सौन्दर्यलहरी

1.  प्रथमाभागः  -  सौंदर्यलहरी
शिव शक्त्यायुक्तो यदि भवति शक्तः प्रभावितुम्
नचेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पंदितुमपि
अतस्त्वाम आराध्याम् हरि हर विरिंचादिभि रपि
प्रणंतु स्तोतुं वा कथमक्त्र पुण्यः प्रभवति      1
परब्रह्मण् शिव (potential energy) जगद्रचना करेगा और करते रहेगा! परंतु वह शक्ति (kinetic energy) बिना काम नहि करसकेगा! ब्रह्मा (सृष्टि)विष्णु )स्थिति)और शिव (लाया ) इन तीनों तीन प्रकार का स्पंदनाये है! शक्ति बिना इन तीनों स्पंदन नहीं कर सकता है! चलने वालि शक्ति को kinetic energy कहते है! अम्मा, catalyst यानी प्रेरेपण करने शक्ति इन तीनों का आप ही है! मै शक्तिहीन हु! मै तुझे कैसा पा
सकता हु?
तनीयांसु पांसु तव चरण पंकेरुह भवं
विरिंचिः संचिंन्वन विरचयति लोकानविकलम्
वहत्येनं शौरिः कदमापि सहस्रेण शिरसां
हरः सक्षुद् यैनं भजति भसितोद्धूल नविधिं   2

इच्छाशक्तिक्रियाशक्तिऔर ज्ञानशक्ति इन तीन शक्तियों का माध्यम से इस जगत को चलानेवाली इस दिव्य माता ही है!  ब्रह्म (सृष्टि)विष्णु (स्थिति)और शिव (लय) अपना अपना परिधि का काम्यकाम इस दिव्य माता का माध्यम से काम करवाते हुवे शक्तिमान जैसा मान्यता लभ्य करते है!

अविद्याना मंत स्तिमिर मिहिर द्वीपनगरी
जडानां चैतन्य स्तबक मकरंद श्रुतिझरी
दरिद्राणां चिंतामणि गुणनिका जन्मजलधौ
निमग्नानां दंष्ट्रा मुररिपु वराहस्य भवति  3

अविद्याना मंत स्तिमिर मिहिर द्वीपनगरी अर्थात  दिव्या माता का पादों का धूलि मनुष्य का अंदर का अविद्या कालापन निकलने का सक्षम है, 
जडानां चैतन्य स्तबक मकरंद श्रुतिझरी अर्थात माँ का करुण मंदबुद्धि लोगों का जडत्व दूर करने और चैतन्य प्रवाह लाने सक्षम मधु प्रवाह जैसा है!
दरिद्राणां चिंतामणि गुणनिका जन्मजलधौ अर्थात अम्मा का करुण दरिद्रता को निकालके ऐश्वर्य लाने चिंतामणि माला जैसा है
निमग्नानां दंष्ट्रा मुररिपु वराहस्य भवति अर्थात  हिरण्याक्ष राक्षस ने समुद्र में भूमी और उस का साथ प्रजावों को समुद्र में डालदिया था! भूमी और उस का साथ प्रजावों को रक्षा करने हेतु श्री महाविष्णु वराह रूप में अपना दो दांतों से बाहर लाया था! माँ का कृपा वैसा श्री महाविष्णु का दंतद्वय जैसा है!
इधर मनुष्य पृथ्वी का प्रतीक है! मनुष्य का युक्तवयस व यौवन दशा आने पश्चात दो ज्ञान दंत आते है! ये दांत ज्ञान का प्रतीक है! इसी का तात्पर्य यह है कि हे मनुष्य! इस संसार पानी जैसा है, इस में मत डुबोक्रियायोग साधना करोज्ञान प्राप्ती करोपरमात्मा का साथ अनुसंथान करो! वराह का अर्थ वरिष्ट राह यानी महत्वपूर्ण रास्ता व आत्म ज्ञान ही है! ब्रह्मग्रंथि विच्छेदन करोज्ञान प्राप्ति करो! इस का तात्पर्य यह ही है!


त्वदन्यः पाणिभया मभयवरदो दैवतगणः
त्वमेकानैवासि प्रकटित वरभीत्यभिनया
भयात् त्रातुं दातुं फलमपि च वांछा समधिकं
शरण्ये लोकानां तव हि चरणावेव निपुणौ    4

और बाकी कोई देवता मेरे आसरा नहीं देने से भीतुम एक ही माता बिना मांगे वर देते हो! इस दुनिया को पता भी नहीं चलेगा तुम अपने भक्त को इतना वरदान करते हुए भी और किसी को पता भी नहीं चलने देगा! मेरा इच्छावों को पूरा करने तुम्हारा पैर का धुल ही काफी है! 
हरिस्त्वामाराध्य प्रणत जन सौभाग्य जननीं
पूरा नारी भूत्वा पुररिपुमपि क्षोभमनयत्
स्मरोपि त्वां नत्वा रतिनयन लेह्येन वपुषा
मुनीनामप्यंतः प्रभवति ही मोहाय महतां   5

दिव्या माता, आप को जो भी पूजा किया उन सबको को वर देंगे! श्री महाविष्णु जिस ने आप का उप्पर स्त्री रूप धारण किया, वो भी आप को पूजा करते है! मन्मथ आप का कृपा का कारण अपना शरीर सौंदर्य प्राप्त  किया जिस से अपना भार्या रतीदेवी का प्रशंसा पाया है! जितेंद्रिय ऋषि मुनियों को भी परवश कराणे सौंदर्य पाया है!

धनुः पौष्पं मौर्वी मधुकरमयी पंच विशिखाः
वसंतः सामंतो मलयमरु-दायोधन-रथः |
तथाप्येकः सर्वं हिमगिरिसुते कामपि कृपां
अपांगात्ते लब्ध्वा जगदिद-मनंगो विजयते || 6 ||
अम्मा, जगज्जननी, फूलों का धनुष, जुगनूऑ का पंक्तियों से बनाया धनु नाल, गिननेके लिए पांच धनुर्बानअल्पायु और जड़ वसंतकाल अपना साथी, मलयमारुत ही अपना रथ ये समर्थनीय नहीं होने से भी इस सामग्री का साथ बिना शरीर नहीं होते हुए भी मन्मथ तुम को आराथान करके आपका कृपा का पात्र होता, और इस जगत को जीतता है !
वसंत ऋतु और मलयमारुत दोनों अल्पकाल होनेवाले है!
पांच धनुर्बान आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी
और धनुष -  मन
प्रलोभ को वश नहीं हुआ जितेंद्रिय साधक अम्मा का करुना प्राप्त करके, क्रियायोगध्यान का हेतु निश्चल मन से इस जगत को जीतता है !

क्वणत्कांची-दामा करि कलभ कुंभ-स्तननता
परिक्षीणा मध्ये परिणत शरच्चंद्र-वदना |
धनुर्बाणान् पाशं सृणिमपि दधाना करतलैः
पुरस्ता दास्तां नः पुरमथितु राहो-पुरुषिका || 7 ||

अम्मा दिव्यजननी, आप का करधनी की झुनझुनी की घंटी शब्द करता है, यानी मूलाधार चक्र का आवाज सुनाई देरहा है!  आप का अनाहताचक्रइडा और पिंगला सूक्ष्म नाडियाँ बहुत सुंदर दिखाईदेता है, आपका प्रकाशमान आज्ञाचक्र बहुत सुंदर दिखाईदेता है, माँ का चार हाथे है, एक हाथ में ॐ बीजाक्षर का प्रतीक धनुष है! यह मनो चंचलता मिटाके संकल्पसिद्धि में बढाव लायेगा! एक हाथ में धनुर् बाण (क्लीम्  बीजाक्षर का प्रतीक इंद्रिय प्रलोभाता को मिटाके लक्ष्यसिद्धि में बढाव लाना)), एक हाथ में पाश् जिस से जीव को अपना साथ बांध के रखेगा (अं बीजाक्षर का प्रतीक मोहम को मिटाके दमम् यानी इंद्रिय निग्रह में बढाव लाना)), और एक हाथ में अंकुश (क्रोम् बीजाक्षर का प्रतीक क्रोध को मिटाके साधना में श्रद्धा  लाना), है! त्रिपुरहर शिव का साथ अम्मा मुझे प्रत्यक्षा होनेदो !

सुधासिंधोर्मध्ये सुरविट-पिवाटी-परिवृते
मणिद्वीपे नीपो-पवनवति चिंतामणि गृहे |
शिवकारे मंचे परमशिव-पर्यंक निलयाम्
भजंति त्वां धन्याः कतिचन चिदानंद-लहरीम् || 8 ||
दिव्यजननी, समुद्र का माध्यम में कप्ल्पवृक्षों से आवृत होकर, कदंबा उद्यानवन में, चिंता मणियों का गृह में, प्रभु शिव का गोद में बैठा रहते हो!  जो भाग्यवान लोग है, वो ही आप को पासकता है !
अम्मा अहंकार स्वरूपिनी है!
अहंकार = अ, +ह्, + अंक्, +अर
से तक चिह्नों का जानने का स्वरुप अम्मा है! अम्मा सुधा समुद्र का केंद्र बिंदु है!  मेरुदंड ही कल्पवृक्ष है! मणिद्वीप का अर्थ ॐकार है!
शिवकारे मंचे परमशिव-पर्यंक निलयाम् = शुद्ध मनस् में ज्ञानानंद तरंगरूप में ॐकार ध्यान आनंद स्थिति में डूबा हुआ माँ

महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं
स्थितं स्वधिष्टाने हृदि मरुत-माकाश-मुपरि |
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्वा कुलपथं
सहस्रारे पद्मे स हरहसि पत्या विहरसे || 9 ||

अम्मा, मूलाधाराचक्र में पृथ्वीतत्व, स्वाधिष्ठानचक्र में वरुण व जल तत्व, मणिपुरचक्र में अग्नितत्व, अनाहताचक्र में वायुतत्व, विशुद्धचक्र में आकाशतत्वभ्रूमध्य उपस्थित आज्ञाचक्र में मनस् तत्व, ऐसा कुलमार्ग छेदित करके सहस्रार चक्र में पहुँच कर रहसी यानी एकांत में अपना पतिदेव शिव का साथ विहार करते हो!
मूलाधारचक्र, स्वाधिष्ठानचक्र, मणिपुरचक्र, अनाहताचक्र, विशुद्धचक्रभ्रूमध्य उपस्थित आज्ञाचक्र इन को कुल कहते है!
अम्मा प्रकृति, परमात्मा पुरुष है!  प्रकृति, और परमात्मा दोनों मिलाने से ही जगत है! यानी Potential energy परिवर्तन  होकर kinetic energy में सारूप होनेसे ही प्रपंच और उस प्रपंच चलेगा भी है!
इस का द्वारा ही कुण्डलिनी विद्या को प्राधान्यता दिया गया है! हर एक व्यक्ति में उपस्थित शक्ती कुण्डलिनी शक्ति है! कुण्डलिनी शक्ति ही अम्मा है! अम्मा सृष्टि क्रम में सूक्ष्म से स्थूल तक परिवर्तन होगा है! यह ही माया है!
माँ = नहीं,   या = यदार्थ, यानी माया का अर्थ  यदार्थ नहीं है!
स्थूल से सूक्ष्म तक होने परिवर्तन क्रम को प्रळय कहते है!
वैसा स्थूल से सूक्ष्म तक प्रळय, फिर सूक्ष्म से स्थूल तक सृष्टि वैसा परिवर्तन होते है!  स्थूल से सूक्ष्म तक शिव  और फिर सूक्ष्म से स्थूल तक शक्ति काम करते है! यह ही दुनिया है!
मनुष्य अन्न और पानीयं ग्रहण करेगा! वे क्रमशः रस, रक्त, मांस, मेधस, अस्थि, मज्जा, और शुक्र में परिवर्तन होगा!
इस शुक्र अधोमुख में प्रयाण करने से इस को मायामार्ग, पितृयानमार्ग, व कृष्णमार्ग कहते है!  इस शुक्र को गार्हपत्याग्नि, और मंदाकिनी कहते है!
ओजस्, सहस, भ्राजस, वे सब अत्यंत सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम, है! ये शुक्र  से भे अत्यंत सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम, है! आवहनीयाग्नी, वियत गंगा इति नामो से पुकारते है! इसी को ऊर्ध्व मार्ग शुक्र, देवयान मार्ग, और शुक्लमार्ग कहते है!

