Edited Kriyayogasadhana-Teesara ankh in Hindi concluding 2nd part.
अहंकार/आत्मा/परमात्म:
परमात्मा
नित्य नित्य नूतन,
नित्ययौवन, नित्य चेतना स्वरूपी और
नित्य आनंद स्वरूपी है! सर्वव्यापी सर्व शक्तिमान और सर्वज्ञ है परमात्मा! आत्मा परमात्मा का अंतर्भाग ही है! इसी कारण आत्मा नित्य नित्य नूतन, नित्ययौवन, नित्य चेतना स्वरूपी,
नित्य आनंद स्वरूपी और सर्वव्यापी सर्व शक्तिमान सर्वज्ञ है!
समुद्र
समिष्टि और समुद्र का पानी का बूंदें व्यष्टि है! परमात्मा समिष्टि और आत्म
व्यष्टि है! इन्द्रियों को प्रकाशित करने के लिए परमात्मा शक्ति (Cosmic energy) परमात्मा से व्यष्टि
व व्यक्ति का अन्दर प्रवेश करेगा! परमात्म चेतना मानव चेतना में बदलेगा! मानव चेतनायुक्त इन्द्रियों हम को इस मिथ्या प्रपंच को दिखाएगा परंतु परमात्मा
को नहीं दिखा सकता है!
मानव चेतना को व्यक्ति से परमात्मा का दिशा में बदलने से परमात्मा को प्राप्त करेगा! अहंकार और आत्मा प्राथमिक रूप (Fundamentally) में
एक ही है परंतु व्यवहार शैली में अलग अलग है! विद्वान् मनुष्य और मूर्ख मनुष्य
दोनों प्राथमिक रूप में एक ही है परंतु व्यवहार शैली में अलग अलग है! दुर्जन भी
मनुष्य है और सज्जन भी मनुष्य है परंतु उन का व्यक्तित्व में व्यत्यास है!
‘मै , मेरा, अपनापन, मेरा संतान, मै स्त्री हु, मै पुरुष हु, मै उत्तम जाती का
हु इत्यादि स्वभाव से मुक्त हुआ अहंकार स्वयं प्रकाश से विराजमान होगा! अहंकार
मनुष्य को शरीर में परिमित करता है! परमात्मा चेतना अपरिमित और आबद्ध है! परिमिति
से शरीर से बांधा हुआ मानवचेतना को क्रियायोग साधना से परमात्मा चेतना में
परिवर्तन (transformation) करना ही मानव लक्ष्य है!
आत्मसाक्षात्कार साध्य किया साधक का चेतना
परमात्मचेतना स्थिति का चारों ओर घूमता है! उस स्थिति में चक्रों का गॉठ टूटेगा और
साधक मुक्त हो जाएगा!
चक्रों का गॉठ आत्मा को शरीर में परिमित
करेगा! इस परिमित चेतना को मेरुदंड से विमुक्ति करना है! उप श्रीकृष्णचैतन्य (Semi Sri krishna Consciousness) में सृष्टि में और सृष्टि का अतीत में भी साधक
आनंद प्राप्ती का अनुभव करेगा! श्रीकृष्णचैतन्य (Sri krishna Consciousness) में स्वयं का
अस्तित्व का अनुभव सृष्टि में और हर एक अणु में ‘मै’ हु इति स्थिरभावना
साधक प्राप्त करेगा! परमात्मचैतन्य
(Cosmic Consciousness) में स्वयं ही
सृष्टि में, सृष्टि का अतीत में और हर एक अणु में ‘मै’ हु इति स्थिर
भावना साधक प्राप्त करेगा! ऐसा भावना असमान्य है! हम कभी भी अचेतना में नहीं होते है! हम सो सकते है, विश्रांति कर सकते
है, परंतु चेतना
हमेशा जागृत में ही रहेगा! इस का कारण हम शरीर नहीं, चेतना स्वरूपी
है! मै खा रहा हु, लिख रहा हु, सो रहा हु, धौड रहा हु, इन सब ‘मै’ का आधार जो ‘मै’ है उस ‘मै’ ही नित्य है और
वह ‘मै’ ही आत्मा है! निद्रा में हम चेतना को खो बैठने से, जागने के पश्चात ‘हम सोया है’ इति वार्ता
देनेवाला यह आत्मचेतना ही है!
स्थितियों:
1) परमात्मचेतना (Cosmic Consciousness)—यह सर्वोत्तम स्थिति है! इस सृष्टि में
सृष्टि का अतीत में और हर एक अणु में ‘मै’
उपस्थित हु इति
स्थिरभावना स्थिति है यह! हमारा सर्वव्यापक स्थिति द्योतक होता है! इसी को सत् व
पिता (Father) कहते है!
2) श्रीकृष्णचैतन्य (Srikrishna Consciousness) व कूटस्थचैतन्य - यह परमात्म चेतना
का अवरोहणाक्रम में (Descending) नीचे कदम है! इस
स्थिति में सृष्टि में
और हर एक अणु में ‘मै’
उपस्थित हु इति
स्थिरभावना स्थिति है यह!
3) उपश्रीक्रुश्नाचैतन्य (Semi Sri krishna Consciousness)— यह श्रीकृष्ण चैतन्य व कूटस्थचैतन्य का अवरोहणाक्रम में (Descending) नीचे कदम है! इस स्थिति में सृष्टि में और सृष्टि का अतीत
में आनंद प्राप्ति अनुभव करेगा! परंतु श्रीकृष्णचैतन्य में जैसा सृष्टि में और हर एक अणु में ‘मै’ उपस्थित हु इति स्थिरभावना नहीं होता है
इस स्थिति में!
4) आत्मचेतना (Soul
Consciousness) — यह उप श्रीकृष्ण चैतन्य व कूटस्थ चैतन्य का अवरोहणाक्रम में (Descending) नीचे कदम है! परमात्मचेतना पहली बार व प्राथामिक दशा में शरीराचेतना को
परिमित हुआ इन्द्रियों का अतीत हुआ चेतना को आत्मा (Soul) कहते है! यह
इंद्रियातीत है! यह क्रमशः उप श्रीकृष्ण चैतन्य अधिचेतना (Super Consciousness) उप अधिचेतना (Semi Super
Consciousness) का रूप में नीचे आता है!
5) अहंकार (Body Consciousness) (Ego)— यह उप अधिचेतना का अवरोहणाक्रम में (Descending) नीचे कदम है! परमात्मा चेतना (Cosmic
Consciousness) पहली बार व प्राथमिक दशा में शरीर को परिमित हुआ चेतना को जीवात्मा कहते
है! यह क्रमशः उप श्रीकृष्ण
चैतन्य अधिचेतना (Super Consciousness) उप अधिचेतना (Semi Super Consciousness) शरीर को परिमित हुआ चेतना जीवात्मा का रूप में
नीचे आता है! यहाँ अहंकार (Ego) का रूप में बदल
जाता है! यहाँ से अवचेतना रूप (Sub consciousness) में बदल जाता है!
अहंकार क्रमशः उप अवचेतना (Semi Sub consciousness), जाग्रता चेतना (conscious ness), और इन्द्रिय चेतना (Attachment to Senses) में बदल जाता है!
क्रियायोगसाधना:
माया से हमारा
इन्द्रियों आवृत हुआ है! इस माया से हम मुक्त होना है! झुका (Bent)/मुडा हुआ और सीदा
नहीं हुआ मेरुदंड से साधना नहीं कर सकते है! हर एक मनुष्य क्रियायोग साधना करना
चाहिए! आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना चाहिए! हमारा बंद (Closed) आँखों का अंधेरा का पीछे परमात्मा का प्रकाश है!
क्रियायोग साधना का माध्यम से साधक अपना चेतना को विस्तार करेगा! इस के लिए शरीर
त्याग जरने का अवसर नहीं है! इस विस्तार हुआ चेतना में शरीर को भागस्वामी करना
चाहिए! साधक आकाश अंतरिक्ष अन्यो का भावनावों का अनुभव करना चाहिए! एक पशु का जन्म
हुआ, हमारा भी जन्म
हुआ, ऐसा करके जीना
नहीं चाहिए! क्रमशिक्षणा से नियमानुसार हर एक दिन प्रातः और संध्या दोनों समाया
में क्रियायोग ध्यान करना चाहिए! मनस् इन्द्रियों का दास नहीं होना चाहिए! मनस्
इन्द्रियों दोनों को नियंत्रण करना चाहिए! दृष्टि कूटस्थ में निश्चल करना चाहिए!
हृदय को चेतनापूर्वक निश्चल करना चाहिए!
श्वास निश्चल
करना चाहिए! ये सब साधक परमात्मा का नर्दिक जाने का सूचनाएं है! अंधा दूसरा अंधा
को मार्ग दिखा नहीं सकता है! निष्णात हुआ क्रियायोगी का साहचर्य से ठीक साधना करना
चाहिए!
अवचेतन
मन चेतन मन को आँख बंद कर (blindly) के अनुसरण करेगा! हमारा चेतन मन सही नहीं होने पर अवचेतन मन भी सही नहीं
होगा! सही नहीं हुआ अवचेतन मन चेतन मन को युक्तायुकता विचक्षणाज्ञान नष्ट करेगा!
इसी कारण हम अपना चेतन मन को सुशिक्षित करना चाहिए! तत् द्वारा अवचेतन मन अपना
विचक्षणाज्ञान खो नहीं बैठेगा! चेतन मन को सही रास्ता में चलाएगा! अवचेतन मन
यांत्रिक (Automatic/default) है! वह चेतन मन का अनुभवों/अनुभूतों को बिलकुल नहीं भूलेगा और पूर्णरूप में
पुनरावृत्ति करेगा! अवचेतन मन नहीं होने से हम हर एक दिन नया प्रारम्भ करनी होगी!
मनुष्य कुछ भी प्रगति (Development) नहीं होगी! इसी
हेतु अवचेतन मन में आलसीपन, क्रमशिक्षणाराहित्यता,
अमर्यादा, अतिभाषण, आलस्य,
ध्यान नहीं करना इत्यादि बुरा आदतों का जगह नहीं देना चाहिए! उन बुरा आदतों पुनः
हमको हमारा चेतन मन द्वारा नाश करेगा!
चेतन स्थिति में
मन चंचल रहता है! श्वास ह्रदय इन्द्रिय विषयों इत्यादि का उपर मन लग्न होता है!
अवचेतन स्थिति में अपना प्रपंच को अपने आप ही सृष्टि कर सकते हो! अधिचेतना स्थिति
में मन निश्चल स्थिति में रहता है! आँखों चंचल नहीं होगा, निश्चल रहेगा, श्वास स्थिर होगा! निद्रा में परमात्मा तुम को
अनंत बनाएगा!
निद्रा में
तुम्हारा शरीर का भार, जाती, कुल, लिंग इत्यादि सब
भूल जावोगे! निद्रा से जागने का पश्चात इस चेतना प्रपंच में पुनः कदम रखोगे! नेत्र
तुम्हारा स्थिति स्पष्ट करेगा! तुम्हारा मन का मुताबिक़ तुम्हारा नेत्रों का चाल
होगा! चेतन स्थिति में आँखें खुला रहेगा! अवचेतना स्थिति में आँखें नीचे की ओर बंद
रहेगा! अधिचेतना स्थिति में आँखें उपर की ओर खुला रहेगा! इन तीनों स्थतियों
तुम्हारा अधीन में होना अद्भुत है! तुम्हारा इच्छा का अनुसार नेत्र खोल के चेतन
स्थिति में रहो व नीचे की ओर बंद स्थिति में रख के निद्रावस्था/ स्वप्नावस्था/
अवचेतन स्थिति में रहो, तब इस प्रपंच को भूल सकते हो, व नेत्रों को उपर की ओर खुला रख के अधिचेतना
स्थिति में रहो तब अवचेतना अधिचेतना स्थितियों दोनों को भूल सकते हो क्योंकि तब
परमात्मा का रम्य कर सकते हो!
माया:
मा= नहीं
या=यदार्ध, माया का अर्थ
यदार्ध नहीं है! पदार्ध कभी भी यदार्ध नहीं है! परमात्मा सदा आनंदस्वरूप है! वह
अपना आनंदतत्व द्वारा माया को सृष्टि किया! माया परमात्मा का अंतर्भाग है! समिष्टि
में माया को ही व्यष्टि में कुंडलिनी कहते है! ‘मै कौन है पता करदो’ कहते थे भगवान रमण महर्षि! ‘तुम्हारा अन्दर
उपस्थित कुंडलिनी को जागृति करो! तुम अपना अन्दर का व्यष्टि माया को ग्रहण कर
सकोगे तब समिष्टि माया को ग्रहण कर सकेगा’ इति इस का अर्थ है!
एक पानी का बूँद
में हैड्रोजन (Hydrogen) और आक्सीजन (Oxygen) है कर के जानने
से पूरा समुद्र का पानी में भी वह ही हैड्रोजन (Hydrogen) और आक्सीजन (Oxygen) है कर के जानेगा! ‘हम परमात्मा का भाग है परमात्मा हमारे में है, हम और परमात्मा
एक ही’
इति ग्रहण करने से माया हमको कुछ नहीं कर पायेगा!
भयंकर स्वप्न
स्वप्नाके भौतिक नेत्र खोलने से उस स्वप्न अदृश्य होता है! ‘कूटस्थ में रहता
हु’ (द्वामिवौ पुरुषौ
लोके क्षराक्षरमेव च, क्षराःसर्वभूतानि अक्षरः कूटस्थमित्युच्यते’—गीतावाक्य) इति
भगवान स्वयं ही कहा है! इसी कारण कूटस्थ स्थित परमात्मा का नेत्र (तीसरा आँख)
खोलने से परमात्मा का इस स्वप्न/लीला हम आसानी से ग्रहण कर सकते है!
‘बुरा कर के कोई भी चीज नही है’ इति कुछ लोग कहते है! वह सही नहीं है!
‘सब मन का विकल्प ही है, शरीर मिथ्या है’ इति कहने से नहीं चलेगा! हर एक सुन्दर और
आनंदमयी अनुभव का पीछे दुःखपूरित अनुभव निश्चय होगा!
अच्छा बुरा हम ने
सृष्टि नहीं किया! असूया द्वेष, क्रोध, लोभ इत्यादि सब
हमारा सृष्टि नहीं है! हम ही अनुसरण कर के पीड़ा अनुभव करते है! इन चीजों को अनुभव
करने का पश्चात विवेक पाकर बुरा और बुरा पद्धतियों को अनुसरण करना पूरी तरह त्यग
के अच्छी मार्ग को अनुसरण करते है!
भौतिक विषयों
विषयवांछों स्वच्छंदरूप में परिपूर्ण रूप में विसर्जन करना ही स्वच्छता परिपूर्णता
और शुद्धता है! माया को परमात्मा एक पल में नाश/निर्मूलन कर सकता है! जिस न्याय
सिद्धांतकर्ता (law maker) ने न्यायासूत्रों (Laws) को प्रवेश करवाया स्वयं ही उन सूत्रों (Laws) को अतिक्रमण नहीं
कर सकते! उसी प्रकार जिस परमात्मा ने मात्र लीला व माया को स्वयं प्रवेश करवाया
भगवान उसी लीला का नाश करेंगे! प्रेम कितना बलवत्तर है परमात्मा को पता है! उस प्रेम से ही प्रेमी
लोगों को अपना तरफ आकर्षित करता है! इतना ही नहीं, उन लोगों का अन्दर का माया को भी अपने में विलीन करता है क्योंकि परमात्मा के प्रेम
करनेवाला लोगों को माया से काम नहीं है! परमात्मा का उपर प्रेम बुरा को नाश करता
है! असूया द्वेष, क्रोध, लोभ इत्यादि हम
में उत्पन्न होने पर ये सब माया का जाल इति तुरंत
समझ के इन सब से मुक्त होने के लिए उपक्रमण करना चाहिए! क्रियायोग साधना
तीव्रतर करना चाहिए!
मुझ को कुछ भी
रोग आने से मेरा क्रियायोग साधना तीव्रतर करता हु! मुझे शिर
का पीछे (10/03/2014) (Medulla centre) एक क्रिकेट गेंद (Cricket ball) जितना एक फोड़ा हुआ था! उस का दोनों ओर और दो
क्रिकेट गेंद (Cricket ball) जितना फोड़ें हुये थे! इन तीनों फोड़ें अंदर ही अंदर चर्म
का नीचे हुए थे बाहर नहीं दिखाई दे रहे थे! इन्ही को कार्बंकुल (Carbuncle) कहता है कर के बाद में पता लग गया! वे सब मुझ को प्राणापाय स्थिती में ले
आया था! शब्द इति आखरी इंद्रिय नाश होने तक साधक अपना इच्छाशक्ति को उपयोग करके
संपूर्ण कृषि से पुनः आरोग्यवान हो सकता है! ऐसा मेरा प्रिय गुरुदेव श्री परमहंस
योगानंद कहते थे और उद्बोधन करते थे! धैर्य और पूर्ण विश्वास से मेदुल्लासेंटर (Medulla centre) में तनाव (Tense) डाल के मै साधना करता था! क्रमशः(17/04/2014) पूरा स्वस्थता मिल गया था! मुझे केवल वह प्रक्रिया का द्वारा मिलनेवाला
प्राणशक्ति ही मेरा स्वास्थता को वापस लाया था!
प्राणशक्ति शिवा
कोई भी चीज हम को बचा नहीं सकता है! एक अंगुली को हिलाने के लिए कारण प्राणशक्ती
ही है! साधारण तौर पर हम को रोग आने से प्राणशक्ती का उपर विश्वास खो बैठना और उस
का अद्भुत मूल्य को विस्मरण करना ही हमारा बड़ा गलती है! प्राणशक्ति को
पक्षवात (Paralysis) करवाना ही दीर्घकाल
रुग्मता (Chronic disease) का कारण है! उस अविह्वास का हेतु प्राणशक्ति
आनेवाला मार्ग बंद हो जाता है!
हवा बाहर होने से
उस को वायु कहते है! उस हवा/वायु शरीर का अंदर होने से उसी को आयु कहते है! हमारा
शरीर का बाहर अधिकाधिक वोल्ट (Volts) का प्राणशक्ति
संचरण करता है! इस बाहरसंचरण करनेवाला प्राणशक्ति का साथ दो प्रकार का संबंध हम रख
सकते है! एक ऊहा (Imagination) व यांत्रिक सूचना (Auto
suggestion), दूसरा
इच्छाशक्ति!
परमात्मा अपना
शक्ति से हमारा शरीर और जगत का अंदर का अणुओं को जोडके रखता है! हम चेतना का
माध्यम से हमारा इच्छाशक्ति को वृद्धि कर के परमात्मा अपना
शक्ति से अनुसंधान करना चाहिए! एक पानी का जहाज (Ship) रेडियो (Radio) का माध्यम से
जैसा चलाएंगे वैसा ही परमात्म मेडुलाआबलम्बगेटा द्वारा प्राणशक्ति को भेज के हमारा
शरीरों को चलाता है! प्राणशक्ति और चेतना को शरीर का साथ जोड़नेवाला इच्छाशक्ती ही
है! सैकड़ों वर्ष का जितना प्राणशक्ति अवसर है उतना हमारा शरीर में है! परंतु
स्वल्प रुग्मता होने से भी हम इस महत्वपूर्ण प्राणशक्ति का उपर विश्वास नहीं रखते
है! इसी कारण हमको समस्यों आता है! ‘मै थक गया हु’ इति कहने से चेतना व मन तुरंत बलहीन होता है! ‘हां इस रोग का
साथ आया हुवा शारीरक पीड़ा मै सहन नहीं कर सकता, इस से मरण ही श्रेष्ट है’ इति भावना करता
है! तब मनुष्य मरा हुआ का समान है, वह मनुष्य मरेगा भी! इसी कारण इच्छाशक्ति से बढ़कर कुछ भी नहीं है! ऐसा
कहना अतिशयोक्ति नहीं है! इस सर्व जगत परमात्मा का इच्छाशक्ति से ही व्यक्तीकरण
हुआ है!
बुद्ध प्रतिज्ञ:
इस वटवृक्ष का
नीचे पवित्र प्रदेश में बैठ के मै प्रतिज्ञा
कर रहा हु—‘जीवन का लक्ष्य क्या है’ जानने तक, आत्मसाक्षात्कार
प्राप्त होने तक, मेरा
हड्डियां सुख के पिघलने से भी, इस
स्थिरासन से नहीं उठूंगा! ऐसा इच्छाशक्ति से प्रतिज्ञ किया गौतम बुद्ध में बदल
गया! ऐसा इच्छाशक्ति ही परमात्मशक्ति!
आवेश (Temptation):
आवेश अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी होसकता है! मनुष्य क्षणिकावेश का वश होकर जीवन नहीं बिताना
चाहिए! शांति से शोच कर कार्य करना चाहिए! आवेश आना दोष नहीं है, परंतु उस को हमारा वश में रखना चाहिए! आवेश को तुम दास नहीं बनना चाहिए!
आवेश हमारा दास बनना चाहिए! अदृष्ट कर के कोई भी चीज नहीं है! इस जगत पूरा कार्य कारण संभूत है! हर
एक कार्य का पीछे कारण अवश्य होगा! हम जो भी कार्य कर रहे है उस का कारण गतम् में
हम कियाहुआ कार्य ही कारण है! अथात पुराणा कर्म ही वर्त्तमान मनःस्थिति का कारण
है! अब का मनःस्थिति हम को सुख दिलाने से भी, दुःख दिलाने से भी उस का कारण गतम् में
हम किया हुआ कार्य/कर्मा ही कारण है! सुख व दुःख कुछ मिनट, दिन, महीने, वर्षो तक हो सकता
इन सब कर्मों का फल ही है और वे इस जन्म का हो सकता नहीं तो पिछले जन्मों का हो
सकता है! मेरा जान पहचान की लड़की जिसने M.B.A. पढा था उस को एक युवा वेद पंडित ने उस का माता पिता
का सामने शादी का प्रस्ताव रखा था! इस संदर्भ में उस लड़की गर्व से ‘तुम कहा और मै कहा, ऐसी प्रस्ताव लाने
के लिए तुम्हारा हिम्मत कैसा हुआ, मै ऐसा पुरोहित लड़का से विवाह नहीं करूंगी’ इति दुर्भाष और परिहास करता हुआ कहा था! वह लड़की भी
एक पुरोहित का ही लड़की थी! घायल हुआ मन से उस युवा वेदपंडित मेरा पास आने से उस को
सांत्वना देके भेजदिया था! बाद में उस गर्वित M.B.A. लड़की को एक
साफ्टवेयर (software) इंजीनियर से
विवाह हुआ था! वह इंजीनियर (Engineer) दुरहंकार (Sadist) और गर्वित व्यक्ती है! अब दोनों अलग (Divorce) हो गये! उस युवा वेदपंडित को उस लड़की से हुआ अपमान ही उस लड़की का इस प्रस्तुत दुरवस्था
की कारण है!
परमात्मा पक्षपाती नहीं है! वह एक को
अच्छी जीवन, दूसरी को बुरा जीवन प्रसादित नही करता है! पूर्वजन्म कृतं पापं
व्याधिरूपेन पीडितं! As you sow so shall you reap. हम गत जन्मों में
किया हुआ स्वयंकृत अपराध ही इस जन्म में रोग, दरिद्रता, मानसिक दुःख, शारीरक पीड़ा
इत्यादि दुर्घटना/दुस्तिथियों का हेतु है! हम गत जन्मों में किया हुआ स्वयंकृत
अच्छा कर्म ही इस जन्म में हमारा प्रस्तुत अच्छी स्थिति का हेतु है!
क्रियायोग साधना
का माध्यम से गत जन्मों का कर्मों को दग्ध करना चाहिए! पुराणा कर्मों हमारा जीवन को
शासन नहीं करना चाहिए! ‘अहम् अमृतस्य पुत्रः’ यह बुलाना नहीं
चाहिए! ‘मै अच्छा कर्मा
ही करूंगा’ ऐसा दृढ़ता से निर्णय करना चाहिए! बीच बीच में ठोकर खाने पर दिशा बदलने से भी
अपना दृढ़ निर्णय से अतिरिक्त नहीं जाना चाहिए! ऐसा निर्णय लेके आगे बढ़ने से
मनुष्य पापी नही बनेगा!
आशा (Hope), विश्वास (Faith) और प्रेम:
परमात्मा का अनुसंधान करने के लिए बहुत
सारे जन्मों अँधेरा रास्ता में प्रयाण करने आत्मा को रोशनी देनेवाला नित्य प्रकाश
है आश! मनुष्य के आत्मावबोध द्वारा जन्म
लेनेवाला आशा है! वह आत्मावबोध हम को भूला हुआ परमात्मा को याद दिलाएगा! आशा को
सही मार्ग में उपयोग कर के परमात्मान्वेषण के लिए क्रियायोग साधना करने से विश्वास
अथात आत्मावाबोध वृद्धि होता है! विश्वास के लिए साक्षी और आधारों का आवश्यकता
नहीं है! इस काम निश्चय होगा इति अपार विश्वास होना चाहिए! परमात्मा का शक्ति और
अपना इच्छाशक्ति का उपर अपार विश्वास होना चाहिए! विश्वास का नीचे
कदम है भरोसा (Belief)! यह सत्य हो सकता है, नहीं भी हो सकता है! अथात भरोसा (Belief) सत्य परिक्षा का सामने समर्थ हो सकता है, नहीं भी हो सकता
है! परंतु अपना भरोसा (Belief) को सत्य परिक्षा का सामने खडा करवाके तोलना और
उस विषय का यदार्ध रूप क्या है जानना आवश्यक है! तब वह
निर्माणात्मक (Constructive) भरोसा होता है! साधक निरंतर क्रियायोग साधना
द्वारा अपना अंदर का आत्मावाबोधा विश्वास को पुनः प्राप्त करेगा! तब और अधिक
स्वार्थपर होगा!
