगकर चलरहा है (crawling) करके भावनायें साधक को मिलता है! 2) द्वितीय दशा में कूटस्थ में यांत्रिकरूप में अधिचेतानावस्था में स्थिर होकर तीव्र आनंदकर भावनाए साधक को मिलता है! 3) तीसरा स्थिति में कूटस्थ में तीव्र आत्मीयतापूर्ण भावनाए साधक को मिलना और ॐकार शरीर का अन्दर और बाहर कान बंद करने से भी नहीं करने से भी मिलता है! 4) चौथा दशा में कूटस्थ में तीसरा नेत्र दिखाई देता है! एक सफ़ेद प्रकाश तीसरा नेत्र में नेत्र बंद करने भी खोलने से भी दिखाई देगा! और परिसंचरण (circling) करता हुआ दिखाई देगा! प्राणशक्ति श्वासरहित होजाएगा! नाड़ियों नेत्रों कणकेंद्रों इत्यादियों से उपसंहरण किया जाते है! गहरी विद्युत् प्रकाश दिखाई देगा! अनंत में घूमते हुए दिखाई देगा! एक नीला रंग वलय व गोळ तीसरा नेत्र में दिखाई देगा! प्राणशक्ति(सफ़ेद प्रकाश) अंदर अनंत सुरंग(Tunnel) में जाता हुआ अनंत में व्याप्ति होता हुआ नीला रंग में दिखाई देगा! इस सुरंग द्वारा ही जीवात्मा प्रयाण करता है!

भौतिक नेत्र का माध्यम से देखनेसे समुद्र जैसा अनंतप्राणशक्ति से व्यक्ति का प्राणशक्ति एक तरंग जैसा विभाजन होके अकेलापन् होकर अलग दिखाईदेगा! कूटस्थ में तीसरा नेत्र का माध्यम से देखनेवाला साधक को समुद्र जैसा अनंतप्राणशक्ति व्यक्ति का प्राणशक्ति तरंग एक भाग जैसा दिखाईदेगा और ऐसा भावना देगा! आत्मा का आध्यात्मिक चेतना तीसरानेत्र का रजत नक्षत्र का अंदर प्रयाण करता है! का आध्यात्मिक चेतना तीसरानेत्र का रजत नक्षत्र में छिपा हुआ होता है! तीसरानेत्र का अंदर का अनंतत्व को देखता रहता है और भौतिक अहंकार का रूप में मै, मेरातत्व का साथ जोड़ा होता है! कूटस्थ का तीसरानेत्र का बाहर प्रयाण करेगा! मेडुलाआबलम्बगेटा(Medulla Oblongata) में इस मै, मेरातत्व स्थिर होता है! इन्द्रियों का माध्यम से इस शरीर को और इस प्रपंच का पदार्थों को देखता रहता है!  इस प्रपंच का पदार्थों रूप देश काल और परिणाम इत्यादि से परिमित रहता है! मन जब इस परिमित से उपसंहरण होने से तीसरा नेत्र का रजत नक्षत्र का अन्दर में तत् पश्चात् अपरिमित अनंतत्व में तेज से दौडते जाएगा! परिमित भौतिकमनस् इस जगत का अल्प भाग ही देख सकता है!  
तीसरा नेत्र एक आकाशवाणी केंद्र(Radio Station) जैसा है! इस का माध्यम से स्थूला सूक्ष्म प्रपंचों में उपस्थित हुआ अपना इष्ट लोगों को आत्मबोध (Intuition)का माध्यम से संदेशों/संकेतों भेज सकता है और स्वीकार भी कर सकता है! आकाश का शब्दों को सुनाने को रेडियो अवसर है! हमारा आलोचना तरंगों भी ब्रह्मांडशक्ति (Cosmic-Consciousness) शक्ति नाम का आकाश का माध्यम से प्रयाण करता है! इस को स्वीकार(receive) कने को तीसरा नेत्र आवश्यक है! तीसरा नेत्र का माध्यम से हम नेत्र नासिका कान चर्म और जीब का संकेतों को दूर से  स्वीकार कर पाते है! आनेवाले संघटनों सहित हम तीसरा नेत्र का माध्यम से कार्यकारण सिद्धांतों और आत्मबोधा द्वारा जानसकते है! हर एक जीवी का इन्द्रियलक्षणों का संकेतों और उन का आलोचनायें विद्युत् अयस्कांत तरंगों का रूप में आकाश में संक्षिप्त रखाजाता है! आत्मबोधा का हेतु ठीक भावनों उत्पन्न होता है और उन का प्रतिरूप तस्वीरों(configuration) को हम तीसरा नेत्र में दर्शन करसकते है! तीसरा नेत्र एक शक्तिवंत केमेरा(Camera) जैसा है! हम उन व्यक्तियों का बारे में शोचने का वजह से आकाश और अंतरिक्षों का माध्यम से आनेवाला स्पंदनों हमारा इन्द्रियों को उन स्पंदनों का मुताबिक़ समान प्रतिपत्ति में स्पंदन करायेगा! आत्मबोध नीलारंग का षट्टर्(Shutter) को और पाँच भुजोंवाला नक्षत्र को खोलदेगा! दूरवाला स्थूल और सूक्ष्म स्पंदनों को एक तस्वीर जैसा चित्रीकरण करेगा! 