सुधाधारासारै-श्चरणयुगलांत-र्विगलितैः
प्रपंचं सिन्ञंती पुनरपि रसाम्नाय-महसः|
अवाप्य स्वां भूमिं भुजगनिभ-मध्युष्ट-वलयं
स्वमात्मानं कृत्वा स्वपिषि कुलकुंडे कुहरिणि || 10 ||

जगज्जननी, तुम्हारा पादद्वयम से अमृत फिसल जाता है! वह पूरा शरीर में 72000 सूक्ष्म नाड़ियो को भिगोता है! वह सहस्रारचक्र से मूलाधारचक्र तक वह अमृत बहता है! मूलाधारचक्र में निद्राण स्थिति में 3½ turns (फेर) करके अम्मा तुम सर्प जैसा होंगे! उस सर्प का पूंछ उप्पर (higher) चक्रो मे, और फण नीचे मूलाधारचक्र में होंगे! इसी को कुण्डलिनी शक्ति कहते है! इस का अर्थ कुण्डलिनी शक्ति ऊर्ध्व मार्ग में सहस्रारचक्र में  यानी परमात्मा का पास लेजायेगा और अधो मार्ग में मूलाधारचक्र व मायामार्ग में लेजायेगा!
ऊर्ध्व मार्ग में सहस्रारचक्र में परमात्मा का पास पहुंचानेवाली कुण्डलिनी शक्ति भी माँ ही है!
अधो मार्ग में मूलाधारचक्र में मायारूप में होनेवाली कुण्डलिनी शक्ति भी माँ ही है!
कुण्डलिनी शक्ति मनुष्य कक्ष्य में आने के लिए तीन कक्ष्य पार करना चाहिए! वे:  
1)खनिज लवण कक्ष्य (Mineral plane), 2) वृक्ष कक्ष्य (plant plane),  3) जंतुकक्ष्य (animal plane).  
बाकी शेष अथा round यानी गोल, परिपूर्णता पाना चाहिए! तभी मुक्ति प्राप्त होगा! वह ही मानवजन्मा का सार्धकता है! 
चतुर्भिः श्रीकंठैः शिवयुवतिभिः पंचभिपि
प्रभिन्नाभिः शंभोर्नवभिरपि मूलप्रकृतिभिः |
चतुश्चत्वारिंशद्-वसुदल-कलाश्च्-त्रिवलय-
त्रिरेखभिः सार्धं तव शरणकोणाः परिणताः || 11 ||

चार शिवों, पांच शिव शक्तियों, और नौ मूलकारणों है! अम्मा का निलयम श्रीचक्रम है! श्रीचक्रम का कोण, वासु यानी आठ दळ, कलाश्र यानी सोलह दळ, तीन मेखला यानी वर्तुला रेखायों, इन का साथ अम्मा का श्रीचक्रम का कोण, वसुदल यानी अष्टदळ, त्रिवलय यानी तीन वर्तुला रेखाओं, त्रिरेखाभिसार्थं यानी तीन भूपुर रेखाओं,  परिणताः यानी परिणाम होके  चवालीस होता है!
चार शिव, पांच शिव शक्तियों, नौ मूल प्रकृतियोऔर अष्टदळ, षोडशदळ, त्रिवलय रेखाए, अम्मा का श्रीचक्रम आसन इन सब मिलके 44 किनारें का साथ हुआ है!
चार शिव का अर्थ चार शिवसंबंधित चक्रों, पांच  शक्ति संबंधित चक्रों, कुल नौ चक्रों इन का साथ श्रीचक्रम् नौ चक्रात्मकम कहते है!
व्यष्टि में चर्म, रक्त, मांस, भेजा, और अस्थि व हड्डी इन पांचो शक्ति संबंधित कोण है!   
मज्जा, शुक्र, प्राण, और जीव - इन चारो शिव संबंधित कोण है!
समिष्टि में पंचभूतों, पंचतन्मात्राए, पंचकर्मेंद्रियो, पंचप्राणों, और मन – इन पांचो शक्ति संबंधित कोण है!  
माया, शुद्ध विद्या, महेश्वर, और सदाशिव - इन चारो शिव संबंधित कोण है!
श्रीचक्रम् को ही श्रीयन्त्रं कहते है!    
श्रीचक्रम् ही सर्वमंत्रों की राज्ञी या राजा कहते है! इस लिए श्रीचक्रम् श्रीचक्रराजम् व श्रीचक्रयंत्रम् कहते है!
श्रीचक्रम् दो भिन्न प्रकार का है!  1)कौलाचारपद्धती, और 2) समायाचारपद्धती
कौलाचारपद्धती श्रीचक्रम् में पांच त्रिभुजों (triangles) की शीर्ष(vertices or apexes) उप्पर की ओर  और चार त्रिभुजों (triangles) की शीर्ष(vertices or apexes) नीचे की ओर होते है!  इनको तामसगुणसम्पन्नों को अर्पिता कहते है!    
समायाचारपद्धती श्रीचक्रम् में पांच त्रिभुजों (triangles) की शीर्ष(vertices or apexes) नीचे की ओर व दिशा, और चार त्रिभुजों (triangles) की शीर्ष(vertices or apexes) उप्पर की ओर व दिशा, होते है!  इनको सत्व गुणसंपन्नों को अर्पिता करते है!
प्रकृति पुरुष मिलने से ही इस प्रपंच है!
शिव पुरुष है, और स्त्री यानी शक्ति प्रकृति है! इसी संकेत को श्रीचक्रम् दिखाते है! श्रीचक्रम् केंद्र ही श्रीचक्रनिलयम् है!  
शिव ऊर्ध्वमुख है, और शक्ति अधोमुख है!
ऊर्ध्वमुख  > शीर्ष त्रिभुज (triangle) से बननेवाले  श्रीचक्रम्  शिव का है!
अधोमुख  शीर्ष त्रिभुज (triangle) से बननेवाले श्रीचक्रम्  शक्ति का है!
नौ मूलप्रकृतिया
श्रीचक्रम् का मध्य में होने त्रिकोण  (triangle) --1,
इस त्रिकोण (triangle) का बाहर होने आठ किनारों अष्टकोण  --1,
इस अष्टकोण का बाहर होने दश किनारों दशकोण  --2,
इन दशकोण (2) का बाहर होने चौदह किनारों चतुर्दशकोण  --1,
इन कुल पांच कोणों को शक्तिचक्रो कहते है!
अष्टदळ, षोडशदळ, मेखलात्रयं, भूपुरत्रयं - इन कुल चार कोणों को शिवचक्रो कहते है!
पांचशक्ति कोणों, और चार शिव कोणों कुल मिलाके नौ होता है1  
इन नौ कोणों नौ मूलप्रकृतियां व नौ योनियाँ व पिंडांड ब्रह्मांड निर्माण हेतु होता है1
श्रीचक्रम् मध्यम केंद्र बिंदु दसवां योनी है!
इस दसवां योनी ही ईश्वरी अथवा पराशक्ति है!
चवालीस कोण 
श्रीचक्रम् केंद्र बिंदु 1, त्रिकोण 3, अष्टकोणं 8, दशारयुग्मम10x2, चतुर्दश कोणं 14,  कुल मिलाके 46, इन में दो कोण  त्रिकोण का नीचे होते है! बिंदु का साथ  44 (konams or vertices) कोणं को गिनना है!
श्रीचक्रम् गोपुर प्रस्तारम तीन (3 dimensional) भाग है: वे: 1) भू प्रस्तारम,  2)मध्य कैलाश प्रस्तारम, और 3) मेरु प्रस्तारम इति!
इस मेरु प्रस्तारम ही शृंग मध्य स्थानं है!
 
त्वदीयं सौंदर्यं तुहिनगिरिकन्ये तुलयितुं
कवींद्राः कल्पंते कथमपि विरिंचि-प्रभृतयः |
यदालोकौत्सुक्या-दमरललना यांति मनसा
तपोभिर्दुष्प्रापामपि गिरिश-सायुज्य-पदवीम् || 12 ||
अम्मा ही पराशक्ति का महत्वपूर्ण सुन्दररूप है! इसका तौल ब्रह्मा, विष्णु, इंद्रा, और कविश्रेष्ठ को भी साध्य नहीं है! आप केवल शुद्ध मन और क्रियायोग से साध्य है!  आप का तौल देवताओं और तपस से भी साध्य नहीं है!
साधक तीव्र ध्यान करने पश्चात शीतल और मधुर स्पंदन प्राप्त करेगा! इस चेतना को परमात्मा चेतना कहते है! वैसा शीतल और मधुर लभ्य करने मनुष्य हिमवंत व परावंत कहते है! वैसा स्त्री हैमवती अथवा परावति यानी पार्वती कहलाते है!

नरं वर्षीयांसं नयनविरसं नर्मसु जडं
तवापांगालोके पतित-मनुधावंति शतशः |
गलद्वेणीबंधाः कुचकलश-विस्त्रिस्त-सिचया
हटात् त्रुट्यत्काञ्यो विगलित-दुकूला युवतयः || 13 ||
दिव्य जननी, वह जितना भी वृद्ध होने दो, विकारस्वरूप होने दो, गोप्य विषयो छिपाने को जड़ होने दो, अम्मा का इषारा काफी है, मनुष्य बंधं से मुक्त होजाएंगे! केवल मात्र माँ का अपार करुणा कटाक्ष लभ्य के लिए स्त्रीयों वस्त्रधारण और केशा संस्कार भूल जाते है! जगन्माता का पीछे धौढते है!
मुकम् करोति वाचालं पंगुम् लंघयते गिरीं
यत् कृपा तमहं वंदे परमानंदं माधवं
माधव का मात्र अनुग्रह पाने से गूंगा वाचाल बन जायेगा, लंगडा पहाडियों में चढ़ने में अत्यंत समर्थ होगा!
क्षितौ षट्पंचाशद्-द्विसमधिक-पंचाश-दुदके
हुतशे द्वाषष्टि-श्चतुरधिक-पंचाश-दनिले |
दिवि द्विः षट् त्रिंशन् मनसि  चतुःषष्टिरिति ये
मयूखा-स्तेषा-मप्युपरि तव पादांबुज-युगम् || 14 ||

जगज्जननीतुम्हारा दोनों चरण सभी चक्रों में है! मूलाधार में 56 किरणों (rays), स्वादिष्टान (52 rays), मणिपुर (62 rays), अनाहता (54 rays), विशुद्ध (72 rays), और आज्ञाचक्र में (64 rays), का साथ विराजमान है! 

शरज्ज्योत्स्ना शुद्धां शशियुत-जटाजूट-मकुटां
वर-त्रास-त्राण-स्फटिकघुटिका-पुस्तक-कराम् |
सकृन्न त्वा नत्वा कथमिव सतां सन्निदधते
मधु-क्षीर-द्राक्षा-मधुरिम-धुरीणाः फणितयः || 15 ||

दिव्यमाता, शरतकाल का स्वच्छ और शुद्ध वर्धमान चांदनी जैसा, किरीट धारण करते है! वर मुद्र, अभय मुद्र, अक्षमाला, और पुस्तक चारों हाथों में क्रमशः धरते हुवे माँ विराजमान है! सत् पुरषों तुमको नमस्कार् का साथ पूजन करते है! वैसे भक्तो को मधु, क्षीर, अंगूर, और वाग्मिता देते हो! केवल अम्मा का दया प्राप्त होने से, भक्त को  सब कुछ मिलजाएगा!

कवींद्राणां चेतः कमलवन-बालातप-रुचिं
भजंते ये संतः कतिचिदरुणामेव भवतीम् |
विरिंचि-प्रेयस्या-स्तरुणतर-श्रृंगर लहरी-
गभीराभि-र्वाग्भिः र्विदधति सतां रंजनममी || 16 ||
Divine Mother, you are the concept of the meritorious lotus minds.  To the morning sun you are the light red colour. To the good hearted people who worship you, they will become men of pure wisdom. They cause heartful happiness.
 
माँ, आप शुद्ध और महत्वपूर्ण मनो का भावना है! उदय सूर्या का लालपन है! शुद्ध और सकारात्मक मनस्वी लोग आप को पूजन करके पवित्र ज्ञान लभ्य करते है! वह हृदयपूर्वक आनंद लभ्य करते है!

सवित्रीभि-र्वाचां चशि-मणि शिला-भंग रुचिभि-
र्वशिन्यद्याभि-स्त्वां सह जननि संचिंतयति यः |
 कर्ता काव्यानां भवति महतां भंगिरुचिभि-
र्वचोभि-र्वाग्देवी-वदन-कमलामोद मधुरैः || 17 ||

जगज्जननी, सरस्वती माँ वाग्देवता है! लोग आप को बुद्धिमत्ता पदों से और चाँद के पत्थर का प्रकाश से पूजन करते है! वैसा लोग मधुर, रसमय, और समर्थ कवी बनते है!

मातृकाम् वशिनीयुक्ताम् योगिनीभिसमन्विताम्
गंधाद्याकर्षिणी नीयुक्तां संस्मरे त्रिपुरांबिकाम् !!

