गीता अंतरार्थ (हिंदी) chapter 1 अर्जुनविषादयोग
गीता अंतरार्थ
व्याख्याता
कौता मार्कंडेय शास्त्रि
क्रियायोगी
गीता अंतरार्थ
All rights reserved
लेखक : कौता मार्कंडेय शास्त्रि
प्रथम मुद्रन……2013
.
मुद्रक भारत मे:
पुस्तक मिलने का
स्थान :
K M SASTRY/ K SUBHALAKSHMI/ V SYAMALA
32-80/16/1, PN 42, DN
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श्री श्री परमहंस योगानंद स्वामि
पूज्य गुरुदेव के चरण कमलो मे समर्पित
माता पिता को नमस्कार्
ब्रह्मपुराण अनुसार मार्गशीर्ष मास् के शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता
जयंती का पर्व मनाया जाता है!
श्रीकृष्ण और अर्जुन का दिव्यसंम्भाषण ही श्रीमद्भागवद्गीता! इसको श्री
वेदव्यास महर्षी अपारकरुणा से दुनिया को दिया है! चार वेदों, 108 उपनिषद और वेदों का छे उपांगों सर्वशास्त्रों
का सारांश ही गीता!
सर्वमत संप्रदाय को प्रातिनिथ्य करनेवाले एकैक प्रामाणिक ग्रंथ है गीता!
सांख्य, योग, न्याय, वैशॅषिक, मीमांसा, वेदांता का और शाक्त, शैवों, गाणापत्य, और
वैष्णवी संप्रदाय को, प्रपंच मे सभी संप्रदाय को, आधुनिक वैज्ञानिक शास्त्र सभी का
समन्वय गीता मे दिखाई देगा!
यम्.बि.ए. (MBA) मे चार
चीजें बहुत आवश्यक है! वो Starting, System, Strategy&Structure! ए भी गीता मे है! गीता दुनिया का सभी भाषों मे
अनुवाद किया हुआ है!
गीता सजीव चैतन्य स्रवन्ति है! गीता का सभी चीजें भूत वर्तमान और भविष्यत
कालों के लिए यानी सर्व काल सर्व अवस्था मे वर्तानीय नग्न सत्य है! वेदों का सार
उपनिषद, उपनिषद का सार कल्पवृक्ष जैसे गीता है! गीता भवरोग विनाशनी है!
ईश केन कठ प्रश्न मुंड मांडूक्य तित्तिरिः
ऐत्तरेयं च छांदोग्यं बृहदारण्यकं तथा!
ईश केन कठ प्रश्न मुंड मांडूक्य तैत्तिरीय ऐतरेय छांदोग्य तथा बृहदारण्यक दस मुख्य उपनिषदों है!
दश उपनिषद, गीता और ब्रह्मसूत्रों मिला के प्रस्थानत्रयी कहते है! गीता पढ
के अनुसरण करने वाला मनुष्य क्रमशः अपना दानव, पशु, मानव, दैवी प्रकृति और
प्रवृत्तियों पार कर के मानव परिणित होके माधव बनेगा! इस मे कोई संदेह नहीं है!
गीता एक महा यज्ञ है! इस मे होमगुंड अर्जुन का मुह, होम द्रव्य गीतोपदेश,
होता स्वयं श्रीकृष्ण भगवान और फल मोक्ष है!
गत्ता प्रबोध ‘अशोच्यानन्वशोचस्त्वं
’ यानी जिसके बारे मे व्याकुलता
नहीं होना चाहिए से आरम्भ होकर ‘माशुचः’ यानी रोना मत से अंत होजाता है! शोकराहित्य
और आनंदप्राप्ती ही गीता का लक्ष्य है!
गीतावातरण
कलियुग आरम्भ होने का 38 वर्ष
पीछें, द्वापरयुगांत मे मार्गशीर्ष शुद्ध एकादशी मे गीता का आविर्भाव हुआ था!
गीता बोधन के समाय मे श्रीकृष्ण भगवान का ओमर 87 वर्ष था! श्रीकृष्ण भगवान का अवतार समय 125 वर्ष 7
मास् और 30 घड़िय था!
सत् का अर्थ सर्वशक्तिमान! उनके किरणों ही माया गोळ मे गिर रहे है! उस गोळ
अंदर का किरणों को तत् कहतें है! जब वे किरणों गोळ से बाहर आके विकेन्द्रीकरण होने
का समाय मे ‘ओं’ इति शब्द कर के बाहर निकल आते है! तब हरी
होनेवाली सृष्टि होते है!
समस्त प्राणकोटी इस सृष्टि का अन्तर्भाग है!
है एकी, ओई सत् ! ओ सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ सत् चित् आनंद
है! इसका नाम और रूप जोड़ने से हरी होनेवाला सृष्टि बनता है!
सृष्टि का कारण अनेक रूप मे दिखाई देनेवाले और लगनेवाले माया! मा यानी
नहीं याँ यानी यदार्थ!
परमात्मा का स्वप्ना ही माया है! भयंकर स्वप्न स्वप्ना के भयाभूत हुआ
मनुष्य अपना भौतिक आंखों खोलने से ढर मिट जाता है! परमात्मा का स्वप्ना यानी माया
से बाहर निकालने के लिए क्रियायोग साधना से कूटस्थ स्थित तीसरा आंख खोलना आवश्यक
है!
जन्तूनां नाराजन्म दुर्लभं!
हर जन्मों मे मानव जन्म दुर्लभ है! इसी मानव जन्म मे तीसरा आंख खोलना
साध्य है! इसीलिए मानावजन्म उत्तम है!
हरी से ओं मे, ओं से शब्दब्रह्म ओं से तत्, तत् से सत् मे पहुँचना चाहिये!
सत् एक प्रकाशमान दिया समझ लीजिए!
तत् एक काँच का गोळ समझ लीजिए!
सत् का कुछ किरणों इस गोळ मे प्रवेश करेगा!
इसीलिए सत् तत् मे भी होगा, तत् का अतीत भी होगा!
तत् को ही कूटस्थ चैतन्य कहते है! इसी को श्री कृष्ण चैतन्य भी कहते है!
सत् होने से ही तत् होगा, तत् नहीं होने से भी सत् होगा!
सृष्टि का हेतु स्पंदनावृत ओं है! कोई भी छीजें का उत्पत्ती का पहले शब्द
निकलायेगा! पश्चात भौतिक आँखों मे दिखाई देनेवाले वस्तु उत्पत्ती होगा! इसी को हरी
होनेवाली प्रपंच!
इसीलिए कोइ भी शुभकार्य आरम्भ करने के पहले ‘हरी ओं तत् सत् ’ कहके प्रारम्भ करने चाहिए! नाश् होनेवाली सृष्टि से नाश रहित सत् मे प्रवेश करना चाहिए इस का
तात्पर्य है!
गीता का मुख्या सन्देश:
हे मनुष्य, इस अविद्या से मुक्त होजावो, सत् यानी सत्य का न्यासी यानी
अन्वेषण करो, सन्यासी बनो, क्रियायोग साधना का माध्यम से सम यानी सामान(लय होना),
अधि यानी परमात्मा से, समाधि स्थिति पाओ!
मनुष्य और तीन शरीरों
मनुष्य को तीन शरीर है! जो जनम लिया है उनको एक स्थूल शारीर, उसका अंदर एक
सूक्ष्म शारीर, उसका अंदर एक कारण शारीर, है! इस कारण शारीर का अंदर ए तीनोँ
शरीरों को स्थतिवंत करनेकेलिए व्यष्टात्मा रहता है!
भौतिक, आरोग्य और सांघिक धर्मों स्थूल शारीर को अनुवार्तित होता है!
नीति नियमों मनस्तत्व विषयों का जन्मातर संस्कारों इच्छाएं विचारों सूक्ष्म शारीर को अनुवार्तित
होता है!
आध्यात्मिकता दिव्यप्रकृती और परमात्मा का साथ अनुसंथान होना कारण शारीर
को अनुवार्तित होता है!
कारण शारीर परमात्मा का नार्डिक होने का नातिर बाकी सूक्ष्म और स्थूल
शरीरों स्थीतिवंत होने का शक्ति और सहजावाबोधना कारण शारीर से सूक्ष्म शरीर
को, सूक्ष्म शरीर से स्थूलशरीर को लभ्य होता है! तो
परमात्मा का साथ अनुसंथान होने के लिए प्रथम मे स्थूल, उसके बाद सूक्ष्म और कारण
शरीरों को समायत्त करना चाहिए!
परमात्मा मनुष्य को इच्छाशक्ति प्रसाद किया है! पीढा आनंद इन्द्रिय विषयानंद
ए सारें छीजें आखिरी मे स्थूलशरीर ही अनुभव करती है! मनुष्य इस स्थूलशरीर से दोष
नहीं करने तक दंडनीय नहीं होता है! आखरी
क्षणों तक शोचके कदम उठाना मनुष्य को अवश्य है!
महाभारत के पात्रों
अक्षौहिणी = 21870 हाथी,
21870 रथों,
65610 घोडे,
109350 पादसेना
ए सारे छीजें साधक अपना क्रियायोग साधना मे ठकुराई करनेवाले
सकारात्मक और नकारात्मक अंतः शत्रुओं है!
कुरुक्षेत्र—मूलाधार स्वाधिष्ठान और
मणिपुर चक्राए
कुरुक्षेत्र-धर्मंक्षेत्र— मणिपुर
अनाहत और विशुद्ध चक्राए
धर्मंक्षेत्र— विशुद्ध
आज्ञा और सहस्रार चक्राए
रथ— शारीर
सारथी—श्रीकृष्ण, शुद्ध बुद्धि,
सहजात्मावबोधा, सद्गुरु
घोडे—इन्द्रियों
लगां — मन
कौरव— कामा क्रोध लोभा मोहा मादा
मात्सर्यादी दुर्गुणों
पांडवों—मूलाधार स्वाधिष्ठान और
मणिपुर अनाहत और विशुद्ध चक्राए
द्रौपदी— कुंडलिनी शक्ति
प्रथम छे अध्यायों— कर्म
षट्कं(श्रवणं)
द्वितीय छे अध्यायों—भक्ति
षट्कं(मननं)
आखरी छे अध्यायों—ज्ञान
षट्कं(निधिध्यासनं)
शांतनु—मंगळमई शारीर जिसको है—निश्चल परमात्मा
गंगा— पहली भार्य—प्रप्रथमा प्रकृति चैतन्य
सत्यवती—दूसरी भार्य—प्रप्रथमा प्राकृतिक पदार्थ
कूटस्थ चैतन्य— सृष्टि
का अंदर का परमात्मा
कूटस्थ चैतन्य अपने आपको साथ भाग किया है! वे समिष्टि कारण व्यष्टि कारण,
समिष्टि सूक्ष्म व्यष्टि सूक्ष्म, और समिष्टि स्थूल व्यष्टि स्थूल है!
इनके अलावा आभास चैतन्य आखिरी है! इसी को ब्रह्माण्ड अहंकार जिसको भीष्म
कहते है!
ए सारे शांतनु और गंगा के पुत्र है!
सत्यवती को तीन पुत्र है! वे महर्षि व्यास, चित्रांगदा और विचित्रवीर्य
है!
महर्षि व्यास —
युक्तायुक्तविचक्षण ज्ञान सहित बुद्धि
चित्रांगदा — चित्ता
यानी महत्तात्वा, ये स्थूल प्रकृति को स्थितिवंत रहने के आवश्यक 24 तत्वों को लभ्य कराते है! द्वैत को बीज इधर
ही गिरता है!
विचित्रवीर्य — कारण
शरीर संबंधित दिव्या अहंकार जिसके वजह से परमात्मा और आत्म अलग है करके भावना
का बीजांकुर लगता है!
विचित्रवीर्य को दो बीबियाँ है! वे अम्बिका और अम्बालिका!
अम्बिका और अम्बालिका का बड़ा बहन अम्बा जिसने शादी नहीं किया, अविवाहिता
है! बाद मे एही शिखंडी बन गया!
सकारात्मक और नकारात्मक शक्तियाँ:
अम्बिका — सकारात्मक संदेह
अम्बालिका — नकारात्मक संदेह
अम्बा यानी शिखंडी—तटस्थता
युद्ध वीर भीष्म निरायुध से युद्ध नहीं करता है!
अहंकार का प्रतीक है भीष्म, मई और मेरा शोचानेवाला अहंकार का प्रभाव
तटस्थता को कुछ नहीं कर सकता करके आध्यात्मिक विवरण है!
अम्बिका का एक ही पुत्र धृतराष्ट्र
धृतराष्ट्र— विशयासक्त से इन्द्रियोंके
बानिस हुआ अंधा मन .
अम्बालिका का एक ही पुत्र पांड
पांड — विचक्षण ज्ञान सहित शुद्ध बुद्धि
धृतराष्ट्र को दो भार्यां है, गांधारी
और वैष्य
गांधारी(पहली पत्नी) — इच्छाओं
को बल देनेवाले का शक्ति
वैष्य (दूसरी पत्नी) — — इच्छाओं
मे लागावू
पांड को दो पत्नियाँ है, कुंती और माद्री
कुंती(पहली पत्नी) — वैराग्य
शक्ति
माद्री(दूसरी पत्नी) — वैराग्य मे लागावू
गांधारी को दुर्योधन — काम,
दुश्शासन —
क्रोध, जैसे सौ पुत्र है!
वैष्य को एक पुत्र, युयुत्सु, है!
युयुत्सु— मानसिक युद्ध करने का
इच्छा
युयुत्सु महाभारत युद्ध मे पांडवों के पक्ष मे रहकर कौरवों का साथ युद्ध
किया!
1.दुर्योधन, 2)दुश्शासन, 3)दुस्साह, 4)दुस्साला, 5)जलागंध, 6)समा, 7)सह, 8)विंदा, 9)अनुविंदा, 10)दुर्दर्शन, 11)सुबाहु, 12) दुष्प्रदर्शन, 13)दुर्मर्षण, 14)दुर्मुख, 15)दुश्कर्ण, 16)विकर्ण, 17)साल, 18)सत्वन, 19)सुलोचन, 20)चित्र, 21)उपचित्र, 22)चित्राक्ष, 23)चारुचित्र, 24)सरासन, 25)दुर्मदा, 26)दुर्विगाह, 27)विविल्पा, 28)विकाटनन्द, 29)ऊर्णनाभा, 30)सुनाभा, 31)नंदा, 32)उपनंदा, 33)चित्रभानु, 34)चित्रवर्मा, 35)सुवर्मा, 36)दुर्विमोचा, 37)अयोबाहा, 38)महाबाहा, 39)चित्रांगा, 40)चित्रकुंडला, 41)भीमवेगा, 42)भीमबला, 43)वालकी, 44)बलवर्धना, 45)उग्रायुधा, 46)सुषेण, 47)कुंदाधरा, 48)महोदर, 49)चित्रायुध, 50)निसंगी, 51)पाशी, 52)बृंदारका, 53)दृढवार्मा 54)दृढक्षत्र 55)सोमाकीर्ती, 56)अन्धुदरा, 57)दृढसंधा, 58)जरासंध, 59)सत्यसंध, 60)सदासुवाक, 61)उग्रश्रवा, 62)उग्रसेन, 63)सेनानी, 64)दुष्परायन, 65)अपराजित, 66)कुन्धशाइ, 67)विशालाक्ष, 68)दुराधर, 69)दृढ़हस्त, 70)सुहस्त, 71)वातवेग, 72)सुवर्च, 73)आदित्याकेतु, 74)बहुवासी, 75)नागदत्त, 76)उग्रशाई, 77)कवचि, 78)क्रधना, 79)कुंधि, 80)भीमविक्रम, 81)धनुर्धार, 82)वीरबाहु, 83)आलोलुप, 84)अभय, 85)दृढ़कर्माव, 86) दृढ़रथाश्रय, 87)अनादृष्य, 88)कुंधभेदि, 89)वैरवि, 90)चित्रकुंधला, 91)प्रमाध, 92)अमप्रमाधि, 93)दीर्घरोम, 94)सुवीर्यवंत, 95)दीर्घबाहु, 96)सुजात, 97)कान्चनध्वज, 98)कुंधासि, 99)विराजस,और100)युयुत्सु
युयुत्सु एक ही महाभारत युद्ध मे बचगया था!
कुंती का तीन पुत्र है! युधिष्ठिर, भीमसेन और अर्जून!
माद्री को दो पुत्र है, नकुल और सहदेव!
युधिष्ठिर—आकाश
तत्व, भीमसेन—वायु तत्व, अर्जून— अग्नि तत्व, नकुल— वरुण तत्व, सहदेव—पृथ्वी तत्व,
द्रौपदी इन पांच पांडवों का पत्नी है! गुदास्थान में 31/2 मूलाधारचक्र
के साथ चटा हुआ निद्राण स्थिति मे रहनेवाला कुंडलिनी प्राण शक्ती ही द्रौपदी!
क्रिया योग साधना से कुंडलिनी जागृती होंकर योगी का चक्रों को शक्तिशाली करती है!
मनुष्य का अंदर दुष्ट संस्कारों स्थिर होने के लिए और परमात्म से प्रसादित
हुआ इच्छाशक्ति बलहीन होने के लिए 12 वर्ष लगते है! पुनः हुआ इच्छाशक्ति बलोपेत बलोपेत करके दुष्ट संस्कारों
को मिटाने और के लिए 12 वर्ष
तीव्र योग साधना आवश्यक है! ओई पांडवों का 12 वर्ष अरण्यवास और एक वर्ष अज्ञातवास!
तेरवा वर्ष मे साधक सांसारिक यानी प्रापंचिक स्पृह मिटा के एकांत मे तीव्र
योग साधन करके समाधिस्थ होना ही अज्ञातवास!
इस स्थिति पाने के लिए सहायता देनेवाले सकारात्मक
शक्तियों:
अच्छे आदतें
आध्यात्मिक इच्छा---- सेना
सहदेवा--- मूलाधार चक्र, सकारात्मक शक्तियोंके प्रतिघटन करनेवाले
दिव्यशक्ति,
नकुल—स्वाधिष्ठान चक्र,
आध्यात्मिकता का साथ देनेवाले दिव्यशक्ति,
अर्जुन---- मणिपुर चक्र,
निर्मोही आत्मनिग्रह दिव्यशक्ति,
भीमसेन--- आनाहत चक्र, प्राण शक्ति को नियन्त्रण करने दिव्यशक्ति,
और युधिष्ठिर---- विशुद्ध चक्र, शान्ति और प्रशांति देने दिव्यशक्ति,
श्रीकृष्ण--- आज्ञा चक्र, भ्रूमध्य स्थित कूटस्थ मे है, सहजात्मावाबोध,
सद्गुरुदेव
परमात्मा--- सहस्रार चक्र, साक्षीभूत
महाभारत--- परमात्म चैतन्य अथवा महा प्रकाश
करवों यानी दुष्ट शक्तियां सदा साधक को तकलीफ साधना नहीं करने देते है! इन
दुष्ट शक्तियों को शक्तिहीन करके दैव साम्राज्य पाने के लिए जो युद्ध करना है ओही
महाभारत युद्ध क्रिया योग साधना है!