जब निद्रा से उठने का बाद हम आँख जहा तक चारों ओर परिसर प्रांत देख सकता है इतना ही भौतिक प्रकृती को देख सकेगा! तब हमारा नेत्रों ¾ भाग ही खोलेगा! कुछ भी वास्तु को निशिता परिशीलन करने समय संपूर्णरूप में खोलता है! अर्थनिमीळित नेत्रों कूटस्थ में स्थिर होकर आध्यात्मिक दर्शनों को सहायभूत होते है! अवचेतनावस्था में नेत्रों पूरा बंद होता है! शिशुवों का नेत्रों निद्रा में उप्पर की ओर कूटस्थ में परमात्मा(कूटस्थ) को देखता रहता है! वे जब शिशु बढता है क्रमशः नेत्रों नीचे की ओर घूमता है! और निद्रा में पूरा बंद होजाता है! पशु और साधारण मनुष्यों का भौतिक मरण में नेत्रों का अन्दर का गोलकों उप्पर की ओर देखता है! उन का प्राणशक्ति और आत्मा अचेतानात्मक होकर मेडुलाआबलम्बगेटा (Medulla Oblongata)का माध्यम से प्रयाण करता है!
दोनों स्थूलानेत्रों कूटस्थ में केन्द्रीकरण करने से तीसरानेत्र बनता है! दृष्टि स्थिर होता है! अभ्यास का माध्यम से दृष्टि अधिकाधिक कूटस्थ में स्थिर करना है! वास्तव में मेडुलाआबलम्बगेटा(Medulla oblongata) का माध्यम् से प्रतिबिंबित हुआ प्रकाश ही तीसरानेत्र है! वैसा नेत्र को परमात्मा का अनुसंधान करने इच्छा बलवत्तर रूप में होता है! मानावाचेतना को परमात्मचेतना का तरफ जाने को मार्गदर्शन देता है! दोनों स्थूल नेत्रों का दृष्टि नीचे स्थूल प्रपंच का दिशा का तरफ एकाग्रत करने से मानवचेतन का मार्ग में जाएगा तत पश्चात अवचेतनावस्था का मार्ग में जाएगा! मेडुलाआबलम्बगेटा एक स्विच (Switch)जैसा है! वह प्राणशक्ति विद्युत् को नेत्रों में प्रवाहित करेगा! भौतिकता को आदत हुआ इस विद्युत् क्रियायोग ध्यान अभ्यास का कारण अधिकाधिक कूटस्य्थ में स्थिर होता रहेगा! तब वह मेडुलाआबलम्बगेटा में बदिली(Transfer) होता रहेगा! वास्तव में आध्यात्मिकता को परिधि (Dimensions) नहीं है! हम कूटस्थ में जो प्रकाश को देखते है वह वास्तव में मेडुलाआबलम्बगेटा का अन्दर का ही है!
चेतना:
मनुष्य सर्वदा एक ही कमरे को परिमित होकर निवास करने से उस कमरे ही उस मनुष्य को प्रपंच जैसा दिखाई देगा और अनुभव/भावना भी करेगा! कदापि एक दिन उस कमरे का किटिकी खोलने से जब विस्तार आकाश दिखाई देने पर ‘इस प्रपंच इतना विशाल’ इति आश्चर्यजनक होजायेगा! अंडा में बांधित नन्ही चिड़िया को उस खोल ही प्रपंच है! उस भवन का ढांचा (Shell) फाड़ के जब बाहर आने पर इस प्रपंच का विस्तार देख कर आश्चर्यजनक होजायेगा! हम भी मनुष्य रूप का नन्ही चिड़िया है! प्रपंच(Yolk of the world)नाम का द्रव में है! पृथ्वी अंगारका शनि इत्यादि ग्रहों का साथ हुआ सौरमंडल, नक्षत्रों इत्यादि का साथ हुआ जगत व आकाश का खोल  (shell)का अन्दर है हम! साधक अपना क्रियायोग ध्यान का माध्यम से इस आकाश नाम का खोल(shell) को छिद्र करके अनंत परमात्मा से जब संबंध बनाता है तब उस को इस प्रपंच का अत्यंत अल्प परिमाण अनुभव करेगा, अनुभव में आयेगा! अल्प और स्वल्प भौतिक छीजों से संतुष्ट और संतृप्ति नहीं होना चाहिए! हम बिक्षक् नहीं है परमात्मा का प्यारा दिव्य संतान है! अनंतत्व हमारा जन्म हक् है! भोजन भार्या/भर्ता संतान इत्यादि सब अत्यंत अल्प छीजें है! उन सब को देनेवाला परमात्मा को लभ्य करना चाहिए!

चिह्नों:
अनंत में व्यक्तीकरण नहीं हुआ तीन भाग अव्यक्त है! यह परमात्मा का नहीं दिखनेवाला भाग ही सूक्ष्ममनस है! बाकी व्यक्तीकरण हुआ भाग व्यक्त है! यह परमात्मा का दिखनेवाला भाग ही स्थूलमनस है! परमात्मा का व्यक्त भाग परमात्मा का स्थूलशरीर समझ सकते है! व्यक्त स्वरुप का विग्रह नील और लाल है! हर एक नील छेद का माध्यम से परमात्मा जीवं यानि प्राणशक्ति देता है! अथवा व्य्क्ताकाश का हर एक कण जीवं का साथ उपस्थित है! सब से अत्यंत मुख्य विषय मतमौढ्यं से जाती विमुक्त होना चाहिए! मत का हर एक पूजा व नियमों का अंतरार्थ जानना चाहिए! अथवा वह केवल विग्रह पूजा व मूरख नियमों ही बनता है! क्रास मानावाचेतना और अनंतचेतनाओं इति द्वंद्वों का चिह्न है! क्षितिज्ञ के समानांतर डंडा (Horizontal Bar) मानवचेतना का चिह्न है! लम्बवत डंडा (Vertical Bar) अनंतचेतना का चिह्न है! अथात मानव परिमित चेतना को अनंतचेतना का साथ अनुसंधान करने का तात्पर्य है क्रास का उद्देश्य! त्रिभुज तीन छीजों का चिह्न है! परमात्माGod the Father), तत् (सृष्टि का अन्दर का परमात्मा)(Son of the God)और ॐकार(Holy Ghost)का चिह्न है! सातवा तमो रजो गुणों का चिह्न है! प्राणशक्ति इन तीन गुणों का माध्यम से स्थूलशरीर को व्यक्तीकरण करता है! तीसरानेत्र विश्व जीवाधारशक्ति का चिह्न है! पाँच भूजवाला रजत नक्षत्र परमात्मा को(God the Father उस चारों ओर घेरा हुआ नीलारंग तत् (सृष्टि का अन्दर का परमात्मा)(Son of the God)और स्वर्णरंग(Golden Halo) ॐकार(Holy Ghost)का चिह्न है! सूर्य तीसरा नक्षत्र का चिह्न है! सूर्य हमारा जीव है! सूर्य सूर्यशक्ति और सूर्या प्रकाश का आधार परमात्मशाक्ती ही है! तीसरा नक्षत्र का अन्दर उपस्थित हुआ छीज भी परमात्मशक्ति ही है! परमात्मशक्ति (Cosmic Energy) सूर्यप्रकाश अनंताधिक है! तोल नहीं सकता है! सूर्यप्रकाश हमारा रेटीना(Retina)को जला के अंधा करा सकता है! कूटस्थ में कोटिसूर्यकांति प्रभा से दिखनेवाला तीसरा नक्षत्र हम को जला के अंधा नहीं बनाएगा! यह तीसरा नक्षत्र ही असली प्रकाश है! बाकी छीजें सब इस तीसरा नक्षत्र का सामने अंधेरा का समान है!
हम गोळा/वृत्त(Round) और सरळरेखायें(Straight lines) को पसंद करते है!हमारा नेत्रों शिर अंगुलियां फेफड़ों इत्यादि शरीर भागो सब इन्ही नमूना में व्यक्तीकरण किया हुआ है! सरळरेखा को बढाने से वृत्त(Round) बनजाता है! सरळरेखा को अनंत को चिह्न है! गोळाकार वास्तु का केंद्रबिंदु से शक्ति चारों ओर समानाप्रतिपत्ति में व्याप्ति होता है! स्पटिक(Crystal worship)पूजा इसी कारण प्रारंभ हुआ! परमात्मा का प्रथम स्पंदन वृत्ताकार है! इसी हेतु मंदिरों का उप्पर वृत्ताकार(Round)वस्तु का प्रतिष्ठापना आरम्भा हुआ! परमात्मा का बाहर जानेवाला स्पंदनों परिमित वस्तुवों को व्यक्तीकरण करेगा! परमात्मा का आकर्षण शक्ति बाहर शक्तियों को अपना अंदर लेता है!
पृथ्वी अंगारक सूर्या नक्षत्रों इत्यादि जगत का वास्तुवों सब परिमित वस्तु है! जगत का सब वस्तुवों परमात्मा का अन्दर पहुँचने का प्रयत्न करेगा, करता और करते रहेगा! क्रियायोग साधक सब से शीघ्र ही परमात्मा का साथ अनुसंधान करेगा!