माँ, आप आठ प्रकार का वर्षिणी विद्या का हेतु है! इनी को विद्यायोगिनी शक्तियां कहते है!
जगन्माता, आप सराहनीय पद्म जैसा मनों का भावना है! उदय भानु को आप लाल रंग है! सत् पुरुष आप को प्रार्थना करते है! वे इस का हेतु शुद्ध ज्ञान लभ्य करते है! शुद्धज्ञान लभ्य कर के वे ज्ञानीलोगों को हृदयपूर्वक आनंद देते है!    
मातृका वर्ष रूपिणी पंचाशत् पीठ रूपिणी = माँ 50 अक्षरों का स्वरूपिणी है!
अ वर्ग = अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋू ऍ ए ऐ ऑ ओ औ अं अः  (16)
  वर्ग = क ख ग घ   (5)
  वर्ग = च छ ज झ ञ  (5)
ट वर्ग = ट ठ ड ढ ण (5)
त वर्ग = त थ द ध न (5)
  वर्ग = प फ ब भ म (5)
  वर्ग = य र ल व  (4)
  वर्ग = श ष स ह ळ  (5)
-------------------------------------
कुल   =   50 अक्षर
************************
योगिनियाँ:
1)   विद्या योगिनि 2)रेचिका  योगिनि 3) मोचिका  योगिनि 4) अमृता योगिनि 5) दीपिका  योगिनि 6)ज्ञान योगिनि 7)आप्यायानी योगिनि 8)व्यापिनी योगिनि 9)मेंथा योगिनि 10)व्योमरूपा  योगिनि 11)सिद्धरूपा  योगिनि 12)लक्ष्मी योगिनि    और वशिन्यादि शक्तियाँ आठ मिलाके 20 शक्तियाँ होता है! श्रीचक्रम् का अंदर कोण 20 (10 x 2) कोण ये ही है!

गंधाकर्षिन्यादियाँ:

श्रीचक्रम् का चार द्वार होता है! इन चार द्वार का पास चार द्वार शक्तियाँ होता है! इन को ध्यान करना चाहिए! 1)गंधाकर्षिणि  2)रसाकर्षिणि 3)रूपाकर्षिणि, और 4)स्पर्शा  कर्षिणि
  
तनुच्छायाभिस्ते तरुण-तरणि-श्रीसरणिभि-
र्दिवं सर्वा-मुर्वी-मरुणिमनि मग्नां स्मरति यः |
भवंत्यस्य त्रस्य-द्वनहरिण-शालीन-नयनाः
सहोर्वश्या वश्याः कति कति  गीर्वाण-गणिकाः || 18 ||

दिव्यजनानी, ध्यान में डूबा हुआ साधक को माँ का दर्शन अवश्य मिलेगा, जैसा माँ का शरीर उदय सूर्या जैसा, भूमि आकाश दोनों को एक करते हुवे दिखाईदेगा!

मुखं बिंदुं कृत्वा कुचयुगमध-स्तस्य तदधो
हरार्धं ध्यायेद्यो हरमहिषि ते मन्मथकलाम् |
 सद्यः संक्षोभं नयति वनिता इत्यतिलघु
त्रिलोकीमप्याशु भ्रमयति रवींदु-स्तनयुगाम् || 19 ||

परमेश्वरी मुख को बिंदु बानाके आज्ञाचक्र में ध्यान करना चाहिए! उस का नीचे अनाहता में ध्यान करना चाहिए! उस का नीचे मूलाधार में ध्यान करना चाहिए! वैसा साधक स्त्री व्यामोह से शीघ्र ही विमुक्त होजायेगा! ये उसको स्वल्प विषय लगेगा! वह परमात्मा को विशुद्ध चक्र में तीनो लोको में ध्यान करेगा! 
आत्मा = सूर्या, मन = चन्द्र, बिंदु = मूलाधार व संकल्प केंद्र 
  
किरंती-मंगेभ्यः किरण-निकुरुंबमृतरसं
हृदि त्वा माधत्ते हिमकरशिला-मूर्तिमिव यः |
 सर्पाणां दर्पं शमयति शकुंतधिप इव
ज्वरप्लुष्टान् दृष्ट्या सुखयति सुधाधारसिरया || 20 ||

माँ, मन में आप को ध्यान करने भक्तो व साधको का उप्पर आपका सब अंगो से अमृत बहाते हो! शक्तिशाली साँप भी गरुडपक्षी का सामने शांत होजाता है! आपका करुना दृष्टी का हेतु ज्वरपीड़ित मनुष्य संतुष्ट होगा! 
पाताल =मूलाधार और मणिपुर का मध्य प्रदेश, इसी को संकल्प केंद्र कहते है, इधर ब्रह्मा ग्रंथि विच्छेदन गोता है!
मर्त्य लोकं = मणिपुर और स्तन का मध्य प्रदेश और उस का उप्पर याने विशुद्ध को कहते है! इधर रूद्र ग्रंथि विच्छेदन होता है!

तटिल्लेखा-तन्वीं तपन शशि वैश्वानर मयीं
निष्ण्णां षण्णामप्युपरि कमलानां तव कलां |
महापद्मातव्यां मृदित-मलमायेन मनसा
महांतः पश्यंतो दधति परमाह्लाद-लहरीम् || 21 ||

दिव्या माता, महान ऋषिलोग, अपना अपना इन्द्रियों का कामं वगैरा नियंत्रित करने चक्रों में आपका दिव्य प्रकाश को देख के महत्वपूर्ण सुख प्राप्त करते है!
सुषुम्ना मार्ग को कुलमार्ग व चक्रमार्ग कहते है! सहस्रारचक्र में शिव का साथ कुण्डलिनीशक्ति व दिव्य माता विलीन हो जाना चाहिए! यह ही उपासना का परमावधि है! यह ही माँ का निलय व आसन है! इसी को शिव शक्ति रूपिणी इति ललिता सहस्रनामम् में कहा गया है! सहस्रारचक्र का केंद्र को बिंदु कहते है! सौदाख्यकळ विकास, और अत्यंतप्रकाशयुत है!  इसी हेतु माँ को सौदामिनी करके पुकारते है!  
प्रथम में कुण्डलिनीशक्ति मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपुर चक्रों को पार करते है! इसी को ब्रह्मग्रंथी  (brain of instincts and emotions) कहते है! ब्रह्मग्रंथी को 56 + 52 + 62 =170 किरणों(rays) है!  इन्ही को अग्निज्वाला कहते है!
उस का पश्चात मणिपुर, अनाहता, और विशुद्ध चक्रों को पार करते है!  इसी को रूद्रग्रंथी  कहते है! रूद्रग्रंथी को  62 + 54+ 72= 158 किरणों(rays) है!  इन्ही को चन्द्र कळाए कहते है!  
तत् पश्चात विशुद्ध और आज्ञाचक्रों को पार करते है!  इसी को विष्णुग्रंथी  कहते है! विष्णुग्रंथी को 72 + 64 = 136 किरणों(rays) है!  इन्ही को सूर्या किरण कहते है!
ऊर्ध्व मार्ग में ब्रह्मग्रंथी, रूद्रग्रंथी, और विष्णुग्रंथी, अथवा अग्नितत्व, सोम तत्व, सूर्यतत्व स्थितियों कुण्डलिनी शक्ति पार करता है! वैसा सहस्रार चक्र पहुँचने शक्ति मूलाधारैक निलया ब्रह्मग्रंथी विभेदिनी, कुण्डलिनी बिसतंतु तनीयसी विष्णुग्रंथी विभेदिनी नामो से पुकारागया है! वैसा साधक को सौदाख्यकळ जोडाजाता है! भौतिक दृष्टि नहीं होता है! इच्छाओं नहीं होता है!
वैसा साधक को असली सुख मिलजाएगा! इसी को जीवन्मुक्ति स्थिति कहते है!
भवानि त्वं दासे मयि वितर दृष्टिं सकरुणां
इति स्तोतुं वांछन् कथयति भवानि त्वमिति यः |
तदैव त्वं तस्मै दिशसि निजसायुज्य-पदवीं
मुकुंद-ब्रम्हेंद्र स्फुट मकुट नीराजितपदाम् || 22 ||

माँ, मै तुम्हारा दासानुदास है! आपका करुणा दृष्टी को इस भक्त का उप्पर प्रसरण करने दो! वैसा प्रार्थना करने भक्त को ब्रह्मा, विष्णु, और महेंद्र जैसा स्थिति मिल जाएगा!
त्वया हृत्वा वामं वपु-रपरितृप्तेन मनसा
शरीरार्धं शंभो-रपरमपि शंके हृतमभूत् |
यदेतत् त्वद्रूपं सकलमरुणाभं त्रिनयनं
कुचाभ्यामानम्रं कुटिल-शशिचूडाल-मकुटम् || 23 ||

माँ, तुम शिव का बाएं तरफ अपहरण किया है! फिर भी मन संतृप्ति नहीं हुआ! इसी हेतु शक आयेगा की आपने दाई ओर व दिशा भी अपहरण किया क्या! क्यों की आपका शरीर पूरा अरुणवर्ण होगाया है! माँ चलने शक्ति(kinetic energy) है! शिव का नहीं चलने यानी निश्चल (Potential enenrgy) शक्ति है! शिव अपना स्वरुप व्यक्त नहीं करेगा! शिव का व्यक्त रुप हीं माँ है! 
माँ का अरुणवर्ण अनुराग को, किरीट सर्वेस्वरीतत्वा को, चन्द्र आह्लाद को, स्तन द्वय इडा पिंगला यानी जगत पोषण शक्ति को, तीन आँखे त्रिकालज्ञत्व का संकेत है!
जगत्सूते धाता हरिरवति रुद्रः क्षपयते
तिरस्कुर्व-न्नेतत् स्वमपि वपु-रीश-स्तिरयति |
सदा पूर्वः सर्वं तदिद मनुगृह्णाति  शिव-
स्तवाज्ञा मलंब्य क्षणचलितयो र्भ्रूलतिकयोः || 24 ||

ब्रह्मा इस प्रपंच को सृष्टि करेगा, विष्णु देखबाल करेगा, ईस्वर लय करेगा! सदाशिव् जो सबा का उप्पर अधिकारी इन तीनो को आशीर्वाद देगा! सदाशिव् आप  साथ काम करता है!

त्रयाणां देवानां त्रिगुण-जनितानां तव शिवे
भवेत् पूजा पूजा तव चरणयो-र्या विरचिता |
तथा हि त्वत्पादोद्वहन-मणिपीठस्य निकटे
स्थिता ह्येते-शश्वन्मुकुलित करोत्तंस-मकुटाः || 25 ||

दिव्या माता, ब्रह्मा (रजो) विष्णु(सत्व) और रूद्र(तमो) इन तीनो को आप को जो गौरव मिलता है उसी प्रकार उन तीनो ब्रह्मा, विष्णु, और रूद्र को भी मिलता और मिलेगा भी है!

विरिंचिः पंचत्वं व्रजति हरिराप्नोति विरतिं
विनाशं कीनाशो भजति धनदो याति निधनम् |
वितंद्री माहेंद्री-विततिरपि संमीलित-दृशा
महासंहारेऽस्मिन् विहरति सति त्वत्पति रसौ || 26 ||

ब्रह्मा विष्णु यम सब मरण पाते है! कुबेर अपना ऐश्वर्य खो बैठेगा! इंद्र अपना परिवार का साथ अपना नेत्र बंद करेगा यानी इन्द्रियों और उन का पति मनस् का साथ चलाजायेगा!  परंतु माँ अपना पति सदाशिव का साथ नित्यम् रहेगा!

जपो जल्पः शिल्पं सकलमपि मुद्राविरचना
गतिः प्रादक्षिण्य-क्रमण-मशनाद्या हुति-विधिः |
प्रणामः संवेशः सुखमखिल-मात्मार्पण-दृशा
सपर्या पर्याय-स्तव भवतु यन्मे विलसितम् || 27 ||

माँ, आत्मार्पणदृष्टि से मै आप के जप, मेरा समस्त क्रियाकल्पोंमुद्र, गमानगमनों, प्रदक्षिणों, भोजनादियों, समर्पण करने हविस, प्रणामों, सास्टांग नमस्कार, सुखकरनीय विलासों, इत्यादि सब आपकी सेवा ही मनसा वाचा कर्मणा त्रिकरणशुद्धि से समझता हु! सब आपकी पूजा ही है!

सुधामप्यास्वाद्य प्रति-भय-जरमृत्यु-हरिणीं
विपद्यंते विश्वे विधि-शतमखाद्या दिविषदः |
करालं यत् क्ष्वेलं कबलितवतः कालकलना
 शंभोस्तन्मूलं तव जननि ताटंक महिमा || 28 ||

दिव्यमातेब्रह्मा, इन्द्रादि देवताओं, इन सब अमृत लेने से भी मरण प्राप्त होता है!  माँ की चेतना हेतु विष लेने से भी मरण प्राप्त नहीं होता है!

किरीटं वैरिंचं परिहर पुरः कैटभभिदः
कठोरे कोठीरे स्कलसि जहि जंभारि-मकुटम् |
प्रणम्रेष्वेतेषु प्रसभ-मुपयातस्य भवनं
भवस्यभ्युत्थाने तव परिजनोक्ति-र्विजयते || 29 ||

माँ, ब्रह्मा को बचाके थोड़ा दूरसे चलना, नहीं तो ब्रह्मा का किरीट लगेगा, विष्णु का बचाके थोड़ा दूरसे चलना, तर्हि विष्णु नमस्कार  करने समय में किरीट लगेगा, और इंद्रा का बचाके थोड़ा दूरसे चलना तर्हि नमस्कार  करने समय में आप का सुन्दर और मृदु पैरों को नुक्सान पहुंचेगा!   
स्वदेहोद्भूताभि-र्घृणिभि-रणिमाद्याभि-रभितो
निषेव्ये नित्ये त्वा महमिति सदा भावयति यः |
किमाश्चर्यं तस्य त्रिनयन-समृद्धिं तृणयतो
महासंवर्ताग्नि-र्विरचयति नीराजनविधिं || 30 ||

दिव्या माते, आप को आदि और अंत नहीं है! किरणों, अणिमा सिद्धियों जो आपसे उत्पन्न हुआ, उन्ही से आप आवृत्ति हुआ है! आप को जो भी वैसा पूजा करते है, और सब संपदा को घास बराबर देखेगा, उसको प्रळयाग्नी भी नीराजन करेगा, इस में किंचित भी आश्चर्य नहीं है!