भागवत साम्राज्य
को स्वयं ही अनुभव करना और अन्य लोगों को लभ्य नहीं होना चाहिए इति अभिलाषी होता
है! दया का वजह से प्रेम उत्पन्न होता है! परमात्मा नित्य चेतनास्वरूपी और
सर्वव्यापी है! इस का वजह से दया उत्पन्न होता है! उत्कृष्ट दशा प्राप्त किया साधक
अपना चेतना को अन्यों को लिए व्याप्त/प्राप्त कर सकता है! उन अन्यों का परिमितों, पीड़ादायक चीजों
को अनुभव और समझ कर सकता है! तब अन्यों का सहायता करने का तपन प्रारम्भ होता है!
इसी कारण मै भागवत साम्राज्य का सब को अनुभवैकवेद्य होना इति संकल्प से क्रियायोग
ध्यानमंदिर को निर्माण किया और योग पिपासियों सब को क्रियायोग शिक्षण दे रहा हु!
‘तुम्हारा हाथ का उपर तीन बार ॐ लिखो, उस को देखते हुए
पानी का उपर चल सकते हो’ एक पंडित ने एक मछुआ को कदापि कहा था! ‘ आप का कृपा से पानी का उपर चल सकता हु, बड़ा बड़ा मछलियां
भी पकड़ रहा हु’ इति उस मछुआ ने
पंडित को कहा था! उस तरीका बोलनेवाला पंडित ऐसा अपना हाथ का उपर ॐ लिख कर पानी का
उपर चल नही सका था! केवल अपना उपर विश्वास नहीं होना ही इस का हेतु है!
चेतना, स्पंदन:
परमात्मा अपने आप
को नित्य स्पंदनारूप में, शुद्ध ज्ञान रूप में, शांति स्वरुप में, आनंदस्वरूप में व्यक्तीकरण किया है! पशु, पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, आकाश, अंतरिक्ष, मनुष्य, चेतना इत्यादि सब जगत में विविधप्रकार का
स्पंदनों ही है! घन, वायु, द्रव सब जगत में
विविधप्रकार का स्पंदनों ही है! हर एक स्पंदन में व्यत्यास हो सकता है! चेतना का
अर्थ बुद्धिमान विविधप्रकार का स्पंदनों का तेज ही है!
विविधप्रकारों का
तेज एलक्ट्रानों (Electrons)
का स्पंदनों का सम्मेळन ही पदार्थ
है! विविधप्रकारों का चेतानापूर्वक परमात्मा शक्ति का प्रतिरूप ही एलक्ट्रानों है!
परमात्मा का शक्ति ही स्पन्दनावृत परमात्मा का मेधा है! स्पन्दनावृत मेधा शक्ति ही
पदार्थ का अन्दर का परमात्मा है! मनुष्य का मन का अंदर स्पन्दनावृत मेधा का रूप
में परमात्मा अपने आप को व्यक्तीकरण करता है! निर्धारित दिशा में प्रगति करना ही
स्पन्दना है! युक्त चेतना का माध्यम से उस स्पंदनाशक्ति अपने आप को इस जगत में
जीवित करने के अनुकूल पद्धति समायोजन करता है! स्पंदनायें समझदार है! ऐसा नहीं
होने से यह जगत विवेकहीन मिट्टी का गोला, वायु अथवा जल रूप में निवासयोग्य रहित होगा! इतना सुंदर फूल, फल, पशु, पक्षी, नदियों, समुद्र, आखरी में इन मनुष्यों इत्यादियों का अस्तित्व
नहीं होता है! परमात्मा का असमान अत्यद्भुत मेधायुत शक्ती ही इस जगत को चला रहा
है! इसी कारण उस परमात्मा सत्यं (सत्य स्वरूपी), शिवम् (मंगळस्वरूप—प्राणशक्ति प्रदाता), सुंदरं (सुंदर) है! माया प्रभावित द्वंद्वों—भूक आहार, रोग आरोग्य, ज्ञान अज्ञान, दरिद्रता ऐश्वर्य, अंधेरा रोशनी, मरणं जननं, नकारात्मक
सकारात्मक शक्तियों—इत्यादि
द्वंद्वों सब परमात्मा का अंतर्भाग है! इन सब द्वंद्वों से हम प्राभावित होके तंग होते है! परंतु उस
परमात्मा का सृष्टि अनंत असमान्य और अत्यद्भुत है!
परमात्म को
तुम्हारा अंदर प्रतिष्ठित करो! खानेवाला परमात्मा है और भोजन परमात्मा है! हर एक
कार्य परमात्मा के लिए करो! आज का फलं परमात्मा
और कल का मलं भी परमात्मा है! सौ फीसदी परमात्मा के लिए मनसा वाचा कर्मणा
त्रिकरणशुद्धि से कार्य करना अभ्यास करो! तब सर्वं उस परमात्मा का लीला इति
सुस्पष्ट रीती में ग्रहण करोगे! शायद यादव नाम का मनुष्य आध्यात्मिक अत्युत्तम
श्रीकृष्ण स्थिति को पहुँच गया होगा! चारित्रात्मक श्रीकृष्ण का आवश्यकता नहीं है!
चरित्र मत पूछो, श्रीकृष्ण ने जो
सत्य मार्ग का दिशा निर्देशन किया उस को अनुसरण करो और पालन करो!
मनस्:
‘मै और मेरा ही पद्धतियॉ ही सही (Dogmatism)
है’ यह सिद्धांत
मनुष्य को आगे बढ़ने नहीं देता! गिद्ध (Vulture) भयंकर तरीके से
चिल्लाता है! उसकी दृष्टि और मन सब खानेवाले मांस का उपर ही होता है! ‘मै ही बुद्धिमान
हु और बुद्धिमत्तापूर्वक संभाषण कर रहा हु’ ऐसा सोचनेवाला का मन अपना भावों का उपर होने से
भी उस का चेतना हमेशा अपना शरीर और शरीर संबंधित इंद्रिय विषयों का उपर ही घूमेगा!
प्रापंचिक विषयों का मोह उस को भौतिक शारीरक व्यामोह का दिशा में आकर्षित करेगा!
प्रापंचिक विषयों का मोह और इंद्रिय विषयों का आनंद अनुभव होने का पश्चात अपना मन
को शांति का उपर केंद्रीकृत करना आवश्यक है! मन का भौतिक पर्दा निकलने का पश्चात
स्थूल शरीर इंद्रिय संबंधित विषय आलोचनायें दूर हो जायेगा! तब आत्मा का मूल्य साधक
को विशद हो जायेगा! शांति का अर्थ शारीरक और मानसिक आलसीपन नहीं है! अविद्य अंधकार
जैसा है! दैव साम्राज्य प्रकाश जैसा है! अविद्य अंधकार से दैव साम्राज्य प्रकाश
में प्रवेश करने के लिए हमारा शारीरक और मानसिक आलसीपन को समूल विनाश करना चाहिए!
परमात्मा का एक क्षण का आलसीपन से इन ग्रहों सारे एक दूसरे को टकराके टूट के
तितर-बितर हो जायेगा! उस परमात्मा का सॉचे (Mould) में बनाया हुआ हम को आलसीपन बिलकुल नहीं होना
चाहिए! हर पल हर समय परमात्मा का आलोचनायें का साथ ममैक होना, उस के लिए जीना
सीखना चाहिए! उस के लिए मरना भी अभ्यास करना चाहिए! तुम सो जावो परंतु परमात्मा
चेतना का साथ सो जावो! तब जीवन में एक क्षण भी वृथा नहीं जाएगा, हर पल हर क्षण
कीमती हो जायेगा!
इच्छाशक्ति का
माध्यम से शारीरक स्पंदनों (Motions) को बंद करना चाहिए! स्थूल शारीरक स्पंदन
आध्यात्मिक विचारों को बंद करता है! सृष्टि का अर्थ ही स्पंदन है! स्वप्नों का
पीछे स्पंदनारहित मनुष्य है! वैसा ही इस स्पंदनासहित सृष्टि का पीछे स्पंदनारहित
परमात्मा है!
तुम चुप चाप
बैठने से भी तुम्हारे विचार तुम्हारे स्पंदनों को स्तब्ध नहीं कर सकते! जब अपने
प्राणशक्ति को उपसंहरण करने से ही तुम्हारा आलोचनायें को बंद कर सकते हैं! स्थूल
शारीर संपूर्ण शक्ति और चेतना दोनों को मेरुदंड में उपसंहरण करना हमारा प्रथम
कर्त्तव्य है! इस के लिए शरीर में पूरा तनाव (tense) डाल के पुनः ढीला (relax) करना चाहिए! ऐसा 4 व 5 बार करना चाहिए! मानव शरीर चेतना और पदार्थ
दोनों का गॉठ ही मानव शरीर है! शुद्धात्मा को शरीर से मुक्ति कराने के लिए प्रथम
में झिल्लीयों का शक्ति गॉठ यानी शरीरचेतना को अलग करना चाहिए! हम जब कूदते है उस
समय हम शरीर का भारीपन महसूस करने का कारण शक्ति और चेतना ही है! संपूर्ण आरोग्य
स्थिति में लेटा हुआ ध्यान नहीं करना! आदत से मजबूर होकर शरीर निद्रावस्था में
जाएगा! बैठ के ध्यान करना! झिल्लीयों से विमुक्ति हुआ प्राणशक्ति और चेतना मेरुदंड
में उपसंहरण किया जाएगा और दिव्यशक्ति लभ्य हो जायेगा! शरीर संतुलन में रहेगा! निश्चल
रहेगा! इस पागल दुनिया में जब तक स्वस्थिती में नहीं रहेगा तब तक साफल्यता नहीं
मिलेगा! समूह में होने से भी अकेलापन महसूस करना सीखो! तुम्हारा नैतिक धर्मो को
शांति और चंचलारहित निर्द्वन्द्वता से निर्वर्त करना सीखो! आध्यात्मिकता अभिवृद्धि
करो!
शिर को टेन्स (tense) करो, रिलाक्स (relax) करो! नेत्रों बंद
करो! मुह (Face) टेन्स (tense) करो, रिलाक्स (relax) करो! जांघ टेन्स
(tense) करो, रिलाक्स (relax) करो! टॉंग टेन्स
(tense) करो, रिलाक्स (relax) करो!
नाभि का उपर का, नाभि का नीचे का
जगह टेन्स (tense) करो, रिलाक्स (relax) करो! अब श्वास को
धीरे से दीर्घकाल अन्दर खींचो! धीरे से दीर्घकाल बाहर छोड़ देना! अब ध्यान करना!
दर्शन (Visions), स्वप्न:
इच्छाशक्ति से
चेतना और प्राणशक्ति को स्थूल शरीर से उपसंहरण करने का तुरंत साधक अवचेतनावस्था
में प्रवेश करेगा! तब स्वप्न (Dream) भ्रम (Hallucinations), निद्रा में चलना
(Somnambulism), विविध प्रकार का
मानसिक स्थतियों (mental
stages), अधिचेतना स्थिति (super conscious) का स्वप्न
जाग्रत चेतना का उत्प्रेरण से होने स्वप्न इत्यादि का अनुभव करेगा!
दर्शन (Visions) अलग चीज है!
आत्म अपना आत्मज्ञान (Intuition) को अवचेतानावस्था में शारीरक कार्यो (Activities) के लिए विनियोग
करने वाला प्राणशक्ति का साथ मिल के सत्य दार्शानों को अवचेतना पर्दा का उपर
दिखादेगा!
आत्मा अपना
आत्मज्ञान से भविष्यत् में होनेवाला संघटनों को दर्शनों द्वारा सूचना करा सकता है!
इस के लिए आवश्यक शक्ति को साधक अपना ह्रदय से और जाग्रतावस्था से छोड़ना चाहिए!
निद्रा झिल्लीयों को विश्रांति देगा! अहंकार और कुछ गत अनुभवों का वजह से
अवचेतनावस्था मन स्वप्न सृष्टि कर सकता है!
प्राणशक्ति:
प्राणशक्ति बहुत
शक्तिवंत है! सर्व इन्द्रियों का शक्ति प्रदाता प्राणशक्ति ही है! विद्युत्शक्ति
एक बल्ब का सृष्टि नहीं कर सकता है! परंतु पुरुष शुक्ल (Sperm) का प्राणशक्ति
स्त्री शोणित (Ovum) का साथ मिलके
मानव शरीर का सृष्टि कर सकता है! प्राणशक्ति सर्वेंद्रियों का स्पंदनों का मूल
कारण है! हम एक पत्थर का आहार के लिए उपयोग नहीं कर सकता है! परंतु उस पत्थर का
कुछ पदार्थों (Elements) हमारा खानेवाला
पदार्थों मे दिखाई देगा! परंतु उस पत्थर का पदार्थों और शरीर पदार्थों का स्पंदनों
में अंतर है और सहवर्तनीयता (Compatibility) नहीं है! सब्जी, पानी, वायु इन का स्पंदनों में और शरीर का स्पंदनों
में सहवर्तनीयता (Compatibility) होगा! परंतु उन
का किरणे (Rays) को मानव शरीर
शीघ्ररीती में अपने में तल्लीन (Absorb) करेगा!
प्राणशक्ति का
प्रथम व्यक्तीकरण (manifestations) किरणे, वायु, रसायनिक पदार्थ (Chemicals), लवण (Salts) और खनिज (Minerals)
पदार्थ इत्यादि है! परमात्मा हम
को घन, वायु, द्रव और शक्ति (Energy)
पदार्थ इन चार विविध प्रकार का स्पंदनों दिया है! इन सब में शक्ति सूक्ष्म
है! परमात्मा का मेधाशक्ति अनंत और असमान है! जगत का व्यक्तीकरण को उस परमात्मा
मेधा (Intelligent
Cosmic Vibration) का स्पंदन ही
कारण है! इलेक्ट्रॉन्स (Electrons), प्रोटांस (Protons) उन्ही स्पंदनों का वैविध्य से व्यक्तीकरण हुआ
है! ये सब वास्तव में किरणों ही है! एक्स रेस (X Rays), विद्युत्, अल्ट्रा वयलेट (Ultra Violet) और इन्फ्रा रेड (Infra Red) ये सब ऐसा किरणों
ही है! घन का अर्थ घनीभव हुआ द्रव ही है! घनीभव हुआ वायु ही द्रव है! घनीभव हुआ
किरणों ही वायु है! किरणों ही घनीभव हुआ विद्युत् है! घनीभव हुआ विद्युत् ही शक्ति
है! घनं का अर्थ स्थूल स्पंदन व शक्ति है! द्रव का अर्थ द्रव शक्ति है! वायु का
अर्थ वायु शक्ति है! सब शक्ती का विविध प्रकार का स्पंदन ही है!
दूराश्रवण (Clairaudience) का अर्थ दूर से
शब्दों के सुनने का सामर्थ्य है! यह मन को तीव्रतर से शब्देंद्रिय का उपर एकाग्रता
कर के आत्मज्ञान (Intuition) शक्ति का साथ
जोड़ने से मिलता है!
दूरादृष्टि (Clairvoyance) का अर्थ दूर से
दृश्यों को देखने का सामर्थ्य है! यह मन को तीव्रतर से नेत्रेंद्रिय का उपर
एकाग्रता कर के आत्मज्ञान (Intuition) शक्ति का साथ जोड़ने से मिलता है! मनस् का शक्ति
एकाग्रता से तीव्रतर कर के आत्मज्ञान (Intuition) शक्ति का साथ
जोड़ के मनुष्य अपना ज्ञानेंद्रियों को शक्तिवंत कर सकता है!
क्रियायोग साधक
अपना साधना का माध्यम से महानुभावों, योगियों, तपोधनों इत्यादियों को अपना मनोफलकम् का उपर
दर्शन कर सकता है!
दूरादृष्टि (Clairvoyance) आध्यात्मिक
प्रगति का हानिकर नहीं है! इस में साधक का चेतना स्थूल जगत से दैवसाम्राज्य में
कदम रखेगा! परंतु अवचेतनायुत साधक को नहीं अभिलषनीय दृश्य और दर्शनों भी दिखाईदेके
चिंताक्रांत करेगा! प्रथम में इन्द्रियों
और स्थूल जगत से साधक अपना चेतना और प्राणशक्ति को बदलना चाहिए! पश्चात
अवचेतनावस्था से अपना चेतना और प्राणशक्ति को उपसंहरण करना चाहिए! तत्द्वारा अवचेतनावस्था में दिखनेवाला
दृश्य और दर्शनों (Astral scenes & figures) दिखना बंद होगा!
स्थूल (Physical) जगत और सूक्ष्म
जगत (Astral
world) तक ही प्राणशक्ति का अवसर है! कारण (Causal world) जगत का
प्राणशक्ति का अवसर नहीं है! तब असली आध्यात्मिक जगत में साधक कदम रखेगा!
मेरा प्रियगुरु
श्री परमहंस योगानंद स्वामीजी कतिपय समय का पीछे ही स्वामी दीक्षा लिए हुए थे! वह 1915 संवत्सर था!
पहला प्रपंच युद्ध समय था! मेरा प्रियगुरु गर्पार रोड में अपना पिताश्री का गृह
में छोटा सा कमरा में ध्यान कर रहा था! गुरुदेव का चेतना एक युद्ध पानी जहाज (War Ship) चलानेवाला
कप्तान् (Captain) का अंदर बदल गया!
हठात् उस नौका (War
Ship) को एक फिरंगी का तूटा (Bullet) ध्वंस किया था! कप्तान् (Captain) का अंदर का स्वामीजी समेत कुछ नाविक (Sailors) भी समुद्र में गिरा पड़ा था! अति कष्ट से किनारा
(bank) को तैरते आया था!
कप्तान् (Captain) का अंदर का
स्वामीजी में एक तूटा (Bullet) प्रवेश किया था! स्वामीजी जमीन का उपर गिरा था! पूरा शरीर सुन्न (Dead) हो गया था! इतनी
में वह स्वप्न बिखर गया था! ‘परमात्मा मै जीवित हु या मृत हु’ स्वामीजी ने कहा था! ‘यह सब परमात्मा का स्वप्न है, जीवन और मरण
दोनों कांति किरणों का विन्यास ही है, पुत्र उठो, स्वप्नरहित तुम्हारा पिता को देखो’ ऐसा सुनाई दिया
था!
मनस् विश्लेषण:
जाग्रतावस्था में चेतना मन काम करने का
समय में अहंकार इन्द्रियों और झिल्लीयों को कामों के लिए आदेश करता है! उस समय में
स्मृति का भांडार जैसा अवचेतना मन काम
करेगा! हम निद्रावस्था में होने पर भी अवचेतना मन काम करता रहेगा! दिन में
जाग्रतावस्था में स्मृति का भांडार जैसा
अवचेतना मन काम करेगा! और रात में निद्रावस्था में स्वप्न अथवा शांति देने वाला
गहरा निद्रा जैसा अवचेतना मन काम करेगा! स्वप्नरहित शांतियुत निद्रा को उप
अधिचेतना (Semi
super-consciousness)
कहता है! मनुष्य सचेतनापूर्वक अपना स्वप्नरहित अवचेतना को निद्रा से उठने पर भी रख सकने से उस स्थिति को
अधिचेतना कहते है! शुद्धात्मा अपना अधिचेतना स्थिति को आत्मज्ञान (Intuitive) द्वारा व्यक्त करेगा! जाग्रत मन का पीछे
अवचेतना और अधिचेतना मन दोनों है! अहंकार
जो है वह आत्मा को छिपाके या ढकके इन्द्रियों का भौतिक आनंद के लिए ‘मै, मेरा, मेरा कुटुंब, मेरा कुल, मेरा जाती इत्यादि’ विषयों में अत्यंत
आसक्तियुत परिमतीसहित गलत चेतना ही है!
दर्शन (Visions):
अधिचेतना और
आत्मावबोध (Intuition) दोनों एक ही है! आत्मावबोध सीदा (Straight) आत्मा से आयेगा!
कल्पित और कलुषित नहीं है! यह तर्क (Logic) का अतीत है!
तर्क इन्द्रिय परिमित है! इन्द्रिय विषय, उपसंहरण किया हुआ इन्द्रियों और झिल्लीयों (Membranes) द्वारा विमुक्त
हुआ शक्ति शिर में प्रवेश करेगा! यह विमुक्त हुआ शक्ति और आत्मावबोध दोनों का
मिलाके उपयोग करके कई सत्य अनुभवों का दर्शान जैसा चित्रीकरण कर सकता है! जाग्रत
चेतन, अवचेतन और अधिचेतन
तीनों को मिलाके उपदर्शानों (Semi visions) को आत्म सृष्टि
कर सकेगा! एक दर्शन हमको पाक्षिक रूप
में जाग्रत चेतना या अवचेतना स्थितियों को ले जाएगा! इसी हेतु दर्शन पाक्षिक रूप में
सत्य भी हो सकता है, नहीं भी हो सकता है! मात्र केवल अधिचेतना में दिखाई देने वाला दर्शन ही परम
सत्य है! भ्रम सब साधारण
तोड़ में अवचेतना अनुभव ही है! वे सब हमको हमारा आध्यात्मिक प्रगति और सत्य दर्शन
का प्रतिबंधक है! दर्शन सचेतनापूर्वक सृष्टि है, वे निद्रा में होनेवाला नहीं है!
स्वपन:
जब जाग्रतावस्था का अहंकार अवचेतनावस्था
में प्रवेश करेगा तब विश्रांतियुत इन्द्रयों से शक्ति विमुक्त होगा! सुख या
दुःखानुभवी सिनेमा (cinema) भी अवचेतनावस्था यानी निद्रावस्था पायेगा! इस शक्ति और सिनेमा दोनों
मिलके स्वप्न बन जाएगा! जाग्रत व चेतनावस्था में हम कभी भयंकर सिनेमा देखते है! कुछ ऊहा भी करते है!
वे और अवचेतनावस्था का अनुभवों दोनों मिश्रित नया स्वप्न हम देखेगा! अधिचेतनावस्था
में आत्मचेतना अपना आत्मावाबोध द्वारा भविष्यत अथवा गत जन्मों का कुछ होनवाला
विषयों को स्वप्नों का रूप में अवचेतनावस्था में डाल देगा! वे हम को नेत्र खोलने व
बंद करने से भी, रात व दिन में भी, दिख सकता है! तीव्र ध्यान
दीर्घकाल करने योगी सृष्टि को परमात्मा का स्वप्न समझेगा और ऐसा ही देखेगा
भी! ये सब दर्शन जैसा ही होगा! स्वप्न चेतनापूर्वक सृष्टि नहीं किया है! ये स्वप्न
सब निद्रा में होगा! उप अधिचेतना व अधिचेतना में संभवित स्वप्नों निद्रा में हमने
सृष्टि किया हुआ है और वे सब साधारणतया सत्य होगा! अवचेतनावस्था में संभवित भ्रम (Hallucinations) के सारे स्वप्न सत्य से बहुत दूर है! निद्रा में चलना (Somnambulism) भ्रम का एक भाग है!
अचेतानापूर्वक (Unconscious trance) समाधि में शरीर बाहर से जड़ दिखाई देगा और
भौतिक रूप में अचेतनास्थिति में होगा! अंतर्गत रूप में उप अवचेतनावस्था व उप अधिचेतनावस्था में रहेगा! शांति, उप अवचेतनावस्था व
उप अधिचेतनावस्था का स्वप्नों का अनुभवों अंतर्गत रूप में होगा!
अचेतनापूर्वक (Unconscious State) स्थिति में शरीर बाहर से हिलेगा डुलेगा नहीं! अंतर्गत में मेधा हो सकता अथवा
नहीं भी हो सकता है! मरण का आखरी समय में स्थूलशरीर का बाहर और अंदर भी शरीर में
चेतना नहीं होगा!
स्वेच्छा (Liberty):
ज्ञानावतार
स्वामि श्री युक्तेस्वर सचमुच स्वेच्छाजीवी है! वह किसी से भी ढरता नहीं थे! पूरी में ज्ञानावतार का
आश्रम का अंदर एक दिन एक माजिस्ट्रेट (Magistrate) आया था! उस
माजिस्ट्रेट बहुत खडूस (Strict) और उसे खूसट कहा जाता था! आश्रम का अंदर आया
हुआ माजिस्ट्रेट को देख के स्वामि श्री युक्तेस्वर अपना आसन से उठा भी नहीं और उस
को आसन भी दिया नहीं था!
उस अगौरव को उस माजिस्ट्रेट ने अपमान समझा था! श्री युक्तेस्वरजी से आध्यात्मिक वादन किया
और हार गया था! उस का हेतु वह माजिस्ट्रेट और क्रोधित होकर ऊंची स्वर में ‘मै M.A. प्रथम श्रेणी में
उत्तीर्ण हुआ, पता है’ कहा था! ‘यह आश्रम तेरा
कचेरी (Court Room) नहीं है, इस से पता लगता है
तुम्हारा विद्यार्थी दशा इतना महत्वपूर्ण नहीं है, कुछ भी हो
विश्वविद्यालय डिग्री (University Degree) कभी भी वेदविद्या का सामान नहीं हो सकता
है, डिग्री विद्यार्थीयों जैसा 10, 100, 1000 संख्या में हर
एक साल योगियों नहीं
आयेगा!’ गभाराई बिना गंभीर स्वर में स्वामीजी ने कहा था! यह सुनाने के पश्चात उस माजिस्ट्रेट ‘स्वामी श्री
युक्तेस्वर’ इति संबोधित किया और कहा ‘आप दिव्य माजिस्ट्रेट है, मुझ को शिष्य का
रूप में अनुग्रह करो’ इति प्रार्थना किया था! और एक संदर्भ में एक ऑटो मोबैल इंजिनियर (Auto mobile
engineer) से ऑटो मोबैल गाडियों का बारे में चर्चा कर के उस को चकित कर दिया और
संभ्रमाश्चर्य में दुबादिया स्वामीजी ने! श्री युक्तेस्वर को ऐसा विषय कुछ भी नहीं
जो वह नहीं जानता हो!