पुष्पों पुष्पसौरभ परमात्मा का अस्तित्व जानकारी देने का व परमात्मा अपने आप को व्यक्त(Express) करने को चिह्न है! इसी कारण तीव्र क्रियायोगासाधक अपना साधना में परमात्मा अस्तित्व चिह्न पुष्पसौरभ का आस्वादन करेगा! ‘साधक मै हू’ करके भरोसा को व्यक्त(Express) करने को प्रतीक साधक को ऐसी भावन उत्पादन परमात्मा करेगा! वृक्ष प्राणशक्ति का चिह्न है! परमात्माशक्ति ही जीवशक्ति जैसा व्यक्तीकरण हुआ है! पुनः उस जीवशक्ति ही परमात्माशक्ति जैसा बदलने का  नवरत्नों पत्थरों वृक्षों और वृक्षसंपदा जैसा रूपांतर होना चिह्न है! वृक्षों का जड़ें नाडियों का(nervous system) का प्रतीक है! इस वृक्षों का नाडियों(nervous system) मनुष्य का केश का प्रतीक है! वृक्षों का नाडियों घनीभव सौरशक्ती है! इस सौरशक्ती परमात्मा से ही उत्पन्न हुआ है! वृक्षों का शाखायें नाडियों का घनीभव सौरशक्ती बाहर जाने का चिह्न है! कंप्यूटर(Computer)का प्रोग्राम(programme) सब सर्वस्वतंत्र है! परन्तु हर एक प्रोग्राम सेंट्रल प्रासेस्सिंग यूनिट(Central Processing Unit)को स्पर्श करके जाना पडेगा! मनुष्य और पशुवों का नाड़िया(Sensor & Motor nervous system)परमात्मा से उद्भव हुआ सौरशक्ती ही है, सौरशक्ती  का रूपांतर ही है! कंप्यूटर का प्रोग्राम जैसा इन नाडियॉ और उन का काम सब सर्वस्वतंत्र है! मनुष्य का अंदर भेजा से बाहर वार्ता लेजानेवाला ना नाडियॉ(Motor nervous system)सब अपने आप को इन संसाराबंधनों से स्वतंत्र होने के लिए व्यक्तीकरण किया हुआ है! पदार्थ को परिमिति होकर संदेशों को मस्तिष्क से बाहर वार्ता लेजानेवाला ना नाडियॉ(Motor nervous system), इन नाडियों का वार्ता/ संदेशों को मस्तिष्क का अंदर लेजानेवाला नाडियों(Sensor nervous system), दोनों नाडियों का कार्य निर्वर्तन को क्रियायोगी मेरुदंड में उपसंहरण करेगा! उपसंहरण किया संदेशों को मेडुलाआबलम्बगेटा(Medulla Oblongata)का माध्यम से अनंत में भेजसकेगा!लोह और पत्थरों परमात्मा का सुन्दरता का चिह्न है! नवरत्नों सुन्दरता शक्ति और उपशामानाशक्ति(Healing Force)का चिह्न है!  
अपरिमित परमात्मा को परिमिता पत्थर और लोह विग्रहों का पारमित करनेवाला लोगों को परमात्मा लभ्य होना असंभव है! सर्वं खलु इदं ब्रह्म! परमात्मा को सर्वत्र धर्षण करना युक्त और आचरणीय है! एक तरंग पूरा समुद्र नहीं है! दिखनेवाला सारे तरंगों और गंभीरता से भरपूर बाकी सब मिलके समुद्र बनता है! दिखनेवाला जगत और नहीं दिखनेवाला शुद्ध चेतना सब मिलके परमात्मा है! अनंत परमात्मा इति समुद्र में एक परिमत तरंग है हम! हमारा अंदर का दोषोंको समूल नाश करना चाहिए! माया परमात्मा का अंतर्भाग है! माया से परिवृत होकर अज्ञानता से भरा हुआ है हम! वास्तव में सत्य क्या है हम न्यास/अन्वेषण यानी सत्यान्वेषण करना चाहिए! माया का बंधन से निवृत्ति पाना चाहिए! क्रियायोग साधना का माध्यं से अनंत में विलीन होना ही ऐकैक मार्ग है! भौतिक मरण का पश्चात भी आत्म नाश नहीं होता है! आत्म परमात्मा का अंतर्भाग है! यह जानना के लिए क्रियायोगासाधना ही सक्षम है! इतना ही नहीं, एक ही धागा प्राणशक्ति, एक ही सिद्धांत कर्मसिद्धांत, एक ही पद्धति और एक ही ज्ञान हम सब यानी पूरा जगत को चला रहा है यानी दिशा निर्देशन दे रहा है कर के हम ग्रहण करेगा! यह समझने से ही सारे जगत एक गृह जैसा, हम सब एक ही माता का शीशु जैसा, आखरी में हम सब उस परमात्मा में ही ऐक्य होना है कर के परिपूर्णस्थिति में ग्रहण नहीं करसकेगा!

शांति संतृप्ति रक्षण चेतनापूर्वाकज्ञान और अमरत्व लभ्यहोना इन सब के लिए क्रियायोगासाधना ही अत्यंत आवश्यक है! केवल इसी साधना का सहायता से ही सर्व हृदयों में उपस्थित होनेवाला वस्तु रूपरहित परमात्मा ही है करके स्थिर और अचंचल भावना परिपूर्ण रूप में प्राप्त होगा! 