उस योग साधना मे आज्ञा चक्र स्थित सद्गुरु श्री कृष्ण का सहायता से
सहजावबोधन साधक को लभ्य होता है! इस से परमात्मा का साथ अनुसंथान अवश्य लभ्य होता
है!
मूलाधारचक्र के साथ चटा हुआ निद्राण स्थिति मे रहती हुवी कुण्डलीनी शक्ति
को जागृती कर के सुषुम्ना द्वारा सहस्रार चक्र का साथ मिलाना ही दैवी साम्राज्य
पाना!
उप पांडवों : मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत और विशुद्ध चक्रों का
केंद्र स्थानों!
उप पांडवों पांच जने है, ओ है:
1) युधिष्ठिर का पुत्र प्रतिविंद्य, 2) भीमसेन का पुत्र श्रुतसोम, 3)अर्जुन
का पुत्र श्रुतकीर्ति, 4)नकुल का पुत्र श्तानीक, और 5) सहदेव का पुत्र श्रुतसेन
धृतराष्ट्र का संतान राक्षस शक्तियों का प्रतीक है, उन मे कुछ शक्तियों का
इधर दिया है!
भौतिक विषयवासना, क्रोध, लोभ, द्वेष, जलन, दुष्टबुद्धि, कामावांछ, स्त्री
वांछ, निंदन करना, निजायिती नहीं होना, नीचत्व, राक्षस बुद्धि, कठबोली, बुराई
शोचन, दूसरोंको कष्ट देना, नाश् करने बुद्धि, दूसरोंको नाश् करने बुद्धि, निर्दय, बातों मे और विचारों
मे क्रूरत्व, कपटी, स्वार्थी, क्षमता राहित्य, गर्वित, दगाबाज, कुल और संघीय होदा
परा गर्व, मै कुलीन है करके गर्व, अमित गर्वित, छोटे छोटे विषयोंपर झगड़ा करना,
बेशर्म स्वभाव, दुष्ट भावना, झगड़ा करने का स्वभाव, बातोँ मे सरळता नहीं होना, हर
छोटे छोटे विषयोंपर व्याकुलता, आलसी स्वभाव, ढरपूक स्वभाव, भुलक्कड़पन, मानसिक आलसी
स्वभाव, आध्यात्मिक निर्लिप्तता, ध्यान मे असहनता, भौतिक, मानसिक, और आध्यात्मिक
निर्लिप्तता, भगवान पर विधेयता नहीं होना, भगवान पर कृतज्ञता नहीं होना, दैवद्रोह,
बुद्धिहीनता, मानसिक बला हीनता, रोगभयं, दूरदृष्टि नहीं होंना, संकुचित मन, निशित
दृष्टि नहीं होंना, भौतिक, मानसिक, और आध्यात्मिक अज्ञानता, जो मन मे आया ओई बिना
विचार कर बैठना, विचारों मे चंचलता, इन्द्रियलोलत, बुरा बोलने का इष्ट, बुरा सुनने
का इष्ट, बुरा देखने का इष्ट, बुरा छीजों का इष्ट, बुरा सूंघने का इष्ट, बुरा
स्पर्श का इष्ट, बुरा विचारों का इष्ट, बुरा याद करने का इष्ट, बुरा करने का इष्ट,
व्याधि और मरण भय, चिंता, व्याकुलता, अंधविश्वासी, बुरा कसम खाना, अमर्यादापन,
अतिनिद्रा, अमित भोंजन खाना, अप्रस्तुत नटना, उप्पर से अच्छा दिखावू, पक्षपाती,
कपटी, संदेही, मूडी, निराशाजनक, कठिनत्व, असंत्रुप्ती, नास्तिकता, और ध्यान को
वाएदा करना
भौतिक अर्थ
धृतराष्ट्र और राजा पांड भाई, धृतराष्ट्र अंधा है! इसीलिए राजा पांड ने
राज्यपालन किया!
राजा पांड को दो पत्नियां, कुंती और माद्री! उन का पुत्रों पाण्डवों!
धृतराष्ट्र को सौ पुत्रों, ओ है कौरवों!
जलन नामक कीड़ा धृतराष्ट्र का जेष्ठ पुत्र दुर्योधन अन्तरंग मे प्रवेश
किया! वे शकुनी का सहायता से वक्रमार्ग मे युधिष्ठिर और उसका भ्रात्रुजनोम को माया
जुआ (जूद) मे हराएगा! उनका राज्य अपहरण करके झूठी नियम लगाके पांडवों को 12 वर्ष अरण्यवास और एक वर्ष अज्ञातवास भेजेगा!
नियम का मुताबिक़ अरण्यवास और अज्ञातवास
सम्पूर्ति होने के बाद भी उनका राज्य वापस नहीं देगा! सूई जितना भूमि देने के लिए
नहीं मानेगा!
पश्चात भगवान श्रीकृष्ण संधि करने केलिए
प्रयत्न करके विफल होजायेगा!कुरुक्षेत्र संग्राम अनिवार्य होजायेगा!
कुरुक्षेत्र ही धर्मक्षेत्र है! उस कुरुक्षेत्र मे पांडव और कौरवों का
सेना आमने सामने होगया!
अर्जुन का इच्छा का मुताबिक़ भगवान श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं का बीच मे
अपना रथ को स्थापित किया! तब दोनों सेनाओं मे उपस्थित भ्रात्रुजनों, श्वसुरों,
मामाओं, सालों, जेठ, पिताओं, नानाओं, गुरुओं, वगैरा बंधुजनों को देखके व्याकुलन
होते हुवे, ए सारे प्रिय बंधुजनों को मार कर राज्य पाना महा पाप है! इस स्थिति मे मेरा कर्त्तव्य क्या
है श्रीकृष्ण, बताओ कर के दुखित होते हुवे
गांडीव धनुष और अस्त्र शस्त्रों को विसर्जित करता है! इसका फल है
श्रीभागावाद्गीता!
गीता किसको बोधन नहीं करना चाहिए
जनन मरण रूपी इस भवसंसार से बाहर निकालने के लिए इच्छा नहीं होनेवाले लोगों को, गुरु और बुजुरुगों
सेवा नहीं करनेवाले लोगों को, परमात्मा मे भक्ति नहींहोने वाले लोगों को, परमात्मा
को निंदा करनेवाले लोगों को, गीता बोधन नहीं करना चाहिए!
गीता मे योगों का प्रस्तावों:
कर्मयोग: कर्म फल का मत शोचो, अपना धर्मं करो!
भक्तियोग: परमात्मा का उप्पर परिपूर्ण श्रद्दा, विश्वास होना!
नवविध भक्ति मार्ग:
श्रवणं, कीर्तनं, स्मरणं, पादासेवनं, अर्चनं, वंदनं,:दास्यं, सख्यं, और आत्मार्पणं
अष्टविध भक्ति पुष्पायें
अहिंसा प्रथमो पुष्पः पुष्पमिन्द्रियनिग्रहः
सर्वभूत दयापुष्पं क्षमा पुष्पं विशेषतः
शांतिपुष्पं तपः पुष्पं ध्यान पुष्पं तथैव च
सत्यमष्टविधंपुष्पं विष्णोःप्रीतिकरं भवेत्
अहिंसा, इन्द्रियनिग्रह, सर्वभूतेषु दया, क्षमा, शांति, तपस, ध्यान,और
सत्य बोलके अष्टविध भक्ति पुष्पायें भगवान को प्रीतिकर है!
अन्तःकरण जबतक रजोगुण और तमोगुणात्मक होके कठिनतर है, तब तक नाम के वास्ते
उप्परी उप्पर जितना भी पूजाएं, स्तोत्रों, व्रत्तें करने सभी मोक्ष लभ्य नहीं
होगा! सर्वभूतदय अत्यंत आवश्यक है! ए ही अनुष्ठान वेदान्त है!
ध्यानयोग: मन को सर्वकालसर्वावास्थायों मे परमात्मा का उप्पर लगन करना!
सुख और दुख मे, शीतल और उष्ण मे, निंदा और स्तुति मे, लाभ और अलाभ मे, मान
और अवमान मे, जय और अपजय मे, समत्व ही योग है इति परमात्मा श्री श्रीकृष्ण ने गीता
मे उद्बोधन किया!
ज्ञानयोग: अहं ब्रह्मास्मि इति परिपूर्ण और स्थिर भावना
ए कर्म, भक्ति, ध्यान और ज्ञानयोगों हर एक अपने आप स्वतंत्र नहीं है, एक
दूसरे का उप्पर परस्पर आधार है!
यज्ञ
अन्गबल, अर्थबल, होता, उद्गाता, ऋत्विकों, पंडितों, शास्त्र परिचावालों का
अवसर है यज्ञ के लिए! काम्यकर्मों का फल अति स्वल्प है! शास्वत मोक्ष लभ्य नहीं
होगा अधिक श्रमायुक्त यज्ञ से!
अधिक श्रमा रहित और सर्वों का सुलभयुक्त यज्ञ ने भगवान श्रीकृष्णने
मानवाळि केलिए दिया! ओ है निश्कामाकर्म यज्ञ! बिना कर्तृत्व दैवस्मृति का साथ करने
कार्य ही असली यज्ञ है! हर एक दैनंदिन काम परमात्म स्मृति का साथ करना ही असली
यज्ञ है! आखरी मे घोर कुरुक्षेत्र संग्राम भी परमात्म स्मृति का साथ कर्तृत्व
बाध्यता छोड़ के करने से ओ अर्जुन के लिए यज्ञ होजायेगा! स्वाध्याय, आहार सम्यमं
इत्यादि सामान्य क्रियाएँ भी यज्ञ है! इन का फल अपार है!
त्याग, संन्यास:
सर्व कर्मफल परामात्मा को अर्पित/अंकित करना ही त्याग है करके भगवान
श्रीकृष्णने निर्वाचित किया!
कर्म कर के फल का आशा नहीं करना ही त्याग है!
अग्निहोत्र छोडना, बिनाकाम चुप बैठना संन्यास नहीं है! फलों का आश्रय नहीं
करके कर्मो का निर्वाचित करना ही संन्यास
है! असली मे सत् का अर्थ सत्य, न्यास का अर्थ अन्वेषण, सत्यान्वेषण कनेवाला
ही संन्यासी है! फलों का आश्रय नहीं करके कर्मो का निर्वाचित नहीं करने से सत्यान्वेषण
लभ्य नहीं होगा!
तपस:
देवाताएं, ब्रह्मनिष्ठावों, सद्गुरुवों, महान लोगोंको पूजन करना, शौचं,
ऋजुत्व, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, इत्यादि सुगुणों होना शारीरिक तपस कहते है!
सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात प्रियं च नानृतं ब्रूयात
न ब्रूयात सत्यमप्रियं एतत धर्म सनातनं!
सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए, परंतु असत्य नहीं बोलना चाहिए, सत्य
अप्रियता से नहीं बोलना चाहिए, इसी को सनातन धर्म कहते है!
प्रियता से सत्य बोलना और स्वाध्याय को वाचिक तपस कहते है!
मनोंइर्मलाता, मौन, आत्मसंयम, और भावासिद्धि को मानसिक तपस कहते है!
गीता स्वरुप:
वेदों को, संहिता यानी कर्मकांड,
ब्राह्मणों यानी उपासना कांड, और उपनिषद यानी ज्ञान कांड, कर के तीन प्रकार का
विभाजन किया!
गीता मे कुल 18 अध्यायों है! वेदों जैसा गीता को भी पहले
तीनों अध्यायों को कर्म षट्क, दूसरे तीनों अध्यायों को भक्ति षट्क, आखरी तीनों
अध्यायों को ज्ञान षट्क, जैसा विभाजित किया!
कर्म षट्क मे बाकी भक्ति और ज्ञान योगों का मीलित है! भक्ति षट्क मे बाकी
कर्म और ज्ञान योगों का मीलित है! ज्ञान षट्क मे बाकी कर्म और भक्ति योगों का
मीलित है!
गीता मे 18 योगों का बार
मे बोधन किया है! इस 18 योगों को
स्थूल और प्रधान रूप मे कर्म, भक्ति, ध्यान और ज्ञान चार योगों कर के विभाजित हुआ
करके समझ सकते है! इन चार योगों सर्वस्वतंत्र नहीं है, वे एक दूसरे का उप्पर
परस्पर आधारित है! कर्म करने से श्रद्धा यानी भक्ति लभ्य होगा, भक्ति से ध्यान
लभ्य होगा, ध्यान से ज्ञान होगा!
गीता तात्पर्य;
हर एक वक्ता भाषण देने के समय, उपन्यास का साथ अंगों को याद रखना चाहिए!
वो है:
1)उपक्रम:
कैसा उपन्यास का आरंभ करना है इति उपक्रमा!
हे कृष्णा, मई तुम्हारा शिष्य हूँ, मै तेरा शरण मे हूँ, आज्ञापन करो
-------- गीता ( 2—7)
2)अभ्यास:
भक्ति और शरणागतियों का अभ्यास करो
3)
अपूर्वता: संदेश का विशिष्टता
निष्कामाकर्म, भक्ति और ध्यान द्वारा परिपूर्णज्ञान प्राप्त करो
4)
फल: परामात्मा का आज्ञ को मनसा, वाचा और कर्मणा त्रिकरणशुद्धि से परामात्मा मे
विलीनीकरण ही जन्मराहित्य.
5)
अर्थवाद: संदेश का उद्देश्य
राजा जनक इत्यादि जैसा परमात्मा को सर्वं समर्पित करके कर्म करना चाहिए! ओ
कर्मै अति स्वल्पं होने से भी भयंकर संसार से मुक्त करवाएगा!
6)उपपत्ति:
जो कहना है उसकों धृवीकरण करना
निश्कामाकर्मा, भक्ति और ध्यान द्वारा परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त करना और
जन्मराहित्य का लब्धि होना!
7)उपसंहार:
समाप्ती
समस्त विषयों को त्यागा कर के मेरा ही शरण लेना!
गीता (18—66).
गीता मे 18 अध्याय है!
1) अर्जुन विषादयोग: अर्जुन का इच्छानुसार भगवान श्री कृष्ण ने रथ को दोनों
सेनाओं का बीच मे स्थापित किया! तब दोंनों सेनाओं मे उपस्थित भाईयों, बहनोइयों,
सालों, मामाओं, ससुरों, पिताओं, दादाओं, नानाओं, गुरुओं, इत्यादि बंधुजनों को देख कर विलपित करते हुवे ‘ इन सब को मार के राज्य पाने से घोरपाप होगा,
मुझे कर्त्तव्य बोधन करो’ पूछता
है, इस का फलित है गीता!
क्रियायोग साधना मे साधक पूरब अथवा उत्तर दिशा देखते हुवे बैठना है!
कूटस्थ मे दृष्टि रखना है, गांडीव धनुष यानी मेरुदंड को सीदा रखना है, श्वास इति
बाण को अस्त्र जैसे प्रयोग करना है, स्थिर आसान मे बैठ कर प्राणायाम प्रक्रिया के
लिए उपक्रम करना चाहिए!
परमात्मा को पाने के लिए जो साधना जो मै कर रहा हूँ, ओ साधना मुझे सत्फल
देगा नहीं देगा करके साधक को साधना का प्रारम्भा दशा मे संदेह अवश्य आएगी! एक तरफ
मै ऐहिक सुखों को छोड़ रहा हूँ, दूसरा तरफ से परमात्मा का अनुसंधान खोबैठेगा कया?
ऐसा दोनों खो बैठके लोगों का सामने हास्यास्पद होजाएंगे करके भयभीत होजाते
है!
अर्जुनको अनुनय करतेहुए सद्गुरु श्री कृष्ण आत्मबोध करता है! हर एक मनुष्य
का अंदर का सहजात्मावाबोध ही श्री कृष्ण! फिकर और संदेहास्पद होंकर विशादापूरित
शिष्य अर्जुन, आर्त जन, को तरुणोपाय यानी आत्म का निज/सत्य स्वरुप/तत्व बोधन करता
है! यानी गीता अर्जुनविषादयोग से प्रारंभ हुआ, उस बोधन ही गीता है! तरुणोपाय ही
सांख्ययोग!
2) सांख्ययोग: इस योग मे आत्मस्वरूप वर्णण, युद्ध करने का आवश्यकता,
निष्कामाकार्माप्रतिपादन, स्थितप्रज्ञ का लक्षणों, इन्द्रियानिग्रहादि साधनों का
बारे मे बोधन करता है!
निमित्तमात्र होंकर सर्वकर्म फल परमात्माको अर्पण करके युद्ध यानी साधन
करने के लिए उद्बोधन करता है! कर्म नहीं करने से साधन कैसा करना पता नहीं होगा,
इसीलिए कर्मयोग का आवश्यकता आगया!
3) कर्मयोग: बिना फल माँगे कर्म करने से ओ यज्ञ ही होता है! ‘ज्ञानी और अवतार लिया हुआ मै भी कर्म कर रहा
हु, बिना रागद्वेष निष्काम होकर काम और क्रोध का अतीत होंकर कर्माचरण करना चाहिए ‘ करके उद्भोधन करता है भगवान श्री कृष्ण! साधक
को ज्ञानयोग उद्भोधन करने केलिए क्षेत्र सिद्ध होगया!
मनुष्य अपना दैनंदिन नित्यजीवन मे खाना पकाने समय, झाडू करने समय, कोई भी
काम करने समय मे जान अंजाने मे कुछ न कुछ प्राणिहिम्सा होते रहते है! इन
को पंच सून कहते है! उस पाप का प्रायश्चित्त के लिए पञ्च महायज्ञ है!
1) देव यज्ञ:होम करना
2) पितृ यज्ञ: तर्पणादि
3) नृ यज्ञ: अतिथिपूजा
4) ब्रह्म यज्ञ: वेदाध्ययन
5) भूत यज्ञ: जीवों को आहार देना
4)ज्ञान योग: भगवान का प्रभाव, निष्काम कर्मयोग प्रस्थावन, ज्ञानी का पवित्र
आचरणों और विविध प्रकार यज्ञॉ का बारे मे बोधन करता है परामात्मा इस ज्ञान योग
मे!
कर्म यानी विहित कर्मायें, विकर्म यानी निषिद्ध कर्मायें, अकर्म यानी कुछ
भी कर्म नहीं करके चुपचाप बैठना यानी आलसीपन!