आत्मा (Soul), आत्मावाबोध (Intuition):
स्थूल इंद्रियों का उपर आधार होने वाला
अहंकार अपना परिमित शक्ति से दूर दूर का विषयों का सुन नहीं सकता और देख नहीं सकता
है! केवल स्थूलजगत का परिमित हुआ स्थूल इंद्रियों द्वारा ग्रहण किया विषय ही मन या
मनोफलक में चित्रीकरण कर सकता है! अहंकार नाम का पर्दा निकालने का पश्चात
शुद्धात्मा का रूप में परिमळित होगा! आत्मावाबोध (Intuition) अथवा अधिचेतना तब
होनेवाला विषय को दर्शन जैसा नेत्र खोलने से भी या बंद करने से भी दिखा सकता है!
इंद्रियों से उपसंहरण किया हुआ प्राणशक्ति को उपयोग कर के विशेष सवप्न या
प्रापंचिक विषय को मानव चेतना का पर्दा का उपर कही भी, कभी भी सत्य दर्शन जैसा जाग्रतावस्था में और इस के अलावा स्वप्न जैसा
अधिचेतनावस्था में भी आत्मावाबोध शक्ति दिखा सकता है! भ्रमपूरक प्रापंचिक विषय को परमात्मा अपना माया
द्वारा मानव चेतन और जीवन का मिश्रं से चित्रीकरण करता है! परमात्म शक्ति (Cosmic energy) का साथ मिलके काम करनेवाला आत्मा का शुद्ध
आत्मावाबोधा अथवा अधिचेतना, इंद्रियों से उपसंहरण हो कर शिरस् में
एकाग्र हुआ प्राणशक्ति, अहंकाररहित शुद्धात्मा ही असली सच्ची
स्वप्न का हेतु है!
निद्रा में इंद्रियों से
उपसंहरण हो कर शिरस् में एकाग्र हुआ प्राणशक्ति, अंधा अहंकार, मानवचेतना, ये सब मिलके गलत संकेत सहित स्वप्न का
सृष्टि करेगा! इसी कारण
क्रियायोग साधना का अभ्यास से अहंकाररहित शुद्धचेतन और इंद्रियों से उपसंहरण हो कर शिरस् में
एकाग्र हुआ प्राणशक्ति ही सत्य स्वप्न का व्यक्तीकरण करा सकता है!
चेतना, अवचेतना और अधिचेतना इन सब अवस्थाओं में
शक्ति का पात्र प्रधान है! परमात्मा का आलोचन और शक्ति (Cosmic Energy) का मिलन का वजह से इस जगत व्यक्तीकरण हुआ! शक्ति को चेतना (Consciousness)
नियंत्रण कर सकने से मनुष्य परमात्मा जैसा जो भी व्यक्तीकरण करा सकता है! चेतना, इंद्रियों से मुक्त हुआ शक्ति और ऊहा (Idea) तीनों मिलके स्वप्न व्यक्तीकरण होगा! ऊहा (Idea) फिल्म (Film) जैसा है! इंद्रियों से मुक्त हुआ शक्ति विद्युत्
है! अहंकार प्रोजेक्टर (Projector) जैसा है! अवचेतना सिनेमा पर्दा (Cinema Screen) जैसा है! मुक्त हुआ विद्युत् शक्ति (Electricity) शिर (Brain) में निक्षिप्त होगा! शिर का कणों का उपर अनुभव
(Experience)
नाम का फिल्म (Film) स्पर्श करेगा! अहंकार नाम का प्रोजेक्टर (Projector) द्वारा अवचेतना
नाम का सिनेमा (Cinema Screen) पर्दा का उपर उस को देखेगा! मेडुल्ला
अब्लांगेटा (Medulla oblongata) प्रोजेक्टर (Projector) बूत (Booth) जैसा है! इसी कारण मनुष्य जब स्वप्नाते है तब
उस का इंद्रियों से मुक्त
हुआ विद्युत् शक्ति (Electricity) शिर (Brain) में निक्षिप्त
होगा! अहंकार नाम का प्रोजेक्टर उस शक्ति और अहंकारचेतना को शिर का कणों का उपर से
मनुष्य अपन से प्रवाहित करेगा! तब अनुभव नाम का फिल्म तैयार करेगा! अवचेतना नाम का
सिनेमा पर्दा का उपर मनुष्य उस को देखेगा!
निद्रा में चलना (Somnambulism), हिप्नासिस (Hypnosis):
निद्रा में चलना (Somnambulism) का अर्थ अवचेतनावस्था में मनुष्य खुद को नहीं जानते हुए चलेगा! यह
हानिकारक है! हिप्नासिस (Hypnosis) में अन्य मनुष्य आपका अवचेतना मन को आधीन कर के उस के द्वारा तुंहारा जाग्रत मन का नियंत्रण
करेगा! यह कुछ समय मात्र
ही रहेगा! परंतु तुम हिप्नाटिस्ट (hypnotist) आधीन में पूरा समय
होनेसे हिप्नटैजर (Hypnotizer) तुंहारा अवचेतना मन को वश करेगा! उस के
द्वारा जाग्रत मन का नियंत्रण करेगा! तब तुम तुंहारा मानसिक स्वेच्छा को खो
बैठेगा! तुम को उस का
आदेशानुसार चलने के लिए विबश करेगा और कर सकता है! इस प्रकार बार बार अवचेतन मन द्वारा तुंहारा जाग्रत मन को
नियंत्रण करना सही नहीं, कभी कभी हानिकर भी है! भारतदेश के योगियों मानसिक स्वेच्छा को खो बैठना युक्त नहीं
कहते है!
काला जादू (Black
magic) जैसा क्षुद्रविद्या हिप्नासिस (Hypnosis) में स्थूलशरीररहित (disembodied soul) आत्मा का माध्यम
से सूक्ष्मशारीर द्वारा जाग्रत यानी चेतन मन और अवचेतन मन दोनों को नियंत्रित कर
के उन दोनों का अपना अनुकूल उपयोग करेगा!
भूत (Tramp
Souls) या दुष्टात्मा हमेशा आकाश (Ether) में घूमते है! वे
आलसी मन व मनस्तत्व को खोजेगा! उसका माध्यम से खुद को व्यक्त (Express) करेगा! इसी कारण मन को खाली (Blank) रखना नहीं चाहिए!
खाली (Blank) रखना हानिकर है! मन को खाली (Blank) रखना नहीं, सचेतानापूर्वक इच्छाशक्ति और एकाग्रता का उपयोग कर के चंचल और व्यर्थ
अंतरहित विचार को नियंत्रित करने का प्रयत्न से परमात्मा का उपर एकाग्रता करना ही
ध्यान का अर्थ है!
हम् सा और ॐ
ध्यान पद्धति द्वारा अपना लक्ष्य को साधक सद्गुरु का सहायता से सुरक्षित रूप में
पहुँच सकता है! सही ध्यान पद्धति साधक को अपना अंदर स्थित परमात्मा का साथ
अनुसंधान करने के लिए दोहद करेगा इति हमारा ऋषि और मुनियों ने कहा है! उस को
मानसिक खालीपन (Mental blankness) नहीं कहेगा!
परमानंदमय अधिचेतनावस्था को मानसिक खालीपन (Mental
blankness) से नहीं लभ्य करा सकेगा! इस उत्तम स्थिति लभ्य करने के लिए साधक अपना
मनःशक्ति और प्राणशक्ति दोनों को मिलाके केवल परमात्मा का आलोचन का उपर ही मन और
दृष्टी रखना है! हमारा ऋषि मुनि और योगी लोग साधारण दूरश्रवण (Clairvoyance) से अतीत पद्धतियां का उपयोग करेगा!
तब श्री परमहंस
योगानंद श्रीरांपूर आश्रम में थे! एक दिन श्रीयुक्तेस्वर स्वामी कोलकता रैल्वे
स्टेषन (Railway Station) से श्रीरांपूर को
9 बजे का रैल् गाडी में आना था! परंतु स्टेषन (Station) को इस के पहले
पत्र में जैसे लिखा था वैसा नहीं आ रहा हु, 10
बजे का रैल् गाडी में आ रहा हु! पहचानने के लिए मेरा आगे एक रजत(चांदी) जग पकड़ के
एक लड़का चल रहा होगा, उस का पीछे मै जो
वस्त्र अभी पहना हु उसी वस्त्र में होंगे! उस 10 बजे गाडी के लिए
आना! ऐसा संदेश श्री योगानंदा को और उसका मित्र आश्रमवासी श्री दिजेन दोनों का
सूक्ष्मरूप में श्रीयुक्तेस्वर स्वामी ने दर्शन देके दिया था! परंतु
श्रीयुक्तेस्वर स्वामी का सूक्ष्मरूप (Astral figure) दिजेन देख नहीं सका, श्री परमहंस योगानंद देख सका था! श्री परमहंस
योगानंद कहने से भी इस को दिजेन विश्वास नहीं किया था! परंतु बाद में सच हुआ था! ‘मै दोनों को
टेलिपतिक (Telepathic) संदेश भेजा था!
श्री योगानंद संदेश ले सके, तुम नहीं ले सका’ श्रीयुक्तेस्वर स्वामी ऐसा कहा था!
दिव्य चिकित्सा (Divine Healing):
मनुष्य ही रोग को खरीद के लेकर लाया है!
परमात्मा का सृष्टि में रोग का व्यक्तीकरण नहीं है! इस जन्म का हमारा मानसिक अथवा
शारीरक विकलांगता का कारण मानसिक रूप में हम ने गत जन्म में बोया हुआ बीज ही कारण
है!
‘पूर्वजन्म कृतं पापं व्याधिरूपेण पीडितः’! पिछले जन्मों का अथवा इस जन्म का प्रकृति नियमों का उल्लंघन करने से और
मनुष्य का गलती से संक्रमित हुआ है! परमात्मा का संतान है हम! अपना संतान सुख और शांती से जीवन बिताना कर के
परमात्मा चाहता है! उस का विरुद्ध में हम परमात्मा का आरोग्य सिद्धांतों का उल्लंघन करके रोग और दुःख को हम मांग के ला रहे है!
50 वर्ष का आरोग्य
जीवन बिताके प्रस्तुत में कोई भी चिकित्सा का वश नहीं होनेवाला रोग का आधीन होकर
बाधा पीड़ित होने का कारण क्या है? शायद आरोग्यगर्व से परमात्मा को भूल के ‘मुझे रोग नहीं
आएगा’ ऐसा दृढविश्वास
ही कारण होगा! अगर एक व्यक्ती 50 वर्ष आरोग्य जीवन
बिताके अकस्मात ही तीन साल के लिए रोगग्रस्त हो जाता है तो वह व्यक्ती अपने रोग को
निवारणहीन मानकर निराश एवं निस्पृह हो जाता है! ऐसा मन को धृवीकरण होने पर उस शरीर
और मन दोनों उस भाव (Attitude) का अनुगुण प्रवर्तित करेगा!
प्रकृति के
नियमों के उल्लंघन की वजह से कुछ शारीरक रुग्मताओं आएंगी! मानसिक नियमों के उल्लंघन की वजह से भय, क्रोध, व्याकुलता, चिंता (Worry), लोभ, मोह, उत्तेजन, आत्मनिग्रहशक्ति
नहीं होना इत्यादि सब मानसिक रुग्मताओं आएंगी! परमात्मा को विस्मरण करना ही इन
सारे रुग्मताओं का प्राथमिक हेतु है! क्रियायोग साधना कीजिये परमात्मा
का समीप में आओ! तब यांत्रिक रूप
में (automatically) शारीरक मानसिक और आध्यात्मिक रुग्मताओं का
उपशमन लभ्य होगा!
आत्म परिशुद्ध है! उस का नियमावली बिलकुल
सही और दिव्य है! सही समतुल्यतायुक्त आत्म नियम निबन्धनों संपूर्णरूप में
उल्लंघनीय नहीं यानी अनुल्लंघनीय है! भौतिक प्रपंच में कुछ साध्य करना जैसा लक्ष्य
का साथ होनेवाला जीवित नियमावली चंचल और
समतुल्यतारहित होगा! आत्म नियम निबन्धनों जैसा संपूर्णरूप में अनुल्लंघनीय नहीं
होगा! समतुल्यता, समतुल्यताराहित्य इन दोनों का बीच का
युद्ध ही रुग्मातों का कारण है! पत्थर का दीवार को जाने में अथवा अंजाने में
ठकराने से हम को चोट लगेगा! पत्थर का दीवार स्वयं आके हमको नहीं ठकरायेगा और चोट
नहीं पहुंचाएगा! हमारा शांतिपूर्ण कार्यों शांतिपूर्ण परमात्मा से हम को अनुसंधान
करेगा! हमको सुख संतोष प्राप्ति करेगा!
सदा स्थूल, सूक्ष्म और आद्ध्यात्मिक रोगरहित होने के
लिए परमात्मा को हमारा शरीर नाम का देवालय
में प्रतिष्ठित करना चाहिए! केवल क्रियायोग ध्यान का माध्यमसे ही वह साध्य
है! हमारा शरीर को रोगरहित
करने के लिए शरीर का अंदर में
कुछ औषधियों (Herbs) और खनिजों (Minerals) को रखा और उन को शक्ति दिया परमात्मा ने ताकि हम आरोग्यवान रहे! इन
वैद्यी लोग जो औषधियों वैद्य सहायता के लिए देता है वो कुछ परिमिति तक ही काम
करेगा! विष्णुः प्रथमो भिषक् यानि परमात्मा ही प्रथम वैद्यी है! आधुनिक वैद्य
शास्त्र जितना भी विकासित (Develop) होने से भी शारीरक, मानसिक और आध्यात्मिक रुग्मताओं को पूर्णरूप में मिटा नहीं सकता है!
मनसा वाचा कर्मणा त्रिकरण शुद्धि से
परमात्मा को प्रार्थना करने से अवश्य करुणा दिखाएगा और रुग्मताओं को मिटायेगा! इस
के लिए क्रियायोग साधना अत्यंत आवश्यक है! आरोग्य का पर्यायवाची बल नहीं है! शरीर
में बल होने से भी आरोग्य नहीं हो सकता है! इसी कारण क्रियायोग साधना करो! इस का वजह से अनारोग्य का वश हुआ शरीर
भागों को प्राणशक्ति को सचेतानापूर्वक भेज सकेगा, उन को पुनः आरोग्यवंत कर सकेगा!
हमेशा पूरा मन से हॅसता हुआ आनंद से रहो!
आध्यात्मिक सहायता अन्यों को करने का अभिप्राय मजबूत रखिये! उस के द्वारा मानसिक
उल्लास से बलवर्धक हो जायेगा! नित्यनूतन परमात्मशक्ति मेडुलाआबलम्बगेटा (medulla oblongata) द्वारा ऐसा लोगों का शरीर में प्रवेश
करेगा! मनुष्य केवल भौतिक आहार का उपर आधार होकर जीवन नहीं बिताना चाहिए!
क्रियायोग साधना अभ्यास करना चाहिए! मेडुलाआबलम्बगेटा द्वाराशरीर में प्रवेश
करनेवाला परमात्मशक्ति का उपर आधार होकर जीवन बिताना सीखना चाहिए! शक्तिशाली
इच्छाशक्ति से हम को चारों ओरों में घेरा हुआ परमात्मशक्ति का माध्यम से शरीर का
अंदर खींचना चाहिए! मनुष्य अपना शक्तिशाली इच्छाशक्ति से दृढ़ निश्चय से व्याधि, असफलता, अज्ञान इत्यादि को
भगा सकता है!
व्याधि (Disease):
शरीर, मन और आत्मा ये तीनों तीन किटिकी है! इन
के द्वारा परमात्मा का परिपूर्ण प्रकाश (Perfect light of God) आरोग्य (Health), आनंद (Faculty) और ज्ञान (Wisdom) जैसा तीन प्रकार का किरणे (Rays) का रूप में मनुष्य में प्रवेश करेगा!
आरोग्य मानसिक संतुलित और आत्म ज्ञान ये सब मनुष्य को लभ्य करा देगा! इसी कारण मनुष्य परमात्मा का आकृति में
बनाया गया कहते है! इच्छाशक्ति मनुष्य को परमात्मा का देन है! उस इच्छाशक्ति का
उपयोग से गलत करके अंधकार में गिरना या उसी का सही उपयोग करके आरोग्य शक्ति, शांति इत्यादी
अद्भुत प्रकाश पाना, यह सब मनुष्य का हाथ में ही है!
मनुष्य कर्मसिद्धांत का आधीन में है!
सत्कर्म या दुष्कर्म और उन का फल जन्म राहित्य होने तक मनुष्य का साथ ही रहेगा!
इसी हेतु शरीर, मन और आत्मा ये तीनों किटिकी को परमात्मा का प्रकाश अंदर प्रवेश करने के
लिए हमेशा खोल के रखना है! इन किटिकी को खोला रखने को ही चिकित्सा (Healings) कहते है! ऐसा नहीं होने पर व्याधियों प्रवेश करेगा! अज्ञान में उन किटिकी को बंद रखने से
क्रियायोग साधना का माध्यम से तीव्र प्रयत्न कर के खोलना चाहिए! व्रण ज्वर इत्यादि
रोग शारीरक और भौतिक रुग्मतायें है! चिंता, भय, अनुमान इत्यादि रोग मानसिक संबंधित है!
आत्मा को भूल जाना आध्यात्मिक संबंधित रोग है!
आध्यात्मिक चिकित्सा:
हमारा अंदर स्थित हुआ आत्मा को भूल जाना
आध्यात्मिक रोग है! आत्मशांति नहीं होना, चंचलता, क्रमशिक्षणाराहित्यत असंतुलित, निर्दय, ध्यान में अरुचि, ध्यान व साधना को
स्थगित करना (Postponement) इत्यादि सब आध्यात्मिक रोग है! मित (Moderation) में रहना यानी साधन व्यायाम और कार्यो
में समतुल्यता (Balance) पालन करना इत्यादि
सब आध्यात्मिक चिकित्साए है! अधिक व्यायाम से कर्मों में मोह (attachment) वृद्धि
कराके क्रियायोग साधना नहीं करने देगा! भौतिक प्रपंच विषयों में व्यामोह बढ़ाएगा!
अधिक क्रियायोग साधना करके व्यायाम और कर्मों को पूरी तरफ छोड़ने से आलसीपन बढ़ेगा!
इसी हेतु समतुल्यता पालन आवश्यक है! सही आसन में बैठना, श्वास को आराम से
दीर्घ और लंबा रीति से अंदर लेना और वैसा ही आराम से दीर्घ और लंबा रीति से बाहर
छोड़ना आवश्यक है! आध्यात्मिक और शारीरक अभ्यास आवश्यक है! यानी मुद्रायें, आसनों, बाधों और परमपूज्य
श्री परमहंस योगानंद स्वामी से कहा,गया शारीरक शक्ति पूरक अभ्यासों (energisation exercises) और परिशुभ्रता पालन करना अत्यंत आवश्यक है! आत्मनिग्रहशक्ति में बढ़ावा
लाना, श्वास नियंत्रण, इंद्रियनिग्रह और आत्मावगाहन आवश्यक है! समाधिस्थिति प्राप्ति करना
अत्यंत आवश्यक है! ध्यान करके मूलाधार चक्र से बाहर जानेवाला प्राणशक्ति को
क्रियायोग साधना से पुनः मेरुदंड का माध्यम से सहस्रारचक्र द्वारा अनंताकाश में
भेजना आवश्यक है!
मानसिक चिकित्सा:
अज्ञानता सही सांगत्य नहीं होना, परिस्थितियों और
विषय परिज्ञान में सही अवगाहन नहीं होना, दुष्कर्म, सही निर्णय सही समय में नहीं लेना, सही स्वभाव नहीं
होना, इत्यादि का हेतु मानसिक रोग संभवित होगा! उस का वजह से आशाओं का वश होना, भय, अनुमान, लोभ, असूया, द्वेष, गपशाप में रूचि, परस्पर दूषण, संभाषण में कठिनता, ज्ञापकशक्ति नहीं
होना या खो बैठना, अविश्वास, शारीरक और मानसिक आलसीपन, मूर्खतापूर्वक किसी एक पक्ष लोगों का तरफ
वकालत लेना, निर्हेतुक वादन करना, अपने आप को विशलेषण नहीं करना और दुःख
इत्यादि का संभवित होगा! इन का निवारण के लिए एकाग्रता, आत्मनिग्रह, सज्जन सांगत्य, इच्छाशक्ति, दुष्ट स्वभावों को
अपना संकल्प शक्ति द्वारा उतारना, अपने आप को निष्कर्ष रीति से विमर्शन करना
इत्यादि मानसिक चिकित्साए अवसर है!
सदगुरुदेव श्री परमहंस
योगानंद का द्वारा कहा गया शक्तिपूरक अभ्यासों (Exercises) सुबा श्याम
श्रद्धा पूर्वक हर दिन करने से मानसिक और शारीरक व्याधियों अधिक तरफ उपशमन होगा!
इस का निदर्शन मै हु! मै काम में जितना व्यस्त होने से भी, शरीर जितना भी साथ
न दे, मै इस अभ्यासों को हर दिन करता हु! उस से मुझे बहुत लाभ हुआ!
शारीरक चिकित्सा:
शारीरक व्याधियां बहुत है! प्राणशक्ति सही
तरीका से नहीं मिलना या बलहीन होना ही इन का कारण है! आत्मनिग्र नहीं होना, वीर्य यानी
शुक्लनष्ट करना, शारीरक व्यायाम नहीं करना, मितभोजन नहीं करना, आरोग्यकर भोजन नहीं
करना, मानशिक शांति नहीं होना, सही साधना पद्धतियों का अनुसरण नहीं करना, इत्यादि शारीरक
रोगों का कारण है! आत्मनिग्रहशक्ति से विषयाशक्ति को त्यग के परमात्मशक्ति को लेने
का अभ्यास करना सीखने से शारीरक व्याधियां उपशमन हो जायेगा!
प्राणशक्ति को अधिकतर मात्रा में लीजीये! उस को रोगभूयिष्ट भाग का उपर एकाग्रता से भेज कर उस भाग को पुनः
आरोग्यवंत करा सकते हो!
व्यायाम:
यांत्रिक साधनों (Instruments—Dumbbells) का उपयोग करके व्यायाम करने से उस व्यक्ति
का चेतना उस व्यायाम का वजह से मिलने का लाभ का बदल में उस व्यायाम साधनों का उपर ही लगा रहेगा! मांसपेशियां
(Muscles) का उपर चेतना पीछे जाएगा! जब ये व्यायाम समाप्त हो जायेगा, काफी चाय कब पीएगा, ऐसा मन को लगेगा! मांसपेशियां का (Muscular Exercise) व्यायाम करने व्यक्ती का चेतना ज्यादातर
उस व्यायाम का वजह से लभ्य होने वाली लाभ का बदल में मांसपेशियां का संकोच व्यकोच देख के आनंदित होने पर ही
अधिकतर होगा! शक्ति पीछे चला
जाएगा! मानसिक व्यायाम (Mental exercise)
में थोड़ा कुछ
प्राणशक्ति को मुख्य में इच्छाशक्ति और ऊहा (Imagination) दोनों जोडके झिल्ली (Membrane) अथवा शरीर भागों का अंदर भेज सकता है!
व्याधिका वजह से जो लोग खटिया (Cot) का परिमित होकर कष्ट भुगतनेवाली लोग, अंग दुर्बलता लोग, अपना एकाग्रता को वृद्धि करने का इच्छुकों, ये सब मानसिक व्यायाम चिक्त्साओं का अभ्यास करना चाहिए! इस के लिए श्री परमहंस योगानंद से कहा
गया व्यायामों को (Energisation Exercises) श्रद्धापूर्वक
सुबह शाम हर रोज करना चाहिए! इस में हर एक अंग का उपर तनाव (Tense) डालना और ढीला
करना दोनों करना चाहिए! शरीर में जिस भाग अनारोग्य हुआ उस का उपर ध्यान रख के
परमात्मा का शक्ति को उधर जाने को निर्देशित करना चाहिए! याद रखना, व्याधि हमको कष्ट
देके दुखी कर देगा! परमात्मा को छोड़ कर कौन हम को पुनः आरोग्यवान करा सकता है? धन नष्ट होने से
पुनः कमा सकते हो, आरोग्य नष्ट
होने से हमारा सुख अधिकतर खोया हुआ है! परमात्मा का अनुसंधान होना ही जीवित लक्ष्य
है! परंतु यह लक्ष्य नहीं पाने से सब कुछ खो बैठने का सामान है! पारिशुद्धता और
आरोग्य सिद्धांत इन को अतिक्रमण करना ही व्याधियों का मुख्य कारण है!