जन्मतः सब एक ही है! हमारा देश प्रदेश प्रांत भाषा पड़ोस मित्र भार्या/भर्ता   कुटुंब जाती सामाजिक स्थिति परिस्थितियों कालामान परिस्थितियों इत्यादियों का मुताबिक़ हमारा संचितकर्मों हमारा उप्पर अपना अपना प्रभाव दिखादेगा! आधुनिक वैज्ञानिकशास्त्र हमको अनेक भौतिक सदुपायों को प्रदान करता है! कठोर और क्रूर जन्तुबली नरबली सतीसहगमनं इत्यादि मूर्ख सिद्धांतो/आचारों को विश्लेषण करने को दोहद किया था, अभी भी करता है! ‘हम सब एक है’ एक नारा(Slogan) को परिमित नहीं होना चाहिए! वह एक अनुभवैकवेद्य होना चाहिए! हम निर्माणात्मक परस्पर विमर्शन करके हमारा अंदर का दोषोंको समूलनिर्मूलन करना चाहिए! एक दूसरों से परस्पर चर्चों का माध्यम से अंजाने विषयों को सीखना चाहिए! परिशुद्धात्म होकर परमात्मा का साथ अनुसंधान करना चाहिए! पाश्चात्य देशों से बहुत कुछ विषयों को हम सीख सकते है! वैसा ही भारतदेश से आध्यात्मिक विषयों को पाश्चात्य देशों भी सीख सकते है! 
पानी को जमाके(Freeze) बरफ बनाके पानी का उप्पर छोड़ने से वह पानी के उप्पर तैरती है! यह आधुनिक वैज्ञानिक शास्त्र प्रयोग(Experiment) द्वारा हम सीखे है! वैसा करके आध्यात्मिकता में कुछ तीव्र क्रियायोगासधाकों करने अद्भुत विन्यासों को गलत नहीं बोलना चाहिए क्यों की इन विन्यासों प्रयोगों का और तर्क का अतीत है! जीसस क्रैस्त(Jesus Christ) पानी का उप्पर चलना आधुनिक वैज्ञानिक शास्त्रपरिधि का अतीत है! क्रैस्त अपने मानसिक नियंत्रण के माध्यम से शरीर कणों(Cell)का स्पंदनों(Vibration)को नियंत्रित करपाए थे! और पानी के उप्पर चल सके थे!

शास्त्रों:

श्वास को अस्त्र जैसा उपयोग करना ही श्वास्त्र है! कालक्रम में क्रमशः   श्वास्त्र शास्त्र होगया है! गंगा नदी में जितना पानी बहने से भी हम जितना परिमाण का पात्र लेजायेंगे इतना ही परिमाण का पानी इस में आयेगा! वैसा ही अनंत ज्ञान समायुक्त शास्त्रों में हमारा मेधा का परिणिति/परिधि का मुताबिक़ ज्ञान लभ्य होगा! हम अपने आप को शास्त्र पंडित घनापाठी अष्टावधानी शतावधानी इत्यादि पदवीयों से परिचय करानेवाले लोगों वास्तवरूप में अल्पज्ञानग्राही गर्विष्ठ है बोलने से किंचित् भी अतिशयोक्ति नहीं है! लड़का इंजीनियर है परंतु एक मामूली फ्यूज भी डाल नही सकता है, उस से क्या उपयोग है? सर्वशास्त्र कोविद होने से भी उन शास्त्रों का अर्थ नहीं जानने से क्या लाभ है? परमात्मा से अनुसंधान नहीं हुआ उन कुहना पंडितों अन्य जनों को क्या मार्गदर्शन दे सकता है? फल को नहीं भक्ष्य करते हुए वर्णन करने से उस फल का रूचि यदार्थ में कैसा पता चलेगा? एक अंध दूसरा अंध को मार्गदर्शन कैसा करेगा? अधिक प्यासा मनुष्य कितना प्रयत्न करने से भी बड़ा पात्रा का जल पूरा नहीं पीसकता है! वैसा ही परिमित मेधायुकत मनुष्य शास्त्र पूरा सीखने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए, अगर करने से भी सफल नहीं होगा! आध्यात्मिक सत्यों को परिपूर्णरूप में समझानेवाले श्रीमद भगवद्गीता ब्रह्मसूत्रभाष्यों उपनिषद पातंजलि योगसूत्रों इत्यादि ग्रंथों आद्यंतम् एक ही हिस्सा में पढने से उन ग्रंथों का ज्ञान ग्रहण कर सकेगा? असलियत में कोई भी ग्रंथ थोड़ा थोड़ा समझते हुए पढ़ना चाहिए, जहा तक पढ़ा है उस का उप्पर ध्यान करना चाहिए, ग्रहण करना चाहिए, अनुभव प्राप्त करना चाहिए! 
कदळी आम चीकू इत्यादि फलों मधुर होता है! परंतु उनका मधुरता में व्यत्यास है! वह जो अनुभवी ही है वह ही जानेगा! कुछ लोग शास्त्रों को रट्टा मार के कुछ श्लोकों को बार बार उदाहरण देते हुए अनुभवरहित वादानों करते है और सिद्धान्तीकरण करते है! फल नहीं खाते हुए उनका मधुरता का वर्णन करना जैसा है यह! इस से हम को कोई लाभ उपलब्ध नहीं होता है!
सत्य ग्रहण करने के लिए दोई मार्ग है:(1) मानव मेधा (Intelligence), यह इन्द्रियों का आधारित जिस का हेतु यह परिमिता है! हम अन्धेरा में रस्सी को देख कर सांप करके भ्रमित होना, पहाड़ का उप्पर धूम्र को देख कर आग करके भ्रमित होना इत्यादि! बाहर दिखनेवाला(Appearance/Phenomenon) सब सत्य नहीं है!(2) असली सत्य(Noumenon)वह आत्मबोधा(Intuition) का माध्यम से व्यक्त होगा! क्रियायोगाध्यान द्वारा आत्मा को परमात्मा का साथ अनुसंधान करने से आत्मबोधा अभिवृद्धि होगा! यह ज्ञान ही असली ज्ञान है, इस को पक्का भरोसा करसकता है और सत्य है! शास्त्रवेत्ता का प्रयोगों(Experiment) सब पदार्ध का बाहर का तरफ परिमित है! क्रियायोगा साधक का प्रयोगों सब पदार्ध का बाहर से अन्दर की ओर जाता है! वे सब अनंत का बारे में करते है! इसी हेतु वे सब अपरिमित है! ए सब किसी का तृप्ति के लिए करनेवाले अँध भावनाए नहीं है! तर्क(Calm reason), भावना(Calm feeling) और क्रियायोगाध्यान(Meditation) सब मिलने से ही आत्मबोधा है!

