अष्टादश पुराण

अष्टादश पुराण:
इन अष्टादश पुराणों में सृष्टि कार्यक्रम पुनरावृत होता है!
प्रचेतस का भार्या मरीषा है! प्राचेतस का अर्थ शुद्धचेताना है! मरीषा का अर्थ इच्छुकों है!  भौतिक जगत का मूलकारण इच्छुकों से भरा हुआ शुद्ध चेतना ही है! तब व्यक्तीकरण हुआ पुरुष का नाम दक्ष है! क्रमशः वह दक्ष ही प्रजापति का नाम से व्यवहारित हुआ है! तत पश्चात अनेक प्रजापतियो का व्यक्तीकरण हुआ! इसी कारण आदि पुरुष दक्ष प्रजापती ही है! मनस् ही ब्रह्मा है!
परमात्मा का अन्दर ही माया है! मायाको स्वयं प्रतिपत्ति नहीं है! विष्णु, ललिता, कृष्ण, रामा, ब्रह्मा, शिव, इत्यादि नामो से पुकारा जाता है माया!  
मा= नहीं,  या= यदार्थ,    पदार्थ कभी भी यदार्थ नहीं है!
माया व परमात्मा का शक्ति अपने आप को स्वयं सृष्टि, स्थिति, और लया इति तीन भागो में विभाजित करा के सृष्टि कार्य चलाती है!
सृष्टि का अर्थ ब्रह्म,  स्थिति का अर्थ विष्णु, और लया का अर्थ शिव है!
एक ही पुरुष भर्ता, पिता, पुत्र, मित्र, अधिकारी, इत्यादि विविध रूपधारण करता है! अपना कार्यकलाप चलाता है! वैसा ही परमात्मा एक ही अपनी आप को स्वयं सृष्टि, स्थिति, और लया इति तीन भागो में विभाजित करा के इस जगत को चलाता और त्रिमूर्ती नाम में बुलवाया जाता है! इस का अर्थ इन त्रिमूर्ती एक ही शक्ति का तीन विविध रूप है!  

1)ब्रह्मा पुराण:
ब्रह्म का अर्थ सृष्टि है! ब्रह्मा पुराण में सृष्टि कैसा व्यक्तीकरण हुआ समझाता है!    
2) पद्म पुराण:
पद्म पानी मी होने से भी सड़ता नहीं है! इस संसार पानी जैसा है! नय्या (boat) जल में होना ठीक है! परंतु जल नय्या (boat) में नहीं होना चाहिए!
वैसा ही मनुष्य जल जैसा संसार में होना ठीक है! परंतु संसार नाम का पानी मनुष्य का अन्दर नहीं होना चाहिए! एसा होने से पानी से भरा हुआ नय्या (boat) डूब जाता है वैसा ही मनुष्य का अन्दर संसार होने से पानी जैसा संसार में डूब बैठेगा! ये सब पद्म पुराण समझाया गया है!
3) विष्णु पुराण:
व्यक्तीकरण हुआ जगत कैसा स्थितिवंत होगा समझाने वाली  पुराण विष्णु पुराण है!
भरत एक ध्यानपर राजा था! वह एक हिरण का बच्चा को प्राणसमान पालता था! पालते पालते मरगया था! इसी हेतु वह एक हिरण का पेड़ में जन्मा हुआ है! मगर पूर्वजन्म स्मृति हेतु उस को ध्यान पर ही प्रीती अधिक थी! तत्  पश्चात् भरत एक ध्यानशीली का गृह में जन्म हुआ! पूर्वजन्म स्मृति का हेतु भरत को केवल ध्यान पर ही प्रीती अधिक था! इस बार वह किसी का उप्पर व्यामोह नहीं रख कर केवल परमात्मा का उप्पर ही अनुनित्य ध्यान लग्न करता था! वह उप्पर से मंदबुद्धि जैसा दिखाई देता था! इसी हेतु उस को जड़भरता नाम में लोग पुकारते थे!
एक दिन उस रास्ता पे चलनेवाला राजा का पालकीन् धरने के लिए वह नियुक्त कियागया था! परंतु जड़भरत उस को सही नहीं धर् पाया था! राजा को असुविधा होकर गुस्सा से उस को पूछा, ‘क्यों ठेक दंग से नहीं धरते हो’!
राजा का सवाल का जवाब देते हुवे जडभरत ने कहा, ‘सब मिथ्या है, मै इस
पालकीन् धरने, और तुम मै धरा हुआ पालकीन् में बैठा करके समझना भी सब मिथ्या हैइति! इन समाधान को सुन कर राजा आश्चर्यचकित होता है! बाद में राजा जडभरत का शिष्य बनाकर ब्रह्मज्ञान पाकर मुक्ति प्राप्त करता है!
जड़ा का अर्थ विस्मरण,  भरत का अर्थ प्रकाश,  मोह का हेतु ज्ञान विस्मरण होता है! क्रियायोग ध्यान से वह विस्मरण ज्ञान पुनः प्रकाशित करसकता है!

