श्रीविद्या उपासना
श्रीविद्या उपासना
परा पश्यंति प्रिया वैखरी श्री मंजुला मध्यमा
करुणा कटाक्ष लहरी कात्यायनी भारती
दुर्गांबा नवकोटिमूर्ति सहिता मांपाही माहेश्वरी
वेदांत का परमार्थ अद्वैत सिद्धांत ही है! हर एक
विचार का पीछे प्रणव नाद अथवा ॐकार इस का समर्थन करता है!
वेदांता का प्रणव नाद ॐकार है!
ह्रीम् और अहम् दोनों शिव का बीजाक्षर है!
प्रणव का अंत बिंदु अथवा शक्ति है!
सभी का द्रव्य कारण(material cause) बिंदु अथवा शक्ति
है!
सर्वव्यापी परब्रह्मन नियमरहित है! परब्रह्मन से ही
परमसत्य (entities) और नियमसहित सत्यों
सभी पाए जाते है! जो दिखाई दे रही चराचर जगत सर्वं इस अनंत पराबिंदु का ही भाग है!
शक्ति और शिव का अंतर्भाग सृष्टि और लया है!
वैभव, कृपा, और सौंदर्य का साथ
मिला हुआ इस आदिशक्ति नित्यासंतोषी है! हर एक मनुष्य जानेमे और अंजाने में आनंद ही
चाहेगा! यह ही सनातन वैदीक धर्मं का सार है!
अन्यदेव तद्विदिता दथो अविदिता दथि
इति शुश्रुम पूर्वेशाम येन स्तद्व्याच चक्षिरे
--- केन 4.1
परब्रह्मण जो ज्ञात है उस से निश्चय प्रकार से भिन्न
है, और जो अंजाम है उस से अतीत है!
महा त्रिपुरा सुन्दरी देवी अत्यंत सौंदर्यवती और
ज्ञानवती है!
स्र्यष्टि, स्थिति, और लयकारिणी है! व्यक्तीकरण का हेतु
सातवा, रजो, और तमो इति त्रिगुणों, पृथ्वी, आपः (जल), तेजो (अग्नि), वायु, आकाशो इति पंच महाभूतों इन आठ छीजों
का अधिकारिणी है!
वह
मा जो स्थूलरूप में प्रात्र्थाना करते है उन भक्तो को त्रिपुरभैरवी जैसा रूप में
दर्शन देगी! मा का असली रूप अनंत परामात्मा ही है!
मंत्रध्यान
का माध्यम से उस अम्मा को क्रिया शक्ति रूपी श्रीदेवी जैसा दर्शन कर सकते है! इसी को अनावोपाया मार्ग यानी कांति कहते है! इस
ध्यान को क्रिया कहते है! इस मंत्र को बाहर सुनाई देने पुनः पुनः उच्छारण करते है!
श्री देवी मंत्र स्वरूपी शरीर है!
विमर्शना
शक्ती ही आत्मावाबोधा है! उस का माध्यम से अम्मा का शरीर का वर्णन होता है!
साधना
सफलीकृत होकर, और उस
साधना का माध्यम से उस देवता लभ्यहोनेपर उसी को श्रीविद्या कहते है!
उन
श्रीविद्या का वाचिकोच्छारण ही पंचादशि मंत्र उच्छारण है! उन अम्मा का दर्शन करना ही श्रीचक्र है!
श्रेष्ठतर, उन का समानांतर कोई नहीं, अदभुत, चेतना स्वरूपी, और स्वयं प्रकाशी है अम्मा श्री महात्रिपुरसुंदरी
देवी! वह अम्मा अपना ही चेतना से कारण, सूक्ष्म, और भौतिक तीनों लोकों को पर्याप्त किया है!
अम्मा
ही पराशक्ति, परमशिव, और परब्रह्म है! तीव्र और निश्चल साधन करने पश्चात उस
अम्मा का दया लभ्य होता है! उस से साधक अपरिमित आनंद प्राप्त करेगा और असली सत्य प्राप्त करेगा!
परब्रह्म
अथवा परमात्मा चेतना ही शिव और शक्ति सरूप है! वह ही प्रकाश और परिवर्तन् है! शिव और
शक्ति उप्पर से देखने दो लगता है! परंतु परमात्मा चेतना वह दोनों का दो मुख है! आत्मा स्वयं प्रकाशी है! उस
में शिव भाव अत्यधिक है! उस का दूसरा भाव स्पंदना भाव है! वह ही विमर्शना है! वह
ही क्रिया अथवा शक्ति है! इस शक्ति हाव शिव भाव का वशमे ही काम करेगा, और करता भी है! इस में भौतिक प्रक्रिया नहीं होगे!
मानाशिका प्रक्रिया का ही प्रधानपात्रा है!
व्यर्थ
विचारों से हम अपने आपको पूरी तरफ से उपसंहरण करनापडेगा! हम मनका ही देखाना है!
इसी को सहजसमाधि कहते है! यह क्रियायोग का हाँ सा क्रिया ही है! प्रकाश को
दिखाईदेना अथवा जानने देना ही शिवभाव है! इस शिवभाव शब्द अथवा शक्तिभावा और चेतना
को लभ्य करदेता है!
पराशाक्ती
हे सर्वशाक्तियो का हेतू है! वह ही प्रप्रथम शक्ति है!
कारण, सूक्ष्म, और भौतिक पुरों तीनों को शक्ति देने हेतू
इस शक्ति को त्रिपुरा कहते है! वहा त्रिपुरा शक्तिवंत है! इस शक्ती से ही सुन्दरता
प्रकटित होता है! इसी हेतु इस को बालात्रिपुरासुन्दरी कहते है!
कारणशक्ति
को सरस्वती माता कहते है!
सूक्ष्मशक्ति
को लक्ष्मि माता कहते है!
भौतिकशक्ति
को काळि माता कहते है!
सूर्य
और सूर्य कांटी अलग अलग नहीं है! वैसा ही शिव और शिव का शक्ती अथवा पराशक्ति अलग
अलग नहीं है! पारिभाषिका से हम समझने के लिए वैसा अलग अलग कहते है!
कारण, सूक्ष्म, और भौतिक तीनों पुरो को प्रकाशित करनेवाली अथवा तीनों
पुरो में प्रकाशन होनेवाली शक्ति पराशक्ति कहते है!
कारण
पुर को गहरा निद्रावस्था कहते है!
सूक्ष्म
पुर को स्वप्नावस्था कहते है!
भौतिक
पुर को जाग्रतावस्था कहते है!
व्यष्टि
में भौतिक
पुर को पाताळ लोक कहते है!
समिष्टि
में भौतिक
पुर को भूलोक कहते है!
व्यष्टि
में सूक्ष्म
पुर को महातललोक कहते है!
समिष्टि
में सूक्ष्म
पुर को भूवरलोक कहते है!
व्यष्टि
में कारण पुर
को तलातल लोक कहते है!
समिष्टि
में कारण पुर
को स्व लोक कहते है!
इस
पराशक्ति परमात्मा का आकाशीय बिजली कहते है! यह मनुष्य का शरीर में तीन प्रदेशों
में उपलब्धया अथवा प्रदर्शन होता है! वो माथा, शिर,
और हृदय है! इस आकाशीय बिजली
शिर में ज्ञानशक्ति, माथा में क्रिया शक्ति, और हृदय में इच्छाशक्ति का रूप में
प्रदर्शित होता है! वैसा ध्यान में ज्ञात होता है! इस अंतर्गतीय शक्तियों
पूजासंकेत, चक्रसंकेत, और मंत्रसंकेत इति तीन प्रकार का है!
पूजासंकेत:
पूजासंकेत
बालात्रिपुरसुन्दारी महाविद्या का प्रथम बीज है! अम्म अपना माथा मे शोभा, और ज्ञानशक्ति का रूप में प्रदर्शित
करेगा! इसी को
सृजनात्मक शक्ति, अथवा
सृष्टि कहते है!
इस
ललाट अथवा माथा को ही आज्ञाचक्र कहते है!
इस आज्ञाचक्र को इंद्रा का वज्रायुधा भी कहते है! यह ही मन और दृष्टि को
एकाग्रत करना है! पराशक्ति अपना प्रकटन ज्ञान का माध्यम से प्रकटित करती है!
परशाक्ति अपने आप को व्यक्तीकरण शब्द का माध्यम से करती है! इस निरंतर अनाहत नाद शब्दरूप में प्रकटित होता है!
उसी निरंतर अनाहत नाद शब्दरूप से सर्व प्रकार का दैनन्दिनी कार्यकलाप प्रारंभ होता
है!
हरा
एक व्यक्ती का माथा ज्ञान का सिंहासन है! स्थूल रूप से माथा को परिशीलन करने से उस
व्यक्ति का हाव भावों, उद्देश्य, और प्रवर्तन ग्रहण करसकता है! ज्ञान
विचारों को रंग देगा, ज्ञान
शक्ति अपने आप को भिन्न रूप में व्यक्त करेगा! इनका प्रतीक ही इंद्रधनुष है!
मंत्रसंकेत:
मंत्रसंकेत
का रहस्यवादी बीज का माध्यमसे उस का उद्देश्य अथवा संकल्प ज्ञात होगा! विश्वव्याप्त शब्द ब्रह्मा नाद का माध्यम से उस
का प्रप्रथम अर्थ अथवा तात्पर्य ज्ञात होगा!
इस नाद स्थूल प्रकार का तीनों वेदों का माध्यम से सुनायीदेगा!
ऋग्वेद
का प्रथम मंत्र ‘अ’ अक्षर से प्रारंभ होगा!
यजूर्वेद
का प्रथम मंत्र ‘इ’ अक्षर से प्रारंभ होगा!
सामवेद
का प्रथम मंत्र ‘अयि’ अक्षर से प्रारंभ होगा!
यह
स्थिति – ज्ञान – आनंद इति ब्रह्मा का तीन स्म्शो को विशदीकरण करता है! तीनों वेदों का सार अद्वैत ही है!
‘अयि’ अक्षर का साथ बिंदु मिलाने से ‘अयिं’ होता है! वह विविध शब्दों को शाशन करेगा! इसी हेतु अद्वैतशक्ति अपना ज्ञानभंडार से ‘अयिं’ मंत्र में
निक्षिप्त
होता है! या ह ही सरस्वती ज्ञानदेवता का बीजा मंत्र है!
वाक
का प्रथम रूप ‘पश्यन्ति’ है! एकाग्रता यानी आज्ञाचक्र का उप्पर मन
और दृष्टि लगाना है!
क्रियाशीलक
व्यक्तीकरण को सिद्ध हुआ कुण्डलिनी का प्रदेश है मनुष्य का नाभि स्थान का नीचे
श्रोणी है! इसी को अथो कुण्डलिनी कहते है! सुषुम्ना, इडा,
और पिंगळा सूक्ष्म नाड़िया इधर
से ही आरम्भा होता है! इसी को युक्त त्रिवेणी कहते है!
रहस्यवादी
निद्रा से जागृती हुआ कुण्डलिनी सहस्रार चक्र तक बिजली जैसा पहुंचता है! इसी को
ऊर्ध्व कुण्डलिनी कहते है! इसी ऊर्ध्व कुण्डलिनी को मुक्त त्रिवेणी कहते है!
कुण्डलिनी
सभी तरह का शक्तियों का हेतु अथवा मूला कारण है! यह सोक्ष्मा कन्दर्पवायु है! यह
प्राणवायु नहीं है! उस कन्दर्पवायु का स्थान मूलाधाराचक्र स्थित त्रिभुज है! यह इच्छाशक्ति, ज्ञान, और क्रियाशीलता का स्थान है! उप्पर बिंदु
का समेत यह शक्तिवंतयुत बीजमंत्र है! इस ‘अईम्’ बीजमंत्र पुनः पुनः एक पद्धति का अनुसार
उच्चारण करने से कुण्डलिनी जागृती होजायेगा!
