सौन्दर्यलहरी
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ललाटं लावण्य द्युति विमल-माभाति तव यत्
द्वितीयं तन्मन्ये मकुटघटितं चंद्रशकलम् |
विपर्यास-न्यासा दुभयमपि संभूय च मिथः
सुधालेपस्यूतिः परिणमति राका-हिमकरः || 46 ||
दिव्य माते, आप की माथे में
अर्थ चंद्र किरीट दीप्तिमान है! अर्थ चंद्र शिव का अर्थचंद्र का साथ प्रज्वलित है! दोनों जोड़ने
से आप की माथे अमृत जैसा पूर्णचंद्र जैसा चमक रहा है!
भ्रुवौ भुग्ने किंचिद्भुवन-भय-भंगव्यसनिनि
त्वदीये नेत्राभ्यां मधुकर-रुचिभ्यां धृतगुणम् |
धनु र्मन्ये सव्येतरकर गृहीतं रतिपतेः
प्रकोष्टे मुष्टौ च स्थगयते निगूढांतर-मुमे || 47 ||
दिव्य माते, आप तीनो प्रपंच
का भय को दूर करोगे! आपकी भृकुटी, मधु मक्खी जैसी आँखे,
मन्मथ का हाथों से पकड़ा हुआ धनुष जैसी है!
अहः सूते सव्य तव नयन-मर्कात्मकतया
त्रियामां वामं ते सृजति रजनीनायकतया |
तृतीया ते दृष्टि-र्दरदलित-हेमांबुज-रुचिः
समाधत्ते संध्यां दिवसर्-निशयो-रंतरचरीम् || 48 ||
जगज्जननी, आप का दहिने आँख सूरज का रोशनी का
हेतु, और बाए आँख चन्द्रकान्ति का हेतु है! माथे का कूटस्थ
में उपस्थित अर्थनिमीळित तीसरा आँख उदय
संध्या और सायं संध्या का हेतु है!
दक्षिणे पिंगळा नाडी वह्नी मंडलगोचरा
देवानामिति ज्ञेयं पुण्यः कर्मानुसारिणी
इडा च वामा विश्वासा सोम मंडलगोचरा
पितृयानमिति ज्ञेयं वामामाश्रित्य तिष्ठति !!
जीवी पितृयानमार्ग हेतु जनम लेता है! यह चंद्र व इडानाडी संबंधित
है!
जीवी देवयानमार्ग हेतु पुण्य पाता है! यह सूरज व पिंगळा नाडी संबंधित है!
योगमार्ग पिंगळा नाडी मार्ग है! यह सुषुम्ना नाडी संबंधित है!
यह मार्ग तीसरा आँख संबंधित है!
विशाला कल्याणी स्फुतरुचि-रयोध्या कुवलयैः
कृपाधाराधारा किमपि मधुराऽऽभोगवतिका |
अवंती दृष्टिस्ते बहुनगर-विस्तार-विजया
ध्रुवं तत्तन्नाम-व्यवहरण-योग्याविजयते || 49 ||
माँ, आपका आँखे सर्व व्यापी है, स्वच्छ, अजेय प्रमाण, दयान्वित, अजेय और शब्दो में बोल नहीं सकता है!
कवीनां संदर्भ-स्तबक-मकरंदैक-रसिकं
कटाक्ष-व्याक्षेप-भ्रमरकलभौ कर्णयुगलम् |
अमुंचंतौ दृष्ट्वा तव नवरसास्वाद-तरलौ
असूया-संसर्गा-दलिकनयनं किंचिदरुणम् || 50 ||
माँ, मधु मक्खिया मात्र फूलों का गुच्छा
से मधु पीने का रूचि लेने का बहाने में माँ का आँखे का तरफ देखता है! इन को देख
के माँ का आँखें ईर्ष्या द्वेष से लाल होरहा है!
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शिवे शंगारार्द्रा तदितरजने कुत्सनपरा
सरोषा गंगायां गिरिशचरिते विस्मयवती |
हराहिभ्यो भीता सरसिरुह सौभाग्य-जननी
सखीषु स्मेरा ते मयि जननि दृष्टिः सकरुणा || 51 ||
माँ, आप का दृष्टी हमेशा प्रेम और आप्यायता का
साथ शिव का तारफ है! उस दृष्टि, भीभत्स
रस का साथ दुष्टों का तरफ, और क्रोध रस का साथ जब गंगा का
तरफ देखते हो! इधर गंगा का अर्थ प्रकृति यानी माया प्रपंच है! अद्भुत रस का साथ जब
शिव का माथा का उप्पर देखते हो!
गते कर्णाभ्यर्णं गरुत इव पक्ष्माणि दधती
पुरां भेत्तु-श्चित्तप्रशम-रस-विद्रावण फले |
इमे नेत्रे गोत्राधरपति-कुलोत्तंस-कलिके
तवाकर्णाकृष्ट स्मरशर-विलासं कलयतः|| 52 ||
जगज्जननी, आप का आँख की पलकें शिव यानी शुद्ध मन का अशांति
को दूर करते है! अवसाद दूर करता है! साधक को आदिभौतिक, आदिदैविक, और
आध्यात्मिक शांति लाता है! शुद्ध मन में कामं भी बिठाता है!