4) शिव पुराण:
स्थितिवंत हुआ जगत कैसा लाया होगा समझाने वाली पुराण शिव पुराण है! 


5) वामन पुराण:
व=वरिष्ट   मन= मनस्
वरिष्ट मनस् का माध्यम से आदिभौतिक, आदिदैविक, और आध्यात्मिक बाधाओं को अधिगमन करके अंकिता और त्यागा भाव से परमात्मा का साथ अनुसंथान करो इति समझानेवाला पुराण वामन पुराण है! 
श्री महाविष्णु वामनावतार में बलि चक्रवर्ती को तीन कदम् /फूट का जमीन दान माँगता है! राक्षस गुरु शुक्राचार्य इंकार करने से भी नहीं सुनके वाग्दान का अनुसार चक्रवर्ती दान देदेते है!
वा का अर्थ वरिष्ठ, मन का अर्थ मनस्, वरिष्ठ मनस् यानी स्थिर मनस् है!
स्थिर मनस् के लिए तीन कदम् का अवसर है! साधक अपना साधन में तीन प्रकार का अवरोध, आदिभौतिक, आदिदैविक, और आध्यात्मिक, आते है!   
आदिभौतिक अवरोध का अर्थ शरीरक रुग्मतायें, आदिदैविक अवरोध का अर्थ मानसिक रुग्मतायें, और आध्यात्मिक अवरोध का अर्थ ध्यानसम्बंधिता रुग्मतायें, है!
इन्ही को मल, आवरण और विक्षेपण दोषों कहते है!
शरीरक रुग्मतायें का मतलब ज्वर, शिरदर्द, बदन का दर्द इत्यादि!
मानसिक रुग्मतायें, का मतलब मन का संबंधित विचारों इत्यादि!
ध्यानसम्बंधिता रुग्मतायें का मतलब निद्रा, तन्द्रा, आलसीपन  इत्यादि!
क्रिया योग साधक परमात्मा में ऐक्यता होनेके लिए उप्पर दिया हुआ तीन प्रकार का अवरोधों का बारे में सावधान रहना चाहिए! इन तीनों को वैराग्य से दूर करके स्थिर मन लभ्य करना चाहिए! परमात्मा से प्रार्थना करके तीनों कदम् पार करने का माँगना चाहिए! ऐसा माँग ही तीन कदम्!     
सब कुछ परमात्मा ही करता है! वे परिच्छिन्न भी है और अपरिच्छिन्न भी है! साधक का साधना जब तीव्रतम होगा तब परामात्मा ही स्वयं ही ए तीन कदम् मांगेगा! तीव्रध्यान में अँगुष्ठ प्रामाण में सूक्ष्मरूपी वामन का दर्शन कूटस्थ में होना ही इस का निदर्शन है! सूक्ष्मरूपी वामन साधक का स्वस्वरुप है
साधक अपना अंदर का इन्द्रिय विषय वांछोम् को वैराग्य से दूर करना ही बलि हैविचारधारा वर्तुलाकार में (चक्र) आना उनका वृत्ति (वर्ती) है! ही चक्रवर्ती का अर्थ है! वर्तुलाकार चित्त वृत्तियों को वैराग्य से दूर करना ही बलि चक्रवर्ती का अर्थ है!
राक्षसगुरू शुक्राचार्य अहंकार को पालन करनेवाला है! काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, और मात्सर्योम् इन सब का मूलकारण अहंकार ही है! इन को त्यजना ही बलि है! पाताललोक कही और नहीं है, हमारा अंदर ही है! इन्द्रिय विषय वांछोम् को वैराग्य से उन से अतीत होना ही साधक का आध्यात्मिक अभिवृद्धि है!
6)मार्कंडेय पुराण:
श्वास को अस्त्र जैसा उपयोग करना ही श्वास्त्र है! क्रमशः श्वास्त्र शास्त्र बनगया है! श्वास को अस्त्र जैसा उपयोग करना जो जानता उसी को श्वास्त्री कहते है! वह क्रमशः शास्त्री बनगया है! श्वास को अस्त्र जैसा उपयोग करके चिरंजीवी कैसा बनेगा समझानावाली  पुराण मार्कंडेय पुराण है!
ॐ ह्रोम ॐ ज़ूम् सः बूर्भुवस्वः
ॐ त्रयम्बकं यजामहे सुगंधिम्  पुष्टिवर्धनम्
उरुवारकमिवबंधनात् मृत्योर्मुख् क्षीयामामृतात् !
इस मंत्र शिव व तीन नेत्रोवाला को अंकिता किया है! इस मंत्र श्री मार्कंडेय महर्षि का विरचित है! भयंकर रोग निवारण के लिए इस मंत्र अवश्य पढ़ना चाहिए!  