पूजासंकेत
का अनुसार बाला महाविद्या का दूसरा बीजमंत्र शिर से लेकर सारे दिशावों में
व्याप्ति होनेवाली चन्द्र जैसा स्वच्छ, धवळ,
शांति, और प्रेम इन सब से संयुक्त जगन्माता का रूप में पूजा
अथवा आराधना करते है!
शिर
से ही क्रियाशीलक शक्ति काम करने आरम्भ करते है! विचारों ज्ञान का हेतु है! ज्ञान
और विचारों दोनों मिलके क्रियाशीलकता का हेतु बनता है! क्रियाशक्ति ज्ञानशक्ति को
अधिगमन (predominates) करते है! स्वच्छ, और धवळकांति संयुक्त अथवा समेत चंद्रकांति
सहस्रारचक्र का अंदर का ज्ञान का प्रतीक है! इधर से क्रियाशीलकता बराबर सही सफलीकृत में निर्वर्तित होता है! मनुष्य का
शरीर कांती का स्थान है!
शिर
में भाव (idea) जब
उत्पन्न होगा तुरंत कार्याचरण(Activity) आरम्भा
होता है! ज्ञान को वृद्धि करेगा! सफलीक्रुत साधना का मार्ग बनाएगा! वह मुक्ति अथवा
मोक्ष का (emancipation)फलस्वरूप होता है!
मंत्रसंकेत
का अनुसार बीजमंत्र ‘क्लीम्’ का विवरण इधर देना आवश्यक है! परमात्मा
का ज्ञान अव्यक्त रूपी शब्दब्रह्म रूप में व्यक्तीकरण होगा! इसी को अनाहत नाद कहते
है!
‘अ आ इ ई
उ ऊ ऋ ऍ ए ऐ ऑ ओ औ अं’ तक का
अक्षरों को अच् (vowels) कहते है!
‘क ख ग घ
ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल’ अक्षरों को हल्लू (consonants) कहते है!
इस
अच् (vowels) और हल्लू
(consonants) मिलने
से संयुक्ताक्षर बनाते है! ‘क्ल’ शब्द सृष्टि का संकेत है! यह परिरक्षण को मार्ग
करदेता है! ज्ञान क्रियाशीलकता को दोहद करेगा!
‘अइ’ स्वच्छ भावना का संकेत है! वह केवल भावानाशक्ति का
परिवर्तना ही है!
बिंदु अद्वैत पराशक्ति भावना को
सार्वत्रिक (universal) व्यक्तीकरण
का संकेत
है! वह एक
संगम (junction) है! यहाँ सभी इच्छाओं सफलीकृत होता है! वह एक शीतल कांति है! इधर बीज को
महालक्ष्मी अथवा ललिता बीज कहते है! वह काळि और लक्ष्मी इति दो प्रकार का होता है!
काळि का दूषण रूप डालके डरपोक (timid)और लापरवाह (unwary) हृदयों में भय और आतंक (fear and panic) को निकाल्देता अथवा दूर करदेता है! लक्ष्मी का निरपाय (benign) रूप धारण करता है! जिद्दी (stubborn) और जानने का सक्षम साधको को अम्मा (foster mother) जैसा पालेगा! वैसा ‘क्लीम्’ पराशक्ति का क्रिया शक्ति का रूप है! इस को वाक् का दूसरा कदम ‘मधम’ कहते है! इस का उच्छारण शिर में होता है! अच्चु (vowels) हल्लू (consonants) मिलके संयुक्ताक्षर बनते है! इस संयुक्ताक्षर शब्द सही डंग में आने देने को सहायता करते है! बावानाये (ideas) शब्दरूप (words)बनता है!
इच्छाशक्ति (power of will or volition)का स्थान हृदय है! पूजासंकेत का अनुसार त्रिपुराविद्या यानी महात्रिपुरसुन्दरी विद्या का तीसरा बीज ह्रदय से उत्पन्न होता है! अनाहतचक्र का स्थान ह्रदय है! इच्छाशक्ती ही ज्ञान और कार्याचरण का मूलहेतु है! सूर्या अंधकार को विनाश करता है! वैसाही इच्छाशक्ति अज्ञानअंधकार को विनाश करता है! हृदय का केंद्र नित्यनूतना से सुशोभित होता है! कार्याचरण से जब ज्ञान अधिक होगा तब मुक्ति और आनंद का मार्ग सुगम होता है! तब इच्छाशक्ति काम में छलांग लगाता है! इसका स्थान हृदय है! हृदय परिपूर्ण ज्ञान का प्रतीक है! अच्छा और बुरा दोनों संस्कारों दग्ध होना चाहिए! तब हृदय प्रकाशित होता है! तब वह प्रशान्तता (serenity) का मार्ग बनेगा!
अयं निजः परोवेति गणना लघुशेतसाम्
उदाराचारितांसु वाशुधैक कुटुम्बकम्
ज्ञानं लभ्य होने पश्चाद् ‘वह अलग है, ये अलग है, मै अलग हू’ इति भेदभाव साधक त्याग करदेता है! ‘सर्व जगत एक ही संसार है’ इति परिपूर्ण रीति में समझेगा! इसी को
परमात्मा चैतन्य कहते है! अधिष्ठान देवता ‘गौरी’ है! उस अम्मा को ही महात्रिपुर सुन्दरी
कहते है! इधर रहस्यवादी(mystic) अक्षर ‘सौ’ है! ‘सौ’ अक्षर इच्छाशक्ति का प्रतीक है! इच्छाशक्ति को
विसर्गशक्ति भी कहते है! विसर्गशक्ति यानी मुक्त हुआ शक्ति है! बहता हुआ धारामृत
अथवा अद्वितीय सुख को विसर्ग कहते है!
जगत माता माया माना इति तीन प्रकार का
है! इन तीनों एक होना को सत्ता का सामान्य अवस्था कहते है! तब मनुष्य द्वैत से
मुक्त होता है! व्यक्त और अव्यक्त जगत दोनों में आध्यात्मिक कांति दिखाई देगा!इस
का स्थान हृदय है!
‘स’ का अर्थ ‘साथ’ है! ‘औ’ का अर्थ ‘निश्चय अथवा निर्णय’ है! विसर्ग का अर्थ ‘विमुक्ति’ है! ‘निश्चय अथवा निर्णय’ से इस बीज संभी बंधों से विमुक्ति
प्रसादित करेगा! इस बीज को पराबीज कहते
है! महात्रिपुर सुन्दरी अपने आप को साधक
का आत्मा इति ज्ञात कराना ही सफलीकरण का संकेत है!
इतना ही नहीं, ‘स’ इति बीजाक्षर जीव का साथ पृथ्वी से लेकर
माया तक 31 तत्वों का प्रातिनिथ्य करेगा!
त्रिपुरा भैरवी का शुद्धविद्या ही सदाशिव
और ईश्वरीय तत्वों! इच्छाशक्ति और
क्रियाशक्तियोम् का प्रतीक ‘औ’ है!
शिवस्वरूप में छिपा हुआ ‘शक्ति’ स्वक्रूप का प्रतीक ‘विसर्ग’ है!
जागृति हुआ साधक को कुण्डलिनी शक्ति
अंतर्गत कांति से चमकता रहेगा! ज्ञानमुद्रा लगा के इस ‘सौ’
मंत्र को तीव्र एकाग्रता से
जाप करने से ‘इच्छाशक्ति’ ‘निर्णयशक्ति’ में बदलेगा! साधक विषयवांछों से मुक्त होजायेगा! वह
मुक्ती अथवा मोक्ष को मार्ग बनाएगा! इसी को वाडवमंत्र कहते है!
सृष्टि कार्यक्रम में इसी व्यक्तीकरानको ‘वैखरी’ कहते है! ‘मलादोष’ अज्ञान जनित है! इसी हेतु अंतर्गत अज्ञान
से आसक्ति बनाता है! यह प्रथम अपूर्णत्व परिमिति है! अपूर्णत्व आनवमल अथवा
अपूर्णत्वमानव से आती है! विश्व चेतना से
व्यष्टि परिमिति तक यानी अणुत्व तक लेकर आती है! परमात्मा का चेतना आखरी में
परिमिति होता है!
‘आनवमल’ दो प्रकार का है! वे: पौरुष अज्ञान और बौद्ध अज्ञान
इति!
1) पौरुष अज्ञान: मूर्तीभूत अज्ञान
2) बौद्ध अज्ञान: यह अज्ञान बुद्धि में
अंतर्गत है! इस मलिना दोष का हेतु मनुष्य
अपने आप को प्रत्येकजीवी समझेगा! विश्वचेतना से अपना चेतना अलग समझेगा! यह अत्यंत
सूक्ष्म मलिन दोष है! इस के अलावा सूक्ष्म, और स्थूला सूक्ष्म इति दो प्रकार का
सूक्ष्म मलिन होते है! जो मनुष्य अशुद्ध मार्ग में संपर्क होजाता उस जीव को
माय्यामाला, और कर्म
मलिनदोष और नीचे स्थिति में लाएगा!
मय्यामलम् भिन्नरूप का चेतना में भेदना
करेगा! (भिन्न वेद्य प्रथात्वम् मय्यम्)
शरीर का भिन्न अंगों परिमिति का साथ
पर्याप्त है! वैसा अंगों का संयोग ही इस का हेतु है! इसी हेतु ज्ञानशक्ति को विघात होके परिमिति का
साथ पर्याप्त होगा! इतनाही नहीं,
वासनावोम् का हेतु (शुभाशुभ
वासनामयत्वम् कर्माम्), और गतजन्मोम् का अधूरी इच्छाओं का वजह
लभ्य होने संचिता कर्मो का अवशेषों इस परिमिति को अधिकतर करेगा! इसी को कर्ममलम
कहते है!
जन्म – मरण – जन्म वृत्त में फसा हुआ मनुष्य को विविध प्रकारा का
आसक्तियो पीछे पड़ता है! आत्मसाक्षात्कार का पश्चात् परमात्मा में ऐइक्य होने के
हेतु इन संचित कर्मो को दग्ध करना आवश्यक है! (सकृद्विभातो अयं
आत्मा---छांदोग्योपनिषद 8.4.2).
माहात्रिपुरा सुन्दरी का उप्पर ध्यान
करने से उस अम्मा का दया अवश्य लभ्य होजायेगा! अम्मा का दया आश्चर्यजनक और अचानक
होगा!
जगत का उपरितल में तीन गुणों समान
प्रतिपत्ते में मिलनेसे तीन प्रकार का दिव्य रहस्यवादी (mystic)रूप में दर्शन देगा! वह दिव्यमाता तीनों
प्रकार का रहस्यवादी (mystic)रूपों का अतीत है! वह अम्मा मानवीय ग्रहण, और भावना का अतीत है! वह अम्मा रूप रहित
है! वह अम्मा का सभी का अतीत है! ‘अइं’ मंत्र को माथा अथवा ललाट में परिपूर्णरीती में
एकाग्रता के साथ स्थिर उच्चारण करना
चाहिए! इसी कारण महात्रिपुरसुन्दरी अम्मा अपारादया से दर्शन देगा! उस अम्मा का
प्रकाशरूप दर्शन इस का निदर्शन है!
मंत्रोद्धारा विधि में तंत्र पद्धति का
अनुसार (मंत्रोद्धारा विधिर्विशेशा सहिता सत्सम्प्रदायान्वितः) उच्चारण करना साधक
करेगा! श्रीदेवी अम्मा द्वैत से साधक को विमुक्ति करेगा! सृष्टि, स्थिति, और लया तीनों मिलके एक होना, और वैसा एक ही रूप में साधक दर्शन करेगा!