विभक्त-त्रैवर्ण्यं व्यतिकरित-लीलांजनतया
विभाति त्वन्नेत्र त्रितय मिद-मीशानदयिते |
पुनः स्रष्टुं देवान् द्रुहिण हरि-रुद्रानुपरतान्
रजः सत्वं वेभ्रत् तम इति गुणानां त्रयमिव || 53 ||
दिव्य
माता, आप का तीसरा आँख सत्व (सफ़ेद) यानी विष्णु, काला (तामस) यानी शिव, और
रजस(लाल) यानी ब्रह्मा का प्रतीक है!
पवित्रीकर्तुं नः पशुपति-पराधीन-हृदये
दयामित्रै र्नेत्रै-ररुण-धवल-श्याम रुचिभिः |
नदः शोणो गंगा तपनतनयेति ध्रुवमुम्
त्रयाणां तीर्थाना-मुपनयसि संभेद-मनघम् || 54 ||
दिव्य
माता, आप का तीसरा आँख सत्व (सफ़ेद) यानी विष्णु, काला (तामस) यानी शिव, और
रजस(लाल) यानी ब्रह्मा का प्रतीक है!
यह तीन नदियों यानी सोना, गंगा, और यमुना तीनो नदियों का
त्रिवेणी संगम है! इस का साथ हम को शुद्ध करते है!
निमेषोन्मेषाभ्यां प्रलयमुदयं याति जगति
तवेत्याहुः संतो धरणिधर-राजन्यतनये |
त्वदुन्मेषाज्जातं जगदिद-मशेषं प्रलयतः
परेत्रातुं शंंके परिहृत-निमेषा-स्तव दृशः || 55 ||
दिव्य
माता, आप का आँख बंद करने से प्रळय, और आँख खोलने से सृष्टि है! यह ही संत व्यक्ति
कहते है! पूरा जगत आप का आँखों का रक्षण में है!
तवापर्णे कर्णे जपनयन पैशुन्य चकिता
निलीयंते तोये नियत मनिमेषाः शफरिकाः |
इयं च श्री-र्बद्धच्छद\ऎम्दश् पुटकवाटं कुवलयं
जहाति प्रत्यूषे निशि च विघतय्य प्रविशति|| 56 ||
दिव्य
माता, आप का आँखे को देखने से ऐसा लगेगा की मचली पाने में छुपा हुआ जैसा लगेगा! आप
का आँखे को देखने से ऐसा लगेगा की सौंदर्यता व्यक्तिमत्व हुआ है!
दृशा द्राघीयस्या दरदलित नीलोत्पल रुचा
दवीयांसं दीनं स्नपा कृपया मामपि शिवे |
अनेनायं धन्यो भवति न च ते हानिरियता
ने वा हर्म्ये वा समकर निपातो हिमकरः || 57 ||
दिव्य
माता, आप का दयापूरक सुंदरनेत्रों मुझे परिपूर्णता देते है! मेरे तरफ देखने से आप
को कोइ नष्ट नहीं है! चाँदमाँ वनों में और भुवनो में बिना कोइ नुक्सान कांति बराबर
प्रसार करता है!
अरालं ते पालीयुगल-मगराजन्यतनये
न केषा-माधत्ते कुसुमशर कोदंड-कुतुकम् |
तिरश्चीनो यत्र श्रवणपथ-मुल्ल्ङ्य्य विलसन्
अपांग व्यासंगो दिशति शरसंधान धिषणाम् || 58 ||
दिव्य
माता, आप का सुन्दर दिखनेवाली कूटस्थ यानी माथे का दोनों तरफ अधिक सुन्दर दिखता
है! वहा तीसरा आँख का प्रकाश दोनों दिशा में व्याप्ति हुआ लगता है!
चतुश्चक्रं मन्ये तव मुखमिदं मन्मथरथम् |
यमारुह्य द्रुह्य त्यवनिरथ मर्केंदुचरणं
महावीरो मारः प्रमथपतये सज्जितवते || 59 ||
दिव्य
माता, आप का सुंदर चेहरा झुमके में प्रतिबिंबित होता है! आप का सुंदर चेहरा मन्मथ
रथ जैसा है! सूर्य और चंद्र उस का चक्रों! परमात्मा चेतना को अपनी तरफ यानी
प्रकृति व माया की तरफ आकर्षित करता है!
सरस्वत्याः सूक्ती-रमृतलहरी कौशलहरीः
पिब्नत्याः शर्वाणि श्रवण-चुलुकाभ्या-मविरलम् |
चमत्कारः-श्लाघाचलित-शिरसः कुंडलगणो
झणत्करैस्तारैः प्रतिवचन-माचष्ट इव ते || 60 ||
दिव्य
माता, आप निरंतर सरस्वती देवी की सुंदर मधु जैसा संगीत सुनते रहते हो! इस का वजह से आप की कानो का झुमका स्पंदित करता है! इस का
हेतु ॐकार उत्पादित होता है!
असौ नासावंश-स्तुहिनगिरिवण्श-ध्वजपटि
त्वदीयो नेदीयः फलतु फल-मस्माकमुचितम् |
वहत्यंतर्मुक्ताः शिशिरकर-निश्वास-गलितं
समृद्ध्या यत्तासां बहिरपि च मुक्तामणिधरः || 61 ||
जगज्जननी, आप का नाक मुझे शीतल वायु देनेदो! सुषुम्ना हम को हमारा
मोति जैसा न्याय्य इच्छाओं पूरा करनेदो!