सृष्टि:

एक युग समाप्त होने पर सृष्टि का उपसंहरण होता है! तब केवल परमात्मा ही रहेगा! उस परमात्मा को आदि और अंत नहीं है! परमात्मा अपने आप को खुदी मेधासहित स्पन्दनारूप जैसा व्यक्तीकरण किया है! इसी को परमात्मा का शब्द(ॐकार)(Cosmic Intelligent Vibration)कहते है! शब्द(ॐकार) परमात्मा का शक्ति(Cosmic Energy)है! यह शक्ति ही ब्रह्मांड मेधा(Cosmic Intelligence)का माध्यम से घन द्रव वायु पदार्ध इलेक्ट्रॉन्स(Electrons) और शक्ती(Energy) इत्यादि विविध रूपों में व्यक्त होता है! इन सब को आदि और अंत है! ब्रह्मांड मेधा ब्रह्मांड स्पंदनों(Cosmic Vibration) विविध रूपों में यानी पदार्ध जीव मानवचेतना इत्यादि रूपों में व्यक्त हुआ है!
परमात्मा मे देखनेवाला दृश्यं ध्येयं तीनों एक ही है! इसीलिये परमात्मा में कोई भी स्पंदना नहीं होता है! कारण सूक्ष्म और स्थूला इति तीन प्रकार का स्पंदनों है! इन सब परमात्मा में नहीं होता है! विचार शक्ति और पदार्ध इत्यादि सब विविध प्रकार का स्पंदनों है! सृष्टि में सारे पदार्धों परमात्मा का अन्दर का स्पंदनों द्वारा ही उत्पन्न हुआ है! सृष्टि के लिए परमात्मा अपने आप को सृष्टिकर्ता सृष्टिशक्ति और सृष्टि इति व्यक्तीकरण किया है! स्पंदना मेधा(Cosmic Intelligence) स्पंदनायुतशक्ति (Cosmic Intelligent Energy) का रूप में व्यक्तीकरण होता है! इस नीचे तस्वीर देखिये:  
  

प्रारंभ व प्रथम गोळ सत् एक प्रकाशमान दिया समझलो! सत् का अर्थ सत्तावाली है! उन का किरणों ही माया(तत्) नाम का गोळ में गिरता है! द्वितीय गोळ तत् समझलो! यह एक पारदर्शी शीशा समझलो! सत् नाम का प्रकाशमान दिये की मात्र कुछ किरणें ही इस पारदर्शी शीशा माया(तत्) में प्रवेश करता है! तो सत तत में भी होता है, तत के अतीत भी होता है! तत के अंदर किरणें को ही तत् कहते है! तीसरा गोळ ॐकार है! यह सृष्टि का हेतु है! यह तत् का परावर्तन है!

कुछ भी वस्तु उत्पत्ति होने के प्रथम में शब्द निकलता है! पश्चात आँखों को दिखनेवाला वस्तु उत्पत्ति होगा! यह ही नाश/हरी होनेवाला प्रपंच है! तत के अंदर किरणें बाहर विकेंद्रीकरण होने समय ‘ॐ’ इति शब्द का साथ हरी/नाश होनेवाला सृष्टि उत्पन्न होता है! समस्त जीवकोटी इस सृष्टि का अंतर्भागा है! एकं सत विप्रा बहुदा वदंति! है एक ही है, वह ही सत है! वह सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी और सर्वज्ञ है! सत चित आनंदस्वरूपी है! इस का नाम और रूप जोड़ने से नाश/हरी होनेवाली सृष्टि उत्पन्न होता है! सृष्टि का कारण अनेक है करके भावना उत्पन्न करनेवाला माया है! मा=नहीं, या=यदार्ध, यानी यदार्ध नहीं इति अर्थ है! इसी कारण जो यदार्थ नहीं है वह ही माया है! पदार्ध कभी यदार्थ नहीं है! परमात्मा का स्वप्ना ही माया है! 

भयंकर स्वप्न स्वप्नाके भयभीत हुआ मनुष्य आँख खोलने से भय समाप्त होता है! वैसा ही माया से विमुक्त होने के लिए क्रियायोगासाधना अत्यंत आवश्यक है! वह और कोई जन्म में नहीं साध्य है, दुस्साध्य है!! मात्र केवल मानव जन्म में ही सुसाध्य है! सारे जन्मों में मानव जन्म अत्युत्तम है! सत का अर्थ परमात्मा है! परमात्मा को पाने के लिए हरी से शब्दब्रह्म ॐकार में, ॐकार से तत् में, तत् से सत् में जाना चाहिए! इसी कारण कोई भी शुभकार्य ‘हरी ॐ तत् सत्’ इति कहके प्रारंभ/ आरंभ करना चाहिए! अथात नाश होनेवाला हरी से नाशरहित सत् में जाना चाहिए! 
परमात्मा का अंतर्गत माया से व्यक्त/उत्पन्न होनेवाला जगत तीन प्रकार का होता है! प्रथम में कारण(Ideational or Causal Universe)जगत/शरीर, पदार्थ व स्पंदनाशक्ति(vibratory force) को स्पर्श करनेवाला परमात्मा का केवल भावनाएं(Ideas) व ऊहायें! द्वितीय में सूक्ष्म जगत/शरीर(Finer forces of Subtle or Astral Universe) है! विद्युत् आकर्षण् विकर्षण् अयस्कांत इलेक्ट्रॉन्स प्राण शक्तियों का संघात है! ये सब इन्द्रियातीत है! तीसरा स्थूल जगत/शरीर(Material Universe) और स्थूल(Grosser forces) स्पंदना शक्तियॉ है! आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी घनपदार्थों द्रवपदार्थों वायुपदार्थों इलेक्ट्रॉन्स(Electrons) और शक्ति(Energy) है!
कारण(Ideational or Causal Universe)जगत/शरीर में सूक्ष्म जगत/शरीर(Finer forces of Subtle or Astral Universe) का ब्लूप्रिंट (Blue Print)होता है! हम स्थूल जगत/शरीर(Material Universe)को नेत्रों से देख सकते है! कारण और सूक्ष्म जगत/शरीर दोनों को इन भौतिक नेत्रों से देख नहीं सकते है!
अणिमा गरिमा लघुमा इत्यादि अष्ट शक्तियों को प्राप्त करना परमात्मा का प्राप्ति का नाप-तौल(Measurement) की प्रक्रिया नहीं है! जगत को नियंत्रण करने को शक्ति लभ्य होने से भी वह परमात्मा प्राप्ति का निदर्शन नहीं है! परमात्मा प्राप्ति किया क्रियायोग साधकों परमात्मा प्राप्ति का सामने इन शक्तियों को तृणप्राय और अल्प  समझते है! साधना में लभ्य होने हर एक नित्यनूतन आनंद और अपना कष्ट नष्टों का निवृत्ति के लिए शीघ्र मार्गदर्शन स्फुरण करना परमात्मा का अस्तित्व का महत्वपूर्ण निदर्शन है!

