क्रियायोग –तीसरा आँख part 4

आत्म परिशुद्ध है! उस का नियमावली बिलकुल सही और दिव्य है! सही समतुल्यतायुक्त आत्म नियम निबन्धनों संपूर्णरूप में उल्लंघनीय नहीं यानी अनुल्लंघनीय है! भौतिक प्रपंच में कुछ साध्य करना जैसा लक्ष्य का साथ होनेवाला जीवित  नियमावली चंचल और समतुल्यतारहित होगा! आत्म नियम निबन्धनों जैसा संपूर्णरूप में अनुल्लंघनीय नहीं होगा! समतुल्यता समतुल्यताराहित्य इन दोनों का बीच का युद्ध ही रुग्मातों का कारण है! पत्थर का दीवार को जाने में अथवा अंजाने में ठकराने से हम को चोट लगेगा! पत्थर का दीवार स्वयं आके हमको नहीं ठकरायेगा और चोट नहीं पहुंचाएगा! हमारा शांतिपूर्ण कार्यों शांतिपूर्ण परमात्मा से हम को अनुसंधान करेगा! हमको सुख संतोष प्राप्ति करेगा! 
सदा स्थूला सूक्ष्म और आद्ध्यात्मिक रोगरहित होने के लिए परमात्मा को हमारा शरीर नाम का देवालय  में प्रतिष्ठित करना चाहिए! केवल क्रियायोग ध्यान का माध्यमसे ही वह साध्य है! हमारा शरीर को रोगरहित करने के लिए शरीर का अंदर में कुछ औषधियों (Herbs)और खनिजों(Minerals) को रखा और उन को शक्ति दिया परमात्मा ने ताकि हम आरोग्यवान रहे! इन वैद्यी लोग जो औषधियों वैद्य सहायता के लिए देता है वो कुछ परिमिति तक ही काम करेगा! विष्णुः प्रथमो भिषक् यानि परमात्मा ही प्रथम वैद्यी है! आधुनिक वैद्य शास्त्र जितना भी विकासित(Develop) होने से भी शारीरक मानसिक और आध्यात्मिक रुग्मताओं को पूर्णरूप में मिटा नहीं सकता है!

मनसा वाचा कर्मणा त्रिकरण शुद्धि से परमात्मा को प्रार्थना करने से अवश्य करुणा दिखाएगा और रुग्मताओं को मिटायेगा! इस के लिए क्रियायोग साधना अत्यंत आवश्यक है! आरोग्य का पर्यायवाची बल नहीं है! शरीर में बल होने से भी आरोग्य नहीं हो सकता है! इसी कारण क्रियायोग साधना करो! इस का वजह से अनारोग्य का वश हुआ शरीर भागों को प्राणशक्ति को सचेतानापूर्वक भेज सकेगा और उन को पुनः आरोग्यवंत कर सकेगा!हमेशा पूरा मन से हॅसता हुआ आनंद से रहो! आध्यात्मिक सहायता अन्यों को करने का अभिप्राय मजबूत रखिये! उस के द्वारा मानसिक उल्लास से बलवर्धक होजायेगा! नित्यनूतन परमात्मशक्ति मेडुलाआबलम्बगेटा( medulla oblongata)द्वारा ऐसा लोगों का शरीर में प्रवेश करेगा! मनुष्य केवल भौतिक आहार का उपर आधार होकर जीवन नहीं बिताना नहीं चाहिए! क्रियायोग साधना अभ्यास करना चाहिए! मेडुलाआबलम्बगेटा द्वाराशरीर में प्रवेश करनेवाला परमात्मशक्ति का उपर आधार होकर जीवन बिताना सीखना चाहिए! शक्तिशाली इच्छाशक्ति से हम को चारों ओरों में घेरा हुआ परमात्मशक्ति का माध्यम से शरीर का अंदर खींचना चाहिए! मनुष्य अपना शक्तिशाली इच्छाशक्ति से दृढ़ निश्चय से व्याधि असफलता अज्ञान इत्यादि को भगा सकता है!व्याधि(Disease)
शरीर मन और आत्मा ये तीनों तीन किटिकी है! इन के द्वारा परमात्मा का परिपूर्ण प्रकाश(Perfect light of God) आरोग्य (Health), आनंद (Faculty)और ज्ञान(Wisdom) जैसा तीन प्रकार का किरणे (Rays)का रूप में मनुष्य में प्रवेश करेगा! आरोग्य मानसिक संतुलित और आत्मा ज्ञान ये सब मनुष्य को लभ्य करा देगा! इसी कारण मनुष्य परमात्मा का आकृति में बनायागया कहते है! इच्छाशक्ति मनुष्य को परमात्मा का देन है! उस इच्छाशक्ति का उपयोग से गलत करके अंधकार में गिरना या उसी का सही उपयोग करके आरोग्य शक्ति शांति इत्यादी अद्भुत प्रकाश पाना, यह सब मनुष्य का हाथ में ही है!
मनुष्य कर्मसिद्धांत का आधीन में है! सत्कर्म या दुष्कर्म और उन का फल जन्म राहित्य होने तक मनुष्य का साथ ही रहेगा! इसी हेतु शरीर मन और आत्मा ये तीनों किटिकी को परमात्मा का प्रकाश अंदर प्रवेश करने के लिए हमेशा खोल के रखना है! इन किटिकी को खोला रखने को ही चिकित्सा(Healings) कहते है! ऐसा नहीं होने पर व्याधियों प्रवेश करेगा! अज्ञान में उन किटिकी को बंद रखने से क्रियायोग साधना का माध्यम से तीव्र प्रयत्न कर के खोलना चाहिए! व्रण ज्वर इत्यादि रोग शारीरक और भौतिक रुग्मतायें है! चिंता भय अनुमान इत्यादि रोग मानसिक संबंधित है! आत्मा को भूल जाना आध्यात्मिक संबंधित रोग है!
आध्यात्मिक चिकित्सा
हमारा अंदर स्थित हुआ आत्मा को भूलजाना आध्यात्मिक रोग है! आत्मशांति नहीं होना चंचलता क्रमशिक्षणाराहित्यत असंतुलित निर्दय ध्यान में अरुचि ध्यान व साधना को स्थगित करना(Postponement)इत्यादि सब आध्यात्मिक रोग है! मित(Moderation) में रहना यानी साधन व्यायाम और कार्यो में समतुल्यता(Balance) पालन करना इत्यादि सब आध्यात्मिक चिकित्साए है! अधिक व्यायाम से कर्मों में मोह(attachment) वृद्धि कराके क्रियायोग साधना नहीं करनेदेगा! भौतिक प्रपंच विषयों में व्यामोह बढ़ाएगा! अधिक क्रियायोग साधना करके व्यायाम और कर्मों को पूरीतरफ छोड़ने से आलसीपन बढ़ेगा! इसी हेतु समतुल्यता पालन आवश्यक है! सही आसन में बैठना श्वास को आराम से दीर्घ और लंबा रीति से अंदर लेना और वैसा ही आराम से दीर्घ और लंबा रीति से बाहर छोड़ना आवश्यक है! आध्यात्मिक और शारीरक अभ्यासों आवश्यक है! यानी मुद्रायें आसनों बाधों और परमपूज्य श्री परमहंस योगानंद स्वामी से कहागया शारीरक शक्ति पूरक अभ्यासों (energisation) और परिशुभ्रता पालन करना अत्यंत आवश्यक है! आत्मनिग्रहशक्ति में बढ़ावा लाना श्वास नियंत्रण इंद्रियनिग्रह और आत्मावगाहन आवश्यक है! समाधिस्थिति प्राप्ति करना अत्यंत आवश्यक है! ध्यान करके मूलाधार चक्र से बाहर जानेवाला प्राणशक्ति को क्रियायोग साधना से पुनः मेरुदंड का माध्यम से सहस्रारचक्र द्वारा अनंताकाश में भेजना आवश्यक है!