चतुः-षष्टया तंत्रैः सकल मतिसंधाय भुवनं
स्थितस्तत्त्त-सिद्धि प्रसव परतंत्रैः पशुपतिः |
पुनस्त्व-न्निर्बंधा दखिल-पुरुषार्थैक घटना-
स्वतंत्रं ते तंत्रं क्षितितल मवातीतर-दिदम् || 31 ||
शिव प्राणियों का नाथ है! उन्हों ने  64 तंत्र ग्रंथो किया है! उस का बाद शिव ने अपना आसन में विश्रांत लिया था! जिस को जो चाहिए उस का इच्छानुसार तंत्र ग्रंथ को अभ्यास करसकते है! इस मामला में शक्ति ने शिव को प्रेरित कर दिया था! इस का अनुसार माणवाली यानी मनुष्यों को  श्रीविद्या मिलगया है!
ब्रह्मा विद्या पूरा विश्वं में भरा हुआ है! अपने आप को पहचाननेवाली विद्या आत्मविद्या है! श्रीविद्या  दोनों समन्वय करता है! यह मोक्षप्रदायिनी है! बाकी विद्यों से यह अत्यंत श्रेष्ट है!

शिवः शक्तिः कामः क्षिति-रथ रविः शीतकिरणः
स्मरो हंसः शक्र-स्तदनु  परा-मार-हरयः |
अमी हृल्लेखाभि-स्तिसृभि-रवसानेषु घटिता
भजंते वर्णास्ते तव जननि नामावयवताम् || 32 ||

शिव कार, और शक्ति कार, मन्मथ  कार, और पृथ्वी कार, ये चारो अक्षरकूटमी है! 
सूर्या (’) चंद्र (’) मन्मथ (’) सूर्या (’) इंद्र (’) पञ्च अक्षरकूटमी है!
पराशक्ति (स) मन्मथ (क) हरि (ल) तीन अक्षरकूटमी है!
इन अक्षरकूटमी का अंत का विराम स्थानों को ‘ह्री’ कारों से जोड़ने से इन तीन अक्षरकूटमी कुल 15 अक्षर बनेगा! ये आप का पञ्च दशाक्षरी मंत्र स्वरुप को अंग इति मानाजाता है!
क ए ई ल ह्रीं   ह स क ह ल ह्रीं   स क ल ह्रीं  इन अक्षरों  जगज्जननी का पञ्च दशाक्षरी मंत्र स्वरुप इति मानाजाता है!
माँ का स्वरुप तीन प्रकार का है! वे:-
वाग्भव कूटमी, मध्य कूटमी अथवा कामराज कूटमी, और शक्ति कूटमी, इति तीन कूटमियां है!  
क ए ई ल ह्रीं   जगज्जननी का वाग्भव कूटमी है! यह माँ का मुख है!
ह स क ह ल ह्रीं   जगज्जननी का मध्य व कंठ से कटी प्रदेश तक है! यह माँ का मध्य व कामराज कूटमी है!
स क ल ह्रीं     जगज्जननी का  कटी प्रदेश से नीचे तक है! यह माँ का शक्ति कूटमी है!

स्मरं योनिं लक्ष्मीं त्रितय-मिद-मादौ तव मनो
र्निधायैके नित्ये निरवधि-महाभोग-रसिकाः |
भजंति त्वां चिंतामणि-गुणनिबद्धाक्ष-वलयाः
शिवाग्नौ जुह्वंतः सुरभिघृत-धाराहुति-शतै || 33 ||

माँ नित्य स्वरूपिणी, प्रथम् में माँ का मंत्र का साथ मन्मथ बीजं (क्लीं’), भुवानेस्वरी बीजं (ह्रीं’), श्री बीजं (श्रीं), इन तीनो को रख के शिवाग्नि में माँ को, कामधेनु घृतं घी धारा आहुति करते है! 
कामराज बीजाक्षर क्लीं’, भुवनेश्वरी बीजाक्षर ह्रीं’, लक्ष्मी बीजाक्षर श्रीं’, इन तीनो को
क ए ई ल ह्रीं   ह स क ह ल ह्रीं   स क ल ह्रीं  का प्रथम जोड़ के ध्यान करते है!   यानी
क ए ई ल ह्रीं   ह स क ह ल ह्रीं   स क ल ह्रीं  का सर्व प्रथम क्लीं ह्रीं श्रींतीनो जोड़ के अष्टा दशाक्षरी मंत्र ध्यान करते है!   यानी
क्लीं ह्रीं श्रीं  क ए ई ल ह्रीं   ह स क ह ल ह्रीं   स क ल ह्रीं   इति  ध्यान करना चाहिए!   वैसे साधक लोग शाश्वत सुख प्राप्त करते है!
शिवाग्नि मणिपुरचक्र में उपस्थित है! उस चक्र में ध्यान करना चाहिए! वैसे भक्तो श्रीविद्या में पराकाष्ट लभ्य करेंगे! इसी को महाभोग कहते है!

शरीरं त्वं शंभोः शशि-मिहिर-वक्षोरुह-युगं
तवात्मानं मन्ये भगवति नवात्मान-मनघम् |
अतः शेषः शेषीत्यय-मुभय-साधारणतया
स्थितः संबंधो वां समरस-परानंद-परयोः || 34 ||

माँ, सूर्या और चन्द्र का मध्य देश जैसी अनाहतचक्र आप का है! आप का शरीर दोषरहित शिव जैसा है!
शिव आनंद का मूर्ती है! इसको भैरव रूप कहते है!
एक संघटना भौतिक रूप में होने का बाद हम जानते है! जो संघटना भौतिक रूप में होने पूर्व ही जानते उनको भैरव कहते है! कालज्ञान जानने वैसे लोग को कालभैरव कहते है!  जगज्जननी को भैरवि कहते है! जगन्माता और पिता दोनो को आनंदभैरव - आनंदभैरवि कहते है!
कालव्यूहम्, कुलव्यूहम्, नामव्यूहम्, ज्ञानव्यूहम्, चित्तव्यूहम्, नादव्यूहम्, बिंदुव्यूहम्, कळाव्यूहम्, जीवव्यूहम्, इति नौ व्यूहम् है!
कालव्यूहम् : यह काल संबंधित व्यूहम् है!
कुलव्यूहम् :  यह कुल यानी वर्ण संबंधित व्यूहम् है!
नामव्यूहम् : यह चराचर जीवों का नामधेय संबंधित व्यूहम् है!
ज्ञानव्यूहम् : यह मन और बुद्धि का माध्यम से लभ्य होने ज्ञानसंबंधित व्यूहम् है!
चित्तव्यूहम् : यह मन बुद्धि महत्तु चित्त अहंकार संबंधित व्यूहम् है!
नादव्यूहम् : यह नादं, परा पश्यन्ति मध्यमा प्रिया वैखरी और वाक् संबंधित व्यूहम् है!
बिंदुव्यूहम्  : मूलाधार स्वाधिष्ठान चक्र संबंधित व्यूहम् है!
कळाव्यूहम् : पंचाशत (50) अक्षर  संबंधित व्यूहम् है!
जीवव्यूहम् : जीवात्मा समुदाय संबंधित व्यूहम् है!
शिव शक्ति दोनों को परा परानंद इति व्यवहरण करते है!
सृष्टि में प्रधानापात्र (Principal factor) परा को है! वृक्ष का फल का अन्दर का बीज जैसा है! परानन्द को अप्रधान्यता (subsidiary factor) है!
प्रळय में शिव व परानन्द को प्राधान्यता (Principal factor) है! वृक्ष का सार बीजा में निक्षिप्त हुआ होता है! तब बीज का प्राधान्यता अधिक है!  
प्रधानत्व शेषित्व, और अप्रधानत्व शेषत्व है!
शेषित्व, और  शेषत्व में तादात्म्यता बराबर है! 
    
मनस्त्वं व्योम त्वं मरुदसि मरुत्सारथि-रसि
त्वमाप-स्त्वं भूमि-स्त्वयि परिणतायां  हि परम् |
त्वमेव स्वात्मानं परिण्मयितुं विश्व वपुषा
चिदानंदाकारं शिवयुवति भावेन बिभृषे || 35 ||

आज्ञाचक्र का मनस् तत्व में, विशुद्धचक्र का आकाशातत्व में, अनाहत चक्र का मनस् तत्व में, मणिपुरचक्र का अग्नितत्व में, स्वाधिष्ठानचक्र का जलतत्व में, और मूलाधारचक्र का पृथ्वीतत्व में, सब तत्वों में माँ बिना कोइ नहीं है!
माँ आप ही आप का स्वस्वरूप को प्रपंचरूप में परिवर्तित करने चिच्छक्तीयुत आनंदभैरव व शिवतत्व को शिवायुवती यानी शिव का नारी रूपधारण करते हो! 
पंचभूतो और मनस् में उपस्थित तत्व, माँ का परतत्व ही है! माँ तत्व ही षट् चक्रों में मन, आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी तत्वों में परिवर्तन होता है!
प्रळय से लेकर सृष्टि तक शिव शक्ति दोनों मिलके ही रहते है! इसे को श्रीविद्या में प्रकाश (बिंदु यानी शुद्ध प्रज्ञ) से विमर्श बिंदु में परिवर्तन होना कहते है! इसी परिवर्तना को नाद बिंदु कळ प्रेरण कहते है! प्रकाश का अंतर्गिता अहंकार तत्व को उत्साह करनेवाली (motivate) इस तत्व विमर्श का परिवर्तन लक्षण ही है! विमर्श शक्ति ही शिवयुवती कहते है!
सृष्टि को दोहदकारी अथवा सहायता करने  शक्तितत्व को महात्रिपुरसुंदरी कहते है!   
प्रळय को दोहदकारी अथवा सहायता करने शक्तितत्व को महाकाळि कहते है!  

तवाज्ञचक्रस्थं तपन-शशि कोटि-द्युतिधरं
परं शंभु वंदे परिमिलित-पार्श्वं परचिता |
यमाराध्यन् भक्त्या रवि शशि शुचीना-मविषये
निरालोके ऽलोके निवसति हि भालोक-भुवने || 36 ||

दोनों भृकुटी का मध्य स्थान को कूटस्थ कहते है! यहाँ का अधिष्ठान देवताये परशंभुनाथ और चित्परांब है! यह स्थान ज्ञान देने का स्थान है!
माँ, आप का शम्भू का स्थान यह ही है! चत् शक्ति का हेतु इनका दो पक्षों है! वह परा है! वह साधना नहीं करने साधारण मनुष्य का अतीत है! वह्सूरा और चन्द्र प्रकाशो का अतीत है! उन का आसन हजार पंखोवाली(thousand petalled) सहस्रार कमल स्थान है!

विशुद्धौ ते शुद्धस्फतिक विशदं व्योम-जनकं
शिवं सेवे देवीमपि शिवसमान-व्यवसिताम् |
ययोः कांत्या यांत्याः शशिकिरण्-सारूप्यसरणे
विधूतांत-र्ध्वांता विलसति चकोरीव जगती || 37 ||

दिव्यजननी, विशुद्धचक्र में स्फटिक जैसा स्वच्छ आकाश तत्व को शिव का समान आपने व्यक्तीकरण किया है! भगवती, मै आपका उप्पर ध्यान करूंगा! शिव अशिव मेरेलिए दोनों समान है! भगवती ने मेरा तीनो लोकों (भौतिक, सूक्ष्म, और कारण) का अज्ञानता को निर्मूल करेगा! वह चकोर पक्षी जैसा विराजमान होगा!  

समुन्मीलत् संवित्कमल-मकरंदैक-रसिकं
भजे हंसद्वंद्वं किमपि महतां मानसचरं |
यदालापा-दष्टादश-गुणित-विद्यापरिणतिः
यदादत्ते दोषाद् गुण-मखिल-मद्भ्यः पय इव || 38 ||

हाँसा केवल ज्ञानपद्म का अंदर मधु को पसंद करते है! ये हाँसा योगी का मन में ही घूमते है! यहाँ हाँसा का अर्थ पक्षी हाँसा नहीं है, क्रियायोग प्राणायाम करने हाँसा यानी योगी है! ज्ञानपद्म का अर्थ जो योगी भौतिक विषय प्रपंच का साथ संपर्क नही करनेवाला है! वैसा राजहाँसा जोडी को सेवा करेंगे! राज का अर्थ रहस्य है! रहित हास्य यानी साधना मजाक नहीं, बहुत गंभीर इति अर्थ है! राजहाँसा जोडी का अर्थ शिव और शक्ति है!
हाँसा पानी मिला हुआ दूध में से पानी और दूध अलग अलग कर के केवल  दूध ही पीएगा! वैसा ही योगी युक्ता आयुक्त विचक्षण ज्ञान को अलग करके युक्ता विचक्षण ज्ञान ही ग्रहण करता है!
शिव और शक्ति को प्रार्थना करने से 18 प्रकार का विद्या आसान हो जायेगा! इसी हेतु मै राजहाँसा जोडी यानी शिव और शक्ति को प्रार्थना करता हु!
हृत् पुंडरीक का अर्थ पद्मा जैसा ह्रुदय है!  ह्रुदय में दहराकाश होता है!
वेद वेदांग विद्या:
चार वेद, छे वेदांग, मीमांसा, न्याय, दर्शान, धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, गंधर्ववेद, धनूर् वेद, और अर्थशास्त्र मिलके 18 प्रकारका विद्याविभाग  है! इनको अष्टादशविद्या कहते है! शिव को हंसेश्वरा, और शक्ति को हंसेश्वरि कहते है !