चित्तशुद्धि के लिए अवसर होने वाले कर्माचरण पद्धतियों का कर्म योग मे कहा
गया, निष्काम कर्माचरण से अन्तःकरण शुद्दीकरण होता है, ऐसी निर्मल चित्त मे ज्ञान
का उद्भव होता है!
5)कर्म सन्यास योग: सांख्य और निष्कामकर्म योगों का बारे मे कह कर, उन योगों
का लक्षणों, ज्ञान योग विवरण, भक्तिसमेत ध्यान योग विवरण इस अध्याय मे बोधन किया
गया है!
‘कोन् सा योग उत्तम है जो करने योग्य है’ अर्जुन यानी साधक का संदेह है! इस संदेह का निवृत्ति
केलिए परामात्मा ने जब जब अवसर होता है तब तब एक योग और दूसरी योग का परस्पर संबंध
का बारे मे उद्बोधन करता है, कोही भी योग सर्व स्वतंत्र नहीं है, एक दूसरा का
उप्पर परस्पर आधारभूत है बोधन करने केलिए ही ए प्रयत्न है परामात्मा का!
अक्षरों को अच्छी तरह लिखने पढने नहीं आने से पदों को नहीं पढ सकतें, आगे
महा महा उद्ग्रंथो को पढ के उन को समझ नहीं सकते! अक्षरों, पदों और वाक्यों ए
बुनादियों है!
6)आत्मसंयमयोग: निष्कामकर्म प्रस्थावन, योगारूढ़ का लक्षणों, आत्मोद्धारण,
जितेंद्रिय ज्ञानी का स्वभाव, ध्यानयोग पद्धतियाँ, मनोनिग्रह पद्धतियाँ, योगभ्रष्ट
का सद्गति, ध्यान योग का लाभ, बोधन किया हुआ है इस अध्याय मे! परमात्मा स्वरुप
स्वभावों का ज्ञान से ध्यान और एकाग्रता साध्य है, इस का कारण से विज्ञान योग
प्रस्तावना अवसर होगया!
7)विज्ञानयोग: विज्ञान का साथ ज्ञान, परापर प्रकृतियों का बोधन,समस्त जगत
परामात्मा ही कर के बोधन करके समझना, आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी, और ज्ञानी का
बारे मे समझना, देवी देवताओं का उपासना संबंधित विषयों का बारे मे प्रस्ताव,
परमात्मा का बारे मे नहीं समझने वालोँ का बारे मे प्रस्ताव, जनानामरण विमुक्ति के
लिए भगवान का शरण मे आके प्रयत्न से ब्रह्मा को समझेंगे करके बोधन, इत्यादि इस योग
मे कहा गया!
8)अक्षरपरब्रह्मयोग: ब्रह्मं, आध्यात्मं, कर्म, इन छीजों का बारे मे साधक का
सर्व संदेहों को परमात्म का विवरण, ओम्कारोपासन का प्रयोजन, सृष्टि, प्रळयों का
विवरण, भगवान का सनातन स्वरुप, भक्ति का माध्यम से उस स्वरुप को संप्राप्ति का
पद्धति, स्थूल शरीर पतानानंतर जीव निष्क्रमण
शुक्ल और कृष्ण पक्ष मार्गों, योगी का महत्व, इस योग मे बोधन किया!
9)राजविद्याराजगुह्ययोग: रहस्यों मे रहस्य है इस योग! भागवत स्वरुप वर्णन,
जगत का उत्पत्ति, असुरी प्रकृति और दैवी प्रकृति का लक्षणों, सकामोपासनाफल,
निष्कामोपासना फल, भागवद्भाक्ती सहितनिष्कामकर्माचरण का महत्वा का बारे मे सविवरण
बोधन किया!
10)विभूतियोग: अब साधक को परमात्म का विभूतियों, योग
शक्तियों का बारे मे विवरण देने का आवश्यकता आगया! इस अध्याय मे पहले से परमात्म
का विभूतियों विस्तृत रूप मे कहा गया है!
11)विश्वरूपसंदर्शानायोग: परमात्मा का विश्वरूपसंदर्शान
अनुभव करने का अब साधक ने अपना साधना से अर्हता लब्ध किया! साधक का इच्छा के
अनुसार परमात्मा ने अपना विश्वरूप को दिखाया! निमित्तमात्र होके धैर्य से युद्ध
करने को सलाह देदिया! साधक का इच्छा के अनुसार परमात्मा ने पुनः अपना सौम्य रूप
धारण किया! केवल आनन्य भक्ती से ही इस विश्वरूपसंदर्शान का योग्य प्राप्त होगा
करके उद्बोधन किया! अब भक्तियोग का आवश्यकता आगया!
12) भक्तियोग: भक्तियोग का स्वरुप, विविध आध्यात्मिक
साधनाएँ, सगुणोपासन का विवरण, भक्तोंका लक्षणों, उद्बोधन किया इस योग मे!
13)क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग: क्षेत्र का अर्थ शारीर,
क्षेत्रज्ञ का अर्थ आत्म! इन दोनों का स्वरुप, ज्ञान, और अज्ञान का अर्थ, प्रकृति
और पुरुषों का वर्णन,निर्गुणब्रह्म प्राप्ति का पद्धति का विवरण इस योग मे दिया
है!
14)गुणत्रयविभागयोग: निर्गुणब्रह्मोपासन का मार्ग मे
गुणों कैसा जीव को अवरोध करता है, सत्व
राजो और तमोगुणों का स्वभाव, गुणातीत जीवन्मुक्त का स्वभाव, इस योग मे विवरण दिया
है परमात्मा ने!
15) पुरुषोत्तमप्राप्ति योग: अनन्यभक्ति द्वारा
पुरुषोत्तमप्राप्ति और उस प्राप्ति का प्रयोजन, संसार वृक्ष वर्णन, भगवत्प्राप्ति
के लिए उपाय, जीवात्म का बारे मे विवरण, सर्वत्र व्याप्ति हुआ परमात्मा का
अस्तित्व विवरण, इस योग मे दिया है!
16) दैवासुरसम्पद्विभागयोग:
दैवी और असुर संपदा, उन का फल, उन का लक्षण, नरक द्वार क्या है, शास्त्र विरुद्द
और सम्मति विषयों, इत्यादि इस
योग मे दिया है!
17)श्रद्धात्रयविभागयोग:
सात्विक, राजसिक और तामसिक श्रद्धावों, तपस, आहार, यज्ञ और दानों का विवरण इस योग
मे भगवान ने दिया!
18)मोक्षसन्यासयोग: अब तक
उद्बोधन किया हुआ 17योगों का संग्रह, संन्यास और त्याग
का तत्व, ज्ञान, कर्म, बुद्धि, धैर्य और सुखों का सात्विक, राजसिक और तामसिक
स्वरूपों का विवरण, चार वर्णों का धर्म, भ्रह्मसाक्षारसिद्धि का मार्ग, शरणागति,
गीता महिमा इत्यादि इस योग मे परमात्मा ने उद्बोधन किया! संजय का गीता स्तुती का
साथ गीता सामाप होता है!
संन्यास, त्याग, सर्वसंगपरित्याग से मोक्ष लभ्य होता
है, मोक्ष का अर्थ मोक्ष का संकल्प भी विसर्जन करो, मोक्षरुपी परमात्मा को
सर्वकर्मों अर्पिता करो, मोक्षप्रद संन्यास से परमात्मा मे ऐक्यसिद्धि प्राप्ति होता है!
प्रस्तावना
महाभारत का अर्थ है महा प्रकाश! साधक अपना कूटस्थ मे
दृष्टि निमग्न कर के क्रिया योग साधन करने के समय मे जो प्रकाश उन्हें दिखाई देता
है उसी को महाभारत कहते है! उस प्रकाश नहीं देखनेवाले का जन्म निरर्थक है!
शत्रु दो प्रकार के होते है, अंतः और बाह्य! बाह्य शत्रु को हारने के लिए
भौतिक बाह्य चक्षु, अंतः शत्रु को हारने के लिए दिव्य अंतः चक्षु का आवश्यक है!
हर एक मनुष्य ने धृतराष्ट्र ( पुत्रव्यामोह से अंधा हुआ मन), संजय(अपने आप
को जानने का शुद्ध आलोचना प्रज्ञा), पांडु(शुद्ध बुद्धि), भीष्म(अहंकार),
द्रोण(संस्कारों), विकर्ण(रागद्वेषौ), दुर्योधन(कामं), दुश्शासन(क्रोध),
कर्ण(लोभ), शकुनी(मोह), शल्य(मद), कृतवर्मा(मात्सर्य), इत्यादि राक्षस प्रवृत्ति
कौरवों, उन को जीतने केलिए पांडवों दोनों होते है!
मनुष्य कितानाभी दुर्मति होने से भी हमेशा 100%
दुर्मार्ग नहीं होते है! थोड़ा सा एक प्रतिषत सद्गुण होगा! उस समय मे
‘ मै कौन हूँ, कहा से आया हूँ, मेरा गम्य क्या है, मै जो कर रहा हु औ सव्य
है असव्य है ‘ कर के शोचन
आएगा!
तब इच्छाशक्ति से अपना कर्म को अधिगम करने प्रयत्न ही साधना का अर्थ है!
आखिरी मे अपना स्वस्थान परमात्माका साथ मिलना ही साधना का परमार्थ!
शुद्ध मन, शुद्ध बुद्धि और शुद्ध आत्म सब एक ही है!
मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपुर चक्रों तीनों को कुरुक्षेत्र,
मणिपुर, अनाहत और विशुद्ध चक्रों तीनों को कुरुक्षेत्र—धर्मंक्षेत्र,
विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार चक्रों तीनों को धर्मंक्षेत्र कहते है!
गुदास्थान का नीचे मूलाधार चक्र साथ 31/2 turns होके फन नीचे रख के, पूँछ उप्पर चक्रों मे रख कर
निद्रावस्था मे सोयाहुआ रहती हुवी शक्ती ही कुंडलिनी है, इसी को महाभारत मे
द्रौपदी कहते है!
मेरुदण्ड मे साधक को अपना साधना मे ठकरानेवाले अपना शरीर का अंदर का
अन्तर्गत सकारात्मक और नकारात्मक शत्रुवों का संघर्षणा ही महाभारत युद्ध!
इस को ही क्रियायोग साधना कहते है! इस को श्रीकृष्ण(शुद्ध आत्म) ने अपना
आर्त जन यानी अर्जुन को गीता द्वारा सुनाईदिया! एही श्रीमद्भगवद्गीता है!
श्री का अर्थ पवित्र, मत का अर्थ मन, भगवत का अर्थ साक्षात् परमात्मा,गीता
का अर्थ पद्य, कुल मिलाके पवित्र शुद्ध मन यानी परमात्मा द्वारा साधक को जो
सुनाईदिया गीता ही श्रीमद्भगवद्गीता!
ॐ श्री कृष्ण
परब्रह्मने नमः
श्रीमद्भगवद्गीता
अथ प्रथमोऽध्यायः
अर्जुन विषादयोगः
धृतराष्ट्र उवाच:-
धर्मक्षेत्रे
कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः
मामकाः पाण्डवाश्चैव
किमकुर्वत संजयः 1
धृतराष्ट्र ने कहा:-
ओ संजयाँ, मेरा
पुत्रों दुर्योधन इत्यादि और मेरा भाय पांड का पुत्रों धर्मक्षेत्र जैसा
कुरुक्षेत्र मे युद्धोत्साह से समायुक्त हुआ है! वे क्या किया है?
मन का साधारण लक्षण है प्रव्रुति यानी इन्द्रियों का अनुसरण से प्रवर्तित
करता है! मन का सूक्ष्मरूपी अय्स्कांत ऋणधृव भौतिक प्रपंच तरफ होनेवाली पोंस वरोली
(Pons varoli) मे रहती है! मन का
स्टें(stem)मे ए एक भाग है!
मेडुल्ला(Medulla) का उप्पर दो
अर्थ गोळों जैसा बड़ा मस्तिष्क(Cerebrum)
का बीच मे, छोटा मस्तिष्क (Cerebell
um) और मेडुल्ला(Medulla) को जोड़नेवाली है ए पोंस वरोली (Pons varoli)! इस पोंस वरोली का अंदर नार्पेन्फैर्(Norepinephrine) नाम का एक रसायन पदार्थ रहता है! ए शारीर को
क्रिया के लिए समायक्त कर के निद्रा, मानसिकस्थिति और उत्प्रेरण का कारणभूत होता
है!
बुद्धि का निर्णयात्मकशक्ति आत्म का अंदर स्थित अधिचेतना से लभ्य होता है!
कारण चेतना का निलय है आध्यात्मिक मेरुदंड संबंधित चक्रों! इस चक्रों
द्वारा आत्म अपना चेतना को व्यक्तीकरण करता है!
विज्ञों ने ‘क्षेत्रे
क्षेत्रे धर्म कुरु’ इति कहा है!
हर एक क्षेत्र मे धर्म करो इति इस का अर्थ है! क्षेत्र का अर्थ हर एक चक्र मे
ध्यान कर के इन् का अंदर उपस्थित अन्धेरा को मिटादो!
मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, आनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार इति कारण
चेतन निलय आध्यात्मिक मेरुदंडसंबधित चक्रों होते है!
मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपुर संसार चक्रों है, इनको कुरुक्षेत्र कहते
है!
मणिपुर, आनाहत और विशुद्ध चक्रों को कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र कहते है!
विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार चक्रों को
धर्मक्षेत्र कहते है!
धृतं राष्ट्रं ऐन धृतराष्ट्र, इन्द्रियोंका दास/गुलाम बनके अंधा हुआ मन का
प्रतीक धृतराष्ट्र है!
पक्षपातरहित सीदासादा अंतर्मुख हुआ, अपने आपको जाननेवाला, इन्द्रियोंको
राजा मन को जिता, शुद्ध आलोचनाशक्ति और विमर्शात्मक तत्व ही संजय है!
धृतराष्ट्र पूछा:--
मन और इन्द्रियों का इच्छानुसार करने वाले अपना कौरव पुत्रों और शुद्ध
बुद्धि का अनुसार काम करनेवाले अपना अनुज पाण्डु का पुत्रों ने पवित्र मेरुदंड
यानी धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र मे क्या किया?
जब शुक्राणु(Sperm) और
अंडा(Ovum) जब ऐक्य होके मनुष्य का शारीर बनाने लगता
है, क्षणिक तेज प्रकाश सूक्ष्म प्रपंच मे दृश्यमान होता है! ए आत्मों का दिव्या
स्थान है अवतारों का बीच मे! ओ आत्म का प्रकाश
अपना अपना कर्मा के अनुसार एक पद्धति से प्रसार कर के मनुष्य योनी मे
प्रवेश करने आकर्षित होता है!
कुरुक्षेत्र संग्राम स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शारीर मे जितना है!
1)
सदाचार
संबंधी अच्छा और बुरा का इन्द्रियों का भौतिक युद्ध—कुरुक्षेत्र
2)
मेरुदंड
सहित मस्तिष्क मे क्रियायोग करने समय जो विविध विचारों उत्पन्न होता है उन्हें
मिटाने का मानसिक युद्ध, इन्द्रियों का गुलाम मन और युक्तायुक्त विचक्षणज्ञान सहित
शुद्ध बुद्धि का बीच मे होता है मानसिक युद्ध, मन साधक को भौतिक विषयों/छीजों का
तरफ़ खीचता है, शुद्धबुद्धि परामात्मा का तरफ़ खीचता है —कुरुक्षेत्र—धर्मक्षेत्र,
3)
गेहरा
ध्यान मे केवल मस्तिष्क क्षेत्र मे, सारे निम्न चेतनों को अधिगमन करनेवाले युद्ध
है ए! इस युद्ध मे साधक अपना अहंकार और इन्द्रियों का गुलाम मन को परिपूर्णता से
अधिगमन करके अपना आत्मा ओ परमात्मा से ऐक्य करदेता है! इस जित को समाधि, मनुष्य
चेतना और परमात्म चेतना का साथ मिलजाना, कहते है! —धर्मक्षेत्र
साधक का अपना संचित, प्रारब्ध और आगामी कर्मो पूरी तरह से मिटने तक ऐसा
समाधि स्थिति साधक को अपना साधना मे कई बार मिलजाते है! तब साधक सर्व शक्तिमान,
सर्वव्यापी और सर्वज्ञक परमात्मा मे
जननमरण रहित शुद्ध आत्मा बनके रहेगा! ऐसा समाधी को महासमाधि कहते है!
इस महासमाधि स्थिति पाने के समय मे अगर योगी चाहता है तो ओ मनुष्य योनि मे
निर्विकल्पसमाधि स्थिति मे फिर जन्म लेगा! इस स्थिति मे ओ योगी सदा अपना मन
परामात्मा मे लगन करके फलापेक्षारहित ‘मै परमात्मा केलिए सभी काम कर रहा हु ‘ भावना से अपना कार्य करेंगे!
दृष्ट्वातु पान्दवानीकम व्यूढंदुर्योधनस्तदा
आचार्यमुपसंगम्य राजा वाचानामाब्रवीत 2
संजय ने कहा:-
तब राजा दुर्योधन ने व्यूहात्मकयुक्त रचना किया हुआ पांडव सेना को देख कर
अपना गुरु द्रोणाचार्य को समीप मे जाकर बोला!
साधक का अंदर स्थित चंचलात्मक धृतराष्ट्र करके मानस से अपना आप को
जानकारीयुक्त शुद्धालोचना प्रज्ञ यानी संजय ने ऐसा कहा:--
(इधर से सारे गीता संजय ने धृतराष्ट्र को कहा है कर के समझने चाहिए यानी
सारे संभाषण साधक का इन्द्रियों का गुलाम अंधा मनस और शुद्धालोचना प्रज्ञ का बीच
मे है!)
दुर्योधन इच्छाओं का प्रतीक, द्रोण संस्कारों, अच्छा और बुरा दोनों, दैवी
और राक्षस प्रकृतियों, का प्रतीक! इच्छाओं का हेतु संस्कारों! साधन करनेवाले हर एक
साधक मे साधन का अनुकूल सकारात्मक शक्तियाँ यानी पांडवों और साधन का प्रतिकूल
नकारात्मक शक्तियाँ यानी कौरवों दोनों होते है! दोनों
का अपना अपना व्यूह होते है! हर एक मनुष्य का अंदर पांडवों और कौरवों दोनों होते
है! पश्यैतां पान्दुपुत्राणां आचार्यमहतींचमूं
व्यूढां द्रुपदपुत्रेणतवाशिष्येण धीमता 3
हे गुरुवर्या, बुद्धिमान और आप का शिष्य दृष्टद्युम्न से व्यूहात्मक युक्त
रचना किया हुआ पांडवों का ए महा सैन्य को देखिए:
गुदास्थान का नीचे 31/2 घुमाव
करके निद्राण स्थिति मे पढ़ा हवा कुण्डलिनी शक्ती ही महाभारत मे द्रौपदी! समिष्टी मे माया
को व्यष्टि मे कुण्डलिनी कहते है! हर एक मनुष्य का अंदर कुण्डलिनी शक्ति रहती
है!