साधिकारिता, साक्ष्यं, और सिद्धांत- द्वैत् का तीन कोणों
है! इन तीनों कोणों परब्रह्म परमशिव में
विलीन होजायेगी! श्रेष्टतम सौंदर्य का नित्यास्थिति यह ही है! यह श्रीदेवी माता का
दया से ही साध्य है!
sआधक का आत्मा ही शिव है! वह शक्ति का
माध्यम से पहचानते है!
(शैवमुखमिहोच्यते –विज्ञानभैरव 20)
‘य र ल व’ इति अक्षरों को अन्तस्थ कहते है! ये साधना को उन्नत
स्थान लेजाते है!
‘श ष स ह’ अक्षरों को युष्मा अक्षरों कहते है! इन अक्षरों पूरा
शक्ति से उच्चारण करना चाहिए! ये उष्ण और आर्द्रता करादेता है!
‘ह’
अक्षर स्थिरता का प्रतीक है! ‘अ’
शिव को, और ‘ह’
शक्ति की प्रतीक है! ‘अ’,
और ‘ह’
को बिंदु जोदने से ‘अहम्’ होजायेगा! यह ‘अहम्’ परब्रह्म और पराशक्ति को प्रतीक है!
‘अहम् ब्रह्मास्मि, शिवोहम्, अहम् ब्रह्मस्वरूपिणी’ –– इन महावाक्यों ‘मई हूँ परमात्मा’ इति विषय को संकेत देता है! इन वाक्यों ही नित्य सत्य
है!
परमात्मा (परा) का खिलने का पहला बीज(sprouting seed) पश्यन्ति है!
स्वयं प्रकाशी सदाशिव तत्व में अम्मा
ज्ञान का माध्यम से व्याप्त गोता है!
अम्मा अत्यंत सूक्ष्म है! ‘अइं’ अक्षर इस का प्रतीक है!
शरीर का प्राणशक्ति अत्यंत आवश्यक है! इस
का मूल हेतु कुण्डलिनी है! इसी हेतु इस कुण्डलिनी को प्राण कुण्डलिनी कहते है! इधर
कुण्डलिनी स्थूला अवस्था में काम करती है! उस का हेतु साधारण जीवन को स्थितिवंत (maintaining normal life) करने शरीर का जरूरती प्राणशक्ति को
पर्याप्तता करदेता है! कुण्डलिनी जागृती होने पर शरीर प्रकाशवंत होता है! वह साधक
को ललाट अथवा माथा में प्रस्फुटन होजायेगा! जितना कुण्डलिनी अधिक जागृति होने से
इतना ही साधक का ललाट प्रकाशवंत होगा! उतना ही अधिक शक्ति से शरीर विराजमान होगा!
यह रहस्य जाननेवाले साधक
जनन – मरण - जनन वृत्त में नहीं गिरेगा!
साधकों तीव्र साधना करनेसे कुण्डलिनी का
बारे में ज्ञात होजायेगा! कुण्डलिनी ज्ञान बहुत कम लोग को लभ्य होता है! इसी हेतु
कुण्डलिनी ज्ञान बहुत रहस्य कहते है! मोक्ष भोग का फल है! जीवन्मुक्त लोग ही मोक्ष
का भोग फल अनुभव करते है! परंतु इस स्थिति
लभ्य होना अति दुर्लभ है!
कई जन्म लेनेसे भी श्री पराभट्टारिका का
दया बिना यह स्थिति प्राप्त नहीं होगा! कभी कभी उस अम्मा का दया अचानक से लभ्य
होता है! महान गुरु लोग वैसा संदर्भो को अनुभव किया है!
संचित कर्मो और प्रारब्ध कर्मो दोनों को
संतुलन होने से अम्मा का दया प्राप्त होगा! इसी को कर्मसाम्य कहते है!
कभी कभी अम्मा का दया साधारण व्यक्तियों
को लभ्य होंगे! वह एक अद्भुत है! वह हमारा तार्कितका का अतीत है! अम्मा
त्रिपुरसुन्दरी देवी का दया सर्व नियमों का अतीत है! सूरज का सामने दिया जैसा
अम्मा का सामने मानवशक्ति अत्यल्प है!
बिंदु का अर्थ तारांकन है! इसी को
अनुस्वर कहते है! बिंदु बिना मंत्र का उच्चारण नहीं करना चाहिए! वैसा करने से उस
मंत्र का शक्ति विहीन होंगे! बीजाक्षर का अंत में बिंदु का जोड़ के उच्चारण करना
अद्वैत परब्रह्म को सूचित करेगा! साधना में मंत्रजाप और बीजाक्षराजाप अत्यंत मुख्य
छीज है! उसी का माध्यम से अम्मा का दर्शन साध्य है!
इधर पराशक्ति दया का बारे में एक कहानी
बोलेंगे! उतात्य इति एक ब्राह्मण बालक रहते थे! वह मूढ़मति था! वह कोई भी मंत्र जपा
साधना नहीं जानता था! माता-पिता उसको परिहास करते थे! उन लोगों का परिहास सहन करने
में असमर्थ होकर वह उस गाँव से और माता-पिता से दूर में गंगा नदी का किनारा में
रहते थे! वह हमेशा पवित्र और सदा सत्य कहते हुवे एक कुटिया में जीवन बिताते थे!
इसी हेतु उसको सत्यव्रत करके पुकारते थे! एक दिन बनो से घायल हुआ वराह उसका कुटिया
के पीछे इाडियों में छिपा हुआ था! भय का हेतु सत्यव्रता ‘अइ अइ’ इति चिल्लाया था! इतना ही में उस का पीछे
दौड़ते हुवे एक शिकारी आया था! वह उस वराह का बारे में पता पूछा था! ‘अइ अइ’ में बिंदु नहीं होने से भी अम्मा का दया
उस अनाडी लड़का का उप्पर दिखाया था! उस सत्यव्रता में ज्ञान आगया था! ‘हिंसा’ का साथ मिला हुआ वचन सत्य होने से भी ‘सत्य’ नहीं है! ‘दया’ का साथ मिला हुआ वचन असत्य होने से भी ‘असत्य’ नहीं है! वह सत्यव्रत उस शिकारे से, ‘हे! शिकारी, जो आँखें देखने का समर्थ है, परंतु, बोलने का सक्षम नहीं है! जो मुंह बोल
सकते है, परंतु
देख नहीं सकते है’ इति कहा
है! उसको सुन कर वहा शिकारी, ‘इस लड़का पागल’ समझ के चलागाया था!
सत्यं न सत्यं खलु यत्र हिंसा दयान्वितम्
चानृतमेव सत्यं
हितम् नराणाम् भवैत्य येन तदेव सत्यं न
तथान्यथैव ! (देवी भागवतं 3.11.36)
अग्निको जानते हुवे पकडनेसे भी अज्ञान
में पकडनेसे भी जलेगा!
अनिच्छय एपीआई संस्पृप्तो दहत्येव च
पावकः (अष्टावक्र गीत XVIII.37)
अम्मा भूत वर्तमान और भविष्यत् कालों को
अतीत है!
इसी हेतु अम्मा नित्य है!
प्रमाता प्रमाण प्रमेयारूपा सृष्टिः
परमात्मा का चेतना किसी छीजों से
प्रभावित नहीं है! पराशक्ति हजारो में एक ही मनुष्य को अचानक दर्शन देता है! वह
केवल अम्मा का दया के वजह से ही है! इसी को शक्तिपात कहते है! वह सत्यव्रत को
शक्तिपात रूप में अचानक अम्मा का दर्शन लभ्य हुआ है!
ॐ प्रणवनाद है! वह परमात्मा को पहचानने
वास्ते बना हुआ है! इसी हेतु प्रणवनाद नमस्कार अथवा गौरव का अर्हता प्राप्ति किया
है! उसी विश्वास से साधको ‘क्लीम’ मंत्र से इस को ध्यान करते है!
कोई भी पूजा हो, ॐकार से ही आरम्भ होगा! ॐकार से ही
समाप्त होगा! इस प्रणव नाद अत्यंत पवित्र है! साधक को इस पवित्र प्रणव नाद उच्चारण
ही श्वास निश्वास है! यह शक्तिपात करेगा! परमात्मा को अत्यंत श्रद्धा से अपने आप
को अर्पित अथवा अंकित किया साधक का मन स्थिर होजाएगा!
साधक को आशयराहिता, और अहंकाररहिता भक्ति होना अत्यंत
आवश्यक है! नहीं तो वह भक्ति व्यर्थ है! हमारा मन सगुण अथवा रूपसहित भगवान को
जानने में सक्षम है! भगवद्भक्ति साधक को अहंकाररहित करेगा, और समाजसेवा वृद्धि कराएगा! ईश्वर
सर्वजगत का नायक है! हम प्रकृति पार होके जानेसे परमात्मा को जानेगा!
कार्यकलापों, और इच्छाशक्ति दोनों का सम्मिलन सरस्वती
ज्ञानदेवता है! उस
अम्मा दया दिखाने पर शांति,
प्रशांतता, और
परिपूर्णता का साथ मिला हुआ आनंद अनुभव करेगा साधक! दिव्यत्व प्राप्त करने पर, साधको अपना कविता का माध्यम से उस अम्मा
का दया इत्यादि गुणों को आनंद से गायेगा!
अ + उ + म् = ॐ इति श्रेष्ठतम् तीन
बीजाक्षर मंत्र है! वह साधक निर्गुणसमाधि प्राप्ति के हेतु उच्चारण करना आवश्यक
है! इस ‘ॐकार’ उच्चारण साधना का परिपूर्णता लभ्य
करदेगा! कार्यकलापो, और इच्छाशक्ति से ज्ञानं उत्तम और अत्यंत
श्रेष्ठ इति साधक को ज्ञात होजायेगा! इस ज्ञान ही परमात्मा को अपन को मिलाएगा करके
साधक समझेगा! ज्ञानात् एवातु कैवल्यम् इस्ति समझेगा!
कोई भी साधना पद्धतियां अनुसरण करने से
भी, साधक श्रद्धा से इन निम्न लिखित
बीजाक्षरों उच्चारण करने से लाभ होगा!
1, अइं सौ
2. अइ इ औ
3. सौ क्लीम् अइं
4. अइं क्लीम् सौ
अम्मा श्रीदेवी ही योजनाओं को रचायेगा, और उन को कार्याचरण में डालेगा, और
तत् पश्चात् हम को आनंद करदेता है!
श्रीदेवी ही शक्ति है! अम्मा ही परमात्मा का शक्ति है! उस अम्मा ही इस दिखाई देनेवाला जगत का
आनंद है! चित् शक्ति अपना परदा (screen) का उप्पर अपना चित् शक्ति से आविष्करण करेगा! (
स्वीचाया स्वभित्तौ विश्व मुन्मिल्यती)
अम्मा अपना भक्तो का न्यायपूरित कामनाओं
को पूरा करेगा! आगमायों में कहा हुआ कुछ पद्धतियों को इधर देखेंगे! वे:
1)
अंग करा न्यासों को करना, और ऋषि को अनुसरण करना,
2)
श्रीगुरु पादुकाओं का याद करना,
3)
बिना खोजने आनेवाले छीज
इन्ही को अनवोपाया, शाक्तोपाया, और शांभवोपाया कहते है!
अम्मा का स्वभावसिद्ध स्वरूप स्थिति को
पराभात्तारिका महात्रिपुर सुन्दरी कहते है! वे: 1) सकल, 2) निष्कल, और 3) निष्कल सकल
स्वयं प्रकाशित अम्मा को पराशक्ति कहते
है!
(अंब ते परिपूर्ण्यं
स्वात्मस्फुरत्तयाविश्वं पराम्रिषत्यांबा)
अम्मा हे सृष्टिकर्ता है!