तनाव (Nervousness):
स्नायुओं द्वारा स्पंदन करने वाला चंचल मन
तनाव का कारण है! यह बाहर से साधारण दिखने से भी वास्तव में यह बहु क्लिष्ट
और हानिकर भी है! तुम तनाव में रहने से कोई भी काम धैर्य और मनःसंतृप्ति से नहीं
कर सकते हो! ध्यान में गहराई
में नहीं जा सकते हो! वास्तव में शरीर में सब काम का अवरोध का इस स्नायुओं का बलहीनता ही कारण है! यह स्थूल, सूक्ष्म और
आध्यात्मिक तीनों रंगों को हानी पहुंचाएगा! शरीर नाम का कारखाना में मस्तिष्क (Brain) मुख्य डैनमो (Dynamo) है! वह अति क्लिष्ट स्नायुओं (Nerves) का माध्यम से विविध अंगों को (Body parts/Organs) शक्ति भेजेगा! इन नसों यंत्र (machines) जैसा देखने का सूंघने का स्पर्श का रूचि का सुनने का शक्ति गमना शक्ति इन
सारे शक्तियों का और मेटबालिजम (Metabolism)
रक्तप्रसरण, श्वासक्रिया और विचारों इत्यादियो का तयारी का सहायता करेगा! किसी एक
कारखाना में विद्युत् तारें टूट के खराब होने से उस का स्थान में पुनः नया तारें
डाल सकता परंतु मनुष्य का नस खराब होने से उस का स्थान में पुनः नया नस नहीं डाल
सकता है! इसीलिए मनुष्य अपना शरीर नाम का देवालय को अत्यंत पवित्र और सुरक्षित
रखना चाहिए! उत्तम स्थूल, सूक्ष्म और आध्यात्मिक वास्तुवों को अपना
शरीर नाम का कारखाना से तैयार करना चाहिए!
कार्य सफलता का बारे में दीर्घकाल आलोचना
करना, इंद्रियों को अवसर से अधिक उपयोग करना, स्वच्छ आरोग्य नियमो का पालन नहीं करके जैसा मर्ज़ी खाना, अमित कामवासना और कामकेळि, दीर्घ काल भय, द्वेष, असंत्रुप्ती, चिंता, सही शारीरक व्यायाम नहीं करना, हवा, पानी और रोशनी नहीं होनेवाली प्रदेश में
रहना, शारीरक और मानसिक शुद्धि नहीं होना, इत्यादि तनाव (nervousness) का कारण है!
दूसरों का दोष ढूँढने का स्वभाव और अनावसर वादोपवाद करनेवालों से सहवास नहीं करना
चाहिए! याद रखना—भय, चिंता, क्रोध इन सब हम को
सर्वनाश करेगा! निरंतर भय हृदय संबंधित व्याधियों का हेतु बनेगा! चिंता और क्रोध
इन दोनों मस्तिष्क और अन्य शरीर भागों को खराब करेगा! मनुष्य का निपुणता का आटंक
बनेगा! भय और चिंता दोनों बड़ा बहन और छोटा बहन जैसा है! समस्या को निदानात्मक आलोचन करने से
सामरस्यक रीति में सफलीकृत होगा! दीर्घकालिक मानसिक व शारीरक उद्रेकपूरित समस्यों
सेंसरी (Sensory-Motor
Mechanism consisting of the Sensory or afferent nerves and The Motor or
efficient nerves) मोटार मेकानिजं और
इंद्रियों द्वारा लयबद्धक रीति में आनेवाली और जानेवाली प्राणशक्ति प्रवाह को
रुखावट डालेगा! एक 230 वोल्ट (Volts) बल्ब में 2000 वोल्ट (Volts) विद्युत् भेजने से वह फट जाएगा! नसों बहुत
सुन्नित नल जैसा है! उस को और आवेश पूरित करने से वे अपना लयबद्धता खो बैठेगा और
विपरीत रीति में व्यवहार करेगा!
भौतिक रंग या क्षेत्र का उपर अधिकतर
आधारित होना युक्त नहीं क्योंकि मानसिक रूप में वह हानिकर होगा! वह शरीर का
रसायनों को लयविरुद्ध (Imbalance) करेगा! प्राणशक्ति और वीर्य (शुक्ल) को
बलहीन करेगा! जभी भी मनुष्य क्रोधापूरित होगा तब वह विष को शरीर का अंदर स्रावित
करेगा! वह नसों को जलाएगा!
नाटक खेलते समय या प्रवचन देते समय बहुत
लोग भय से हडबडाते है! जो बोलना है उस को बोल नहीं पायेगा! प्रथम में अल्प, बाद में अधिक
लोगों का सामने बोलने का अभ्यास करना चाहिए! आखरी में रंगमंच (Stage) का उपर प्रदर्शन देने का समय आसन्न होने पर सभा भवन (Hall) खाली (empty) ऐसा समझना चाहिए!
ये सब से पहले कुछ समय ध्यान करके परमात्मा का सहायता का अभ्यर्थन करना चाहिए!
मरणभय:
केवल अज्ञानता का कारण मनुष्य को मरण का
भय उत्पन्न होता है! वह भय हमारा सत्कार्य विचारों और सत् उद्देश्यों को हानि
पहुँचाता है! परमात्मा हम को दिया हुआ एक नूतन अवकाश मरण है! इस जन्म में अनुभव किया निराशापूरित जीवन का एक रुकावट जैसा
है! आज का दिन निर्भय होकर आनंद से केवल परमात्मा का आलोचना से ही दिन का भरो और
जीवो! भविष्यत अपने आप (automatically) सही रहेगा! वैसा भी मरण सहज है! चाहो
नहीं चाहो संभवित होगा! अधिक से अधिक लोगों को शांति और सौभाग्य से जीने का
नित्ययुक्त मार्ग पता है परंतु उन का प्रज्ञा को उस मार्ग का ग्रहण करने में
उत्साह नहीं दिखाता और आगे नहीं बदता है! बहुत मंदा रहता है! क्रियायोग साधना
सीखते है! परंतु आलसीपन से हर रोज नियमानुसार साधना नहीं करते है! कदलीफल को देखते
बैठने से क्या लाभ, उस का मिठापन नहीं पता लगेगा, उस को स्वाद का लाभ उठावो, आनंदित रहो!
क्रियायोग साधना करो, आनंदित रहो!
जीवितभागस्वामी को चुनना:
साधारण तोड़ में जीवितभागस्वामी/स्वामिनी
को चुनने के समय ये विषयों को परिगण में आता है! वे—1) भौतिक आकर्षण, 2) सौन्दर्य, 3) दोनों मन का परस्पर मिलन, 4) वृत्, 5) नीति, 6) स्वभाव, 7) भाव, 8)
भौतिक लोभ, 9) सांघिक स्थिति, और 10)
आत्मा का पुकार ये सब मुख्य है!
कुछ लोग मानसिक
सामीप्यता का हेतु भार्या भर्ता बन जाते है! मानसिक सामीप्यता का कमजोर होके
परस्पर आत्मा लयबद्धता नहीं होने पर उन दोनों का मध्य में विबेधों आयेगा! ‘मै मेरा भार्या
को अच्छा समझता हु क्योंकि उस का भावों मेरा भावों का अनुकूल होता है! मेरा
क्रिकेट (Cricket) को मेरा संगीत को
वह पसंद करती है’ ऐसा कुछ लोग
संभाषण करते है! ‘मै भी डाक्टर हु
वह भी डाक्टर है, मै भी व्यापारी
हु वह भी व्यापारी है, हम दोनों का
वृत्ती एकी है’ इसी कारण हम
दोनों परस्पर इष्ट होकर विवाह किया है! बाह्य सौंदर्य विवाह व्यवस्था में मुख्य
पात्र निभाता है! परंतु मानसिक सौंदर्य बाह्य सौंदर्य से अतिमुख्य है! शुद्धता, प्रिय संभाषण, शुद्धज्ञान, नित्य निरंतर
शुद्ध प्रेम ये सब आत्मा का लक्षण है! ऐसा लक्षणवाला योग अयस्कांत जैसा परस्पर
आकर्षित होंगे! भार्याभर्ता बनेंगे!
कुछ लोग पैसावाला
विधवा को,
कुछ लोग बहु गरीब को, उन का अवसर का मुताबिक़ विवाह करते है! ऐसा लालची
विवाह्बंधन ज्यादातर विफल होता है! ‘मेरा पैसा के वास्ते मुञको विवाह किया’ ऐसा परस्पर निंदा
करते है! बहु गरीब कन्या को विवाह किया कुछ लोग ‘तुम इतना पैसा
खर्च मत करो, तुम गरीबी कुटुंब से आया है, तुम को पैसा का उपयोगिता (value) पता नहीं है’ भार्या से ऐसा
कलह करते है और मनःशांति खो बैठते है! सांघिकस्थिति (Social
Status) के लिए कुछ लोग अपने से कम पढा लिखा होने पर भी राजकीय में उन्नत स्थिति
यानी मंत्री इत्यादि पदवी पाया लोगों को विवाह करते है! परंतु उस परिस्थियों को
अनुकूल बनाने में असफल होके असंतृप्ती से जीवन बिताते है! विपरीत
तात्कालिक भावोद्रेकों (Emotions) को वश होकर नाम
के लिए अखबार में नाम आने के लिए हवाई जहाजों में, हवाई जहाजों से
कूद के पाराचूट (parachoot) में, समुद्र का अंदर सबमरीन (submarine) में, सिनेमा (Cinema) देख के परिपूर्ण
अवगाहन नहीं हुआ यानी अवगाहनाराहित्य पाठशाला जानेवाला कुछ विद्यार्थी लोग विवाह
करते है! अपना विवाह्जीवन में बहुत कुछ भयंकर समस्याओं अनुभव करते है! आखरी में
अलग हो जाते है!
इन्द्रिय व्यामोह
को वश होके विवाह करना ही इन सब का कारण है! तीव्र क्रियायोग साधना कर के आत्मानंद
के लिए प्रयत्न करने वाले क्रियायोगी को भी उस का अवचेतना का आदते इन्द्रिय व्यामोह
को अकस्मात् वश में होने देगा! ‘अब मिलनेवाला क्षनिक आनंद को खोके कभी आगे मिलनेवाला अनूह्य परमानंद के लिए
तीव्र अभिलाषी होना व्यर्थ है, आत्मनिग्रह नहीं होना, निद्रा आलसीपन, तंद्रा, साधना नहीं करना
इत्यादि दुष्ट शक्तियों मुझे घेरने दो कोई बात नहीं’ ऐसा साधारण मनुष्य सोचता है! श्री भगवद्गीता में
अर्जुन भी इसी स्थिती को अनुभव किया है!
केवल बाह्य
सौंदर्य और बाह्य आकर्षण को देख के भ्रम में गिरना नहीं चाहिए! मानसिक सौंदर्य
बाह्य सौंदर्य से महत्वपूर्ण है! नीति सच्चरित्र आध्यात्मिक चिंतन जिस में है उन
जैसा लोगों को विवाह करना युक्त है! वैसा भार्याभार्ता असली मित्र जैसा परस्पर
तालमेल आया अनुकूलता से जीवन बिता सकेगा! दोनों मिया बीबी डाक्टर या इंजनीर जैसा
एक सामान वृत्ती होने पर विवाह करते है! अपना अपना वृत्ती में एक अच्छा नाम कमाते
है, दूसरा नहीं
कमायेगा, तब पती या पत्नी
को एक दूसरे की जलन न हो, इस चीज को ध्यान रखना चाहिये और परस्पर एक दूसरे को विमर्शन नहीं करना
चाहिये! दोनों अपना अपना बलहीनताओं को प्रेम और आप्यायता से चर्चा करके उन
बलहीनताओं को सही करना चाहिये! तब परस्पर अन्योयता बढेगा!
जीवितांत वे
संयोग से रहेगा! विवाह का पूर्व क्रियायोग साधना द्वारा सही जोड़ी देने के लिए
परमात्मा का प्रात्र्थना करना चाहिये! विवाह का पश्चात क्रियायोग साधना द्वारा हर
एक विषय में सही निर्णय लेने के लिए और सही दिशा निर्देश देने के लिए परमात्मा को
निरंतर हर समय प्रात्र्थना करना चाहिये! सही विवाहबंधन के लिए आत्माओं का मिलन अति
मुख्य है!
आध्यात्मिक
प्रगति का साध्य के लिए दिन रात चंचल्रहित मन, प्रयत्न, और क्रमशिक्षण से समय मिलने पर मिलके साधना करना, नहीं तो अलग अलग
क्रियायोग साधना करना चाहिये! उस का वजह से छोटा मोटा अभिप्रयाबेध जो हो वो भी
निकलजायेगा और जीवन साफल्यता पायेगा! परस्पर चर्चा करना और उन का सांघिक सामाजिक, आर्थिक
परिस्थितियों को सही डंग में रखना चाहिये!
पति पत्नी दोनों
परस्पर आकर्षित होने के लिए अलंकरण करना चाहिये! वास्तव रूप में एक विवाह जीवन
साफल्यता के लिए मुख्या पात्र निभाने वाली स्त्री ही है! कही उतार-चढ़ावों (ups and downs) को सामना करके, प्रेम और
सहनशीलता से पती का सुख अपना सुख समझ के परिस्थितियों को अनुकूल बनाने वाली स्त्री
इस जगत में पुरुष को दिया हुआ भगवान का देन है! ऐसी स्त्री सत्य में धन्य जीवी है!
इतना ही नहीं, वैसा स्त्री इन
लक्षणों को अपना आध्यात्मिक बढ़ावा के लिए भी उपयोग करेगा! वह स्वयं उत्थित होंगी
और अन्यों को भी मार्गदर्शन बनेगी और महत्तर पात्र निभाएगी!
आत्माओं का मिलन
हुआ विवाह जीवन में अपरिमित परस्पर दिव्य
गहरा प्रेम अद्भुत रीती में आदर्श रूप में अभिवृद्धि होगा! कामात्रुत
पशुप्राय प्रेम का बदल में आत्माओं का बीच में प्रेम उदय और उद्भव होना चाहिये! ‘हे परमात्मा, जीवित भागस्वामि
या भागस्वामिनी को तुंहारा निःसंदेह आत्माओं का एकता सिद्धांत द्वारा मुझे लभ्य
करो’ ऐसा कम से कम छे
मॉस ध्यान में प्रार्थना करना चाहिये! घर ही भूतल स्वर्ग है, इसी कारण सही जीवित
भागस्वामि या भागस्वामिनी लभ्य नहीं हुआ संसार नरकतुल्य है!
दिव्यप्रेमरहित
विवाह संबंध को कामात्रुता, मेधा, अइश्वर्य, संस्कृति, स्त्री पुरुषों
का बीच में होनेवाली आकर्षण, सुंदरता इत्यादि सुख शांति नहीं दे सकता है! इसी कारण क्रियायोग साधना से
पती पत्नी उस दिव्यप्रेम को वृद्धि करना चाहिये!
आत्मा परमात्मा
का एकता ही असली विवाह है! इसी कारण आदिशंकराचार्य, श्री परमहंस योगानंदा, श्री विवेकानंद इत्यादि महानुभावों लौकिक विवाह
को त्याग के परमात्मा को ही अपना असली पति जैसा चुन लिया है! जगत सब इस प्रकृति का भाग है! स्त्री पुरष सब इस
प्रकृति का भाग है! इसी कारण परमात्मा ही असली पुरुष, बाकी सब प्रकृति स्त्री है! इसी कारण वे स्त्री
जैसा अपना केश को बढाके रखते है! विवाहयोग्य स्त्री पुरुष सब अमलिन प्रेम, शुद्धता, स्वच्छता, पवित्रता इन दिव्यलक्षणों से प्रकाशित होना
चाहिए! विवाह योग्य स्त्री कुत्ता जैसा विश्वास, हाथी जैसा बुद्धी, कबूतर जैसा स्वच्छता आप्यायता और घर प्रेमी, नैटिंगेल (Nightingale) जैसा मधुर स्वर, इन लक्षण होना चाहिये! विवाह योग्य
पुरुष बल और दृढ़ होना चाहिये! सिंह जैसा धैर्यता, कुत्ता जैसा विश्वास, कबूतर जैसा स्वच्छता आप्यायता और घर प्रेमी, हाथी जैसा बुद्धी, इन लक्षण होना
चाहिये! साधारण तोड़ में भारत में स्त्री पुरुष ऐसा चाहेंगे करके लोग कहते है!
भौतिक वांछायें, ध्यान:
जीवन में संस्कार प्रधानपात्र
पोषण करता है! इसी कारण कुछ लोग ध्यान करने का संकल्प भी नहीं करेगा! कुछ लोग
ध्यान करने का संकल्प होने से भी नहीं कर
सकता है! जिन लोगों को लौकिक विषयासक्ति है वे कभी कभी अधिक प्रयत्न करने से भी
विफल हो जाते है! लौकिक विषयासक्ति होने से भी या लौकिक व्यक्तियों का सहवास में
होने से भी कुछ लोग अद्भुत अलौकिक आध्यात्मिक मार्ग में ठिक जाते है! इस का कारण
संस्कार ही है!
संस्कार हमारा
अंदर का प्राथमिक इच्छाशक्ति का और प्रयत्नों का सुरक्षित रखनेवाला यंत्र जैसा है!
शारीरक चेतना से लौकिक विषयासक्ति और वांछायें बढ़ता है!
पिछले और
प्रस्तुत जन्मों का खराब आदतें और शारीरक मोहित अहंकार ही ध्यान नहीं करने देने का
कारण है! परमात्मा का चेतना से लौकिक इंद्रिय विषय वांछायें और अहंकार का अधिगमन
करना चाहिये! जड़ से उखाड़ फेकना चाहिये! किसी का बंधन में नहीं पड़ना बल्कि त्यागना
चाहिये! वैसा कर के सांसारिक बाध्यताओं का विस्मरण नहीं करना चाहिये!
इस जन्म में तुम
कुछ खोने से चिंता मत करना, परमात्मा का कृपा से वह पुनः मिल जाएगा! पिछले जन्मों में तुम ने किसी को
धोका दिया होगा इसी हेतु कर्मसिद्धांत का मुताबिक़ इस जन्म में वह खो बैठा होगा! यह
मेरा कह के परिमित नहीं होना, सब तुम ही है, सब तुंहारा नहीं
है! संतान मित्रों बन्धुओं माता पिता गुजर जाने पर व्याकुल मत होना! संसार पानी
जैसा है! पानी में नाव होना है परंतु नाव
में पानी नहीं होना चाहिए! मनुष्य नाव जैसा है! तुम कही जन्मों से लौकिक में था!
मनुष्य लौकिक, मानसिक और
आध्यात्मिक तोड़ में विकास करना चाहिये! तुम देव साम्राज्य में प्रवेश करो, तब सब कुछ तुमको
दिया जाएगा!
क्रियायोगध्यान:
क्रियायोगध्यान
का आदत हुआ साधक् अधिकाधिक ध्यान करके परमात्मा का साथ अनुसंधान होने को अभिलाषी
होता है! साधना में अहंकार चेतना बहुधा अपना अस्तित्व को बहिर्गत करता रहता है!
शब्द का साथ शीग्र गति में श्वासक्रिया होना इस का चिह्न है! श्रीभगवद्गीता में ‘शंखौ दध्मौ पृथक्
पृथक्’ इसीलिये कहा है! शंख
अहंकार का प्रतीक है! साधक को अहंकार व्याकुल करा के निश्चल स्थिति में
भी अद्भुत परमात्मा चेतना को उस से दूर कर देता है! शरीर का मेरुदंड और मस्तिष्क
का बंद पडा हुआ द्वारों को खोल के शक्तिप्रदान करने को क्रियायोगध्यान सहायता करता
है! आकाश में अंतरिक्ष में नित्ययुक्त परमात्मा शक्ति को विद्युत जैसा और शक्ति
जैसा हमारे में लानेवाले है यह क्रियायोग साधन! दिव्यशक्ति को शरीर में लानेवाले
स्विच् (Switch) है यह क्रियायोग
साधन! साधना का पश्चात
भी साधक अपना साधना में उत्पन्न हुआ शक्ति और एकाग्रता को हमेशा सुरक्षा रखना
चाहिये! गपशप, बातो में व्यर्थ
विचारों और चंचलता से उस शक्ति और एकाग्रता खो नहीं देना चाहिये!
छठा इन्द्रिय (Intuition):
‘प्रत्यक्ष प्रमाण
जो है वह भौतिक इन्द्रियों का आधारित है! अनुमान प्रमाण जो
है वह हमारा ऊहा (Idea) आधारित है! परंतु आगम परमात्मा से सीधे (Direct) आयेगा इसी कारण
विस्वसनीय है ऐसा कहते है महर्षि पतंजलि! आगम का अर्थ शास्त्र कहना सामंजस नहीं है! ‘वेदानि
अपौरुषेयाणि’ यानी वेद किसी से
लिखा हुआ नहीं है! वेद ध्यान में साधक को सीधी परमात्मा से मिला हुआ प्रसाद है!
ध्यान करके इन शास्त्र विषयों कहा तक सत्य है अथवा सत्य है कि नहीं है परीक्षण
करके जानना चाहिये! एक छली एवं धोकेबाज भी अपना बुद्धिमता (Intelligence) से, तार्किक शक्ति
से एक किताब लिखके ‘यह परमात्मा से
सीधी आया हुआ है’ ऐसा बोलके ठग
सकता है! ध्यान करके उस का शोध करने से, परीक्षण करने से उस ग्रंथ का विषयों कहा तक
सत्य है पता लगेगा!
आगम (Intuition) तर्क का अतीत और इंद्रियातीत है! आत्मावबोध (Intuition) जो है वह ॐ
ध्यान द्वारा मिलेगा ऐसा कहते है पतंजलि महर्षि! ॐ ध्यान मन को अंतर्मुख करेगा!
निर्विच्छि्न्न् (निरंतर- Continuous), तैलधारमिव (तेल का धारा जैसा-like the smooth-flowing oil), दीर्घघण्टानिनादवत्
(दीर्घघण्टा का नाद अथवा शब्द जैसा), अवाच्यं (उच्चारण का पार), प्रणवं (नित्यनूतन
उत्साह देनेवाली), यस्तं वेद स वेदवित् (जो सुन सकता वह ही असली ज्ञानी है) ऐसा उपनिषदों
में ॐकार को वर्णन किया है!
हर एक क्रियाशीलक
अणु से इस प्रणवनादं निरंतर उत्पन्न होता है! क्रियाशीलकता जिस प्रदेश में है उस प्रदेश
अवश्य ॐकार का साथ होगा! हर एक नाम में शब्द चेतना अथवा बुद्धिमता (intelligence) और शक्ति होता
है! उदाहरण के लिए ‘श्रीराम’ ऐसा उच्चारण करने के लिए शब्द चेतना अथवा बुद्धिमता (intelligence) और शक्ति होना
अत्यंत आवश्यक है! अपरिमित ऊर्ध्व और
निम्न स्पंदनायुत ॐकार सामान्य कर्ण को सुनाई नहीं देगा! साधारण मुह से
उच्चारण नाहीए कर सकता है! क्रियायोग साधना का माध्यम से तीव्र एकाग्रता से साधक
अपना स्थूलशरीर का बाह्यशब्दों को विसर्जन करता है! पश्चात स्थूलशरीर का रक्त
प्रसारण हृदय का लब-डब शब्द इत्यादी को विसर्जन करेगा! पश्चात स्थूलशरीर का
मूलाधार (भ्रमर), स्वाधिष्ठान
(बंसिरिवाद), मणिपुर
(वीणानाद), अनाहात (मंदिर
का घंटानाद) और विशुद्ध (नदी प्रवाह शब्द) चक्रों का शब्दों को विसर्जन करता है!
कूटस्थ में ॐकारनाद सुनेगा! इस नादं का उपर एकाग्रता को और तीव्रतर करेगा!
नित्यनूतन आनंद, परमात्मचेतना, प्रेम, परमात्मा का
प्रकाश, परमात्मा का
शक्ति इन सब का स्वाद करेगा! ये सब परमात्मा का विविध परिमाणों ऐसा परिपूर्ण रीति
में ग्रहण करेगा! आत्मावाबोधा (Intuition) को आत्मविश्वास (Self confidence) और अधिक विश्वास का साथ तुलना (Compare) नही करना चाहिये!
कुछ विषय ऐसा बहुत बार हुआ इसीलिये फिर होगा इस को अधिक विश्वास या मूढ विश्वास
कहते है!
कुंडलिनी:
मेरुदंड का समीप
में स्थित मूलाधारचक्र द्वारा बाहर निकलने वाली प्राणशक्ति मार्ग (Passage) अथवा नाली को, कुंडलिनी कहते है! यह कुंडलिनी एक सर्प (शेषनाग) जैसा है! संभोग नसों की
तरफ इसका प्रवेश है! बाहर जानेवाली प्राणशक्ति को कुंडलिनी मार्ग द्वारा तात्कालिक
तरीका से हमारा मस्तिष्क में प्रवाह करने देने से कुंडलिनी जागृत नहीं होती है!
क्रियायोग साधना का माध्यम से क्रिया नाम का प्रक्रिया को सीखके मूलाधारचक्र को
जागृत करना चाहिये! उस का वजह से इस प्राणशक्ति को शास्वत रीति या तरीका से
मस्तिष्क में प्रवाहित करने को संभव बनेगा! परंतु इस क्रियायोग साधना एक पद्धती जैसा प्रतिदिन उदय और सायंत्र
नियमरूप से करना आवश्यक है अथवा पिछ्ले वाली परिस्थिती ही बन जायेगा! मूलाधारचक्र से कुण्डलिनी मार्ग द्वारा ही
प्राणशक्ति बाहर निकलते रहेगी! अप्रतिम मानसिक-भौतिक पद्धतियों द्वारा ही यानी क्रियायोग साधना
द्वारा कुण्डलिनी मार्ग में अस्तित्व हुआ मूलाधारचक्र को जागृत करना आवश्यक है! तब
ही साधक काम को नियंत्रित कर सकेगा! इस बिना दूसरा रास्ता ही नहीं है! दबाके रखा हुआ स्प्रिंग (Spring) का उपर से हाथ हटाने से चेहरे का उपर
लगेगा! वैसा ही दबाके रखा हुआ कामं
भी द्विगुणा हुआ बल से साधक को तकलीफ करेगा! आध्यात्मिक प्रगति साध्य का संकल्पित
किया साधकों प्रथम में कुंडलिनी प्राणशक्ति को जागृति करके मेडुल्लाअब्लांगेटा (Medullaoblangeta) द्वारा मस्तिष्क
को दिशा निर्देश (Direction) देना चाहिये! सम्भोग में पुरुष का कुंडलिनी प्राणशक्ति
स्त्री का कुंडलिनी प्राणशक्ति का साथ मिलेगा! उस का वजह से भौतिक रूप में वीर्य
नष्ट होगा! इतना ही नहीं, प्राणशक्ति जो सूक्ष्म है उस का भी नष्ट होगा!
