शरीर विज्ञानशास्त्र—क्रियायोग Part 4
परमात्मा ही आदिपुरुष है! पराप्रकृती ही राधा है! प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा यानी उन्ही का अंश है!
कर्मा का अनुसार जन्म आएगा! गृह और राशियों नर को अपना अपना कर्मा का
अनुसार अम्गीक्रुत होने पर, सूक्ष्म शरीर मात्रुयोनी में प्रवेश करके स्थूलशरीर निर्माण
के लिए उपयुक्त करेगा!
स्थूल और सूक्ष्म शरीर दोनों जन्मकारक अथवा जन्मा हेतु प्रारब्धकर्म
संपूर्ण होने से अलग होना ही मरण का अर्थ है!
मनुष्य
सजीव होने
यानी जीवित समय
में ही
चेतना प्रेरणा
से शरीर
को आत्म
से अलग
होने का
स्थिति
पहुँचने
से मरण
का बाधा
या दुःख
नहीं होगा! परंतु ऐसा स्थिति पहुँचने के लिए अनुशासन पूर्वक (disciplined) नियमानुसार(regular) दृढ निश्चयता से साधना करना अत्यंत आवश्यक है!
सद्गुरु का कृपा से मूलाधार, स्वाधिष्ठानं, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, और आज्ञा
चक्रों को यानी इन चक्रोंवाली मेरुदंड को शुद्ध करना, और साधक का अन्दर निक्षिप्त
हुआ सहज अनन्तशक्ति को प्रज्वारिल्ला करना चाहिए! इस का हेतु साधक को 1)ज्योतिदर्शन, 2)शब्द, और 3)प्रकाम्पनो यानी स्पंदनों का अनुभव मिलेगा! तब कुण्डलिनी शक्ति
उत्तेजित होकर षट् चक्रों में परिभ्रमण करता हुआ भेजा में पहुंचेगा! इस का हेतु
साधक दैवशक्ति का साथ प्रकाशित होगा!
क्रियायोग में माहामुद्र, क्रिया, और ज्योतिमुद्र, इति तीन मुख्य
विषयों, हम् सा इत्यादि प्रक्रिया भी होता है!
माहामुद्र मेरुदंड को सीदा करने को, अयस्कान्तीकरणकरने को उपयोगाकारी
है!
मिताहार, नीरोगस्थिति में, और सौरशक्ति से मिलनेवाला एक संपूर्ण वर्ष
का शक्ति, शारीरक और मानसिक परिवर्तन को, प्राणशक्ति मेरुदंड को यातायात या चक्कर
(circle) करके करनेवाला इस एक क्रिया का माध्यम से साधक साध्य करसकता है!
इडा, पिंगळा, और सुषुम्ना इन तीनों का मिलन (unision) अथवा कूटस्थ
चैतन्य को एकाग्रत यानी ध्यान केन्द्रित करने (concentrate) को इस ज्योतिमुद्र
उपयोगाकारी है!
हठयोग का तात्पर्य सूर्यचंद्रो का मिलन, जिसको प्राण और अपानवायुवो का
मिलन ही है! हठयोग में प्राणायाम, आसनों, बंधो, और मुद्राये होगा जिस का हेतु इस
जड़ शरीर (inert body) वष में होता है!
राजयोग का अर्थ मन को वश करना है! इस राजयोग यम नियम आसन प्राणायाम
प्रत्याहार धारण ध्यान और समाधि इति आठ अंगोंवाली है! इन आठ अंगों का हेतु
ह्रुदयस्पंदन, नाडी स्पंदन, मन, और प्राणशक्ति वष में होंगे!
मन्त्रयोग का शब्दों आत्मा और परमात्मा का मिलन के लिए दोहद(lead to)
करेगा!
मन को पूरा वास्तु का उप्पर लगन करना ही लययोग का अर्थ है!
ॐ प्रक्रिया का माध्यम से मन ओंकार शब्द में लाया होजायेगा!
जपयोग भी क्रियायोग का अंतर्भागा है!
सारे योगों का सार इस क्रियायोग है!
षट् चक्रों में निक्षिप्त हुआ ग्रहों, आयर नक्षत्रों का दुष्फलितों से
विमुक्त होने का मार्ग क्रियायोग का माध्यम से मिलेगा!
क्रियायोग—ज्योतिष्य:
हर एक चक्र एक एक राशि का प्रतीक है! राहू और केतु छाया गृह है! उन ग्रहों के ली ये विशेष स्थान नहीं है!
मूलाधारचक्र-–शानिस्थान
स्वाधिष्ठानचक्र—गुरु स्थान
मणिपुरचक्र—कुजस्थान
अनाहतचक्र—चंद्रस्थान
विशुद्धचक्र—शुक्रस्थान
आज्ञाचक्र— बुधस्थान
सहस्रारचक्र—रविस्थान
मनुष्य का शरीर में 72,000
सूक्ष्मनाडियां है! उन में इडा पिंगळा, और सुषुम्ना सूक्ष्मनाडियां अत्यंत मुख्य
है! इडा सूक्ष्मनाडि मेरुदंड का बाए(left side) तरफ, पिंगळा सूक्ष्मनाडि मेरुदंड
का दाहिने(right side) तरफ, और सुषुम्ना सूक्ष्मनाडि मेरुदंड में इडा और पिंगळा का
बीच(middle)में उपस्थित है! इडा पिंगळा, और सुषुम्ना सूक्ष्मनाडियां तीनों
मूलाधारचक्र से आज्ञाचक्र यानी कूटस्थ तक साथ मिलके रहते है! आज्ञाचक्र यानी
कूटस्थ से सहस्रारचक्र तक केवल सूक्ष्मनाडि ही आगे बढ़ेगा!
इडा सूक्ष्मनाडि नकारात्मक(negative) क्रियों को, पिंगळा सूक्ष्मनाडि सकारात्मक (Positive) क्रियों को, और सुषुम्ना सूक्ष्मनाडि तटस्थ (Neutral) क्रियों को, प्रतीके है! साधक का लक्ष्य मूलाधारचक्र का नीचे स्थित कुण्डलिनी
शक्ति को अपना साधना का माध्यम से सुषुम्ना सूक्ष्मनाडि द्वारा सहस्रारचक्र को
पहुंचाने को होना चाहिए! उसका व्यतिरेक (in opposition to)में कुण्डलिनी शक्ति को
इडा सूक्ष्मनाडि अथवा पिंगळा सूक्ष्मनाडि का तरफ भेजना नहीं चाहिए! अगर ऐसा भेजने से साधना का समय
में विपरीत स्वभाव साधक को अनुभव होजायेगा!