तात्पर्य:
ॐ= हे परब्रह्मन  त्रयम्बकं= तीन नेत्रवाला,  यजामहे= प्रार्थना करता हु सुगंधिम्=खुशबूदार  पुष्टिवर्धनम् = दृढवान उरुवारकमिव = बढ़ा शकिमान  बंधनात् = माया इति बंध से  मृत्योर्मुख् क्षीय = मृत्यु से   माम् = मुझ को  अमृतात् = अमृतत्व में लेजाना !  
 इस मंत्र को 108 बार कूटस्थ में मन और दृष्टि लगा के कराना चाहिए! इस मंत्र का माध्यम से नकारात्म
क शक्तियों को निरोधित कर सकते हो! 
7) वराह पुराण: भक्ति और क्रमशिक्षण (discipline) इति दंतद्वयम् का माध्यम से -वरिष्ट राह-मार्गवराह का अर्थ वरिष्ट मार्गमें चलते हुवे अपना कर्त्तव्य निभावो! हिरण्याक्षवधा इसी का प्रतीक है!
-वरिष्ट राह-मार्गवराह का अर्थ वरिष्ट मार्गक्रियायोग साधना मार्ग वरिष्ट मार्ग है! वराह अवतार में पृथ्वी को  पानी के   अंदर से परमात्म अपना दोनों दंतों द्वारा ऊपर उठाते है! मनुष्य पृथ्वी का प्रतीक है!  संसार पानी का  प्रतीक है!  मनुष्य को ज्ञानदंत बड़े होने  के बाद आता है! यह ज्ञान का प्रतीक है! 
हे मनुष्यसंसार नाम के पानी में  डुबो मत, क्रियायोग साधना से लभ्य हुवे ज्ञान द्वारा संसार से  मुक्त  होजाओ,  परमात्मा के साथ अनुसंधान प्राप्त करो!  इस के लिए उद्देश्यित है इस वराहावतार! वराहावतार में स्थूलशरीर सम्बंधित ब्रह्मग्रंथी विच्छेदन होता है! 
यह सब वराह पुराण का माध्यम से समझाया गया है!    
  
8) अग्नि पुराण:
कर्मो को कैसा दग्ध करसकता है समझानेवाला पुराण अग्नि पुराण है!
रिवाजे, दग्धयोगा, सूक्ष्मनाडीयों का विवरण अग्नि पुराण समझाया गया है!