मेरुदंड मे कुण्डलिनी शक्ति का पास मूलाधार चक्र है जिसको सहदेवचक्र कहते
है!
मेरुदंड मे तर्जनी अंगुली
का नाखून वाली जोड़ का नाप से अढय नाखून
वाली जोड़ का उप्पर स्वाधिष्ठानचक्र है जिसको नकुलचक्र कहते है!
नाभि का पीछे मेरुदंड मे मणिपुरचक्र है जिसको अर्जूनचक्र कहते है!
ह्रुदय का पीछे मेरुदंड मे अनहतचक्र है जिसको भीमचक्र कहते है!
ह्रुदय का पीछे मेरुदंड मे विशुद्धचक्र है जिसको युधिष्ठिरचक्र कहते है!
दोनों भ्रुकुटी का बीच मे कूटस्थ मे है आज्ञाचक्र है जिसको श्री कृष्णचक्र
कहते है!
मस्तिष्क का बीच मे ब्रह्मरंध्र का नीचे है सहस्रार चक्र है जिसको श्री
परमात्मचक्र कहते है!
द्रुपद—भौतिक
विशायावांछारहित का प्रतीक
दृष्टद्युम्न— द्रुपद का
पुत्र अंतर्गत आत्मज्ञानप्रकाश
पांडवसेना दैवी संस्कारों और कौरव सेना राक्षस संस्कारों का प्रतीक है!
दुनिया मे कुत्तें, सूवर इत्यादि पशु अधिक है, व्याघ्र काम है! ऐसा ही
मनुष्य का अंदर कौरव सेना यानी राक्षस संस्कारों अधिक और पांडव सेना यानी दैवी
संस्कारों कम होते है!
ओ, संस्कारों का प्रतीक द्रोण गुरु, आप का शिष्य अंतर्गत आत्मज्ञानप्रकाश
का प्रतीक दृष्टद्युम्न ने व्यूहात्माकारूप रचना किया हुआ ए महान पांडव सेना को
देखिए!
अत्र शूरामाहेष्वासा भीमार्जुना समायुधि
युयुधानोविराटश्च दृपदाश्चा महारथः 4
दृष्टकेतुश्चेकितानाः काशीराजश्च वीर्यवान
पुरुजित कुन्तिभोजश्चशैब्याश्च नारापुंगवः 5
युधामंयुश्च विक्रांत उत्तमौजाश्च वीर्यवान
सौभद्रोद्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः
6
इस पांडवसेना मे महा तीरंदाज, युद्ध मे भीमार्जुन के सामान शूरवीरों बहुत
है, वे: युयुधान(सात्यकि), विराट, महाराथ द्रुपद, दृष्टकेतु(चेदिदेश राजा, शिशुपाल
का पुत्र),चेकितान, पराक्रमी काशीराजा, कुन्तीदेवी का अनुजों पुरुजित और
कुन्तिभोज, नरोत्तम शैब्य, शौर्यपूर्ण युधामन्यु, पराक्रमी उत्तमौजा, अभिमन्यु,
उपपांडवों, ए सभी महांरथ है!
महांरथ का अर्थ 10,000 धनुर्धरों
का साथ अकेला युद्ध करने समर्थ, और अस्त्र शास्त्र प्रवीण!
इस दैवी प्रक्रुति सहित पान्दवासेना मे भीम प्राणशक्ति को नियंत्रण
करनेवाले साधना प्रज्ञा, और अर्जुन आत्मनिग्रहशक्ति का प्रतीके है! ऐसा सकारात्मक
शक्तियों को साथ देनेवाले उपयोगकारी सहायक शक्तियों इस रथ मे यानी शारीर मे बहुत
है! वे है:-
युयुधान—दिव्यश्रद्ध,
विराट—समाधि, द्रुपद—तीव्रसंवेगा यानी निष्पक्षता, चेकितान—आध्यात्मिकस्मृति, ज्ञप्ति, काशीराज—प्रज्ञा, दृष्टकेतु—यम-मानसिकनिग्रहशक्ति, शैब्य—मानसिक दृढता, कुन्तिभोज—आसन स्थिरत्व, पुरुजित—प्रत्याहार- मानसिक अंतर्मुखता, युधामन्यु—प्राणायाम-प्राणशक्ति निग्रहता, उत्तमौजा—वीर्य-ब्रह्मचर्य, अभिमन्यु—संयम-आत्मनिग्रहशक्ति और उपपांडवों—चक्रों का केन्द्रों!
धारण, ध्यान और समाधि तीनों के मिलाके संयम कहते है!
ए उप्पर दिया हुवा सभी महारथियों है यानी शारीर वांछनीयता दूर करके साधन
करनेमे सहायता देनेवाले सकारात्मक महा शक्तियों है!
वीर्य, इन्द्रिय वांछनीय मनस, श्वास, और प्राणशक्ति ए चारोँ एक दूसरे के
साथ सम्बधित है!
साधक ब्रह्मचर्यं द्वारा भौतिक सुखोंसे विमुक्त होंकर दिव्यत्व द्वार का
अर्हता पाता है! दिव्या श्रद्दा का अर्थ है
परमात्मा का तरह आकर्षित होना!
आध्यात्मिकस्मृति, ज्ञप्ति द्वारा अपना निज प्रकृति यानी ‘मै परमात्मा का प्रतीक ’ करके जान जाता है!
समा-सामान, अधि-परमात्मापरामात्मा और साधक एक होने का स्थिति समाधि
स्थिति!
भौतिक वांछाँएं से विमुक्त होने के लिए 12 वर्षों का साधन जरूरत है, तत् पश्चात तेरवा
वर्ष में समाधि स्थिति का रूचि पायेगा!
प्रज्ञा का माध्यम से साधक युक्त और अयुक्तों का ज्ञान लभ्य करके
दुष्टशक्तों से सावधान रहेगा!
तीव्रसंवेग अथवा निश्पक्षपात का वजह से भौतिक वांछाँएं को
अपने से दूर कर्सकेगा!
संघर्षण तीन प्रकार का होता है!
आदिभौतिक शक्तों का संघर्षण:-- साधक को अपना साधना में पैरों, जोड़ें, कमर
इत्यादि शारीरक पीडाएं,
आदिदैविक शक्तों का संघर्षण:-- साधक को अपना साधना में चंचल मन प्राणशक्ति और चेतन को प्रापंचिक भौतिक विषय वांछाँएं
का तरफ खीचेंगे, शुद्धबुद्धि अंतर्मुख होंकर आत्म का तरफ खीचेंगे, ए सब मानसिकशक्ति पीडाएं,
आध्यात्मिक शक्तों का संघर्षण:-- साधक को अपना साधना में संचित कर्म का
कारण से बहुत बार समाधि में जाएगा और वापस भौतिक प्रपंच में आएगा!
धीरता और दृढसंकल्प से साधक अपना साधना जारी रखने से तब इन तीनों सभी
संघर्षण शक्तियों अपना अधीन में आएगा! तब कर्म दग्ध होंकर परिपूर्ण मुक्ति यानी
निर्विकल्पसमाधि लभ्य पाकर योगी अपना इच्छा से जन्म यानी शारीर धारण कर सक्ता है
अथवा शारीर छोड़ भी सक्ता है जिसको इच्छा मृत्यु कहते है!
अभिमन्यु
अभि सर्वत्र मनुते प्रकाशते इति अभिमन्यु !
महाभारत का अर्थ महा प्रकाश! परमात्म चेतना ही महा प्रकाश! उस परमात्म
चेतना केलिए साधना का अनुकूल और प्रतिकूल शक्तियों के युद्ध ही महाभारत!
अभिमन्यु का अर्थ आत्मजय अथवा आत्मनिग्रह है!
मोहरूपी पद्मव्यूह में अभिमन्यु बंदी हुआ! दुर्योधन(काम), दुश्शासन(क्रोध),
कर्ण(लोभ), शकुनी(मोह), शल्य(मद),
कृतवर्मा(मात्सर्य), द्रोण(संस्कारों) और जयद्रथ(अभिनिवेश) करके
दुष्टशक्तों चारोतरफ घेर्लिया!
मगर साधक यानी अभिमन्यु धैर्ययुक्त होके स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों
शरीरों को सीमाओं का अतिक्रमण किया! उनका वजह से सम्यक समाधि से प्रकाशित होगया!
धारण, ध्यान और समाधि तीनों को मिलाके सम्यक समाधि कहते है! सम्यक समाधि
लभ्य होंकर साधक इस भौतिक प्रपंच में रहने को इच्छा नहीं करेगा! इसीलिए महासमाधि
का अर्थ परमात्माका साथ ऐक्य होना ही अभिमन्यु का निष्क्रमण वृत्तान्त!
ओणम्
श्री महाविष्णु वामनावतार में बलि चक्रवर्ती को तीन कदम् /फूट का जमीन दान माँगता है! राक्षस गुरु
शुक्राचार्य इंकार करने से भी नहीं सुनके वाग्दान का मुताबिक़ चक्रवर्ती दान देदेते
है!
वा का अर्थ वरिष्ठ, मन का अर्थ मनस्, वरिष्ठ मनस् यानी स्थिर मनस् है!
स्थिर मनस् के लिए तीन कदम् का अवसर है! साधक अपना साधन में तीन प्रकार का
अवरोध, आदिभौतिक, आदिदैविक, और आध्यात्मिक, आते है!
आदिभौतिक अवरोध का अर्थ शारीरक रुग्मतायें, आदिदैविक अवरोध का अर्थ मानसिक
रुग्मतायें, और आध्यात्मिक का अर्थ ध्यानसम्बंधिता रुग्मतायें, है!
इन्ही को मल, आवरण और विक्षेपण दोषों कहते है!
शारीरक रुग्मतायें का मतलब ज्वर, शिरदर्द, बदन का दर्द इत्यादि!
मानसिक रुग्मतायें, का मतलब मन का संबंधित विचारों इत्यादि!
ध्यानसम्बंधिता रुग्मतायें का मतलब निद्रा, तन्द्रा, आलसीपन इत्यादि!
क्रिया योग साधक परमात्मा में ऐक्यता होनेके लिए ए उप्पर दिया हुआ तीन
प्रकार का अवरोधों का बारे में सावधान रहना चाहिए! इन तीनों को वैराग्य से दूर
करके स्थिर मन लभ्य करना चाहिए! परमात्मा से प्रार्थना करके ए तीनों कदम् पार करने
का माँगना चाहिए! ऐसा माँग ही तीन कदम्!
सब कुछ परमात्मा हे करता है! वे परिच्छिन्न भी है और
अपरिच्छिन्न भी है! परामात्मा ही साधक का साधना तीव्रतम होगा तब ए तीन
कदम् मांगेगा! तीव्रध्यान में अँगुष्ठ प्रामाण में सूक्ष्मरूपी वामन का दर्शन
कूटस्थ में होना ही इस का निदर्शन है! ए सूक्ष्मरूपी वामन साधक का स्वस्वरुप
है!
साधक अपना अंदर का इन्द्रिय विषय वांछोम् को वैराग्य से दूर करना ही बलि
है! विचारधारा वर्तुलाकार में (चक्र) आना
उनका वृत्ति (वर्ती) है! ए ही चक्रवर्ती का अर्थ है! वर्तुलाकार चित्त वृत्तियों
को वैराग्य से दूर करना ही बलि चक्रवर्ती का अर्थ है!
राक्षसगुरू शुक्राचार्य अहंकार को पालन करनेवाले है! काम, क्रोध, लोभ,
मोह, मद, और मात्स्र्योम् को मूलकारण अहंकार को त्यजना ही बलि है! पाताललोक कही और
नहीं है, हमारा अंदर ही है! इन्द्रिय विषय वांछोम् को वैराग्य से उन से अतीत होना
ही साधक का आध्यात्मिक अभिवृद्धि है!
अस्माकं तु विशिष्टाये तान्निबोधद्विजोत्तम
नायका मम सैन्यस्य संङ्ञार्थं तान् ब्रवीमिते! 7
ओ ब्राह्मणोत्तम्, अब अपना कौरव सैन्य में प्रमुखों, सेनानायकों कौन कौन
है उन को आप का ज्ञप्ति के लिए याद दिला रहा हु! ए सब साधक का अंदर का अंतः शक्तियों का संघर्षण
है!
भवान भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिङ्जय
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमिदत्तिस्तथैवच 8
अन्येच बहवः शूराःमदर्थे त्यक्तजीविताः
नानाशास्त्रप्रहरणाः सर्वेयुद्ध विशारदाः 9
आप, भीष्म, कर्ण, युद्धमे जयशील कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण, भूरिश्रव,
और मेरेलिए अपना अपना जीवन दान करने अनेक अन्य शूरों, ए सारे युद्ध समर्थ और
शस्त्रास्त्र संपन्न लोग इधर है!
द्रोणाचार्य(संस्कारों), भीष्म(अहंकार अथावा अस्मित), कर्ण(राग),
कृपाचार्य(अविद्या), अश्वत्थामा(छिपाहुआ इच्छाओं), विकर्ण(द्वेष), सोमदत्त का
पुत्र सौमादात्त भूरिश्रव(कर्म—अच्छा,
बुरा, अच्छा और बुरा मिश्रित कर्म), और बहुतों नकारात्मक शक्तियाँ अपना अपना
सामर्थ्यों का साथ शस्त्रास्त्र संपन्न होंकर खडा है! वे
मै, दुर्योधन(कामों का राजा), दुश्शासन(क्रोध), कर्ण विकर्ण (लोभ),
शकुनि(मोह), शल्य(मद), और कृतवर्मा(मात्सर्य). कृतवर्मा को श्रीकृष्ण से जलन बहुत
है क्योंकि जिस कन्या को कृतवर्मा शादी करना चाहा उसकों श्रीकृष्ण ने शादी
किया!
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्
पर्याप्तं त्विदमे तेषां बलं भीमाभिरक्षितं 10
ऐसा शूरों का साथ हमारा अपरिमित कौरव सेना भीष्म का रक्षा में है, परिमित
पांडव सेना भीम् का रक्षा में है!
भौतिक विषयवांछों अपरिमित है! ओ भीष्म यानी अहंकार का रक्षा में है! सत्य
और धर्म समायुक्त पांडवसेना परिमित है! ओ भीम् यानी प्राणशक्ति नियंत्रता का रक्षा
में है!
सत्य नित्य और अग्नि जैसा है! असत्य अनित्य और सूखा घास जैसा है! अग्नि को
ढकने के सूखा घास जितना डालने से भी ढक नहीं सकता और उसके अलावा जल जाएगा! वैसा ही
दृढनिश्चय से परमात्मा का अनुसंथान कामनेवाले भीम् यानी प्राणशक्ति नियंत्रता का
रक्षायुक्त परिछाया में स्थित साधक को भीष्म यानी अहंकार का रक्षा में स्थित असत्य
अनित्य और भौतिक विषयवांछों अपरिमित भीष्म यानी अहंकार और उनका दुश्ताशाक्तियाँ का
प्रभाव कुछ भी नहीं होगा!
अयनेषु च सर्वेषु यथा भागा मवस्थिताः
भीष्ममेवाभि रक्षंतु भवंतस्सर्व एवहि! 11
आप सब अपना अपना व्यूहामारगों में अपना नियमित स्थानों से सर्वविधा भीष्म
को ही रक्षा करना है!
दुष्टशक्तियों का राजा दुर्योधन को दिव्यशक्तियों सदा भय है! उस भय का
हेतु अपना सेनानायक भीष्म यानी अहंकार का
रक्षा के लिए दुष्टशक्तियों को समायत के लिए बुलाते है!
अहंकार मरने से जगत नहीं है! साधक को अपना गम्य पहुँचने के लिए मार्ग सुगम
होजाएगा! इधर दुर्योधन अपना कौरवसेना का सभी योद्धाओं को सिर्फ भीष्म को रक्षा
करने आवाज दिया! ओही केवल एक भीम यानी प्राणशक्ति नियंत्रता पांडवसेना को रक्षा करने के लिये निर्भय होंकर
खडा है! प्राणशक्ति नियंत्रता का सामने बाकी नकारात्मक शक्तियों सब निर्वीर्य होता
है!
तस्य संजनयन्हर्षम् कुरुवृद्धः पितामह
सिंहनादम् विनद्योच्चैश्शंखंदध्मौप्रतापवान् 12
पराक्रमशाली और कुरुवृद्ध भीष्मपितामह दुर्योधन का उत्साह केलिए जोर से सिंहनाद करके शंख को
बजाया!
कुरुवंश में बाह्लिक का बाद भीष्म ही बुजुर्ग है!
साधक का अंदर का नकारात्मक शक्तियों यानी इच्छाओं का राजा दुर्योधन को उत्साह देनेकेलिए भीष्म यानी
अहंकार तुरंत तुरंत शंखारावं यानी श्वास
क्रिया किया!
योगसाधना में प्राणशक्ति नियंत्रण अतिमुख्य और मूल्यवान है! इच्छाओं का
हेतु साधक प्राणशक्ति नियंत्रण नहीं करसकेगा जिसका वजह से उसका श्वास जल्दी जल्दी
करेगा और विषयलोल होजायेगा! विषयलोलता को साथ देता है संस्कारों! मगर सत्
संस्कारों प्राणशक्ति नियंत्रण करने सहायता देकर इंद्रिय विषयलोलता बद्ध नहीं
करेगा! अहंकार यानी मै, मेरा मुझसे इत्यादि इंद्रिय विषयलोलता बद्ध करता है मनुष्य
को!
ततः शंखाश्चभेर्यश्चपणवानक गोमुखाः
सहसैवाभ्य हन्यंत सा शब्द स्तुमुलोभावत्
13
भीष्म शंखारावं करने बाद कौरव सैन्य में बाकी सब योद्धायें अपना अपना शंख,
भेरियां, इत्यादियों को बजाया! उन् शब्दों से बहुत जोर आवाज से दिशाओं प्रतिध्वनित
हुआ!
साधक को तीव्र साधना का समय में कम शब्द भी बहुत जोर से सुनाई देगा! भौतिक
और सूक्ष्म इन्द्रियों का शब्दों सुनकर साधक अचंभा होता है क्योंकि साधना का पहले
इन का शब्द कभी सुनाई नहीं दिया! भौतिक और सूक्ष्म इन्द्रियों का शब्द ही ए शंख
इत्यादियों का शब्द!