उदाहरण के लिए अनाहतचक्र में कुण्डलिनी शक्ति इडा की तरफ जानेसे द्वेष, पिंगळा की तरफ जानेसे
अधिकप्रेम यानी मोह, साधक को अनुभव होगा! कुण्डलिनी शक्ति सुषुम्ना सूक्ष्मनाडि का
माध्यम से जाने से तटस्थता (Neutrality) में रहेगा!
सूर्य नाडि —चंद्र नाडि:
चंद्रनाडि बाए नाक में, सूर्यनाडि दाहिने
नाक में होता है! इन नाड़ियों को स्वर भी कहते है!
भानु, मंगळ, बृहस्पति (कृष्ण पक्ष), और
शनि वासरों(उदय) में सूर्यनाडि होना युक्त है!
इंदु, बुध, बृहस्पति (शुक्ल पक्ष), और शनि
वासरों(रात) में चंद्रनाडि होना युक्त है!
अथवा व्यतिरेका फलो यानी गृहकलहों,
कार्यहानी, व्यर्थप्रयाणों, और अनारोग्य परिस्थितियां हो सकता है!
योगदंड बाए बगल(arm pit) में रख के जोर से
दबाने से भी नहीं तो समतल (plain)मेज (table) का उप्पर रख के बाए हस्त जोर से
दबाने से भी स्वर दाहिने में बदलेगा! चंद्रनाडि सूर्यनाडि में बदलेगा इति तात्पर्य
है! वैसा ही योगदंड दाहिने बगल(arm pit) में रख के जोर से दबाने से भी नहीं तो
समतल (plain)मेज (table) का उप्पर रख के दाहिने हस्त जोर से दबाने से भी स्वर बाए
में बदलेगा!
व्यष्टि में कुण्डलिनी शक्ति को समिष्टि
में माया कहते है! स्रष्टि स्थिति और लय ये तीनों को कुण्डलिनी शक्ति ही कारण इति
आविष्कार (invent) करदिया था! हर एक चराचर शक्ति में भी इस कुण्डलिनी शक्ति
निक्षिप्त है!
हर एक जीवकण में भी प्राणशक्ति जेनेस (genes) रूप में निक्षिप्त
है! इस जेनेस (genes) में क्रोमोजोम (chromosome) है! प्राणशक्तिसहित जेनेस (genes)
पारंपरीयण (hereditary) यानी वंशानुगत आने लक्षणों को लानेवाला वाहिकाए
(vehicles) है! इस क्रोमोजोम(chromosome) में डि.यन्.ए.(DNA)मालेक्यूल (molecule) अति मुख्य है! इस अतिमुख्य डि.यन्.ए.(DNA)मालेक्यूल में निक्षिप्त हुआ चार प्रकार
का रासायनिक क्षारों में {four chemical bases: adenine (A), guanine (G), cytosine (C), and
thymine (T)} समन्वय
करने से व्याधि और वृद्धावस्था से विमुक्त होसकेगा!
मनुष्यों में 99.9% जेनेस (genes) एक ही प्रकार का होता है! बाकी 0.01% वैविध्य प्रकार जेनेस (genes) हेतु विविध प्रकार
लक्षणोंवाला व्यक्तियों का जन्मों का कारणभूत है!
क्रियायोग:
दैनिक काम काज (daily chores) के लिए 40
हजार पोषणपदार्थ(proteins) आवश्यक है! इन का वृद्धि करके तत् माध्यम से व्याधि और वृद्धाप्य
इतना शीघ्र समीप में नही आने को क्रियायोग सहयता करेगा! जीवकणों और तत् संबंधित
जिगर (liver), फेफडो (lungs) इत्यादि अंगों का बीच में समन्वयत कमी होना ही शरीर रोगग्रस्थ होने
को हेतु है! जेने (genes) ही केवल इन अंगों को पुनः आरोग्यवंत करा सकता है! अवसर
का परिमिति तक इन जेने (genes) को आवश्यक प्रेरण देना या नहीं देना, तत् माध्यम से
रोगग्रस्थ जीवकणों को और तत् संबंधित जिगर (liver), फेफडो (lungs) इत्यादि अंगों का बीच में सही समन्वयत
करादेना क्रियायोग का माध्यम से ही सुसाध्य है!
उदजन (hydrogen) बम(bomb) गलन (fusion)
पद्धति का उप्पर आधारित है! बाह्य कुम्भकं उदजन (hydrogen) बम(bomb)यानी गलन
(fusion) पद्धति जैसा है! रोगग्रस्थ जीवकणों को बाह्य कुम्भकं का माध्यम से कम
करसकता है!
अणु (atom) बम(bomb) विखंडन (fission)
पद्धति का उप्पर आधारित है! अन्तः कुम्भकं अणु (atom) बम(bomb) यानी विखंडन
(fission) पद्धति जैसा है! नीरोग(healthy) जीवकणों को अन्तः कुम्भकं का माध्यम से
वृद्धि करसकता है!
हर एक जीवकण मनुष्य का प्रतिरूप
है! हर एक जीवकण का अन्दर जेने (gene), जेने (gene) का अन्दर क्रोमोजोम
(chromogome), क्रोमोजोम का (chromogome) अन्दर डी.एन.ए. (D.N.A.) होता है! डी.एन.ए. (D.N.A. molecule) मालेक्यूल जीवकण में अति मुख्य है! हर एक
जीवकण भी पोषण
पदार्थ (proteins), जेनेस(genes) और एंजैम(enzymes) इत्यादियों को निर्माण करसकता है! जेनेस(genes)
वंशपारम्पर्य लक्षणों को व्यक्त (explain) करेगा! हारमोन (hormone) जेनेस(genes)
को आवश्यक प्रेरण कराके, शरीर आरोग्य के लिए सहायता करेगा! क्रियायोग का माध्यम से
हारमोन (hormones)प्रेरण मिलादेगा!
मनुष्य शरीर में करीब करीब 20,000 से 25,000 जेने (genes)
होंगे! परंतु डी.एन.ए. (D.N.A. molecule) मालेक्यूल का अन्दर का केवल 3% जेनेस (genes) का काम्यकर्मो का बारे में वैज्ञानिकों(scientist) ने पता करासका है!
बाकी 97% का बारे में
स्पष्टता(clarity) नहीं है! क्रियायोगाभ्यास का चक्रध्यान, चक्रों में बीजाक्षर
ध्यान इत्यादि प्रक्रियों होता है! इन का माध्यम से शरीर का नित्यावसार 40-50 हजारो
पोषणपदार्थो (proteins) को वृद्धि करके दीर्घकाल यौवन पासकता है! इन्द्रियों को
अवसर से अधिक उपयोग करना हानिकर है! ऐसा करने से जीवकणों में निक्षिप्त हुआ मिठासा
सोमारसानुभव आनंद अनुभव मनुष्य नहीं करसकेगा!