अम्मा को बाला, शारदा, वागेश्वरी, महाविद्या, ब्राह्मी, सरस्वती, और श्रीदेवी इति विविध प्रकार का नामों
से पुकारके आराधना करते है!
अम्मा तीन प्रकार का मलादोशो को निवारण
करती है!
शब्दब्रह्म रूपिणी अम्मा सर्व अक्षरों को
अधिकारिणी है!
‘अ’
से ‘क्ष’
तक उपस्थित अक्षरों को
अक्षरमाला कहते है! अम्मा अक्षरमाला को धरती है! इस अक्षरमाला को मात्रुकचक्र कहते
है! जप और साधना को उपयोग होनेवाली इस मातृकमाला का बारे मे सविवरनपूर्ण काळीतंत्र
और श्रीकुलार्णवा में दिया है!
परिपूर्णता का साथ भक्तिभाव जब बहिर्गत
होजायेगा तब शक्तिपात (transfer of energy) अथवा शक्ति बेशरत
साधक को पहुंचेगा!
शक्तिपात (transfer of energy) नव प्रकार का है! यह तंत्रलोक में कहागया
है!
पराशक्ति अत्यंत दयाळु है! अम्मा का चार
हाथ उसका अनंतशक्ति को विशदीकरण करता है!
आत्मा और परमात्मा दोनों का मिलन परमानंद
होता है! यह ‘सौ’ को अनुसरण करने ‘क्लीम’ बीजमंत्रो दोनों को एक का पश्चत् एक
एकाग्रता का सात श्रद्धासहित उच्चारण करने से आत्मा और परमात्मा दोनों का मिलन
परमानंद साध्य होता है!
इन बीज मंत्रों उच्चारण का वजह से इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति, और ज्ञानशक्ति तीनों मिलजाएगा! इसी को
मंत्रसिद्धि कहते है! यांत्रिक रूप, और श्रद्धारहित उच्चारण से इस
मंत्रसिद्धि साध्य नहीं,
दुस्साध्य होगा! परमात्मा को छोड़ कर विविध देवता रूपों को ध्यान करना
व्यर्थ है!
प्रत्याहार से इन्द्रियों से श्वास
उपसंहरण करना चाहिए!
प्राणायाम का माध्यम से चित्त एकाग्रता(one pointedness)
से धारण करना चाहिए! उसी को ध्यान कहते है! वैसा ध्यान एक क्षण होने से भी संतृप्ति, और दिव्यानुभूति देगा!
इच्छारहित सिंह जैसा वैसा साधक का सामने
हाथी जैसा इन्द्रियों और उन का लक्ष्यों भी चेतनारहित होंगे! भाग जायेंगे!
निर्वासनं हरिं दृष्ट्वा तूष्णिं विषय
दंतिनः पलायन्ते न शक्तास्ते सेवन्ते कृत दातावः)
परमात्मा को ही चाहो, परिपूर्ण हृदय से परमात्मा में ही विलीन
होजावो, वह ही
इन्द्रियनिग्रह कहाजाता है!
मानस से आरम्भ करके इन्द्रियों तक सभी
अतिचंचल छीजों है! ध्यानरहित मन, और इन्द्रियों अत्यंत चंचल है! परंतु साधक जब साधक
परमात्मा का उप्पर परिपूर्ण दृष्टि निमग्न करेगा, तब अत्यंत चंचल मन और इन्द्रियों भी
निश्चल होकर साधक को सहायता करेगा! सुंदर स्त्री – पुरुषों का बीच में परस्पर आकर्षण परस्पर
आराधना में परिवर्तन में परिवर्तन होगा!
एकाग्रता से अम्मा अथवा अंबा को ध्यान
करना चाहिए! अम्मा का कान का स्वर्ण आभरणों, हाथों का स्वर्ण चूडियाँ, और स्वर्ण करधनी आभरणों, पहना अम्मा का रूप का उप्पर, ध्यान करना चाहिए! वह समय स्वल्प होने से
भी श्रद्धा से करना आवश्यक है! तब वह साधक शीघ्र ही विश्वचेतना में जाएगा!
अम्मा का कान का स्वर्ण आभरणों ‘अइं’ बीजमंत्र का प्रतीक है! यह अम्मा का
ज्ञानशक्ति का प्रतीक है!
हाथों का स्वर्ण चूडियाँ ‘क्लीं’ बीजमंत्र का प्रतीक है! यह अम्मा का
क्रियाशक्ति का प्रतीक है!
स्वर्ण करधनी आभरणों, ‘सौ’ बीजमंत्र का प्रतीक है! यह अम्मा का
इच्छाशक्ति का प्रतीक है!
शास्त्रों अम्म साक्षात्कार के लिए और
कुछ पद्धतियों का सूचित करता है! उस अम्मा का रूप ध्यान करना, केशों का उप्पर अर्था चाँद से अलंकृत हुआ
अम्मा का उप्पर ध्यान करना, कमर में
रक्तवर्ण वस्त्र पहनके खोपड़ियों को हार धरा हुआ अम्मा का उप्पर ध्यान करना, नीचे लेता हुआ शिव का उप्पर पैर रखके खडा
हुआ अम्मा का उप्पर ध्यान करना, इतना ही नहीं चारों हाथ, तीनों नेत्रों, उन्नत स्थनों, थोड़ा झुका हुआ कमर, वैसा महात्रिपुर सुंदरी अम्मा को ध्यान
करना इत्यादि अत्यंत लाभदायक है!
रक्तवर्ण वस्त्र महात्रिपुर सुंदरी अम्मा
का सृष्टिशक्ति को,
खोपड़ियों को हार (necklace) धरा हुआ अम्मा, अम्मा का अहंकाररहित अक्षरमाला को सूचित
करेगा!
स्मृति का अनुसार प्रकाशा का अर्थ
ब्रह्मा है! वह विविध रूपों में प्रकाशित होता है!
(तमेव भांतं अनुभाति सर्वं ------- कठोपनिषद् II.ii.15).
विमर्श ब्रह्मा को विविधाप्रकार का
अंतर्गत प्रकाशा का माध्यम से स्वभाव सिद्ध है!
(तस्य भाषा सर्वमिदं विभाति)
आगमों का अनुसार ज्ञान, और क्रियाओं का सम्मिळन चेतना है!
(संवित. चित, अथवा परमशिव)
ज्ञानं और क्रिया, शिव और शक्ति, और प्राकाश क्रिया और विमर्श एक ही है!
इसी हेतु कांटी और बिजली दोनों अम्मा ही
है!
शिव शक्त्यात्मिका मंत्र ही श्रीविद्या
अम्म मंत्र है!
और एक मंत्र परमशिव कामेश्वर मंत्र है!
ये भी श्रीविद्या अम्म मंत्र है! परंतु इस मंत्र को उच्चारण करने को आवश्यक नहीं
है क्योंकि श्रीविद्या अम्म शिव और शक्ति स्वरूपिणी होना ही इस का कारण है!
श्रीविद्या अम्म स्थिति सदाशिव अथवा अर्थनारीश्वर स्थिति का अतीत है!
शिव और शक्ति दोनों एक ही है! शक्ति अपना
क्रियाशीलता को ज्ञात करता है अथवा प्रकटित करता है! शिव सिर्फ मात्र अपना आकार
में रह कर अपना क्रियाशीलता नहीं जानने देता है! शिव सूक्ष्म चैतन्य रूप में होता
है!
शक्ति नित्य और रूपसहित है! वह विविध
रूपों को लेगा!
शिव नीचे लेटा हुआ होता है, उन का उप्पर पैर रख के काळिकादेवी का रूप
में अम्मा खडा हुआ दिखाने का आंतर्य अथवा अंतरार्थ अम्मा अपना शक्ति का प्रदर्शन
करना ही है!
निद्राण हुआ सदाशिव का अन्दर से श्री
महात्रिपुरसुन्दरी ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, और इश्वर इति चारों देवतावों उत्पन्न हुआ
है!
अम्मा का चार भुजों/चार हाथ निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या, और शांति इति सृजनात्मक शक्ति का प्रतीक
है!
अम्मा का नेत्रों सूर्या, चन्द्र, और अग्नि का प्रतीक है! ये ज्ञानं
(प्रमाण), ज्ञेयं
(प्रमेयं), और
अनुभाविक प्रयोगं/ज्ञात(प्रमत) का प्रतीक है!
अम्मा का स्थानों कांति और शब्द अथवा
प्रकाश और विमर्श इति अवगाहना सावधान का प्रतीक है!
अम्मा का झुका हुआ कमर व्यक्तीकरण का
चिह्न है! इन प्रतीकों को समझने(decode) से हम को श्रीचक्रं का आवरणों(enclosures) समझने को सक्षम होगा! वे:
1) वलीत्रया निकिताननं – मूलाधारचक्र – भूपुर त्रैलोक्य मोहनचक्र
2) मध्येनिम्न – स्वाधिष्ठानचक्र – षोडशदळपद्म– सर्वशपरिपूरकचक्र
3) आपिनोट्टू–निगास्तिनाम–मणिपुरचक्र–अष्टदळपद्म–सर्वसंक्षोभणचक्र
4) त्रिनयनं– अनहतचक्र–चतुर्दशर–सर्व सौभाग्यदायकचक्र
5) चतुर्भुजं – विशुद्धचक्र – बहिर्दशर सर्वार्थसाधकचक्र
6) प्रेतासनध्यासिनीं– आज्ञाचक्र– अंतर्दशर– सर्वरक्षाकरचक्र
7) बंदूकप्रसवारुणांबरधरां –मानसचक्र – अष्टसर्वरोगहरचक्र
8) न्रिमुंदस्रजं –सोमचक्र—त्रिकोण सर्वसिद्धि प्रदचक्र
9) शशिखंडमंडित जटाजुतां –सहस्रारचक्र—बिंदु सर्वानंदमयचक्र
दक्षिणाम्मूर्ति संप्रदाय का अनुसार इसको
संहाराक्रमंकहते है!
शक्तिपात देने को शर्तेँ नहीं होता है!
श्री संविदांब अपना भक्तों का उप्पर हर समय में दया दिखाता है! उस अम्मा को गरीबी
अमीरी जैसा भिन्नता नहीं है! भक्तिरहिता अथवा भक्तिहीन लोगों का उप्पर श्री ललिता
महा त्रिपुर सुन्दरी दया नहीं दिखाएगा!
अज्ञान में फसा हुआ लोग ही इस मायाजगत का
बाधा और संतोष का वश होंगे! इस अनंतजगत कहा से व्यक्तीकरण होरहा है? अम्मा कौन है? इन छीजों पुनः पुनः गहरा मन से देखने के
लिए समय नहीं है! अंतर्गत अवयवों
(अंतःकरण) का शुद्धीकरण का असली सत्य क्या है समझाएगा! अम्मा का दया से उस
का भक्तों स्वयं अम्मा में ही परिवर्तन होंगे!
श्रीदेवी अम्मा का अद्भुतनाम त्रिपुरा
है! उस नाम का बारे में बहुत चर्चा किया हुआ है!
व्यष्टि में तीन पुरों (भूः – भूमि, भुवः – आकाश, स्वः – अंतरिक्ष) को अम्मा ही राणी है!
इन्ही को वेदांत में
विश्व – विराट, तैजस= – हिरण्यगार्भ,
प्राज्ञ – ईश्वर कहते है!
श्रीदेवी अम्मा को तुरीय कहते है! वह
अपार है! यह चौथा स्थिति है!
वेदों तीन प्रकार का है! मूलरूप में
गुणों तीन है! वे सत्व, रजो, और तमो गुणों है! भक्तिभावों, प्रार्थनाओं, और ध्यान इन सभी उन गुणों का अनुसार ही
होंगे! श्री भगवद्गीता में भी यह ही व्याख्या किया हुआ है!