साधना में चार छीज मुख्य है! ओ है मन, श्वास, वीर्य और प्राणशक्ति!
मनुष्य का शारीर में 72,000 सूक्ष्म नाड़ीयां है! उन् में इडा,
पिंगळा, और सुषुम्ना, तीन सूक्ष्म नाडियां अति मुख्या है! मेरुदंड का बाए तरफ इडा,
दाए तरफ पिंगळा और बीच में सुषुम्ना नाडियां है! ए तीनों नाडियां गुदास्थान से
आरम्भ करके मेरुदंड का माध्यम से कूटस्थ तक साथ चलते है! कूटस्थ में इडा और पिंगळा
रुख जाते है! सुषुम्ना आगे बढ़ कर ब्रह्मरंध्र का नीचे उपस्थित सहस्रार तक जाता है!
गुदास्थान का नीचे मूलाधार चक्र का साथ कुंडलिनी शक्ति यानी द्रौपदी
उपस्थित है! क्रियायोग साधना का माध्यम से कुंडलिनी शक्ती को जागृत करके मूलाधार,
स्वाधिष्ठान, मणिपुर, आनाहत, विशुद्ध, आज्ञा नेगटिव पाजिटिव और सहस्रार चक्रों
द्वारा ब्रह्मरंध्र में पहुंचाना ही साधक का धर्म/गम्य/लक्ष्य है! इस साधना का
अवरोध करने नकारात्मक और सहायत करने सकारात्मक शक्तियों का संघर्ष ही महाभारत
युद्ध है!
मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपुर,
ए सभी संसार चक्रों कुरुक्षेत्र
है! ब्रह्मग्रंधि कहते है!
मणिपुर, आनाहत, विशुद्ध ए सभी संसार और धार्मिक चक्रों का मिलन
धर्मक्षेत्र -- कुरुक्षेत्र है! रूद्रग्रंधि कहते है!
विशुद्ध, आज्ञा नेगटिव पाजिटिव और सहस्रार धार्मिक चक्रों धर्मक्षेत्र
है! विष्णुग्रंधि कहते है!
कुंडलिनी शक्ती जागृत होंकर
मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, आनाहत, और विशुद्ध, चक्रों को पार करना ही द्रौपदी
पंच पांडवों को विवाह करने का अर्थ है!
ततः श्वेतैर्हहैर्युक्तेमहतिस्यन्दने स्थितौ
माधवः पांडवाश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः 14
पश्चात श्वेताश्व लगाहुआ महा रथ में बैठाहुआ श्री क्रष्ण और अर्जुन दोनों
अपना अपना दिव्या शंखों को बजाया!
अश्व इंद्रियों का चिह्न है! सफ़ेद स्वच्छता/शुद्धता का प्रतीक है! शुद्ध
इंद्रियों का साथ साधना सर्वदा गरिष्ट है! कृष्ण शुद्ध बुद्धि और अर्जुन क्रियायोग साधक का प्रतीक है! ए
दोनों एक ही रथ(शरीर) का सदस्य है! ए दोनों अपना अपना अहंकार त्याग किया! शंख
अहंकार का प्रतीक है! रेचक यानी श्वास को निश्वास करना ही शंख बजाने का अर्थ है!
अब साधक साधना करने उपक्रम किया!
मा=पृथ्वी, धव= भर्त, माधव= श्रीकृष्ण
चैतन्य यानी सृष्टि का अंदर का परमात्मा
पाञ्चजन्यं हृषीकेशोदेवदत्तं धनंजय
पौण्ड्रं दध्मौ शँख भीमकर्मा वृकोदरः 15
अनंतविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः
नाकुलस्सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ 16
काश्यश्चपरमेश्वासश्शिखण्डीच महारथः
दृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः 17
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशःपृथिवीपते
सौभद्रश्च महाबाहुःशंखान्दध्मुः पृथक पृथक 18
श्रीकृष्ण अपना शँख पांचजन्य को, अर्जुन देवदत्तं को, भयंकर कार्य
करनेवाला भीम पौण्ड्रं को, युधिष्ठिर ने
अनन्तविजयं, नकुल ने सुघोष को और सहदेव ने मणिपुष्पक् को बजाया!
वैसा ही महा धनुर्धारी काशीराज, महारथी सिखंडी, दृष्टद्युम्न, विराट्,
अपजय नहीं जाननेवाला सात्यकि, द्रुपद्, द्रौपदी पुत्रों उपपांडवों, महाभुजबल
अभिमन्यू, और सेना का अंदर उपास्थित तदितर योद्धावो अपना अपना शंखों बजाया!
शिखंडी का अर्थ नपुंसक यानी तटस्थ है! तटस्थतावलम्भी को भीष्म यानी अहंकार
कुछ भी नहीं करसकता है!
प्रति एक चक्र को एक रंग, दळ, रूचि और शब्द होता है! शँख इत्यादियों का
शब्दों का अर्थ क्रिया योग साधक को अपना साधना में सुनाई देनेवाले चक्रों का और
सकारात्मक और नकारात्मक शक्तियोंका संघर्षण ही है!
परमात्म कोई परब्रह्म और ब्रह्मम् भी कहते है! परब्रह्म अविद्या में अपना
चेतना को फेलाई जिसका परिणाम ही सृष्टि है! ब्रह्मम् को चार भागों में विभाजित
करनेसे उसमे एक भाग नामरूप जगत में रूपांतरण हुआ! इसीको व्यक्त ब्रह्मम् अथावा
व्याकृत ब्रह्मम् और ए इन्द्रियगोचर है!
शेष तीन भाग ब्रह्मम् अव्यक्त अथावा अव्याकृत ब्रह्मम् जो निराकार और सत्
चित् आनन्द स्वरुप है!
परमात्मा हर चीज में है और हर चीज का अतीत भी है! अगर मै एक कमरा में बैठे
है समझो, ओ कमरा मेरा अंदर भी है मेरेसे अधिक भी है, इसीको अतीत कहते है!
एक विद्युत इंस्ट्रूमेंट(Instrument) काम करने केलिए इसका अंदर का शक्ति हेतु है! वैसा ही
इस जड़ शरीर को चैतन्य करने इस शरीर का अंदर का परमात्म चेतना ही कारण है!
दो परस्पर विरूद्द और आंखों को नहीं दिखनेवाले वायु, हैड्रोजन और आक्सिजन,
मिलके आँखों को दिखाई देनेवाले पानी बनजाता है!
जैसा सूर्य का साथ तेजस्विता है वैसा ही अविद्या से उद्भव हुआ इस सकल
चराचर दृश्य जगत यावत भी निराकार निर्गुण परब्रह्मम् अन्तर्भाग है! इस जड़ और माया
जगत का आधार परमात्म चेतना ही है!
सर्वव्यापक ब्रह्मम् को पहचान किया योगी को माया दिखाई नहीं देगा! वैसा ही
माया में फसा हुआ साधारण मनुष्य को ब्रह्मम् दिखाई नहीं देगा!
जड़ाऊ माया सृष्टि का हेतु, निश्छल ब्रह्मम् नहीं है! इस माया को ही
योगमाया कहते है! सत् राजो तमो गुण संयुक्त इस योगमाया को चित् शक्ति, महामाया और
मूलप्रकृति इत्यादि नामांक्रुता है!
कारण सृष्टि:
त्रिगुणात्मक अविद्या ब्रह्मचैतन्य से सृजनात्मक शक्ति लभ्य किया है!
ब्रह्मचैतन्ययुक्त अविद्या से प्रथम में आकाश(शब्द), आकाश से वायु(स्पर्श), वायु
से अग्नि(रूपम्), अग्नि से वरुण अथावा जल(रसम्), वरुण अथावा जल से पृथ्वी(गंध)
उत्पन्न हुए! इन्हीं को पंचमहाभूतों कहते है! ए स्वयं प्रकाशित नहीं है! जैसे
अयस्कांत क्षेत्र में लोह अयास्कांतीकरण होता है वैसा ही परमात्मा का चेतना क्रमशः
पहले आकाश, पश्चात वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी में प्रवेश किया जिस का कारण वे
चैतन्यवंत हुआ!
शब्द स्पर्श रूप रस और गंध को पञ्च तन्मात्र कहते है! अविद्य अथवा
मूलप्रकृति से उत्पन्न हुआ प्रप्रथाम शब्द ॐकार है! ए सर्व सृष्टि ॐकार से ही
उत्पन्न हुआ है!
इस सूक्ष्म पञ्च महाभूतों सत्व राजो तमो गुणों सहित है! इस त्रिगुणात्मक
मूल अज्ञान् अथावा अविद्या को कारण सृष्टि कहते है! अभी तक किसी का साथ मलिन नहीं
हुआ सूक्ष्म पञ्च महाभूतों को अपंचीकरण कहते है!
अपंचीकृत समिष्ठि सत्वगुण सूक्ष्म पञ्च महाभूतों अर्थाभाग से पञ्च
ज्ञानेंद्रियों व्यक्तीकरण हुआ! आकाश से श्रोत्रं(कान), वायु से त्वक(चर्म), जल से
रस(जीब), पृथ्वी से घ्राण(नाक) व्यक्तीकरण हुए! श्रोत्रं(कान), त्वक(चर्म),
रस(जीब), घ्राण(नाक) मांसपेशियों नहीं, केवल शक्तियों है!
शेष अपंचीकृत समिष्टी सत्वगुण सूक्ष्म पञ्च महाभूतों अर्थाभाग से अंतःकरण
व्यक्तीकरण हुआ!
अपंचीकृत समिष्ठि सत्वगुण सूक्ष्म अर्थाभाग आकाश में परमात्म चेतन स्वयं
प्रवेश किया! सत्वगुण सूक्ष्म अर्थाभाग वायु में संशयात्मक मनस्, अग्नी में
निश्चयात्मक बुद्धि, जल में चंचल चित्तं, और पृथ्वी में कर्तृत्ववान अहंकार
व्यक्तीकरण हुए!
अपंचीकृत समिष्ठि रजोगुण सूक्ष्म पञ्च महाभूतों अर्थाभाग से क्रमशः
कर्मेन्द्रियाँ व्यक्तीकरण हुए!
अपंचीकृत समिष्ठि रजोगुण सूक्ष्म अर्थाभाग आकाश से वाक् यानी बोलने शक्ति(मुह) उत्पन्न हुआ!
समिष्ठि रजोगुण सूक्ष्म अर्थाभाग वायु से पाणी यानी क्रिया शक्ति(हाथों), अग्नी से
पादम् यानी गमन शक्ति(पैरों), जल से पायुवू यानी विसर्जना शक्ति(गुदास्थान), और पृथ्वी से उपस्थ/शिश्नं
यानी आनंदित शक्ति(लिंग) व्यक्तीकरण हुए!
शेष अपंचीकृत समिष्ठि रजोगुण सूक्ष्म पञ्च महाभूतों अर्थाभाग से मुख्य
प्राण व्यक्तीकरण हुआ! क्रमशः उस मुख्य प्राण का करने काम का कारण से पञ्च प्राणों
में विभाजित किया है!
अपंचीकृत समिष्ठि रजोगुण सूक्ष्म अर्थाभाग आकाश से प्राण वायु(स्थान हृदय) उत्पन्न हुआ! समिष्ठि
रजोगुण सूक्ष्म अर्थाभाग वायु से अपानवायु(गुदास्थान), अग्नी से व्यानवायु(स्थान सर्वशरीर
), जल से उड़ान वायु(स्थान कंठ), और पृथ्वी सेसामानवायु(स्थान नाभि) व्यक्तीकरण
हुए! मांसपेशियों नहीं, केवल शक्तियों है!
सूक्ष्म सृष्टि तत्वों को
अधिदेवातायें होते है! ओ सुलभरीति से समझने को निम्नलिखित टेबल दिया है!
परमात्मा
श्री कृष्ण चैतन्य(सृष्टि का अंदर का
परमात्म)
|
अविद्या (त्रिगुणात्मक)
सत्व
|
रजो
|
तमो
|
कारण शरीर
आकाश
(शब्द)
|
वायु
(स्पर्श)
|
अग्नि
(रूपं)
|
जल
(रसं)
|
पृथ्वी
(गंध)
|
अपंचीकृत समिष्ठि
अपंचीकृत समिष्ठि
सत्वगुणसूक्ष्म पञ्च
सत्वगुणसूक्ष्म पञ्च
महाभूतों अर्थाभाग महाभूतों अर्थाभाग
अंतःकरण
|
अधि
देवता
|
ज्ञानेंद्रियों
|
अधि
देवता
|
|
½ आकाश
(परमात्म
चेतना)
|
परमात्म
|
½ आकाश
|
श्रोत्रं(कान)
|
दिशाओं
|
½ वायु
(संशयात्मक
मनस)
|
चंद्र
|
½
वायु
|
त्वक( चर्म)
|
स्पर्शन
|
½ अग्नि
(निश्चयात्मक
बुद्धि)
|
बृहस्पति
|
½ अग्नि
|
चक्षु (आँखों)
|
सूर्य
|
½जल(चंचल चित्त)
|
रूद्र
|
½जल
|
जिह्वा (जीब)
|
वरुण
|
½ पृथ्वी
(अहंकार)
|
जीव
|
½ पृथ्वी
|
घ्राण(नाक)
|
अश्वनीदेवतायें
|
अपंचीकृत समिष्ठि
अपंचीकृत समिष्ठि
रजोगुण सूक्ष्म पञ्च
रजोगुण सूक्ष्म पञ्च
महाभूतों अर्थाभाग महाभूतों अर्थाभाग
महाभूतों
|
कर्मेन्द्रियाँ
|
अधि
देवता
|
पञ्च प्राण
(स्थान)
|
अधि
देवता
|
|
½आकाश
|
मुह(बोलने शक्ति)
|
अग्नि
|
½आकाश
|
प्राण(हृदयं)
|
विशिष्ट
|
½ वायु
|
पाणी (हाथों) क्रिया शक्ति.
|
इन्द्र
|
½ वायु
|
अपान (गुदा स्थान)
|
विश्व कर्म
|
½अग्नि
|
पादं (गमन शक्ति)
|
उपेन्द्र
|
½अग्नि
|
व्यान (सर्व शरीर)
|
विश्वयोनि
|
½जल/वरुण
|
गुदास्थान(विसर्जाना शक्ति)
|
मृत्यु
|
½जल/वरुण
|
उदान (कंठ)
|
अज
|
½ पृथ्वी
|
शिशिनं (आनंद शक्ति)
|
प्रजापति
|
½ पृथ्वी
|
समान(नाभि )
|
जाय
|
सूक्ष्म सृष्टि 19तत्वों
का समावेत है! .वे 5 ज्ञानेंद्रियों, 5 कर्मेन्द्रियाँ, 5 प्राण, 4 अंतःकरण! इस सूक्ष्म सृष्टि भौतिक नेत्र को दिखाई नहीं
देगा!
5 ज्ञानेंद्रियों
|
5 कर्मेन्द्रियाँ
|
5 प्राण
|
4 अंतःकरण
|
कुल 19 तत्वों
|
स्थूल सृष्टि अथावा पंचीकरण:
पञ्च तन्मात्राओं विविध रूपों में मिलाने का हेतु स्थूल सृष्टि
बनगया!
अपंचीकृत समिष्ठि तमोगुण सूक्ष्म पञ्च महाभूतों अर्थाभाग क्रमशः बाकी चार तमोगुण सूक्ष्म
पञ्च महाभूतों का 1/8 भागों का मिलाके स्थूल
पञ्च महाभूतों बनगया! इस निम्नलिखित टेबल को देखिए:
आकाश
|
वायु
|
अग्नि
|
जल
|
पृथ्वी
|
पञ्चकं
|
½
|
1/8
|
1/8
|
1/8
|
1/8
|
आकाश
|
1/8
|
½
|
1/8
|
1/8
|
1/8
|
वायु
|
1/8
|
1/8
|
½
|
1/8
|
1/8
|
अग्नि
|
1/8
|
1/8
|
1/8
|
½
|
1/8
|
जल
|
1/8
|
1/8
|
1/8
|
1/8
|
½
|
पृथ्वी
|
पंचीकरण हुए आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ए पांचों उसी नाम में
बुलायाजायेगा!
अविद्या अथावा सत्व रजो तमोगुणात्मक मूलप्रकृति से व्यक्तीकरण हुए सत्व
सूक्ष्म महाभूतों हर एक को अपना ही तन्मात्रा था! तन्मात्रा का अर्थ शक्ति है!
आकाश को शब्द, वायु को स्पर्श, अग्नि को रूप, जल को रस और पृथ्वी को गंध
तन्मात्राओं था!
स्थूल सृष्टि सूक्ष्म सृष्टि जैसा नहीं है! स्थूल आकाश को शब्द, स्थूल
वायु को शब्द और स्पर्श, स्थूल अग्नी को शब्द, स्पर्श और रूप, स्थूल वरुण/जल को
शब्द, स्पर्श, रूप और रस, स्थूल पृथ्वी को शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध पाँच
तत्वों व्यक्तीकरण हुए!
ए व्यक्तीकरण हुए स्थूलभूतों से जरायु यानी चतुष्पाद जंतुओं, अंडजों यानी
पक्षियों, सरीकृपों, स्वेदजों यानी मच्छर, क्रीमी कीट इत्यादि, उद्भिजों यानी पेड
पौधे व्यक्तीकरण हुए!
मनो बुद्धि चित्त और अहंकार नाम का स्थूल अंतःकरण स्थूल आकाश पञ्चकं से
हुआ! स्थूल पञ्चप्राणों स्थूल वायु पञ्चकं से,
स्थूल पञ्चेंद्रियों स्थूल अग्नि पञ्चकं से, स्थूल पञ्च तन्मात्रों स्थूल
वरुण/जल पञ्चकं से, स्थूल पञ्चकर्मेन्द्रियाँ स्थूल पृथ्वी पञ्चकं से व्यक्तीकरण
हुआ!
स्थूल आकाश का अर्थाभाग में ब्रह्मचैतन्य स्वयं प्रवेश किया!
शेष स्थूल आकाश का अर्थाभाग में चार भाग करने से हर एक भाग 1/8 बनजाता है! उस का साथ बाकी स्थूल भूतों समान
प्रतिपत्ति में क्रमशः मिल के समिष्टी स्थूल अहंकार, विषय चिंतनीय चित्त,
निश्चयात्मक बुद्धि और संकल्प विकल्प युक्त मनस व्यक्तीकरण हुए! ऐसा स्थूल अंतःकरण
व्यक्तीकरण हुआ! इस निम्नलिखित टेबल देखिए:
स्थूल अंतःकरण का ½ आकाशा = ब्रह्मचैतन्य
|
1/8 स्थूल आकाश+1/8 पृथ्वी = स्थूल समिष्टी अहंकार
1/8 स्थूल आकाश +1/8 जल् = स्थूल समिष्टी चित्तं
1/8 स्थूल आकाश +1/8 अग्नि = स्थूल समिष्टी बुद्धि
1/8 स्थूल आकाश +1/8 वायु = स्थूल समिष्टी मनस
|
स्थूल वायु:
स्थूल वायु का अर्थ भाग व्यानावायु का रूप में व्यक्तीकरण हुए!
