गीताअंतरार्थतृतीयोऽध्यायःकर्मयोगः श्रीभगवद्गीत

          ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणेमः  
                 श्रीभगवद्गीत
           थ तृतीयोऽध्यायः
             कर्मयोगः
अर्जुन उवाच
ज्यायासीचेत्कार्माणस्ते मताबुद्धिर्जनार्दान
तत्किं कर्मिण घोरेमां नियोजयसिकेशवा             1
अर्जुन ने कहा--- ओ कृष्णा, ज्ञान कर्म से श्रेष्टतम है कर के तेरा अभिमत है तों, इस भयंकर युद्ध कर्म में मुझे क्यों प्रवर्तित करते हो!
कर्म का अर्थ  निष्कामकर्मयोग है! कर्म, भक्ती, ध्यान, और ज्ञान योगों सर्वस्तातंत्र योग नहीं है! एक दूसारा योग का उप्पर आधार हेतू यानी परस्पर आधारभूत है! 
पुस्तकॉ से प्राप्त किया ज्ञान को अनुभूति पाना है तभी तों उस ज्ञान का सार्थकता है! उस अनुभव के लिए साधना युद्ध कर्म में प्रवर्तित होना चाहिए!
मात्र पुस्तक ज्ञान से परमात्मा का साथ साधक अनुसंथान नहीं कर सकते है! 
व्यामिश्रेणवाक्येन बुद्धिम मोहयसीवमे 
तदेकं वादा निश्चित्य एना श्रेयोहमाप्नुयां             2
हे कृष्णा, मिश्रित वाक्यों से मेरा बुद्धि को गभराहट करानेवाला जैसे लगते हो! कर्म और ज्ञान दोनों में किस से श्रेयस्कर है उन्हों में कोई एक छीज निश्चय कर के कहो! 
धयान निष्कामकर्मा है! ध्यान करने से भक्ती यानी श्रद्धा प्राप्ति होता है! ए ही भक्तियोग है! इस भक्तियोग का पराकाष्ठा ध्यान, ध्यान का अनुभव ही ज्ञान है! .   
श्री भगवान उवाचा---
लोकेस्मिन द्विविधा निष्ठा पूरा प्रोक्ता मयानघ 
ज्ञानयोगेन साम्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनां            3
श्री भगवान ने कहा---  
अनघा का अर्थ पापरहित,  पापरहित अंतःकरण में ब्रह्मविद्या अच्छीतरह प्रवेश करता है!    
ओ पापरहित अर्जुन, भूत काल में तत्वविचारणायुक्त सांख्यों को ज्ञानयोग, ज्ञानयोगियों को कर्मयोग इति दो प्रकार का अनुष्ठानों मेर से कहा गया था! 
कर्म नहीं करने से ज्ञान नहीं मिलेगा! इडली बनाने के लिए किताब पढ़ने से नहीं कर सकते है! दादी अथवा नानी का पास प्रत्यक्ष में सीखने से आसानी होगा! वैसा ही ध्यानाकर्म करनेसे ही आता है ज्ञान! आज 17x3=51 आसानी से बोलने का कारण बचपन में टेबल्स(Tables) रट्टा करके पढ़ने का फल है! बचपन में रट्टा मार के याद करना आसान है! बढ़ा होने का बाद याद करना मुश्किल है, मगर बचपन में याद किया हुआ छीजों को समझना आसान है!    

नकर्माणामनारंभानैष्कर्म्यंपुरुषोश्नुते  
नचा संन्यासनादेवा सिद्धिम समाधि गच्छति                      4
मनुष्य कर्मो को आचरण नहीं करने से निष्क्रिय आत्मस्वरूप स्थिती प्राप्त नहीं कर पायेगा! केवल मात्र कर्म त्याग से मोक्षस्थिति लभ्य नहीं होता है! 
35 अथवा 40 वर्षोँ का नौकरी करने से ही आज का दिन आराम से बैठकर प्रभुत्व से फेशन पाकर खा सकता है! इसीलिए कर्म कर के त्याग करना है! बिना कर्म का क्या त्याग करोगे? और ऐसा त्याग भी निरुपयोग भी है! तुम् ताकतवर होंकर भी प्रत्यर्थी को छोड़ने से इसी को धीरता कहते है, तुम भीर होंकर प्रत्यर्थी को छोड़ने से उस को धीरता नहीं भीरता कहते है! भौतिक विज्ञान भी कर्म नहीं करने से लभ्य नहीं होता है तों दुर्लभा मोक्षस्थिति ध्यानाकर्मा नहीं करने से कैसा प्राप्ति कर सकते है! 
नहि कश्चित क्षणमपि जातु तिष्ठत्य कर्मकृत 
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वाः प्रक्रुतिजैःगुणैः             5
प्रपंच में कोई भी मनुष्य ऐ क्षण काल भी बिना कर्म रहा नहीं सकता है! प्रक्रुति का साथ उत्पन्न हुए गुणोंसे, हर एक मनुष्य विवश होंकर कर्मो को करता रहता है! 