आर्त, जिज्ञासु, धनाभिलाषी, और आत्मज्ञानी इति चार प्रकार का
लोग भगवान का पसंद है!
इन चारों में आत्मज्ञानी ही अम्मा को अत्यंत पसंद है क्यों कि
वह अम्मा का उप्पर एक ही प्रकार का भक्ति का प्रदर्शन करता है!
नवारण पूजा में ब्राह्मण क्षीर और गुड को ही नौ आवरणों को तर्पण देना
चाहिए! और कोई छीज आहुति नहीं देना चाहिए इति आगमशास्त्र कहते है! दीपकनाथ सिद्ध अपना ‘श्रीविद्या शुद्धोदय’ में इस विषय का बारे में विशदीकरण किया
है! शुभागम पञ्चकं में भी इस का प्रस्थावन किया हुआ है!
क्षीर, घी, और मधु सत्वगुण का संबंधित है!
रजो, और तमो गुण का संबंधित व्यक्तियों का है!
इन का चैतन्य स्थायी अलग प्रकार का होगा!
अम्मा को नैवेद्य अथवा पूजा पद्धतियों
में फलापेक्षा नहीं होना चाहिए! हर एक कार्यबीज उचित फल अवश्य देगा! फल को कभी
नहीं देखना चाहिए नहीं तो उसका प्रभाव कमी होगा! फल का उप्पर उम्मीद करके कार्य
करने से फल नहीं देगा अथवा पूर्णफल नहीं मिलेगा!
हमारा कार्यो, पूजाओं, ध्यान इत्यादि असहन से नहीं होगा! असहन
अथवा निरुत्साह से कोई भी काम संपूर्ण और सही पद्धती से नहीं करापायेगा! इसी हेतु
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को निश्कामाकर्मा करने के लिए कहा है! वह मन को स्वच्छता
को प्राप्त कराएगा! यह आत्मस्वतंत्रता, और सही प्रार्थना को रास्ता बनाएगा!
पूजा नाम पुश्पाद्धैर्य मतिः क्रियते
दृधा
निर्विकल्पे महाव्योम्नी सा पूजा
ह्यादाराळ्यः
पूजा का अर्थ केवल पुष्पों अर्पण करना ही
नहीं, पूजा का
अर्थ अपना हृदय विचाररहिता करके परमात्मा को अर्पित करना है! अपने आप को परमात्मा
को तीव्र आवेदन से अर्पित करना है!
निश्चित मनस का अंदर इच्छाओं प्रारब्ध
कर्मा को भी दूर करसकता है! यह शून्य अनुभवों से श्रेष्ठतम है! उस इच्छा अपना असली
स्वरुप यानी सत्य स्वरुप को जानना अथवा परिपूर्णता को, तत् पश्चात् शरीर बानिसत्वा से विमुक्ति
को रास्ता बनाएगा! उस
इच्छा आत्मा, और जगत
उन्नत स्थिति को पहुँचने में सहायता करेगा! जिस को शुद्ध बुद्धि है उस व्यक्ति ही
इस स्थिति को पहुंचने को सक्षम है!
यं यं लोकं मनसा संविभाति विशुद्ध सत्वः
कामयते
यांश्चकामान् तं तं लोकं जायते तांश्च
कामान् !!
(मुंडकोपनिषद् III-1-30)
शुद्धमनस् व्यक्ति जो न्याय पूरित
वस्तुवों चाहता उन को पा सकता है!
मात्रुकशक्ति से उत्पन्न हुआ इस जगत
कार्यकारण संबंधित है! यह परावाक का विस्तरण ही है! इस विस्तारण षढध्व नाम का छे
प्रकार का मार्गो का माध्यम से होता है! इन में तीन वाच्य का तरफ, और शेष तीन वाचकं का तरफ होंगे!
वाचकं का त्रयं को कळध्व अथवा लौकिक क्रम
कहते है!
वाच्यं का त्रयं को देशध्व अथवा
प्रादेशिक क्रम कहते है!
हर एक समूह का तीन अध्वों परादशा अथवा
अत्युत्तम दिव्यशक्ति का पश्यंति, मध्यम, और वैखरी स्थितियों इति तात्पर्य
है!
शुद्ध सृष्टि का अंतर्गत शब्द पाँच
प्रकार (categories) अथवा दशाओं इति समझना चाहिए!
पहलेवाला पर, सूक्ष्म, और अत्युत्तम है!
दूसरेवाला पश्यंति, और कम सूक्ष्म है! यह और अलग(undifferentiated) नहीं किया हुआ अथवा व्यक्तीकरण नहीं हुआ है!
तीसरे वाला स्थूल, और अलग(differentiated)किया हुआ परंतु स्पष्ठत अभी तक प्राप्त
नहीं हुआ है! स्पष्ठत प्राप्त हुआ शब्द वैखरी है! यह सूक्ष्म, और स्थूल इति दो प्रकार का है!
वैखरी से ही वर्णों, और संयुक्ताक्षरों अथवा पदों, और वाक्यों व्यक्तीकरण हुआ है!
परा शिवातात्वा में निक्षिप्त है! वह शब्द का प्रप्रथमा उद्यम है! इस को
नाद तत्व कहते है!
पश्यंति शक्तितत्व का प्रतीक है! इसी को
बिंदुतत्व कहते है! सृष्टि का का अत्याद्भुता शक्ति है!
इन तीनों से त्रिबिंदु उत्पन्न हुआ है!
वह ही सर्व मंत्रों का मूल हेतु है! सूक्ष्म, और अस्पष्ट कामकळा का हेतु है! वह समर्थ
देशिका से सीखना चाहिए!
श्री महात्रिपुरसुंदरिदेवी अम्माओं का
अम्मा है! वह प्रकाशरूप में दर्शन देगा!
हर एक जीव अपना अंतर्गत द्वंदों का हेतु अथवा उपस्थिति खो बैठेगा! इस हर एक
जीवी उस मंत्र शक्ति का रूपांतर होजायेंगे! हमारा अन्दर का श्वास निश्छल होजायेगा!
मन और इन्द्रियों अंतर्मुख होंगे! शरीर चेतना नहीं होगा! हम द्वैतरहित होजायेगा!
सर्वमानवसौभ्रात्रम् को साध्या करेगा! शिव-शक्ति के साथ ऐक्य होजायेंगे! इस
ऐक्यभाव ही परब्रह्मण अथवा महात्रिपुरसुंदरी इति ग्रहण करेंगे!
षडध्वज तीन प्रकार का है! वे:
वाचकध्वा (शब्द)> वाच्यध्व (अर्थ)> इन को संबंधित तीन स्थितियों में उन का
नाम इस प्रकार का है!
वर्णध्व अथवा अक्षरों का मार्ग है!
कळाध्व अथात पाञ्च सरिहद का समायुक्त है!
वे:
शंत्यतित कळा (शिवतत्व), शंतकळा (शक्ति अथवा शुद्धविद्य), विद्या कळा (माया-पुरुष), प्रतिष्ठा कळा (प्रकृति- जल), और निवृत्ति कळा( परा और
पश्यन्ति-पृथ्वी)!
पदाध्व अथात पदों, और अक्षरों का साथ समायुक्त है!
तत्वध्व— 36 तत्वों समायुक्त परिपूर्णव्यवस्था है! — परापर अथवा मध्यम
मंत्राध्व — मंत्रों अथवा
महावाक्यों का साथ समायुक्त है!
भुवानाध्व — तंत्रशास्त्र का अनुसार 118तत्वों साथ समायुक्त है! — अपरा अथवा स्थूला वैखरी
परावाक, शब्द अथवा पदम्, और अर्थ इति एक अवियोज्य बंध है! व्यक्तीकरण होने के बाद ये वियोज्य होना
प्रारंभ होना शुरू होता है! इस स्रुजनात्मक संतति(descent) में धृवणत (polarity) होता है!
अथात विषय और वस्तु (polarity)होता है!
विषय का अर्थ करने व्यक्ति (subject), वस्तु का अर्थ लक्ष्य (object) है!
उदाहरण: राम वेदं पढ़लिया!
इधर राम व्यक्ति, वेदं पढ़लिया लक्ष्य (object) है!
इस सृजनात्मक में उत्कृष्ट अथवा अत्यंत
सूक्ष्म परा है! वह स्थूला वैखरी को मार्ग बनाएगा!
शब्दाध्व यानी आखरी में परा अथवा
पराशक्ति स्थिति में पहुंचना, उसका माध्यम से अम्म का दया से ही अम्मा का प्राप्त
होना, अथवा
पुनः संसारबंध में फंसजायेगालगाजयेगा!! भैरव श्रीदेवी संभाषणा में ये पूरा पता
लगजायेगा!
नहीं वर्ण विभेदेन देहभेदेन वा भवेत्
परत्वं निश्कळत्वेन सकळत्वेन तद्भवेत्
कळध्व अथवा देशध्व का साथ परास्थिति में
स्थिरत्व नहीं होगा! परास्थिति अभेदस्थिति है! उस अभेदस्थिति सकला अथवा मिश्रम
स्थितियों का साथ जोड़ा के नहीं रह्सकता है!
इसी हेतु अनेक को (कळाध्व अथवा पुरुष और
देशध्व अथवा शक्ति) एक, यानी पराशक्ति अथवा परब्रह्मम् का स्थिति
में पाने से ही इस बन्धं से विमुक्ति लभ्य होगा!
त्रैपुर सिद्धांत में मुख्यशक्ति तीन
प्रकार का विभाजन होंगे!
व्यष्टि (विभाव) व्यक्तीकरण,
समिष्टि (प्रभाव) व्यक्तीकरण, और
ओप्पुकोलू (अनुभव) व्यक्तीकरण इति!
त्रिपुरों में रहनेवाले मुख्यशक्ति अथवा
पराशक्ति को ही श्रीत्रिपुरा कहते है!
श्रीत्रिपुरा अथवा
श्रीत्रिपुरसुन्दरिदेवी अम्मा
ब्रह्मा विष्णु रूद्र अथवा अग्नि वायु
सूर्या अथवा वसु रूद्र आदित्य इन का अतीत है!
आहावनीयाग्नी अथवा यागाग्नी, अथवा गार्हपत्याग्नी, दक्षिणाग्नी अथवा शरीर दहनाग्नी इति तीन
प्रकारों का अग्नि व्यक्ति का जीवन में जननं से मरणं तक मुख्य है!
योगी का जीवन में आहावनीयाग्नी हृदय
संबंधित है!
योगी का जीवन में गार्हपत्याग्नी कूटस्थ
संबंधित है!
योगी का जीवन में दक्षिणाग्नी शिरस
संबंधित है!
तीन शक्तियों है! वे:
इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति, और ज्ञानशक्ति इति तीन प्रकार का है!
ये तीनों सत्य में ब्राह्मी, रौद्री, और वैष्णवी शक्तियों है! ये तीनों श्रीदेवी का तीन प्रकार का शक्तियों है! ये तीनों इस जगत का व्यक्तीकरण का
सहायता करते है! हर एक अणु में ये तीनों शक्तियों काम करते है!
तीन स्वरों है! वे:
उदात्त, अनुदात्त, और स्वरिता इन तीनों वेदिकमंत्रो उच्चारण पद्धतियां
है!
ह्रस्व, दीर्घ, और प्लुत इन तीनों आकार–उकार–मकार ॐकार उच्चारण पद्धतियां है!
वाग्भाव, कामराज, और शक्ति (गायत्री, बाला, पंचदशी अथवा षोडशी) इन तीनों कूटमियां है!