मानसिक चिकित्सा:
अज्ञानता सही सांगत्य नहीं होना, परिस्थितियों और विषय परिज्ञान में सही अवगाहन नहीं होना, दुष्कर्म, सही निर्णय सही समय में नहीं लेना, सही स्वभाव नहीं होना, इत्यादि का हेतु मानसिक रोग संभवित होगा! उस का वजह से आशाओं का वश होना, भय, अनुमान, लोभ, असूया,, द्वेष गपशाप में रूचि, परस्पर दूषण, संभाषण में कठिनता, ज्ञापकशक्ति नहीं होना या खो बैठना, अविश्वास, शारीरक और मानसिक आलसीपन, मूर्खतापूर्वक किसी एक पक्ष लोगों का तरफ वकालत लेना, निर्हेतुक वादन करना, अपने आप को विशलेषण नहीं करना और दुःख इत्यादि का संभवित होगा! इन का निवारण के लिए एकाग्रता, आत्मनिग्रह, सज्जन सांगत्य, इच्छाशक्ति, दुष्ट स्वभावों को अपना संकल्प शक्ति द्वारा उतारना, अपने आप को निष्कर्ष रीति से विमर्शन करना इत्यादि मानसिक चिकित्साए अवसर है!
सदगुरुदेव श्री परमहंस योगानंदा का द्वारा कहां गया शक्तिपूरक अभ्यासों (Exercises) सुबा श्याम श्रद्धा पूर्वक हर दिन करने से मानसिक और शारीरक व्याधियों अधिक तरफ उपशमन होगा! इस का निदर्शन मै हु! मै काम में जितना व्यस्त होने से भी, शरीर जितना भी साथ न दे, मै इस अभ्यासों कोहर दिन करता हु! उस से मुझे बहुत लाभ हुआ!
शारीरक चिकित्सा  
शारीरक व्याधियां बहुत है! प्राणशक्ति सही तरीका से नहीं मिलना या बलहीन होना ही इन का कारण है! आत्मनिग्र नहीं होना, वीर्य यानी शुक्लनष्ट करना, शारीरक व्यायाम नहीं करना, मितभोजन नहीं करना, आरोग्यकर भोजन नहीं करना, मानशिक शांति नहीं होना, सही साधना पद्धतियों का अनुसरण नहीं करना, इत्यादि शारीरक रोगों का कारण है! आत्मनिग्रहशक्ति से विषयाशक्ति को त्यग के परमात्मशक्ति को लेने का  अभ्यास करना सीखने से शारीरक व्याधियां उपशमन होजायेगा! प्राणशक्ति को अधिकतर मात्रा में लीजीये! उस को रोगभूयिष्ट भाग का उपर एकाग्रता से भेज कर उस भाग को पुनः आरोग्यवंत करा सकते हो!
व्यायाम
यांत्रिक साधनों(Instruments—Dumbbells)का उपयोग करके व्यायाम करने से उस व्यक्ति का चेतना उस व्यायाम का वजह से मिलने का लाभ का बदल में उस व्यायाम साधनों का उपर ही लगा रहेगा! मांसपेशियां(Muscles)का उपर चेतना पीछे जाएगा! जब ये व्यायाम समाप्त होजायेगा, काफी चाय कब पीएगा, ऐसा मन को लगेगा! मांसपेशियां का(Muscular Exercise) व्यायाम करने व्यक्ती का चेतना ज्यादातर उस व्यायाम का वजह से लभ्य होनेवाली लाभ का बदल में मांसपेशियां का संकोच व्यकोच देख के आनंदित होने पर ही अधिकतर होगा! शक्ति पीछे चला जाएगा! मानसिक(Mental exercise) व्यायाम में थोड़ा कुछ प्राणशक्ति को मुख्य में इच्छाशक्ति और ऊहा (Imagination) दोनों जोडके झिल्ली(Membrane) अथवा शरीर भागों का अंदर भेज सकता है! व्याधिका वजह से जो लोग खटिया(Cot) का परिमित होकर कष्ट भुगतनेवाली लोग, अंग दुर्बलता लोग, अपना एकाग्रता को वृद्धि करने का इच्छुकों, ये सब मानसिक व्यायाम चिक्त्साओं का अभ्यास करना चाहिए! इस के लिए श्री परमहंस योगानंद से कहा गया व्यायामों को(Energisation Exercises) श्रद्धापूर्वक सुबह शाम हर रोज करना चाहिए! इस में हर एक अंग का उपर तनाव (Tense)डालना और ढीला करना दोनों करना चाहिए! शरीर में जिस भाग अनारोग्य हुआ उस का उपर ध्यान रखा के परमात्मा का शक्ति को उधर जाने को निर्देशित करना चाहिए! याद रखना, व्याधि हमको कष्ट देके दुखी कर देगा! परमात्मा को छोड़ कर कौन हम को पुनः आरोग्यवान करा सकता है? धन नष्ट होने से पुनः कमा सकते हो, आरोग्य नष्ट होने से हमारा सुख अधिकतर खोया हुआ है! परमात्मा का अनुसंधान होना ही जीवित लक्ष्य है! परंतु यह लक्ष्य नहीं पाने से सब कुछ खो बैठने का सामान है! पारिशुद्धता और आरोग्य सिद्धांत इन को अतिक्रमण करना ही व्याधियों का मुख्य कारण है!