ब्रह्माण्ड सत्वा, रजो, और तमो गुणों से व्यक्तीकरण किया हुआ है और उन् गुणों से ही चलता है! आत्म सृष्टि का अतीत है! प्राणशक्ति, और शरीर का साथ आत्म जब मिलता है कीचड में गिराने से सोने का साथ मैला जैसा लग जाता है, वैसा ही अहंकार नाम का मैला आत्मा का साथ लगजाता है! उस समय में शारीरक, मानसिक, और आध्यात्मिक स्थितियों को वश हुआ जैसा लगेगा! मैला को सफाई करने से सोना फिर पूर्व वैभव से चमकेगा!  वैसा ही मला, विक्षेपन, और आवरण दोषों से मुक्त होंकर आत्मा उज्वल स्थिती में प्रकाशितं होता है! 
परिपक्वा आत्मज्ञान लब्ध हुआ योगी भी इसी कारण छुप नहीं बैठ कर परितप्त मनुष्यों को क्रियायोग ध्यान सिखाता है! 
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरण 
इन्द्रियार्धान्विमूढात्मा मिथ्याचारस्स उच्यते                  6
जो साधक ज्ञानेंद्रिय कर्मेन्द्रियोंको दबाके मन से इन्द्रियों का शब्दादि विषयों का बारे में चिंतन करता है, वैसा मूढचित्त मनुष्य कपटाचारी मनुष्य कहलाते है!
योगसाधना से शाश्वत परामात्मा को लभ्य करेगा कहकर बीच में त्यग कर पुनः क्षणिक और अल्प इन्द्रियसुखों का बारे में चिंतन करना कपटी का ही काम है! लोगों का शहबाज के लिए काषाय वस्त्रधारण कर के संन्यासी जैसा बैठना कपटपूर्ण है! दुष्ट आलोचनाएं क्रमशः दुष्ट कामों का आलम्बन होता है! 
इसीलिए क्रियायोग से क्रमशः मन को नियत्रंण करना है! इन को दबा के रखने से स्प्रिंग जैसा मुख में आके मारेगा! वैसा ही दुष्ट आलोचनाएं मनुष्य विनाश हेतु है! 
अपना ध्यान का माध्यम से परमहम्सा स्थिति यानी परामात्मा से अनुसंथान होकर निर्विकल्पसमाधि स्थिति प्राप्त हुआ योगी प्रस्तुत में ध्यान करने से भी नहीं करने से भी कोई बात नहीं है! वों परामात्मा का आध्यात्मिक पेन्शनरी ही है! ज्ञानप्राप्ति किया हुआ साधक शांति नाम का पेन्शनरी है! 
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेर्जुन 
कर्मेंद्रियैः कर्मयोगमसक्तस्सविशिष्यते                       7
हे अर्जुन, जो साधक अपना मन से इंद्रियों से नियंत्रित करके, कर्मयोग को निरासक्तता से आचरण करता है, ओ साधक उत्तम है! 
नियतं कुरु कर्मत्वं कर्मज्यायोह्योकर्मणः 
शरीरयात्रापिचा ते नाप्रसिद्ध्येदकर्मणः                              8
हे अर्जुन, तुम शास्त्रों से नियमित हुए कर्म करो! कर्म नहीं करने बदल में कर्म करना श्रेष्ठ है! कर्म नहीं करने से देहयात्रा भी सिद्ध नहीं होगा! 
साधक शास्त्रों से नियमित क्रियायोगकर्म साधना करना चाहिए! इस साधना पूर्णरूप से सफल नहीं होने से भी फरवा नहीं है! ध्यानयोगी का शरीर निश्छल रहता है! इस का अर्थ ध्यान में साधक तीव्ररूप से मानसिक रूप में काम करता है! मन को इन्द्रियों से हठा कर सूक्ष्मशाक्तियों को अंतर्मुख कर के परमात्मा से अनुसंथान करता है! असली कर्मयोग ए ही है!  
यज्ञार्धात्कर्मणोन्यत्र लोकोयं कर्मबंधनः
तदर्धं कर्मकौंतेय मुक्तासंगःसमाचर                 9
हे अर्जुन, भगवत्प्रीतिकर, लोकहितार्थ यज्ञकर्म यानी क्रियायोग के अलावा इतर कर्मो से लोग बंधन होते है! तुम क्रियायोग यज्ञकर्म के लिए संगरहित होंकर फलासक्ति त्याग कर कर्माचारण करो!  