प्रकृत्याऽऽरक्ताया-स्तव सुदति दंदच्छदरुचेः
प्रवक्ष्ये सदृश्यं जनयतु फलं विद्रुमलता |
न बिंबं तद्बिंब-प्रतिफलन-रागा-दरुणितं
तुलामध्रारोढुं कथमिव विलज्जेत कलया || 62 ||
जगज्जननी, आप का होंठ स्वाभाविक लाल रंग का है! माँ का होंठ लाल
रंग फल जैसा है!
स्मितज्योत्स्नाजालं तव वदनचंद्रस्य पिबतां
चकोराणा-मासी-दतिरसतया चंचु-जडिमा |
अतस्ते शीतांशो-रमृतलहरी माम्लरुचयः
पिबंती स्वच्छंदं निशि निशि भृशं कांजि कधिया || 63 ||
दिव्यमाता, माँ का मुखड़ा चकोर पक्षी जैसा है! वे पक्षियों माँ का
चिडखोर पीते है! इस का कारण माँ की जीब मिठास से कठोर होगया है! परिवर्तन (for a change) के लिए चकोर पक्षि खट्टा स्वाद खिचडी रात में खाता है!
साधक को पहले मूलाधार चक्र में मिठास स्वाद मिलता है! उस का पश्चात्
अनाहता चक्र में खट्टा स्वाद मिलता है!
अविश्रांतं पत्युर्गुणगण कथाम्रेडनजपा
जपापुष्पच्छाया तव जननि जिह्वा जयति सा |
यदग्रासीनायाः स्फटिकदृष-दच्छच्छविमयि
सरस्वत्या मूर्तिः परिणमति माणिक्यवपुषा || 64 ||
दिव्य माता, सदाशिव का महत्व माँ निरंतर प्रशंसा करती है! माँ, आप का
जिह्वाग्र में सरस्वतीमाँ रहती है! इस का हेतु माँ का जीब लाल रंग होगया है!
रणे जित्वा दैत्या नपहृत-शिरस्त्रैः कवचिभिः
निवृत्तै-श्चंडांश-त्रिपुरहर-निर्माल्य-विमुखैः |
विशाखेंद्रोपेंद्रैः शशिविशद-कर्पूरशकला
विलीयंते मातस्तव वदनतांबूल-कबलाः || 65 ||
दिव्य माता, शिव (शुद्ध मन) नकारात्मक शक्तियों को नियमित किया है! उन
का गर्व नाश कर दिया है!
कुमारस्वामि : जो मनुष्य अपने आप को जानगया उस मनुष्य को स्वामि, और
कुमार का अर्थ युवा और ऊरजवान् यानी युवा और ऊरजवान् अपने आप को जानगया मनुष्य ही
कुमारस्वामि है!
इंद्र : मन और इंद्रियों को नियंत्रित करनेवाला
विष्णु: सर्व
व्यापक चेतना ही विष्णु है!
विपंच्या गायंती विविध-मपदानं पशुपते-
स्त्वयारब्धे वक्तुं चलितशिरसा साधुवचने |
तदीयै-र्माधुर्यै-रपलपित-तंत्रीकलरवां
निजां वीणां वाणीं निचुलयति चोलेन निभृतम् || 66 ||
निजां वीणां वाणीं निचुलयति चोलेन निभृतम् || 66 ||
शिव का विविध प्रकारों का साहस कृत्यों सरस्वती देवी संगीतयुक्त गाती है! सरस्वती माँ का वीणावाद्य प्रवीणता
जगज्जननी का मधुर संगीत कौशलता का सामने कुछ भी नहीं है!
करग्रेण स्पृष्टं तुहिनगिरिणा वत्सलतया
गिरिशेनो-दस्तं मुहुरधरपानाकुलतया |
करग्राह्यं शंभोर्मुखमुकुरवृंतं गिरिसुते
कथंकरं ब्रूम-स्तव चुबुकमोपम्यरहितम् || 67 ||
दिव्यमाता, जब परमात्मा चेतना परिपूर्णता होगी, शीतलता खोपड़ी को
स्पर्श करेगा,!
भुजाश्लेषान्नित्यं पुरदमयितुः कन्टकवती
तव ग्रीवा धत्ते मुखकमलनाल-श्रियमियम् |
स्वतः श्वेता काला गरु बहुल-जंबालमलिना
मृणालीलालित्यं वहति यदधो हारलतिका || 68 ||
दिव्यमाता, शिव (पुरुष) का
आलिंगन में होता हुआ भी आप (प्रकृति) का चेहरा बहुत सुन्दर है! आप का सुंदरता शुद्ध, पवित्र, और मोतीका
माला पहना हुआ लगता है!
गले रेखास्तिस्रो गति गमक गीतैक निपुणे
विवाह-व्यानद्ध-प्रगुणगुण-संख्या प्रतिभुवः |
विराजंते नानाविध-मधुर-रागाकर-भुवां
त्रयाणां ग्रामाणां स्थिति-नियम-सीमान इव ते || 69 ||
दिव्या माता, संगीत गाने में
आप विशेषज्ञ है! कंठ में तीन सिलवटों तीन पवित्र रेखावाली धागा जैसा दिखता
है! कळ्याणि इत्यादि रागों को
आश्रमस्थान दिया षड्जा, मध्यमा, और गांधार का अस्तित्व विराजमान है!