तनाव(Nervousness):
स्नायुओं द्वारा स्पंदन करनेवाला चंचल मन तनाव का कारण है! यह बाहर से साधारण दिखने से भी वास्तव में यह बहु क्लिष्ट और हानिकर भी है! तुम तनाव में रहने से कोई भी काम धैर्य और मनःसंतृप्ति से नहीं करा सकते हो! ध्यान में गहराई में नहीं जा सकते हो! वास्तव में शरीर में सब काम का अवरोध का इस स्नायुओं का बलहीनता ही कारण है! यह स्थूला सूक्ष्म और आध्यात्मिक तीनों रंगों को हानी पहुंचाएगा! शरीर नाम का कारखाना में मस्तिष्क(Brain) मुख्य डैनमो(Dynamo) है! वह अति क्लिष्ट स्नायुओं(Nerves) का माध्यम से विविध अंगों को(Body parts/Organs)शक्ति भेजेगा! इन नसों यंत्र(machines) जैसा देखने का सूंघने का स्पर्श का रूचि का सुनने का शक्ति गमना शक्ति इन सारे शक्तियों का और मेटबालिजम (Metabolism) रक्तप्रसरण श्वासक्रिया और विचारों का तयारी इत्यादियो का तयारी का सहायता करेगा! किसी एक कारखाना में विद्युत् तारें टूट के खराब होने से उस का स्थान में पुनः नया तारें डाल सकता परंतु मनुष्य का नस खराब होने से उस का स्थान में पुनः नया नस नहीं डाल सकता है! इसीलिए मनुष्य अपना शरीर नाम का देवालय को अत्यंत पवित्र और सुरक्षित रखना चाहिए! उत्तम स्थूला सूक्ष्म और आध्यात्मिक वास्तुवों को अपना शरीर नाम का कारखाना से तैयार करना चाहिए!कार्य सफलता का बारे में दीर्घकाल आलोचना करना, इंद्रियों को अवसर से अधिक उपयोग करना, स्वच्छ आरोग्य नियमो का पालन नहीं करके जैसा मर्ज़ी खाना, अमित कामवासना और कामकेळि, दीर्घ काल भय, द्वेष, असंत्रुप्ती, चिंता, सही शारीरक व्यायाम नहीं करना, हवा पानी और रोशनी नहीं होनेवाली प्रदेश में रहना, शारीरक और मानसिक शुद्धि नहीं होना, इत्यादि तनाव(nervousness) का कारण है! दूसरों का दोष ढूँढने का स्वभाव और अनावसर वादोपवाद करनेवालों से सहवास नहीं करना चाहिए! याद रखना—भय चिंता क्रोध इन सब हम को सर्वनाश करेगा! निरंतर भय हृदय संबंधित व्याधियों का हेतु बनेगा! चिंता और क्रोध इन दोनों मस्तिष्क और अन्य शरीर भागों को खराब करेगा! मनुष्य का निपुणता का आटंक बनेगा! भय और चिंता दोनों बड़ा बहन और छोटा बहन जैसा है! समस्या को निदानात्मक आलोचन करने से सामरस्यक रीति में सफलीकृत होगा! दीर्घकालिक मानसिक व शारीरक उद्रेकपूरित समस्यों सेंसरी (Sensory-Motor Mechanism consisting of the Sensory or afferent nerves and The Motor or efficient nerves) मोटार मेकानिजं और इंद्रियों द्वारा लयबद्धक रीति में आनेवाली और जानेवाली प्राणशक्ति प्रवाह को रुखावट डालेगा! एक  230वोल्ट(Volts)बल्ब में 2000वोल्ट(Volts)विद्युत् भेजने से वह फट जाएगा! नसों बहुत सुन्नित नल जैसा है! उस को और आवेश पूरित करने से वे अपना लयबद्धता खो बैठेगा और विपरीत रीति में व्यवहार करेगा!
 भौतिक रंग या क्षेत्र का उपर अधिकतर आधारित होना युक्त नहीं क्योंकि मानसिक रूप में वह हानिकर होगा! वह शरीर का रसायनों को लयविरुद्ध (Imbalance)करेगा! प्राणशक्ति और वीर्य(शुक्ल) को बलहीन करेगा! जभी भी मनुष्य क्रोधापूरित होगा तब वह विष को शरीर का अंदर स्रावित करेगा! वह नसों को जलाएगा!
नाटक खेलते समय या प्रवचन देते समय बहुत लोग भय से हडबडाते है! जो बोलना है उस को बोल नहीं पायेगा! प्रथम में अल्प बाद में अधिक लोगों का सामने बोलने का अभ्यास करना चाहिए! आखरी में रंगमंच(Stage) का उपर प्रदर्शन देने का समय आसन्न होने पर सभा भवन(Hall) खाली (empty)ऐसा समझना चाहिए! ये सब से पहले कुछ समय ध्यान करके परमात्मा का सहायता का अभ्यर्थन करना चाहिए!

मरणभय
केवल अज्ञानता का कारण मनुष्य को मरण का भय उत्पन्न होता है! वह भय हमारा सत्कार्य विचारों और सत् उद्देश्यों को हानि पहुँचाता है! परमात्मा हम को दिया हुआ एक नूतन अवकाश मरण है! इस जन्म में  अनुभव किया निराशापूरित जीवन का एक रुकावट जैसा है! आज का दिन निर्भय होकर आनंद से केवल परमात्मा का आलोचना से ही दिन का भरो और जीवो! भविष्यत अपने आप(automaticallय) सही रहेगा! वैसा भी मरण सहज है! चाहो नहीं चाहो संभवित होगा! अधिक से अधिक लोगों को शांति और सौभाग्य से जीने का नित्ययुक्त मार्ग पता है परंतु उन का प्रज्ञा को उस मार्ग का ग्रहण करने में उत्साह नहीं दिखाता और आगे नहीं बदता है! बहुत मंदा रहता है! क्रियायोगसाधना सीखते है! परंतु आलसीपन से हर रोज मियामानुसार साधना नहीं करते है! कदलीफल को देखते बैठने से क्या लाभ, उस का मिठापन नहीं पता लगेगा, उस को स्वाद का लाभ उठावो, आनंदित रहो! क्रियायोगसाधना करो, आनंदित रहो!  
जीवितभागस्वामी को चुनना
साधारण तोड़ में जीवितभागस्वामी/स्वामिनी को चुनने के समय ये विषयों को परिगण में आता है! वे1) भौतिक आकर्षण, 2) सौन्दर्य, 3) दोनों मन का परस्पर मिलन, 4)वृत्, 5)नीति, 6)स्वभाव, 7) भाव, 8)भौतिक लोभ, 9)सांघिक स्थिति, और 10)आत्मा का पुकार ये सब मुख्य है!
कुछ लोग मानसिक सामीप्यता का हेतु भार्या भर्ता बन जाते है! मानसिक सामीप्यता का कमजोर होके परस्पर आत्मा लयबद्धता नहीं होने पर उन दोनों का मध्य में विबेधों आयेगा! मै मेरा भार्या को अच्छा समझता हु क्योंकि उस का भावों मेरा भावों का अनुकूल होता है! मेरा क्रिकेट (Cricket)को मेरा संगीत को वह पसंद करती हैऐसा कुछ लोग संभाषण करते है! मै भी डाक्टर हु वह भी डाक्टर है, मै भी व्यापारी हु वह भी व्यापारी है, हम दोनों का वृत्ती एकी हैइसी कारण हम दोनों परस्पर इष्ट होकर विवाह किया है! बाह्य सौंदर्य विवाह व्यवस्था में मुख्य पात्र निभाता है! परंतु मानसिक सौंदर्य बाह्य सौंदर्य से अतिमुख्य है! शुद्धता, प्रिय संभाषण, शुद्धज्ञान, नित्य निरंतर शुद्ध प्रेम ये सब आत्मा का लक्षण है! ऐसा लक्षणवाला योग अयस्कांत जैसा परस्पर आकर्षित होंगे! भार्याभर्ता बनेंगे!