तीन लोक है! वे: भू – पृथ्वी, भुवः – आकाश, और स्वः – स्वर्ग
तीन चक्रों है! वे: मूलाधार, अनाहत, आज्ञा
विज्ञान अथवा विद्वान् लोग इन तीनों का
उप्पर आधारित है! वे:
प्रमात (आधिकारित), प्रमाण( साक्ष्यं), और प्रमेय (सिद्धांतं)
तीन पीठ है! वे: जालंधर, कामरूप, और पूर्णगिरि
तीन पवित्र तीर्थ है! वे: नासिक, पुष्कर, और प्रयाग
जगत को शासन करने शक्तियाँ है! वे:
ॐ तत् सत् -----वेदों का अनुसार
नर
शिव शक्ति ------- तंत्र का
अनुसार
इडा सुषुम्ना पिंगला ------- कुण्डलिनी
योग का अनुसार
भूत
वर्तमान भविष्यत् ------- तीन कालों
हृदय
व्योम ब्रह्मरंध्र ------ तीन रंध्रो
ब्रह्मा
क्षत्रिय वैश्य --------- तीन वर्णों
ऋग
यजुस सामा ----------- तीन
वेदों
अंब अथवा अम्मा हम को अनेक रूपों, और व्यक्तीकरणों में दर्शन देगा!
अम्मा को श्रीलक्ष्मी रूप में दर्शन
करनेसे हम भौगोलिक कष्टों को पार करसकते है!
अम्मा को श्रीजयदुर्गा रूप में दर्शन
करनेसे हम विजय साध्य करसकते है!
कष्टतर, प्रमादकर, और भौगोलिक प्रयाण संकल्प करने पहले अम्मा
को श्रीक्षेमांकरि रूप में दर्शन करनेसे हम प्रमादों को पार करसकते है!
अम्मा को श्रीमहाभैरावी रूप में दर्शन
करनेसे भूता प्रेत पिशाचों से विमुक्ति
करसकते है!
अम्मा को श्रीतारा रूप में दर्शन करनेसे
बाढ और भूकंप इत्यादि से विमुक्ति करसकते
है!
असली में अम्मा का दया प्राप्त करने से
संसार सागर में डूबनेवाली नय्या को बचा सकता है और अवश्य बच जाएगा!
अम्मा को श्रीत्रिपुरा रूप में दर्शन
करनेसे जनन-मरण-जनन वृत्त से विमुक्ति
करसकते है!
शक्तोपाया का अर्थ सत्यान्वेषण है! इस
में मन प्रतिबिंब होना अथात मन को लक्ष्य का उप्पर विचार, और एकाग्रता करना है!
सत्यान्वेषण का आचरण करने को ज्ञान को
समायात्त करना चाहिए! इसी हेतु शक्तोपाया के लिए ज्ञानशक्ति अतिमुख्य है! इसी को
ज्ञानोपाय भी कहते है!
ज्ञानोपर्जन ही सत्यमार्ग है! इस को
प्राप्त करने का मार्ग, और मूल
बिंब – प्रतिबिंब
वाद है! इस का अर्थ उत्कृष्ट स्थिति ही नीचे स्थिति का मूल है! पश्यंति, मध्यम, और वैखरी इन का व्यक्तीकरण का मूला हेतु परा है! यह परा
उत्कृष्ट स्थिति है!
आगम सिद्धांत का अनुसार शिव और शक्ति
दोनों अंबा अथवा अम्मा का दोनों पैर है! वे ज्ञान और क्रिया शक्ति का प्रतीकें है!
इस तत्व को अर्थनारीश्वर अथवा अर्थनारीश्वरी
तत्वा कहते है!
अम्बा का सुवर्ण रंग का एक मटका जैसा
स्थन आनंद का प्रतीक है! उस आनंद अमृत क्षीर पीने के लिए गणेश और कुमारस्वामी
दोनों प्रतिस्पर्थी है! ऊंचाई
में स्थित चरण को निर्वाणचरण कहते है! वह शक्ति का मूल का प्रतीक है! वह बंध से
विमुक्ति होने दिव्यज्ञान का प्रतीक है!
योगद्र्ष्टि का अनुसार प्राण अपान दोनों
मिलके सुषुम्ना सूक्ष्म नाडी में जहा प्रवेश करेगा वह बिंदु का प्रतीक है! वह केवल
गुरु का माध्यम से ही साध्य है! गुरु का माध्यम से सीखा ज्ञान ही शिवम् नाम का
मुखद्वार को (gateway) को खोल सकता है! वह ही विश्वमानव
सौभ्रात्रुत्वं को मार्ग बनाएगा! हम सब भगवान का पुत्रों है! परमात्मा एक ही है!
वैसा सत्यान्वेषण को मार्ग बनाएगा! वह सत्यान्वेषण को अम्मा यानी पराशक्ति सही समय
में सद्गुरु का माध्यं से शक्तिपात देके लभ्य यानी साध्य कराएगा! तब अहंकार
समूलविनाशा होजाएगा!
तीन उपाय: वे:
अनव, शक्ति, और शांभव! वे आत्मसाक्षात्कार को सहायता
देगा! उन का एकजुटता सत्य में अनुत्तर को मार्ग बनाएगा! इसी को जगदानंद स्थिति
कहते है! उस में पूरा जगत दिव्य का रूप लेकर परमात्मा में एक अथवा ऐक्य होजाता है!
उस स्थिति में सारे समयों में कही भी देखने से आनंद ही आनंद प्राप्त होता है!
भेदभाव नहीं होता है! अन्दर बहार हर कोने में अभिन्नता दिखाईदेगा! चैतन्य अपने आप
को ज्ञात, ज्ञेयं, और ज्ञानं में परिवर्तन होजायेगा! वह
ध्यान में नहीं बैठने से भी परिपूर्ण अमृत आनंद सार्वभौमत्व तीव्रता वृद्धि होना
लगता है!नित्य अवगाहना जगदानंद स्थिति ऐसा ही है! यह छे प्रकार का आनंदों को
अतीतस्थिति है! वे:
1.
निजानंद – मन केवल अनुभव का उप्पर ही प्रतिष्ठित होक रहना
(प्रमाता)
2.
निरानंद – मन अनुभामे नहीं आने विषयों/नहीं होने विषयों का
उप्पर दृष्टि लगाके रहना
3.
परानंद -- मन
प्राण और अपान वायु का संयोग बिंदु का उप्पर दृष्टि लगाके रखना
4.
ब्रह्मानंद – मन समान वायु का उप्पर दृष्टि लगाके
रखना! वह विविधाप्रकारा का अनुभवैकवेद्य विषयों को एक अथवा संघटित करेगा!
5.
महानंद – मन उडान वायु का उप्पर दृष्टि लगाके
स्थिर होना! वह सर्व ज्ञान और अनुभवैकवेद्य विषयों को आत्मा में ममैक करेगा!
6.
चिदानंद – मन व्यान वायु का उप्पर दृष्टि लगाके
स्थिर होके रखना!
पांच प्रकार का परांब अथवा पराम्म का
महत्य नीचे दिया है! वे:
सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोधानं अथवा विळयं, और अनुग्रहं
सृष्टि: सृष्टि काम
स्थिति: व्यक्तीकरण को रक्षा करने
विधान
संहार: व्यक्तीकरण को उपसंहरण करने विधान
तिरोधानं अथवा विळयं: आत्मा को छिपा करके अथवा आच्छादन करना
अनुग्रहं: दया अथवा स्वीय प्रकटन
इन पांचों को व्यष्टि में जीव भी साध्य
करसकता है!
1.
देवतावों का माध्यम से ग्रहण द्वारा दिखाईदेनेवाले
छीज को आभासना अथवा सृष्टि कहते है!
2.
आखरी तक अनुभव आस्वादन करने देवता को रक्ति अथवा
स्थिति कहते है!
3.
एक वास्तु से अपने आप को विमर्शन समय में उपसंहरण
करने बुद्धि को संहार कहते है!
4.
विविध प्रकार का अनुभवों का उपसंहरण संदेहास्पद संस्कारों
को मार्ग बनाएगा! वे आखरी में अंतर्गत संदेहकृमि को जन्म देगा! वह कृमि पुनः पुनः खोदेगा! वह आत्मा का निजप्रकृति को आच्छादित
करेगा! इसी को विळय अथवा बीजवस्थापना स्थिति कहते है!
5.
साधक अपना संदेह और अनुभव दोनों को चैतन्य अग्नि में
जलाना चाहिए! तभी अम्मा दया का प्राप्त होगा! तभी अम्मा का सत्यस्वरूप पता
लगजयेगा! इसको हठपाक का अनुसार अनुग्रह अथवा विलापना कहते है!
हठपाक का अनुसार योगी अम्मा दया का
प्राप्त करेगा! इसी को अलंग्रास अथवा आत्मसाक्षात्कार कहते है! इस स्थिति में
संस्कारों अथवा संसारबीज व्यक्तिचैतन्य को समूलनाश करेगा! अम्मा का दया नियमरहित
है! वह पराशक्ति का उचित और सार्वभौम अभिमत है! निरंकाररहित साधक का उप्पर अम्मा
अपना अपार दया अवश्य दिखायीदेगा!
कुण्डलिनी योग में कुण्डलिनी शक्ति का
केंद्र ह्रदय है! उस का स्थान विशुद्ध चक्र ही है! पुरोगति प्राण सुषुम्ना
सूक्ष्मनाडि का माध्यम से विद्युत् जैसा आनंद देनेवाले लंबिका (चतुष्पथ) चतुरस्र
में मार्ग बनाएगा! इसी को क्रियायोग में ऊर्ध्वरेचक कहते है! सिद्धगुरु दया से
साधक प्राणशक्ति को नियंत्रण करसकेगा! तब अंतर्गत शक्ति जागृति होजायेगा!
साधक अम्मा दया से कुंडलिनी प्राणशक्ति
को सुषुम्ना सूक्ष्मनाडि का माध्यम से ह्रदय को भेजदेगा! मूलाधार से अमितशक्ति और
तापं से आनेवाली इस शक्ति को वह्नि कुंडलिनी कहते है! इस प्रकार साधक अपना श्वास, मन, और शुक्ल इन तीनों को नियंत्रण करसकता
है! इस जागृती हुआ कुंडलिनी प्राणशक्ति ब्रह्मनाङि में प्रवेश करेगा! इसी को
मध्येमार्ग कहते है! इस ब्रह्मनाङि मार्ग अत्यंत सूक्ष्म है! इस शक्ति सिंधूरवर्ण
में होंगे! अम्मा का क्रियाशक्ति पद्धति इस प्रकार का होगा! अम्मा निष्कल
महात्रिपुर सुंदरी, और
कुंडलिनी प्राणशक्ति दोनों एक ही है! छे चक्रों में जागृती हुआ कुंडलिनी
प्राणशक्ति अथवा महात्रिपुर सुंदरी सहस्रारचक्र में फलदीकृत होगा! इसीको षट् चक्र
भेदना कहते है!
पर भट्टारक का इच्छाशक्ति प्रधान रूप में
जब प्रस्फुट होगा, तब वह
अपना शक्ति बाला का कुमारीपन व्यक्त करेगा! इच्छाशक्ति सुस्पष्ट रीति प्रवाहित
होगा! इच्छाशक्ति को अधिगमन करेगा! जगत का व्यक्तीकरण को मार्ग बनाएगा! व्यक्तीकरण
मार्ग का परिणामों में महामाय छठा कदम है! अभेद निकलजायेगा! भेदम को जगह देगा!