मृणाली-मृद्वीनां तव भुजलतानां चतसृणां
चतुर्भिः सौंद्रयं सरसिजभवः स्तौति वदनैः |
नखेभ्यः संत्रस्यन् प्रथम-मथना दंतकरिपोः
चतुर्णां शीर्षाणां सम-मभयहस्तार्पण-धिया || 70 ||
माँ, आप का सुंदर और नरम चार भुजो ब्रह्मा का चार शिर को प्रतिनिधित्व
करते है! एक भुज मनको (वायु तत्व), एक भुज बुद्धि (अग्नि तत्व), एक भुज चित्त (जल
तत्व), और एक भुज अहंकार (पृथ्वी तत्व) को प्रतिनिधित्व करते है!
प्रळय में सदाशिव आकाश तत्व को प्रतिनिधित्व करते है! इस तत्व सब
तत्वों से अत्यंत सूक्ष्म तत्व जिसको सदाशिव पास रख दिया है!
नखाना-मुद्योतै-र्नवनलिनरागं विहसतां
कराणां ते कांतिं कथय कथयामः कथमुमे |
कयाचिद्वा साम्यं भजतु कलया हंत कमलं
यदि क्रीडल्लक्ष्मी-चरणतल-लाक्षारस-चणम् || 71 ||
जगज्जननी, आप का हाथ नाखून का साथ अत्यंत सुंदर लगता है! इन हाथो से
जो चमक बाहर निकलता वह अत्यंत वर्णनातीत है! लक्ष्मीदेवी का लाल रंग का कमलपैर का
अत्यंत रमणीय है!
समं देवि स्कंद द्विपिवदन पीतं स्तनयुगं
तवेदं नः खेदं हरतु सततं प्रस्नुत-मुखम् |
यदालोक्याशंकाकुलित हृदयो हासजनकः
स्वकुंभौ हेरंबः परिमृशति हस्तेन झडिति || 72 ||
कुमारस्वामि (अपने आप को जाननेवाला युवा और ऊर्जावान), और गणेशा (इन्द्रियों का
नायक)
दिव्य माते, आप का उदार हृदय (अनाहतचक्र) नित्यं विशालता कि
वर्ष बरशते है! जिसको दोनों गुणों है! उदार हृदय दिव्य माता उन को देखते है!
अमू ते वक्षोजा-वमृतरस-माणिक्य कुतुपौ
न संदेहस्पंदो नगपति पताके मनसि नः |
पिबंतौ तौ यस्मा दविदित वधूसंग रसिकौ
कुमारावद्यापि द्विरदवदन-क्रौंच्दलनौ || 73 ||
जगज्जननी, आप का अनाहतचक्र (ह्रदय) निश्चय अमृत से भरा हुआ है! इस का हेतु कुमारस्वामि अपने आप को जाननेवाला युवा और ऊर्जावान बनगया, और गणेश इंद्रियों का नायक बन गया है!
गणेश को दो बीबियाँ यानी सिद्धि (परिपूर्णता) और बुद्धि है!
जिसको बुद्धि है उस को सिद्धि (परिपूर्णता) मिलेगा!
कुमारस्वामि को दो बीबियाँ यानी वल्ली (असाधारण) और देवसेना
(सकारात्मक शक्तियोका सेना)! जो असाधारण है वह ही सकारात्मक शक्तियोका सेना नायक
यानी कुमारस्वामि बनेगा!
वहत्यंब स्तंबेरम-दनुज-कुंभप्रकृतिभिः
समारब्धां मुक्तामणिभिरमलां हारलतिकाम् |
कुचाभोगो बिंबाधर-रुचिभि-रंतः शबलितां
प्रताप-व्यामिश्रां पुरदमयितुः कीर्तिमिव ते || 74 ||
दिव्य माते, अनहता और विशुद्ध दोनों का बीच में स्वच्छा और
शुद्ध मोतियों का माला से कवर (cover) किया है! वह माला शिव का कीर्ति
से भरा हुआ है!
तव स्तन्यं मन्ये धरणिधरकन्ये हृदयतः
पयः पारावारः परिवहति सारस्वतमिव |
दयावत्या दत्तं द्रविडशिशु-रास्वाद्य तव यत्
कवीनां प्रौढाना मजनि कमनीयः कवयिता || 75 ||
दिव्य माते, यह शंकर आपका अनाहताचक्र और इडा पिंगळा नाड़ियो
का माध्यम से उत्पन्न हुआ है! जिसका दया हेतु इस शंकरा कवी का जन्मा हुआ और
कवित्वधारा बहा गया है!
हरक्रोध-ज्वालावलिभि-रवलीढेन वपुषा
गभीरे ते नाभीसरसि कृतसङो मनसिजः |
समुत्तस्थौ तस्मा-दचलतनये धूमलतिका
जनस्तां जानीते तव जननि रोमावलिरिति || 76 ||
दिव्य माते, मन्मथ कामदेवता है! वह शुद्ध मन को परेशान किया
है! शुद्ध मन को
गुस्सा आगया है! शुद्ध मन उस को भस्म किया है! नाभी (मणिपुर) में छिप गया है! उधर से लता जैसा धुँआ निकला है! वह पतलासा धुँआ
केश जैसा लगरहा है!
इस का अर्थ साधक का कुण्डलिनी मणिपुर से सहस्रार तक यानी
उप्पर तक सुषुम्ना नाडी का माध्यम से पहुँचने को परिपूर्णता प्राप्त किया है!