स्पंदनों
स्पंदन का आर्थ गतिविधि(Movement)है! जगत व्यक्तीकरण को इन स्पंदनों ही कारण है! जगत का हर एक अणु कुछ न कुछ स्पंदनासहित होता है! परंतु उन स्पंदनों का गतिविधि(Rate of vibration)में व्यत्यास होता व होसकता है! कुछ वास्तु/पदार्ध एक सेकेंड(Second)व मिनट(Minute)में दो व उस से अधिक व कम बार स्पंदनों करा सकता है! इन स्पंदनों का गतिविधि(Rate of vibration)में व्यत्यास ही इस अदभुत जगत है!
सूर्य अपना अयस्कांत व आकर्षण शक्ति का हेतु शेष ग्रहों को अपना चारों ओर घुमाता है! मनुष्य का अन्दर का अहंकार हम को इस प्रपंच का दिशा में आकर्षण करा के घुमाता है! यह ही अपना स्वगृह और पिता   परमात्मा से दूर व अलग रखता है!
जब हम कुछ लोगों से मिलते है और उन से सन्निहित रहते है, तब नकारात्मक स्पंदनों यह मनुष्य दुष्ट है, सकारात्मक स्पंदनों यह मनुष्य शिष्ट है, इति हमको उत्पन्न होता है! जब मनुष्य दूसरे मनुष्य को मिलता है तब उन दोनों का मध्य में परस्पर प्रेम उद्भव होना चाहिए, द्वेष उद्भव नहीं होना चाहिए! प्रोक्ष इति उद्धरीण(चमच) व तुलसी पत्र से शिर का उप्पर पानी छिड़कने से शुद्धि(baptise)नहीं होता है! क्रियायोग ध्यान का माध्यम से हम अपना शरीर और मन दोनों को शुद्धि(baptise)करना चाहिए! वैसा शुद्धि किया हुआ मन प्रेम से भरा होता है! वैसा प्रेम भरा मन का प्रेम बाहर बहने दूसरों को आकर्षित करता है! 
रोगग्रस्त मनुष्य से नकारात्मक अशांतिपूरक स्पंदनों निकलता है! वैसा लोगों का उप्पर दया दिखाना गलत नहीं है! परंतु काम होने से भी नहीं होने से भी उनका साथ स्पर्शन करते हुए घूमना नहीं करना चाहिए! वैसा करने से हमारा मन भी रोगग्रस्त नकारात्मक अशांतिपूरक स्पंदनों से भरपूर होजाएगा! थोड़ा कुछ अस्वस्थ होने से भी हमारा मनोधैर्य ढीला पड के आवेदानापूर्वक हो जाएगा! कुछ लोगों से निरुत्साह निराश निस्पृह भय आंदोळन व्याकुलता का स्पंदनों निकलेगा, आश्वस्त खो बैठेगा! कुछ लोगों से अहंभाव अहंकार घमंडीपन चिडचिडापन इत्यादि स्पंदनों निकलेगा! कुछ लोगों से कार्पण्यं क्रूरत्व असूया इत्यादि स्पंदनों निकलेगा! वैसा लोगों को मिलने पर हम से भी निरुत्साह और नकारात्मक स्पंदनों निकलना प्रारंभ होजाएगा! ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिए! कुछ लोगों से दया दाक्षिण्य करुणा प्रेम अनुराग इत्यादि सकारात्मक स्पंदनों निकलेगा! वैसा लोगों को मिलने पर हम को उन का उप्पर गौरव भक्ति प्रेम इत्यादि स्पंदनों उत्पन्न होगा! वैसा लोगों का सन्निहित में रहना चाहिए!