सृष्टि परिणाम में महामाया अपना
मनोहराशक्ति को प्रदर्शन करेगा! पराशक्ति साधक का उप्पर दया दिखने समय में
इन्द्रियों का साथ संकट में नहीं डालेगा! इस का बदल में साधक को इन्द्रियों का
माध्यम से महत्वपूर्ण ऐक्यता को समझाने अथवा समझने का सक्षम करेगा! पराशक्ति
अनैक्यता से ऐक्यता को मार्ग बनाएगा! इसेवास्तु
अम्मा को महाशक्ति अथवा आश्चर्यचकितशक्ति कहते है! उस शक्ति को अम्मा क्रमागता उन्नति और
पेचीदगी (evolution and involution) दोनों में प्रदर्शित करेगा! अम्मा का दोषरहित महत्व
सारे दिशों में और सारे प्रदेशों में प्रकाशित करते रहता है!
बिना मानव प्रयत्न अप्रयत्नपूरक(involutionary) पद्धति में उस अम्मा का महत्वपूर्ण सत्य
को ग्रहण करने को, अम्मा का
दिव्या सार्वभौमत्व महामाय साधक को अपनेआपी वर प्रसादित करेगा! इस आत्मसाक्षात्कार
मार्ग को शांभवोपाय कहते है! इस सत्य बाहर दिखाई नहीदेगा! अम्मा का दया से ही कुछ
लोगों को ज्ञात होजाती है!यह सत्य है! तंत्र शास्त्र में इसी को इच्छायोग कहते है!
यह प्रकृती में अंतर दृष्टि कहते है! केवल अम्मा का दया वीक्षणों से ही महोन्नत योगार्तो को अथवा योगसाधको को ही
ऐसा अंतर् दृष्टि साध्य है! मानसिक वीक्षण (क्रियोपाय) और ज्ञान वीक्षण(ज्ञानोपाय)
इन दोनों पीछे चलाजायेंगे!
आत्मसाक्षात्कार मार्ग को अनुकूल में साधना करानेदो नहीं करानेदो, निज सत्याण्वेषी को शांभवोपाय मार्ग का
माध्यम से यह सुसाध्य है! साधक का मनोप्रवृत्ति यदि निष्कलंक होगा तब इच्छाशक्ति
प्रस्फुटह प्रकाशित होगा! सब में अन्दर बाहर घुसजानेवाले अथवा व्याप्तिहोने दिव्या
स्थिर मार्ग को शांभवोपाय मार्ग कहते है! यह शक्तिपात का पराकाष्ट है!
परमेश्वर का विविध प्रकार का
अपारशक्तियां अम्मा दया का अनुसार योगी को प्राप्त होंगे! साधक अपना एकाग्रता को
वृद्दि करने में सक्षम होगा! उसी का हेतु समतुल्यता का साथ आध्यात्मिक आनंद
प्राप्त करेगा! साधक को चार प्रकार का संप्रज्ञात सामाधियो बनेगा! उस का वजह से
योगिनीशक्तिया साधक को सहायभूत होगा! वे:
1.
सवितर्कसमाधि: योगिनी शक्तियाँ साधक को निरंतर देखने
इच्छुक होगा अथवा योगी को विचारण करने एकाग्रता अनुभव में आना
2.
निर्वितर्क समाधि: योगिनी शक्तियाँ साधक में ममैक
होना अथवा महत्वपूर्ण विचारण करने एकाग्रता को साधक लभ्य करना
3.
सविचारसमाधि: साधक योगिनी में ममैक होना अथवा योगी का
प्रतिबिंब योगिनी को लभ्य होना
4.
निर्विचारसमाधि: योगि और योगिनी एक होना, अथवा महोंनाता योगिनी का प्रतिबिंब योगी
को लभ्य होना
इन चारों समाधियों का समतुल्य समाधि को
सबीज समाधि अथवा बहिर्वस्तु बीजसमाधि कहते है! इन में कुछ संस्कारों अथवा मूल साधक का
मन में बच जाएगा! इस का पश्चात सर्वश्रेष्ठ निर्विकल्पसमाधि को साधक प्राप्त
करेगा! इस में अथवा इस का साथ मन का अन्दर का संदेहों अथवा संस्कारों अथवा मूल
समूल नाश होजायेगा! साधक में अंतर्गत समतुल्यता लभ्य होजायेगा! अम्मा को साधक 12
प्रकार में वश हो जाएगा! अम्मा अपना इच्छा, ज्ञान, और क्रिया शकतियों का माध्यम से इस पूरा
जगत व्याप्त हुआ है! अम्मा इन शकतियों का माध्यम से व्यक्ति और समिष्टि शरीर/जगत
इन दोनों में व्याप्त हुआ है! अम्म को मनसा वाचा कर्मणा प्यार किया व्यक्तियों को बंधो
से अम्मा विमुक्ति करेगा!
उन 12 प्रकार ऐसा है! वे:
1.
अम्मा ही
मेरा निजस्वरूपा इति समझके अम्मा का उप्पर ध्यान करना है!
2.
अम्मा का
दया प्राप्त करने को कृषि करना (वेत्ति)
3.
अम्मा का
नाममंत्रों जाप करना (जपति)
4.
अम्मा को
सारे दिशो में दर्शन करना! (आलोकयति)
5.
सर्व
समयों में अम्मा का बारे में विचारण करना (चिंतयति)
6.
अम्मा को
विधेयता प्रदर्शित करना (अन्वेति)
7.
अम्मा को
वशहोना (प्रतिपादयति)
8.
अम्मा को
समझना (कलयति)
9.
अम्मा को
स्तुति करना (स्तुति)
10.
अम्मा को आश्रय करना (आश्रायति)
11.
अम्मा को
आराधन करना (अर्चयति)
12. अम्मा का गुणों को श्रद्धा से सुनना (गुणानाकमयति)
जीवित परमार्थ सत्य जानने के लिए इन 12 प्रकार का
ध्यानपद्धातियाँ आवश्यक है! ये ध्यानपद्धातियाँ प्रणव का 12 मात्राए है! वे:
अ,
उ, म,
अर्थचंद्र, बिंदु, निरोधिक, नादा, नादांत, शक्ति, व्यापिनि, समन, और उन्मन है! बारवहां मात्र उन्मन अत्यंत
गौरवनीय और अतीत है! सब से बढक़र परा का आसन अथवा पीठं उन्मना है! योगी इस दिव्या
वर्णनातीत धर्मो (attributes) को स्वाभाविक(spontaneous)श्रद्धा से सुनता हुआ परमानंद से में डूबजायेगा!
कुण्डलिनी चित शक्ति, प्राणशक्ति, अथवा चैतन्य शक्ति है! विद्युत् शक्ति को
मूलहेतु केवल यह ही है! तंत्र अथवा
तांत्रिक कुण्डलिनी योग का उद्देश्य अथवा संकल्प इस कुण्डलिनी शक्ति को नियंत्रण
करना ही है! नियंत्रित हुआ इस शक्ति उत्कृष्ट और महत्वपूर्ण अथवा घना मार्गो को
दिशा परिवर्तन करना है! इस कुण्डलिनी
शक्ति को सही मार्गो में दिशा परिवर्तन करने निरोधकरनेवाला छीज अहंकार ही है! इस
निरोधन का माध्यम से व्यक्ति अपना परमानंद, सौंदर्य नित्यता, शांति, अमितसर्वोपन्न आनंद को खोबैठेगा!
कुण्डलिनी योगी का नाडी व्यवस्था का माध्यम से अपने आप को व्यक्तीकरण करेगा!
साधारण जीवन बितानेवाला हर एक व्यक्ती में यह कुण्डलिनी आधा जागृती होगा! यह
कुण्डलिनी जितना जागृति होगा उतना ही जीवन
में आनंद लभ्य होगा!
प्राण कुण्डलिनी स्थूला अथवा भौतिक
स्थिति में काम करेगा!
नाद कुण्डलिनी सूक्ष्म अथवा मानसिक
स्थिति में काम करेगा!
बोध अथवा ज्ञान कुण्डलिनी आध्यात्मिक
स्थिति में काम करेगा!
कुण्डलिनी शरीर में अपना स्थान का अनुसार
विभाजित होगा!
प्राण कुण्डलिनी स्थूला अथवा भौतिक
स्थिति में काम करेगा!
1.
आधा कुण्डलिनी: यह मूलाधार का पास निद्राणस्थिति में
होता है!
2 ऊर्ध्व कुण्डलिनी: दोनों आँख का भौह का मध्य भाग को आज्ञा
पाजिटिव अथवा कूटस्थ कहते है! ब्रह्मरंध्र में प्रवेश करनेवाले शक्ति को
ऊर्ध्व कुण्डलिनी कहते है!
3
3 परा कुण्डलिनी: परमशिव का सर्वोत्कृष्ट स्थिति को परा कुण्डलिनी स्थिति कहते है! सहस्रार और उसका अतीत प्रदेश को कैलासा पर्वत कहते है!
मेचकाभ तंत्र में इन छे चक्रों को और अर्थवंत नामो से पुकारते है! मूलाधार चक्र में नादाचक्र, नाभिस्थान में मायाचक्र, ह्रदय में योगाचक्र, गले में अथवा लंबिका में भेदनाचक्र कहते है! इस भेदनाचक्र को लंबिकायोग में अक्सर संकेत मिलते अथवा बोलते है!
शृंगेरि श्री विद्याशंकर महास्वामीजी इस लम्बिकायोग समाधि में नित्यं चतुर्मूर्तीश्वरशिवलिंग रूप में रहते थे! इस रोजतक उसी समाधी में डूबाही हुआ है! उन का उप्पर ही विद्याशंकर मंदिर इति सुंदर मंदिर निर्माण किया है! उस महान गुरु का कृपा से इस पवित्र मंदिर में साधन करने साधको का संदेहों निवृत्ति होना गमनार्हा है!
कूटस्थ चक्र को दीप्तिचक्र कहते है!
ब्रह्मरंध्र चक्र को शांतिचक्र कहते है!
इन चक्रों में छठा चक्र शांतिचक्र कहते है! ये अतिमुख्य है! शकता पद्धतियों में निष्णात गुरु का पास इस श्रीचक्र का अन्दर का छीज जानना चाहिए!
छे दळों का इस श्रीचक्र सुषुम्ना का निगूढ शास्त्र का बारे में ज्ञात कराएगा!
मूलाधार में शिव त्रिकोण और एक शक्ति त्रिकोण का साथ मिलके रहता है!
दोनों त्रिकोण का कोण आमने सामने(opposite) होंगे! योग शास्त्रानुसार भौतिक शरीर में इस का स्थान आज्ञाचक्र है! शिव और शक्ति अलग अलग त्रिकोणाकृति में रहता है! परंतु उन दोनों का मिलन षट्कोणाकृति है! शिव त्रिकोण (बिंदु) और शक्ति त्रिकोण (योनि) है! इस दोनों का मिलन को षट्कोणमुद्र अथवा शांभवीमुद्र कहते है! इसी को ॐकारपीठ कहते है! यह बीजमंत्र का आसनास्थान है!
इस का बाद वाला हृत् कर्णिक अथवा मुखमुद्रा कहते है! यह ह्रुदयपद्मम् का केंद्र है! इस ह्रुदयपद्मम् का उप्पर ध्यान करना चाहिए! ह्रुदयपद्मम् को अमृतबीजं कहते है! यह साधक को जगादानंदस्थिति को लेजाएगा!
स्वामि लक्ष्मण का अनुसार परिणिति हुआ साधकों कुण्डलिनी को तीन प्रकार का अनुभूति करते है! प्रथम स्थिति नशा अथवा शिर चकराना स्थिति है! जागृती हुआ कुण्डलिनी मूलाधार को परिमिति होगा! इसी को आधा कुण्डलिनी स्थिति कहते है!
दूसरा स्थिति में कुण्डलिनी सुषुम्ना से ब्रह्मरंध्र तक बिजली जैसा चमकेगा! इसी को ऊर्ध्व कुण्डलिनी स्थिति कहते है!
इन दोनों स्थितियों में अर्थात् अर्थ कुण्डलिनी स्थिति और ऊर्ध्व कुण्डलिनी स्थिति दोनों में ध्यान करने को परात्रिंशिका में अच्छा व्याख्यान दिया है!