सहयज्ञाःप्रजास्सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः 
अनेन प्रसविष्यध्वमेषवोस्त्विष्टकामधुक्                         10
पुराणा समय में ब्रह्म यज्ञों का साथ साथ प्रजाओं को सृष्टि कर के इन् यज्ञों से तुमलोग अभिवृद्धि होजावो, उन् यज्ञों आपलोगों का अभीष्टों को प्राप्ति करवाएंगे कर के कहा था! 
यज्ञों में ब्रह्म हमेशा अन्तर्गत होता है! 
परामात्मा चेतनाविचारोंप्रकाशप्राणशक्तिएलेक्ट्रान प्रोटानमालिक्यूलप्रकृतिपृथ्वीमनुषय——ए है जंजीर 
 परमात्मा अपना चेतना कर के यज्ञ से मनुष्यों को व्यक्तीकरण किया! मेरा स्फूर्ति से व्यक्तीकरण हुए तुमलोग उसी स्फूर्ति से अभिवृद्धि होजावो कर के आदेश किया था! 
देवान्भावयतानेन ते देवाभावयंतुवः
परस्परंभावयंतःश्रेयः परमवाप्स्यथ                         11
इस यज्ञों से देवताओं को संतृप्ति करो! वे आपलोगों को वर्ष इत्यादियों से संतृप्ति करेंगे! इस प्रकार से दोनों परस्पर तृप्ति पानसे उत्तम श्रेयस् लब्ध होगा! 
योगाध्यानयज्ञ में अनेक सूक्ष्मशाक्तियों के साथ साधक ममैक होके रहता है! सूक्ष्मशाक्तियों का अर्थ दिव्यात्मायें है! वों परमात्मा का प्रतिनिथियां है! उन् का माध्यम से परमात्मा को निर्देशन करता है! इसीलिए ध्यान का माध्यम से परस्पर तृप्ति लब्ध करना श्रेयस्कर है! 
हमारा कर्मो का मुताबिक़ इन ग्रहों, और नक्षत्रों, जन्म समय में नियमित स्थानों में होंगे! 
इष्टान्  भोगान् हि वों देवादास्यंते यज्ञभाविताः
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो योंभुङ्तेस्टेन एव सः                      12
मनुष्यों का क्रियायज्ञों से संतुष्ट होंकर देवतायें उनका इष्ट भोगों को देते है! ऐसा भोग्यवस्तुवों समर्पितभाव छोडकर जो अनुभव करता है वों तस्कर ही है!  
अभिषेक——पंचामृतस्नान--  
भूमि, जल्, अग्नि, वायु, और आकाश कर के पंचभूतों से बनी है इस सृष्टि! मनुष्य का शरीर इसी प्रकार पंचभूतों से ही निर्माण हुआ है! इस सृष्टि जब तक है तब तक इन पंचभूतों स्थितिवंत होते है! ए पंच अमृत है! परामात्मा से उन् का प्रसादित किया पंचभूतों सहित सृष्टि अधिक नहीं है! ऐसा कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उन् पंचभूतों उन्ही को समर्पित करने का प्रतीक के लिए जल् को अभिषेक का रूप में डालते है!  
परमात्मा को हम उप्पर नीचे, बाए दाए, सारे तरह नमस्कार कर के हमारा गौरव प्रवृत्ति प्रकट करने प्रतीक का रूप में पंचभूतों से स्नान करवाना ही पंचामृतस्नान! 
श्रीराम पादुका पट्टाभिषेकं — श्रीराम पट्टाभिषेकं
रमयति इति रामः यानी आत्मज्योति दर्शन नाम का आकर्षण से हम को आनंद करनेवाला! 
पादुका मूलाधाराचाक्र का प्रतीक है! मूलाधाराचाक्र पृथ्वी तत्व का प्रतीक है!  भारत(साधक) आत्मज्योति दर्शन का वास्ते इस पृथ्वी तत्व को परामात्मा को अंकित करना ही श्रीराम पादुका पट्टाभिषेकं है! योगध्यानपद्धति का प्रारम्भा में पृथ्वी तत्व को पार करना ही पादुका पट्टाभिषेकं है! पट्टा का अर्थ मेरुदंड! 
श्री का अर्थ पवित्र, राम का अर्थ आत्मज्योति दर्शन! पवित्र  आत्मज्योति दर्शन!ध्यान का पराकाष्ठा है! पट्टा यानी मेरुदंड स्थित पंचभूत तत्वों को परामात्मा को अर्पित करना ही श्रीराम पट्टाभिषेकं है!  
चक्रों में ॐकारोच्चारण श्रद्धा से करने से उस उस चक्र का सूक्ष्मशक्तियों भी साधक को योगसाधना आगे बढ़ाने में सहायता करेगा!  