 रंगों से भी स्पंदनों निकलता है! उन में कुछ हम को आह्लाद करदेता है और कुछ नहीं करदेता है! इसी कारण हम अवसर से अधिक उबल/ तल/भून के रंग बदला हुआ आहारापदार्थों हम को आकर्षित नहीं करेगा!
एक ही अपार्टमेन्ट(Apartment) में विविध व्यक्तियों से भिन्न प्रकार का स्पंदनों निकलता है! वे नकारात्मक व सकारात्मक हो सकता है! वे हम को प्रभावित करता है! केवल क्रियायोग साधक ही उन से बच सकता है! मनुष्य अपना अपना विचारों और भावनावों को उनका तार्किकता कोक्रियायोग साधना से अभिवृद्धि करना चाहिए! नहीं तो अन्यों का बेसीमानी कार्य या कथन से मार खाना, विवाह व्यवस्था में ठीक भागीदार नहीं मिलना, विद्या व्यवस्था में ठीक पढाई(Faculty)नहीं मिलना, इत्यादि बहुत कुछ समस्यों का सामना करना पड़ता है! इस माया प्रपंच में हर एक जगह में ठगने का अवकाश है! बाक्टीरिया(bacteria)कुछ क्षण ही जीवित रहता है! परंतु सब छीज अनुभव करता है! मनुष्य 100 वर्षों का जीवितकाल परमात्मा का एक पल का बराबर नहीं है!हम भी बाक्टीरिया(bacteria) जैसा है! समय व्यर्थ नहीं करके क्रियायोग साधना करा के दिव्यात्मस्वरूप होना चाहिए!
आहार
आहार सात्विक राजसिक तामसिक इति तीन प्रकार का है! फल शाकाहारी सब्जी हरा  सब्जी हर प्रकार का दाल काजू बादाम इत्यादि सब सात्विकाहार है! ए सब हमको आह्लाद प्रदान करता है! मांस तीखा पदार्थों इत्यादि सब राजसिकाहार है! पकाने पश्चात तीन घंटो बाद खानेवाली बासी और नींद उत्पन्न करनेवाला पदार्थों इत्यादि सब तामसिकाहार है! भौतिक आहार सब स्थूल शरीर को बलोपेत करता है! एकाग्रत सूक्ष्म शरीर का आहार है! मानसिक(Astral)शरीर बलोपेत करता है! क्रियायोग साधन आध्यात्मिक (Divine wisdom-the soul battery) शरीर को बलोपेत करता है! मन एक अयस्कांत जैसा है! चुंबक जंग लगा हुआ लोहा को भी आकर्षित करेगा और  जंग नहीं लगा हुआ लोहा को भी आकर्षित करेगा! मन को विचारें आहार जैसा है! वे विचारें अपना लोगों से आनेवाला भी व लोगों को भेजनेवाला भी हो सकता है! वे विचारें सन्निहितों से आने से हम को शांति और आनंद करादेता अथवा चिडचिडापन और असंतृप्ति इत्यादि करादेता है! शरीर पूरा मालिश करके स्नान करने से शरीर में प्राणशक्ति उत्पन्न होता है! पानी को थोड़ा समय धुप में रख के स्नान करने से शरीर को आरोग्यकर है! दुराशा असूया द्वेषभाव इत्यादि दुर्गुणों नहीं होना चाहिए! आत्मनिग्रहशक्ती को अभिवृद्धि करना चाहिए! मित में आहार लेना चाहिए! अच्छी मित्रत्वा बढ़ाना चाहिए! आहार में अधिकतर फल खाना चाहिए! सुव्यवस्थित शरीर व्यायाम करना चाहिए! हर एक मनुष्य को कुछ न कुछ छीज का उप्पर व्यामोह व राग होता ही है! जिस को राग है उस को रागी कहते है! मात्र केवल परमात्मा का उप्पर केंद्रीकृत विशिष्ट राग जिस को है उस को विरागी कहते है!   
व्यापार
अपना मन का इच्छा का मुताबिक़ शास्त्रीयदृक्पथ से एक प्रामाणिकता में अपने आप कुछ लोगों का सहायता द्वारा एक कार्य करने का संकल्प करने को व्यापार कहते है! एक उपन्यास देने को, एक आध्यात्मिक संस्था चलाने को, धनार्जन करने को, कुछ क्रय विक्रय करने क, व्यापारासूत्रो को अवलंभ करना चाहिए! प्रारम्भ में व्यापार एक से आरंभ करने से भी क्रमशः व्यापार वृद्धी होने पर अन्यों का सहायता अत्यंत आवश्यक है! व्यापार में सहायकों(Business associates) का सहायता अत्यंत आवश्यक होने पर भी, सहायकों जितना अछे होने से भी, कार्यनिपुण होने पर भी, संस्था का याजमान्यता/बाध्यता उन को देना नहीं चाहिए! सहायकों कार्यसामर्थ्य नहीं होने पर उन को शिक्षा दिलादेना चाहिए और उस संस्था चलाने का आवश्यक सक्षम उन को लभ्य कराना चाहिए! कार्यसामर्थ्य नहीं होने पर भी कुछ लोग अनुभवी जैसा मिठास बात करते है! वैसे लोगों को गंभीरता से अवलोकन (Observe) करना और थोड़ा अधिकवेतन मांगने से भी ईमानदार सच्चा और निष्कपटी लोगों को ही रखना चाहिए! शारीरक और मानसिक आलसी और कामचोर लोगों को संस्था में जगह देना चाहिए! समीप बंधू हो या अच्छा मित्र हो ऋण नहीं देना चाहिए! आहारे व्यवहारे च त्यक्ता लज्जः सुखी भवेत्! आहार व्यवहारों में लज्जा नहीं होना चाहिए, वह ही सुखी होता है! निर्द्वन्द्व होना चाहिए! सहायकों को अपना सीमा पार नहीं करने देना चाहिए! संस्था का सहायकों और सहचरों का उप्पर कड़ी निघा रखना चाहिए! यह उनको पता नहीं करना चाहिए! उन लोगों का छोटा छोटा दोषों को कुछ सीमा तक क्षमा करा सकता है! परंतु उन लोगों का दोषों संस्था को हानी नहीं करना नहीं चाहिए! वैसा होने से एक दो चेतावनी(Warning) देके, समीप बंधू हो या अच्छा मित्र हो, हठाना चाहिए! आत्मबोधा का अनुसार सहायकों और सहचरों का संस्था में नौकरी देना चाहिए!

सत्यं
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् प्रियं च नानृतं ब्रूयात्
न ब्रूयात् सत्यमप्रियं ब्रूयात् एतत् धर्मः सनातनः  
सत्य ही बोलना है, प्रिय बोलना चाहिए, प्रिय बोलने पर भी असत्य नहीं बोलना चाहिए, सत्य वाक्य को अप्रिय नहीं बोलना चाहिए, यह ही हमारा सनातन धर्म है!
एक ऋषि एक वृक्ष का नीचे तपस् कररहे है! उसी समाया में एक व्यापारी का पीछे डाकू पदागया! भयभीत हुआ व्यापारी उस वृक्ष का उप्पर छिपगया! डाकू को नहीं बताने के लिए व्यापारी ने ऋषि से प्रार्थना किया! डाकू पूछने पर व्यापारी जहा छिपा हुआ जगह दिखादिया! डाकू उस व्यापारी को ह्त्या करा के उन से धन छीनलिया! उस तपस्वी ऋषि शरीर छोड़ने पर नरक में गया! ‘यह क्या न्याय है सत्य बोलने पर नरक मिल गया’ इति पूछने पर ‘किसी का प्राण की रक्षा के लिए असत्य बोलने से गलत नहीं’ इति यमधर्मराज ने उस ऋषि को कहा!   
इच्छाशक्ति
बदलने का प्रयत्न करने से भी कुछ लोग नहीं बदलते है क्यों? गता जन्मों का संस्कारों ही इस का मुख्य कारण है! कुछ लोगों को जन्मतः भय क्रोध रोग मूडी(Moody) रहते है, कुछ लोगों को अन्यों   को हानी सोपाने में आनंद होता है, कुछ लोगों को सब छीज गंभीरता (Serious)से लेता है, कुछ लोगों को सब छीज हल्का(light)से लेने का स्वभाव होता है, कुछ लोगों को अनुमान दृष्टिकोण से देखने का स्वभाव होता है, कुछ लोगों को सृष्टि का सब छीज आह्लादन करने  का स्वभाव होता है, कुछ लोगों को जन्मतः दैवभक्ति और सर्वभूतों में दया का स्वभाव इत्यादि पूर्वजन्म संस्कारों का हेतु होता है!
किसी को ह्त्या करने का इरादा को आखरी क्षण में अपना निर्णय बदल के ह्त्या नहीं करने से उस व्यक्ती दंडित नहीं होता है! वैसा ही परमात्मा प्रासादित इच्छाशक्ति से और क्रियायोग साधना का माध्यम से हम अपना कर्म को अधिक से अधिक बदल सकते है!
भागवत प्रासादित इच्छाशक्ति को उपयोग नहीं करने से गत जन्म पराभाव का अनुसार संक्रमण हुआ पूर्वजन्म संस्कारों हम को अधिकाधिक प्राभावित करेगा! मानसिक और शारीरक आलसीपन पहले हमारा स्मृति को नाश करके पश्चात हम को सर्वनाश करेगा! इसी कारण अल्प/स्वल्प विषयों भी ख़ास करके स्मृति(Memory power)शक्ति कमवाला लोगों का उप्पर अधिक प्रभाव दिखाईदेगा! ऐसा लोग आलसीपन त्यग के सारे कार्यकाम तुरंत करते रहने से ज्यादातर अपायों को काट सकते है! मित्रत्व भी लोगों का उप्पर अधिकतर् प्रभाव दिखाएगा! इसी कारण दुष्ट लोगों का साथ सांगत्य करना ही नहीं चाहिए, अगर होने से तुरंत त्यगना चाहिए! शिष्ट लोगों का साथ सांगत्य करना अत्यंत आवश्यक है! भौतिक विषयों का उप्पर अधिक व्यामोह रखना ही मनुष्य का दुःख का कारण है! राग व मोह जिस को है उस को रागी कह्ते है! हर एक मनुष्य को किसी न किसी का उप्पर मोह होता है! परंतु परमात्मा का उप्पर राग ही विशिष्ट राग को विरागी कहते है! परमात्मा प्रसादित इच्छाशक्ति और क्रियायोगसाधना का सहायता से विरागी बनना चाहिए!