डी.एन.ए. (D.N.A. molecule) मालेक्यूल को deoxyribonucleic acid कहते है! डी.एन.ए. (D.N.A. molecule) का अन्दर समाचार एक साम्केतिका
अंक (code) में चार रासायनिक
क्षारों (chemical bases) का साथ जोड़ा हुआ होता है! हर एक जीव कण में ये आम्लों
और मिठासा छिपा हुआ
होता है! वे—अडेनैन(adenine (A), गुयनैन(guanine G), सिटोसैन (cytosine C), और थैमैन(thymine
T)!
जेने (genes) एक जेनेटिक पदार्थ है! वह बिना जीवन(life) नहीं है! सब
कणों का प्राथमिक यूनिटों (basic units) सब को ये जेने (genes) नियंत्रण करेगा!
इडानाड़ी को गंगा, पिंगळानाड़ी को यमुना, और सुषुम्नानाड़ी को सरस्वती
कहते है! ये तीनों नाड़िया आज्ञाचक्र में मिलने को त्रिवेणी संगम कहते है! तत
पश्चात आज्ञाचक्र से कुण्डलिनीशक्ति ब्रह्मरंध्र में उपस्थित परमात्मा को केवल सुषुम्नानाड़ी
का माध्यम से पहुँचने को समाधि स्थिति कहते है!
कूटस्थ में उपस्थित आज्ञाचक्र तक पूरक करके उस श्वास को विशुद्ध अनाहत
मणिपुर स्वाधिष्ठान और मूलाधारचक्र चक्रों का माध्यम् से निश्वास यानी रेचक करने से
विद्युत् अयस्कान्तशक्ति का उत्पादन होगा!
इश्वरप्रणिधाम यानी परमात्मा को परिपूर्णरूप में अंकित होने को इन्द्रियों,
इन्द्रियों का सहायता करनेवाला प्राणों को, इडा, पिंगळा, और सुषुम्ना नाड़ीयों को अभिषेक
जल का रूप में, अंतःकरण को चिराग जैसा, षट् चक्रों को सुमन (flowers) जैसा, अग्नितत्व(मणिपुरचक्र)को
अगरबत्ती (incense) जैसा, आनंद को नैवेद्य जैसा समर्पण करना चाहिए!
चक्रध्यान करने से
मूलाधारचक्र में रहा क्रूरत्व, द्वेष, चोर ये सब स्वभाव निकलजायेगा!
स्वधिष्ठान चक्र में रहा (गुदस्थान से तर्जनी उँगली का 2 1/2
गाँठ उप्पर) संदेहपूरितामन का
स्वभाव निकलजायेगा!
मणिपुरचक्र में रहा क्रोध, सामनेवाला से कैसा भी हो उप्पर होना चाहिए जैसा
अर्थरहित मूर्ख स्वभाव ये सब निकलजायेगा!
अनाहतचक्र में रहा उद्वेगापूरित मन, मेरा मत ही श्रेष्ट इति भावन, और प्रतीकार वांछ
ये सब निकलजायेगा!
विशुद्धचक्र में रहा लोभ गुण, और बक बक करना ये सब निकलजायेगा!
आज्ञाचक्र में रहा अहंभाव गुण, और जल्दीबाजी गुण ये सब निकलजायेगा!
कर्मफलो को इश्वर को समर्पण करना ही इश्वरप्रणिधान है!
शरीर व्यायाम, मनोनिग्रहता, और ॐकार ध्यान सब मिलके क्रियायोग होता है!
साधक का शरीर में रक्त अपना कर्बन लुप्त होकर प्राणशक्ति का साथ
शक्तिवंत होगा! कपाळ का जीवकणों धनाध्रुव, बाकी सब शरीर का जीवकणों ऋणध्रुव है! प्राणशक्ति
का साथ शक्तिवंत हुआ रक्त में जीवकणों नाश कम होगा! तत द्वारा ह्रदय को काम कम
होके विश्रांति मिलेगा!
राजयोग में श्वास दिग्बन्धन को प्रामुख्यत अधिक है! क्रियायोग में
श्वासनियंत्रण, मेरुदंड को अयस्कान्तीकरण करना, तत पश्चात उस प्राणशक्ति को
सहस्रार पहुंचाना, प्रामुख्यत है! इस का हेतु कपाळ, और कपाळ नाडियों को विश्रांति,
और शक्ति मिलेगा! प्राणवायु को जागृति नहीं है, केवल मात्र शक्ति है! प्राणशक्ति
को जागृति, और शक्ति दोनों है!
तस्य वाचकः प्रणवः ------पतंजलि 1...27
धन में सुनाईदेनेवाला
ॐकार नाद ही परमात्मा का नामधेय है!
तस्मिन्सति श्वास
प्रश्वासयोः गति विच्छेदः प्राणायामः ------पतंजलि 2—49
आसन सिद्धि का पश्चात
उच्छ्वास निश्वासों का गतिनिरोध होगा! तब प्राणायाम का सिद्धि मिलेगा! यानी मुक्ति
प्राप्त होगा! साधक अपना साधना का माध्यम से ॐकार नाद सुनसकेगा! तत माध्यम से
दिव्यक्षेत्रो से अनुबंध बनेगा!
सविकल्प समाधिस्थिति में चेतन विश्वात्म में ममैक होने का अनुभव का
साथ प्राणशक्ति का उपसम्हरण, शरीर स्थिर होना सब पता लगताही होता है! निर्विकल्प समाधिस्थिति में
चेतन विश्वात्म में ममैक होने का अनुभव का साथ साधारण लौकिक व्यवहार करने से भी उस
अनुभव को नही खो बैठेगा!
मूलाधाराचक्र से कूटस्थ यानी आज्ञा(+)चक्र तक हर
एक चक्र का दोनों तरफ दो (बाए तरफ एक, और दाहिने तरफ एक) राशिया होता है! वैसा षट्
चक्रों में 12 राशिया होता है! क्रियायोग साधक अपना प्राणशक्ति
को षट् चक्रों में, मूलाधाराचक्र से कूटस्थ यानी आज्ञा(+)चक्र तक, और
कूटस्थ यानी आज्ञा(+)चक्र से
मूलाधाराचक्र तक, घुमायेगा, आत्मसूर्य को इस12 राशियों
में दर्शन करेगा! मूलाधाराचक्र से कूटस्थ यानी आज्ञा(+)चक्र तक, और
कूटस्थ यानी आज्ञा(+)चक्र से
मूलाधाराचक्र तक एक वृत्त(one cycle) है! ऐसा आत्मसूर्य को दर्शन करता हुआ, हर एक
वृत्त(one cycle) में एक वर्ष का कर्मा दग्ध करेगा!