9)कूर्म पुराण:
शत्रुवो से अपने आप को रक्षा करने को कूर्म अपना अवयवों को अपने अन्दर  उपसंहरण (withdraw) करते है! श्वास क्रिया को बहुत कम करते है! इसी हेतु कोई इस कूर्म को हानी नहीं पहुंचाने से दीर्घ काल जीवित होसकता है! वैसा ही साधक अपना इम्द्रिय व्यापारों को क्रियायोग ध्यान साधना माध्यम से उपसंहरण करना अत्यंत आवश्यक है! प्राणशक्ति नियंत्रणा प्रावीण्यता लभ्य करना अत्यंत आवश्यक है! 
यह सब समझाया गया है कूर्म पुराण में!
10) भगवत पुराण:
भगवत पुराण को दूसरा नम श्रीमद्भागवत् है!
भ= भक्ति  ग= ज्ञान  व=वैराग्य त=तत् त्वम् इति ज्ञान्, तत्व ज्ञान,  श्री = पवित्र, मत= मनस्
भक्ति ज्ञान वैराग्य तत् त्वम् इति ज्ञान्, तत्व ज्ञान, ये सब तुमही हो, इति दिखानेवाला ही पवित्र मनस् है!
गोलोक का अर्थ इंद्रिय लोक है! इंद्रियों का राजा इंद्र व मन! चंचल मन वर्ष यानी विचारों को बरसेगा! इंद्रिय विषयों व विचारों को गो कहते है! गोपाल का अर्थ उन इंद्रिय विषयों का पालन करनेवाला! इंद्रिय विषयों का नियंत्रण व मनोनिश्चलता अत्यंत आवश्यक है! अथवा वे विचारों पर्वत जैसा बढ़ते रहेगा! इन का ऊँचाई का परिमिति नहीं होगा! नियंत्रणरहित मन व चंचल मन यानी इंद्र का विचारधारा बरसते रहेगा!
श्रीकृष्ण को कूटस्थ कहते है! आज्ञाचक्र व कूटस्थ में तीव्रध्यान करनेवाला क्रियायोग साधक कूटस्थ यानी श्रीकृष्णस्थिति पाने से आलोचनारहिता स्थिति व क्रियापरावस्था लभ्य करेगा! वैसा स्थिति साध्य किया साधक बारिस जैसा विचारों को नियंत्रण करना कनिष्ठ अंगुली से गोवर्धन पर्वत को उठाने जैसा आसान होगा! इसी को श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपना कनिष्ठ अंगुली  से उठाके गो व इन्द्रियों और गोपाल यानी इन्द्रियों का विषयों का पालन करनेवालों को इंद्र यानी चंचलमन से रक्षा किया कहते है!
गोपि का अर्थ गोप्य व गोपिका है! विचारे सब गोपिकाये है! हर एक विचार में जो चैतन्य है वह श्रीकृष्णा चैतन्य है! साधारण मनुष्य का मस्तिष्क का अंदर 16000 गोपिकाये होंगे! किसी ने यह 16000 नाप के नहीं बोला है! वैसा अंदाज से बोला है! या 16000 विचारे/गोपिकाये का पीछे परमात्मा होता है! क्यों कि प्राणशक्ति व परमात्म शक्ति अन्दर बाहर आने जाने से ही शिवम् कहते है नहीं तो शवं कहते है! इसी को निराकार स्थिति को पहुंचा हुआ योगीश्वर श्रीकृष्ण परमात्म को 16000 विचारे/गोपिकाये है बोलने में उद्देश्य है! ओ स्त्रीवाम्छालोल है इति बोलना नीति बाह्य और अर्थारहित और पाप है!
गोपिका वस्त्रापहरण में विचारा रहित होकर तुम्हारा ध्यान सब मेरा उप्पर केवल मेरा उप्पर होना चाहीए इति कहने में उद्देश्य है!
यह सब समझाया गया है भगवत पुराण में!
11) लिंग पुराण :
लिंग=सूक्ष्म
महा प्रळयानंतरम् सृष्टि सूक्ष्मरूप में परमात्मा में निक्षिप्त रहता है! पुनः सृष्टि प्राराम्भ में जैसा स्थूलरूप में दर्शान देता दिखाने वाला पुराण लिंग पुराण है!