कुछ लोग पैसावाला विधवा को, कुछ लोग बहु गरीब को, उन का अवसर का मुताबिक़ विवाह करते है! ऐसा लालची विवाह्बंधन ज्यादातर विफल होता है! मेरा पैसा के वास्ते मुञको विवाह कियाऐसा परस्पर निंदा करते है! बहु गरीब कन्या को विवाह किया कुछ लोग तुम इतना पैसा खर्च मत करो, तुम गरीबी कुटुंब से आया है, तुम को पैसा का उपयोगिता(value) पता नहीं हैभार्या से ऐसा कलह करते है और मनःशांति खो बैठते है! सांघिकस्थिति(Social Status) के लिए कुछ लोग अपने से कम पढा लिखा होने पर भी राजकीय में उन्नत स्थिति यानी मंत्री इत्यादि पदवी पाया लोगों को विवाह करते है! परंतु उस परिस्थियों को अनुकूल बनाने में असफल होक असंतृप्ती से जीवन बिताते है! विपरीत तात्कालिक भावोद्रेकों(Emotions)को वश होकर नाम के लिए अखबार में नाम आने के लिए हवाई जहाजों में, हवाई जहाजों से कूद के पाराचूट(parachoot) में, समुद्र का अंदर सबमरीन (submarine) में, सिनेमा(Cinema)देख के परिपूर्ण अवगाहन नहीं हुआ यानी अवगाहनाराहित्य पाठशाला जानेवाला कुछ विद्यार्थी लोग विवाह करते है! अपना विवाह्जीवन में बहुत कुछ भयंकर समस्याओं अनुभव करते है! आखरी में अलग होजाते है!
इन्द्रिय व्यामोह को वश होके विवाह करना ही इन सब का कारण है! तीव्र क्रियायोग साधना कर के आत्मानंद के लिए प्रयत्न करनेवाले क्रियायोगी को भी उस का अवचेतना का आदते इन्द्रिय व्यामोह को अकस्मात् वश में होने देगा! अब मिलनेवाला क्षनिक आनंद को खोके कभी आगे मिलनेवाला अनूह्य परमानंद के लिए तीव्र अभिलाषी होना व्यर्थ है, आत्मनिग्रह नहीं होना, निद्रा आलसीपन तंद्रा साधना नहीं करना इत्यादि दुष्ट शक्तियों मुझे घेरनेदो कोई बात नहींऐसा साधारण मनुष्य सोचता है! श्री भगवद्गीता में अर्जुन भी इसी स्थिती को अनुभव किया है!
केवल बाह्य सौंदर्य और बाह्य आकर्षण को देख के भ्रम में गिरना नहीं चाहिए! मानसिक सौंदर्य बाह्य सौंदर्य से महत्वपूर्ण है! नीति सच्चरित्र आध्यात्मिक चिंतन जिस में है उन जैसा लोगों को विवाह करना युक्त है! वैसा भार्याभार्ता असली मित्र जैसा परस्पर तालमेल आया अनुकूलता से जीवन बितासकेगा! दोनों मिया बीबी डाक्टर या इंजनीर जैसा एक सामान वृत्ती होनेपर विवाह करते है! अपना अपना वृत्ती में एक अच्छा नाम कमाते है, दूसरा नहीं कमायेगा, तब पती या पत्नी को एक दूसरे की जलन न हो, इस चीज को ध्यान रखना चाहिये और परस्पर एक दूसरे को विमर्शन नहीं करना चाहिये! दोनों अपना अपना बलहीनताओं को प्रेम और आप्यायता से चर्चा करके उन बलहीनताओं को सही करना चाहिये! तब परस्पर अन्योयता बढेगा!
जीवितांत वे संयोग से रहेगा! विवाह का पूर्व क्रियायोग साधना द्वारा सही जोड़ी देने के लिए परमात्मा का प्रात्र्थाना करना चाहिये! विवाह का पश्चात क्रियायोग साधना द्वारा हर एक विषय में सही निर्णय लेने के लिए और सही दिशा निर्देश देने के लिए परमात्मा को निरंतर हर समय प्रात्र्थाना करना चाहिये! सही विवाहबंधन के लिए आत्माओं का मिलन अति मुख्य है!
आध्यात्मिक प्रगति का साध्य के लिए दिन रात चंचल्रहित मन, प्रयत्न, और क्रमशिक्षण से समय मिलने पर मिलके साधना करना, नहीं तो अलग अलग क्रियायोग साधना करना चाहिये! उस का वजह से छोटा मोटा अभिप्रयाबेध जो ही वो भी निकलजायेगा और जीवन साफल्यता पायेगा! परस्पर चर्चा करना और उन का सांघिक सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों को सही डंग में रखना चाहिये!

पति पत्नी दोनों परस्पर आकर्षित होने के लिए अलंकरण करना चाहिये! वास्तव रूप में एक विवाह जीवन साफल्यता के लिए मुख्या पात्र निभानेवाली स्त्री ही है! कही उतार-चढ़ावों(ups and downs) को सामना करके, प्रेम और सहनशीलता से पती का सुख अपना सुख समझ के परिस्थितियों को अनुकूल बनानेवाली स्त्री इस जगत में पुरुष को दिया हुआ भगवान का देन है! ऐसी स्त्री सत्य में धन्य जीवी है! इतना ही नहीं, वैसा स्त्री इन लक्षणों को अपना आध्यात्मिक बढ़ावा के लिए भी उपयोग करेगा! वह स्वयं उत्थित होंगी और अन्यों को भी मार्गदर्शन बनेगी और महत्तर पात्र निभाएगी! 

आत्माओं का मिलन हुआ विवाह जीवन में अपरिमित परस्पर दिव्य  गहरा प्रेम अद्भुत रीती में आदर्श रूप में अभिवृद्धि होगा! कामात्रुत पशुप्राय प्रेम का बदल में आत्माओं का बीच में प्रेम उदय और उद्भव होना चाहिये! ‘हे परमात्मा, जीवित भागस्वामि या भागस्वामिनी को तुंहारा निःसंदेह आत्माओं का एकता सिद्धांत द्वारा मुझे लभ्य करो’ ऐसा कम से कम छे मॉस ध्यान में प्रार्थना करना चाहिये! घर ही भूतल स्वर्ग है, इसी कारण सही जीवित भागस्वामि या भागस्वामिनी लभ्य नहीं हुआ संसार नरकतुल्य है!
दिव्यप्रेमरहित विवाह संबंध को कामात्रुता, मेधा, अइश्वर्य, संस्कृति, स्त्री पुरुषों का बीच में होनेवाली आकर्षण, सुंदरता, इत्यादि सुख शांति नहीं दे सकता है! इसी कारण क्रियायोग साधना से पती पत्नी उस दिव्यप्रेमा को वृद्धि करना चाहिये!