तव स्वाधिष्ठाने हुतवह-मधिष्ठाय निरतं
तमीडे संवर्तं जननि महतीं तां  समयाम् |
यदालोके लोकान् दहति महसि क्रोध-कलिते
दयार्द्रा या दृष्टिः शिशिर-मुपचारं रचयति || 39 ||

शिव स्वाधिष्ठानचक्र में जलतत्व में होता है! मै उस शिव को ध्यान करता हु! वैसा ही माँ तुम महिमान्वित समायाहै! तुमको ध्यान करता हु! शिव का क्रोध भूमि को जलाएगा! इसी हेतु माँ आपकी शीतल दृष्टि उस शिव को उपशमन करता है!
स्वाधिष्ठानचक्र में शिव और शक्ति दोनों को ध्यान करना चाहिए!

तटित्वंतं शक्त्या तिमिर-परिपंथि-स्फुरणया
स्फुर-न्ना नरत्नाभरण-परिणद्धेंद्र-धनुषम् |
तव श्यामं मेघं कमपि मणिपूरैक-शरणं
निषेवे वर्षंतं-हरमिहिर-तप्तं त्रिभुवनम् || 40 ||

माँ, शिव मणिपुर चक्र में अग्नि तत्व में होता है! मै उस शिव को ध्यान करता हु! इस चक्र में ध्यान करने से अज्ञान अंधकार दूर करेगा!  मणिपुरचक्र में स्वच्छ मेघवर्ण शिव को ध्यान करना चाहिए!
      
तवाधारे मूले सह समयया लास्यपरया
नवात्मान मन्ये नवरस-महातांडव-नटम् |
उभाभ्या मेताभ्या-मुदय-विधि मुद्दिश्य दयया
सनाथाभ्यां जज्ञे जनक जननीमत् जगदिदम् || 41 ||

माँ, सब चक्रों में शिव का साथ शृंगारादि नवरसो में नृत्य करोगे!
नृत्य का नाम                 रंग        अधिष्टान  देवता    
1 शृंगार                    हल्का हरा         विष्णु
2 वीर                      काषाय            इंद्र
3 कारुण्यं                    धूसर             यम
4 अद्भुत                     पीला            ब्रह्म
5 हास्यम                    सफ़ेद           प्रमता
6 भयानकम                  काला           काळरात्रि
7 भीभत्सं                    नीला            शिव 
8 रौद्रं                       लाल             रूद्र
9 शांतं                    सदा सफ़ेद          विष्णु
सृष्टि प्रारंभ में जगज्जननी नृत्य को लास्यमकहते है! लास्यमकरने जगन्मात को आनंदभैरवि कहते है! 
प्रळय प्रारंभ में शिव का नृत्य को तांडवमकहते है! तांडवमकरने जगत्पिता शिव को आनंदभैरव कहते है!
चक्र स्पंदन का हेतु प्राणशक्ति और मूलाधार ममैक होना ही है!  तब ही जीव विकसित होगा! इसी को कुण्डलिनी योग कहते है!
मूलाधार जागृति होने से शरीर स्पंदन होगा! तब योगि नृत्य करेगा!  शृति और लया दोनों शिव (तांडव) और शक्ति (लास्य) का साथ तालमेल बनेगा! तब से साधक का जीवन का परिपूर्णता मिलेगा और  विश्व योजना संबध स्थापित करेगा!   
यह न्यासम् यानी मानसिक विनियोग व शारीरक भागों का दिव्यता शिक्षणा को रास्ता बनेगा!
उदाहरण : करन्यासं (दोनों हाथ जोड़ के प्रार्थना करना)
दिव्या माता का लास्य नृत्यं, और जगत पिता का तांडव नृत्यंये योग प्रक्रिया में बहुत महत्वपूर्ण है! योगानंद लहरी का हेतु यह ही है!
माँ को समया शक्ति का रूप में ध्यान करना चाहिए, पिता शिव को नवात्मका का रूप में ध्यान करना चाहिए! दोनों को मूलाधारचक्र में ध्यान करना चाहिए! पिता का रूप में शिव को, शक्ति को माँ का रूप में  ध्यान करना चाहिए! 
शक्ति पाञ्च प्रकार का है! वे:  
1)अनुष्ठानसाम्यम् 2)अवस्थासाम्यम् 3अधिष्ठासाम्यम् 4)रूपसाम्यम् & 5)नामसाम्यम्  
1)अनुष्ठानसाम्यम् : शिव शक्ति दोनों षट चक्र अधिष्ठान देवताये है!
2)अवस्थासाम्यम् : शक्ति शिव दोनों माता पितायें है!
सृष्टि(माता) प्रळय(शिव) है!   सृष्टि(प्रकृति) प्रळय(पुरुष) है!
लास्य तांडव, और नृत्य रूप है!
3)अधिष्ठासाम्यम् : (सृष्टि)वर्ष – (प्रळय)अग्नि
4)रूपसाम्यम् :  यह परस्पर है! अर्थ शरीर शक्ति, और अर्थ शरीर शिव है! इसी हेतु अर्थनारीश्वर कहते है!  &
5)नामसाम्यम् : शिव शर्वाणिभाव भवानी, रूद्र रुद्राणिये दोनों नाम युगळ है! यह नामसाम्यम् है!
रण नीतियाँ
1)कुलव्यूहम् 2) नामव्यूहम् 3)कालव्यूहम् 4)ज्ञानव्यूहम् 5) चित्तव्यूहम् 6) नाद व्यूहम् 7)बिंदुव्यूहम् 8) कळाव्यूहम्, और 9)जीवाव्यूहम् इन सब शिव का नौ रण नीतियाँ है! इसी हेतु शिव नवव्यूहात्मिक कहलाता है! 
1)वामाँ  2)ज्येष्ठ 3) रौद्री 4)अंबिका 5)इच्छा 6) ज्ञान 7) क्रिया 8)शांति और  9) परा  इन सब शक्ति व्यूह कहलाता है!
आधार वातरोथेन शरीरं कंपते यथा
आधार वातरोथेन योगी नृत्यति सर्वदा
आधार वातरोथेन विश्वं तत्रैव दृश्यते
सृष्टिराधारमाधारे आधारे सर्वदेवताः 
आधारे सर्ववेदाश्च तस्मात् आधारम्, आश्रयेत्

मूलाधारचक्र प्राणशक्ति को अवरोथ करता है! इस का हेतु चक्र स्पंदना तत् पश्चात् जीव विकासको मार्ग मिलता है! इसी को कुण्डलिनी योग कहते है!
मूलाधारचक्र जागृति होने से शरीर स्पंदन होगा! योगी नृत्य करेगा! यह नृत्य शिव शक्तियो का लास्य और तांडव नृत्यों का साथ शृति और लय बद्ध होगा! तब से साधक का जीवन सार्धक होगा! विश्वप्रणालिका का साथ शृति मिलाएगा! न्यास मिलेगा!
शिवा अशिवा दोनों का तांडव लास्य नृत्यों दोनों योग प्रक्रियों में महत्वपूर्ण है! योगानंद लहारि का प्रथम जनक स्थान है!
द्वितीय भाग: -- सौंदर्यलहरी

गतै-र्माणिक्यत्वं गगनमणिभिः सांद्रघटितं
किरीटं ते हैमं हिमगिरिसुते कीतयति यः ||
 नीडेयच्छाया-च्छुरण-शकलं चंद्र-शकलं
धनुः शौनासीरं किमिति  निबध्नाति धिषणां || 42 ||

माँ पार्वती, 12 अदित्यायें आकाश में मणि जैसे अलंकार किया हुआ है! जो अर्थ चंद्राकृति चन्द्र को आप का किरीट में देखेगा इंद्र धनुष जैसा भ्रमित होगा! 
  
धुनोतु ध्वांतं न-स्तुलित-दलितेंदीवर-वनं
घनस्निग्ध-श्लक्ष्णं चिकुर निकुरुंबं तव शिवे |
यदीयं सौरभ्यं सहज-मुपलब्धुं सुमनसो
वसंत्यस्मिन् मन्ये बलमथन वाटी-विटपिनाम् || 43 ||

दिव्या माता, आप का सुगंधित मुलायम केश कमल का बगीचा में काला मेघ जैसा है! प्राकृतिक सुगंध पाने का हेतु इंद्रा का बगीचा उपस्थित है!

तनोतु क्षेमं न-स्तव वदनसौंदर्यलहरी
परीवाहस्रोतः-सरणिरिव सीमंतसरणिः|
वहंती- सिंदूरं प्रबलकबरी-भार-तिमिर
द्विषां बृंदै-र्वंदीकृतमेव नवीनार्क केरणम् || 44 ||

हे जगज्जननी, आप का केशो को अलग करने रेखा एक नहर जैसा दिखता है! आप का काला और घने केश शत्रु को बांध लेते है! देखने के लिए माथे पर तिलक जैसा उदय भानु उपस्थित इति लगता है! यह हम को रक्षा करे!

अरालै स्वाभाव्या-दलिकलभ-सश्रीभि रलकैः
परीतं ते वक्त्रं परिहसति पंकेरुहरुचिम् |
दरस्मेरे यस्मिन् दशनरुचि किंजल्क-रुचिरे
सुगंधौ माद्यंति स्मरदहन चक्षु-र्मधुलिहः || 45 ||

ओह माँ, आप का घूंघराले केश मधुमक्खी जैसा चमकते है! आप का कमल जैसा चेहरा मधुमक्खी को अपहास्य करते है! आप का चमकता हुआ दांत का साथ चेहरा शिव का मन विछलित करता है!
प्रकृति पुरुष को आकर्षित करके संसार चलाने को हेतु बनती है!
 

ललाटं लावण्य द्युति विमल-माभाति तव यत्
द्वितीयं तन्मन्ये मकुटघटितं चंद्रशकलम् |
विपर्यास-न्यासा दुभयमपि संभूय च मिथः
सुधालेपस्यूतिः परिणमति राका-हिमकरः || 46 ||

दिव्य माते, आप की माथे में अर्थ चंद्र किरीट दीप्तिमान है! अर्थ चंद्र शिव का अर्थचंद्र का साथ प्रज्वलित है! दोनों जोड़ने से आप की माथे अमृत जैसा पूर्णचंद्र जैसा चमक रहा है!

भ्रुवौ भुग्ने किंचिद्भुवन-भय-भंगव्यसनिनि
त्वदीये नेत्राभ्यां मधुकर-रुचिभ्यां धृतगुणम् |
धनु र्मन्ये सव्येतरकर गृहीतं रतिपतेः
प्रकोष्टे मुष्टौ च स्थगयते निगूढांतर-मुमे || 47 ||

दिव्य माते, आप तीनो प्रपंच का भय को दूर करोगे! आपकी भृकुटी, मधु मक्खी जैसी आँखे, मन्मथ का हाथों से पकड़ा हुआ धनुष जैसी है!

अहः सूते सव्य तव नयन-मर्कात्मकतया
त्रियामां वामं ते सृजति रजनीनायकतया |
तृतीया ते दृष्टि-र्दरदलित-हेमांबुज-रुचिः
समाधत्ते संध्यां दिवसर्-निशयो-रंतरचरीम् || 48 ||

जगज्जननी, आप का दहिने आँख सूरज का रोशनी का हेतु, और बाए आँख चन्द्रकान्ति का हेतु है! माथे का कूटस्थ में उपस्थित अर्थनिमीळित तीसरा आँख   उदय संध्या और सायं संध्या का हेतु है!

दक्षिणे पिंगळा नाडी वह्नी मंडलगोचरा
देवानामिति ज्ञेयं पुण्यः कर्मानुसारिणी  
इडा च वामा विश्वासा सोम मंडलगोचरा
पितृयानमिति ज्ञेयं वामामाश्रित्य तिष्ठति !!
जीवी पितृयानमार्ग हेतु जनम लेता है! यह चंद्र व इडानाडी संबंधित है!
जीवी देवयानमार्ग हेतु पुण्य पाता है! यह सूरज व पिंगळा नाडी संबंधित है!
योगमार्ग पिंगळा नाडी मार्ग है! यह सुषुम्ना नाडी संबंधित है! यह मार्ग तीसरा आँख संबंधित है!