12) नारद पुराण :
ना= नहीं रदा = शरीर,  बिना शरीर रहनेवाला व आत्मा है! साधक को लभ्य होनेवाला आत्मबोध ही नारद पुराण है!
ये सारा सृष्टि यावत् परमात्मा व सृष्टि का अतीत हुआ सत का हेतु संभव हुआ है!
सत का हेतु सृष्टि का अंदर का परमात्मा का चैतन्यशुद्ध चैतन्य, कूटस्थ चैतन्य, महा प्रकृति, और छे प्रकार का समिष्टि कारण- व्यष्टि कारण, समिष्टि सूक्ष्म - व्यष्टि सूक्ष्म,   समिष्टि स्थूल - व्यष्टि स्थूल इति छे चैतान्यो का आविर्भाव हुआ है!
महा प्रकृति, और छे  छे चैतान्यो को मिलाके मरीचि, अत्रि, अम्गीरसा, पुलह, क्रतु, पुलस्त्य, और वशिष्ट इति सात चैतान्यो सप्तर्षि करके पुकाराजाता है!
सनका, सनम्दाना, सनातन, और सनत्कुमार सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का चारा आदि मानस पुत्रों का रूप में अविर्भाव हुआ! उन्ही से सृष्टि व जीवस्रुष्टि का आविष्करण हुआ! इन्ही को परमात्माका शुद्ध निर्माणात्मक महाप्रकृति कहासकते है!  
सनका= प्रप्रथम,  सानंदा= आनंदा का साथ, सनातन= नित्य, सनत्कुमार= नित्य यौवन
याद रखना देवी को अथवा देवता को कुमारी व कुमार इति संबोधित करता है!
कुमार का अर्थ नित्य यौवन और शक्तिमान है!
इन चारों ब्रह्मा मानसपुत्रो शुद्ध और अमायक रह के संतानोत्पत्ति का इष्ट नहीं दिखाया है! परंतु नित्यसंतोषी परमात्मा और महाप्रकृति का अंतर्गत नित्यानम्दस्वरूपम् मिलके सातवा रजो और तमो इति तीन गुणों का रास्ता बनगया है! इन तीन गुणों महाप्रकृति का अंदर निश्चल पानी जैसा शांत रहगया है!
परंतु चल और चलाने गुणोंवाली (catalyst) व उत्प्रेरण करनेवाली  रजोगुण का स्पंदनों बाकी स्थितिवंत सत्वगुण, और लय अथवा नाशा करनेवाली तमो गुणों इन दोनों को चलाने के शक्य व प्रेरेपरण कर दिया है!
यह रजोगुण अपना उत्प्रेरण से सृष्टि आरम्भ करने का हेतु हुआ! इसीकारण रजोगुण को ब्रह्मा करके पुकारते है!
स्थितिवंत का हेतु सत्वगुण को विष्णु करके पुकारते है!
लाया का हेतु तमोगुण को करके महेश्वर करके पुकारते है!
महाप्रकृति का अंदर अनेक रूप में अनुभूति होने का इच्छा अपना अंतर्गत आनंद को इन सातवा रजो और तमो गुणों का उप्पर चार निर्माणात्मक प्रधान व मुख्य भावनों को रगड़ता है! वे है:  स्पंदना (ॐ) (vibration), काल (Time), देश (Space), और अणु (the idea of division of one into many)!
स्वयम्भुवा, स्वारोचिष, औत्तमि, तमास, रैवत,चक्षुषा, वैवस्वत, सावर्णि, दक्ष सावर्णि,  ब्रह्मा सावर्णि, धर्मं सावर्णि, रूद्र सावर्णि, रौच्य सावर्णि अथवा देव सावर्णि, भौत्य अथवा इंद्र सावर्णि इति चौदह मनु है!
हरएक मनु एक एक मन्वंतर को आदिपुरुष है! एक मन्वंतर पूर्ण होने पश्चात प्रळय संभव होता है! तत् पश्चात दूसरा मन्वंतर आरम्भा होता है!
प्रस्तुत में वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है! वैवस्वत का अर्थ परमात्मा का प्रकाश, मनु का अर्थ मनस्,  इस मनस् का माध्यम से ही चेतनायुक्त मनुष्य का अवतरण होता है! 