सूर्य हर एक मास में एक एक करके 12 राशियों में
12 मॉस संचारण करेगा! इन 12
सूर्यसंक्रमणों में 2 सूर्यसंक्रमणों
मुख्य है! वे—
जब सूर्य मकर राशी में संचारण करने का समय में आनेवाला मकर संक्रमण
जिसको मकरसंक्रांति कहते है! मकरसंक्रांति का समय से उत्तरायण प्रारम्भ होता है!
जब सूर्य कर्काटक राशी में संचारण करने का समय में आनेवाला कर्काटक संक्रमण
जिसको कर्काटक संक्रांति कहते है! कर्काटक संक्रांति का समय से दक्षिणायण प्रारम्भ
होता है!
सूर्य12 राशियों में12 मॉस संचारण करने से एक वर्ष का प्रारब्ध कर्म समाप्ति होता है! मनुष्य
अपना संचित कर्मा दग्ध करने के लिए 10 लाख(lakh) वर्षो
का आरोग्य जीवन आवश्यक है! यह एक जीवन समाप्त करना दुस्साध्य है! इस दुस्साध्य को
सुसाध्य करनेवाली इस क्रियायोग ही है!
हैदराबाद से दिल्ली(delhi) जाने के लिए विमान में 2
घंटे लगेगा, वही रेल गाडी में जाने से तीस घंटे लगेगा! पैदल में जाने से बहुत दिन
लगेगा! क्रियायोग विमान प्रयाण जैसा है! केवल एक ही जीवनकाल में
दृढ (perseverance) दीक्षता से योगी 10 लाख क्रियाओं को समाप्त करके जीवा ब्रह्मैक्य प्राप्त करसकेगा! हर दिन 1000
क्रिया करके तीन वर्षो में 10 लाख वर्षो का प्रगति साध्य करसकेगा! साधारण रीति में 6 12 18 24 30 36 42 अथवा 48 वर्षो में एक पद्धति प्रकार क्रिया और ध्यान करने से10 लाख वर्षो का प्रगति
साध्य करसकेगा! शायद (perhaps) सम्पूर्णरूप में प्रगति इस जन्म में साध्य नहीं होनेसे
भी, साधक अपने साथ इस जन्म का क्रियायोग फल को लेजाएगा! अगले जन्म में शेष क्रियाओं
को संपूर्ण करके मुक्ति प्राप्त अवश्य करेगा! क्रियायोगी का जीवन अपना संचित कर्मो
से प्रभावित नहीं होगा! वह सम्पूर्णरूप में आत्म का दिशा निर्देशन में ही बना रहेगा!
क्रियायोग के लिए मिताहार, और संपूर्ण एकान्त में ही करना चाहिए!
भ्रूमध्य प्रदेश को कूटस्थ अथवा आज्ञा(+)चक्र कहते है! इस कूटस्थ धनधृव
है! मूलाधारचक्र ऋणधृव है! इस मूलाधारचक्र ऋणधृव से आज्ञा(+)चक्र
कूटस्थ धनधृव
तक प्राणशक्ति को घुमाने से मेरुदंड शक्तिपूरक अयस्कांतीकरण होजायेगा! इस का हेतु मूलाधारचक्र
से लेकर कंठ का अन्दर उपस्थित विशुद्धचक्र तक सारे विद्युत् (currents) अयस्कांतीकरण
हुआ मेरुदंड का माध्यम से ब्रह्मरंध्र उपस्थित सहस्रारचक्र में पहुँचजाएगा! इसका
हेतु साधक को परमानंदा प्राप्ति लभ्य होजायेगा! और कुछ मुद्राएं भी प्राणायाम का साथ
करने से मेरुदंड और भी शक्तिपूरक होगा!
प्राणशक्ति में शक्ति और जागृति दोनों है! प्राणवायु (oxigen) में केवल शक्ती ही
है! शरीर, और मन दोनों का रुग्मताओं को क्रियायोग जड़ से निकालदेगा! क्रियायोग में
कुछ प्रक्रिया, हठयोग अभ्यासों, यम नियम आसन इत्यादि अष्टांगयोगा पद्धतियां और प्राणायाम पद्धतियां
होंगे! इस क्रियायोग अभ्यास का माध्यम से शरीर, और मन दोनों को सांत्वन मिलेगा! तत माध्यम से
कुण्डलिनी जागृति होकर साधक को शुद्ध चेतनावस्था में पहुन्चादेगा!
शुद्ध चेतना स्थिती ही मनुष्य का असली स्थिती है! मन श्वास प्राणशक्ति
और कामं इन को नियंत्रण में रखने से शुद्ध चेतना स्थिती मिलजाएगा!
इडानाड़ी मानसिक, पिंगळानाड़ी भौतिक, और सुषुम्नानाड़ी मानसिक,और भौतिक
व्यवहारों दोनों को समन्वय करते है!
चक्रों अनुसंधान संदूके है! अस्थिर श्वास अस्थिर मन का हेतु है! कामं
रामं होने अथवा तृष्ण कृष्ण होने अथवा शवं शिवम् होने के लिए प्राणायाम ही एकैक
मार्ग है!
मन आठवा वर्ष से बनाता है! तब तक जीवन आत्मनिर्देशन का अनुसार आनंदभरित
चलेगा! इसीकारण बच्चोंको देव कहते है!
न तस्य रोगों नजरा न मृत्युप्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरं
रोग, बुढ़ापा, मृत्यु इस सब से मुक्त प्राप्त करके योगाग्नि से मनुष्य
प्रज्वरिल्ल होना चाहिए!
ग्रंथि—चक्र:
ग्रंथियाँ दो प्रकार का है! वे— 1)एक्सोक्रिन्(exocrine) 2)एंडोक्रिन्(endocrine)!
इन ग्रंथियाँ
हारमोन (harmones) उत्पादन करते है! वे संबंधित
अंगों/अवयवों का भीतर पुष्टिकर रसायनिक तत्वों है! वे उन अंगों/अवयवों को मनुष्य
शरीर के लिए उचित कामकाज करने को सहायता करते है!
गुर्दे (kidneys)संबंधी अड्रेनल(adrenal) एंडोक्रिन्(endocrine) ग्रंथि सही ढंग से काम करने को स्वाधिष्ठानचक्र (Sacral plexu behind Phallus) सक्रमरीती में स्पंदन करना चाहिए! इसीलिये इस चक्र का उप्पर तनाव डाल के
‘वं’ बीजाक्षर उच्छारण करने से अतिमूत्रव्याधि निवारण कर सकेगा, और गुर्दे (kidney stone) का अन्दर पत्थर
नहीं होगा!