आत्मा परमात्मा का एकता ही असली विवाह है! इसी कारण आदिशंकराचार्य, श्री परमहंस योगानंदा, श्री विवेकानंद इत्यादि महानुभावों लौकिक विवाह को त्याग के परमात्मा को ही अपना असली पति जैसा चुनलिया है! जगत सब  इस प्रकृति का भाग है! स्त्री पुरष सब इस इस प्रकृति का भाग है! इसी कारण परमात्मा ही असली पुरुष, बाकी सब प्रकृति स्त्री है! इसी कारण वे स्त्री जैसा अपना केश को बढाके रखते है! विवाहयोग्य स्त्री पुरुष सब  अमलिन प्रेम शुद्धता स्वच्छता पवित्रता इन दिव्यलक्षणों से प्रकाशित होना चाहिए! विवाह योग्य स्त्री कुत्ता जैसा विश्वास, हाथी जैसा बुद्धी, कबूतर जैसा स्वच्छता आप्यायता और घर प्रेमी, नैटिंगेल(Nightingale) जैसा मधुर स्वर, इन लक्षण होना चाहिये! विवाह योग्य पुरुष बल और दृढ़ होना चाहिये! सिंह जैसा धैर्यता, कुत्ता जैसा विश्वास, कबूतर जैसा स्वच्छता आप्यायता और घर प्रेमी, हाथी जैसा बुद्धी, इन लक्षण होना चाहिये! साधारण तोड़ में भारत में स्त्री पुरुष ऐसा चाहेंगे करके लोग कहते है! जीवन में संस्कारों प्रधानपात्र पोषण करता है!
भौतिक वांछायें, ध्यान
जीवन में संस्कारों प्रधानपात्र पोषण करता है! इसी कारण कुछ लोग ध्यान करनेका संकल्प भी नहीं करेगा! कुछ लोग ध्यान करनेका संकल्प होने से  भी नहीं कर सकता है! जिन लोगों को लौकिक विषयासक्ति है वे कभी कभी अधिक प्रयत्न करने से भी विफल हो जाते है! लौकिक विषयासक्ति होने से भी या लौकिक व्यक्तियों का सहवास में होने से भी कुछ लोग अद्भुत अलौकिक आध्यात्मिक मार्ग में ठिक जाते है! इस का कारण संस्कारों ही है!
संस्कारों हमारा अंदर का प्राथमिक इच्छाशक्ति का और प्रयत्नों का सुरक्षित रखनेवाला यंत्र जैसा है! शारीरक चेतना से लौकिक विषयासक्ति और वांछायें बढ़ता है!
पिछले और प्रस्तुत जन्मों का खराब आदतें और शारीरक मोहित अहंकार ही ध्यान नहीं करने देने का कारण है! परमात्मा का चेतना से लौकिक इंद्रिय विषय वांछायें और अहंकार का अधिगमन करना चाहिये! जड़ से उखाड़ फेकना चाहिये! किसी का बंधन में नहीं पड़ना बल्कि त्यागना चाहिये! वैसा कर के सांसारिक बाध्यताओं का विस्मरण नहीं करना चाहिये!
इस जन्म में तुम कुछ खोने से चिंता मत करना, परमात्मा का कृपा से वह पुनः मिलजाएगा! पिछले जन्मों में तुम ने किसी को धोका दिया होगा इसी हेतु कर्मसिद्धांत का मुताबिक़ इस जन्म में वह खो बैठा होगा! यह मेरा कह के परिमित नहीं होना, सब तुम ही है, सब तुंहारा नहीं है! संतान मित्रों बन्धुओं माता पिता गुजर जाने पर व्याकुलता मत होना! संसार पानी जैसा है! पानी में नाव  होना है परंतु नाव में पानी नहीं होना चाहिए! मनुष्य नाव जैसा है! तुम कही जन्मों से लौकिक में था! मनुष्य लौकिक मानसिक और आध्यात्मिक तोड़ में विकास करना चाहिये! तुम देव साम्राज्य में प्रवेश करो, तब सब कुछ तुमको दियाजाएगा!
क्रियायोगध्यान
क्रियायोगध्यान का आदत हुआ साधक् अधिकाधिक ध्यान करके परमात्मा का साथ अनुसंधान होने को अभिलाषी होता है! साधना में अहंकार चेतना बहुधा अपना अस्तित्व को बहिर्गत करता रहता है! शब्द का साथ शीग्र गति में श्वासक्रिया होना इस का चिह्न है! श्रीभगवद्गीता में ‘शंखौ दध्मौ पृथक् पृथक्’ इसीलिये कहा है! शंख अहंकार का प्रतीका है! साधक को अहंकार व्याकुल करा के निश्चल स्थिति में भी अद्भुत परमात्मा चेतना को उस से दूर करदेता है! शरीर का मेरुदंड और मस्तिष्क का बंद पडा हुआ द्वारों को खोल के शक्तिप्रदान करने को क्रियायोगध्यान सहायता करता है! आकाश में अंतरिक्ष में नित्ययुक्त परमात्मा शक्ति को विद्युत जैसा और शक्ति जैसा हमारे में लानेवाले है इस क्रियायोग साधन! दिव्यशक्ति को शरीर में लानेवाले स्विच्(Switch) है इस क्रियायोग साधन! साधना का पश्चात भी साधक अपना साधना में उत्पन्न हुआ शक्ति और एकाग्रता को हमेशा सुरक्षा रखना चाहिये! गपशप बातो में व्यर्थ विचारों और चंचलता से उस शक्ति और एकाग्रता खो देना चाहियें!
छठा इन्द्रिय(Intuition):
‘प्रत्यक्ष प्रमाण जो है वह भौतिक इन्द्रियों का आधारित है! अनुमान प्रमाण जो है वह हमारा ऊहा(Idea) आधारित है! परंतु आगम परमात्मा से सीधे(Direct) आयेगा इसी कारण विस्वसनीय है ऐसा कहते है महर्षि पतंजलि! आगम का अर्थ शास्त्र कहना सामंजस नहीं है! ‘वेदानि अपौरुषेयाणि’ यानी वेदों किसी से लिखा हुआ नहीं है! वेदों ध्यान में साधक को सीधी परमात्मा से मिल हुआ प्रासाद है! ध्यान करके इन शास्त्र विषयों कहा तक सत्य है अथवा सत्य है कि नहीं है परीक्षण करके जानना चाहियें! एक छली एवं धोकेबाज भी अपना बुद्धिमता(Intelligence) से तार्किकशक्ति से एक किताब लिखके ‘यह परमात्मा से सीधी आया हुआ है’ ऐसा बोलके ठग सकता है! ध्यान करके उस का शोध करने से परीक्षण करने से उस ग्रंथ का विषयों कहा तक सत्य है पता लगेगा!
आगम(Intuition) तर्क का अतीत और इंद्रियातीत है! आत्मावबोध  (Intuition) जो है वह ॐ ध्यान द्वारा मिलेगा ऐसा कहते है पतंजलि महर्षि! ॐ ध्यान मन को अंतर्मुख करेगा! निर्विच्छि्न्न्(निरंतर- Continuous), तैलधारमिव(तेल का धारा जैसा-like the smooth-flowing oil),दीर्घघण्टानिनादवत्(दीर्घघण्टा का नादं अथवा शब्द जैसा), अवाच्यं(उच्चारण का पार), प्रणवं(नित्यनूतन उत्साह देनेवाली), यस्तं वेद स वेदवित्( जो सुन सकता वह ही असली ज्ञानी है ऐसा उपनिषदों में ॐकार को वर्णन किया है!