यहाँ नाभी मणिपुर, दोनों स्तन इडा और पिंगळा नाडियाँ,
पतलासा धुँआ जैसा केश उप्पर सुषुम्ना नाडी का माध्यम से सहस्रार तक पहुँचने
परिपूर्णता प्राप्त किया कुण्डलिनी है!
यदेतत्कालिंदी-तनुतर-तरंगाकृति शिवे
कृशे मध्ये किंचिज्जननि तव यद्भाति सुधियाम् |
विमर्दा-दन्योन्यं कुचकलशयो-रंतरगतं
तनूभूतं व्योम प्रविशदिव नाभिं कुहरिणीम् || 77 ||
दिव्या माता, आपका कटी प्रदेश यमुना नदी का छोटासा पतला
तरंग जैसा लगा रहा है! यमुना यानि मूलाधारा, अनाहता, और विशुद्ध तीनो एक संगम लग
रहा है! तीनों इडा और पिंगळा का साथ टकराके (collide) मणिपुर यानी नाभी में प्रवेश करा
रहे है! ऐसा लगरहा है!
स्थिरो गंगा वर्तः स्तनमुकुल-रोमावलि-लता
कलावालं कुंडं कुसुमशर तेजो-हुतभुजः |
रते-र्लीलागारं किमपि तव नाभिर्गिरिसुते
बेलद्वारं सिद्धे-र्गिरिशनयनानां विजयते || 78 ||
दिव्या माता, आपका नाभी (मणिपुर) गंगा में स्थिर रूप में
भँवर जैसा लग रहा है! अनहता को जानेवाले पतलासा लता जैसा लग रहा है! वह कामदेवता का यज्ञाग्निगुंड जैसा लग रहा है! स्तन इडा और पिंगळा है! स्तन व इडा और
पिंगळा का मध्यप्रदेश साधक को सुषुम्ना मार्ग,
और संसारी को रतीदेवी व मन्मथ का खेलने का जगा है! वह सदाशिव का तपस करने
गुफा है!
ईर्ष्या द्वेष मणिपुरचक्र में दग्ध होजाता है! वह कामाँ
देवता का अग्नि गुंड है! दिव्यमाता का नाभिस्थान रति देवी का खेल स्थान है! वह ही
सदाशिव का गुफा है! दिव्यमाता का नाभी
वर्णनातीत है!
निसर्ग-क्षीणस्य स्तनतट-भरेण क्लमजुषो
नमन्मूर्ते र्नारीतिलक शनकै-स्त्रुट्यत इव |
चिरं ते मध्यस्य त्रुटित तटिनी-तीर-तरुणा
समावस्था-स्थेम्नो भवतु कुशलं शैलतनये || 79 ||
दिव्या माता, आप का
अनाहतचक्र, यानी इडा और पिंगळा का मध्य प्रदेश हम को शुभ करनेदो! आपका कटी यानी
मूलाधार प्रदेश हम को शुभ करनेदो! आपका स्वाधिष्ठान प्रदेश हम को क्षेमं करनेदो!
कुचौ सद्यः स्विद्य-त्तटघटित-कूर्पासभिदुरौ
कषंतौ-दौर्मूले कनककलशाभौ कलयता |
तव त्रातुं भंगादलमिति वलग्नं तनुभुवा
त्रिधा नद्ध्म् देवी त्रिवलि लवलीवल्लिभिरिव || 80 ||
दिव्या माता, आप का कांतिपुरक अनाहताचक्र, आपका स्वाधिष्ठान
और मणिपुरचक्र साधना में हमको अत्यंत
सुन्दर लगता है!
गुरुत्वं विस्तारं क्षितिधरपतिः पार्वति निजात्
नितंबा-दाच्छिद्य त्वयि हरण रूपेण निदधे |
अतस्ते विस्तीर्णो गुरुरयमशेषां वसुमतीं
नितंब-प्राग्भारः स्थगयति सघुत्वं नयति च || 81 ||
दिव्यमाता, आप को स्त्रीधन का बदल में आप की पिताश्री ने
बहुत वजन दिया है! इसी हेतु पूरा जगत धरने को आप को कोई आपत्ति नहीं है! इस का
अर्थ सारे चराचर प्रपंच धरने माँ को बहुत ही आसान है!
करींद्राणां शुंडान्-कनककदली-कांडपटलीं
उभाभ्यामूरुभ्या-मुभयमपि निर्जित्य भवति |
सुवृत्ताभ्यां पत्युः प्रणतिकठिनाभ्यां गिरिसुते
विधिज्ञे जानुभ्यां विबुध करिकुंभ द्वयमसि || 82 ||
दिव्यमाता, आपकी सुवर्ण जांघो कदळी के वृक्षों के तने और
हाथी की सूंड जैसा मजबूती है! आप की पवित्र घुटने शिव को नमस्कार करता हुआ बहुत
सकते हुआ है!
पराजेतुं रुद्रं द्विगुणशरगर्भौ गिरिसुते
निषंगौ जंघे ते विषमविशिखो बाढ-मकृत |
यदग्रे दृस्यंते दशशरफलाः पादयुगली
नखाग्रच्छन्मानः सुर मुकुट-शाणैक-निशिताः || 83 ||
दिव्यमाता, पुरुष (शिव) को जितने का हेतु, मन्मथ ने पांच
बाण आकाश, वायु, अग्नि, जलं, और पृथ्वी बना दिया था! मन्मथ सुंदर प्रकृति यानी माँ
को बना दिया था!