कुंडलिनी सांप (शेषनाग):
सर्प अथवा शेषनाग
को कुंडलिनीशक्ति का चिह्न जैसा (Symbol) उपयोग करते है! शेषनाग
कुंडलिनीशक्ति का प्रतीक है! इस कुंडलिनीशक्ति का
सही उपयोग करना युक्त है अथवा सही नहीं है! चेतना और शक्ति दोनों को मेरुदंडम् का माध्यम से दिशानिर्देश (Direction) देके मेडुल्लाअब्लांगेटा द्वारा मस्तिष्क में भेजना चाहिए! उस का माध्यम से
अनंत यानी परमात्मा से संपर्क बनाना चाहिए! यह एक मानसिक भौतिक पद्धती है!
विद्युत् का एक चिह्न (Symbol) है! हमारा ऋषि मुनियों सर्प अथवा
शेषनाग को कुंडलिनीशक्ति का चिह्न जैसा (Symbol) उपयोग किया है!
सर्प का अंदर शक्ति और विष है! वैसा ही विद्युत् का भी शक्ति है! फण खोल के खडा हुआ सांप शक्ति
का पराकाष्ठा है! कुछ ऋषियों अपना जटाएं को शिर का उपर सर्प का फण जैसा बांद देता
है! शिवजी का शिर का उपर भी खडा हुआ सांप का फण को दिखाई देता है! परमात्मा का संपर्क का हेतु
परमानंद से भरपूर्ण इस का अर्थ है! साधक क्रियायोग साधना से अपना अपना नेत्र, नाक, जीब, चर्म और कर्ण इन ज्ञानेंद्रियों से
विद्युत् को उपसंहरण करेगा और मेरुदंडं में भेजेगा! उस विद्युत् को मेरुदंडं स्थित
इडा, पिंगळ, सूक्ष्मा नाड़ियों का मध्य सुषुम्ना नाड़ि द्वारा मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा चक्रों को
पार करा कर सहस्रार चक्र द्वारा अनंत में भेजेगा!
राजमार्ग (Gateway):
गुदास्थान का समीप में मेरुदंड में
मूलाधारचक्र का पास स्थित वृत्ताकार में रह रही कुण्डलिनी मार्ग या सुरंग (tunnel) को प्राणशक्ति मार्ग (Gateway of Life force) कहते है!
मेडुलाआबलम्बगेटा (Medulla
oblongata) का द्वारा विशुध्द, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान और मूलाधारचक्रों का माध्यमसे कुण्डलिनी
मार्ग से बाहर निकलने,वाला प्राणशक्ति को निद्राण कुण्डलिनी कहते है! आत्म का प्रदेश यानी
स्थान कूटस्थ है! मेडुलाआबलम्बगेटा द्वारा सूक्ष्म विद्युत् को स्थूलशरीर संबंधित
ज्ञानेंद्रियों और भौतिक स्थूल काम संभोग संबंधित व्यर्थ होनेवाला वीर्यशक्ति के लिए प्राणशक्ति प्रवाहित होना आवश्यक है! कुण्डलिनी मार्ग इस काम करने के लिए दोहद करेगा!
ऐसा निद्राणस्थित कुण्डलिनी अहंकार को जगायेगा, इंद्रियों का उपर ध्यान विषयासक्ति और संभोगवांछ को बढायेगा! भौतिक प्रपंच से संबंध मार्ग
बनाएगा! मनुष्य दिव्यात्मस्वरूप ऐसा सत्य भावना को पर्दा डाल देगा! हर रोज
नियमानुसार क्रियायोग साधना द्वारा इस निद्राणस्थिति कुण्डलिनी प्राणशक्ति को
जागृत करना चाहिये! मेरुदंड स्थित चक्रों, मेडुलाआबलम्बगेटा केंद्र, कूटस्थ द्वारा
मस्तिष्क में भेजते रहना और भेजना चाहिये! मनुष्य स्वयं ही परमात्मा स्वरुप है ऐसा
परिपूर्णस्थिति को समझने का स्थिति साध्य करना चाहिये! वह ही असली जीवन साफल्य है!
अचेतनास्थिति में प्राणशक्ति मेरुदंड से बाहर निकलेगा! इस को मनुष्य नहीं जानेगा!
क्रियायोग साधक का प्राणशक्ति सचेतनास्थिति में मेरुदंड से सुषुम्ना का माध्यम से
बाहर निकलेगा! विद्युत् को सही
पद्धती में उपयोग करना नहीं जानने से वह हमको हानी पहुंचाएगा! परंतु वह अपने आप ही
हानी नहीं करेगा! वैसा ही कुण्डलिनी मार्ग का अंदर का प्राणशक्ति हानिकारी नहीं
है! अहंकार से और कामवांछायें इत्यादि से संबंध और बंधन नहीं बनाके रखेगा! साधना
करनेवाले साधकों को बंधविमुक्ति और मुक्ति प्राप्त करायेगा! साधना नहीं करने वाला
सारहीन आलसी व्यक्तियों को ही प्रवृत्ति होता है! आलसी व्यक्तियों को इह में भी
सुख नहीं मिलेगा और पर में भी सुख नहीं मिलेगा! व्यापारासाफल्यता, नूतन विषयों को
आविष्कार करना, संगीत रचना करना इत्यादि सब भगवत अनुग्रह ही है! क्रियायोग साधना करो, दैवसाम्राज्य में
कदम रखो, तुमको धर्मबद्ध वांछ जो भी है वह अवश्य लभ्य होगा!
अंतर्गतनाद:
कुण्डलिनी शक्ति एक शेषनाग जैसा रहता है!
इस का शिर नीची और पूंछ उपर मेरुदंड का चक्रों में निद्राणस्थिति में उपस्थित होता
है! क्रियायोग साधना का माध्यम् से इस कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करना चाहिये! इन
चक्रों प्राणशक्ति और पदार्थतत्वविवेचशास्त्र (Physiological) संबंधित है! इन चक्रों से ही सूक्ष्म प्राणशक्ति मेरुदंड से विविध शारीरक अंगों में
दिया जाता है! हर एक चक्र को एक रंग, रुचि, शब्द और पद्मो का जैसा दळ यानी पँखुड़ियाँ
होता है! मूलाधारचक्र को चार दळ यानी पँखुड़ियाँ, स्वाधिष्ठान चक्र को छे दळ, मणिपुर चक्र को दस
दळ, अनाहत चक्र को बारह दळ, विशुद्ध चक्र को सोलह दळ, आज्ञा चक्र को दो
दळ, सहस्रार चक्र को सहस्र दळ होता है!
वृक्ष का पत्तों सूर्यास्तमय में सोता है
इसीलिये नीचे की ओर देखता है! वैसा ही जिस व्यक्ति क्रियायोग साधना नहीं करता है
उस का कुण्डलिनी निद्राणस्थिति में होता है और उस का चक्र्रों का दळ यानी
पँखुड़ियाँ नीचे को ओर देखता है! क्रियायोग साधना करनेवाला साधक का कुण्डलिनी जागृत
होता है और उस का चक्र्रों का दळ यानी पँखुड़ियाँ बलोपेत यानी शक्ति से भर के उपर
की ओर देखता है! तब उस का मस्तिष्क अनंतस्पंदन यानी दिव्य ॐकार नाद से भरपूर होता
है! चक्र स्पन्दन का अर्थ यह है की वह चक्र तक कुण्डलिनीशक्ति पहुंच गया और वह चक्र
जागृत हो गया है!
आठ प्रकार की समाधिस्थिति होते है! इन में
संप्रज्ञात (संदेहसहित-परमात्मा है की नहीं है ऐसा) और असंप्रज्ञात
(संदेहरहित-परमात्म निश्चित रूप में है
ऐसा) करके पुनः दो प्रकार का होते है! मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुरचक्र और अनाहत चक्रों में आनेवाला समाधियों को संप्रज्ञात
समाधिस्थितियों कहते है! विशुद्ध,
आज्ञा और सहस्रारचक्रों में आनेवाला समाधियों को असंप्रज्ञात
समाधिस्थितियों कहते है!
जागृत हुआ मूलाधारचक्र से भ्रमर शब्द
आयेगा! फल का रस (sweet
juice taste) जैसा मिठापा रूचि
आयेगा! पीला रंग में होगा! मूलाधारचक्र को
सहदेवचक्र कहते है!
जागृत हुआ स्वाधिष्ठानचक्र से पवित्र
बंसिरीनाद शब्द आयेगा! थोड़ा सा कड़वा (slightly bitter taste) जैसा रूचि आयेगा! धवल रंग में होगा!
स्वाधिष्ठानचक्र को नकुलचक्र कहते है! इधर सालोक्य संप्रज्ञात समाधिस्थिति यानी परमात्मा
साथ है ऐसी भावना मिलेगा!
जागृत हुआ मणिपुरचक्र से पवित्र वीणानाद
शब्द आयेगा! करेला जैसा कड़वा (bitter taste) रूचि आयेगा! लाल रंग में होगा!
मणिपुरचक्र को अर्जुनचक्र कहते है! इधर सामीप्य संप्रज्ञात समाधिस्थिति यानी
परमात्मा का समीप में हु ऐसी अनुभूति मिलेगा!
जागृत हुआ अनाहतचक्र से पवित्र मंदिर का
घंटानाद शब्द आयेगा! खट्टा जैसा (sour taste) रूचि आयेगा! नील रंग में होगा! अनाहतचक्र
को भीमचक्र कहते है! इधर सायुज्य संप्रज्ञात समाधिस्थिति यानी परमात्मा का सन्निधि
में हु ऐसी अनुभूति मिलेगा!
जागृत हुआ विशुद्धचक्र से पवित्र
जलप्रवाहनाद शब्द आयेगा! कालकूट विष जैसा रूचि आयेगा! धवल मेघ रंग में होगा!
विशुद्धचक्र को युधिष्ठिरचक्र कहते है! इधर सारूप्य असंप्रज्ञात समाधिस्थिति यानी
परमात्मा के साथ हु ऐसी अनुभूति मिलेगा!
जागृत हुआ आज्ञाचक्र से पवित्र ॐकारनाद
शब्द आयेगा! प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देगा! आज्ञाचक्र को श्रीकृष्णचक्र कहते है!
इधर स्रष्ट या सविकल्प समाधिस्थिति यानी मै और परमात्मा एक हु ऐसी अनुभूति मिलेगा!
जागृत हुआ सहस्रारचक्र को परमात्माचक्र
कहते है! साधक स्वयं ही साक्षीभूत यानी परमात्मा बन जायेगा! इधर निर्विकल्प
समाधिस्थिति यानी परमात्मा का साथ ऐक्य होना ऐसी अनुभूति मिलेगा!
जागृत हुआ कुण्डलिनी क्रियायोग साधना को
पराकाष्ठा है! वह भौतिक व लौकिक विषय वांछों का वश हुआ चंचल मन और ज्ञानेंद्रियों
को निश्चय निश्चल निर्दुष्ट दिव्य अदभुत आध्यात्मिक मार्ग का तरफ दिशा निर्देश
देगा! तब तक भौतिक व लौकिक विषय वांछों का परिमित हुआ चंचल मन और ज्ञानेंद्रियों
का वजह से नहीं सूना एलक्ट्रान (Electron) सूक्ष्म किरणों का संगीत और उस से बढकर
परमात्मा का शब्द यानी पवित्र ॐकार नाद को सुन सकेगा! इस का पहले भौतिक व लौकिक
विषय वांछों का परिमित हुआ चंचल मन और ज्ञानेंद्रियों के लिए काम करने वाला
प्राणशक्ति अब निश्चल बनेगा! वह केवल सहस्रार में ही काम करेगा! मस्तिष्क अब एक
दिव्य रेडियो (Radio) जैसा रूपांतर हो जायेगा! ऋषि मुनि योगियों का प्रवचनों सुनाईदिया! अंतरिक्ष में हर एक अणु, एलक्ट्रान (Electron), दिव्यस्पंदन, सब संगीतमय हो
जायेगा! आकाश का रेडियो (Radio) तरंगो को मामूली कानों से नहीं सुन सकते है! रेडियो (Radio) होने से ही सुन
सकते है! वैसा ही कुण्डलिनी जागृत नहीं होने से भौतिक अहंकार से उस दिव्य संगीत को
सुनने को साध्य नहीं है!
कुण्डलिनी—संभोगशक्ति:
संभोगशक्ति में मन और प्राणशक्ति दोनों
मिलके संभोगनसों में प्रवाहित होता है! उन नसों को लौकिक सृजनात्मकत का दिशा में
प्रेरण करेगा और उसी में लगन करेगा! कुण्डलिनी शक्ति प्रवाहित होनेवाला मार्ग (Passage) को अधिकाधिक
शक्तियुत मैक्रोस्कोप (Microscope) से भी देख नहीं
सकेगा! कुण्डलिनी शक्ति का मार्ग (Passage) से प्राणशक्ति
मेरुदंड स्थित चक्रों द्वारा मूलाधाराचाक्र से बाहर निकलेगा! अथवा क्रियायोग साधना
माध्यम् से इस प्राणशक्ति मेरुदंड स्थित चक्रों द्वारा मस्तिष्क में भेजा जाएगा!
कुछ अज्ञानी लोग इस कुण्डलिनी शक्ति का बारे में भयंकर वर्णन किया है! यह
वृत्ताकार में शेषनाग जैसा मेरुदंड का मूल में गुदास्थान का पास सोया हुआ
रहता है,
उस को उठाने/जगाने से काट के मारेगा ऐसा कुछ लोग लिखा है! यह एक संभोगशक्ति जैसा कुछ लोग लिखा है! इन लोगो का लिखा हुआ यह
सब ऊहाजनित परंतु वास्तव में अनुभव करके नहीं लिखा है!
कुछ लोग जन्मतः अपना अपना कर्मानुसार
बलहीन नाडीव्यवस्था (weak nervous
system) का साथ जन्म लेता
है! ऐसी लोगों के विचार सब
काम की ओर ही घूमते रहता है! कुछ लोग काम और सम्भोग से
दूर रहते है! दुष्टता का सामना करना ही सच्छीलता है! काम और सम्भोग को इष्ट होने
लोग अशास्त्रीयता पद्धतियों में ध्यान करते है! ऐसा लोगों में अपरिमित कामात्रुता
उत्पन्न होता और उस को नियंत्रित करने में अशक्त होते है! वे गुरु का पास जाके ‘गुरूजी, मेरा कुण्डलिनी
जागृत हो गया’ ऐसा कहते है! वह सुन के ‘अब और ध्यान करने को जरूरत नहीं है’ ऐसा सलाह (advice) गुरु देता है! वैसा
लोग बहुत ही अज्ञानी लोग है! कुण्डलिनी शक्ति को संभोगशक्ति जैसा वर्णन करना दैवद्रोह
समान है! सही डंग से योग साधना करनेवाला साधक का विचारें सब मेरुदंड में और
सहस्रार में हुआ और हो रहा है उन आध्यात्मिक अनुभवों का चारों ओर ही घूमते रहेगा!
संभोग वांछों का वश हुआ व्यक्ती भी सही साधना यानी क्रियायोग साधना करके मुक्त हो
सकता है! सहस्रारचक्र को पहुंच गया कुण्डलिनी शक्ति साधक को सर्वम् यानी सर्व जगत
को जितने का शक्ति प्रसादित करेगा!
मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा (negative), आज्ञा (positive), सहस्रार चक्रों में ॐकार उच्चारण कीजिये!
मूलाधारचक्र से आज्ञा (positive) चक्र तक और आज्ञा (positive) चक्र से मूलाधारचक्र तक जितना बार कर सकते हो उतना बार ॐकार उच्चारण
कीजिये और आनंद प्राप्ति अनुभव करो!
परमात्मा ही पदार्थो का अंतरात्मा, जीवन का अर्थ, ब्रह्माण्ड का
निर्वाचन और सब कुछ है! प्रथम में तुंहारा आत्मा को पढो, इसी को स्वाध्याय
कहते है! तुम को तुम स्वयं जानो, इस का अर्थ ऐ ही है! समिष्टि माया को ही
व्यष्टि में कुंडलिनी कहते है! एक बूंद पानी में हैड्रोजन-आक्सीजन (Hydrogen-oxygen) है करके जानने
से समुद्र का पूरा जल में वह हैड्रोजन-आक्सीजन (Hydrogen-oxygen) होगा! हर एक बूंद का परिक्षा करने का अवसर नहीं है! एक पदार्थ को बुद्धि (Intellect) का उपयोग करके जानने का अर्थ उस पदार्थ का
साथ ऐक्य नहीं होना ही है! परिमित बुद्धि (Intellect) से अपरिमित परमात्मा को जानना असंभव है! आत्मावाबोध (Intuitional guidance) का माध्यम से ही परमात्मचेतना व
परमानंदचेतना (Bliss
Consciousness) लभ्य होगा और जान
सकेगा! सर्व कार्यों में
और सर्व विचारों में व्याप्ति होने का शक्ति इस चेतना को है! इस परमात्मचेतना व परमानंदचेतना को प्राप्त
करना ही असली मत (Religion) है बाकी सब इस का सामने कुछ भी नहीं है!
तीसरा नेत्र:
यह प्रकृती सत्व, रजो और तमो तीन गुणों से बना है! आकाश, वायु, अग्नि, वरुण और पृथ्वी इन
पाँच महाभूतों से इन तीन गुणों विविध प्रकार में मिलके यह जगत बना है! इन पाँच महाभूतों का माध्यम से मनुष्य
प्रकृती का सत्व रजो और तमो तीन गुणों को अनुभव करता है! इन का असली स्वभाव और स्वरूप जानने से तब
मुक्ति मार्ग का अन्वेषण कर सकेगा!
सत्व गुण निर्मल और शांत स्वरूपी है! तामस
गुण आलसीपन, निद्रा, तंद्रा समन्वित है! काम नहीं होने से भी अच्छा हो या बुरी हो कुछ न कुछ
काम में अपना हाथ डालनेवाला चंचल और क्रियाशीलक पात्र निभानेवाला है रजो गुण!
क्रियायोग साधना द्वारा साधक अपना मन कूटस्थ में निश्चल करके पाँच महाभूतों के स्पंदनों को जानेगा और
वे मानव प्रकृति अथवा स्वभाव का उपर कैसा प्रभाव करेगा जान सकेगा!
दर्पण केवल भौतिक विषयों को दिखादेगा!
शरीर का अंदर का मन और अकल को प्रतिबिंब नहीं कर सकेगा! मनुष्य का शरीर ही देवालय
है! वह दुष्ट और शिष्ट शक्ति दोनों का निवास स्थान है! कृषि से साधना करने वाला
मनुष्य ही सर्वज्ञ ऐसा विज्ञ कहते है!
कूटस्थ में तीसरा नेत्र उपस्थित है! इस
नेत्र में ही स्थूल, सूक्ष्म और आध्यात्मिक गुणों और
तत्संबंधित स्पंदनों, भूत, भविष्यत्, वर्तमान जीवों का चरित्रा और ब्रह्माण्ड को सुस्पष्ट रीति में वीक्षण कर
सकते हो! इसी को दिव्यदृष्टि या दिव्यनेत्रदृष्टि कहते है! जो साधक क्रियायोग
साधना का माध्यम से इस तीसरा नेत्र को खोलेगा उस को ज्योतिष्य इत्यादी साधनों का
अवसर नहीं है!
केवल ग्रंथ पढने से अहंकार प्रज्वारिल
होगा, मगर परमात्मा तत्व ग्रहण नहीं कर सकेगा! महर्षियों इस दिव्यनेत्रदृष्टि
का माध्यम से ही परमात्मा से प्रत्यक्ष संबंध बनसका और बृहत् ग्रंथों लिख सका!
केला फल का बारे में पढने से उस का रूचि पता नहीं लगेगा, उस को प्रत्यक्षरूप
में खाकर स्वाद ग्रहण करना चाहिये! वैसा ही परमात्मा के बारे में पढ़ने से क्या लाभ
है? क्रियायोगा साधना का माध्यम से उन को प्रत्यक्ष रूप में साक्षात्कार
करना चाहिये! उन को प्रत्यक्ष रूप में साक्षात्कार करना अत्यंत अदभुत अनुभव है! मै
पाया हु, आप भी पावो! प्रत्यक्ष रूप में परमात्मा को नहीं पानेवाला और साक्षात्कार
अनुभव नहीं करनेवाला कवी ही उन का बारे में अधिक वर्णन करेगा!
पाँच महाभूत:
पाँच महाभूतों का व्यक्तीकरण का वजह से ही
मनुष्य का शरीर में यानी स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर तीनों में परिवर्तन
आयेगा! इस परिवर्तन को केवल क्रियायोग साधक ही समझ सकेगा! साधना में साधक को अनुभव
में आनेवाला रूचि, शब्द, रंग इत्यादियों से किस चक्र तक पहुँचा है वह समझ सकेगा!
मूलाधाराचक्र पृथ्वीतत्व का प्रतीक है! इस
चक्र को स्पर्श किया साधक का श्वासक्रिया अंदाज से 30 इंच (Inch) लंबाई तक—फेफड़ों से शरीर का बाहर जहा श्वास पूरा होगा वहा तक—नासिका रंध्रों को स्पर्शन नहीं करता हुआ होता है! कूटस्थ में चार कोणों (Angles) वाली तस्वीर (Figure) पीला रंग में दिखाई देगा! मीठा (Sweet juice taste) फल का रूचि
जैसा भावना मिलेगा! इतना ही नहीं, इस (Sweet juice taste) फल का रूचि का
उपर मोह (Attachment) अधिक हो जायेगा! सही साधना
करनेवाला साधक को यह स्पंदनास्थिति 20 मिनट रहेगा!
स्वाधिष्ठानचक्र
वरुणतत्व का प्रतीक है! इस चक्र
को स्पर्श किया साधक का श्वासक्रिया अंदाज से 10 इंच (Inch) लंबाई तक नासिका
रंध्रों का प्रारंभ से होगा! कूटस्थ में अर्ध सफेद चाँद और अर्ध काली चाँद (White Half-moon) दिखाई देगा! थोड़ा कड़वा रूचि (little bitter taste) जैसा भावना
मिलेगा! इतना ही नहीं, इस अर्धा सफेद चाँद
और अर्धा काली चाँद (White Half-moon) और थोड़ा कड़वा रूचि का उपर
मोह (Attachment) अधिक हो जायेगा! सही साधना करने
वाला साधक को यह स्पंदनास्थिति 16 मिनट रहेगा!
मणिपुरचक्र
अग्नितत्व का प्रतीक है! इस चक्र
को स्पर्श किया साधक का श्वासक्रिया अंदाज से 10 इंच (Inch) लंबाई तक नासिका रंध्रों
का उपर से होगा! कूटस्थ में लाल रंग का त्रिभुज (Triangular)
तस्वीर (Figure) दिखाई देगा! कड़वा रूचि (bitter taste) जैसा भावना
मिलेगा! इतना ही नहीं, इस लाल रंग और कड़वा रूचि का उपर
मोह (Attachment) अधिक हो जायेगा! सही साधना
करनेवाला साधक को यह स्पंदनास्थिति 20 मिनट रहेगा!
अनाहतचक्र
वायुतत्व का प्रतीक है! इस चक्र
को स्पर्श किया साधक का श्वासक्रिया अंदाज से 20 इंच (Inch) लंबाई तक नासिका
रंध्रों का भुजा (sides) से होगा! कूटस्थ में आगे और पीछे जाता हुआ (Palpitating) नीला गेंद (ball) का तस्वीर (Figure) दिखाई देगा! खट्टा रूचि (sour taste) जैसा भावना मिलेगा! इतना ही नहीं, इस नीला रंग और
खट्टा रूचि का उपर मोह (Attachment) अधिक हो जायेगा! सही साधना करनेवाला साधक को यह स्पंदनास्थिति 8 मिनट रहेगा!
विशुद्धचक्र
आकाशतत्व का प्रतीक है! इस चक्र
को स्पर्श किया साधक का श्वासक्रिया नासिका रंध्रों
से आसानी से होता रहेगा! कूटस्थ में सफ़ेद धुंआ रंग जैसा मेघ का उपर कांति बिंदु
चमकता हुआ (Smoke color checkered with Luminous specks of
light) दिखाई देगा! अधिक कड़वा रूचि (bitter taste) जैसा भावना
मिलेगा! इतना ही नहीं, इस सफ़ेद धुंआ जैसा मेघ रंग और अधिक कड़वा रूचि (very very bitter taste) का उपर
मोह (Attachment) अधिक हो जायेगा! सही साधना
करनेवाला साधक को यह स्पंदनास्थिति 4 मिनट रहेगा!
परमात्मा नित्य
है! उन से व्यक्तीकरण हुआ इन पाँच महाभूतों का स्पंदन भी नित्य है! ये प्रळय में समूलनाश नहीं होंगे!