मणिपुरचक्र(Lumbar behind
Navel in Astral Spinal cord) सक्रमरीती में स्पंदन करने से इन्सुलिन (insulin) और ग्लूकगान(glucagon) सक्रमरीती पान्क्रियास
(pancreyas) को मुक्त करके मधुमेह(diabetes) व्याधि नहीं होने देगा!
चक्रध्यान:
साधक पद्मासन, अथवा वज्रासन, अथवा सुखासन
में बैठना चाहिए! ज़रा ऊंची मेज का उप्पर बैठना चाहिए! पैर जमीन (floor) को स्पर्श करने
जैसा होना चाहिए! परंतु जमीन(floor) को प्रत्यक्ष रूप में (directly)स्पर्श नहीं करना
चाहिए! जुराब पहिनना चाहिए! क्योकि जमीन(floor) और पैर का बीच में पृथक्करण(insulation)
आवश्यक है! मेरुदंडसीदा रखके, कूटस्थ में मन और दृष्टि रखके, उत्तर या पूरब दिशा की
तरफ देखता हुआ अधिचेतनावस्था में बैठना चाहिए!
गुरुमुखतः क्रियायोग सीखना चाहिए! अब एक एक
चक्र में ध्यान करता हुआ सहस्रारचक्र तक क्रमशः पहुँचना चाहिए!
एक श्वास, और एक निश्वास मिलके एक हंसा कहते
है! साधारण रीति में मनुष्य दिन में 21,600 हंसा करता है! यानी एक मिनट में 15 हंसा करता है! इस को भोगी कहता है!
15 हंसा से अधिक करने से रोगी कहता है! जितना अधिक हम्सा
करने से इतना महा रोगी बनेगा! 15 हंसा से कम करने से योगी कहता है! जितना कम हम्सा करने
से इतना महायोगी बनेगा!
कूर्म दिन में 15 हंसा करेगा! इसीकारण कोई नहीं मारने से 1000 वर्ष का उप्पर जीवित रहेगा! प्राणायाम का माध्यम से अपना जीवन समय
को बढादेगा उस का हेतु आरोग्य रहेगा! परमात्मा का साथ अनुसंथान प्राप्त करेगा!
वर्णों:--
मनुष्य का मेरुदंड में उपस्थित चक्रों संधिस्थल पेटिया(Junction boxes) जैसा है! परमात्मा
चेतन सहस्रार में प्रवेश करके (above penal gland) कूटस्थ में उपस्थित आज्ञाचक्र
द्वारा मेरुदंड में उपस्थित विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, और मूलाधार चक्रों यानी संधिस्थल पेटिया(Junction
boxes) का माध्यम से नाडी केन्द्रों को, नस नस को, अंगों/अवयवों को
उचित प्रमाण में परमात्म चेतन (cosmic
consciousness) लभ्य करेगा!
इस मेरुदंड में उपस्थित विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, और मूलाधार चक्रों को वर्णों(castes) अथवा कुलो कहते है! कुण्डलिनी शक्ति का शिर उप्पर चक्रों में, और
उसका पूंछ नीचे चक्रों में रखके निद्रा स्थिति में होता है! साधक अपना साधना में
गुदास्थान का पास मूलाधारचक्र का नीचे उपस्थित कुण्डलिनी शक्ति को जागृति करेगा!
ऐसा जागृति हुआ कुण्डलिनी शक्ति जिस चक्र तक जाने से साधक उतना अपना साधना में आगे बढगया
इति तात्पर्य है!
योगसाधना बिलकुल नहीं करनेवाला मनुष्य का कुण्डलिनी शक्ति निद्रावस्था में
होता है! ऐसा व्यक्ति शूद्र, और कलियुग में रहनेवाला है! उसका ह्रदय काला यानी दुष्टगुणों से
भरपूर होता है!
जागृति हुआ कुण्डलिनी शक्ति मूलाधारर्चक्र स्पृशन करने से उस साधक क्षत्रिय में
परिगण होगा क्यों की वह बीच में अटक के परमात्मा का साथ अनुसंधान नहीं करनेवाला शत्रुओं
से युद्ध करनेवाला क्षत्रिय योद्धा है! कलियुग में होने से भी स्पन्दनायुत ह्रदय उस
में है!
जागृति हुआ कुण्डलिनी शक्ति स्वाधिष्ठानर्चक्र स्पृशन करने से उस साधक पुनर्जन्म लिया
वैश्य में परिगण होगा! वह द्वापरयुग में रहनेवाला और श्रद्धा ह्रदय उस में है!
जागृति हुआ कुण्डलिनी शक्ति मणिपुरर्चक्र स्पृशन करने से उस साधक वेदपारायण करनेवाला
विप्र में परिगण होगा! वह त्रेतायुग में रहनेवाला और स्पन्दनारहित स्थिर ह्रदय उस में
है!
जागृति हुआ कुण्डलिनी शक्ति अनाहतर्चक्र स्पृशन करने से वह सत्ययुग में रहनेवाला और ब्रह्म
ज्ञान पानेका अर्हता प्रप्तिकिया ब्राह्मण में परिगण होगा! स्पन्दनारहित स्वच्छ ह्रदय उस में है!
इस प्रकार शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय, और ब्राह्मिण
वर्णों उन का साधना प्रगति का अनुसार निर्णय कियागया है!
योगसाधनानुसार वर्ण निर्णय करने का मार्ग
से हट कर जन्मानुसार वर्ण निर्णय करने का मार्ग अनुचित है! वैद्य(Doctor) का पुत्र
वैद्य, एन्जिनीर(engineer) का पुत्र एन्जिनीर बन भी सकता नाहीए भी बना सकता है!
पढ़के पात्रता यानी अर्हता पाना चाहिए! वैसा ही ब्राह्मण का पुत्र योगसाधन करके ही
ब्राह्मण बनाने का पात्रता पाना चाहिए! इस गलती से कालक्रमशः अनेकानेक वर्णों बनगया
है! इस स्थिति देश अयिक्यता, और भद्रता का हानिकर है!
मूलाधारचक्र नाक (olfactory--Frontal
lobe),
स्वाधिष्ठानचक्र जीब(gustatory –Brain stem) को, मणिपुरचक्र नेत्र(Vision–Occipetal lobe) को, अनाहतचक्र चर्म या त्वचा(skin–Parietal lobe)को, विशुद्धचक्र कान या कर्ण (hearing–Temporal
lobe) को प्रतीके
है!
मन इन इन्द्रियों का साथ देने से असली
आनंद को मनुष्य नहीं जानसकेगा! साधक मन को इन्द्रियों से अलग करके अंतर्मुख होना
चाहिए! तब ‘क्या अमूल्य चीज खोया’ और ‘खोरहा’ इति समझेगा! असली आनंद को
परिपूर्णरूप में समझके पश्चात्ताप (realise) होजायेगा!