क्रियायोग अभ्यास से बाहर जाने शक्ती इंद्रियों में वृथा नहीं होगा! वों सारे शक्तियों मेरुदंड स्थित चक्रों का सूक्ष्मशक्तियों का साथ मिल जाएगा! साधक का शरीर और मस्तिक्ष(cerebrum) का कणों विद्युदयस्कान्तशक्ति से भर के अमृत बन जाएगा! मस्तिक्ष का कणों स्वल्प वृद्धि होने 12 वर्षों का आरोग्य जीवन अवसर है! पूर्णता से अभिवृद्धि होने को और परमात्म चेतना में व्यक्तीकरण के लिए 10,00, 000 स्वाभाविक प्राकृतिक परिवर्तन और आरोग्य जीवन आवश्यक है! इस को क्रियायोग सुलाभातर करते है! 
याज्ञशिष्टाशिवस्संतो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः 
भुंजते तेत्वघं पापाये पचात्यान्त्म कारणात्          13
यज्ञ शिष्टान्न खाने सत्पुरुषों सारे पापों से मुक्त होजायेंगे! जो मनुष्य केवल अपना शरीर पोषण के लिए आहार पकाके खाते है, वों लोग पाप को ही खा रहा है!  
भोजन के पहले क्रियायोग याज्ञ करके परामात्मा का साथ अनुसंथान होंकर भोजन करना सत्पुरुषों का लक्षण है! 
प्राणशक्ति स्थूलशरीर को आधार देने दिव्यशक्ति है! 
मानसिक ज्ञानशक्ती और बाहर जानेवाली प्राणशक्ति दोनों जब स्थूल पदार्थो से मिलजाते है तब शारीरक जीवकणों आहार और श्वास का उप्पर आधार होते है!  
मानसिक ज्ञानशक्ती आत्मा से जब से इस शरीर में स्पंदना शक्त्ति यानी प्राणशक्ति का रूप में आविर्भाव हुवा तब से  
शारीरक जीवकणों को आध्यात्मिक बदलावू लाने में प्रयत्न करते रहता है! असली में ए ही प्रधान है! 
स्थूलशरीर आहार और श्वास का उप्पर आधारित है! पूरी तरह से आध्यात्मिक परिवर्तन होने तक जनन मरण आवश्यक है!
प्राणशक्ति मानसिक रूप में आत्मसंदेश को जीवकणों में देते रहता है और अमरत्व उपदेश करता रहता है! हम जितना भी आरोग्यसूत्रों का पालन करने से भी मरण तथ्य है! केवल परामात्मा चेतना का उप्पर आधार करने महावतार बाबाजी जैसे सिद्ध पुरुषों अपना अपना योगशक्ती से स्थूलशरीर को बदलते हुए नित्य यवन के साथ आरोग्यता से अचिरकाल रहसकते है! 
अन्नाद्भवन्तिभूतानि पर्जन्यात् अन्नसंभवः 
यज्ञद्भवति पर्जन्यो यज्ञःकर्मसमुद्भवः   14 
कर्मब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षर समुद्भवं 
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितं  15 
प्राणी अन्ना से उत्पन्न होते है, अन्ना वर्षा से होते है, वर्ष यज्ञ से होते है, यज्ञ सत्कर्म से होते है, सत्कर्म वेद से होते है, वेद अक्षरापराब्रह्मा से होते है! इसीलिए सर्वव्यापक ब्रह्म निरंतर यज्ञ में प्रतिष्ठित हुआ करके जानो! 
प्राणी को आहार मुख्य है! शारीर पोषण के लिए आवश्यक आहार वर्ष से लभ्य होता है!  
पदार्थ का मूल है अग्नि और उस का प्रकाश! ए परमात्म से ही उत्पन्न होते है! इस अग्नि का प्रकाश् घनीभाव होके हम जीने के लिए आवश्यक वर्ष उत्पन्न होते है! 
सृष्टि एक यज्ञ है! इस यज्ञ के लिए प्रकाश का आवश्यकता है! इस प्रकाश का मूल है परामात्मा का चैतन्य यानी परब्रह्म!
मूलप्रकृति का अर्थ व्यक्तीकरण नहीं हुआ प्रकृति! हमारा कर्म का अनुसार, परमात्मा के अभिमत से बुद्धिमानी ॐ स्पन्दानाएं निकलते है! ए ही मूलप्रकृति है! मूलप्रकृति परमात्मा का अंतर्भाग है! इसी से अनेक रूपी और प्रकार की सृष्टि कार्यक्रम व्यक्तीकरण होता है! 
परमात्मा चेतना को दो प्रकार का समझना चाहिए! 1) परमात्मा का प्रकाश, 2)ॐकार यानी प्रनावानाद! परमात्मा चेतना को एक स्वप्ना जैसा समझ सकते है! ए स्वप्ना कारण, सूक्ष्म, और स्थूल स्वप्न! 
मानव शरीर असली में एक विद्युदयस्कांत तरंग है! मनुष्य भी अपना स्वप्ना में कारण, सूक्ष्म, और स्थूल पात्रों को दर्शन करते है! मनुष्य परमात्मा का प्रतिरूप इसीलिए कहते है!      