प्रळय का समय परमात्मा में ही निक्षिप्त
होते है! पुनः सृष्टि का समय में व्यक्तीकरण होते है! व्यष्टि माया को
कुण्डलिनी कहते है! व्यष्टि माया को ही समिष्टि में माया कहते है! व्यष्टि का अंदर
का परमात्मा ही व्यष्टात्म है! प्रकृति यानी माया का अंदर का परमात्मा निश्चल होने
से भी माया तरंगों का हेतु चंचल दिखायी देगा! वह व्यष्टात्म को जीव कहते है! इस माया
प्रकृती को अपरा प्रकृती कहते है! इस माया प्रकृती का अंदर छिपा हुआ असली निश्चल
परमात्मा को परा प्रकृती कहते है! पानी मी प्रतिबिंबित हुआ चाँद तरंगों का वजह से
स्थान अथवा गति का परिवर्तन होता है करके भ्रम में डालेगा! वास्तव में चाँद निश्चल
स्थिति में है! वैसा ही परमात्म शुद्ध है परंतु माया का हेतु ऐसा दिखता है! तीव्र
साधक लौकिक विषयों से परिपूर्ण रूप से मुक्त होकर निवृत्ति होकर अपना नित्यास्थान
यानी परमात्मा गृह में कदम रखना ही गत्यंतर है!
पिंजरे का आदत
हुआ पक्षी थोड़ा समय स्वेच्छा विहार करा के ‘अपना
निवास के लिए घोसला नहीं’ ऐसा समझ के फिर उसी पिंजरे में वापस आयेगा! वैसा ही कुछ समय साधना करने का
पश्चात कोई कोई साधक पुनः शरीर नाम का पिंजरे का अन्दर कदम रखता है! महा साधक भी
अंतिम क्षण में शरीर का मोह त्यागने का एक क्षण संदेह करेगा!
मरणं:
मरणं जो है वह स्पंदनों व पदार्थों का अंत
नहीं है! पूर्णरूप में प्रकाश देके ख़तम हुआ मोमबत्ति का अंदर का पदार्थों रूपांतर
होता है! परंतु उस का पदार्थ पूरा अंतर्थान नहीं होगा! पदार्थ नाश नहीं होगा!
प्राणशक्ति का चेतना और शक्ति दोनों है! सोया हुआ चेतना और शक्ति दोनों है पदार्थ!
सूरज और किरणों अलग नहीं है! किरणों सूरज को व्यक्त करता है! पदार्थ प्राणशक्ति को
व्यक्त करता है! पदार्थ और प्राणशक्ति दोनों को अलग अलग नहीं कर सकते है! समुद्र
का तरंगों (waves) आखरी में समुद्र में ही ममैक होना है! कुछ तरंगों (waves) अन्य तरंगों से
ममैक (merge) होने में अधिक समय लेगा यानी ममैक (merge) होने में तारतम्य हो सकता है! उन तरंगों
सब उस समुद्र को व्यक्त करता है! सूरज, सौर्यमण्डल, नक्षत्रों, मिल्की वे आफ गालाक्सीस (Milky way of galaxies) ये सब अनंत
परमात्मा को ही व्यक्त करता है!
स्वाभाविक मरण जो है परमात्मा को व्यक्त करने के लिए परिपूर्ण रीति में
अपना पात्र निभानेवाला संघटन है! बाल्यमरण का अर्थ उस प्राणी अपना अयोग्य अशक्त
शरीर नाम का उपाधि को त्याग कर और अन्य शरीर नाम का उपाधि में प्रवेश करने का
सदवाकाश के लिए इंतज़ार करने का प्रयास ही है! सुंदर गुलाबी पुष्पों अपना सौरभ्य
व्यक्त करने से भी, बुद्धिमान बच्चों आरोग्यवान होता हुआ भी हम से अलग हो जाते है! हठात्
अथवा आकस्मिक (Accidental death) मरण जो है वह उस
जीव का अनुभव करनेवाला कर्म का मुताबिक़ बना हुआ स्थिति और परिस्थिति है! तरंग से
तुलने से लहरों का फेनमय जल तात्कालिक है! समुद्र से तुलने से लहर तात्कालिक है!
जीवन जो है वह
रूप और काल का परिमित नहीं है! भौतिक पदार्थ का उपर आधारित नहीं है पृथ्वी का उपर
जीवन! आहार और
प्राणशक्ति का उपर भी आधारित नहीं है!
शव मे भी प्राणशक्ति कुछ समय तक अन्य रूप
में होगा! द्रावकों में भद्र यानी सुरक्षित किया मुर्गा का हृदय जो है जिया हुआ
मुर्गा का हृदय से अधिक समय रह सकता है! मकर यानी घडियाल 600 वर्ष जीएगा! मनुष्य 60+ वर्ष जीएगा!
कुछ कीडेमकोडे 60 + घंटों जीवित
रहेगा! जीव एक बंजारा (nomad) जैसा है! एक समय में दिखाई देके और अन्य क्षण
में दिखाई नहीं देनेवाली नदीप्रवाह जैसा है! साधारण मनुष्य मरण से भयभीत होता है!
साधकों को मरण एक वर जैसा है! एक निम्न स्थिति से उन्नत स्थिति में लेजाने वाला
वाहन जैसा है! प्रस्तुत जीवन में क्रियायोगसाधन करके परमात्मा का साथ जीवन करना
जान गया साधक, शरीर व्यामोह से विमुक्त हुआ साधक, मरण का पश्चात ‘मै स्वयं ही
परमात्मा हु’ ऐसा समझेगा! तब प्राणशक्ति आहार, जल इत्यादि का उपर आधारित होना और शरीर का गुलामीपन से मुक्त हो,जायेगा! इसी हेतु
पृथ्वी लोक वासियों अपना अपना अन्तःशक्ति का उपर अधिकाधिक आधारित होना सीखना
चाहिये! शरीर का गुलामीपन से मुक्त होना सीखना चाहिये!
पदार्थ-परमात्मा:
चर (Organic-गतिसहित), अचर (Inorganic-गतिरहित) पदार्थ दोनों एक ही है! दोनों प्राणशक्ति का विविधप्रकार का व्यक्तीकरण
है! कोई भी पदार्थ नाश नहीं हो रहा है! शव का अंदर का मांस का अणु भी तीव्रता से जीवं का साथ स्पंदन करेगा!
पत्थर, सोना, चांदी, तांबा इत्यादि लोहों का अणु भी जीवं का साथ स्पंदन करेगा! विविध जीवों
प्राणशक्ति का विविध प्रकार का व्यक्तीकरण ही है! बर्फ, जल, भाप सब एक ही है!
वैसा ही पदार्थ में स्थित परमात्मा और पदार्थ का बाहर स्थित परमात्मा दोनों एक ही
है! इतना ही नहीं है आखरी में परमात्मा और पदार्थ दोनों एक ही है! क्यों की
परमात्मा का व्यक्तीकरण ही पदार्थ है! प्राणशक्ति जड़ पृथ्वी में निद्राणस्थिति में
होता है! पुष्पों में सुंदरता और सौरभ रूप में होता है! पशु में शक्ति रूप में
होता है! मनुष्य में चेतना और अनंत भावों जैसा दर्शन देता है!
इस मानव शरीर में कारण, सूक्ष्म और स्थूल शरीर तीन शरीर होता है!
मरणं केवल इस स्थूल शरीर का ही संभावित है! कारण, सूक्ष्म शरीरों दोनों दग्ध होके, देहावासनायें को
समूल निर्मूलन होके, समस्त कर्मों दग्ध होके, परमात्मा में विलीन होने तक इस स्थूल शरीर
धारण करना ही पडेगा! इस भूमि का उपर भौतिक नेत्र से बाहर अल्प पर्यंत प्रदेश ही
देख सकते है! परंतु हमारा अंदर का शरीर धातुओं को, सूर्यकिरणों का अन्दर रंगों को देख नहीं
पायेगा! क्रियायोग साधना करके भृकुटी का मध्य में कूटस्थ स्थित तीसरा आँख को खोल
सकने से तब पत्थर और पत्थर का अन्दर का एलक्ट्रांस (Electrons) इत्यादि
परमाणुओं को भी सुस्पष्ट रीति में देख सकेगा! इस में कोई भी संदेह नहीं है!
क्रियायोग साधक का मरणं एक वर है! दूसरा प्रगति पथ का सोपान है! साधारण मनुष्य
अपने आप को उद्धारण करने को लभ्य हुआ और एक अवकाश है!
हिरण्यलोक:
क्रियायोग साधन नहीं करने से इन्द्रियों
अपना वश में नहीं होगा! साधारण मनुष्य मरण
का पश्चात गहरा अगाध और अंधकार निद्रा में जाएगा! जागने का पश्चात और अन्य भौतिक
शरीर धारण करेगा! क्रियायोग साधक अपना साधना का सहायता से तीसरा आँख खोलेगा! वैसा
क्रियायोग साधक शरीर त्यागने का पहले और शरीर त्यागने का पश्चात भी एक अदभुत
आकर्षणीय गोळ का वीक्षण कर सकेगा! गहरा अगाध और अंधकार निद्रा का बदल में
प्रकाशवंत दिया को देखेगा! अपना भौतिक परिमित व्यक्तीकरणों का पिंजरा त्यागेगा!
अपना खोया हुआ अनंत में तेजी से धौडेगा! अंतरिक्ष का उस हिरण्यलोक इतना शीघ्र रूप
में दृष्टिकोण से हटेगा नहीं! उस हिरण्यलोक में हर एक चीज निश्शब्द रूप में संभाषण
करेगा!
वहा पुष्पों, आत्मावों से सम्भाषण करेगा! वहा आत्मावों का सौरभ हर दिशा
में फेलेगा! वहा आयु का साथ
आनेवाला बुढापा नहीं होता है! आत्मावों में परिवर्तन (Transformation) उन का इष्ट का मुताबिक़ होता है! उन का उपर जबरदस्ती परिवर्तन नहीं होगा!
बाक्टीरिया (Bacteria), प्यास (Thirst), भूख (hunger), स्वार्थपूरित इच्छाओं, हृदयपीड़ा (Heart
problems), कामवांछ, शारीरक क्लेश, दुर्घटना (Accidents), श्मशानघाट में इधर उधर दिखाई
देनेवाला शवों हड्डियाँ, वियोग समय दिखाई देनेवाला बाधायें
इत्यादि हिरण्यलोक में नहीं दिखाई देगा!
हिरण्यलोक में
हड्डियाँ और मांस आत्माओं को नहीं घेरेगा! किसी का साथ ठकराने से उन आत्माओं को ठोकर
नहीं लगेगा! उधर का आत्माओं, समुद्रों इत्यादि सब अत्यंत सामरस्य्पूर्ण
वातावरण में रहेगा! आत्माओं कांति किरणों का उपर प्रयाण करेगा! आत्माओं इस हिरण्यलोक में परमानंद का साथ
जीवन बिताता है परंतु प्राणशक्ति आधारित नहीं है! उन का इष्ट का मुताबिक़ जितना समय रहने का
संकल्प करेगा उतना समय रह सकता है! इधर आत्माओं परस्पर प्रेम में जीवन बिताता है! प्राणवायु सूर्यकिरणों और साधारण आहार का
उपर आधारित हुआ सामान्य लोग हिरण्यलोक का नाजुक वातावरण में नहीं रह सकते है! इधर सुख दुःख रात दिन इत्यादि द्वंद्वों
नहीं होगा! इधर का लोग केवल आत्मा प्रकाश का सहायता से जीवित होता है! प्राणशक्ति
नियंत्रण श्वासराहित्यास्थिति यानी क्रिया परावस्था इन को अभ्यास किया केवल
क्रियायोगी लोग ही शरीर में रहने से भी वायुरहित हिरण्यलोक में रह सकेगा!
मनुष्य विवेकयुक्त आध्यात्मिक पशु है!
मनुष्य का पशुप्रवृत्ति उस का बाल्यावस्थ का ध्यान देने से पता लगेगा! मूत्र करेगा
मलविसर्जन करेगा और पशु जैसा उन ही में खेलेगा! कुछ लोग बड़ा होनेसे भी
पशुप्रवृत्ति में भी रहते है! अन्यलोगों को दूषण पदाजाल से कष्ट यानी दुखित करना
जैसा होगा उन का प्रवर्तन! कुछ लोग स्नान पान नहीं करेगा, कोई भी काम नहीं
करेगा, बिलकुल पशु जैसा ही होगा उन का प्रवर्तन! मनुष्य केवल अपना बुद्धिमता और
स्वभावों का आधारित होके जीना नहीं चाहिये! मानव मेधा इन्द्रियाधारित और परिमित
है! अपना अपरिमित, परमात्मा प्रसादित, और सत्य तार्कितका का अतीत सर्वज्ञत्व
आत्मावबोधा (Intuition) को वृद्धि करना चाहिये! सद्गुरु का कृपा
से क्रियायोग साधन सीखना चाहिये! बच्चों को बचपन से रटा मारके पाठ पढाने का पद्धति
से उन का मस्तिष्क को खराब नहीं करना चाहिये! बचपन से ही क्रियायोग साधन ध्यान
पद्धतियां सिखाना चाहिये! इस साधन का माध्यम से उन का एकाग्रता शक्ति और
आत्मावबोधा को वृद्धि करना चाहिये! ऐसा अच्छा नागरिक बनाके देश को और जगत को
उपयोगाकारी नागरिक बनना चाहिये!
आत्म के लिए अलग शिक्षण देने को अवसर नहीं
है! आत्म सर्वज्ञानी है! आत्मज्ञानरहित मानवचेतना को क्रियायोगध्यान का माध्यम से
आत्मचेतना का साथ अनुसंधान करना ही हमारा कर्त्तव्य है! नया नया विषयों को अन्वेषण
करके सिद्धांतीकरण करते है ऐसा हम सोचते है, ये सब वास्तव नहीं है! सत्य में सब कुछ
परमात्मा ही है, नया विषय कुछ भी नहीं है! ध्यान का माध्यम से अपना चेतना को परमात्म
चेतना का साथ अनुसंधान करने से मनुष्य स्वयं ही परमात्म हो जायेगा और स्वयं ही
सर्वज्ञ बन जायेगा! सब कुछ ग्रहण कर सकेगा!
बच्चों को मेरुदंड सदा सीदा (Straight & erect) रखके बैठना और चलना सिखाना चाहिये!
आध्यात्मिकत सिखाना चाहिये! क्रियायोग ध्यान में परमात्म कैसा आनंद प्रसादित करता है बच्चों को सिखाना चाहिये! हर एक दिन प्रातः 30
मिनट और शाम को 30 मिनट क्रियायोग
ध्यान करवाना चाहिये! योगासन और सूर्यनमस्कार करवाना चाहिये! अधिक तरफ से
कबाड़ी, वालीबाल, दौड चाल में
प्रतियोगिता इत्यादि शरीर अंगों को काम देनेवाला बाहर खेलनेवाला क्रीडायें (Out door
games)
बच्चों से खेलवाना चाहिये!
चदरंग (Chess), और पदों का साथ खेलना (words
building), कहानी बोलवाना, बच्चा को छिपाके फिर उस को बाहर लाना इत्यादि मेधा को काम देनेवाला
क्रीडायें खिलाने चाहिये! अन्यो का साथ प्रेम और आप्यायता से संभाषण करना
और बड़ों से गौरव मर्यादों से प्रवर्तित करना बच्चों को सिखाना चाहिये!
विद्या आरंभ होने
के बाद तुरंत विद्या भी नहीं आयेगा और नौकरी भी नहीं आयेगा! सहिष्णुता और श्रद्धा
से 15 व 20 वर्ष पढने से ही
एक अच्छा इंजिनियर (engineer) व डाक्टर (Doctor) इत्यादि बन सकेगा! छोटा मोटा काम करनेवाला उद्योगी (employee) बड़ा बड़ा पढ़ाई
करनेवाला को देख कर ‘ये और भी पढरहा है, नौकरी नहीं है करके अवहेळन करेगा’! परंतु बाद में इन
विद्यावेत्तों का नीचे ही प्यून (Peon) या चप्रासी का काम करेगा और वेतन भी उन ही लोगों से लेकर जीवन बिताएगा!
क्रियायोग प्रारंभ करने का तुरंत परमात्मा का दर्शन लभ्य नहीं होगा! सहिष्णुता और
श्रद्धा से 15 व 20 वर्षों
नियमानुसार हर रोज प्रातः और सायंकाल में क्रियायोग साधना करने से परमात्मा का अनुसंधान
अवश्य प्राप्त होगी! भौतिक विद्यायें केवल जन्म का ही परिमित लाभ प्राप्त करेगा, परंतु आध्यात्मिक
विद्या इस जन्म का ही नहीं, जन्म जन्मों का लाभ प्राप्त करेगा, और धर्मंबद्ध सर्वसुखों का प्राप्ति करवाएगा!
साधारण जीवन—परमात्मा का आवश्यकता:
परमात्मा
का स्मरण सर्वदा करता हुआ जीवन साधारन रीती में बिताना चाहिये! आत्म शुद्ध, पवित्र और
नित्यनूतन आनंददायक है! साधक जिताना भी विपत्कर परिस्थितियों में फ़सने से भी आत्मा
का इस परमानंद स्थिति को भूलना चाहिये! सर्वदा इच्छारहित स्थिति में रहना चाहिये!
इस का अर्थ आनंद को त्यागने का नहीं है! परमात्मा का प्राप्त ही सर्व वांछितों से
उत्तम वांछ है! परमात्मा का प्राप्त सर्व वांछितों को लभ्य करेगा! सर्व आनंदों से
आनंद यानी परमानंद परिपूर्णप्राप्ति और तृप्ति प्रसादित करेगा!
बैंक (bank) में बहुत पैसा हो सकता है! परंतु वो पैसा
हमारा नहीं होने से उस पैसा से हम को क्या प्रयोजन है? परमात्मा सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और
सर्वव्यापी है! परमात्मा का महत्य का बारे में बहुत शास्त्र ग्रंथों में हम पढा और
कई लोगों से सूना भी है! परंतु प्रत्यक्ष संबंध नहीं होने से ऐसा परमात्मा से क्या
प्रयोजन है? मन, इंद्रियों से परिवेष्टित और परिमित हुआ मानव मेधा से परमात्मा का साथ
संबंध नहीं कर सकते है! पदार्ध का बाहर का केवल पाक्षिक और प्रत्यक्षरहित (Indirect) विषयज्ञान ही जान सकते है! अपरिमित
आत्मावाबोध (Intuition) पदार्ध का बाहर और अंदर का विषयज्ञान को परिपूर्ण और प्रत्यक्षरीति (direct) में जान सकते है! केवल प्रेम द्वारा ही परमात्मा
को प्राप्त कर सकते है!
वह प्रेम 100% सत्य और
परिपूर्ण रीति में होना चाहिये! 1% भी कमी नहीं होनी चाहिये!
परमात्मा कौन? परमात्मा का अर्थ:
परमात्मा कौन है? परमात्मा का अर्थ
क्या है? ‘परमात्मा को
तुमने देखा है क्या?’ ऐसा बहुत लोग
पूछते है! परमात्मा मिथ्य नहीं वास्तव है! मै परमात्मा को निश्चितरूप में देखा है, आप भी देख सकते
हो, सुन सकते हो और
बात कर सकते हो! वह केवल
क्रियायोगा माध्यम से ही साध्य है! लोग परमात्मा का साथ प्रत्यक्षानुभव नहीं होके
जो भी बोलते है वह सब ऊहा है और सत्य दूर है!
हैड्रोजन (Hydrogen) और आक्सिजन (oxygen) दोनों मिलाने से जल
(H2O) होता है करके पक्का कह सकते है! इस जगत
में दो वस्तु अत्यंत मुख्य है! शक्ति (Force) प्रथम और मेधा (Intelligence)
द्वितीय है! शक्ति (Force)
और मेधा (Intelligence)
दोनों में बहुत
अंतर है! विद्युत् जो है वह
शक्ति है! उस विद्युत् शक्ति को बल्ब (Bulb) में रखने से ही प्रकाशमान होता है! बल्ब (Bulb) में रखने को सहायता
करनेवाली चीज ही मेधा (Intelligence)
है! इस जगत में बिना मेधा (Intelligence) कोई भी चीज (Element) नही होगी!
लोहा, तांबा, स्वर्ण इत्यादि पदार्ध मिलके (Combination) ही यह मानव शरीर बना है! यह सब साधारण दूकान में लभ्य होने वाले पदार्ध
(Elements) ही है! परंतु यह पदार्ध सब मानवशरीर को जैसा उपयोग होना उस प्रकार नहीं
है! इसीलिये ऐसा पदार्ध सब जड़ (inert) पदार्ध है! मानवशरीर भी जड़ (inert) ही है! परंतु यह
मेधा उस मानवशरीर को कहा से आता है? इन पशु पक्ष्यादी सब प्राणियों अपना अपना
जीवन पद्धतियों में चलने के लिए एक मेधा नाम का कारखाना (Factory) होने से ही उस से उन को मेधा लभ्य होगा! केवल परमात्मा ही वैसा महत्वपूर्ण
कारखाना (Factory) है! वह कारखाना ही सब लयबद्ध (Harmonious) वस्तुओं का अस्तित्व है! वह कारखाना ही ऋतुओं के क्रमबद्धीकरण का हेतु
है! वह कारखाना ही आहार का हेतु है! पारमत्मा ही
सर्वं जाननेवाला असमान ज्ञान, सर्वव्यापि और सर्वशक्तिमान है! परमात्मा
का असमान बुद्धिमता का हेतु इस जगत, जगत का समस्त वस्तु, ये सब अपना अपना
कक्ष्या में क्रम पद्धति में घूमता है! इस भूमि और भूमि का प्राणियों सब का
अस्तित्व का कारण केवल परमात्मा ही है! क्रियायोग ध्यान में हमको परमानानंद
प्राप्ति होने का कारण परमात्मा का अस्तित्व का निदर्शन है!
भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक प्राणी है मनुष्य!
शारीरक आरोग्य को व्यायाम और और योगासनों द्वारा सुरक्षित करना चाहिये! मानसिक
आरोग्य को एकाग्रता द्वारा वृद्धि करना है! मानसिक आरोग्य ठीक होने से शारीरक
आरोग्य अपने आप ही ठीक हो जाएगा! आध्यात्मिक आरोग्य को परमात्मा का उपर एकाग्रता
द्वारा वृद्धि करना है! आध्यात्मिक आरोग्य सही होने से मानसिक आरोग्य और शारीरक
आरोग्य दोनों अपने आप ही सही हो जाएगा! हम परमात्मा का संतान है! उन से अनुसंधान
करने से तब अपना संतान का धर्मबद्ध इच्छाओं को परमात्मा संपन्न करेगा!
एलेक्ट्रोंस (electrons) और
अणुओं (Atoms) का तरंगों (Wave) ही जीवन (Life) है! जीवद्रव्य (Protoplasm) तरंगों, शक्ति (energy) तरंगों, दोनों परमात्मा नाम का समुद्र का उपर
तैरनेवाले (Float) चेतना
(Consciousness) तरंगों ही है!
बुद्धियुक्त क्रमबद्धीकरण (Organized) से चलनेवाली गति (Motion) ही जीवन (Life) है! मनुष्य, पुष्प, पत्थर, मिट्टी ये सब उस
गति (Motion) का विभिन्न प्रकार का रूपांतर ही है! आत्मा का घेरा हुआ एलेक्ट्रोंस (electrons) प्राणशक्ति
और बुद्धी ही मानव शरीर है!
पुनर्जन्म:
पुनर्जन्म का अर्थ कुछ पदार्थ अथवा मनुष्य
का प्रगति के लिए होनेवाला परिवर्तन है! शरीर अनित्य और आत्मा नित्य है! यह आत्मा
असली में नहीं मरता है, नहीं जन्म लेता है, केवल रूपांतर होता
है! बदलना (Change) सहज और प्रकृतिसिद्ध है! कल का जल आज नहीं पीते है, पीने से बीमारी
आजायेगा! स्थिर प्रवाहरहित (Stagnant) जल से बदबू (bad smell) आयेगा! इसीलिये
निरंतर इस जगत में बदलना (change) और गति (motion) आवश्यक है! यह ही प्रगतिपथ है! मानवशरीर परमात्मा का व्यक्तीकरण ही है!
इस जगत में ही और इस जगत का साथ ही हमारा अस्तित्व है!
जमाहुआ (Materialized) स्थूलाशक्ति ही स्थूलशरीर है! शक्ति
व्याधिग्रस्थ नहीं होगा! रोग एक भ्रम अथवा स्वप्न है! सिर्फ भ्रम अथवा स्वप्न
बोलने से काफी नहीं है! शिर दीवार का साथ ठक्कर लग के और बाधा से कष्ट भुगतानेवाली
स्वप्ना स्वप्नाया है! परंतु उस स्वप्ना से जागने का तुरंत ही उस बाधा समाप्त
होगा! ऐसा ही जीवन और जीवन बाधाये भी वास्तव नहीं ग्रहण करना चाहिये! क्रियायोग साधना करना और परमात्मा का साथ
अनुसंधान साध्य करना चाहिये! तब जमाहुआ (Materialized) स्थूलाशक्ति ही स्थूलशरीर ऐसा साधक समझेगा! चेतना द्वारा ही इस शरीर को
तत् पश्चात परमात्मा को ग्रहण करेगा! मरणं आखरी मंज़िल (destination) नहीं है! मरणं प्रगति का सोपान पथ है! व्याधि और
संसार बाधाओ से थका हुआ इस शरीर को सांत्वना देनेवाली मरणं ही है! मरणं रूप में इस
शरीर को विश्रांत मिलता है! तत् पश्चात उस मलिन जीवात्मा में वांछनीयता और विजृंभण
होगा! तब जन्म रूप में उस मलिन जीवात्मा दूसरा उपाधि लेगा! जब तक वांछनीयता समाप्त
होके जीवात्मा परिशुद्धात्मा नहीं बनेगा यानी वांछारहित नहीं बनेगा तब तक अन्य
उपाधि यानी अन्य स्थूल शरीर का आश्रय लेता रहेगा!