श्रुतीनां मूर्धानो दधति तव यौ शेखरतया
ममाप्येतौ मातः शेरसि दयया देहि चरणौ |
यय//ओः पाद्यं पाथः पशुपति जटाजूट तटिनी
ययो-र्लाक्षा-लक्ष्मी-ररुण हरिचूडामणि रुचिः || 84 ||
दिव्यमाता, संसार में रहता हुआ आसक्ति नहीं हुआ आप की
पद्मपाद को शास्त्रों पूजा करते है! वैसा पद्मा/कमल पाद मेरा शिर का उप्पर करुणा
हृदय से रखो माँ! शुद्ध मनस्कों को धुलाई करने गंगा ही आप का पैरों को धुलाई करता
है! भगवान विष्णु का चूडामणि का कांती भी यह धुलाई का कांती ही है!
नमो वाकं ब्रूमो नयन-रमणीयाय पदयोः
तवास्मै द्वंद्वाय स्फुट-रुचि रसालक्तकवते |
असूयत्यत्यंतं यदभिहननाय स्पृहयते
पशूना-मीशानः प्रमदवन-कंकेलितरवे || 85 ||
दिव्यमाता, आप का पादों को नमस्कार, उस पादों का सिदूर अधिक
पवित्र है! शिव यानी शुद्ध मन माँ का पदचिह्न के साथ टकराने को तड़पता है!
मृषा कृत्वा गोत्रस्खलन-मथ वैलक्ष्यनमितं
ललाटे भर्तारं चरणकमले ताडयति ते |
चिरादंतः शल्यं दहनकृत मुन्मूलितवता
तुलाकोटिक्वाणैः किलिकिलित मीशान रिपुणा || 86 ||
दिव्यमाता, पुरुष का माथा को
आप पैर से स्पर्श किया था! इसे लगता है की कामदेवता शिव यानी शुद्ध मन को जित गया है!
यानी सुंदर प्रकृति पुरुष को जीता गया है!
आदिशंकरा इधर कहा गया है की परमात्म चेतना और माया चेतना
दोनों इस माया संसार के लिए बिलकुल जरूरी है!
शुक्रं (sperm) उप्पर दिशा में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहता,
विशुद्ध, आज्ञा, और सहस्रार चक्रों में ओजस और ब्राजस बाधाओं पार करेगा!
त्रेताग्नि में शुक्रं (sperm) को दक्षिनाग्नि कहते है! वह
इंद्रियों को शांति करेगा, और कामं को संतृप्ति करेगा!
संतान पायदा करनेवाली शुक्रं (sperm) को गार्हपत्याग्नि कहते है!
आध्यात्मिक उन्नति को उपयोगी शुक्रं (sperm) को आवहनीयाग्नि कहते है!
दक्षिनाग्नि और गार्हपत्याग्नि दोनों नीचे जानेवाली शुक्रं
(sperm) है! इसी लिए दोनों अथोमार्ग है!
उप्पर जानेवाली शुक्रं (sperm) को आवहनीयाग्नी कहते है! यह
ऊर्ध्वमार्ग और इस को सुषुम्नामार्ग कहते
है!
अथोमार्ग शुक्रं पाताळ मार्ग का है!
अथोमार्ग गार्हपत्याग्नि शुक्रं को मर्त्यलोकमार्ग कहते है!
कुण्डलिनी सिद्धि उपयोगी शुक्रं यानी आवहनीयाग्नी
ऊर्ध्वदिशा मार्ग व देवलोक मार्ग है!
गोत्रस्खलनं :
गो = इन्द्रियों को,
त्र = रक्षण स्खलनं= वीर्य शक्ति
गोत्रस्खलनं का अर्थ वीर्य शक्तिको बलहीन करना
वीर्य को गंगा कहते है! वीर्य सहस्रारचक्र पहुँचन को
अर्थानारीश्वरतत्वं कहते है!
हिमानी हंतव्यं हिमगिरिनिवासैक-चतुरौ
निशायां निद्राणं निशि-चरमभागे च विशदौ |
वरं लक्ष्मीपात्रं श्रिय-मतिसृहंतो समयिनां
सरोजं त्वत्पादौ जननि जयत-श्चित्रमिह किम् || 87 ||
दिव्यमाता, आप का पैर कौशलपूर्ण और शीतल पहाड़ो में रहने को
सक्षम है! आप का पैर शीतल रातों में वह भी प्रकाशमान और विकास का साथ रहने को
सक्षम है! आप का कमल पैर लक्ष्मी को भक्तो को देने सक्षम है! ऐसे पैर बर्फ से
प्रभावित नहीं होते है! दिव्यमाता, आप का पैर का सामने कमल भी कुछ नहीं है!
कठोरता से ध्यान करने योगी व साधक पराशक्ति को लभ्य करेगा!
प्रथमे में पराशक्ति गरम होगी! जब
कुण्डलिनी सहस्रार तक जागृति होगी, तब कुण्डलिनीशक्ति शीतल होगी! तब उसकों हैमवति
कहते है!
पदं ते कीर्तीनां प्रपदमपदं देवि विपदां
कथं नीतं सद्भिः कठिन-कमठी-कर्पर-तुलाम् |
कथं वा बाहुभ्या-मुपयमनकाले पुरभिदा
यदादाय न्यस्तं दृषदि दयमानेन मनसा || 88 ||
दिव्यमाता, आपका पैर कीर्ति का प्रतीक है, अपख्याती का जगह
नहीं होगी! वह कछुआ शीर्ष जैसा है! हल्दी विवाहित स्त्री का अत्यंत पवित्र है! हल्दी चक्की में
पीसता है! माँ, आप का पैर भक्ति गौरव का वजह से चक्की जैसा विवाह में मानता है!