शरीर
को इन्द्रियों का साथ अनुसंधान करनेवाली प्राणशक्ती है! क्रियायोग का माध्यम से
साधक अपना प्राणशक्ती को पञ्च इंद्रियों से उपसंहरण यानी नियंत्रण करेगा!
श्वास को नियंत्रित करने से ह्रदय और प्राणशक्ति
अपनेआपी नियंत्रित होजायेगा! ह्रदय नियंत्रण इन्द्रिय नियंत्रण का मार्ग बनाएगा! यह
सब एक गणित समीकरण जैसा है! परंतु जबरदस्ती अशास्त्रीय पद्धतियों में श्वास को रुकना
नहीं चाहिए! सद्गुरु मुखतः इस क्रियायोग को सीखके अभ्यास करना चाहिए! मानसिक ध्यान
का माध्यम से मन को नियंत्रण रखने के लिए अधिक समाया लगेगा! परंतु क्रियायोग ध्यान
का माध्यम से मन को स्थिर करके अंतर्मुख होना विमान (aeroplane) यान जैसा शीघ्र होगा!
गुर्दो:
ये रक्त का अन्दर मलिनपदार्थो,
अनावसर रसायनपदार्थो को छानेगा!
ह्रदय: यह प्राणवायुसहित(Oxygen) रक्त
को पूरा शरीर का नसों में भेजतेरहेगा और प्राणवायुरहित रक्त को पूरा शरीर का नसों
से वापस ह्रदय में भेजाजायेगा! इस प्राणवायुरहित रक्त ह्रदय से फेफडो में भेजा जाएगा! वहा अपानवायु (carbon
dioxide- co2) निकालदियाजायेगा! प्राणवायु मिलाके पुनः उस रक्त को ह्रदय
में भेजदियाजायेगा!
आट्रिया (atria) और
वेंट्रिकिल(ventricles) दोनों मिलके एक के बाद एक (alternately)निरंतर बंदहोना-खुलजाना(contract -squeeze) यानी पम्प (pump) करना होतारहता है! वेंट्रिकिल(ventricles)बंद होने से
रक्त अन्दर आजायेगा! खुलजाने से(relax) रक्त
बाहर भेजाजायेगा! इसी को हृदय स्पंदन (heart beat) कहते है! विद्युत्
उत्तेजनावो (electrical impulses) का माध्यम से हृदय स्पंदन (heart beat) होता है! इन विद्युत्
उत्तेजनावो (electrical impulses) ह्रदय का एक विशेष मार्ग (a special pathway) का माध्यम से प्रारम्भ होता है! इसी को
ट्रिग्गरिंग(triggering) कहते है! हृदय का इस एलकक्ट्रिकल सिस्टम (electrical system) ही इस शरीर का विद्युत् शक्ति का मूल है! वह ही हृदय स्पंदन
(heart beat) को सहारा (support) देनेवाला है!
फेफडो(lungs):
ये श्वास को लेकर उसका अन्दर का अपानवायु (carbon dioxide- co2) को
निकालदेगा! इसी को श्वासक्रिया कहते है!
हृदय
नियंत्रण के लिए 1) अपानवायु (carbon dioxide- co2) को रक्त में कम करने के लिए फल
अधिक लेना चाहिए, और 2)क्रियायोग अभ्यास इन
दोनों का आवश्यक है! इस का हेतु रक्त शुद्ध होगा, अपानवायुसहित (carbon dioxide- co2)रक्त फेफडो(lungs)में शुद्धि के लिए भेजने का रक्त का वाल्यूम (volume)
कम होजायेगा! ह्रदय क्रमशः स्थिर होजायेगा! ह्रदय को काम होकर विश्राम मिलेगा!
प्राणशक्ति इन्द्रियों से उपसंहरण (withdraw) कियाजायेगा! इन्द्रियों से छोटा भेजा
(cerebellum) को यानी मन को संकेतों नहीं मिलेगा! मन चंचल नहीं होगा! परमात्मा का उप्पर
मन निमग्न होजायेगा! कूर्म अपना अंगों/अवयवों को अन्दर लेता है! वैसा ही साधक मन का
अंगों यानी इन्द्रियों को उपसंहरण (withdraw) करसकेगा!
चक्रों में ॐकार उच्चारण श्रद्धापूर्वक करने से चक्रों का संबंधित अंगों (organs)
में सूक्ष्म शक्तियाँ भी यानी विद्युत् उत्तेजनावो (electrical impulses) साधक
को सहारा (support) देगा!
निम्नलिखित टेबल (table) में चक्रध्यान का उपयोग दिया है!
चक्र
|
रोग विनाश
|
मूलाधाराचक्र
|
सैनुसैटिस(sinusitis), जुकाम, मलाबद्धक(constipatioन), दस्त (diarrhea), लिंफ सिस्टम, प्रोस्ट्रेट ग्रंथि, हड्डियाँ, और मन का संबंधित रोगों का निवारण
|
स्वाधिष्ठानचक्र
|
मूत्र और
जननेंद्रिय व्यवस्था(urino genital
systems), मेरुदंड, उंडुपृच्छशोथ(Appendicitis), जीब(tongue) सबंधित रोगों का निवारण और क्रोध
निर्मूलन
|
मणिपुर
|
शक्कर व्याधि (diabetes), प्लीह (spleen), नेत्र, गुदास्थान, उदर,, नकारात्मक
विचारों का निर्मूलन और निवारण, शांति और सद्भाव
लानेका सहारा और सहायता
|
अनाहत
|
दमा (Asthma), श्वास संबंधित रुग्मताये, पागलपन, व्याकुल स्वभाव, हृदय संबंधित रुग्मताये, इन सब का निवारण, रोगनिवारणाशक्ति (developing immunization capacity) को बढ़ाना, लूपस(lupus) व्याधि निवारण, रक्त शुद्धीकरण, द्वेषपूर्ण और नेरपूरित (crime nature) स्वभावो को निवारण, प्रेम और ममता को वृद्धि
करना
|
विशुद्धचक्र
|
दमा (Asthma), श्वास संबंधित रुग्मताये, प्रत्यूर्जता (allergy), क्षयरोग निवारण, गठिया रोग (arthritis), इन सब का निवारण, और आत्महत्या विचार निवारण
|
आज्ञाचक्र(-)
|
पीनल ग्रंथि (penal gland) संबंधित रुग्मताये का निवारण, मानसिक बलहीनता हटाना, सप्ताधातुवो को बलोपेट करना, सत संतान प्राप्ति
|
आज्ञाचक्र(+)
|
शिरदर्द(Headaches), तनाव(tension), कानसर(cancer), उदासीपन (depression), द्वेष, इन सब का निवारण, रोगनिवारणाशक्ति (developing immunization capacity) को बढ़ाना, स्मृति (memory) बढ़ाना, केंद्रीय नाडीव्यवस्था (CNS) को बलोपेत करना,
|
सहस्रारचक्र
|
सारा नाडीव्यवस्था (CNS) को बलोपेत करना, वीर्यवृद्धि
|
क्रियायोग अभ्यास का हेतु बाहर जानेवाले
शक्ति(energy) व्यर्ध नहीं होगा! उन सारे
शक्तियाँ मेरुदंड में उपस्थित चक्रसम्बंधित अंगों (organs) का सूक्ष्म
शक्तियों का साथ मिलेगा! तब साधक का शरीर और भेजा (cerebrum) में उपस्थित कणों दोनों विद्युत्
अयस्कांतशक्ति से भरपूर होकर आध्यात्मिक अमृत रूप में बदल (transform)जायेगा! इस
परिवर्तन के लिए कमसेकम यानी हीनपक्ष में 12 वर्षो का आरोग्यपूरित जीवन का आवश्यक होता
है! परिपूर्णरूप में अभिवृद्धि होकर परमात्मा चेतना का रूप परिवर्तन होने को दस लख(10
lakhs) वर्षो का आरोग्यपूरित जीवन, और स्वाभाविक प्राकृतिक परिवर्तन आवश्यक है! क्रियायोग
इस को सरल करेगा!