हर एक विचार नित्य है! हर एक शब्द नित्य
है! नित्यचेतनायुक्त विचार या शब्द परमात्मा का व्यक्तीकरण ही है! विचारे गोप्य
होता है! हर एक व्यक्ति स्त्री अथवा
पुरुष विचारे आता है! वे विचारे इतना करके नहीं गिन सकता है!
अंदाजा से 16,000 विचारे करके कहा है! गोप्य रूप में
होनेवाली हर एक विचार को गोपिका कहते है! हर एक गोपिका परमात्मा का व्यक्तीकरण है!
श्री कृष्ण परमात्मा को 16,000 गोपिकायें बोलने का अंतरार्थ ये ही है! प्रथम में आत्मा इस शरीर का साथ
खेलता हुआ क्रमशः इस शरीर का खैदी बनता है! इसीलिये इस स्थूल प्रकृति का अतीत होना क्रियायोग साधना का माध्यम से
अभ्यास करना चाहिये! मानसिक प्रगति स्थूल
प्रगति से उत्तम है! आत्म शुद्ध है! इसी हेतु वह स्थूल, सूक्ष्म और आध्यात्मिक प्रकृतियों का सहज ही अतीत होकर आखरी में अपना स्वस्थान यानी
परमात्मा में ऐक्य हो जायेगा! इसी को विकास (Evolution) कहते है!
एक रेशमी कीड़ा (silk worm) बडा होकर तितली (butterfly) होता है! परंतु कपड़ा बनाईं करनेवाला कीड़ा
को तितली होने नहीं देगा, उस कीडावों को पकड़के मार के उन से रेशम
निकालेगा! वैसा ही हमारा
क्रियायोग साधना का फल मिलने का पहले ही हम उस को भंग करते है! इस का नतीज़ा रोग, भय, अज्ञान इत्यादि सब है! हम विचार बाद में
करते है परंतु कार्य पहले कर रहे है! परमात्मा हम को बहुत शक्ति दिया है! इसीलिये
फल मिलने तक साधक अन्य आलोचनाओं का जगह नहीं देना और साधना नहीं छोड़ना और साधना
जारी रखना चाहिये! मन शरीर को पालन करना चाहिये! शरीर मन का नौकर जैसा पहिचानना
चाहिये! रोगचेतना से आरोग्यचेतना का तरफ मन को बदलना चाहिये! हमारा शरीर को हानि
करनेवाली राजस आहार आदतों को त्यागना चाहिये! ‘मै रोगी और मुझको रोग आया’ जैसा नकारात्मक
विचारों को त्यागना चाहिये! ‘मुझको इस रोग से मुक्त नहीं मिलेगा’ ऐसी सोचन अवचेतन
में प्रबल बीजरूप में डालनेवाला लोग अपने आप ही रोग का वश होते है! ‘मै परमात्मा का संतान हु, मै आरोग्यवान हु’ ऐसी सकारात्मक सोचना बीज प्रबलरूप में डालना चाहिये!
परकायाप्रवेश:
पुनर्जन्म का अर्थ केवल इन
सूक्ष्म कारण शरीरों और जीवात्मा एक भौतिक शरीर से उपाधि और कर्म भुगतने के लिए
अन्य भौतिक शरीर बदली (Transfer) होना ही है! शरीर
अणुवों
भी मन का साथ भौतिकता से आध्यात्मिकता (Spiritualize) दिशा मार्ग में बदली (Transfer) होगा! पुनर्जन्म का अर्थ
शरीर बानिसत्व (slavery) को त्यागना है! क्रियायोग साधना में साधक का प्राणशक्ति
स्थूलशरीर
बानिसत्व (slavery)
अथवा वश से मुक्त हो जायेगा! वैसा ही मरण समय में स्थूलशरीर बानिसत्व (slavery) अथवा
वश से प्राणशक्ति को मुक्त करवाना है! तब आत्म कितना पवित्र है जानेगा!
स्थूलशरीर में होने से भी उस का उपर आधारित नहीं है कर के हम ग्रहण कर सकेगा!
साधारण रीती में पुनर्जन्म
केवल स्थूलशरीर पतनानंतर
ही होता है! हम इस जन्म में ही इस शरीर में ही पुनर्जन्म होना है! इसी को
परकायाप्रवेश कहते है! हम निद्रा में, स्वप्न में
अचेतनास्थिति (Unconscious) में होगा! बहुत
जन्म हम लेते रहते है! क्रियायोग साधना में साधक चेतनास्थिति (conscious) में अन्य उन्नत स्थिति में जाएगा, इस
स्थूलशरीरस्थिति को त्याग करेगा और परकायाप्रवेश करेगा! वह भी पुनर्जन्म जैसा ही है! इस पवित्र भारत भूमि में बहुत महानुभावों
को भूत काल में और वर्तमानकाल में भी भूमि का अंदर बहुत समय रह के ध्यान करके पुनः
सजीव होकर बाहर भूमि का उपर आना हम देखते है! भारतवासियों का ऐसा महानुभावों को
देखना साधारण है! यह आश्चर्यजनक नहीं है! कुछ लोग बिना आहार भी वर्षों तक रहते है!
यह भी भारतवासियों के लिए साधारण है! यह सब चीज पुनर्जन्म ही है!
आदिशंकराचार्य जैसा कारणजन्म पुरुष अपना
शरीर को त्याग कर कुछ दिन दूसरा शरीर में रह कर पुनः अपना शरीर में प्रवेश करना हम
सब जानते है! इसे ही पुनर्जन्म अथवा परकायाप्रवेश कहते है! बहुत समय पिंजरा में
रहने का आदत हुआ पक्षी पिंजरे से मुक्त करने से भी पुनः उसी पिंजरे में वापस
आयेगा! स्वेच्छा से जीवन बिताने को उस पक्षी को भय लगेगा! वैसा ही ध्यान में साधक ‘मै अनंत में गिररहा
हु, पुनः इस शरीर में नहीं आसकेगा’ ऐसी भावना आके भयभीत हो जायेगा! मनुष्य
असली में परमात्मा का प्रतिरूपी है! इसीलिये साधना से वह भी सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ बन जायेगा!
ढरो मत, परमात्मा से अनुसंधान हो जाना, तब जीवन कितना
आनंदमय है जान सकोगे! तब तक जीवन निस्संदेह दुर्भर ही लगेगा! शरीर मानवचेतना को
आलवाल है! कूटस्थ श्रीकृष्णचेतना को आलवाल है! माता के लिए जिद करनेवाली शिशु का
पास माता अवश्य आयेगा और उस को गोद में लेगा और आलिंगन करेगा! वैसा ही कूटस्थ में
तीव्रध्यान करने से परमात्मा हमको भी अपनासाथ में अवश्य ऐक्य करेगा! जो भी अनुभव
साधक को ध्यान में अवश्य सिद्धि हो जायेगा! मरणानुभव महापुरुषों का प्राप्त हुआ
अनुभवों ऐसा एक नही सर्व अनुभवों को सिद्ध करनेवाला एकैक साधन प्रक्रिया क्रियायोग
साधना ही है!
तीन मन:
परमात्मा हमको प्रथम में जाग्रत (Conscious) मन दिया है! उस का पश्चात में अवचेतन (Subconscious) मन दिया है! यह परिमत है और एक स्मृति
भंडार (memory) है! कोई भी विषय कुछ समय तक ही याद में रख
सकेंगे! क्रमशः हम भूल जायेंगे! परंतु अधिक प्राधान्यत विषयों इस अवचेतना (Subconscious) मन अथात स्मृति भंडार (memory) में निक्षिप्त होता है! तीसरा अधिचेतना (Super-conscious) मन है! छोटा मोटा समस्त विषयों प्राधान्यत हो न
हो परंतु इस में निक्षिप्त होता
है! स्थूलशरीर पतन होने का पहले समस्त विषयों उस मरण समय में याद आनेका हेतु इस
अधिचेतना (Super-conscious) मन ही है! इन विषयों में मरण समय में मनुष्य जिस विषय को प्राधान्यत देके
एकाग्रता करके स्थूलशरीर त्याग करेगा उस का आधारित होकर उस का आगामी जन्म का
परिस्थतियों और संस्कारों होगा! स्थूलशरीर का वश होकर बननेवाले अहंकारपूरित
विचारों का परिमित नहीं होता है! हर एक विचार में तुम उपस्थित होगे! क्रियायोग
साधना करके तुम्हारा
अधिचेतना (Super-conscious) मन को अभिवृद्धि करो! 60 वर्षो का पश्चात तुम अपना विचारों को ध्यान्रख सकते हो! इस के लिए उमर (age) से निमित्त नहीं
है! दिव्यचेतना को भूलचूक (forgetfulness) नहीं है! विचार अच्छा हो बुरा हो नित्य है! वे अंतरिक्ष में शाश्वत रूप में
निक्षिप्त होकर रहेगा!
अपना दैनंदिक जीवन में अवचेतना (Subconscious) मन हमारा समय वृधा (waste) नहीं होने देगा और समय का बचत (Save)
करेगा! उदाहरण के
लिए हम अपना नित्यावसर वस्तुवों को क्रमबद्धीकरण (particular order) में रखने से हर दिन उस के लिए खोजने का
अवसर नहीं होगा! हमारा आचार व्यवहार इसी हेतु बन गया है! परंतु वे कहा तक सत्य है
जानके आचरण करना अथवा हमारा समय अनावसर आचार व्यवहारों में वृधा (waste) हो जायेगा! कुछ लोग
विष्णु सहस्रनाम व ललिता सहस्रनाम व हनुमान चालीसा इत्यादि जोर जोर से उन का अर्थ
नहीं जानता हुआ थकता हुआ पडेंग़े! उस का बदल में क्रियायोग ध्यान करना शतथा सहस्रथा
उपयोगकारी होगा!
भय:
भय एक मानसिक दुर्बलता है! परंतु जो
मनुष्य अपना इच्छानुसार प्रवर्तित करेगा उसके लिए भय एक औषध भी है! उदाहरण के लिए शीघ्रगती से बस (Bus) चलानेवाला को अपाय
(accident) हो जायेगा ऐसा उद्देश्य से समझाने के लिए भय एक साधन है! भय एक अयस्कांत जैसा है! लोहा का टुकड़े को अयस्कांत अपना तरफ आकर्षित करता है! वैसा
ही हम व्यर्थं में भयभीत होने से भय नाम का अयस्कांत हम को और भी भयभ्रांत करेगा! कल्पनाशक्ति, मानसिक प्रगति, संकल्पशक्ति, धैर्य, इच्छाशक्ति, और प्रमादों से
बाहर निकलने का विचारों को बलहीन करेगा! मानसिक प्रशांतत को हानि करके हृदय
नाडीमंडलस्थिति और मस्तिष्क को नाश करेगा! आत्मावाबोध (Intuition) का चारों ओर पर्दा डालेगा!
सफलता और असफलता दोनों
गहराई से हमारा अवचेतना, चेतना और अधिचेतना मन में
रह जायेगा यानी स्थिर निवास बनाएगा! इन को विज्ञता से समूल और संपूर्ण रूप में उखाडके फेंकना आवश्यक है अथवा
वे संस्कारों का रूप में जन्म जन्मों तक हमारा पीछे पडेगा और हम को क्लेश करेगा!
समय देखकर वे संस्कार हम को काटेगा! इसी हेतु कुछ लोग जितना प्रयत्न करने से भी
असफल होंगे!
शारीरक रुग्मता होने पर अथवा प्रमाद संभव
होने पर भय से उस को अधिकाधिक नहीं करना चाहिये! परमात्म प्रसादित इच्छाशक्ति का
हेतु ‘मुझे कोई भय नहीं है, मै अच्छी होंगे’ ऐसा मानसिक तीर्मान
करके डर को भगाना चाहिये! क्रियायोग ध्यान का माध्यम से धैर्य को अभिवृद्धि करना
चाहिये! ‘बापरे, यह बहुत ही खतरनाक रोग है, मेरा मित्र ऐसा ही रोग से बहुत कठिनाई
हुआ, कितना भी खर्च करके इलाज (treatment) करवाने से भी ठीक नहीं हुआ, आखरी में मर गया’ ऐसा भीरूपन डालने वाला भीरुभिर्यो (timid people) का साथ सहवास या
सहचर्य पूर्णरूप में बंद करना और आध्यात्मिकता से प्रकाशमान लोगों का सान्निध्य
में सांगत्य में अधिक से अधिकतर रहना चाहिये!
‘इस मधुमेह (diabetes) व क्षय (Tuberculosis) व्याधि आप का
कुटुंब (Family) में वंशपारंपर्य
(Hereditary) में आनेवाला व्याधि’ ऐसा करके हर एक वैद्यी (Doctor) बोलना साधारण है! व्याधि जो है वह भौतिक रूप में अथवा यांत्रिकरूप में
एक से दूसरे को संप्रदित यानी आनेवाले चीज नहीं है! स्थूलशरीररहित जीवात्मा जिस में ऐसा रोग
लक्षण बीजरूप में है वह इस कुटुंब (Family) को आकर्षित हुआ
ऐसा कहेगा आध्यात्मिक वैद्य!
हमारे में जन्म जन्मों से स्थान लिया हुआ
क्रमशिक्षणाराहित्य, प्रमत्तता, आरोग्यसोत्रों को पालन नहीं करना, ध्यान नहीं करना, इत्यादि दुष्टलक्षण
बीजों को समूल निर्मूलन करना अत्यंत आवश्यक है अथवा हम वर्तमान में जितना भी
आरोग्यवान होने से भी शारीरक रुग्मतायें हमको आक्रमण करेगा! तस्मात् जाग्रत! कभी
प्रमाद (accident) हुआ अथवा रोग आ
गया था, उस परिस्थिति
पुनरावृत्ति हो जायेगा करके डरना नहीं, गतम् गतः ऐसा शोचिये! डर को डराइये!
मरण के लिए भयभीत नहीं होना! शरीर जब
रोगग्रस्त होता है तब मरण एक औषधि है! शारीरक, मानसिक और आध्यात्मिक बाधावों से मरण एक
उपशमन है! जब डर लगता है तब श्वास दीर्घरूप से आस्ते आस्ते अन्दर लीजीये, थोड़ा देर रोख के
रखना, वैसा 15-20 बार करना!
निपुणता:
हम अपना कार्यो
को क्रमशिक्षण से सक्रमरीती में नहीं करना ही इस जन्म में निपुणताराहित्य का हेतु
है! उन गलतियों को सही करके अपना निपुणता वृद्धि करने का एकैक मार्ग
क्रियायोगध्यान है!
शांति सौभाग्य:
शांति सौभाग्य
पाने के लिए क्रियायोगध्यान ही शरण्य है! बाल्यावस्था में ही साधन आरंभ करना आवश्यक है!
आलसीपन को आदत हुआ शरीर बाद में ध्यान करने को अनुकूल भी नहीं होगा और सहकार भी
नहीं करेगा! ध्यान समय में हमको मिलनेवाली शांति और आनंद परमात्मा हमारा
प्रार्थाना को स्वीकार करने का तात्पर्य व उनका करुणा का संकेत है! हर एक मनुष्य
सफलता ही चाहता है! कुछ लोग उस सफलता को साध्य के लिए श्रम करेगा, परंतु और कुछ लोग
सफलता मिलने तक उस कार्य को छोड़ेगा नहीं है! कोई भी कार्य को बीच में अधूरा छोडना
नहीं चाहिये! निरंतर अभ्यास से ही मनुष्य एक उत्तम इंजीनियर (engineer) व श्रेष्ट
वैद्यी (Doctor) व उत्तम कळाकार (Actor) आखरी में सबसे अधिकाधिक योग्य योगी बनेगा!
न्यूनताभाव यानी ‘मै अल्प हु, मै असमर्थ हु’ इत्यादि सब
अहंकार ही है! ‘मै स्त्री हु, मै पुरुष हु, मै उत्तम जाती का
हु’ इत्यादि सब भी
अहंकार ही है! हम सब परमात्मा का संतान था, है और होंगे! यह भावना नहीं असलियत है!
क्रियायोग ध्यान करेंगे, आनंद प्राप्ति करेंगे, वह ही असली शांति और सौभाग्य है!
पुस्तक पठनं:
हर दिन ध्यान का
बाद पुस्तक पठनं करना उत्तम होगा! अच्छी ग्रंथों यानी श्रीभगवद्गीता, उपनिषद, शास्त्र, ग्रंथ इत्यादि
पठनं करना उत्तम होगा! विद्यार्थियों को अपना अपना पाठ्य ग्रंथों को आस्ते आस्ते
समझते हुए पडना चाहिये, उपन्यास (novel) जैसा पडना नहीं
चाहिये! नक्षत्रों ग्रहों को प्रभावित करता रहता है! ग्रहों और मानवशरीरों दोनों
परस्पर आकर्षण विकर्षण का आधीन में रहता है! इसीलिये नक्षत्रों मानवशरीरों को
प्रभावित करता रहता है!
जिस मनुष्य का
दुष्ट प्रवृत्ति है उस का विचारों अंतरिक्ष में इस का पहले ही अस्तित्व हुआ
दुष्टस्वभावी वातावरण का साथ आकर्षित होगा! समय मिलने पर क्रिया निरंतर करना ही इस
का परिष्कार मार्ग है! निष्णात लोगों से क्रियायोग ध्यान सीखना चाहिये!
भौतिक मानसिक कायाकल्प चिकित्सा:
मनुष्य अपना शरीर का अणुवों को अपना मेधा
ही चला रहे जैसा भावना करना चाहियें और ऐसा समझना चाहियें! मानसिक संकुचिता को
अपना अन्दर स्थान नहीं देना चाहिये! विषपूरित, निराशा, निस्पृह, निरुत्साह, असंतृप्ति इत्यादियों को स्थान नहीं देना चाहिये! आत्मविश्वास का साथ
सही निर्णय आत्मविमर्शन करके लेना चाहिये! जब हमारा आध्यात्मिक रुग्मता प्रबल होने
से सद्गुरु का शरण पाईये! सद्गुरु का सलहा लेते रहना, अज्ञान और
विवेकरहित कार्यों नहीं करना!
परिवर्तन:
परिवर्तन सहज है! स्रष्टि में हर एक अणु
नित्यं प्रतिक्षण बदलेगा, बदलना और बदलता ही रहता है! अपना अपना कर्मानुसार इस भूमि का उपर निवास
करके बंधुओं, मित्रों और माता पिताओं इत्यादियों का मनोरंजन करके समय आने पर परिवर्तन
के लिए अन्य शरीर धारण के लिए इस शरीर को त्यागना सहज है! मातृ गर्भ मे होने का
समय में ही अहंकार का अस्तित्व शिशु में होगा! मातृ गर्भ से बाहर निकलने का पश्चात
बाल्य, यौवन, कौमार और वार्धक्य अवस्थावों में भी अपना अस्तित्व दृढ करेगा! शरीर में
होने और आनेवाली परिवर्तनों को ध्यान करेगा मन! शरीर में होने और आने वाली
परिवर्तनों का हेतु मन में होने और आनेवाली परिवर्तनों का उपर ध्यान करेगा अहंकार!
इस अहंकार और मन दोनों का पीछे परिवर्तनरहित व रूपांतररहित शुद्धात्म होता है! मनुष्य दिव्यात्मस्वरूप है!
नित्य नूतन यौवन चेतना ही मनुष्य का वांछ है!
मै खा रहा हु, मै धौड रहा हु, मै बात कर रहा हु, मै चल रहा हु—इत्यादि सब में ‘मै’ है! सब ‘मै’ का ‘मै’ यानी सर्वोत्तम सर्वश्रेष्ठ ‘मै’ जो है वह ‘मै’ ही नित्यचेतना नित्यस्थितिवंत और
नित्यानंद स्वरूपी आत्मा है! ‘मै’ और ‘मेरा’ जैसा भावना ही अहंकार है! इस अहंकार का हेतु सुख, दुःख, आरोग्य, अनारोग्य, ऐश्वर्य, दरिद्रता इत्यादि
भावना होता है! भावना ही मोह का मार्ग है! इस का तात्पर्य सब विषयों को एक पत्थर
जैसा भुगतने का नहीं है! इन को पार करने का निवारणोपाय ढूंढना चाहिये! उसी समय में
क्रियायोग साधना का माध्यम से सहिष्णुता वृद्धि करके उन भावनों का प्रभावित नहीं
होना चाहिये!
वार्धक्य शरीर को होता है मन का नहीं होता
है! परंतु जगत में होता हुआ परिवर्तनावों का ध्यान करता हुआ मन हमेशा के लिए नित्य
यौवन में हो नहीं सकता है! मन में भी परिवर्तन आरंभ होगा! बाल्य, यौवन, कौमार्य और
वार्धक्य सभी अवस्थाए में मन में परिवर्तन तदानुगुण अवश्य होगा! आध्यात्मिक रूप
में वृद्धि नहीं हुआ अथवा अज्ञानत़ा का हेतु परिवर्तन नहीं हुआ व्यक्ती आत्मा का
अस्तित्व का नहीं पहचानेगा परंतु आत्मा का प्रतिबिंबित (Reflection) अहंकार को (Pseudo soul) अवश्य पहचानेगा! यह सापेक्षता (Relative) अहंकार भी
शाश्वत है! यह जन्म जन्मों उस
व्यक्ति का साथ छाया जैसा होगा! परंतु स्थूलशरीर पतनानंतर यह अहंकार उस शरीर व
जीवित संबंधित स्मृति का अपना साथ लेकर नहीं जाएगा! यन्त्र (Machine) खराब होने पर यन्त्र को तयार करने वाला मरेगा
नहीं! वैसा ही स्थूलशरीर
पतनानंतर अहंकार नहीं मरेगा!
शक्ति पुनरुद्धरण (Rejuvenation):
थका हुआ स्थूल और सूक्ष्म (मनसिक) शरीरों
में शक्ति पुनारुद्धरण के लिए विश्रांति आवश्यक है! शरीर का हर एक अंग को तनाव (tense) डाल के रिलाक्स (relax) करने से स्थूलशरीर को शक्ति पुनः वापस आयेगा! गहरा नींद में मोटार (Motor nerves) और सेंसार (Sensor nerves) नाड़िया से मन और शक्ति अचेतनात्मक (Unconscious) उपसंहरण (withdraw) होगा!
क्रियायोग ध्यान द्वारा हृदय, फेफड़े और अन्य
अंगों को पूरा विश्रांती मिलेगा!
उसका हेतु शरीर में शक्ति का पुनरुद्धरण
हो,जायेगा! शरीर व्यामोह ही मरणभय का हेतु है! हम कर्म भुगतने के लिए स्थूल
शरीरधारण करते है! कूटस्थ में दृष्टि लगाके अर्धनिमीळित नेत्रों से सोना अभ्यास
करना चाहिये क्योंकि वह हमको समाधिस्थिति में ले जाएगा!
मरण-विविधस्थितियाँ:
कणों (Cells) का जन्म लेना और मरना निरंतर शरीर में होता
रहता है!
1) मेरुदंड 2) मस्तिष्क और महत्वपूर्ण 3) मेडुलाआबलम्बगेटा (medulla oblongata) इन तीनों से जब
प्राणशक्ति का उपसंहरण होने से तब उस को मरणं कहते है! श्वास और नाडी (Pulse) बंद होना, अवयवों अंगों और कणों (Cells) का ठोस बनना (solidify) ये सब मरण नहीं है!
मेरुदंड वृक्ष (Tree of
life) जैसा है! मनुष्य का केश वृक्ष का जड़ जैसा
है! सेंसर (Afferent-sensor) और मोटर (Efferent-motor nerves) नाड़िया वृक्ष का शाखाये (Branches) जैसा है! शरीर का
सारे भागों (Parts) इन नाड़िया द्वारा ही
जोड़ा (Connect) होता है! मनुष्य का
प्राणशक्ति मेडुला आबलम्बगेटा
(medulla oblongata) में केन्द्रीकृत होता है! मेडुलाआबलम्बगेटा में कुछ भी अपाय होने
से मरणं तथ्य है! वृक्षों में
प्राणशक्ति हर शाखा में होता है और मनुष्य जैसा मेडुलाआबलम्बगेटा में यानी एक ही जगह
में केन्द्रीकृत नहीं होगा! इसी हेतु वृक्ष का शाखा को बोनेसे भी उसी जाती का वृक्ष आ सकता है! परंतु मनुष्य का हाथ या टांग काटके भूमि का अन्दर बोके उस से दूसरा
मनुष्य जीव को पैदा नहीं कर सकेगा!
गति प्रदान करनेवाली मोटर (Efferent-motor nerves) नाड़िया अपना शक्ति को पूर्णरूप में खोना को (paralise), झिल्ली (membranes) अपना शक्ति को पूर्णरूप में खोना (Muscular Paralysis) ये दोनों मरण का मुख्य कारण है! नासिका, जीब, नेत्र, चर्म और कर्णों को ज्ञानेंद्रियों कहते
है! सेंसर (Afferent-sensor
nerves) नाड़िया गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द संदेशों को मस्तिष्क में
नहीं भेजने से भी मरण संभवित होगा! स्थूलशरीर त्यागने का समय में क्रमशः गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द शक्तियों को जीवात्मा खो
बैठेगा!
मरणानुभव:
टांग अथवा हाथ सोजाना जो है साधारण तोड़
में हम सब को अनुभवी चीज है! उस समय में वह भाग मरा हुआ का समान है! उस में कोई
चलनं नहीं होगा! वह भाग (Part) हिला नहीं सकते है! नेत्र का नसों मरने यानी गतिरहित होने तक नासिका और
जीब मर जाना गतिरहित होना व्यक्ती देख सकेगा! गहरा नींद जैसा बाधारहित चेतना को
थोड़ा समय मेरुदंड ने अनुभव कर सकता है! पक्षवात (paralysis) होके मराहुआ भाग
(part) को कुछ पत्थर
जैसा ठोस (Hard) वस्तु से ठक्कर
लगाने से भी दर्द (Pain)
नहीं महसूस होगा!