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीहयः
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ सा जीवति         16
हे अर्जुन, इस प्रकार सृष्टि चक्र को प्रवर्तित किया गया है! प्रपंच में जो मनुष्य इस को अनुसरण करके चलता नहीं है, वों पापी का जीवन बितानेवाले, इन्द्रियवश होंकर और व्यर्थ जीवन बिताता है! 
परमात्मा चेतना ब्रह्मरंध्र से सहस्र्रारचक्र में तद्वारा मेरुदंड में बहता है! तत् पश्चात मानवचेतना में बदलजाता है! इस का अर्थ मानवचेतना का मूल आधार ब्रह्मरंध्र नीचे स्थित सहस्र्रारचक्र! इस चेतना सहस्र्रारचक्र से आज्ञाचक्र, विशुद्ध, आनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्टान, और मूलाधाराचाक्रों का माध्यम से नीचे की तरह बहकता है! उधर से शिरा संबंधी पद्धती(Nervous system) क अंदर और रक्तमांसों में प्रवेश करता है! उधर से भ्रमासहित बाहर प्रपंच से संबंध रख के इंद्रियों का वश में रहता है! 
खाया हुआ आहार वीर्य में बदल ने के लिए साथ प्रकार का परिवर्तन होते है!  
1) आहार रस, 2) रक्त, 3)मांस, 4) शिरा, 5) हड्डीयों, 6)मज्जा, और 7) शुक्ल 
रस साधारण रक्त होने को 15(एक पक्ष)दिन लगता है!
साधारण रक्त स्वच्छ रक्त होने को 27(नक्षत्र) दिन लगता है! 
स्वच्छ रक्त मांस होने को 41(मंत्रदीक्ष) दिन लगता है! 
मांस शिरा होने को 52 (संस्कृत अक्षर) दिन लगता है!  
शिरा हड्डीयों होने को 64 (कलाशास्त्र) दिन लगता है! 
हड्डीयों मज्जा होने को 84 (जीवराशी) दिन लगता है!
मज्जा शुक्ल होने को 96 (सांख्यों का अनुसार इस शरीर 96 तत्वों से व्यक्तीकरण) दिन लगता है!
शुक्ल ओजःशक्ति होने को 108(अष्टोत्तर) दिन लगता है!  
योगसाधना से ही मानावचेतन पुनः मेरुदंडा का माध्यम से परमात्माचेतना का साथ ऐक्य होगा! सृष्टि चक्र इस प्रकार मेरुदंडा का माध्यम से चलता रहता है! 
यस्त्वात्मरतिरेवस्याद् आत्मत्रुप्तस्य मानवः 
आत्मन्येवच संतुष्टः तस्य कार्यं न विद्यते                        17
हे अर्जुन, जो केवल आत्मा में ही खेलते आत्म में ही तृप्ति पाके आत्म में ही संतुष्ट होता है, वैसा आत्म ज्ञानि को करने के लिए कुछ भी काम रहा नहीं है! 
साधारण मनुष्य का चेतन मूलाधार, स्वाधिष्ठान, और मणिपुर चक्रों का माध्यम से काम करते हुए इंद्रियों का वश में रहता है! 
कवियोंकी चेतना आनाहतचक्र से काम करता है! 
शांति और स्थिरत्व युक्त योगी का चेतना विशुद्धचक्र से काम करता है! 
आत्मसाक्षार अथावा सविकल्पसमाधि लब्ध हुआ योगी अपने आप को कूटस्थ में वामनावतार रूपे में देखता है! इस का चेतना आज्ञाचक्र से काम करता है! 
सविकल्पसमाधि लब्ध हुआ योगी का चेतना सहस्रारचक्र का परमात्मा का चेतना से काम करता है!  
नैवतस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेहकश्चन 
नचास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः                      18
ऐसा आत्मज्ञानी को इस प्रपंच में कर्म अकरने में प्रयोजन भी नहीं है, नहीं करने से दोष भी कुछ नहीं लगता है! उन् को समस्ताभूतो से कुछ भी प्रयोजन के लिए आश्रय करने छीज भी कुछ नहीं होंगे! 
तस्मादसक्तस्सततं कार्यम कर्म समाचार 
असक्तोह्याचरण् कर्म परमाप्नोति पूरुषः                       19
इसीलिए तुम फलापेक्श्रहिता होंकर कर्मो को हर समय अछ्छी तरह आचरण करो! ऐसा मनुष्य क्रमशः मोक्ष प्राप्त करता है!
प्राणशक्ति और मन दोनों भौतिककर्म करने उपकरणों है! भौतिककर्म का अर्थ शुभ्रता, युक्ताहर, और प्रापंचिक प्रवर्तन! 