हर एक क्रियाशीलक अणु से इस प्रणवनादं निरंतर उत्पन्न होता है! क्रियाशीलकता जिस प्रदेश में है उस प्रदेश अवश्य ॐकार का साथ होगा! हर एक नाम में शब्द चेतना अथवा बुद्धिमता(intelligence) और शक्ति होता है! उदाहरण के लिए ‘श्रीराम’ ऐसा उच्चारण करने के लिए शब्द चेतना अथवा बुद्धिमता(intelligence) और शक्ति होना अत्यंत आवश्यक है! अपरिमित ऊर्ध्व और  निम्न स्पंदनायुत ॐकार सामान्य कर्ण को सुनाई नहीं देगा! साधारण मुह से उच्चारण नाहीए कर सकता है! क्रियायोग साधना का माध्यम से तीव्र एकाग्रता से साधक अपना स्थूलशरीर का बाह्यशब्दों को विसर्जन करता है! पश्चात स्थूलशरीर का रक्त प्रसारण हृदय का लब-डब शब्द इत्यादी को विसर्जन करेगा! पश्चात स्थूलशरीर का मूलाधार(भ्रमर) स्वाधिष्ठान(बंसिरिवाद) मणिपुर(वीणानाद) अनाहात(मंदिर का घंटानाद) और विशुद्ध(नदी प्रवाह शब्द)चक्रों का शब्दों को विसर्जन करता है! कूटस्थ में ॐकारनाद सुनेगा! इस नादं का उपर एकाग्रता को और तीव्रतर करेगा! नित्यनूतन आनंद, परमात्मचेताना, प्रेम, परमात्मा का प्रकाश, परमात्मा का शक्ति इन सब का स्वाद करेगा! ये सब परमात्मा का विविध परिमाणों ऐसा परिपूर्ण रीति में ग्रहण करेगा! आत्मावाबोधा (Intuition) को आत्मविश्वास (Self confidence) और अधिक विश्वास का साथ तुलना(Compare) नाही चाहिये! कुछ विषय ऐसा बहुत बार हुआ इसीलिये फिर होगा इस को अधिक विश्वास या मूढ विश्वास कहते है!
कुंडलिनी
मेरुदंड का समीप में स्थित मूलाधारचक्र द्वारा बाहर निकलनेवाली प्राणशक्ति मार्ग(Passage) अथवा नाली को, कुंडलिनी कहते है! यह कुंडलिनी एक सर्प(शेषनाग) जैसा है! संभोग नसों की तरफ इसका प्रवेश है! बाहर जानेवाली प्राणशक्ति को कुंडलिनी मार्ग द्वारा तात्कालिक तरीका से हमारा मस्तिष्क में प्रवाह करने देने से कुंडलिनी जागृती नहीं होती है! क्रियायोग साधना का माध्यम से क्रिया नाम का प्रक्रिया को सीखके मूलाधारचक्र को जागृती करना चाहिये! उस का वजह से इस प्राणशक्ति को शास्वत रीति या तरीका से मस्तिष्क में प्रवाहित करने को संभव बनेगा! परंतु इस क्रियायोग साधना एक पद्धती जैसा प्रतिदिन उदय और सायंत्र नियमरूप से कराना आवश्यक है अथवा पिछ्लेवाली परिस्थिती ही बनजायेगा! मूलाधारचक्र से कुण्डलिनी मार्ग द्वारा ही प्राणशक्ति बाहर निकलते रहेगी! अप्रतिम मानसिक-भौतिक पद्धतियों द्वारा ही यानी क्रियायोग साधना द्वारा कुण्डलिनी मार्ग में अस्तित्व हुआ मूलाधारचक्र को जागृति करना आवश्यक है! तब ही साधक कामं को नियंत्रित करा सकेगा! यह बिना दूसरा रास्ता ही नहीं है! दबाके रखा हुआ स्प्रिंग(Spring) का उपर से हाथ हटाने से चेहरे का उपर लगेगा! वैसा ही दबाके रखा हुआ कामं भी द्विगुणा हुआ बल से साधक को तकलीफ करेगा! आध्यात्मिक प्रगति साध्य का संकल्पित किया साधकों प्रथम में कुंडलिनी प्राणशक्ति को जागृति करके मेडुल्लाअब्लांगेटा(Medullaoblangeta) द्वारा मस्तिष्क को दिशा निर्देश(Direction) देना चाहिये! सम्भोग में पुरुष का कुंडलिनी प्राणशक्ति स्त्री का कुंडलिनी प्राणशक्ति का साथ मिलेगा! उस का वजह से भौतिक रूप में वीर्य नष्ट होगा! इतना ही नहीं, प्राणशक्ति जो सूक्ष्म है उस का भी नष्ट होगा!
कुंडलिनी सांप(शेषनाग)
सर्प अथवा शेषनाग को कुंडलिनीशक्ति का चिह्न जैसा(Symbol)उपयोग करते है! शेषनाग कुंडलिनीशक्ति का प्रतीक है! इस कुंडलिनीशक्ति का सही उपयोग करना युक्त है अथवा सही नहीं है! चेतना और शक्ति दोनों को मेरुदंडम् का माध्यम से दिशानिर्देश(Direction)देके मेडुल्लाअब्लांगेटा द्वारा मस्तिष्क में भेजना चाहिए! उस का माध्यम से अनंत यानी परमात्मा से संपर्क बनाना चाहिए! यह एक मानसिक भौतिक पद्धती है! विद्युत् का एक चिह्न (Symbol)है! हमारा ऋषि मुनियों सर्प अथवा शेषनाग को कुंडलिनीशक्ति का चिह्न जैसा(Symbol)उपयोग किया है! सर्प का अंदर शक्ति और विष है! वैसा ही विद्युत् का भी शक्ति है! फण खोल के खडा हुआ सांप शक्ति का पराकाष्ठा है! कुछ ऋषियों अपना जटाएं को शिर का उपर सर्प का फण जैसा बांददेता है! शिवजी का शिर का उपर भी खडा हुआ सांप का फण को  दिखाईदेता है! परमात्मा का संपर्क का हेतु परमानंद से भरपूर्ण इस का अर्थ है! साधक क्रियायोग साधना से अपना अपना नेत्रों नाक जीब चर्म और कर्ण इन ज्ञानेंद्रियों से विद्युत् को उपसंहरण करेगा और मेरुदंडं में भेजेगा! उस विद्युत् को मेरुदंडं स्थित इडा पिंगळ सूक्ष्मा नाड़ियों का मध्य सुषुम्ना नाड़ि द्वारा मूलाधार स्वाधिष्ठान मणिपुर अनाहता विशुद्ध आज्ञा चक्रों को पार करा कर सहस्रार चक्र द्वारा अनंतम् में बजेगा!
राजमार्ग(Gateway):

गुदास्थान का समीप में मेरुदंड में मूलाधारचक्र का पास स्थित वृत्ताकार में रहा कुण्डलिनी मार्ग या सुरंग(tunnel) को प्राणशक्ति मार्ग(Gateway of Life force) कहते है! मेडुलाआबलम्बगेटा(Medulla oblongata)का द्वारा विशुध्द अनाहत मणिपुर स्वाधिष्ठान और मूलाधारचक्रों का माध्यमसे कुण्डलिनी मार्ग से बाहर निकलनेवाला प्राणशक्ति को निद्राण कुण्डलिनी कहते है! आत्म का प्रदेश यानी स्थान कूटस्थ है! मेडुलाआबलम्बगेटा द्वारा सूक्ष्म विद्युत् को स्थूलशरीर संबंधित ज्ञानेंद्रियों और भौतिक स्थूल काम संभोग संबंधित व्यर्थ होनेवाला वीर्यशक्ति के लिए प्राणशक्ति प्रवाहित होना आवश्यक है! कुण्डलिनी मार्ग इस काम करने के लिए दोहद करेगा!