शेष स्थूल वायु का अर्थाभाग में चार भाग करने से हर एक भाग 1/8 बनजाता है! उस का साथ बाकी स्थूल भूतों समान
प्रतिपत्ति में क्रमशः मिल के समिष्टी स्थूल समान, उड़ान, प्राण और अपान वायु का
रूप में व्यक्तीकरण हुए! ऐसा स्थूल अंतःकरण व्यक्तीकरण हुआ! प्राण और अपान वायु को
व्यान वायु अनुसन्धान कराके प्रसारण करवाएगा! इस निम्नलिखित टेबल देखिए:
½ स्थूल वायु= समिष्टी स्थूल व्यान वायु
|
1/8 स्थूल वायु +1/8 स्थूल आकाश = समिष्टी स्थूल समान
वायु
1/8 स्थूल वायु +1/8 स्थूल अग्नि = समिष्टी स्थूलउड़ान वायु
1/8 स्थूल वायु +1/8 स्थूल जल् = समिष्टी स्थूल प्राण वायु
1/8 स्थूल वायु +1/8 स्थूल पृथ्वी = समिष्टी स्थूल अपान वायु
|
स्थूल ज्ञानेंद्रियों:
स्थूल अग्नी का अर्थ भाग चक्षु यानी देखने का शक्ति का रूप में व्यक्तीकरण
हुए!
शेष स्थूल अग्नी का अर्थाभाग में चार भाग करने से हर एक भाग 1/8 बनजाता है! उस का साथ बाकी स्थूल भूतों समान
प्रतिपत्ति में क्रमशः मिल के समिष्टी स्थूल
श्रोत्र यानी सुनने का शक्ति, त्वक यानी स्पर्शन का शक्ति, जिह्वा यानी
रसने का शक्ति, और घ्राण यानी सूंगने का शक्ति व्यक्तीकरण हुए! इस निम्नलिखित टेबल देखिए:
½ स्थूल अग्नि= समिष्टि स्थूल नेत्र
|
1/8 स्थूल अग्नि +1/8 स्थूल आकाश = स्थूल समिष्टिकान
1/8 स्थूल अग्नि +1/8 स्थूल वायु = स्थूल समिष्टि त्वचा .
1/8 स्थूल अग्नि +1/8 स्थूल जल् = स्थूल समिष्टिजीब
1/8 स्थूल
अग्नि
+1/8 स्थूल पृथ्वी = स्थूल समिष्टिनाक
|
स्थूल पञ्च तन्मात्रों:
स्थूल जल्/वरुण का अर्थ भाग समिष्टि रसतत्व का रूप में व्यक्तीकरण हुए!
शेष स्थूल जल्/वरुण का अर्थाभाग में चार भाग करने से हर एक भाग 1/8 बनजाता है! उस का साथ बाकी स्थूल भूतों समान
प्रतिपत्ति में क्रमशः मिल के समिष्टी स्थूल
शब्द, स्पर्श, रूप रस और गंध स्थूल पञ्च तन्मात्रों व्यक्तीकरण हुए! इस निम्नलिखित टेबल देखिए:
½ स्थूल जल्/वरुण =समिष्टी स्थूल रसतत्व
|
1/8 स्थूल जल्/वरुण +1/8 स्थूल आकाश = समिष्टी स्थूल शब्द
1/8 स्थूल जल्/वरुण +1/8 स्थूल वायु = समिष्टी स्थूल स्पर्श
1/8 स्थूल जल्/वरुण +1/8 स्थूल अग्नि = समिष्टी स्थूल रूप
1/8 स्थूल जल्/वरुण +1/8 स्थूल पृथ्वी =
समिष्टी स्थूल गंध
|
स्थूल पञ्च कर्मेन्द्रियाँ:
स्थूल पृथ्वी का अर्थ भाग समिष्टि स्थूल पायु/गुदा (मलविसर्जना शक्ति) का
रूप में व्यक्तीकरण हुए!
शेष स्थूल पृथ्वी का का अर्थाभाग में चार भाग करने से हर एक भाग 1/8 बनजाता है! उस का साथ बाकी स्थूल भूतों समान
प्रतिपत्ति में क्रमशः मिल के समिष्टी स्थूल मुह (वाक् शक्ति),
पाणी(हाथों-क्रियाशक्ति), पादं (पैरों- गमन शक्ति) और उपस्थ/शिश्न/लिंग(आनंदशक्ति)
व्यक्तीकरण हुए! इस निम्नलिखित टेबल
देखिए:
½ स्थूल पृथ्वी = समिष्टि स्थूल पायु/गुदा (मलविसर्जना शक्ति)
|
1/8 स्थूल पृथ्वी +1/8 स्थूल आकाश = समिष्टि स्थूल मुह (वाक् शक्ति)
1/8 स्थूल पृथ्वी +1/8 स्थूल वायु = समिष्टि
स्थूल पाणी(हाथों-क्रियाशक्ति).
1/8 स्थूल पृथ्वी +1/8 स्थूल अग्नि = समिष्टि स्थूल पादं (पैरों- गमन शक्ति)
1/8 स्थूल
पृथ्वी +1/8 स्थूल जल् = समिष्टि
स्थूल उपस्थ/शिश्न/लिंग(आनंदशक्ति)
|
इसीलिए स्थूल सृष्टि 24 तत्वों
से समायुक्त है! पञ्चज्ञानेंद्रियाँ, पञ्च
कर्मेन्द्रियों, पञ्च प्राणों, पञ्च तन्मात्राओं और चार अंतःकरण कुल मिलाके 24 तत्वों है!
पञ्च ज्ञानेंद्रियाँ
|
पञ्च कर्मेन्द्रियों
|
पञ्च प्राणों
|
पञ्च तन्मात्राओं
|
चार अंतःकरण
|
कुल मिलाके 24
तत्वों
|
सघोशा धार्तराष्ट्राणाम् हृदयानी व्यदारायात्
नाभश्च पृथिवींचैव तुमुलोव्यनुनादयन् 19
पांडव वीरोंका शंखो का उस संकुल ध्वनि भूमि और आकाशों को प्रतिध्वन करते
हुए दुर्योधानावोम का ह्रुदयों को थोड़ दिया!
मूलाधारचक्र से सहदेव का मणिपुष्पक शँख से आने दिव्य भ्रमर का शब्द,
स्वाधिष्ठान से नकुल का सुघोष शँख से आने
दिव्य बांसुरी का शब्द, मणिपुर से अर्जुन
का देवदत्त शँख से आने दिव्य वीणावाद का शब्द, अनाहत से भीम का पौंड्रक शँख से आने दिव्य घड़ियाल का
शब्द, विशुद्ध से युधिष्ठिर का अनंतविजय
शँख से आने दिव्य जल् प्रवाह का शब्द, इन्द्रियोंके
प्रभु हृषीकेश यानी श्री कृष्णजी का पांचजन्य शँख से आने दिव्य ॐ शब्द ए सारे
इच्छाओं का राजा दुर्योधन और उनका सहचरों को बहुत ढरादिया!
अथ व्यवस्थितान् दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम पाण्डवः 20
हृषीकेशं तदावाक्य मिदमाह महीपते!
अर्जुन उवाचा:-
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापयामेच्युत 21
यावादेतानिरीक्षेहं योद्धुकामानवस्थितान्
कैर्मया सहयोद्धव्यम् अस्मिन रणसमुद्यामे
22
योत्स्य मानानवेक्षेहम् य येतेत्रसमागताः
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रिय चिकीर्षवः 23
हे धृतराष्ट्र महाराजा, उस पश्चात रणरंग में आयुधों प्रयोग करने पहले कपिध्वज अर्जुन
युद्ध के लिए सन्नद्ध हुए कौरवों को देख कर धनुस हाथ में लेकर श्री कृष्ण से ऐसा
कहा:--
हे कृष्णा, इस युद्ध का आरम्भ में मै जिस जिस का साथ युद्ध करना, और
युद्धाभिलाषियोम् को मै किस प्रदेस से मै अच्छी तरह से देख सकता है उस प्रदेस में
मेरा रथ को स्थापित करो!
दुष्टबुद्धि दुर्योधन को युद्ध में प्रिय करने इधर जमाहुए इन योद्धों को
मै देखना चाहता हु!
परामात्मा से उत्पन्न हुए श्री कृष्ण चैतन्य को शुद्ध तत्वा माया अथवा
सृष्टि के अंदर का परमात्म कहते है! इस सृष्टि के अंदर का परमात्म अपने आपको ६
विधोमे विभाजित किया!
ए छे चेतनाओं और श्री कृष्णचैतन्य कुल मिलाके सात् चेतनाओं को प्रकृति
छिपाके साधारण मनुष्य को दिखने नहीं देगा! ए सात् चेतनाओं केवल योगी ही देख सकते
है! एक वास्तु हम को दिखाई देने के लिए प्रथम में उस वास्तु का उप्पर सूर्यकिरणों
गिरना चाहिए, उन् किरणों परावर्तन करने से तब ओ वस्तु दिखायी देगा! इसी को आभास
चैतन्य कहते है! अंतर्मुख हुआ अहंकार दिखाई नहीं देगा, परावर्तन हुआ यानी
इन्द्रियों से बाहर आके व्यक्त हुआ आठवीं चेतना अहंकार पूरित तमोगुण सहित आभास
चैतन्य ही हमारा साधारण नेत्रों को दिखायी देगा!
तमोगुण पंचीक्रुत पंचामहाभूतों में
भी आकाश और वायु दिखाई नहीं देगा, अग्नि, जल् और पृथ्वी ए तीनोँ ही दिखाई देगा!
जल् गंगा यानी प्रक्रुति का प्रतीक है! भीष्म अहंकार का प्रतीक है! गंगा
सात् शिशुओं को नदी में छोडने का मतलब प्रक्रुति सात् शिशुओं यानी सात् चेतानाओं
साधारण मनुष्य से छिपाके रखना ही है!
मनुष्य का शरीर में 72 हजारों
सूक्ष्म नाडियां है! उन् में मेरुदंड अंदर बाए तरफ में स्थित इडा, और दहिने तरफ
स्थित पिंगळा और इन दोनोँ का बीच में स्थित सुषुम्ना नाडियां ए तीनोँ अति मुख्य
है!
मनुष्य का शरीर का अंदर गुदास्थान का पास मूलाधार्चाक्र है! इस मूलाधार से
शुरू करके इडा, पिंगळा और सुषुम्ना तीनोँ सूक्ष्म नाडियां कूटस्थ तक साथ सफर करता
है! वहा इडा और पिंगळा दोनोँ रुख्जाता है! केवल सुषुम्ना ब्रह्मरंध्र का नीचे
स्थित सहस्रार्चक्र तक सफर करता है!
भौतिक मेरुदंड का अंदर सुषुम्ना सूक्ष्मनादी, सुषुम्ना का अंदर वज्र, वज्र
का अंदर चित्र, करके सूक्ष्म नाडियां होते है! नीचे और कुछ सूक्ष्म नाडियां का नाम और स्थान दिया है!
पूषा
|
कानों का दोनों भुजाओं में
|
गांधारी, हस्तिजिह्वा
|
आँखों का छिद्रों का दोनों भुजाओं में
|
सरस्वति
|
जीब का अंत में
|
सिनीवाली
|
मूत्रविसर्जन छिद्र में
|
कपिध्वज:-- ध्वजा का अर्थ मेरुदंड,
कपि का अर्थ मनस मन् शिर में होता
है! ध्वज यानी मेरुदंड का उप्पर शिर में स्थित मन को स्थिर करना चाहिए साधक! गुरु
का आज्ञा पाकर साधक बंदर जैसा मुह लगा के खेचरी मुद्रा में क्रियायोग ध्यान करते
हुए प्राणशक्ती को मूलाधार से आज्ञाचक्र तक, फिर आज्ञाचक्र से मूलाधारचक्र तक
फिरौती करते हुए मेरुदंड अथवा मेरुध्वाज को अयस्कान्तईकरण करते हुए साधना करणा ही
कपिध्वज का अर्थ है!
संजय उवाच--
एवमुक्तो हृषीकेशः गुदाकेशेन भारत
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा राथोत्तमम 24
भीष्मद्रोण प्रमुखतः सर्वेषांच महीक्षिताम्
उवाच पार्थ ! पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति 25
संजय ने ऐसा कहा:
हे धृतराष्ट्र महाराज, अर्जुन ने वैसा कहने का पश्चात, श्री कृष्ण उस
उत्तम रथ को दोनों सेनाओं का मध्य में भीष्म द्रोण और सर्व राजों का सामने स्थापित
करके ‘ इधर एक कट्टे हुए कौरवों
को देखो’ कहा!
गुडाकेशः ----निद्रा और तमोगुणों को जय किया हुआ अति जागरूक मनुष्य!
हृषीकेश ---- इन्द्रियोंको राजा मनस् .
साधक अपना मेरुदंड को सीदा रखना, टेडा नहीं होना है! आत्मनिग्रह नाम का
झंडा को उदाना है! कूटस्थ में दृष्टि रखना है! कपि यानी खेचरी मुद्रा लगा के ध्यान
के लिए उपक्रम करणा है!
मेरुदंड को ध्वज कहते है! मेरुदंड स्थित चक्रों में दृष्टि केन्द्रीकरण
करणा चाहिए! अथावा अनावसर विचारों मन को अस्तव्यस्थ करेगा! साधक का चेतना को
इन्द्रियोंके तरफ आकर्षित करेगा!
केवल कूटस्थ में दृष्टि रखने से ही भीष्म(अहंकार), द्रोण(संस्कारों और बाकी
कौरवसेना(दुष्ट नकारात्मक शक्तियों) को हृषिकेश(सत् मनस) का सहायता से
अर्जुन(साधक) देख सकते है और नियंत्रित कर सकता है!
साधक ने तीन ग्रंथियों को छेदन करणा है!
उस में प्रथम् ब्रह्म ग्रंथि है! इस ग्रंथि कुरुक्षेत्र का मूलाधार चक्र
से लेकर मणिपुर चक्र तक व्याप्त हुआ है! इस ग्रंथि मानवचेतना का संबंधित है! भौतिक
विषयासक्ति में निमग्न होंकर योगसाधना में कुछ न कुछ शारीरिक क्लेश देके साधना को
आगे बढ़ाने नहीं देगा! सृष्ट्यादि से स्थित इस भौतिक शरीर को शारीरिक क्लेशों होना
सहज धर्म है! इसलिए आदिभौतिक शांति कहते है! आदिभौतिक शांति आसनसिद्धि के लिए
आवश्यक है!
उन् में द्वितीय ग्रंथि रूद्र ग्रंथि है! इस ग्रंथि कुरुक्षेत्र—धर्मक्षेत्र
का मणिपुर चक्र से लेकर विशुद्ध
चक्र तक व्याप्त हुआ है! इस ग्रंथि मन को विचारों करवाके योगसाधना में कुछ न कुछ
रुकावटें दाल के साधना को आगे बढ़ाने नहीं देगा!
जिस में स्थूलशरीर बिना सूक्षमा और कारण शरीरों होता है उन् देहधारो को
देवी, देवता, शैतान वगैरा कहते है! अछ्छा गुण होने से देवी, देवता,, और दुष्ट गुण
होने से शैतान वगैरा कहते है!
मन को भी सूक्ष्म शरीर कहते है! सृष्ट्यादि से स्थित इस सूक्ष्म शरीर को
विचारों का क्लेशों होना सहज धर्म है! इसलिए आदिदैविक शांति कहते है! आदिदैविक
शांति मानसिक निश्चलता के लिए आवश्यक है!
उन् में तृतीय और आखरी ग्रंथि विष्णु ग्रंथि है! इस ग्रंथि धर्मक्षेत्र
का मणिपुर चक्र विशुद्ध चक्र से
लेकर सहस्रार चक्र तक व्याप्त हुआ है! शरीर हल्का होना, माया का हेतु भय से साधक
साधना का बीच में उड़ना जैसा भाव आना होता है और योगसाधना में कुछ न कुछ रुकावटें
दाल के साधना को आगे बढ़ाने नहीं देगा!
सृष्ट्यादि से स्थित इस कारण शरीर को ऐसे रुकावटें डालना सहज धर्म है!
इसलिए आध्यात्मिक शांति कहते है! आध्यात्मिक शांति के लिए परमात्म का करुणा और दया
आवश्यक है!
गुदाकेशा :-- सदा निद्रा का अधिगमन करके माया को पार करने सिद्ध है! ऐसा
साधक का शरीर ही उत्तम रथ है! वैसा ही अथीरथ और महाराथों का अर्थ जिन साधकों अपना
अपना शरीरों को साधना के लिए सिद्ध किया है!
तत्र अपश्यत स्थितान्पार्थ पित्रून अथापितामाहान्
आचार्यान मातुलान भ्रात्रून पुत्रान पुत्रान सखीम्स्तथा 26
श्वासुरान सुह्रुदश्चैव सेनयोरुभयोरपि
तान्समीक्ष्य स कौन्तेय सर्वान बन्ढूनवस्थितान 27
कृपया पराविष्टो विषीदंनिदमब्रवीत
संजय ने ऐसा कहा :--
तत् पश्चात अर्जुन ने उधर दोनोँ सेनाओं का बीच में खडा हुए पिताओं,
दादाओं, गुरूओं, मामाए, भ्रात्रुजनोम्, पुत्रोंको, पुत्रोंको, मित्रोँ को,
श्वासुरोम् को, हितैषियों को सभी को देखलिया! उस युद्धभूमी में खडे हुए सारे
बंधुजनों को अच्छी तरह देखकर दयार्द्र ह्रुदय होंकर दुःख से ऐसा कहा!
इधर दियाहुआ बंधुजनों सभी साधक का अंदर का सकारात्मक और नकारात्मक
शक्तियां है!
प्रापंचिक व्यापार संबंधित विषयोंका यानी धनार्जन् इत्यादियों का ज्ञान का
पीछे उपस्थित इन्द्रियोंके वश होंकर परमात्म चेतना को मनुष्य नहीं पहचानता है! इस
स्थिति नकारात्मक स्थिति है!