ध्यान के लिए प्राणशक्ति और मन इन दोनों का आवश्यकता नहीं है! इन दोनों का उपसम्हारण करना है! 
साधक फलापेक्षा रहित साधन करते रहना है!  
कर्मणैवहि संसिद्धि मास्थिता जनकादयः 
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन् कर्तुमर्हासि                        20
जनक इत्यादि लोग निश्कामाकर्म से ही मोक्ष प्राप्त हुए! जनों को अथम पक्ष सन्मार्ग में प्रवर्तित करने उद्देश्य में भी तुम कर्मो करने युक्त हो! 
साधका साफल्य को देख कर जनों साधन सीखेंगे!   
यद्यदाचरति श्रेष्ठःतत्तदेवेतरोजनाः 
स यत्प्रामाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते                       21
श्रेष्ठ पुरुष जो कर्म करता है, इतर लोग भी वों ही करेंगे! श्रेष्ठ पुरुष जिस को प्रमाण लेटा है, बाकी लोग भी उसी को अनुसरण करते है! 
परमात्मा को प्राप्त हुआ साधक साक्षात् परामात्मा ही होंगे! वैद्य बनाने के बाद वैद्यग्रंथों और पढने आवश्यकता नहीं है! परंतु रोगी का तृप्ति के लिए वैद्यग्रंथों पढ के सुनाते है! वैसा ही परमात्मा को प्राप्त हुआ साधक और साधना करने अवसर नहीं है! परंतु प्रजों के लिए ध्यान करते रहता है! 
नमे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषुलोकेषु किंचन
नानवाप्तमवाप्ताव्यं वर्त एवच कर्मणि .                       22
अर्जुन, इन तीन लोकों में मेरे लिए करने योग्य काम कुछ भी नहीं है! आसाध्य और अलभ्य छीज कुछ भी नहीं है! परन्तु मै काम में ही प्रवर्तित हूँ!  
साधक को स्थूल, सूक्ष्म, और कारण लोकों में साध्य काम कुछ भी नहीं है!
कारण जगत से ही सूक्ष्म जगत को आवश्यक शक्ती मिलता है! सूक्ष्मजगत से स्थूलाजागत का आवश्यक शक्ती मिलता है! 
पदार्थ का मूलकारण परमात्मा का चेतना ही है! चेतना का अर्थ मन! परमात्म का तीन रूप है मन, शक्ती, और पदार्थ!  
यदिह्यहं न वर्तेयं जातु कार्माण्य तन्द्रितः 
ममवार्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याःपार्थ सर्वशः                        23
हे पार्थ, जभीभी मै सावधान से कर्मो में प्रवर्तित नहीं होने से जगत को हानी संभव हो जाएगा! क्यों की मनुष्य सर्वविधों से मेरा ही मार्ग को अनुसरण करेंगे!  
परमात्म चेतना सर्व लोकों में आत्म, मन, शरीर, कुटुम्ब, देश, और प्रपंच का परिधी में काम करते है! मनुष्य परमात्म का मूसा में बना हुआ है! इसीलिए परमात्मा का ही मार्ग को अनुसरण करना पढेगा! 
उत्सीदेयुरिमेलोकाः नकुर्याम कर्मचेदहं 
संकरास्यच कर्तास्यां उपहन्यमिमाःप्रजाः               24
और मै कर्म नहीं करने से ए प्रजा भ्रष्ट होजायेगा! और लोकों में अराचक और साम्कर्य्यो आएगा! लोगों का अनर्थ को मै कारणभूत बंजाएगा! 
जब अवसररहित परामात्मा ही कर्म कर रहे है तों तब अवसरयुकत मनुष्य उन् का मार्ग को अनुसरण करना ही पढेगा!   
सक्ताः कर्मण्य विद्वांसो यथा कुर्वंति भारत 
कुर्वाद्विद्वां स्तथासक्तः चिकीर्षुर्लोकासंग्रहं                         25
हे भारत, जैसा अज्ञानी कर्मासक्ती होंकर कर्माचारण में लगा जाता है, वैसा ही विद्वान लोग कर्मानिरासक्ती होंकर लोक का हित के लिए कर्माचारण में लगा जाता है! 
नबुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनां 
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्       26
परमात्मा में निस्चालास्थिति पायाहुआ ज्ञानि शास्त्रविहित कर्मो को फलासक्ती से आचारण करनेवाले अज्ञानी लोगों का बुद्धी को भरमा को वश नहीं करना चाहिए! कर्मो में अश्रद्धा फाईदा नहीं करना चाहिए! ज्ञानी शास्त्रविहित समस्त कर्मो को खुद  फलासक्तिरहित से अच्छी तरह आचारण करते हुए, उन् अज्ञानी लोगों से भी वैसा ही करवाना चाहिए! 