ऐसा निद्राणस्थित कुण्डलिनी अहंकार को जगायेगा, इंद्रियों का उपर ध्यान विषयासक्ति और संभोगवांछ को बढायेगा! भौतिक प्रपंच से संबंध मार्ग बनाएगा! मनुष्य दिव्यात्मस्वरूप ऐसा सत्य भावना को पर्दा डालदेगा! हर रोज नियमानुसार क्रियायोग साधना द्वारा इस निद्राणस्थिति कुण्डलिनी प्राणशक्ति को जागृति करना चाहिये! मेरुदंड स्थित चक्रों, मेडुलाआबलम्बगेटा केंद्र, कूटस्थ द्वारा मस्तिष्क में भेजते रहना और भेजना चाहिये! मनुष्य स्वयं ही परमात्मा स्वरुप है ऐसा परिपूर्णस्थिति को समझने का स्थिति साध्य करना चाहिये! वह ही असली जीवन साफल्य है! अचेतनास्थिति में प्राणशक्ति मेरुदंड से बाहर निकलेगा! इस को मनुष्य नहीं जानेगा! क्रियायोग साधक का प्राणशक्ति सचेतनास्थिति में मेरुदंड से सुषुम्ना का माध्यम से बाहर निकलेगा! विद्युत् को सही पद्धती में उपयोग करना नहीं जानने से वह हमको हानी पहुंचाएगा! परंतु वह अपने आप ही हानी नहीं करेगा! वैसा ही कुण्डलिनी मार्ग का अंदर का प्राणशक्ति हानिकारी नहीं है! अहंकार से और कामवांछायें इत्यादि से संबंध और बंधन नहीं बनाके रखेगा! साधना करनेवाले साधकों को बंधविमुक्ति और मुक्ति प्राप्त करायेगा! साधना नहीं करनेवाला सारहीन आलसी व्यक्तियों को ही प्रवृत्ति होता है! आलसी व्यक्तियों को इह में भी सुख नहीं मिलेगा और पर में भी सुख नहीं मिलेगा! व्यापारासाफल्यता नूतन विषयों को आविष्कार करना संगीत रचना करना इत्यादि सब भगवत अनुग्रह ही है! क्रियायोग साधना करो, दैवसाम्राज्य में कदम रखो, तुमको धर्मबद्ध वांछ जो भी है वह अवश्य लभ्य होगा!
अंतर्गतनाद
कुण्डलिनी शक्ति एक शेषनाग जैसा रहता है! इस का शिर नीची और पूंछ उपर मेरुदंड का चक्रों में निद्राणस्थिति में उपस्थित होता है! क्रियायोग साधना का माध्यम् से इस कुण्डलिनी शक्ति को जागृती करना चाहिये! इन चक्रों प्राणशक्ति और पदार्थतत्वविवेचशास्त्र(Physiological) संबंधित है! इन चक्रों से ही सूक्ष्म प्राणशक्ति मेरुदंड से विविध शारीरक अंगों में दियाजाता है! हर एक चक्र को एक रंग रुचि शब्द और पद्मो का जैसा दळ यानी पँखुड़ियाँ होता है! मूलाधारचक्र को चार दळ यानी पँखुड़ियाँ, स्वाधिष्ठान चक्र को छे दळ, मणिपुर चक्र को दस दळ, अनाहत चक्र को बारह दळ, विशुद्ध चक्र को सोलह दळ, आज्ञा चक्र को दो दळ, सहस्रार चक्र को सहस्र दळ,होता है!
वृक्ष का पत्तों सूर्यास्तमय में सोता है इसीलिये नीचे की ओर देखता है! वैसा ही जिस व्यक्ति क्रियायोग साधना नहीं करता है उस का कुण्डलिनी निद्राणस्थिति में होता है और उस का चक्र्रों का दळ यानी पँखुड़ियाँ नीचे को ओर देखता है! क्रियायोग साधना करनेवाला साधक का कुण्डलिनी जागृती होता है और उस का चक्र्रों का दळ यानी पँखुड़ियाँ बलोपेत यानी शक्ति से भर के उपर को ओर देखता है! तब उस का मस्तिष्क अनंतस्पंदन यानी दिव्य ॐकार नाद से भरपूर होता है! चक्र स्पन्दन का अर्थ यह है की वह चक्र तक कुण्डलिनीशक्ति पहुंचगया और उस चक्र जागृती होगया है!
आठ प्रकार की समाधिस्थिति होते है! इन में संप्रज्ञात(संदेहसहित-परमात्मा है की नहीं है ऐसा) और असंप्रज्ञात(संदेहरहित-परमात्म निश्चित रूप में है  ऐसा) करके पुनः दो प्रकार का होते है! मूलाधार स्वाधिष्ठान मणिपुरचक्र और अनाहत चक्रों में आनेवाला समाधियों को संप्रज्ञात समाधिस्थितियों कहते है! विशुद्ध  आज्ञा और सहस्रारचक्रों में आनेवाला समाधियों को असंप्रज्ञात समाधिस्थितियों कहते है!    
जागृती हुआ मूलाधारचक्र से भ्रमर शब्द आयेगा! फल का रस(sweet juice taste) जैसा मिठापा रूचि आय्रेगा!  पीला रंग में होगा! मूलाधार्चाक्र को सहदेवचक्र कहते है!
जागृती हुआ स्वाधिष्ठानचक्र से पवित्र बंसिरीनाद शब्द आयेगा! थोड़ा सा कड़वा (slightly bitter taste) जैसा रूचि आय्रेगा! धवल रंग में होगा! स्वाधिष्ठानचक्र को नकुलचक्र कहते है! इधर सालोक्य संप्रज्ञात समाधिस्थिति यानी परमात्मा साथ है ऐसी भावना मिलेगा!  
जागृती हुआ मणिपुरचक्र से पवित्र वीणानाद शब्द आयेगा! करेला जैसा   कड़वा(bitter taste) रूचि आय्रेगा! लाल रंग में होगा! मणिपुरचक्र को अर्जुनचक्र कहते है! इधर सामीप्य संप्रज्ञात समाधिस्थिति यानी परमात्मा का समीप में हु ऐसी अनुभूति मिलेगा!  
जागृती हुआ अनाहतचक्र से पवित्र मंदिर का घंटानाद शब्द आयेगा! खट्टा जैसा   (sour taste) रूचि आय्रेगा! नील रंग में होगा! अनाहतचक्र को भीमचक्र कहते है! इधर सायुज्य संप्रज्ञात समाधिस्थिति यानी परमात्मा का सन्निधि में हु ऐसी अनुभूति मिलेगा!
जागृती हुआ विशुद्धचक्र से पवित्र जलप्रवाहनाद शब्द आयेगा! कालकूट विष जैसा रूचि आय्रेगा! धवल मेघ रंग में होगा! विशुद्धचक्र को युधिष्ठिरचक्र कहते है! इधर सारूप्य असंप्रज्ञात समाधिस्थिति यानी परमात्मा के साथ हु ऐसी अनुभूति मिलेगा!