निद्रा को दूर करके
पक्का(ఖచ్చితముగా) आत्मनिग्रह
का सहायता से प्रापंचिक और शारीरक बाधायों को अधिगमन करके आध्यात्मिकता केलिए शरीर
को सिद्ध करने स्थिति सकारात्मक स्थिति!
कुंती का दूसरा नाम है पृथा! सहिष्णुता और शांत का प्रतीक है! पृथा का
पुत्र पार्थ, पार्थ का अर्थ मन को नियंत्रण करके आध्यात्मिकता का तरफ शरीर को
सिद्ध करने स्थिति अर्जुन का वर्त्तमान पार्थ स्थिति! इस स्थति में साधक को गहरा
शांति और आत्मानान्दम कभी कभी लभ्य करता है! चक्रों में बीजाक्षर ध्यान इत्यादि
प्रक्रियों का माध्यम से साधक का चेतना चक्रों में केंद्रीकृत होंकर परमानंद और
आत्मसाक्षार पाने का स्थिति है ए! इस स्थिति अभी भी द्वैत स्थिति है!
साधक परामात्मा का साथ ऐक्य होने का स्थिति अद्वैत स्थिति!
दादा, पिता इत्यादि बन्धुजन ‘ मै, मेरा मुझे’ यानी स्वार्थपूरित
अहंकार का प्रतीकांयें है! अनुकूल और प्रतिकूल
शक्तियाँ दोनों बराबर शक्तिवंत है!
द्रुपद विपरीत शांति का प्रतीक है!
गुदास्थान का नीचे 3 ½ चक्कर
लगाके निद्रावस्था में रहनेवाले शक्ती ही कुण्डलिनी है! ए कुण्डलिनी ही द्रुपद का
पुत्री द्रौपदी! समिष्टि में जो माया कहते है, व्यष्टि में इसी को कुण्डलिनी कहते
है! निद्रावस्था में निमग्न हुआ कुण्डलिनी को इन्द्रियविषयलोलता से जागरण करके
पुनः सहस्रार को साधना का माध्यम से भेजना चाहिए!
जागृती हुआ इस कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार(सहदेव), स्वाधिष्ठान(नकुल),
मणिपुर(अर्जुन), अनाहत(भीम), और विशुद्ध(युधिष्ठिर) चक्रों को पार करना ही द्रौपदी
पंच पांडवों को विवाह करना!
इस द्रौपदी ही प्रक्रुति, पंच पांडवों पंचभूत तत्वों है! जागृती हुआ
कुण्डलिनी शक्ति ओ ओ चक्र को क्रमशः पार करने समय जो शक्तियाँ उत्पन्न होने
दिव्यशाक्तियाँ उपपांदावों है!
प्रति एक चक्र का बाए तरफ़ इडा सूक्ष्म नाड़ी होता है! ए कौरवों यानी
नकारात्मकशाक्तियाँ है! प्रति एक चक्र का दाए तरफ़ पिंगळा सूक्ष्म नाड़ी होता है! ए
पांडवों यानी सकारात्मकशाक्तियाँ है!
संस्कारों दिशा निर्देश करने गुरुओं है! वे अच्छे और बुरे कोई भी हो सकते
है! अच्छे और बुरे इन संस्कारों के पुत्रों और पौत्रों है, अच्छे और बुरे आदतें
हितैषियों और व्यतिरेकियों!
अर्जुन उवाचा:--
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्णायुयुत्सुम् समुपस्थितम् 28
सीदन्ति मामा गात्राणि मुखंच परिशुष्यति
वेपथुश्च शरीरे में रोमाहर्षश्च जायते 29
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात त्वाक्चैवा परिदह्यते
नाचाशाक्नोम्यवास्थातुम् भ्रमतीवाचा में मनः 30
अर्जुन ने कहा :--
हे कृष्णा, युद्ध करने इधर समायुक्त इन बंधुजनों को देखकर मेरा सारे अँगे
सड् जा रहा है, गला सुखा रहा है, शरीर में कंपन आ रहा है, रोमांचित(గగుర్పాటు) हो रहा है, मेरा धनुष गांडीव हाथ से गिर रहा
है, त्वचा जल् रहा है, खडा होने शक्ति नहीं होके मन घूम रहा है!
तीव्र ध्यान में निमग्न हुए साधक को अपना साधना में जो तकलीफियां आराहाहाई
उन् को अपना आत्मगुरु को निवेदन कर रहा है!
इस समय तक आलसीपन को आदत हुए और अपना इष्ट का मुताबिक़ प्रवर्तित करने
अंगों, आज योग ध्यान करके अंतर्मुख होने के प्रयत्न करने समय में, इन
शरीरकपीधावोम् का हेतु आत्मनिग्रह पालन केलिए
मेरे अंगों सड रहा है, ॐ प्रणवाक्षर उच्चारण से गला सुख गया, साधना में
आगे बढ़ेगा नहीं बढ़ेगा करके विचारों का मानसिक दुर्बलता मेरे में स्थान लेलिया,
ध्यान में मेरुदंड(गाण्डीवं) को सीदा रखने असक्त होके आत्मनिर्भरता और इस के कारण
उसका इन्द्रिय विषयासक्ति से रक्षा करने ज्ञानशक्ति झुकरहा है! ध्यान समय में ए सभी
व्याकुलता का हेतु मेरा मानसिक चेतना नाम का चर्म जल् रहा है!
हे केशवा(दुष्ट संहारका), मै क्रियायोग ध्यान में पराजित होगा करके क्लेश
से मेरा मन घूम रहा है!
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशवा
नचा श्रेयोंनुपश्यामि हटवा स्वजनमाहवे
31
हे कृष्णा, अपशकुनो को भी देख रहा हु! युद्ध में ए सारे बंधुजनों को मार
के मुझे क्या लाभ लभ्य होगा नहीं देख पाराहू!
ॐकार बाण जैसा है! ॐकारोच्चारण रामबाण जैसा है! निकलाहुआ रामबाण वृथा नहीं
जाता है! वैसा ही ॐकारोच्चारणवृथा नहीं जाएगा! ओ ब्रह्माण्ड का दुष्ट नकारात्मक
शक्तियों को सम्हार करता है!
श्वास को अस्त्र जैसा उपयोग करना ही श्वास्त्र है! श्वास्त्र श्वास्त्र
कहते हुए शास्त्र होगया है!
वैराग्य का
श्वास को पूँजी लगाके देव
साम्राज्य को लब्धि होना ही वैराग्य है! इस पूँजी में प्रगति लभ्य तुरंत नहीं होता
है! वैसा लभ्य नहीं मिलनेवाले साधक का अवस्था है ए! इन्द्रिय निग्रहता से भौतिक
विषयवांछों को मारने से भी परमानंद लभ्य होगा नहीं होगा करके संदेह साधक को अवश्य
उत्पन्न होता है!
और शारीरक बाधाएँ, मानसिक विचारोंका बाधाएँ, जैसा दुश्श्कुनो को अनुभव
करते भी मेरे को आध्यात्मिक प्रगति का लाभ नहीं होगा करके व्यथ और व्याकुलन में
दूबाहुआ साधक का परिस्थिति है ए! गणित में समीकरणों नहीं करपानेवाले विद्यार्थी का
पारिस्थि जैसा है! परन्तु प्रबल और कठोर साधना से लाभ पा सकता है! विजय तथ्य है!
न कांक्षे विजयं कृष्णा नचा राज्यम सुखानिच
किं नो राज्येन गोविंदा किम भोगैर्जीवितेनवा 32
हे कृष्णा, युद्ध विजय या राज्य भोग, मै नहीं चाहेगा, युद्ध विजय, राज्य
भोग, और इस जीवित से हमें क्या लाभ है?
एशामर्थे कान्क्षितम नोराज्यम भोगाः सुखानिच
टा इमेव स्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानिच 33
आचार्या पितारापुत्राः तथैव च पितामहाः
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः स्यालाह सम्बन्धिनस्तथा 34
जिन का हेतु हम इस राज्य, राज्यभोगों, और सुखों को चाहते है, वे गुरुवों,
पिताओं, पुत्रों, दादाओं, मामाओं, श्वसुरो, पौत्रो, सालों, संबंधों इत्यादी सभी
अपना धन, मन और प्राण को बाजी लगाकर इस रणरंग में सामने उपस्थित हुए है!
साधक को आने सन्देहों में ए अतिमुख्य है!
दादा—अन्तःकरण, पिता—इन्द्रियों, पौत्र—इच्छाओं!
ए सभी मरने से और बचेगा कौन? इच्छाओं और उनके अनुयायीयों संस्कारों यानी
मामाओं, श्वसुरो यानी इन्द्रियाविषयलोलताएं
मर जाने से इस लभ्य होनेवाले दैवासाम्राज्य को अनुभव करने कौन है!
एतान्नाहंतुमिच्छामि घ्नातोपि मधुसूदन
अपित्रैलोक्य राज्यस्य हेतो किम नु महीकृतेः 35
हे कृष्णा, मुझे मारनेवाले होने से भी, तीन लोकों का राज्याधिपत्य को भी
मै इन लोगों को मारने अशक्त हु, फिर इस भूलोक राज्याधिपत्य के लिए कहने का क्या
अवसर नहीं है!
मधुसूदन--- अज्ञान् अथावा आध्यात्मिक प्रतिकूल छीजों को निकालनेवाला!
ध्यान में नकारात्मक प्रतिकूल शक्तियों से तंग होंने साधक का अवस्था है ए!
स्थूल, सूक्ष्म और कारण लोकों को पार करने से आनेवाला साम्राज्य दैव साम्राज्य हे है! ओ
तीव्रावैराग्य सहित प्राणायाम क्रियायोग साधना से ही लभ्य होगा!
उस गहरा ध्यान नहीं होने के हेतु हाथ में जो इन्द्रिय विषय वांछों है उन्
को कम से कम अनुभव करने उद्देश्य से ‘मुझे कोई भी राज्य नहीं चाहिए, जो हाथ में है उन्ही का अनुभव से तृप्ति
प्राप्त करने’ साधक का स्थिति है
ए!
कक्ष्य मे प्रथम स्थान में उत्तीर्णता के लिए विद्या प्रारंभ करके, पशात्
दुष्ट सहवास से अच्छी तरह नहीं पढ के असफलता लभ्य होंकर आखरी में निम्न स्थाई में
उत्तीर्णता से संतृप्ति होने विद्यार्थी का दुस्थिति जैसा है ए!
निहत्य धार्ताराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्यात् जनार्धनः
पापमेवाश्रायेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः 36
जनार्दन—आर्ताजनों का
सव्य इच्छाओं को अनुग्रह करनेवाला
हे कृष्णा, दुर्योधनादों को मारने से हमें क्या संतोषजनक होगा? इन लोग
दुर्मार्ग लोग होने से भी हमें पाप ही प्राप्त होगा!
दुर्योधन कामं का प्रतीक है! काम, क्रोध, लोभा, मोह, मद और मात्सर्य
इत्यादि दुर्योधनादों को परामात्मा ने मनुष्य के लिए ही आविष्कार किया!
स्थूल, सूक्ष्म और कारण लोकों को त्रिपुरो कहते है! इन लोकों को अंत करने
से साधक देव साम्राज्य जो नित्य और यदार्थ है उस में प्रवेश करेगा! इस के लिए कठोर
साधना आवश्यक है! इस तीव्र साधना में असफलता लब्ध पानवाला साधक ऐसा ही व्यर्थ तर्क
करेगा!
अन्नमयकोश :--
पंचीकरण का पश्चात स्थूल पंचभूतों से व्यक्तीकरण हुए 24 तत्वों सहित स्थूलशरीर
ही अन्नमयकोश है!
पंचज्ञानेंद्रियाँ, पंचकर्मेन्द्रियाँ,
पंचप्राणों, पंचतन्मात्राएँ और अन्तःकरण सभी मिलाके स्थूलशरीर कहते है!
तन्मात्रा का अर्थ शक्ति! आकाश को शब्द, वायु का स्पर्श, अग्नि का रूप,
जल् को रस और पृथ्वी को गंध शक्तियों होते है!
प्राणमयकोश :--
सूक्ष्मशरीर का अपंचीकृत पंचप्राणों(प्राण, अपान, व्यान, समान और उडान),
पंचकर्मेन्द्रियाँ,(पाणी, पाद, पायु, उपस्थ और शिशिनं) ए सब मिलाके प्राणमयकोश
कहते है!
मनोमयकोश :-- सूक्ष्मशरीर का पंच ज्ञानेंद्रियाँ, मन और चित्त मिलाके
मनोमयकोश कहते है!
विज्ञानमयकोश :--
सूक्ष्मशरीर का
पंच ज्ञानेंद्रियाँ, अहंकार, निश्चयात्मक बुद्धि सब मिलाके विज्ञानमयकोश कहते है !
प्राणमय, मनोमय, और विज्ञानमयकोश तीनों मिलाके सूक्ष्मशरीर कहते है
आनंदमयकोश :--
त्रिगुणात्मक और
मूल अज्ञान सहित मोहस्वरूपी अविद्या कवच ही आनंदामयाकोश है जिन को कारनाशारीर कहते
है!
अवस्थाएं :--
जाग्रतावस्था:--
ब्रह्मचैतन्य
कारणशरीर में, कारणशरीर का माध्यम से सूक्ष्मशरीर में, सूक्ष्मशरीर का माध्यम से
स्थूलशरीर में प्रवेश करके, तीनों यानी स्थूल, सूक्ष्म और कारण, शरीरों चेतनात्मक
होना ही जाग्रतावस्था कहते है!
स्वप्नावस्था
:--
ब्रह्मचैतन्य का
प्रवेश का हेतु कारणशरीर और सूक्ष्मशरीर दोनों यानी सूक्ष्म और कारण, शरीरों
चेतनात्मक होना ही स्वप्नावस्था कहते है! इस अवस्था में स्थूलशरीर निद्राण स्थिति
में रहते है!
सुषुप्ति अवस्था
:--
ब्रह्मचैतन्य का
प्रवेश का हेतु केवल कारणशरीर शरीर चेतनात्मक होना ही सुषुप्ति अवस्था कहते है! इस
अवस्था में स्थूलशरीर और सूक्ष्म शरीरों अचेतानात्मक स्थिति में रहते है! गहरा
नींद में ऐसा स्थिति साधारण मनुष्य को और तीव्र ध्यान में योग साधको ऐसा अनुभव
होता है!
सृष्टि का अंदर
का परमात्मा को श्रीकृष्णचैतन्य अथवा शुद्धसत्वमाया कहते है! इस श्रीकृष्णचैतन्य,
समिष्टि का अंदर का स्थूल, सूक्ष्म और कारण चेतनाओं, व्यष्टि का अंदर का स्थूल,
सूक्ष्म और कारण चेतनाओं, कुल मिलाके सात् चेतनाओं में व्यक्तीकरण होते है! ए सात्
चेतनाओं साधारण मनुष्य नेत्रको नहीं दिखेगा!
कारणशारीर को
तमोगुण प्रभाव से मल और आवरण दोषाए, रजोगुण प्रभाव से विक्षेपण दोषाए लगता है!
मैल लगा हुआ
लाम्तर चिम्नी का अंदर का ज्योति दिखाई नहीं देता है! वैसा ही हमारा अंदर का
तमोगुण अज्ञानता करके मैला का मल दोष का हेतु हमारा अंदर का परमात्मा हमें दिखाई
नहीं देगा! अंधेरे में रस्सी को देख कर सर्प कर के भ्रम हो कर उस का यदार्थारूप को
नहीं पहचानते है! वैसा ही तमोगुणी अज्ञानता करके मनोचंचलता का हेतु है इस आवरण दोष! इस दोष हमारा अंदर स्थित परामात्मा
को भूलने कर देता है!
रजोगुण का हेतु
और अहंकारपूर्ण है ए विक्षेपण दोष! रागद्वेषाएं, सुखदुःखो, स्वार्थ, प्रेम,
वात्सल्य, दया, संतोष, तृप्ति, असंतृप्ति, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य
कर के अरिषड्वर्गाएं इत्यादि विक्षेपण दोष कहते है!
इन मला, आवरण और
विक्षेपण दोषों का हेतु
कारण शरीर को 1) देहावासना यानी
कर्त्रुत्व भोक्त्रुत्व, 2) धन, पुत्र और धारा करके ईषणात्रयम् 3) शास्त्रवासन, 4) लोकवासनाएं लभ्य होता है! इन का कारण अविद्या, भय और अहंकार इत्यादि
अस्मिता,रागद्वेष और अपना शरीर का उप्पर मोह और अभिनिवेश लभ्य होता है!
तस्मान्नार्हावयम्
हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबांधावान्
स्वजनं ही कथं
हत् सुखिनः स्याममाधवा .
37
मा का अर्थ
प्रकृति, धव का अर्थ भर्ता,
ब्रह्मांड को
चेतन देनेवाला चैतान्यमूर्ती कृष्णा, उप्पर दिया हुआ कारणों का हेतु हम हमारा
बन्धुजन दुर्योधनादोम् को मारने योग्य नहीं है! हमारा ही बन्धुजन को मार के हम
कैसा सुख प्राप्ति कर सकते है!
हमारा अंदर का
काम क्रोध इत्यादि को मार के मनुष्य कैसा सुख प्राप्ति कर सकते है!
हमारा आदतों का
हेतु संस्कारों है! संस्कारों का हेतु मनुष्य इन्द्रिय प्रलोभो का वश में आता
है! अपना इच्छाशक्ति से इस को अधिगमन करने
को साधना को उपक्रम करता है!
शराब पीने शराबी
को कुछ न कुछ बहाना चाहिए, वैसा ही साधना में असफलता अथवा बलहीनता का हेतु साधक उस
को छोड़ने के कारण डूंढता है! ए सभी तर्क इसीलिए लाता है!
यद्यप्येते
नापश्यन्ति लोभोपहतचेतसः
कुलक्षयकृतं
दोषं मित्रद्रोहेचा पाताकः 38
कथं न
ज्ञेयमस्माभिः पापादास्मान्निवर्तितुं
कुलक्षयकृतं
दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दाना 39
हे कृष्णा, अगर
राज्यलोभ से भ्रष्टचित्त होंकर वंशनाश का वजह से होने दोष को और मित्रद्रोह से
होने पाप और अनर्थ को नहीं जानने से भी, उन् दोनों का अच्छी तरह जाननेवाले हम
क्यों युद्ध विरामिण नहीं करणा है मुझे समझ नहीं आरहा है!
पाप और पुण्य
दोनों परमात्मा का अधीन में हुए माया सृष्टि का लीलाओं है! अरिषड्वर्गाएं यानी
दुर्योधनादियोम् इन्द्रियाजात है! ओ मन का माध्यम सा अपना अपना कार्य करते जाएगा!