प्रक्रुतेःक्रियामाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः 
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमितिमन्यते              27
यदार्थ में सारी कर्मो सर्व विधो से प्राकृतिक गुणों से ही करायाजाता है! अहंकार मोहित अंतःकरणयुक्त अज्ञानी ए बिना समझ के खुदी कर्ता कर के भावना में रहता है! 
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः
गुणागुणेषु वर्तन्त इति मतवा नया सज्जते!             28
हे महाबाहो, गुणविभागतत्त्व, और कर्मविभागतत्त्व को जानकारी ज्ञानयोगी गुण गुणों में ही प्रवर्तित होरहा है समझ के उन् में आसक्ति नहीं रखता है! 
स्वप्नावी(dreamr) जब समझेगा की ओ स्वप्नाराहे, तब उस को उस स्वप्नों का विषयों आसक्तिदायक नहीं होते अथवा दिख्ते है! स्वप्ना विषयोंपर तादात्मत होके व्यथ नहीं करके दुःख नहीं होते है! साधक गुणों के अतीत होंकर साधना करना चाहिए! 
प्रक्रुतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु 
तानाकृत्स्न विदोमंदान् कृत्स्नविन्न्न विचालायेत् 
प्राकृतिक गुणों से पूर्णरूप से मोहित हुए मनुष्यों उन् उन् गुणों में और कर्मो में अधिकतर आसक्ति होंगे! ऐसा असंपूर्ण ज्ञानयुक्त लोगों को परिपूर्ण ज्ञानि संदिग्धता में डालना चाहिए!
आध्यात्मिक योगसाधना में आगे बढ़ा हुआ योगी बाकी साधको को हेळना पूर्वक आँख से नया देखना चाहिए! 
मयिसर्वाणि कर्माणि सन्यास्याध्यात्मचेतासा
निराशीर्निर्मामोभूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः     30
मै अंतर्यामी हु, परमात्मा हु, तुम्हारा चित्त सम्पूर्णता से मेरा ही उप्पर लग्न करो, सर्वकर्मो को मुझे अर्पित करो, आशा, ममता, और संतापो को त्याग के युद्ध करो! 
साधक कूटस्थ स्थित परमात्मा का उप्पर ही दृष्टि लगाकर, अहं त्याग के, इच्छाओं को निरोध करके परमानंद केलिए साधना करना चाहिए!  
हैदराबाद से दिल्ली पहुचने के लिए कुछ रेल या विमान का माध्यम होना चाहिए! क्रियायोग नाम का अद्भुत शीघ्रतरह योगसाधना का माध्यम से परमात्मा को पाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए!   
ये मेमतमिदं नित्यमनुतिष्ठंति मानवाः 
श्रद्धावंतः अनुसूयांतो मुच्यन्तेपि कर्मभिः                   31
दोषदृष्टि रहित होके, श्रद्दावान होंकर जो साधक ए मेरा मत को अनुसरण करते है वों समस्त कर्मबंधों से मुक्त होजायेंगे! 
अंधा दूसरा अंधा को मार्ग दिखा नहीं सकते है! इसीलिए सद्गुरु अथवा सुशिक्षित क्रियायोगी को प्राप्त करके क्रियायेग साधना का माध्यम से समस्त कर्मबंधोम से मुक्त जाएगा! 
येत्वेतदभ्यासूयंतो नाम तिष्ठंति मे मतं 
सर्वज्ञानविमूढाम्स्तान विद्धि नष्ठानचेतसः                       32
परन्तु जो ए मेरा आध्यात्मिक मार्ग, और निष्कामाकर्मयोग मार्ग को द्वेष करके अनुसरण नहीं करते है, ऐसा लोगों को बुद्धिहीन, ज्ञानहीन, और भ्रष्ट लोग करके समझने चाहिए!
दृग्गोचर प्रपंचों को, उन् का अनुभवों को विश्लेषणों को जानने के लिए व्यक्तीकरण किया हुआ है ए बुद्धि! केवल पहचानने वस्तुपरीज्ञान अथवा आत्मसंत्रुप्ती के लिए नहीं है! ए बुद्धि युक्तायुक्ता विचक्षणा ज्ञान से आत्मज्ञान के लिए उद्देश्य किया है! इसीलिए मनुष्य इस को दुर्विनियोग नहीं करना चाहिए!  
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रक्रुतेःज्ञानवानपि
प्रकृतिम यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति              33
समस्त प्राणी अपना अपना प्रक्रुतोम को स्वभावों का अनुसार कर्म करते है! ज्ञानी भी अपना स्वभाव का अनुसार ही कर्मों करते है! तों फिर  निग्रह क्या करसकता है!  