इस क्रियायोगसाधना स्त्री पुरुष सब
वर्णों, जातियों, 12 वर्षो का उप्पर उम्र होने से, कोई भी अभ्यास करा सकता है! इस
अभ्यास का माध्यम से साधक अपना मन को इन्द्रियविषयों से निग्रह करसकेगा!
इन्द्रियों से प्राणशक्ति को उपसंहरण (withdraw) करके मन, बुद्धि दोनों को इन्द्रियविषयों
से निग्रह करसकेगा! मनो बुद्धि चित्त अहंकार इन सब को मेरुदंड में उपस्थित
मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, और विशुद्ध चक्रों का माध्यम से मेडुला
केंद्र में उपस्थित छठवाँ आज्ञा(नेगटिव)चक्र में लेजासकेगा! इस आज्ञा(नेगटिव)चक्र
भ्रूमध्य उपस्थित
आज्ञा(पाजिटिव)चक्र को अयास्कांत आकर्षण का माध्यम से जोड़ा होता है! वहा
क्रियायोगी अपना मनो बुद्धि चित्त अहंकार इन सब को आत्माग्नी में जलाके शुद्धात्म
बनेगा!
भौतिक नेत्र केवल अपना सामनेवाली प्रदेश को ही देख
पायेगा! तीसरा नेत्र सूक्ष्म, और
कारण लोकों को देखसकेगा! तीसरा नेत्र में मन को प्रवेश करसका पहले सूक्ष्म शरीर को देखेगा! तत
पश्चात सारा सूक्ष्म लोक,और उस सूक्ष्म लोक में अपना शरीर भी एक भाग जैसा देखेगा!
तीसरा नेत्र में अपना मन बिना प्रवेश करके, अपना प्राणशक्ति, चेतना, मेरुदंड, और मेरुदंड
में उपस्थित चक्रों में प्रवेश नहीं करसकेगा! तत पश्चात ही मुक्ती प्राप्त करेगा!
इस प्रकार श्री कृष्ण परमात्मा श्रीमद्भगवद्गीता
में अर्जुन का माध्यम से क्रियायोग मानावाळि को उद्बोधन किया था!
क्रियायोग में हठयोग (शक्तिपूरका अभ्यासे),
लययोग (सोऽहं और ॐ प्रक्रियों), कर्मयोग (सेवा-service), मन्त्रयोग, (चक्रों में बीजाक्षर
उच्चारण), राजयोग (प्राणायाम पद्धातिया) होगा!
शिर से नीचे जानेवाली प्राणशक्ति मन को इन्द्रियों
का पास/साथ मिलायेगा! इस का वजह से ‘मै दिव्यात्मस्वरूप हु’ इति विषय को छिपाएगा और
भौतिकता साथ संबंधित करेगा! साधारण मनुष्य में प्राणशक्ति अथोमुख होकर भौतिकता साथ
संबंधित करेगा! केवल क्रियायोग का माध्यम से ही वैसा प्राणशक्ति को ऊर्ध्वमुख करसकेगा,
और मेरुदंड उपस्थित चक्रों द्वारा शिर में लेजाके आध्यात्मिक मार्ग सुगम करेगा! मानवजनम
का अंतरार्थ समझाएगा!
प्राणशक्ति नियंत्रण करना ही साधक को माया
पार करने का वज्रायुध है!
खेचरी मुद्रा में जीब को पीछे मोड़ के ताळू
में यानी अलिजिह्वा(Uvula) का नीचे रखके क्रियायोग करना अति उत्तम साधना है! क्योंकि वैसी साधना
साधक को सर्वप्राप्ति करनेवाली कामधेनु है!
हम
अन्दर लेनेवाली श्वास को पवित्र करके श्वासनियंत्रण को सहायता करके, साधक को
परमात्मा का साथ अनुसंधान करेगा क्रियायोग! उस साधना के लिए सहायता करके
पवित्रकरनेवाली वायु अथवा प्राणशक्ति परमात्मा ही है!
साधना में आने अवरोधों का निवारण आयुध मात्र केवल
ॐकार उच्चारण ही है! उच्चारण किया ॐकार अक्षर वृधा नहीं जाएगा! वह ब्रह्माण्ड में
उपस्थित नकारात्मक शक्तियों को सर्वदा नाश करता ही रहेगा! इसी कारण जभी भी समय
मिले ॐकार उच्चारण करते रहिए! समय गप्पी
में वृथा नहीं करना! यह ही सबको मेरा विज्ञापन है! ॐकार परमात्मा का प्रतीक है!
श्रीरामचंद्र ॐकार का प्रतीक है! श्रीरामचंद्र का एक ही बाण ‘रामबाण’ है! वह ही ॐकार
है! ॐबाण ही रामबाण है!
मनुष्य अपना अन्दर का लोको का (चक्रों को)
क्रियायोग का माध्यम से कुण्डलिनी जागृत करके प्रक्षाळन करके परमात्मा का अनुसंधान
करने को तीव्र प्रयत्न करना चाहिए!
शुष्क होजाने का कारण इस को शरीर, दहन होजाने
का कारण इस को देहं, सड़ने के कारण से इस को कळेबरं कहते है! क्रियायोग सरने से शरीर
शुष्कता नहीं पायेगा, देह दहन नहीं होगा, और कळेबरं नहीं सड़ेगा!