13) स्कंद पुराण :
इस स्कंद पुराण में सर्वसिद्धो को लभ्य करनेवाले महेश्वर धर्मो कुमारस्वामी ने लोकानुग्रह बुद्धि से कहा था!
स्वामि का अर्थ जो अपने आप को जाननेवाला, कुमार का अर्थ शक्ति, कुमारस्वामी का अर्थ अपने आप को जाननेवाला शक्ति है!
महा का अर्थ अत्यंत तेजोवंत, ईश्वर का अर्थ ईक्षण श्वर जैसा है! तीव्र क्रियायोग साधक का ईक्षण श्वर जैसा होता है! वे सर्वसिद्धो को और अपनेआपको स्वयं ही जानने का समर्थ शक्ति प्रसादित करता है!
हमारे अन्दर व्यष्टि और बाहर समिष्टि लोको है!
व्यष्टि  लोक                                समिष्टि लोक
मूलाधार   पाताळ                                    भू 
स्वाधिष्ठान  महातल                                    भूवर् 
मणिपुर --   तलातल                                     स्वर 
अनाहत     रसातल                                     महर् 
विशुद्ध --     सुतल                                      जन   
आज्ञा --     वितल                                      तपो
सहस्रार --    अतल                                      सत्य 
क्रियायोग साधनाका माध्यम से इस व्यष्टि का अंदर का सात लोक, और समिष्टि का अंदर का साथ लोक कुल मिलाके चौदह लोक अनुग्रह किया होता है!
स्कंद पुराण में यह समझाया गया है!

14. गरुड पुराण :
ग शब्द ज्ञान का प्रतीक है! इसी हेतु गं गणपतये नमः कहते है!
ग= ज्ञान  रुड = आरोहण क्रम को रुड कहते है!
ज्ञान में आरोहण क्रम को रुड होना ही गरुड पुराण कहते है! क्रियायोग ध्यान करके ज्ञानप्राप्ति लभ्य करो इति कहनेवाले पुराण गरुड पुराण है!
कश्यप महर्षि को विनता और कद्रुवा इति दो भार्या है!
कदृवा का स्वभाव दुष्ट है!  उनका संतान सर्पो है!
विनता का स्वभाव शिष्ट है!  उनका संतान गरुड है!
विनता और कद्रुवा दोनों एक दिन वाह्याळि के लिए जाते है! दूर से पूंछ का साथ धवळ  कांती से प्रकाशितमान एक अश्व को देखते है!
अश्व पूंछ का साथ धवळ है करके विनता, अश्व का पूंछ काला है करके कदृवा, दोनों शर्त रखते है! जो हर गया दूसरे को दासी बनाना करके शर्त रकहते है!  
दुष्ट कद्रुवा का सलाह का अनुसार उषा का संतान सांपो अश्व का पूंछ के साथ लटकाते है! इस का हेतु अश्व का पूंछ काला दिखाई देता है! शर्त में हार मानना पड़ता है और शर्त का अनुसार विनता और गरुड़ दोनों कदृवा का दास बनते है!
इंद्रा से अमृत लाने से दाश्यविमुक्ति होगा इति कदृवा कहता है! गरुड़ वह लाके देता है! दाश्यविमुक्ति होता है!  यह ही कहानी है!
कश्यप का अर्थ मनुष्य है! हर एक मनुष्य में दुष्ट स्वभाव(कद्रुवा) और शिष्ट स्वभाव (विनता) दोनों होता है! अश्व और सांपो इम्द्रियो का प्रतीके है!
धवल अश्व इम्द्रिया व्यापारों नाश होने का प्रतीक है!
कद्रुवा इन्द्रियों का वश हुआ मनस् व क्रियायोगा साधना नहीं करनेवाला मनुष्य इति अर्थ है! इसीलिये उस का संतान इन्द्रियों व सापो है! 
विनता का अर्थ इन्द्रियों का वश नहीं हुआ मनस् व क्रियायोग साधना करनेवाला साधक इति अर्थ है! ऐसा साधक का मनस् क्रमशः स्थिर होता है! इसीलिये वह ज्ञानारूढ व गरुड़ का जन्मा देता है! इन्द्रियों का राजा इंद्रा व मनस् को नियंत्रित करसकता है! वैसा मनस् अमृत देगा! तब तक अंधकार में डूबा हुआ मनस् (कदृवा) और उस का संतान (इम्द्रियो) का अमृत नहीं लभ्य होनेदेगा! साधक का दाश्य विमुक्ति के लिए ज्ञानारूढ गरुड़ 

15. मत्स्य पुराण :
मत्स्य = मीन व मछली, 
संसार पानी जैसा है! मत्स्यं व मीन पानी में होने से भी सड़ेगा नहीं है! वैसा ही मनुष्य संसार जैसा पानी ने हो सकता है! परंतु संसार का व्यामोह नहीं होना चाहिए! यह ही मत्स्य पुराण में समझाता है!