वैसा ही क्रमशः स्पर्शरहित होनेवाली टांगों, हाथ, नीचे का उदर (Abdomen), जिगर (Liver), उपर का उदर (Stomach), हृदय और मस्तिष्क ये सब मरणसमय में
व्यक्ती को दर्द (Pain) नहीं महसूस होगा परंतु फेफड़ों में दर्द (Pain) महसूस होगा!
श्वास नहीं मिलना अत्यंत बाधाकार है! यह असल में मानसिक बाधा है!
प्राणशक्ति क्रमशः मॉसपेशी (Muscles), हृदय और
इन्द्रियों से उपसंहरण (withdraw) हो जायेगा! उपसंहरण (withdraw) किया गया प्राणशक्ति
मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार चक्रों में निक्षिप्त कर जायेगा! आत्म केवल स्थूलशरीर को त्याग के
सूक्ष्म प्रपंच में तात्कालिक कदम रखना ही मरण है! अंधेरा में भूत प्रेत पिशाच
होता है करके कल्पित कहानियों सुनके लोग भयभीत होते है! वैसा ही मरण का बारे में
भी अनुभवसून्य लोगों का कल्पित कहानियों सुनके लोग भयभ्रांत होते है!
भगवान रमण महर्षि जीवित होता हुआ मरणानुभव
प्राप्त किये है! मै स्वयं तीन से अधिक बार मरणानुभव प्राप्त किया और
अपस्माराक्स्थिति (Coma-unconscious state) मे भी कदम रखा हु! मरण दीर्घनिद्रा जैसा
है!
जननं वृद्धि होना, कष्ट, नष्ट, मरण ये सब
परमात्मा का स्वप्न ही है! हम जो भयंकर स्वप्न अथवा अन्य स्वप्न ये सब आत्मा का दिव्यत्व को भूलने को दोहद
करेगा! साधारण व्यक्ति मरण को एक भयंकर भौतिक मानसिक विषय जैसा ऊहा करेगा!
आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करके अपना अमरत्व और दिव्यत्व जानगाया क्रियायोग साधकों
के लिए मरण एक अत्यद्भुत भौतिक मानसिक अनुभव है!
भौतिक शरीर एलक्ट्रान और प्रोटान (Electron & proton) इत्यादि परमाणुओं
का चेतनापूर्वक सम्मेळन है! मरण में नाश होनेवाली इस शरीर का मॉस द्रवों, वायुओं, शक्ति इत्यादि सब धूल (Dust), वायु और प्रकाश (Light) जैसा रूपांतर होते है! शक्ति और सृष्टि का हर चीज परमात्मा का चेतना
अथवा विचार है! जननम्, श्वास, हृदय का लब-डाब
रक्तप्रसरण, पाचन (Digestion), सुख, दुःख, शीतल, उष्ण इत्यादि सब
आखरी में मरण ये सब मानसिक कार्य है! इन सब को परमात्मा ने मानावाचेतन में व्यक्तीकरण किया है!
परिवर्तन:
कुछ लोग बदलना चाहता है परंतु अपना अपना
बुरा आदतों को बदल नहीं सकते है! निरंतर सत्पुरुषों का सांगत्य में इच्छाशक्ति का
उपयोग करके अपना बुरा आदतों को बदल सकते है! ऐसा बदलना अत्यंत आवश्यक है नहीं तो
दुष्कर्म इन कष्ट, व्याधि, ऋण इत्यादि रूप में पीछे पडेगा! परमात्मा प्रसादित इच्छाशक्ति को दृढ
निश्चय से उपयोग नहीं करना ही जीवन में असफलता को मुख्यकारण है! इच्छाशक्ति को दृढ
निश्चय से सही उपयोग करके इस प्रपंच को
कंपित कर सकते हो! प्राणशक्ति और चेतना दोनों को जोड़ने वाली इच्छाशक्ति ही है!
हमारा शरीर में कई सैकडों वर्षो तक मिलनेवाली प्राणशक्ति करेंट (current) है! कुछ अननुकूल
परिस्थिति आने से तुरंत ‘मै थक गया हु’ करके इस इच्छाशक्ति को त्यागते है! इच्छाशक्ति को और लक्ष्य को त्यागने का व्यक्ति मरा हुआ
व्यक्ति का समान
है! वैसा व्यक्ति एक जड़ पदार्ध है! मरण समय में होनेवाली बाधा को इच्छाशक्ति से
पराजित करना चाहिये! पुनर्जीवित होकर क्रियायोग साधना जारी रखना चाहिये!
अपना अभिप्रायों को संतान का उपर जबरदस्ती
नहीं डालना चाहिये! जबरदस्ती अपना बच्चों का इच्छाशक्ति को बदलने का प्रयत्न नहीं
करना चाहिये! श्रद्धा भक्ति आर्द्रता नहीं हुआ पुराणा प्रार्थना पद्धातियां श्री
परमहंस योगानंदा स्वामीजी को पसंद नहीं होते थे! स्वामीजी अपना आत्मा से हृदय से
करनेवाले प्रार्थना पद्धातियां को बाद में बहुत आदरण हुआ! बच्चों को क्रियायोग
साधना सिखवाइये, उन बच्चों का साथ बैठ के खुद कीजिये! परमात्मा से तादात्म्य होकर निर्णय
लेना बच्चों का उपयोगाकारी भी उत्तम भी अवश्य होगा!
आहार:
आहार और आरोग्य का मध्य मे परस्पर संबंध
है! मनुष्य और आहार दोनों का कणों में मेधा छिपा हुआ होता
है! मन और मस्तिष्क का कणों दोनों में मेधा अपना प्रभाव अवश्य दिखाएगा! कच्चा
सब्जियों, काष्ठफल (nuts), आहार जैसा लेना व्यक्तियों में प्राणशक्ति अविघ्न रीति में प्रवाहित
करेगा! यह आरोग्यकर है! जरूरत से अधिक तरह से पका हुआ सब्जियों अपना शक्ति को खो
बैठेगा और अनारोग्य भी है!
मांसाहार में वध किया हुआ उस जीव का बाधा, भय, आक्रोश, आवेदन और क्रोध
इत्यादियो का स्पंदनों निक्षिप्त होता है! ऐसी आहार लेनेवालों में प्राणशक्ति सही
तरह से प्रवाहित नहीं होगा! यह खानेवाला का मन
आह्लादकार नहीं होगा और अनारोग्य भी है!
मन को हर समय भौतिक विषयों और भौतिकशरीर
का उपर केंद्रीकृत करने से मोह अधिक हो जायेगा! अनंत का उपर ध्यान करना चाहिये!
ध्यान में ध्याता, ध्येय और ध्यान तीनों एक होना चाहिये! मस्तिष्क जो है वह प्राणशक्ति
भांडागार है! तकड़ा या जोर से शिर का उपर मार लगने से नक्षत्रों (stars) दिखाईदेगा! ये सब
नक्षत्रों प्राणशक्ति का चपला (lightnings) ही है शरीर का झिल्ली, हृदय, फेफड़ों (Lungs), डयाफ्रं (Diaphragm)
इन का गति (Movement)
के लिए प्राणशक्ति चाहिये! कणविभाजन (Cellular
Metabolism), रक्त का रासायनिक परिवर्तन के लिए प्राणशक्ति चाहिये! सेंसरी और मोटर
नाड़ियों का काम के लिए प्राणशक्ति चाहिये! विचारे और भावनावों और वांछों के लिए
प्राणशक्ति चाहिये! इन सब के लिए प्राणशक्ति कुण्डलिनी द्वारा बहुत खर्च होता है! सेल फोन (Mobile
phone) का बाटेरी (Battery) बार बार (often) चार्ज (Charge) करता रहना चाहिए नहीं तो वह फोन (Mobile phone) हम को उपयोगकारी
नहीं होगा! वैसा ही कुण्डलिनी द्वारा बहुत खर्च होनेवाली प्राणशक्ति का हेतु शरीर
बलहीन होकर थक जाएगा, आखरी में
रोगग्रस्त होकर और मर जायेगा!
क्रियायोग साधना का माध्यम से कुण्डलिनी जागृति करना चाहिए! कुण्डलिनी जागृति
करना का तात्पर्य शरीर को पुनर्जीवित करना ही है! क्योंकि कुण्डलिनी जागृति का
हेतु शरीर से बाहर वृधा गया प्राणशक्ति फिर सही उपयोग में वापस आयेगा! हर दिन सुबह
और शाम को नियमानुसार अवश्य इस क्रियायोग साधना करना चाहिये! इस का हेतु भावना केंद्र हृदय और तार्किक
केंद्र मन दोनों एक हो जायेगा! ऐसा करके हमारा प्रेम को परमात्मा को भेजना और उन
का प्रेम और शक्ति को लभ्य करते रहना है! धन का अवसर मनुष्य को अवश्य है! परंतु उस
धन को सही मार्ग में उपयोग करने से वह हम को प्रयोजनकारी होगा, नहीं तो हानिकारी
होगा! धन ही सब कुछ नहीं है! सब से बढ़कर क्रियायोगसाधना ही महत्वपूर्ण धन है!
आत्मा और परमात्मा एक ही है! समुद्र और
समुद्र का तरंग एक ही है! समिष्टि परमात्मा को व्यष्टि में आत्मा कहते
है! आत्मा का अनुसंधान कर पाने से परमात्मा का साथ अनुसंधान होई गया करके समझ सकते
है! एक रक्त बूंद में मधुमेह (Diabetes) होने से उस
व्यक्ति का समस्त रक्त में मधुमेह (Diabetes) होगा ही! श्वास को क्रियायोग साधना का माध्यम से
नियंत्रण करने से आत्मा का साथ अनुसंधान हो जायेगा! इसी को प्राणायाम मार्ग कहते है! ‘नेति नेति’ कहके सब को त्याग
के ब्रहमपदार्ध में पहुचने को ज्ञानमार्ग कहते है! मै मन नहीं हु, मै बुद्धि नहीं हु, मै इन्द्रियों नहीं हु, मै विचारें नहीं हु, मै चित्त (भावना) नहीं हु, मै अहंकार नहीं हु, वैसा आगे बढ़ने को ज्ञानमार्ग कहते है! परंतु यह अधिक जटिल
है! ‘अहम् ब्रह्मास्मि (मै स्वयं परामात्मा हु), सर्वं खलु इदं ब्रह्मा’ (सर्व ब्रह्मा
पदार्ध से भरा है)! तब कुछ भी मै नहीं हु ऐसा शोचना भी सही नहीं है!
ज्ञानावतार श्री युक्तेस्वर स्वामि
श्रीमद्भगवद्गीता सीखने के लिए श्री दब्रुभल्लव का पास जाते थे! श्री दब्रुभल्लव पाठ सिखाने पद्धति सब से वैविध्य है! हर एक श्लोक चार या पाँच बार पढाके उस
श्लोक का उपर ध्यान कराते थे! तब गुरु श्री दब्रुभल्लव उस श्लोक का उपर व्याख्यान करेगा! पुनः उस श्लोक का व्याख्यान का उपर
थोड़ा समय ध्यान कराते थे! पवित्र ग्रंथों समझता हुआ थोड़ा थोडा पढना चाहिये! तब
आत्मसाक्षात्कार के लिए दोहद करेगा! ‘कितना ग्रंथ पढ़ा” यह मुख्य नहीं, ‘कितना ग्रहण किया’ यह मुख्य है!
अर्थरहित अनुभवरहित ग्रंथ संख्या आहामकार को वृद्धि करेगा! आत्मसाक्षात्कार लभ्य
होना ही पवित्र ग्रंथों का मुख्य उद्देश्य है!
श्री रामकृष्ण परमहंस ऐसा कहते थे—‘अविद्यापरो को देख
के सहानुभूति करता हु, आत्मसाक्षात्कार लभ्य हुआ विद्याविहीन को प्रेम करता हु, आत्मसाक्षात्कार
नहीं प्राप्त किया विद्वान या पढालिखा मूरख लोगों को तृणप्राय समझता हु’, वैसा ‘आत्मसाक्षात्कार’ का बारे में
पूछनेवाले मूरख लोगों को हवा में उड़ा देता हु, परंतु आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया
विद्वान लोगों को गौरव करता हु, प्रेम करता हु, और आश्चर्यजनक होता
हु!
प्रथम में क्रियायोग साधना करना चाहिये! आत्मसाक्षात्कार प्राप्त
करना चाहिये! उस का पश्चात शास्त्र ग्रंथों पढ़ना चाहिये! तब वो अच्छीतरह समझ
आयेगा! कार (Car) चलाना ग्रंथपठनं से नहीं आयेगा और ग्रंथपठनं से नहीं समाप्त होना चाहिये!
प्रत्यक्ष रूप में अभ्यास करके सीखना आवश्यक है! वर्षों से किया शास्त्र ग्रंथपठनं
एक घंटा साधना का समान नही है और न ही हो सकता है!
साधारणमानुष्य - योगी:
साधारण मनुष्य अहंकार से सब कार्य स्वयं
ही करता हु ऐसा शोचके जीवन बिताएगा! परमात्मा ही धर्मबद्धयुक्त सर्वकार्यों अपन
द्वारा करा रहे ऐसा शोचटा हुआ जीवन बिताएगा क्रियायोगी! साधारण मनुष्य धन का अवसर
अत्यंत प्राधान्य है! योगी का भी धन का अवसर होता परंतु धन ही मुख्यावसर नहीं है!
आध्यात्मिक अथवा लौकिक कार्यो दोनों
सत्ययुक्त व्यापार सिद्धांतों का आधार होकर करना चाहिये नहीं तो जीवन दुःखमय होगा!
कार्य भले अच्छा होने पर भी सही ढंग से
योजना बनाके तयारी करना चाहिये! सही ढंग से योजना बनाके करना चाहिये! बिना सोचके
कभी भी नहीं करना चाहिये अथवा निरर्थक हो जायेगा! व्यापाराभिवृद्धि के लिए
आध्यात्मिकता को उपयोग करना अत्यंत कल्मष है और क्षमारहित दोष है!
स्वर्ण थाली (Plate) में खाने से भी
अथवा साधारण थाली (Plate) में खाने से भी
कोई फरक नहीं है! जो भी थाली (Plate) में खाने से भी वह
हमारा भूक (Hunger) मिटायेगा! इधर थाली (Plate) मुख्य नहीं उस में दिया हुआ भोजन मुख्य
है! अर्थहीन भौतिक सदुपायों का उपर दृष्टि रखा के समय वृधा नहीं करना चाहिये!
अधिकाधिक समय क्रियायोग साधना के लिए उपयोग करना अत्यंत आवश्यक है!
कर्म सिद्धांत:
वांछनीयता अथवा इचछाओं (Wants) से विमुक्त हो जावो
नहीं तो उस इचछाओं को संपन्न (fulfil) करने के लिए पुनः इस पृथ्वी पर जन्म लेना पडेगा! क्रियायोग साधना अवश्य
करो, प्राणायाम
पद्धतिया सीखो, तुम्हारा इचछाओं से विमुक्त हो जावो! केवल इस
ध्यान द्वारा ही परमात्म तुम से बात करेगा! ध्यान में जितना शांति पायेगा उतना ही
तुम परमात्म का सामीप में जाएगा! परमात्म चेतना का साथ ही कार्य आरंभ करो! हर एक
कार्य परमात्म का कार्य समझो! परमात्मा के लिए ही कार्य कर रहा हु ऐसा समझके
अत्यंत श्रद्धापूर्वक आनंदित होके कार्यो करो!
माहायोगियों:
परिपूर्ण मुक्ति प्राप्त किया पुण्य
पुरुषों को माहायोगियों कहेगा! वे पिछले जन्मों में ही मुक्ति प्राप्त करके केवल
मानवाळि का उपर दया का हेतु परमात्मा का साथ अपना अस्तित्व (Anchored to God) रखता हुआ इस भूमि का उपर अपने आप को
व्यक्तीकरण किया कारणजन्म लोग है ये! वे साधारण साधकों जैसा परमात्मा का साथ संबंध बनाने में श्रम करने का
आगत्य नहीं है! वे कर्मरहित है! ‘पुनरपि मरणं पुनरपि जननं पुनरपि जननी जठरे
शयनं’ इस आर्योक्ति इन महापुरुषों लोगों का वर्तित नहीं होगा! यह आर्योक्ति
साधारण लोगों के लिए वर्तित होगा! केवल परमात्मा का प्रीती के लिए और मानवाळि का
हित के लिए ये कारणजन्म लोग जनम
लेता है! वे लोग साधारण व स्वाभाविक मरण प्राप्त कर सकते अथवा अपना शरीर को
परमात्मा का साथ विलीन भी कर सकते है! वे जन्म (birth) का पहले और बाद में भी मुक्त है! वे जन्म लेने का पहले ही मुक्त है इसी
हेतु पुनः मुक्त होने को अवसर नहीं है! उन को देख के सीखने का रीति में उन
महापुरुषों का प्रवर्तन होता है! कर्मरहित लोगों का उपर जन्म (birth) जबरदस्ती नहीं
आयेगा! कर्म अवशेष होने से ही पुनः जन्म होगा! कर्म सुकर्म होने से भी दुष्कर्म
होने से भी कर्म अवशेष होने से ही पुनः जन्म होगा!
भूक लगा हुआ मनुष्य को आहार देना सही है!
उस को आहार को कैसा संपादन करना सीखना आहार देने से भी उत्तम है! उस को अपना
मानसिक शक्ति को वृद्धि करना जिस का माध्यम से सर्वविधों से अपने आप को सुधारना, सिखाना और भी उत्तम है! निष्णात् क्रियायोग
साधकों को दिखाके उन का पास भेजने को सहायता करके क्रियायोग सिखाने को दोहद करना
सर्वश्रेष्ठ है! आहार लेने का तीन घंटो का पश्चात क्रियायोग साधना कर सकता है!
साधना में तीव्रता और अधिक समय करना दोनों जरूरत है! साधना कम से कम दो घंटे करना
चाहिये! सुख, शांति, आनंद लभ्य होना ही परमात्मा का समीप में आने का संकेत है! इसी कारण
साधना समाप्त करने का बाद तुरंत उठना नहीं चाहिये! समय देखता हुआ नाम के वास्ते
साधना करना अविवेक है! आदते दुष्ट हो, शिष्ट हो, दोनों को मनुष्य का अन्दर स्थिर होने को
आठ वर्ष लगेगा! इसी कारण क्रियायोग साधन कम से कम आठ वर्ष करके अच्छी बीज डालने से
हम को अधिक से अधिक उपयोगकारी होगी!
साधक जब अधिचेतानावस्था में प्रवेश करने
से परमात्मा शब्द को निश्शब्द स्पंदन नित्यानूताना आनंद, प्राकाश और प्रेम
जैसा आस्वादन यानी अनुभव व ग्रहण करेगा! इसको सविकल्प समाधि कहते है! साधक जब अपना
शरीर और इस जगत सब पानी का बबूला (water bubble) जैसा अवलोकन (Observe) कर सकने से तब वो परमात्मा चेतना यानी साम्राज्य
में प्रवेश किया करके परिगण में ले सकता है! इसी को निर्विकल्प समाधि कहते है!
अष्टांगयोग:
पतंजलि महर्षि से प्रसादित किये
अष्टांगयोग के आठ अंग है! वे हैं:---
1) यम=अहिंसा, सत्यं, आस्तेयं(चोरी नहीं करने का निश्चय), ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह यानी अन्यों से जो भी चीज नहीं
मांगना!
2) नियम=शौचं (शरीर और मन दोनों को शुद्ध
रखना), संतोषं (तृप्ति), स्वाध्यायं (शास्त्रपठनं), ईश्वरप्रणिधानं यानी परमात्मा को अंकित
होना!
(शास्त्रपठनं) = श्वास को अस्त्र जैसा
उपयोग करना ही श्वास्त्र है! श्वास्त्र श्वास्त्र कहता हुआ शास्त्र बन गया! अपना
श्वास को अस्त्र जैसा पठनं व पढाई करना ही शास्त्रपठनं है! इस का तात्पर्य ये है
की ‘सोऽहं’
प्राणायाम पद्धति
करने को शास्त्रपठनं कहते है!
3) आसन = ध्यान में बैठने
में स्थिरत्व साध्य करना!
4) प्राणायाम= श्वास को नियंत्रण करना!
5) प्रत्याहार= इन्द्रियों को इन्द्रिय
विषयों को उपसंहरण (withdraw) करना! नाक का विषयवृत्ति गंध, जीब का विषयवृत्ति रस व रूचि, नेत्र का विषयवृत्ति देखना, चर्म का विषयवृत्ति स्पर्श, कान का विषयवृत्ति शब्द, इन सब से मन को उपसंहरण (withdraw)
करना है!
6) धारण= वस्तु एकाग्रता!
7) ध्यान= केवल परमात्मा का उपर ही निरंतर
एकाग्रता रखना!
8) समाधि= सब रूपों को विसर्जित करना, और परमात्मा में ऐक्य होना!
धारण, ध्यान और समाधि इन तीनों को मिलाके सम्यक समाधि कहते है!
ध्यान बीज से आरंभ करके निर्बीज होना
चाहिए!
न तस्य रोगों न जरा न मृत्युप्राप्तस्य
योगाग्निमयं शरीरं!
रोग, बुढ़ापा, मरण इन सब को त्याग के साधक योगाग्नि से
प्रज्वरिल होना चाहिए!
उपनयनं:
उप= सामीप में, नयनं= नेत्रं, यानी उपनयन का अर्थ
परमात्मा का समीप का नेत्र यानी तीसरा नेत्र है! इसीलिये उस तीसरा नेत्र खोलने से
परमात्मा का साथ अनुसंधान अवश्य मिल सकेगा! उस तीसरा नेत्र खोलना ही असली भक्तियोग
है! इस को दोहद करनेवाली केवल क्रियायोग साधना ही मार्ग है! क्रियायोग साधना ही
कर्मयोग है!
यज्ञोपवीतधारण:
यात् ज्ञात्वा मुक्तिं प्रदाति इति
यज्ञम्! इस का अर्थ जिसको जानने से मुक्ति लभ्य होगा उसको यज्ञम् कहते है!
परमात्मा को समीप होने के लिए धारणा यानी एकाग्रता करना चाहिये! परमात्मा का समीप
में होने से ही मुक्ति मिलेगा! वैसा मुक्ति के लिए ज्ञानप्राप्ति प्रसादित
करनेवाली यज्ञ ही यज्ञोपवीतधारण है! इस के लिए ‘मै तीव्रता से क्रियायोग साधना करूंगा’ ऐसा प्रमाण करके
धरनेवाली कंकण ही यज्ञोपवीतधारण है!
पॉचशिखों:
पॉचशिखों पॉचमहाभूतों का
प्रतीकें है! पॉचमहाभूतों को साक्षीभूत बना कर मै इस यज्ञ करूंगा ऐसा प्रतिज्ञ
करने को शिरस में पॉचशिखों रखेगा साधक! मुक्ति और ज्ञान प्रसादित करनेवाली इस यज्ञ
के लिए अग्नि का सामने साधक प्रमाण करता है!
गायत्रीमंत्र:
ॐ भूर्भवस्वः तत्सवितर्वरेण्यम्
भर्गो देवश्य धीमहि धियो योनः
प्रचोदयात्
ओ ॐकार, तुम्ही प्रणव स्वरूप है, दुःखनाश स्वरूप है, सुख स्वरूप है, भगवान का श्रेष्ठ
और पापनाश तेजस को ध्यान करेगा! तुम्हारा उस प्रकाश हमारा मस्तिष्कों को प्रेरणादायक हो जाएगा!
गायंतं त्रायते इति गायत्री यानी इस मंत्र
को जितना गायेंगे इतना हम को इस भवसागर से रक्षा करेगा! इसी हेतु इस को गायत्री कहते है!
ॐकार का वर्णन (Description) ही गायत्री मंत्र है! इस ॐकार का आसरा से
ही हम ज्ञानप्राप्ति करेंगे तत् पश्चात् मुक्ति लभ्य करेंगे!
आपस्तंभसूत्र:
असंगो शब्दों शरीरों स्पर्शश्च महान्
शुचिः
परमात्मा अवयावाराहित है, शब्द स्पर्शादि
गुणरहित है, सूक्ष्मातिसूक्ष्म है, तारका का अतीत है, महात्म और शुद्ध
है!
आपः का अर्थ जल है! संसार जल जैसा है!
संसार नाम का स्तंभ का आधार प्राणशक्ति है! इस जड़ (inert) शरीर को परमात्मा का साथ जोड़नेवाली सूत्र
(thread) है प्राणशक्ति! क्रियायोग साधना करके प्राणशक्ति का नियंत्रण करना
चाहिये! तभी तो मन निश्चल हो जाएगा! वह ही मुक्ति का सीढ़ी (ladder) है! क्रियायोग
साधना करके प्राणशक्ति का नियंत्रण करके मोक्षसिद्धि प्रापत करना ही आपस्तंभसूत्र
है!
रहस्यम्:
मुक्ति प्राप्त करने के लिए करनेवाली
क्रियायोग साधना अत्यंत रहस्य है!
रहस्य का अर्थ रहित हास्ययुक्त यानी इस
क्रियायोग साधना बेकार नेत्र बंद करके बैठनेवाली चीज नहीं है! यह कान में
बोलनेवाली रहस्य नहीं, परंतु परमात्मा का साथ अनुसंधान करने के लिए तीव्रता से करनेवाली व्यापार
(Serious Business) है! यह ही इस का उद्देश्य है!
जयगुरु ॐ श्री योगानंद गुरु परब्रह्मणे नमः जयगुरु
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