विशाला कल्याणी स्फुतरुचि-रयोध्या कुवलयैः
कृपाधाराधारा किमपि मधुराऽऽभोगवतिका |
अवंती दृष्टिस्ते बहुनगर-विस्तार-विजया
ध्रुवं तत्तन्नाम-व्यवहरण-योग्याविजयते || 49 ||

माँ, आपका आँखे सर्व व्यापी है, स्वच्छ, अजेय प्रमाण, दयान्वित, अजेय और शब्दो में बोल नहीं सकता है!  

कवीनां संदर्भ-स्तबक-मकरंदैक-रसिकं
कटाक्ष-व्याक्षेप-भ्रमरकलभौ कर्णयुगलम् |
अमुंचंतौ दृष्ट्वा तव नवरसास्वाद-तरलौ
असूया-संसर्गा-दलिकनयनं किंचिदरुणम् || 50 ||

माँ, मधु मक्खिया मात्र फूलों का गुच्छा से मधु पीने का रूचि लेने का बहाने में माँ का आँखे का तरफ देखता है! इन को देख के माँ का आँखें ईर्ष्या द्वेष से लाल होरहा है!  


शिवे शंगारार्द्रा तदितरजने कुत्सनपरा
सरोषा गंगायां गिरिशचरिते विस्मयवती |
हराहिभ्यो भीता सरसिरुह सौभाग्य-जननी
सखीषु स्मेरा ते मयि जननि दृष्टिः सकरुणा || 51 ||

माँ, आप का दृष्टी हमेशा प्रेम और आप्यायता का साथ शिव का तारफ है! उस दृष्टि, भीभत्स रस का साथ दुष्टों का तरफ, और क्रोध रस का साथ जब गंगा का तरफ देखते हो! इधर गंगा का अर्थ प्रकृति यानी माया प्रपंच है! अद्भुत रस का साथ जब शिव का माथा का उप्पर देखते हो!  

गते कर्णाभ्यर्णं गरुत इव पक्ष्माणि दधती
पुरां भेत्तु-श्चित्तप्रशम-रस-विद्रावण फले |
इमे नेत्रे गोत्राधरपति-कुलोत्तंस-कलिके
तवाकर्णाकृष्ट स्मरशर-विलासं कलयतः|| 52 ||

जगज्जननी, आप का आँख की पलकें शिव यानी शुद्ध मन का अशांति को दूर करते है! अवसाद दूर करता है! साधक को आदिभौतिक, आदिदैविक, और आध्यात्मिक शांति लाता है! शुद्ध मन में कामं भी बिठाता है!
   
विभक्त-त्रैवर्ण्यं व्यतिकरित-लीलांजनतया
विभाति त्वन्नेत्र त्रितय मिद-मीशानदयिते |
पुनः स्रष्टुं देवान् द्रुहिण हरि-रुद्रानुपरतान्
रजः सत्वं वेभ्रत् तम इति गुणानां त्रयमिव || 53 ||

दिव्य माता, आप का तीसरा आँख सत्व (सफ़ेद) यानी विष्णु, काला (तामस) यानी शिव, और रजस(लाल) यानी ब्रह्मा का प्रतीक है!

पवित्रीकर्तुं नः पशुपति-पराधीन-हृदये
दयामित्रै र्नेत्रै-ररुण-धवल-श्याम रुचिभिः |
नदः शोणो गंगा तपनतनयेति ध्रुवमुम्
त्रयाणां तीर्थाना-मुपनयसि संभेद-मनघम् || 54 ||

दिव्य माता, आप का तीसरा आँख सत्व (सफ़ेद) यानी विष्णु, काला (तामस) यानी शिव, और रजस(लाल) यानी ब्रह्मा का प्रतीक है!
यह तीन नदियों यानी सोना, गंगा, और यमुना तीनो नदियों का त्रिवेणी संगम है! इस का साथ हम को शुद्ध करते है!

निमेषोन्मेषाभ्यां प्रलयमुदयं याति जगति
तवेत्याहुः संतो धरणिधर-राजन्यतनये |
त्वदुन्मेषाज्जातं जगदिद-मशेषं प्रलयतः
परेत्रातुं शंंके परिहृत-निमेषा-स्तव दृशः || 55 ||

दिव्य माता, आप का आँख बंद करने से प्रळय, और आँख खोलने से सृष्टि है! यह ही संत व्यक्ति कहते है! पूरा जगत आप का आँखों का रक्षण में है!
  
तवापर्णे कर्णे जपनयन पैशुन्य चकिता
निलीयंते तोये नियत मनिमेषाः शफरिकाः |
इयं च श्री-र्बद्धच्छद\ऎम्दश् पुटकवाटं कुवलयं
जहाति प्रत्यूषे निशि च विघतय्य प्रविशति|| 56 ||

दिव्य माता, आप का आँखे को देखने से ऐसा लगेगा की मचली पाने में छुपा हुआ जैसा लगेगा! आप का आँखे को देखने से ऐसा लगेगा की सौंदर्यता व्यक्तिमत्व हुआ है!

दृशा द्राघीयस्या दरदलित नीलोत्पल रुचा
दवीयांसं दीनं स्नपा कृपया मामपि शिवे |
अनेनायं धन्यो भवति न च ते हानिरियता
ने वा हर्म्ये वा समकर निपातो हिमकरः || 57 ||

दिव्य माता, आप का दयापूरक सुंदरनेत्रों मुझे परिपूर्णता देते है! मेरे तरफ देखने से आप को कोइ नष्ट नहीं है! चाँदमाँ वनों में और भुवनो में बिना कोइ नुक्सान कांति बराबर प्रसार करता है!

अरालं ते पालीयुगल-मगराजन्यतनये
न केषा-माधत्ते कुसुमशर कोदंड-कुतुकम् |
तिरश्चीनो यत्र श्रवणपथ-मुल्ल्ङ्य्य विलसन्
अपांग व्यासंगो दिशति शरसंधान धिषणाम् || 58 ||

दिव्य माता, आप का सुन्दर दिखनेवाली कूटस्थ यानी माथे का दोनों तरफ अधिक सुन्दर दिखता है! वहा तीसरा आँख का प्रकाश दोनों दिशा में व्याप्ति हुआ लगता है!  

चतुश्चक्रं मन्ये तव मुखमिदं मन्मथरथम् |
यमारुह्य द्रुह्य त्यवनिरथ मर्केंदुचरणं
महावीरो मारः प्रमथपतये सज्जितवते || 59 ||

दिव्य माता, आप का सुंदर चेहरा झुमके में प्रतिबिंबित होता है! आप का सुंदर चेहरा मन्मथ रथ जैसा है! सूर्य और चंद्र उस का चक्रों! परमात्मा चेतना को अपनी तरफ यानी प्रकृति व माया की तरफ  आकर्षित करता है!

सरस्वत्याः सूक्ती-रमृतलहरी कौशलहरीः
पिब्नत्याः शर्वाणि श्रवण-चुलुकाभ्या-मविरलम् |
चमत्कारः-श्लाघाचलित-शिरसः कुंडलगणो
झणत्करैस्तारैः प्रतिवचन-माचष्ट इव ते || 60 ||

दिव्य माता, आप निरंतर सरस्वती देवी की सुंदर मधु जैसा संगीत सुनते रहते हो! इस का वजह से आप की कानो का झुमका स्पंदित करता है! इस का हेतु  ॐकार उत्पादित होता है!
  
असौ नासावंश-स्तुहिनगिरिवण्श-ध्वजपटि
त्वदीयो नेदीयः फलतु फल-मस्माकमुचितम् |
वहत्यंतर्मुक्ताः शिशिरकर-निश्वास-गलितं
समृद्ध्या यत्तासां बहिरपि च मुक्तामणिधरः || 61 ||

जगज्जननी, आप का नाक मुझे शीतल वायु देनेदो! सुषुम्ना हम को हमारा मोति जैसा न्याय्य इच्छाओं पूरा करनेदो!

प्रकृत्याऽऽरक्ताया-स्तव सुदति दंदच्छदरुचेः
प्रवक्ष्ये सदृश्यं जनयतु फलं विद्रुमलता |
न बिंबं तद्बिंब-प्रतिफलन-रागा-दरुणितं
तुलामध्रारोढुं कथमिव विलज्जेत कलया || 62 ||

जगज्जननी, आप का होंठ स्वाभाविक लाल रंग का है! माँ का होंठ लाल रंग  फल जैसा है!  
स्मितज्योत्स्नाजालं तव वदनचंद्रस्य पिबतां
चकोराणा-मासी-दतिरसतया चंचु-जडिमा |
अतस्ते शीतांशो-रमृतलहरी माम्लरुचयः
पिबंती स्वच्छंदं निशि निशि भृशं कांजि कधिया || 63 ||

दिव्यमाता, माँ का मुखड़ा चकोर पक्षी जैसा है! वे पक्षियों माँ का चिडखोर पीते है! इस का कारण माँ की जीब मिठास से कठोर  होगया है! परिवर्तन (for a change) के लिए चकोर पक्षि खट्टा स्वाद खिचडी रात में खाता है!
साधक को पहले मूलाधार चक्र में मिठास स्वाद मिलता है! उस का पश्चात् अनाहता चक्र में खट्टा स्वाद मिलता है!
   
अविश्रांतं पत्युर्गुणगण कथाम्रेडनजपा
जपापुष्पच्छाया तव जननि जिह्वा जयति सा |
यदग्रासीनायाः स्फटिकदृष-दच्छच्छविमयि
सरस्वत्या मूर्तिः परिणमति माणिक्यवपुषा || 64 ||

दिव्य माता, सदाशिव का महत्व माँ निरंतर प्रशंसा करती है! माँ, आप का जिह्वाग्र में सरस्वतीमाँ रहती है! इस का हेतु माँ का जीब लाल रंग होगया है!

रणे जित्वा दैत्या नपहृत-शिरस्त्रैः कवचिभिः
निवृत्तै-श्चंडांश-त्रिपुरहर-निर्माल्य-विमुखैः |
विशाखेंद्रोपेंद्रैः शशिविशद-कर्पूरशकला
विलीयंते मातस्तव वदनतांबूल-कबलाः || 65 ||

दिव्य माता, शिव (शुद्ध मन) नकारात्मक शक्तियों को नियमित किया है! उन का गर्व नाश कर दिया है! 
कुमारस्वामि : जो मनुष्य अपने आप को जानगया उस मनुष्य को स्वामि, और कुमार का अर्थ युवा और ऊरजवान् यानी युवा और ऊरजवान् अपने आप को जानगया मनुष्य ही कुमारस्वामि है!   
इंद्र : मन और इंद्रियों को नियंत्रित करनेवाला 
विष्णु:  सर्व व्यापक चेतना ही विष्णु है!  

विपंच्या गायंती विविध-मपदानं पशुपते-
स्त्वयारब्धे वक्तुं चलितशिरसा साधुवचने |
तदीयै-र्माधुर्यै-रपलपित-तंत्रीकलरवां
निजां वीणां वाणीं निचुलयति चोलेन निभृतम् || 66 ||

शिव का विविध प्रकारों का साहस कृत्यों सरस्वती देवी संगीतयुक्त  गाती है! सरस्वती माँ का वीणावाद्य प्रवीणता जगज्जननी का मधुर संगीत कौशलता का सामने कुछ भी नहीं है!

करग्रेण स्पृष्टं तुहिनगिरिणा वत्सलतया
गिरिशेनो-दस्तं मुहुरधरपानाकुलतया |
करग्राह्यं शंभोर्मुखमुकुरवृंतं गिरिसुते
कथंकरं ब्रूम-स्तव चुबुकमोपम्यरहितम् || 67 ||

दिव्यमाता, जब परमात्मा चेतना परिपूर्णता होगी, शीतलता खोपड़ी को स्पर्श करेगा,!


भुजाश्लेषान्नित्यं पुरदमयितुः कन्टकवती
तव ग्रीवा धत्ते मुखकमलनाल-श्रियमियम् |
स्वतः श्वेता काला गरु बहुल-जंबालमलिना
मृणालीलालित्यं वहति यदधो हारलतिका || 68 ||

दिव्यमाता, शिव  (पुरुष) का आलिंगन में होता हुआ भी आप (प्रकृति) का चेहरा बहुत सुन्दर  है! आप का सुंदरता शुद्ध, पवित्र, और मोतीका माला पहना हुआ लगता है! 

गले रेखास्तिस्रो गति गमक गीतैक निपुणे
विवाह-व्यानद्ध-प्रगुणगुण-संख्या प्रतिभुवः |
विराजंते नानाविध-मधुर-रागाकर-भुवां
त्रयाणां ग्रामाणां स्थिति-नियम-सीमान इव ते || 69 ||

दिव्या माता, संगीत गाने में  आप विशेषज्ञ है! कंठ में तीन सिलवटों तीन पवित्र रेखावाली धागा जैसा दिखता है! कळ्याणि इत्यादि रागों को आश्रमस्थान दिया षड्जा, मध्यमा, और गांधार का अस्तित्व विराजमान है!