जागृती हुआ आज्ञाचक्र से पवित्र ॐकारनाद शब्द आयेगा! प्रकाश ही प्रकाश दिखाईदेगा! आज्ञाचक्र को श्रीकृष्णचक्र कहते है! इधर स्रष्ट या सविकल्प समाधिस्थिति यानी मै और परमात्मा एक हु ऐसी अनुभूति मिलेगा!

जागृति हुआ कुण्डलिनी क्रियायोग साधना को पराकाष्ठा है! वह भौतिक व लौकिक विषय वांछों का वश हुआ चंचल मन और ज्ञानेंद्रियों को निश्चय निश्चल निर्दुष्ट दिव्य अदभुत आध्यात्मिक मार्ग का तरफ दिशा निर्देश देगा! तब तक भौतिक व लौकिक विषय वांछों का परिमित हुआ चंचल मन और ज्ञानेंद्रियों का वजह से नहीं सूना एलक्ट्रान(Electron) सूक्ष्म किरणों का संगीत और उस से बढकर परमात्मा का शब्द यानी पवित्र ॐकार नाद को सुन सकेगा! इस का पहले भौतिक व लौकिक विषय वांछों का परिमित हुआ चंचल मन और ज्ञानेंद्रियों के लिए काम करनेवाला प्राणशक्ति अब निश्चल बनेगा! वह केवल सहस्रार में ही काम करेगा! मस्तिष्क अब एक दिव्या रेडियो(Radio) जैसा रूपांतर होजायेगा! ऋषि मुनि योगियों का प्रवचनों सुनाईदिया! अंतरिक्ष में हर एक अणु, एलक्ट्रान(Electron), दिव्यस्पंदन, सब संगीतमय होजायेगा! आकाश का रेडियो(Radio) तरंगो को मामूली कानों से नहीं सुन सकते है! रेडियो(Radio) होने से ही सुन सकते है! वैसा ही कुण्डलिनी जागृती नहीं होने से भौतिक अहंकार से उस दिव्य संगीत को सुनने को साध्य नहीं है! 
कुण्डलिनी—संभोगशक्ति
संभोगशक्ति में मन और प्राणशक्ति दोनों मिलके संभोगनसों में प्रवाहित होता है! उन नसों को लौकिक सृजनात्मकत का दिशा में प्रेरण करेगा और उसी में लगन करेगा! कुण्डलिनी शक्ति प्रवाहित होनेवाला मार्ग(Passage) को अधिकाधिक शक्तियुत मैक्रोस्कोप(Micro Scope)से भी देख नहीं सकेगा! कुण्डलिनी शक्ति  का मार्ग(Passage) से प्राणशक्ति मेरुदंड स्थित चक्रों द्वारा मूलाधाराचाक्र से बाहर निकलेगा! अथवा क्रियायोग साधना माध्यम् से इस प्राणशक्ति मेरुदंड स्थित चक्रों द्वारा मस्तिष्क में भेजा जाएगा!
कुछ अज्ञानी लोग इस कुण्डलिनी शक्ति  का बारे में भयंकर वर्णन किया है! यह वृत्ताकार में शेषनाग जैसा मेरुदंड का मूल में गुदास्थान का पास सोया हुआ रहता है, उस को उठाने/जगाने से काट के मारेगा ऐसा कुछ लोग लिखा है! यह एक संभोगशक्ति जैसा कुछ लोग लिखा है! इन लोग का लिखा हुआ यह सब ऊहाजनित परंतु वास्तव में अनुभव करके नहीं लिखा है!
कुछ लोग जन्मतः अपना अपना कर्मानुसार बलहीन नाडीव्यवस्था (weak nervous system)का साथ जन्म लेता है! ऐसी लोगों का विचारे सब कामं का ओर ही घूमते रहता है! कुछ लोग कामं और सम्भोग से दूर रहते है! दुष्टता का सामना करना ही सच्छीलता है! कामं और सम्भोग को इष्ट होने लोग अशास्त्रीयता पद्धतियों में ध्यान करते है! ऐसा लोगों में अपरिमित कामात्रुता उत्पन्न होता और उस को नियंत्रित करने में अशक्त होते है! वे गुरु का पास जाके ‘गुरूजी, मेरा कुण्डलिनी जागृती होगया’ ऐसा कहते है! वह सुन के ‘अब और ध्यान करने को जरूरत नहीं है’ ऐसा सलाह (advice) गुरु देता है! वैसा लोग बहुत ही अज्ञानी लोग है! कुण्डलिनी शक्ति को संभोगशक्ति जैसा वर्णन करना दैवद्रोह समान है! सही डंग से योग साधना करनेवाला साधक का विचारें सब मेरुदंड में और सहस्रार में हुआ और होरहा है उन आध्यात्मिक अनुभवों का चारों ओर ही घूमते रहेगा! संभोग वांछों का वश हुआ व्यक्ती भी सही साधना यानी क्रियायोग साधना करके मुक्त होसकता है! सहस्रारचक्र को पहुंचगया कुण्डलिनी शक्ति साधक को सर्वम् यानी सर्व जगत को जितने का शक्ति प्रसादित करेगा!

मूलाधार स्वाधिष्ठान मणिपुर अनाहत विशुद्ध आज्ञा(negative) आज्ञा (positive)सहस्रार चक्रों में ॐकार उच्चारण कीजिये! मूलाधारचक्र से आज्ञा (positive)चक्र तक और आज्ञा (positive)चक्र से मूलाधारचक्र तक जितना बार कर सकते हो उतना बार ॐकार उच्चारण कीजिये और आनंदप्राप्ति अनुभव करो! 

परमात्मा ही पदार्थो का अंतरात्मा, जीवन का अर्थ, ब्रह्माण्ड का निर्वाचन और सब कुछ है! प्रथम में तुंहारा आत्मा को पढो, इसी को स्वाध्याय कहते है! तुम को तुम स्वयं जानो, इस का अर्थ ऐ ही है! समिष्टि माया को ही व्यष्टि में कुंडलिनी कहते है! एक बूंद पानी में हैड्रोजन-आक्सीजन (Hydrogen-oxygen) है करके जानने से समुद्र का पूरा जल में वह हैड्रोजन-आक्सीजन (Hydrogen-oxygen) होगा! हर एक बूंद का परिक्षा करने का अवसर नहीं है! एक पदार्थ को बुद्धि(Intellect) का उपयोग करके जानने का अर्थ उस पदार्थ का साथ ऐक्य नहीं होना ही है! परिमित बुद्धि(Intellect) से अपरिमित परमात्मा को जानना असंभव है! आत्मावाबोध(Intuitional guidance) का माध्यम से ही परमात्मचेतना व परमानंदचेतना(Bliss Consciousness) लभ्य होगा और जान सकेगा! सर्व कार्यों में और सर्व विचारों में व्याप्ति होने का शक्ति इस चेतना को है! इस परमात्मचेतना व परमानंदचेतना को प्राप्त करना ही असली मत (Religion) है बाकी सब इस का सामने कुछ भी नहीं है! 

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