भोजन सब स्वादिष्ट होने से भी छोटा सा कंकड़ आने से पूरा भोजन सब स्वादिष्ट नहीं है कहना उचित नहीं है! ऐसा स्वभाव मनुष्य का आनंद को भंग करेगा! ऐसी स्वभाव को त्यगना चाहिए! 
अन्यो का पास है परंतु हमारा पास नहीं इति शोचना को असूया कहते है! वह साध्य करने के लिए कृषि करना चाहिए! असूया से क्या लाभ है? मित्र, भार्या, भर्ता, संतान, इन सब को निर्माणात्मक विमर्शन करना उन में जो कमी है उन को निकाल के उन को सही रास्ता में लाने को ही है! परंतु वे विमर्शना वाक्यों सत्य होने पर भी प्रिय होना चाहिए! कोई भी अप्रिय को सहन नहीं कर सकेगा! वैसा कर के वे हितवाक्य प्रशंसा भर(Eulogy)भाषण नहीं होना चाहिए! अधिक से अधिक लोग अन्यों को विमर्शन करने में संदेह नहीं करते है! परंतु खुद को विमर्शन करने से सहन नहीं करेगा! हम जब अन्यों का तरफ एक अंगुली दिखाने से तीन अंगुलियां हमारा तरफ और अंगुली(अंगुष्ठ) उप्पर(परमात्मा) का तरफ दिखाएगा! दांपत्य जीवन में सामंजस्य बिलकुल नहीं होने पर मित्रों जैसा अलग होना ही सही है! दांपत्य जीवन में आध्यात्मिकताराहित्यं नहीं होने से सामरस्य नहीं होगा!

अहंकार
भोतिक विषयों का बंधन में डूब के ‘यह मेरा, मै, मेरा लोग’ इति तत्व ही अहंकार है! शुद्धात्मा को घेर के उस का असली स्वरुप को छिपाके रखना ही अहंकार है! ज्वाला का अन्दर का अग्नि कण जैसा आत्मा परमात्मा का भाग ही है! परमात्मा जैसा आत्मा भी नित्य है! सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी और सर्वज्ञ है! सत चित आनंद है! प्रत्यगात्मा का अर्थ प्रति एक आत्मा व व्यष्टात्मा है! व्यष्टात्मा स्वयं शुद्ध है! कारण सूक्ष्म स्थूल शरीरधारण करने पर उन शरीरों का व्यक्तित्वा/तत्व/स्वभाव व्यष्टात्मा का उप्पर सोपता(Superimpose)है! इसी को अहंकार कहते है! कारण सूक्ष्म स्थूल स्थितियों को उनका चेतनाए और प्रभावों का मुताबिक़ पहचानना चाहिए!
जाग्रतावस्था में मानव अहंकार स्थूल शरीर स्पृहा और स्थूलचेतना को परिमित रहता है! स्वप्नावस्था में मानव अहंकार जब स्वप्नावस्था व अवचेतानावस्था में प्रवेश करने पर थोड़ा प्रपंच और थोड़ा इन्द्रियचेतना का साथ होता और उसी समय में स्वप्न प्रपंच से संपूर्ण चेतना का साथ रहता है! स्थूला और स्वप्नावस्थावो का संपर्क(Link)निरंतर है! इसी कारण हम को फलानी स्वप्ना आया कर के कहते है! वास्तव में अचेतना निर्दिष्ट रूप में नहीं होता है! चेतन निद्रानास्थिति(Restive state) में हो सकता है! आत्मा को अचेतना नहीं होता है! अहंकार जब स्वप्नावस्था व अवचेतनावस्था में प्रवेश करने पर चेतना अपना स्थूल ज्ञानेंद्रियों(शब्द स्पर्श रूप रस और गंध) का शक्तियों इति वस्त्रों को त्यागता है! परंतु अवचेतनावस्था अपना आत्मावबोधना शक्ति को नहीं खो बैठेगा! इसआत्मावबोधा शक्ति का माध्यम से सूक्ष्म शक्तियों(शब्द स्पर्श रूप रस और गंध) द्वारा सूक्ष्मचेन द्वारा स्वप्नावस्था अपना काम करेगा! सूक्ष्म शक्तियों स्थूल शक्तियों का प्रतिरूप/प्रतिवस्तु है! स्थूल व जाग्रतावस्था में उपलब्ध हुए विषयों विचारों इत्यादि निद्रावस्था में स्वप्नों का रूप में निकलाता है! स्वप्नावस्था में अयस्क्रीम(Ice Cream)खाना सिनेमा(Cinema)देखना इत्यादि विषयों जाग्रतावस्था में जैसा ही चलता रहता है! अहंकार जब गहरा नींद का अवस्था(Semi super conscious state) में प्रवेश करेगा तब वह अद्भुत शांति अनुभव करेगा! यहाँ मानवचेतना अपना निजस्वरूप व निजस्वभावसिद्ध दिव्या निश्शब्द शांति और आनंद अनुभव करेगा! 
मानव अहंकार का स्थूल इन्द्रिय शक्तियों का आकाँक्षा ही जाग्रतावस्था में मनुष्य अधिक अशांति/उपद्रव को वश होने कारण है! शांति और अशांति का मिश्रण है निद्रावस्था व अवचेतनावस्था! यहाँ मानव अहंकार निद्राणस्थिति में होता है! परंतु अधिचेतनावस्था केवल शांति का आलवाल है! यहाँ मानव अहंकार परिपूर्ण निद्राणस्थिति में होता है! गहरा नींद का अवस्था(Semi super conscious state) अधिचेतनावस्था का एक कदम नीचे है! गहरा नींद का अवस्था(Semi super conscious state) में जाने से शांति इसी कारण प्राप्त होता है! जाग्रतावस्था में उपस्थित मानव अहंकार अवचेतानावस्था में

ज्ञापकशक्ति/स्मृति का साथ, अधिचेतानावस्था में एक प्रकार का व्यक्तीकरण किया/अव्यक्तीकरण किया हुआ अंतर्गत शांति का साथ निरंतर संपर्क(Link) में रहता है! 

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