मृणाली-मृद्वीनां तव भुजलतानां चतसृणां
चतुर्भिः सौंद्रयं सरसिजभवः स्तौति वदनैः |
नखेभ्यः संत्रस्यन् प्रथम-मथना दंतकरिपोः
चतुर्णां शीर्षाणां सम-मभयहस्तार्पण-धिया || 70 ||

माँ, आप का सुंदर और नरम चार भुजो ब्रह्मा का चार शिर को प्रतिनिधित्व करते है! एक भुज मनको (वायु तत्व), एक भुज बुद्धि (अग्नि तत्व), एक भुज चित्त (जल तत्व), और एक भुज अहंकार (पृथ्वी तत्व) को प्रतिनिधित्व करते है!
प्रळय में सदाशिव आकाश तत्व को प्रतिनिधित्व करते है! इस तत्व सब तत्वों से अत्यंत सूक्ष्म तत्व जिसको सदाशिव पास रख दिया है!


नखाना-मुद्योतै-र्नवनलिनरागं विहसतां
कराणां ते कांतिं कथय कथयामः कथमुमे |
कयाचिद्वा साम्यं भजतु कलया हंत कमलं
यदि क्रीडल्लक्ष्मी-चरणतल-लाक्षारस-चणम् || 71 ||

जगज्जननी, आप का हाथ नाखून का साथ अत्यंत सुंदर लगता है! इन हाथो से जो चमक बाहर निकलता वह अत्यंत वर्णनातीत है! लक्ष्मीदेवी का लाल रंग का कमलपैर का अत्यंत रमणीय है!

समं देवि स्कंद द्विपिवदन पीतं स्तनयुगं
तवेदं नः खेदं हरतु सततं प्रस्नुत-मुखम् |
यदालोक्याशंकाकुलित हृदयो हासजनकः
स्वकुंभौ हेरंबः परिमृशति हस्तेन झडिति || 72 ||

कुमारस्वामि (अपने आप को जाननेवाला  युवा और ऊर्जावान), और गणेशा (इन्द्रियों का नायक) 
दिव्य माते, आप का उदार हृदय (अनाहतचक्र) नित्यं विशालता कि वर्ष बरशते है! जिसको दोनों गुणों है! उदार हृदय दिव्य माता उन को देखते है!

अमू ते वक्षोजा-वमृतरस-माणिक्य कुतुपौ
न संदेहस्पंदो नगपति पताके मनसि नः |
पिबंतौ तौ यस्मा दविदित वधूसंग रसिकौ
कुमारावद्यापि द्विरदवदन-क्रौंच्दलनौ || 73 ||

जगज्जननी, आप का अनाहतचक्र (ह्रदय)
निश्चय अमृत से भरा हुआ है! इस का हेतु कुमारस्वामि अपने आप को जाननेवाला युवा और ऊर्जावान बनगया, और गणेश इंद्रियों का नायक बन गया है! 
गणेश को दो बीबियाँ यानी सिद्धि (परिपूर्णता) और बुद्धि है! जिसको बुद्धि है उस को सिद्धि (परिपूर्णता) मिलेगा!
कुमारस्वामि को दो बीबियाँ यानी वल्ली (असाधारण) और देवसेना (सकारात्मक शक्तियोका सेना)! जो असाधारण है वह ही सकारात्मक शक्तियोका सेना नायक यानी कुमारस्वामि बनेगा!

वहत्यंब स्तंबेरम-दनुज-कुंभप्रकृतिभिः
समारब्धां मुक्तामणिभिरमलां हारलतिकाम् |
कुचाभोगो बिंबाधर-रुचिभि-रंतः शबलितां
प्रताप-व्यामिश्रां पुरदमयितुः कीर्तिमिव ते || 74 ||

दिव्य माते, अनहता और विशुद्ध दोनों का बीच में स्वच्छा और शुद्ध मोतियों का माला से कवर (cover) किया है! वह माला शिव का कीर्ति से भरा हुआ है!

तव स्तन्यं मन्ये धरणिधरकन्ये हृदयतः
पयः पारावारः परिवहति सारस्वतमिव |
दयावत्या दत्तं द्रविडशिशु-रास्वाद्य तव यत्
कवीनां प्रौढाना मजनि कमनीयः कवयिता || 75 ||

दिव्य माते,  यह शंकर आपका अनाहताचक्र और इडा पिंगळा नाड़ियो का माध्यम से उत्पन्न हुआ है! जिसका दया हेतु इस शंकरा कवी का जन्मा हुआ और कवित्वधारा बहा गया है!

हरक्रोध-ज्वालावलिभि-रवलीढेन वपुषा
गभीरे ते नाभीसरसि कृतसङो मनसिजः |
समुत्तस्थौ तस्मा-दचलतनये धूमलतिका
जनस्तां जानीते तव जननि रोमावलिरिति || 76 ||

दिव्य माते, मन्मथ कामदेवता है! वह शुद्ध मन को परेशान किया है! शुद्ध मन को गुस्सा आगया है! शुद्ध मन उस को भस्म किया है! नाभी (मणिपुर) में छिप गया है!  उधर से लता जैसा धुँआ निकला है! वह पतलासा धुँआ केश जैसा लगरहा है!
इस का अर्थ साधक का कुण्डलिनी मणिपुर से सहस्रार तक यानी उप्पर तक सुषुम्ना नाडी का माध्यम से पहुँचने को परिपूर्णता प्राप्त किया है!
यहाँ नाभी मणिपुर, दोनों स्तन इडा और पिंगळा नाडियाँ, पतलासा धुँआ जैसा केश उप्पर सुषुम्ना नाडी का माध्यम से सहस्रार तक पहुँचने परिपूर्णता प्राप्त किया कुण्डलिनी है!
यदेतत्कालिंदी-तनुतर-तरंगाकृति शिवे
कृशे मध्ये किंचिज्जननि तव यद्भाति सुधियाम् |
विमर्दा-दन्योन्यं कुचकलशयो-रंतरगतं
तनूभूतं व्योम प्रविशदिव नाभिं कुहरिणीम् || 77 ||

दिव्या माता, आपका कटी प्रदेश यमुना नदी का छोटासा पतला तरंग जैसा लगा रहा है! यमुना यानि मूलाधारा, अनाहता, और विशुद्ध तीनो एक संगम लग रहा है! तीनों इडा और पिंगळा का साथ टकराके (collide) मणिपुर यानी नाभी में प्रवेश करा रहे है! ऐसा लगरहा है!

स्थिरो गंगा वर्तः स्तनमुकुल-रोमावलि-लता
कलावालं कुंडं कुसुमशर तेजो-हुतभुजः |
रते-र्लीलागारं किमपि तव नाभिर्गिरिसुते
बेलद्वारं सिद्धे-र्गिरिशनयनानां विजयते || 78 ||

दिव्या माता, आपका नाभी (मणिपुर) गंगा में स्थिर रूप में भँवर जैसा लग रहा है! अनहता को जानेवाले पतलासा लता जैसा लग रहा है! वह कामदेवता का यज्ञाग्निगुंड जैसा लग रहा है! स्तन इडा और पिंगळा है! स्तन व इडा और पिंगळा का मध्यप्रदेश साधक को सुषुम्ना मार्ग,  और संसारी को रतीदेवी व मन्मथ का खेलने का जगा है! वह सदाशिव का तपस करने गुफा है!
ईर्ष्या द्वेष मणिपुरचक्र में दग्ध होजाता है! वह कामाँ देवता का अग्नि गुंड है! दिव्यमाता का नाभिस्थान रति देवी का खेल स्थान है! वह ही सदाशिव का गुफा है!  दिव्यमाता का नाभी वर्णनातीत है!

निसर्ग-क्षीणस्य स्तनतट-भरेण क्लमजुषो
नमन्मूर्ते र्नारीतिलक शनकै-स्त्रुट्यत इव |
चिरं ते मध्यस्य त्रुटित तटिनी-तीर-तरुणा
समावस्था-स्थेम्नो भवतु कुशलं शैलतनये || 79 ||

दिव्या माता,  आप का अनाहतचक्र, यानी इडा और पिंगळा का मध्य प्रदेश हम को शुभ करनेदो! आपका कटी यानी मूलाधार प्रदेश हम को शुभ करनेदो! आपका स्वाधिष्ठान प्रदेश हम को क्षेमं करनेदो!

कुचौ सद्यः स्विद्य-त्तटघटित-कूर्पासभिदुरौ
कषंतौ-दौर्मूले कनककलशाभौ कलयता |
तव त्रातुं भंगादलमिति वलग्नं तनुभुवा
त्रिधा नद्ध्म् देवी त्रिवलि लवलीवल्लिभिरिव || 80 ||

दिव्या माता, आप का कांतिपुरक अनाहताचक्र, आपका स्वाधिष्ठान और  मणिपुरचक्र साधना में हमको अत्यंत सुन्दर लगता है!

गुरुत्वं विस्तारं क्षितिधरपतिः पार्वति निजात्
नितंबा-दाच्छिद्य त्वयि हरण रूपेण निदधे |
अतस्ते विस्तीर्णो गुरुरयमशेषां वसुमतीं
नितंब-प्राग्भारः स्थगयति सघुत्वं नयति च || 81 ||

दिव्यमाता, आप को स्त्रीधन का बदल में आप की पिताश्री ने बहुत वजन दिया है! इसी हेतु पूरा जगत धरने को आप को कोई आपत्ति नहीं है! इस का अर्थ सारे चराचर प्रपंच धरने माँ को बहुत ही आसान है! 

करींद्राणां शुंडान्-कनककदली-कांडपटलीं
उभाभ्यामूरुभ्या-मुभयमपि निर्जित्य भवति |
सुवृत्ताभ्यां पत्युः प्रणतिकठिनाभ्यां गिरिसुते
विधिज्ञे जानुभ्यां विबुध करिकुंभ द्वयमसि || 82 ||

दिव्यमाता, आपकी सुवर्ण जांघो कदळी के वृक्षों के तने और हाथी की सूंड जैसा मजबूती है! आप की पवित्र घुटने शिव को नमस्कार करता हुआ बहुत सकते हुआ है!

पराजेतुं रुद्रं द्विगुणशरगर्भौ गिरिसुते
निषंगौ जंघे ते विषमविशिखो बाढ-मकृत |
यदग्रे दृस्यंते दशशरफलाः पादयुगली
नखाग्रच्छन्मानः सुर मुकुट-शाणैक-निशिताः || 83 ||

दिव्यमाता, पुरुष (शिव) को जितने का हेतु, मन्मथ ने पांच बाण आकाश, वायु, अग्नि, जलं, और पृथ्वी बना दिया था! मन्मथ सुंदर प्रकृति यानी माँ को बना दिया था! 

श्रुतीनां मूर्धानो दधति तव यौ शेखरतया
ममाप्येतौ मातः शेरसि दयया देहि चरणौ |
यय//ओः पाद्यं पाथः पशुपति जटाजूट तटिनी
ययो-र्लाक्षा-लक्ष्मी-ररुण हरिचूडामणि रुचिः || 84 ||

दिव्यमाता, संसार में रहता हुआ आसक्ति नहीं हुआ आप की पद्मपाद को शास्त्रों पूजा करते है! वैसा पद्मा/कमल पाद मेरा शिर का उप्पर करुणा हृदय से रखो माँ! शुद्ध मनस्कों को धुलाई करने गंगा ही आप का पैरों को धुलाई करता है! भगवान विष्णु का चूडामणि का कांती भी यह धुलाई का कांती ही है!

नमो वाकं ब्रूमो नयन-रमणीयाय पदयोः
तवास्मै द्वंद्वाय स्फुट-रुचि रसालक्तकवते |
असूयत्यत्यंतं यदभिहननाय स्पृहयते
पशूना-मीशानः प्रमदवन-कंकेलितरवे || 85 ||

दिव्यमाता, आप का पादों को नमस्कार, उस पादों का सिदूर अधिक पवित्र है! शिव यानी शुद्ध मन माँ का पदचिह्न के साथ टकराने को तड़पता है! 

मृषा कृत्वा गोत्रस्खलन-मथ वैलक्ष्यनमितं
ललाटे भर्तारं चरणकमले ताडयति ते |
चिरादंतः शल्यं दहनकृत मुन्मूलितवता
तुलाकोटिक्वाणैः किलिकिलित मीशान रिपुणा || 86 ||

दिव्यमाता,  पुरुष का माथा को आप  पैर से स्पर्श किया था! इसे लगता है की कामदेवता शिव यानी शुद्ध मन को जित गया है! यानी सुंदर प्रकृति पुरुष को जीता गया है!
आदिशंकरा इधर कहा गया है की परमात्म चेतना और माया चेतना दोनों इस माया संसार के लिए बिलकुल जरूरी है!
शुक्रं (sperm) उप्पर दिशा में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहता, विशुद्ध, आज्ञा, और सहस्रार चक्रों में ओजस और ब्राजस बाधाओं पार करेगा! 
त्रेताग्नि में शुक्रं (sperm) को दक्षिनाग्नि कहते है! वह इंद्रियों को शांति करेगा, और कामं को संतृप्ति करेगा!
संतान पायदा करनेवाली शुक्रं (sperm) को गार्हपत्याग्नि कहते है!
आध्यात्मिक उन्नति को उपयोगी शुक्रं (sperm) को आवहनीयाग्नि कहते है!
दक्षिनाग्नि और गार्हपत्याग्नि दोनों नीचे जानेवाली शुक्रं (sperm) है! इसी लिए दोनों अथोमार्ग है!
उप्पर जानेवाली शुक्रं (sperm) को आवहनीयाग्नी कहते है! यह ऊर्ध्वमार्ग  और इस को सुषुम्नामार्ग कहते है!  
अथोमार्ग शुक्रं पाताळ मार्ग का है!
अथोमार्ग गार्हपत्याग्नि शुक्रं को मर्त्यलोकमार्ग कहते है!
कुण्डलिनी सिद्धि उपयोगी शुक्रं यानी आवहनीयाग्नी ऊर्ध्वदिशा मार्ग व देवलोक मार्ग है!
गोत्रस्खलनं  :
गो = इन्द्रियों को,  त्र = रक्षण  स्खलनं= वीर्य शक्ति
गोत्रस्खलनं का अर्थ वीर्य शक्तिको बलहीन करना
वीर्य को गंगा कहते है! वीर्य सहस्रारचक्र पहुँचन को अर्थानारीश्वरतत्वं कहते है!