इन्द्रियस्येंद्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ 
तयोर्नवाशमागच्चेत्तौह्यस्य परिपन्थिनौ                     34
शब्ददियो में यानी इन्द्रियार्थों में रागद्वेष और इष्टानिष्ट बनता है! उन् रागद्वेष को कोई भी वश नहीं होना चाहिए! वों मनुष्य को प्रबलाशात्रू है!  
सत्यशोधक कभी भी किसी भी परिस्थितियों में इंद्रियों को दास नहीं होना चाहिए! 
श्रेयां स्वधर्मो विगुणः पर्धर्मात्स्वनुष्ठितात्  
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः             35
अच्छी तरह आचारण किया हुआ इतर धर्मों से गुणहीन होने से भी अपना ही धर्म वरिष्ठ है! अपना धर्माचरण में मरण भी श्रेयस्कर है! इतरों का धर्मं भयदायक है! 
इधर स्वधर्म का अर्थ आत्मधर्मं है! वों स्वच्छ है! आत्मधर्मं साधक को परमात्मा में ऐक्य होने देगा! परधर्मं यानी इन्द्रिय  धर्मं साधक को परमात्मा से दूर करेगा! इन्द्रियों का वश करेगा और जनन मरण वलय में घुमाएगा!  
अर्जुन उवाच:
अथ केन प्रयुक्तेयं पापं चरती पूरुषः 
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः                36
अर्जुन ने कहा:
ओ कृष्णा, मनुष्य इच्छा नहीं होने सभी किस प्रेरणा से विवश हो के पाप करता है?  
सच्चाई से रहना चाहने से भी, धूम्रपान करना हानिकर है जानने से भी, मनुष्य गतजन्मों का संस्कारों का हेतु गलतियां करते रहता है! इसी कारण सुसंस्कारों का अभ्यास करना आवश्यक है अथावा जन्म जन्मों हमारा पीछे पढ़ेगा और हानी करते रहेगा  
श्री भगवान उवाचा:-- 
काम एष क्रोध एष राजोगुणसमुद्भवः 
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्               37
श्री भगवान ने कहाँ-:
कामं रजोगुण से उद्भव होते है! ए क्रोध में बदला जाते है! ए कितना अनुभव करने से भी तृप्ती लभ्य नहीं होगा! ए अधिक पापदायक है! अपरिमित पापकर्माचरण को कामं ही प्रेरक है! ए मोक्ष मार्ग का शत्रु है कर के जानो!     
धूमेनाव्रियाते वह्निर्यथा दर्शो मलेनच 
यथोल्बेनावृतो गर्भास्तथा तेनेदमावृतम्          38
धुआँ से अग्नि, धूळ से दर्पण, और मावी से गर्भस्थ शिशु ढका हुआ जैसा कामं से आत्मज्ञान भी ढका हुआ है! 
आवृतं ज्ञानमेतेनज्ञानिनोनित्य वैरिणा
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च                39
हे अर्जुन, कामं अग्नि जैसा है! वों कभी बुझेगा नहीं है! आत्मज्ञानी को नित्यशात्रू है! मनुष्य का ज्ञान कामं से आवृत है!
इन्द्रियाणि मनोबुद्धिः रस्याधिष्ठांन मुच्यते 
एतैर्विमोहयत्येषज्ञानमावृत्य देहिनं         40 
इंद्रियों, मन, और बुद्धि इस कामं का निवासस्थान है! इन का माध्यम से ज्ञान को ढक के जीवात्म को मोहित करेगा! 
तस्मात्सर्वं इन्द्रियान्यादौ नियम्य भारतर्षभ
पाप्मानं प्रजहिह्येनं ज्ञान विज्ञान नाशनं                     41
इस का हेतु ओ अर्जुन, प्रथम में इंद्रियों को वश करके, ज्ञान और विज्ञान दोनों को नाश् करनेवाली महापापी इस कामं को अवश्य संहार करो!  
इन्द्रियाणि पराण्याहुः इन्द्रियेभ्यः परं मनः 
मनसस्तु पराबुद्धिः यो बुद्धेः परतस्तु सः                  42 
स्थूलशरीर से इंद्रियों, इंद्रियों से मन, मन से बुद्धि से आत्म प्रबल है! 
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्ताभ्यात्मानमात्मना 
जहिशात्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदं          43
ऐसा बुद्धि से आत्म सूक्ष्म और प्रबल और श्रेष्ठ कर के जानके बुद्धि का माध्यम से इंद्रियों, मन,और शरीर को वश में रखो! दुर्जय शत्रु कामं को निर्मूलन करो! 
साधक दृढसंकल्पशक्ती से कूटस्थ में आत्मा का परमानंद के लिए ध्यान करने से इंद्रियों का तरफ दृष्टि नहीं लगेगा! बुद्धि से भी श्रेष्ठतर आत्मज्ञान का उप्पर ही ध्यान रखना चाहिए! 
ॐ तत् सत् इति श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायाम योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे अर्जुन कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः   

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