नखै-र्नाकस्त्रीणां करकमल-संकोच-शशिभिः
तरूणां दिव्यनां हसत इव ते चंडि चरणौ |
फलानि स्वःस्थेभ्यः किसलय-कराग्रेण ददतां
दरिद्रेभ्यो भद्रां श्रियमनिश-मह्नाय ददतौ || 89 |
कल्प वृक्ष सकारात्मक शक्तियों व देवो का न्यायबद्ध इच्छाओं को पूरा
करेगा! दिव्यमाता, आपकि दिव्य पैरो रक्षणापूरक संपत्ति गरीबी और श्रद्धापूरक भक्तो
को देंगी!
ददाने दीनेभ्यः श्रियमनिश-माशानुसदृशीं
अमंदं सौंदर्यं प्रकर-मकरंदं विकिरति |
तवास्मिन् मंदार-स्तबक-सुभगे यातु चरणे
निमज्जन् मज्जीवः करणचरणः ष्ट्चरणताम् || 90 ||
दिव्यमाता, न्यायबद्ध इचछाओं और संपत्ति श्रद्धापूरक गरीबी भक्तो को
देंगी! वैसा दयापूरक दिव्य पैरो को नमस्कार करता हु! आप का पैर सुन्दरता और मथुर गुण का सम्मिळन् है! आप का
चरणों में मंथर फूल समर्पण करता हु! आप का चरणों में मनसा वाचा कर्मणा साष्टांग
नमस्कार करता हु! यह भ्रमर कीटक न्याय जैसा है!
पदन्यास-क्रीडा परिचय-मिवारब्धु-मनसः
स्खलंतस्ते खेलं भवनकलहंसा न जहति |
अतस्तेषां शिक्षां सुभगमणि-मंजीर-रणित-
च्छलादाचक्षाणं चरणकमलं चारुचरिते || 91 ||
दिव्यमाता, राजहंस का खेल सीखनेवाले साधको आप का इंतेजार में है ताकि
वे लोग उचित प्राणायाम प्रणालीगत और लयबद्ध तरीके से सीखने सक्षम रहे!
राज = वह गंभीर मुद्दा है!, हंस = आसानी से लेने वाला नही है!, राजहंस का अर्थ : वह गंभीर मुद्दा है, आसानी से
लेने वाला नही है!
हंस = यह पक्षी हंसा नहीं,
श्वास हंसा है!
हाँ सा = एक श्वास + एक निश्वास
12 क्रमशिक्षणासहित श्वास +
12 क्रमशिक्षणा सहित निश्वास = 1 धारणा
प्राणायाम
दिव्या माँ मराळी मंदगमना यानी दिव्यमाता ही क्रमशिक्षणा
सहित निरंतर प्राणायाम करने में अत्यंत श्रेष्ठतम विशेषज्ञ है!
क्रमशिक्षणा सहित निरंतर प्राणायाम करने में अत्यंत
श्रेष्ठतम विशेषज्ञ को परमहंस कहते है!
गतास्ते मंचत्वं द्रुहिण हरि रुद्रेश्वर भृतः
शिवः स्वच्छ-च्छाया-घटित-कपट-प्रच्छदपटः |
त्वदीयानां भासां प्रतिफलन रागारुणतया
शरीरी शृंगारो रस इव दृशां दोग्धि कुतुकम् || 92 ||
दिव्यमाता, ब्रह्मा, रूद्र, विष्णु, और ईश्वर खाट का चार पैर जैसा आप
चारो दिशा में सदाशिवतत्व का साथ विराजमान है!
साधना में कुण्डलिनी ऊर्ध्वगति लभ्य करता है!
तब ब्रह्मग्रंथि(brain of instincts & desires), रूद्रग्रंथि (brain of emotions & affections), & विष्णुग्रंथि (brain of inintellect & wisdom) पार करता है! इन तीनो स्थति पार करके महत्वापूर्ण स्थति
यानी सदाशिव स्थति पहुंचता है!
ब्रह्मग्रंथि : मूलाधरा – स्वाधिष्ठान - मणिपुर
रूद्रग्रंथि : मणिपुर – विशुद्ध
विष्णुग्रंथि : विशुद्ध – आज्ञा – सहस्रार
साधक तीनो स्थितिया पार कर के सदाशिव स्थति पहुंचता है! इस
को अर्थानारीश्वर स्थति कहते है!
अराला केशेषु प्रकृति सरला मंदहसिते
शिरीषाभा चित्ते दृषदुपलशोभा कुचतटे |
भृशं तन्वी मध्ये पृथु-रुरसिजारोह विषये
जगत्त्रतुं शंभो-र्जयति करुणा काचिदरुणा || 93 ||
दिव्यमाता, आपका घुंघराले केश, आपका मुस्कराती, आपका नरम मन बहुत
सुन्दर है! इनका साथ आपका इडा पिंगळ का मध्य उप स्थित सुषुम्ना मार्ग, और बलोपेत
मूलाधार बहुत सुंदर है! इनका साथ आपका सदाशिवतत्व और ‘अरुण’ नाम का शक्ति जगत को
रक्षा देती है!