ओ कभी कभी अवसर से अधिक व्यक्तीकरण कर सकता है! केवल इसी हेतु इन को मारने से फिर
सुख और दुःख को व्यक्तीकरण करने के लियें माध्यम नहीं होगा!
ये अधिक मात्रा
से स्पंदन कर के पाप खट्टा किया करके युक्तायुक्तविचक्षणाज्ञान् होने हम भी इस पाप
क्यों करणा है? और इस पाप को क्यों इकट्टा करना है!
पाप और पुण्य
भोगने एक तरफ इन्द्रियाविशायालोलता, दूसरी तरफ समझने युक्त बुद्धि भी जिस के लिए
साधारण साधना दोनों का आवश्यकता है करके गलत शोचता है संदिग्ध साधक! विष भी लेलो
और उस का ठीक करने अमृत भी पीलो, ऐसा है ए स्थिति!
चंचलता सभी में
अधिक दुष्ट है! ओ हमारा दृष्टि को प्रापंचिक विषयों में पूर्ति निमग्न करके मनुष्य
को अज्ञान में डूबा के परामात्मा से दूर रखेगा! क्रमबद्ध से ध्यान करते रहने से हम
सर्वदा परामात्मा में रहेंगे!
दुष्ट छीजो के अपना
शक्ति होता है! प्रलोभ का वश होने से विवेक का बंदी होंकर बलहीन होजाता है!
इच्छावों मनुष्य का बद्ध शत्रु है! इन्द्रियों को संतृप्ति करवाते जाने से ओ और भी
इच्छित होते रहेंगे और इन को संतृप्ति करना दुस्साध्य है!
मनुष्य इन्द्रिय
नहीं है! इन्द्रियों मनुष्य का केवल सेवक मात्र है! मनुष्य ए सभी को अतीत हुए
शुद्ध आत्म, एही इसका निजस्वरूप है!
प्रलोभ मानव
सृष्टि नहीं है! परामात्मा का अधीन हुए माया का सृष्टि नहीं है! सृष्टि है! सभी
मानव माया का वश होते है! माया का अधीन से बाहर आने परमात्म ने अंतरात्मा, बुद्धि
और संकल्पशक्ति दिया है! देहभाव और शरीरसौख्य में डूब के आत्मा को भूल जाना ही
प्रलोभ कहते है! प्रलोभ मिठासी विष है!
प्रापंचिका सुख
से परामात्मा में ऐक्य होना ही शास्वत आनंद है! परामात्मा ऐक्य से लभ्य होने
शाश्वतानंद का समान और कोई छीज इस जगत में नहीं है! आज नहीं होने से कल परामात्मा
का तरफ जाना हे है! ओ दिन आज का ही दिन क्यों नहीं है? हम परामात्मा का संतान है, ओ साधना शक्ति
परामात्मा हमें अवश्य दिया है!
कुलक्षये
प्रणश्यन्ति कुलाधार्मास्सनातनाः
धर्मेनष्टे
कुलंकृत्स्नं अधर्मोभिभवत्युता 40
अधर्माभि भवात्
कृष्ण प्रदुश्यंति कुलस्त्रियः
स्त्रीषु
दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः 41
सम्करोनाराकायैव
कुलघ्नानाम् कुलस्यच
पतंति
पितरोह्येषाम् लुप्तापिंडोदकक्रियाः 42
हे कृष्णा, कुल
नाश् होने अनादि से आने कुलाधार्मो खतम हो जाएगा, धर्म विनाश होने से कुल में
अधर्म व्याप्ति होगा! अधर्म वृद्धि होने पर कुलस्त्रीयां अपवित्र हो जाएगा!
स्त्रीयां अपवित्र होने से वर्णसंकर हो जाएगा! ऐसा वर्णसंकर करनेवाले और वर्णसंकर
हुए कुल दोनों को नरक प्राप्ति होंगे! उन् का पितृ देवतायें बिना श्राद्ध,
तर्पणादि नहीं लभ्य होंकर अथोगति प्राप्त होंगे!
वार्ष्णेय :---
निपुणता, शक्तिशाली, और बलवान
जनार्दन:---
साधको का प्रार्थना सुननेवाले
साधना में
अनेकानेक संदेहों उत्पन्न होंगे!
पंचज्ञानेंद्रियाँ,
पंचकर्मेन्द्रियाँ, पंचतन्मात्राओं, पंचप्राणों और अन्तःकरण ए सभी को कुल कहते है!
ए सभी को अपना
अपना धर्म होते है! उन् का धर्म नीचे दिया हुआ है!
पंचज्ञानेंद्रियाँ:--
कान, चर्म, नेत्र, जीब और नाक
पंचकर्मेन्द्रियाँ:--
मुख(बोलने शक्ति), पाद(गमनशक्ति), पाणी( काम् करनेशक्ति), पायु(विसर्जनाशक्ति), और
लिंग(आनंदशक्ति)
पंचतन्मात्राओं:--
सुनानेशक्ति, स्पर्शाशक्ति), देखानेशक्ति), रुचिशक्ति और सूंघनेशक्ति)
पंचप्राणों:--
प्राण(स्फाटिकीकरण), अपान(विसर्जन), व्यान(प्रसरण), समान(स्पांजीकरण) और
उड़ान(जीवानुपाक)
अन्तःकरण:-- मन,
बुद्धि, चित्त और अहंकार
साधना में ए सभी
को ठीक काम नहीं होने पर आलसी होके उन् का
अपना अपना कुलधर्म नाश् होंकर कामं खतम होके स्त्रियाँ अपना अपना विषय वांछाए नहीं
अनुभव होने पर अपवित्र होजायेगा करके
भौतिक्वादन लाता है साधक इधर!
स्त्री:--- स् +
र + त = सत्व + राजस् + तमो गुण
कामं को अधीन
में रखने का अर्थ नपुंसक होना नहीं!
साधारण तोड़ पर
स्त्री में भावावेश अधिक और तार्किकता स्वल्प होते है!
पुरष में
भावावेश स्वल्प और तार्किकता अधिक होते है!
मगर किसी स्त्री
में भावावेश स्वल्प और तार्किकता अधिक हो सकते है! इस का अर्थ स्त्री रूप में हुआ
पुरुष का शरीर है! वैसा ही किसी पुरष में भावावेश अधिक और तार्किकता स्वल्प हो
सकते है! इस का अर्थ पुरुष रूप में हुआ स्त्री का शरीर है!
ध्यान का माध्यम
अंतर्मुख हुआ अन्तःकरण द्वारा परमात्मा का अद्भुत शक्ति इन्द्रियों को लभ्य होता
है!
मन, बुद्धि,
चित्त और अहंकार हमारा पूर्वजोँ है!
तर्पण का अर्थ
अंतर्मुख हुआ प्राणशक्ति!
नियमपालन करके
उत्साहभरित तीव्र आध्यात्मिक साधनाएँ पिंडों है!
तर्पण, पिंडों
साधक का इन्द्रियों को अमित शक्तिवंत करते है!
अन्तर्मुख नहीं हुआ अन्तःकरण को अद्भुताशाक्तियां नहीं लभ्य होंगे! उपयोग
में नहीं हुआ लोहा को जंग रखने जैसा क्रमशः इन्द्रियों शक्तिहीन होके आखरी में
निरुपयोग होंगे! वैसा वैसा संदेहों साधक को उत्पन्न होता है!इन सभी संदेहों का मूल
कामं(दुर्योधन) है!
तीव्र ध्यानायुक्त योगी अपना आत्मनिग्रहशक्ति से प्राणशक्ति को नियंत्रण
करके, प्राणशक्ति को इन्द्रियों के बाहर नहीं जाने देगा! और इस शक्ति को अंतर्मुखी
कर के कूटस्थ में केंद्रीकृत कर के अद्भुत ज्योतिदर्शन प्राप्ति करेगा!
हमारा पूर्वजों को देनेवाले असली तर्पणादि एई है!
दोषैरेतैः
कुलाघ्नानाम वर्ण संकरकारकैः
उत्पाद्यानते
जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः 43
उत्पन्नाकुलधर्मानाम्
मनुष्याणां जनार्दना
नरकेनियतम् वासो
भवतीत्यनुशुश्रुमः 44
हे कृष्णा,
कुलानाशकोम का जाति संकार्य हेतु इन दोषों का वजह शाश्वत जातिधार्मो, कुलाधार्मो,
इत्यादि सर्वनाश हो जायेगा! वैसा कुलधर्मों विनाश हुआ मनुष्यों को शाश्वत नरक
निवास लभ्य होंगे करके हम सूना हुआ है!
पूर्वजों का
अर्थ मनो, बुद्धि, चित्त और अहंकार सहित जीवात्म, इन्द्रियों उनके संतान है, और . इन्द्रियों का संतान इच्छाएं!
इन्द्रियों का
अपना अपना काम्यकर्म ही पूर्वजों यानी अन्तःकरण तृप्ति के लिए देने तर्पणॉ
इत्यादि!
समाधि में इन
कुलों को काम नहीं होने पर पूर्वजों को तर्पणॉ देने कोई नहीं शेष रहेगा करके गलत
शोचता है साधक! .
यदार्थ में अपना
साधना का माध्यम से इन्द्रियों द्वारा बाहर जाने प्राणशक्ति को अंतर्मुख करके
सुषुम्ना का माध्यम से कूटस्थ में केंद्रीकृत करके महाभारत यानी महा प्रकाश अथावा
अद्भुत ज्योति का दर्शन प्राप्त करेगा! इस ज्योति दर्शन प्राप्ति करणा ही आत्मा के
हम देने असली तर्पण है!
चक्रध्यान:--
न अति
ऊंछा न अति नीचे होनेवाली आसन में बैठना चाहिए! पैर नीचे जमीन को सीदा स्पर्शन्
नहीं करना है! जुराब पहना चाहिए! मेरुदंड को सीदा रखना है! सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे
ज्ञानमुद्रा लगा के बैठिए! अनामिका अंगुलि के आग्रभाग को अंगुष्ठ के आग्रभाग से
लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। कूटस्थ मे दृष्टि रखीए! मन को जिस चक्र मे
ध्यान कर रहे है उस चक्र मे रखिए और उस चक्र मे तनाव डालिए! पूरब दिशा अथवा उत्तर
दिशा की और मुँह करके बैठिए! शरीर को थोडा ढीला रखीए! गर्दन को पीछे मोड़ के
अधिचेतानावस्था में बैठिए!
गुरुमुखतः क्रियायोग सीखिए! अब एक एक चक्र में ध्यान करते हुए
सहस्रार्चक्र तक जाइए!
एक श्वास + एक निस्श्वास = एक हंसा!
मनुष्य साधारण तोड़ में दिन में 21,600 हंसा यानी एक मिनट में 15 हंसा
करते है!
15
हंसा करने से भोगी कहलाते है!
15
हंसा से अधिक करने से रोगी कहलाते है!
15
हंसा से कम करने से योंगी कहलाते है!
कछुआ पूरा दिन में 15 हंसा
से कम करते है! इसीलिए अगर कोई नहीं मारने से 1000
वर्ष जीता है! साधक वैसा ही प्राणायाम प्रक्रिया का माध्यम से अपना जीवन समय को
अधिक करसकता है! आरोग्य रहेगा! परमात्मा से अनुसन्धान करसकता है!
कुलों
मनुष्य का मेरुदंड में स्थित चक्रों
जंक्षन बाक्सेस (Junction boxes) जैसे है!
परमात्म चेतना सहस्राराव्हाक्र में मेडुल्ला(Medulla) का माध्यम से प्रवेश करता है! सहस्राराचक्र
परमात्म चेतना भान्डार है! उधर से परामात्म चेतना कूटस्थ स्थित आज्ञा पाजिटिव चक्र
में प्रवेश कर के उधर से आज्ञा नेगटिव चक्र में प्रवेश करता है! पश्चात् ए चेतना
मेरुदंड स्थित विशुद्ध, आनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान और मूलाधार चक्रो मे अवसर का
मुताबिक़ विभाजित होता है!
तत् पश्चात् शरीर का नाड़ी केन्द्रों, उधर से नाडियों में, अंग अंगों में
भेजा जाता है!
मेरुदंड स्थित विशुद्ध, आनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान और मूलाधार चक्रो को
कुल कहते है!
कुण्डलिनी का पूँछ उप्पर चक्रों में और शिर मूलाधार का साथ नीचे होते है!
साधक अपना साधना का माध्यम से इस निद्रावस्था स्थित कुण्डलिनी को जागृति कर के शिर
उप्पर चक्रों में और पूँछ नीचे चक्रों में लाता है! ऐसा जागृती हुआ कुण्डलिनी
शक्ति जिस चक्र तक जाने से इतना साधना में आगे बढ़ेगा साधक!
जो मनुष्य बिलकुल योगसाधना नहीं कर के अपना कीमती समय गपशप में व्यर्थ
करता है, उस का कुण्डलिनी निद्रावस्था में होता है और असली में ऑई शूद्र है और
कलियुग में रहनेवाला गिना जाता है! उन् का ह्रुदय काला है कर के परिगण में लेता
है!
साधना का हेतु जागृती हुए कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार चक्र को स्पर्श करने से
उस साधक अपने को परामात्मा का साथ अनुसन्धान करने प्रतिकूल शक्तियों को प्रतिघटन
करने क्षत्रिय का समान है! ओ कलियुग में ही है, फिर भी क्षत्रिय है! उस का ह्रुदय
स्पंदना ह्रुदय है! `
साधना का हेतु जागृती हुए कुण्डलिनी शक्ति स्वाधिष्ठान चक्र को स्पर्श
करने से उस साधक पुनर्जन्म लिया द्विज का समान है! ओ द्वापरयुग में है! उस का
ह्रुदय स्थिर ह्रुदय है!
साधना का हेतु जागृती हुए कुण्डलिनी शक्ति मणिपुरचक्र को स्पर्श करने से
उस साधक वेदापारायाण करने योग्य विप्र का समान है! ओ त्रेतायुग में है! उस का
ह्रुदय श्रद्धा सहित भक्ती ह्रुदय है! `
साधना का हेतु जागृती हुए कुण्डलिनी शक्ति आनाहतचक्र को स्पर्श करने से उस
साधक ब्रह्मज्ञान पाने योग्य ब्राह्मिण का समान है! ओ सत्ययुग में है! उस का
ह्रुदय स्वच्छ ह्रुदय है!
इस प्रकार में शूद्र, क्षत्रिया, वैश्य, शूद्र कुलों उन् का अपना अपना
साधना क प्रगति का मुताबिक़ विभाजन किया!
योंग साधना क प्रगति को त्याग कर कालक्रम में माता पिताओं का कुल का
मुताबिक़ कुल निर्णय देश का ऐक्य और भद्रता का हानी का हेतु होते है! .
अहोबत महात्पापम् कर्तुं व्यवसितावयम्
यद्राज्यसुखालोभेन हन्तुं स्वजनामुच्याताः 45
यदिमामप्रतीकार
मशस्त्रम शास्त्रपाणयः
धार्तराष्ट्रारणे
हन्युस्तान्मे क्षेमतरं भवेत् 46
हां, राज्यलोभ
और सुख का आशा से हम अपना ही बंधुजनों का ह्त्या करने महापाप को संकल्प किया है!
निरायुध होके
प्रतिघटन नहीं करने खड़ा हुआ मुझे ए दुर्योधानादियों आयुधो धर के ह्त्या करने सिद्ध
होने से भी ओ मुझे क्षेमतर ही होगा!
अष्टविधविवाहों:--
1)ब्राह्मं :-- वधु वरों दोनोँ का परस्पर अंगीकार से बुजूरुगों का समक्ष में
करने विवाह को ब्राह्मं कहते है!
2)दैवं:- बुजूरुगों का अनुमति से
करने विवाह को दैवं: कहते है!
3)आर्षं:-- वर का पास धन ले कर करने विवाह को आर्षं: कहते है!
4)प्राजापत्यं:-- यज्ञ यागादि करतू करने भार्या अवश्य है करके करने विवाह को
प्राजापत्यं: कहते है!
5)आसुरं :-- राजा का श्रेयस्कर का हेतु वधु वरों दोनोँ को आर्धिका सहायता
करके करने विवाह को आसुरं कहते है!
6)गान्धर्वं:-- वधु वरों दोनोँ इष्ट होंकर समय और नियमपालन नहीं करके,
बुजूरुगों का अनुमति हो न हो, करने विवाह को गान्धर्वं कहते है!
7)राक्षसम् :-- कन्या को जबरदस्ती उठाके लेजाके करने विवाह को राक्षसम् कहते
है!
8)पैशाचिकं:-- कन्या को नशीले छीजॉ खिलाके करने विवाह को पैशाचिकं कहते है!
योगसाधना में वृद्धि नहीं होने व्यक्ति का ऐसा गलातक तर्क का प्रयोग करता
है!
इन्द्रिय विषयलोलुप आदत हुवा इन्द्रियों, संबंधित तंत्रिका केन्द्रों और
तंत्रिकाओं इत्यादि साधना का हेतु स्तब्ध होंकर निष्काम होके निरुपयोगी होंगे! इधर
विषयानंद भी खो बैठना और उस तरफ परमानंद भी खो बैठना यानी दोनों तरफ से नुकसान ही
इस का नतीजा है कर के भावना करेगा इधर असफल साधक!
इसीलिए आगे कुछ परमानंद प्राप्त होगा करके इन सभी को स्तब्ध
करना और जो हाथ में दिया हुआ विषयानंद को
त्यागना पापा है करके गलत सोचेगा!
.
विशायावान्छी
अंधा मन(धृतराष्ट्र) को तृप्ति का हेतु कितना भी इन्द्रियों को दुरुपयोग करने से
भी कोई लाभ नहीं होंगे!
संजय उवाच:--
संजय ने कहा:--
एवंउक्त्वार्जुनस्संख्येरथोपास्ता
उपाविशत्
विसृज्य सशरं
चापं शोक सम्विग्नमानसः 47
हे ध्रितराष्ट्र
महाराज, युद्धभूमि में अर्जुन ने इस प्रकार कहा कर, शोक से विछलित हो कर बाण का
साथ धनुष भी छोड़ के बैठ गया!
अर्जुन(आत्मनिर्भरता)
अपना ध्यान के लिए सीधा रखा हुआ मेरुदंड (गांडीव धनुष) को और अज्ञान विनाशी
अंतर्मुख होने उपयोगी प्राणायाम प्रक्रियों कर के बाणों, सभी को विसर्जित कर के साधारण मनुष्य का शरीर(रथ) से आसनारहित
होंकर बैठ गया! आसना पातांजलि अष्टांगयोग में तीसरा अंग है!
ॐ तत् सत् इति
श्रीमद्भगवाद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायाम योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे
अर्जुन विशादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः
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