क्रियायोग सशास्त्रीय है! निश्चयात्मक है!
क्रम पद्धतियों का अभ्यासयो का माध्यम से
निश्चितफल देनेवाला है! आत्मा परमात्मा दोनों का मिलन ही योग है! इस को सहायता
करनेवाला क्रियायोग ही है! इस का अभ्यास मनुष्य को मूढविश्वासों से सम्भावित/प्रभावित
मत को अलग अतीत रखेगा!
शारीरक व्यामोह, और दास्यापन
(slavishness) परिपूर्णरूप में छोडदेना आवश्यक है! शरीर का उप्पर आधिपत्य साध्य होने
तक इस शरीर ही मनुष्य को गर्भा शत्रु है! दैवनामम् व्याप्ति कराना, परमात्मा का बारे
में नित्यं शोचन करना, ये शिवा साधक और कुछ भी मांगना चाहिए! आत्मसमर्पण शिवा परमात्माप्राप्ति
के लिए सुर कोईभी मार्ग नहीं है! इस के लिए क्रियायोग का माध्यम से मन को वश करना ही
एकैक मार्ग है!
परमात्मचेतना, और परमात्मशक्ति दोनों
मानवचेतना यानी मानव मन, और मानवशक्ति यानी प्राणशक्ति का रूप में व्यक्तीकरण का
मार्ग तीसरा आँख है!
कारणशरीर, और सूक्ष्मशरीर दोनों व्यक्तीकरण
का मार्ग भी इस तीसरा आँख ही है! सूक्ष्मशरीर तीसरा आँख का हेतु भी इस तीसरा आँख
ही है!
कारणशरीर को कारणशरीर मेरुदंड, वैसा ही
सूक्ष्मशरीर को सूक्ष्मशरीर मेरुदंड, होता है!
इडा, पिंगळ, और सुषुम्नानाडी सूक्ष्मशरीर
मेरुदंड का संबंधित है!
मेरुदंड उपस्थित सुषुम्नानाडी का अंदर वज्रनाडी,
वज्रनाडी का अन्दर चित्रि नाडी, चित्रिनाडी
का अन्दर ब्रह्मानाडी होता है! ये सब कारणशरीर मेरुदंड का संबंधित है!
परमात्मचेतना, और परमात्मशक्ति दोनों पहले
कारणशरीर तीसरा आँख का माध्यम से कारणशरीर मेरुदंड में, तत पश्चात कारणशरीर प्राणशक्ति
जैसा प्रवेश करेगा!
कारणशरीर मेरुदंड का माध्यम से सूक्ष्मशरीर
मेरुदंड सूक्ष्मशरीर तीसरा आँख, सूक्ष्मशरीर
तीसरा आँख का माध्यम से सूक्ष्मशरीर मेरुदंड में, सूक्ष्मचेतना, और सूक्ष्मप्राणशक्ति
जैसा प्रवेश करेगा!
इधर बड़ा भेजा ही(cerebrum) कारणशरीर है! छोटाभेजा ही (Cerebellum) सूक्ष्मशरीर है! और भेजा-स्तंभ (Brain stem) ही भौतिकशरीर(primitive brain) है!
सूक्ष्मशरीर (Cerebellum) बीच बचाव करनेवाला(mediator) है! बड़ा भेजा ही(cerebrum), और भेजा-स्तंभ (Brain stem) यानी भौतिकशरीर(primitive brain) इन दोनों का संपर्क करता है!
भेजा-स्तंभ (Brain stem) यानी भौतिकशरीर(primitive
brain) सही ढंग
में काम करने को सूक्ष्मशरीर (Cerebellum)सही
काम करना चाहिए!
बड़ा भेजा(cerebrum) कारणशरीर भावना केंद्र है! आदेशो सब इधर से ही आता है! उन आदेशो को
पालन करना, और सही प्रकार से मूर्त रूप देना (proper execution of orders/plans) छोटा भेजा(Cerebellum) सूक्ष्म शरीर का
काम है! इन दोनों का समन्वयत अत्यंत आवश्यक है! काम करनेवाला (worker)मस्तिष्क स्तंभ (Brain
stem) भौतिकशरीर (primitive brain) है! इस कामकाजी संबंधित
वारतो को लेजानेवाला वार्ताहर(postman) मस्तिष्क स्तंभ द्रव (Cerebro spinal
fluid—CSF) है! अंगों
(organs), और उन संबंधित हारमोन(harmones), और रक्त इत्यादि सेवाजन (servants) है! ये सब सही प्रकार से अपना अपना काम करने को
आवश्यक विद्युत् उमंगों (proper
electrical impulses) क्रियायोग साधना का माध्यम से सही ढंग से मिलजाएगा!
इस छोटा भेजा(Cerebellum) सूक्ष्मशरीर को ही
इक्ष्वाकु कहते है! इक्ष = नेत्र
मनु बड़ा भेजा(cerebrum) कारणशरीर चेतना मन का पुत्र इक्ष्वाकु
है!
इक्ष्वाकुस्थिति में होनेका अहंकार स्थूल इन्द्रियों से नहीं, आत्मा से
आयेगा! इसी को सहजावबोधन कहते है!
सूक्ष्मशरीर मेरुदंड का माध्यम से स्थूलशरीर मेरुदंड में, परमात्मा चेतना,
और परमात्मा शक्ति दोनों मानवचेतना, और प्राणशक्ति का रूप में प्रवेश करेगा! वहा
से विषयासक्ति सहित स्थूलज्ञानेंद्रियों, और कर्मेन्द्रियो में प्रवेश करेगा!
विषयासक्तिसहित स्थूलज्ञानेंद्रियों, और कर्मेन्द्रियो स्थिति को राजर्षि स्थिति
कहते है! इस विषयासक्तिसहित स्थिति में मनुष्य योग भूलजायेगा, और करेगा भी नहीं है!
भौतिकनेत्र खुलने से मनुष्य का स्वप्न
पिघल जाएगा! परमात्म का स्वप्न पिघलने के लिए ज्ञाननेत्र खुलना चाहिए! क्रियायोग साधन
इस मार्ग को सुगम करेगा!
क्रियायोग साधना में साधक वृधा रीति बाहर
जानेवाली प्राणशक्ति को पुनः मेरुदंड का माध्यम से षट् चक्रों द्वारा कूटस्थ में
भेजसकेगा! शिरस को एक प्रबल अयस्कांत रूप में बदलसकेगा! प्राणशक्ति को पीनियल (pineal gland) ग्रंथि में,
मेडुल्ला अब्लान्गेटा, और बड़ा भेजा (Medulla and Cerebrum) में केन्द्रीकरण
करसकेगा!
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