16. वायु पुराण :
अष्टांगयोग का माध्यम से प्राणशक्ति को नियंत्रण करना,  क्रियायोग साधना ध्यान का माध्यम से परमात्मामे लाया होना, यह ही  मानावाजनमा का सार्धक्यता इति यह ही मत्स्य पुराण में समझाया गया है!
एक काष्ठ = 15 बार आंख मारने का समय(winks)
30 काष्ठ = कल
30 कल = मुहूर्त = 2 घड़िया  =6 विघड़िया  
30 मुहूर्त  = 24 घंटों
12 मात्र (उंगली का थप्पड़) पूरकं + 12 मात्र कुम्भक + 12 मात्र रेचक = मंद प्राणायाम,
21 मात्र (उंगली का थप्पड़) पूरकं + 21 मात्र कुम्भक + 21 मात्र रेचक = मध्य प्राणायाम,
36 मात्र (उंगली का थप्पड़) पूरकं + 36 मात्र कुम्भक + 36 मात्र रेचक = उत्तम प्राणायाम
यह ही वायु पुराण में समझाया गया है!
17. भविष्य पुराण:
क्रियायोग सधना नहीं करने मनुष्य का प्रवृत्ति, लक्षणों, स्वभाव, इत्यादि कैसा होगा इति भविष्य पुराण में समझाया गया है! 
ब्राह्मण वैश्य क्षत्रिया और शूद्र इति कुलो उनका उनका गुणों से व्यक्तीकरण हुआ, जन्म से व्यक्तीकरण नहीं हुआ है!
इन्द्रिय विषय वांछालोल, कायाकष्ट व केवल स्थूल शरीर का उप्पर आधार हुआ मनुष्य शूद्र है!
ज्ञानसमुपार्जना के लिए कृषि करतेहुवे अपना अज्ञान को विसर्जन करके आध्यात्मिका का बारे में मनस् को घुमानेवाला मनुष्य वैश्य है! 
अन्तः शत्रुवोको निरोध व हटाके, आत्मनिग्रहशक्ति को वृद्धि करके ध्यान की तरफ तीव्रतर प्रयास करने मनुष्य क्षत्रिय है!
क्रियायोग ध्यान का माध्यमसे परमात्मा का साथ अनुसंथान करने मनुष्य ब्राह्मिण है! 
हर एक मनुष्य सकारात्मक और नकारात्मक शक्तियों दोनों होते है!
योगाभ्यास और क्रियायोग साधना ध्यान का माध्यमसे अपना अंदर का नकारात्मक प्रकृति को हटाके,
सकारात्मक प्रकृति को बढ़ावा व वृद्धि करके क्रमशः अहम् ब्रह्मास्मिव मनुष्य स्वयं ही अपना दैवत्व को
वृद्धि करके, स्वयं ही केवल परमात्मचैतन्य स्वरुप है इति अहसास (realize) करना चाहिए!
अथवा भविष्यत् में मनुष्य का अन्दर का अपना नकारात्मक शक्तियों विजृंभण होकर मानव दानव का प्रतिरूप लेगा! अकारण हेतु देशा विध्वंस के लिए कारणभूत होगा! देवालयों, मसीदो, चर्च इत्यादि पवित्र स्थलों को विध्वंस करेगा! मनुष्यों का गला अत्यंत दारुण रूप में काट के, ‘ मै इ सब भगवान के लिए करा रहा हु इति बकवास करेगा! मानावाली का शत्रु बनेगा!    
18. ब्रह्मांड पुराण :
स्रष्टि कार्यक्रमं, प्रपंचम्, वसति कार्यक्रम व मानावाली निवासित योग्य वास्तु इत्यादि व्यवहार सब इस ब्रह्मांड पुराण में समझायागया है! मनुष्य को हवा व वायु, जल व पानी, और प्रकाश का बारे में विशदीकरण करके समझाया गया है!

19. ब्रह्मावैवर्त पुराण:

सृष्टि कार्यक्रम होने पश्चात उस सृष्टि कैसा व्याप्ति हुआ इस ब्रह्मावैवर्त पुराण में समझाया गया है!   

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