कलंकः कस्तूरी रजनिकर बिंबं जलमयं
कलाभिः कर्पूरै-र्मरकतकरंडं निबिडितम् |
अतस्त्वद्भोगेन प्रतिदिनमिदं रिक्तकुहरं
विधि-र्भूयो भूयो निबिडयति नूनं तव कृते || 94 ||
दिव्यमाता, चंद्र माँ आपका आभरण रखने एक पेट्टि है! चंद्र का कालापन
कस्तूरी है! चंद्र का पानी आप नहाने का पानी है! खाली होने परा ब्रहमा ने इस को
भरके रखता है!
पुरारंते-रंतः पुरमसि तत-स्त्वचरणयोः
सपर्या-मर्यादा तरलकरणाना-मसुलभा |
तथा ह्येते नीताः शतमखमुखाः सिद्धिमतुलां
तव द्वारोपांतः स्थितिभि-रणिमाद्याभि-रमराः || 95 ||
दिव्यमाता, आप शिव का पत्नी है! शिव तीनो यानी भौतिक, सूक्ष्म, और
कारण पुरों का नायक है!
माँ, आप का पवित्र पाद प्रक्षाळन करना साधारण विषय नहीं है! देवो जैसा
इंद्र इत्यादि आप का कृपा का अनुसार अणिमा इत्यादि सिद्धियों लभ्य कियाहै! इंद्र का अर्थ शुद्ध मन है!
कलत्रं वैधात्रं कतिकति भजंते न कवयः
श्रियो देव्याः को वा न भवति पतिः कैरपि धनैः |
महादेवं हित्वा तव सति सतीना-मचरमे
कुचभ्या-मासंगः कुरवक-तरो-रप्यसुलभः || 96 ||
दिव्यमाता, अनेक विद्वान् लोग ब्रह्मा – सरस्वती को
प्रार्थना करके विद्या प्राप्त करता है! लक्षीदेवी को ध्यान करके लक्ष्मीपति बनता
है! परंतु जगज्जननी माँ, आप को लभ्य करना अनितरसाध्य है! माँ का दया प्राप्त होने
से माँ का चित शक्ति उत्पन्न होगा!
गिरामाहु-र्देवीं द्रुहिणगृहिणी-मागमविदो
हरेः पत्नीं पद्मां हरसहचरी-मद्रितनयाम् |
तुरीया कापि त्वं दुरधिगम-निस्सीम-महिमा
महामाया विश्वं भ्रमयसि परब्रह्ममहिषि || 97 ||
दिव्यमाता,
पराशक्ति, आप परब्रह्म का साथ उपस्थित है!
जो आप को जानता, वो आपको सरस्वती माँ व लक्ष्मी माँ अथवा पार्वती माँ जैसा
पूजा करेगा! आप तीने में से
प्रत्येक है! आप अद्वितीय महामाया है! माँ, आप इस जड़ प्रपंच को चेतना देते हो! आप
सब सीमायों के परे है!
कदा काले मातः
कथय कलितालक्तकरसं
पिबेयं विद्यार्थी तव चरण-निर्णेजनजलम् |
प्रकृत्या मूकानामपि च कविता0कारणतया
कदा धत्ते वाणीमुखकमल-तांबूल-रसताम् || 98 ||
दिव्यमाता,
आप का लाल पैरो को धुलाई किया पाने कब पी सकूंगा? उस पानी जब गूंगा पीएगा वह बोल
सकेगा, बहरा पीएगा वह सुनने को सक्षम
होगा! माँ, आप का दया कब मिलेगा?
सरस्वत्या लक्ष्म्या विधि हरि सपत्नो विहरते
रतेः पतिव्रत्यं शिथिलपति रम्येण वपुषा |
चिरं जीवन्नेव क्षपित-पशुपाश-व्यतिकरः
परानंदाभिख्यं रसयति रसं त्वद्भजनवान् || 99 ||
दिव्यमाता,
सरस्वति – ब्रह्मा, लक्ष्मी – विष्णु, दोनों को आप का उप्पर ईर्ष्या द्वेष से पूजा
करते है! कामादेवता भी आप का
उप्पर ईर्ष्या द्वेष से पूजा करता है! आप को पूजा करनेवाला भक्त माया से अनासक्त
होगा! वह परमानंद में डूब जायेगा!
प्रदीप ज्वालाभि-र्दिवसकर-नीराजनविधिः
सुधासूते-श्चंद्रोपल-जललवै-रघ्यरचना |
स्वकीयैरंभोभिः सलिल-निधि-सौहित्यकरणं
त्वदीयाभि-र्वाग्भि-स्तव जननि वाचां स्तुतिरियम् || 100 ||
माँ सरस्वती, सूरज को कपूर हारती
जैसा, चन्द्र का पत्थर से पानी लेकर उसी पानी को चंद्र को अर्पित करना जैसा,
समुद्र का पानी समुद्र को ही अर्पित करना जैसा, इस प्रार्थना स्तोत्रं उस माँ
सरस्वती को अर्पित करता हु!
सौंदयलहरि मुख्यस्तोत्रं संवार्तदायकम् |
भगवद्पादेन विरचितं पठेन् मुक्तौ भवेन्नरः ||
सौंदर्यलहरि स्तोत्रं संपूर्णं
भगवद्पादेन विरचितं पठेन् मुक्तौ भवेन्नरः ||
सौंदर्यलहरि स्तोत्रं संपूर्णं
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