हिमानी हंतव्यं हिमगिरिनिवासैक-चतुरौ
निशायां निद्राणं निशि-चरमभागे च विशदौ |
वरं लक्ष्मीपात्रं श्रिय-मतिसृहंतो समयिनां
सरोजं त्वत्पादौ जननि जयत-श्चित्रमिह किम् || 87 ||

दिव्यमाता, आप का पैर कौशलपूर्ण और शीतल पहाड़ो में रहने को सक्षम है! आप का पैर शीतल रातों में वह भी प्रकाशमान और विकास का साथ रहने को सक्षम है! आप का कमल पैर लक्ष्मी को भक्तो को देने सक्षम है! ऐसे पैर बर्फ से प्रभावित नहीं होते है! दिव्यमाता, आप का पैर का सामने कमल भी कुछ नहीं है!
कठोरता से ध्यान करने योगी व साधक पराशक्ति को लभ्य करेगा!  प्रथमे में पराशक्ति गरम होगी! जब कुण्डलिनी सहस्रार तक जागृति होगी, तब कुण्डलिनीशक्ति शीतल होगी! तब उसकों हैमवति कहते है!

पदं ते कीर्तीनां प्रपदमपदं देवि विपदां
कथं नीतं सद्भिः कठिन-कमठी-कर्पर-तुलाम् |
कथं वा बाहुभ्या-मुपयमनकाले पुरभिदा
यदादाय न्यस्तं दृषदि दयमानेन मनसा || 88 ||

दिव्यमाता, आपका पैर कीर्ति का प्रतीक है, अपख्याती का जगह नहीं होगी! वह कछुआ शीर्ष जैसा है! हल्दी विवाहित स्त्री का अत्यंत पवित्र है!  हल्दी चक्की में पीसता है! माँ, आप का पैर भक्ति गौरव का वजह से चक्की जैसा विवाह में मानता है!

नखै-र्नाकस्त्रीणां करकमल-संकोच-शशिभिः
तरूणां दिव्यनां हसत इव ते चंडि चरणौ |
फलानि स्वःस्थेभ्यः किसलय-कराग्रेण ददतां
दरिद्रेभ्यो भद्रां श्रियमनिश-मह्नाय ददतौ || 89 |

कल्प वृक्ष सकारात्मक शक्तियों व देवो का न्यायबद्ध इच्छाओं को पूरा करेगा! दिव्यमाता, आपकि दिव्य पैरो रक्षणापूरक संपत्ति गरीबी और श्रद्धापूरक भक्तो को देंगी!   

ददाने दीनेभ्यः श्रियमनिश-माशानुसदृशीं
अमंदं सौंदर्यं प्रकर-मकरंदं विकिरति |
तवास्मिन् मंदार-स्तबक-सुभगे यातु चरणे
निमज्जन् मज्जीवः करणचरणः ष्ट्चरणताम् || 90 ||

दिव्यमाता, न्यायबद्ध इचछाओं और संपत्ति श्रद्धापूरक गरीबी भक्तो को देंगी! वैसा दयापूरक दिव्य पैरो को नमस्कार करता हु! आप का पैर सुन्दरता और मथुर गुण का सम्मिळन् है! आप का चरणों में मंथर फूल समर्पण करता हु! आप का चरणों में मनसा वाचा कर्मणा साष्टांग नमस्कार करता हु! यह भ्रमर कीटक न्याय जैसा है!

पदन्यास-क्रीडा परिचय-मिवारब्धु-मनसः
स्खलंतस्ते खेलं भवनकलहंसा न जहति |
अतस्तेषां शिक्षां सुभगमणि-मंजीर-रणित-
च्छलादाचक्षाणं चरणकमलं चारुचरिते || 91 ||

दिव्यमाता, राजहंस का खेल सीखनेवाले साधको आप का इंतेजार में है ताकि वे लोग उचित प्राणायाम प्रणालीगत और लयबद्ध तरीके से सीखने सक्षम रहे!

राज = वह गंभीर मुद्दा है!, हंस = आसानी से लेने वाला नही है!,  राजहंस का अर्थ : वह गंभीर मुद्दा है, आसानी से लेने वाला नही है!
हंस = यह पक्षी हंसा नहीं, श्वास हंसा है! 
हाँ सा = एक श्वास + एक निश्वास        
12 क्रमशिक्षणासहित श्वास + 12 क्रमशिक्षणा सहित निश्वास = 1 धारणा प्राणायाम     
दिव्या माँ मराळी मंदगमना यानी दिव्यमाता ही क्रमशिक्षणा सहित निरंतर प्राणायाम करने में अत्यंत श्रेष्ठतम विशेषज्ञ है!
क्रमशिक्षणा सहित निरंतर प्राणायाम करने में अत्यंत श्रेष्ठतम विशेषज्ञ को परमहंस कहते है!

गतास्ते मंचत्वं द्रुहिण हरि रुद्रेश्वर भृतः
शिवः स्वच्छ-च्छाया-घटित-कपट-प्रच्छदपटः |
त्वदीयानां भासां प्रतिफलन रागारुणतया
शरीरी शृंगारो रस इव दृशां दोग्धि कुतुकम् || 92 ||

दिव्यमाता, ब्रह्मा, रूद्र, विष्णु, और ईश्वर खाट का चार पैर जैसा आप चारो दिशा में सदाशिवतत्व का साथ विराजमान है!
साधना में कुण्डलिनी ऊर्ध्वगति लभ्य करता है! 
तब ब्रह्मग्रंथि(brain of instincts & desires), रूद्रग्रंथि (brain of emotions & affections), & विष्णुग्रंथि (brain of inintellect & wisdom) पार करता है! इन तीनो स्थति पार करके महत्वापूर्ण स्थति यानी सदाशिव स्थति पहुंचता है!
ब्रह्मग्रंथि : मूलाधरा – स्वाधिष्ठान - मणिपुर
रूद्रग्रंथि : मणिपुर – विशुद्ध
विष्णुग्रंथि : विशुद्ध – आज्ञा – सहस्रार
साधक तीनो स्थितिया पार कर के सदाशिव स्थति पहुंचता है! इस को अर्थानारीश्वर स्थति कहते है!

अराला केशेषु प्रकृति सरला मंदहसिते
शिरीषाभा चित्ते दृषदुपलशोभा कुचतटे |
भृशं तन्वी मध्ये पृथु-रुरसिजारोह विषये
जगत्त्रतुं शंभो-र्जयति करुणा काचिदरुणा || 93 ||

दिव्यमाता, आपका घुंघराले केश, आपका मुस्कराती, आपका नरम मन बहुत सुन्दर है! इनका साथ आपका इडा पिंगळ का मध्य उप स्थित सुषुम्ना मार्ग, और बलोपेत मूलाधार बहुत सुंदर है! इनका साथ आपका सदाशिवतत्व और ‘अरुण’ नाम का शक्ति जगत को रक्षा देती है!

कलंकः कस्तूरी रजनिकर बिंबं जलमयं
कलाभिः कर्पूरै-र्मरकतकरंडं निबिडितम् |
अतस्त्वद्भोगेन प्रतिदिनमिदं रिक्तकुहरं
विधि-र्भूयो भूयो निबिडयति नूनं तव कृते || 94 ||

दिव्यमाता, चंद्र माँ आपका आभरण रखने एक पेट्टि है! चंद्र का कालापन कस्तूरी है! चंद्र का पानी आप नहाने का पानी है! खाली होने परा ब्रहमा ने इस को भरके रखता है!    

पुरारंते-रंतः पुरमसि तत-स्त्वचरणयोः
सपर्या-मर्यादा तरलकरणाना-मसुलभा |
तथा ह्येते नीताः शतमखमुखाः सिद्धिमतुलां
तव द्वारोपांतः स्थितिभि-रणिमाद्याभि-रमराः || 95 ||

दिव्यमाता, आप शिव का पत्नी है! शिव तीनो यानी भौतिक, सूक्ष्म, और कारण पुरों का नायक है!
माँ, आप का पवित्र पाद प्रक्षाळन करना साधारण विषय नहीं है! देवो जैसा इंद्र इत्यादि आप का कृपा का अनुसार अणिमा इत्यादि सिद्धियों लभ्य कियाहै!  इंद्र का अर्थ शुद्ध मन है!

कलत्रं वैधात्रं कतिकति भजंते न कवयः
श्रियो देव्याः को वा न भवति पतिः कैरपि धनैः |
महादेवं हित्वा तव सति सतीना-मचरमे
कुचभ्या-मासंगः कुरवक-तरो-रप्यसुलभः || 96 ||

दिव्यमाता, अनेक विद्वान् लोग ब्रह्मा – सरस्वती को प्रार्थना करके विद्या प्राप्त करता है! लक्षीदेवी को ध्यान करके लक्ष्मीपति बनता है! परंतु जगज्जननी माँ, आप को लभ्य करना अनितरसाध्य है! माँ का दया प्राप्त होने से माँ का चित शक्ति उत्पन्न होगा!

गिरामाहु-र्देवीं द्रुहिणगृहिणी-मागमविदो
हरेः पत्नीं पद्मां हरसहचरी-मद्रितनयाम् |
तुरीया कापि त्वं दुरधिगम-निस्सीम-महिमा
महामाया विश्वं भ्रमयसि परब्रह्ममहिषि || 97 ||

दिव्यमाता, पराशक्ति, आप परब्रह्म का साथ उपस्थित है!  जो आप को जानता, वो आपको सरस्वती माँ व लक्ष्मी माँ अथवा पार्वती माँ जैसा पूजा करेगा! आप तीने में से प्रत्येक है! आप अद्वितीय महामाया है! माँ, आप इस जड़ प्रपंच को चेतना देते हो! आप सब सीमायों के परे है!

 कदा काले मातः कथय कलितालक्तकरसं
पिबेयं विद्यार्थी तव चरण-निर्णेजनजलम् |
प्रकृत्या मूकानामपि च कविता0कारणतया
कदा धत्ते वाणीमुखकमल-तांबूल-रसताम् || 98 ||
दिव्यमाता, आप का लाल पैरो को धुलाई किया पाने कब पी सकूंगा? उस पानी जब गूंगा पीएगा वह बोल सकेगा, बहरा पीएगा वह सुनने को सक्षम  होगा! माँ, आप का दया कब मिलेगा?

सरस्वत्या लक्ष्म्या विधि हरि सपत्नो विहरते
रतेः पतिव्रत्यं शिथिलपति रम्येण वपुषा |
चिरं जीवन्नेव क्षपित-पशुपाश-व्यतिकरः
परानंदाभिख्यं रसयति रसं त्वद्भजनवान् || 99 ||
दिव्यमाता, सरस्वति – ब्रह्मा, लक्ष्मी – विष्णु, दोनों को आप का उप्पर ईर्ष्या द्वेष से पूजा करते है! कामादेवता भी आप का उप्पर ईर्ष्या द्वेष से पूजा करता है! आप को पूजा करनेवाला भक्त माया से अनासक्त होगा! वह परमानंद में डूब जायेगा!    
प्रदीप ज्वालाभि-र्दिवसकर-नीराजनविधिः
सुधासूते-श्चंद्रोपल-जललवै-रघ्यरचना |
स्वकीयैरंभोभिः सलिल-निधि-सौहित्यकरणं
त्वदीयाभि-र्वाग्भि-स्तव जननि वाचां स्तुतिरियम् || 100 ||

माँ सरस्वती, सूरज को कपूर हारती जैसा, चन्द्र का पत्थर से पानी लेकर उसी पानी को चंद्र को अर्पित करना जैसा, समुद्र का पानी समुद्र को ही अर्पित करना जैसा, इस प्रार्थना स्तोत्रं उस माँ सरस्वती को अर्पित करता हु!
 सौंदयलहरि मुख्यस्तोत्रं संवार्तदायकम् |
भगवद्पादेन विरचितं पठेन् मुक्तौ भवेन्नरः ||
सौंदर्यलहरि स्तोत्रं संपूर्णं







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