आदिकोटि अर्थात बहिर्ध्वाशांत और अंतकोटि अंतर्वादशांत इनीको अर्थ कुण्डलिनी स्थिति और ऊर्ध्व कुण्डलिनी स्थिति कहते है! इन का मिलन को षट्कोणमुद्रा अथवा षट्पात्र कमलं कहते है! इस बिंदु को आदि और अनंत नहीं है! उसी बिंदु का उप्पर ध्यान करना है! 15 स्वरों (vowels) का उप्पर, पश्चात् में सोलहवा शिव ह्रदयकमलं का उप्पर ध्यान करना है! सत्रहवाँ कळ संदिग्धरहित बिंदुकळ कहते है! उधर प्राण और अपान दोनों नहीं होंगे! इसी को सोमांशं कहते है! महासप्तादशी नित्य तर्पणं का पीछे छिपा हुआ प्रामुख्यता यही है! नित्य कळार्चनं आचार में यह षोडशि नित्य से भी अतीत है! यह तुरीयातीत और तुरीय का संबंधित है!
दीर्घसाधना का माध्यम से साधक अपना प्राणशक्ति का उप्पर तह(fold) साध्य करेगा! इस कौशल कुशलता का माध्यम से और आगे बढ़कर ऊर्ध्वकुम्भक साध्य करेगा! साधक मुख्यप्राण का उच्छ्वास निश्वास दोनों को दो प्रकार का उपयोग करेगा! प्राण को अपान में, अपान को प्राण में ममैक करेगा!
सिद्ध संप्रदाय का अनुसार आध्यात्मिक रीति में ये चौदवहां और पंद्रहवां करियो का संबंधित है! श्री लाहिरी महाशय आठ क्रियो का बारे में ज्ञात किया! ये 72 क्रियाओं तक है! इन में 25 तक कुछ लोगों को पता है! इन 25 क्रियावों में आखरी दो क्रियावों का बारे में चर्चा करेंगे! वे:
1) संहारक्रिया: इस का अनुसार योगी ब्रह्मरंध्र का माध्यम से बाहर निकलेगा!
2) ब्रह्ममलन क्रिया: इसी को आनंद क्रिया, महा क्रिया, समाधि क्रिया, कुलाम्रिता क्रिया, और निरालंब क्रिया इति भी कहते है!
इन दोनों मार्गो को देवयाना अथवा उत्तर मार्ग, और पित्रुयान अथवा दक्षिणमार्ग कहते है! इन दोनों से बढ़कर एक और मार्ग है! इसी को भैरवस्थिति कहते है! यह क्रियासून्यता का मार्ग बनाएगा!
याना का अर्थ वाहन अथवा रथ है! योगा प्रक्रिया में इसी को सुषुम्ना में मार्ग बनाना कहते है! अनेक प्रकार में अनेक पद्धतियों का माध्यम से इस सुषुम्ना राजमार्ग में प्रवेश करसकते है!
देवयान मार्ग में अनवोपाय पद्धति में प्राणवायु अंदर प्रवेश करेगा!
सक्तोपाय पद्धति में साधक आत्मज्ञान से विराजमान होगा!
पित्रुयान अथवा दक्षिणमार्ग मार्ग अनवोपाय पद्धति में अपानवायु अंदर प्रवेश करेगा!
सक्तोपाय पद्धति में साधक क्रिया योग ज्ञान से विराजमान होगा!
इन सब से अधिक शांभवोपाय मार्ग है! प्रकाशा और विमर्श अर्थात शिव – शक्ति दिव्यत्वा का साथ निरंतर स्थिरत्व से साधक प्रयाण करते रहता है!
षोडश संस्कारों
भारतीय सनातनधर्म में हर एक व्यक्ती का जीवन विविध प्रकार का संस्कारों से सम्मिलित अथवा जोड़ा हुआ है! इन संस्कारों का पीछे बहुत विज्ञान छिपा हुआ है! इन संस्कारों हर एक व्यक्ती का जीवन प्रारंभ से मरणांत तक करनापड़ता है! इन संस्कारों कुल मिलाके सोलह है! इन संस्कारों को दो भागों में विभाजन किया हुआ है! वे जनन पूर्वक संस्कारों और जननांतर संस्कारों है!
गर्भादानं – पुंसवनं – सीमंतं – जातकर्म – नामकरणं – निष्क्रमणं – अन्नप्रासनं – चूडाकरण – कर्णवेध – अक्षराभ्यासं – उपनयनं – वेदारंभं – केशांत – समावर्तनं – विवाहं – अंत्येषठि
1. गर्भादानं – विवाह का पश्चात् सत् संतान मांग के लिए मंत्र पूर्वक करनेवाला संस्कार यह है! इस संदर्भ में उच्चारण करने मंत्रो सत् संतान मांग का सूचना देते है!
2. पुंसवनं - आरोग्यवान सत्संतान हेतु, गर्भारक्षण के लिए करने प्रथम संस्कार यह है! गर्भिणी स्त्री का तीसरा मॉस में पहले दस दिन का अंदर ये पुंसवनं संस्कार करते है! अंकुरित वट वृक्ष बीजों पिसाई करके हिरण्यगर्भ मंत्रो पढ़के इस रस को उस गर्भिणी स्त्री का दाए (right) नथना में डालते है! चंद्र पुरुष राशि में (रवि, कुज, और बृहस्पति) होने समय में इस संस्कार करने से आरोग्यवान दृढकारी पुरुष का जन्मा होगा करके विशवास है! वट वृक्ष फल को उरद दाल और जौ (barley) दोनों का साथ मिलाके पीसके उस रस को गर्भिणी स्त्री को सूंघवाने से योनि दोषों निवारण होगा! गर्भरक्षणशक्ति होगा! यह आयुर्वेद शास्त्र और सुकृतं में भी कहा हुआ है! मोक्ष को उपयोगकारी उत्तम स्थूल शरीर को लभ्य करने लक्ष्य से इस पुंसवनं संस्कार निर्णय किया है!
3. सीमंतं – ये आगामी शिशु का दीर्घायु चाहते हुवे करने संस्कार है! इस गर्भिणी स्त्री को सातवाँ से नौवां मॉसों का बीच में कूटस्थ से ब्रह्मरंध्र तक केशों का बीच में कंगी से एक लाइन बनाके सवारना है! वैसा करने से उस ब्रह्मरंध्र से शिशु को आत्मज्ञान मिलेगा इति एक विश्वास है! साधना के लिए इस जीवित (life) इति उद्देश्य से इस संस्कार निर्णय किया है! आगामी शिशु को मानसिक उल्लास अत्यंत आवाश्यक है! उस के लिए आवश्यक शर्तें इस में निक्षिप्त है!
4. जातकर्म – जन्मित शिशु का नाभि काटदेते है! नाभी का रस्सी काटने के पहले शर्तें इस संस्कार में निक्षिप्त है!
मेथा जननं – शक्ति और बुद्धि आने का हेतु घी और मधु प्रतीके है! सुवर्ण की अंगूठी से घी और मधु शिशु का मुह में डालते है!
शिशु का दीर्घायु के लिए ऋषियों, पित्रुदेवातायो, और अग्नि सोमा को आव्हान करने मंत्रो को शिशु का आगे पढतें है!
पिता ‘शतमानम् भवति’ इति उच्चारण करता हुआ शिशु का कान में बोलते है!
तब नाभी का रस्सी काटते है! शिशु को शुभ्र करेगा! स्थन का क्षीर मुह में डालेगा!
5. नामकरणं – जन्मा हुआ शिशु को नामरण करने का ये संस्कार निर्णय किया है! इस का नियम निबंधनावली सब पराशर गृह्य सूत्रों में निक्षिप्त किया हुआ है!
6.
निष्क्रमणं – शिशु को प्रथम दफा गृह का बाहर लाने
का समय में करने संस्कार निष्क्रमणं है! उस शिशु को शक्तिशाली दुष्ट शक्तियों का
बारे से रक्षा करने को आदिभौतिक, आदिदैविक, और आध्यात्मिक शक्तियों का संबंधित
जाग्रताये लेना है!
7. अन्नप्रासनं – शिशु को पहलेदफा घनाहार खिलाने का इस अन्नप्रासनं संस्कार निर्णय किया है! ये शिशु का भौतिक अवसरों को पूरा करने प्रक्रिया है! वेदमंतोच्चारणों का साथ परिशुद्ध पात्र में शिशु का मुह में डालते है! इस प्रक्रिया का वजह से शिशु को सत्वगुण वृद्धि होगा!
8. चूडाकरण – शिशु को जन्मता आया हुआ केशों को पहली बार केशकर्तन करने संस्कार चूडाकरण है!
9. कर्णवेध – कान उबाऊ संस्कार कर्णवेध है! पाँच साल का अन्दर शिशु को इस संस्कार करनापड़ता है!
10. अक्षराभ्यासं – शिशु का मन अवसर का अनुसार परिपक्वता होना है! नूतन विषयों सीखना है! पाँच साल का अन्दर शिशु को इस संस्कार करनापड़ता है! इसी को विश्वामित्र महर्षि सात साल तक बढाया है! वर्तमान कालमान का अनुसार शिशु तीन साल पूरा करने पर इस संस्कार करते है!
11. उपनयनं – अक्षराभ्यासं लांछन संस्कार है!यह संस्कार गुरु अथवा गुरुकुल में भेजने पहले करने संस्कार है! इस संदर्भ में गुरु शिष्य को
पिता का माध्यम से गायत्रीमंत्र उपदेश करेगा!
12. वेदारंभं – उपनयन संस्कार का पश्चात वेदारंभं संस्कार आरंभ होता है!
13. केशांत – चूडाकरण का पश्चात् पह्लेबार करनेवाला केशा संस्कार यह है!
यह सोलह साल आने पर करने संस्कार यह है! यौवन चापल्यता का नहीं वश होने का और ब्रह्मचर्य का प्राधान्यता को ज्ञात करनेवाला संस्कार यह है! इस संस्कार में गुरु को गोदान करके गुरु का उप्पर अपना विधेयता और गौरव को शिष्य प्रकटित करेगा!
14. समावर्तनं/स्नातकं – विद्याभ्यास पूर्ण करके विद्यार्थी गुरुकुल को छोडदेगा! तब ये समावर्तनं/स्नातकं संस्कार निर्वहण करते है! गुरुकुल में क्रमशिक्षणाका साथ रहके विद्यार्थन में उत्तीर्ण हुआ विद्यार्थी को स्नातक कहते है! स्नातक विवाह करके गृहस्थ जीवन बिताना है! अथवा प्राप्त (लभ्य) किया विज्ञान से भौतिक, और मानसिक बंधो से दूर में जीवन बिताने को सिद्ध होता है! इन को उपकुर्वन और नैष्ठिक कहते है!
15. विवाहं – विवाहं संस्कारों में अतिमुख्य है! वधु का उचित वर को, वर को उचित वधु को चुनना विवाह में अतिमुख्य संघटन है! सगोत्रिकोयो का बीच में विवाहों निषेध है! स्त्री पुरुषों का बीच में सहज सिद्ध अथवा प्रकृति सिद्ध आकर्षण होताई है! स्त्री पुरुषों दोनों को वेदमंत्रो का साथ अथवा वेदमंत्रो साक्षी बनाके एक करना ही विवाह है!
16. अंत्येष्ठि- यह आखरी संस्कार है! भौतिक शरीर को विसर्जित करने पश्चात जीवात्मा अपना कर्मानुसार परमात्मा में अइक्य होने को निर्वहण करने संस्कार यह है! धर्मबद्ध जीवन किया व्यक्ति मुक्ति पाने को करने संस्कार यह है!
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